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मानुषगंध

प्रफुल्ल प्रभाकर

प्रकाशक : अनु प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :112
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5688
आईएसबीएन :81-88099-52-

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प्रस्तुत है कथा-संग्रह....

Manushgandh

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

*स्त्री की दुनिया में वैश्वीकरण और वैश्वीकरण की दुनियाँ में स्त्री की अवस्थित ने कुछ प्रश्नों ने, कुछ दुविधाओं ने तथा मानवीय संघर्षों को जन्म दे दिया है, तथापि स्त्री के शक्तिकरण के क्षेत्र में अप्रतिम उपलब्धियाँ प्राप्त हुई हैं। स्त्री में पुरुषों के बीच ग़ैर-बराबरी में भी कमी आई है। वह अब किसी पुरुष के वंश चलाने के लिए मात्र एक फ्रजननकारी कोख भी नहीं रही, उसकी यौनिकता को एकअदद पुरुष तक  सीमित रखने के लिए जो बन्धन हैं, वे भी शिक्षा के कारण और मानवाधिकार के ऊर्जस्वी होने से ध्वस्त होते जा रहे हैं। ‘मानुषगंध’ में चौदह साहित्यकारों की सत्ताईस कहानियाँ मरणासन्न संवेदनाओं को झकझोरने में सफल रही हैं। कथा साहित्य व्योम में मनुष्य-मनुष्य के बीच ममत्व और अपनत्व के रिश्तों को अलगाव और अजनबीपन में हो रहे रूपान्तरण को ये कहानियाँ कल्पनाशीलता और सृजनात्मक के साथ व्याख्यायित करती हैं।

*आदिकाल से ही स्वायत्ताता को पुरुष की स्वायत्तता का ही पर्याय माना जाता रहा है, स्त्री जाति के लिए स्वायत्तता और स्वतंत्रता की जरूरत ही नहीं समझी गयी। पर आज वे अपने अधिकारों के लिए घर-परिवार की देहरी लाँघ कर बड़ी से बड़ी अदालत के दरवाज़े खटखटा रही हैं। वे घर से बाहर निकल कर कमाती-खाती हैं। तथापि अधिकांश महिलाएँ लड़ाई, संघर्ष, हिंसा के नाम तक से की कतराती हैं पर ‘मानुषगंध’ के अवगाहन से यह बात स्पष्ट रूप से समझ में आ जाती है कि बिना व्यवस्था विरोध और अपनी अस्मिता की रक्षा किए कालजयी रचना का सृजन असम्भव है। इन कहानियों का वैशिष्टय और सौन्दर्य कथाकारों की विलक्षणा प्रतिभा का प्रसाद है।

-श्रीकृष्ण शर्मा

अध्यक्ष ‘शब्द संसार’


दो शब्द-


प्रस्तुत कथा संग्रह मानुषगन्ध राजस्थान के वरिष्ठ एवं स्थापित साहित्यकारों, कहानीकारों का विशेष संपादित संग्रह है। इसमें संकलित कहानियों पर मैं संपादक के रूप में अधिक कहने की स्थिति में नहीं हूँ क्योंकि संग्रह में समाहित कथाकारों ने मेरे आग्रह पर स्वयं ही श्रेष्ठ कहानियों को ही संकलन में जोड़ने के लिए प्रेषित की हैं।
कहानियों में जीवन, उसमें व्याप्त भावुकता, मानवीयता, पारिवारिक, सामाजिक सम्बन्धों में व्याप्त विसंगतियों, के साथ ही उनमें जीवन के प्रति आत्मीयता, अपनेपन की मिठास भी है।
सभी कथाकारों के प्रति उनके सक्रिय सहयोग के लिए मैं आभारी हूँ।
पाठकों को संग्रह अपने नवीन रूप, साज-सज्जा, प्रस्तुतीकरण अच्छा लगेगा, मेरा मानना है। आपसे मेरी अपेक्षा है कि आप कहानियों को पढ़कर स्वयं निर्णय करें कि संग्रह कि कथा संग्रह कैसे बन पड़ा है।
धन्यवाद।

-प्रफुल्ल प्रभाकर


मौन कोलाहल का वंश


 
आज वह बहुत खुश था। लगातार कई दिनों से काम था कि जोंक की तरह चिपक रहा था। मुश्किल से राहत मिली थी। वह दोनों आर्थिक चिंताएँ भी किसी हद तक दूर हो गयी हैं। जो दामन पर जंगली झुरमुट की तरह पैबन्द थी। तभी तो आज का सूरज बड़ा सुहाना लग रहा था और खिड़की में बिछी धूप वाह ! जैसे किसी सन्नाटे उलीच कर ताज़ा हवा के हाथों वहां हरे-नीले-पीले फूलों का फूलदान रखवा दिया हो और खिलखिला कर हँसती हुई धूप की केसर ने झटकेदार लश्कारा मारा हो। क्या बात है आज ? वक़्त को पूरी कोशिश यही करनी चाहिए कि हँसी-खुशी देकर आदमी को एक ओस भीगी ताजा ख़ुशबूदार सुबह चुपचाप सिरहाने रख दे ताकि दिन भर की दौड़-धूप को आसानी से जीता जा सके।

दैनिक कार्यक्रमों को भूली-बिसरी मीठी धुनों पर गुनगुनाकर पूरा किया। प्रेस किए बढ़िया कपड़े पहने। जूते ऐसे चमचमाए कि आईना भी लज्जा उठा। बड़े करीने से दिनों बाद बाल सँवारे और कंघा करने से पहले एक वाचाल-सी घुँधराती लट माथे पर उकेर दी। आँखों में गुलाबी मस्ती तैर गई। रुमाल पर और कॉलर के आप-पास भीगी-भीगी सुगंध छिड़की। लम्बे शीशे के आगे खड़े होकर अपने व्यक्तित्व का एक बार और मुआयना किया। ठीक भी है।.... इतनी सावधानी रखना आज ज़रुरी है। कल हिन्दी के प्रोफेसर डॉ. वरुण अवस्थी ने यहाँ भोजन के लिए आने को कहा था। जाने क्यों वह ‘नक चढ़ा फूटा लैम्प’ नाम से छात्रों के बीच चर्चित प्रोफेसर उसे बड़ी प्रियंकर दृष्टि से देखते हैं और कई बार घर आने को जोर देते हैं। चाय तो कई मर्तबा पी है और वहाँ जाकर, लेकिन भोजन का बुलावा जोर देकर कल उन्होंने दिया था। कल मतलब आज। वहाँ अब सिल-बिल उजबकों की तरह तो जाया नहीं जा सकता कि बंदूक से तने धूल-पसीने और सस्ते टैल्कम को बोसीदा गंध लिए दाँत निपोर दो कि मैं तुषार वंशी बुलाया गया हूँ और वह भी किसके सामने ?

हाँ, किसके  सामने-डॉ, साहब की इकलौती बेटी, बेटे और हो सकते हैं, लेकिन इकलौती नाम दूर्वा बड़ी नाजुक-सी, झरने-सी हँसी और खनखनाती सुरीली बातें। सुन्दरता में। हाँ, सुन्दरता में तस्वीरों में बनी हुई कोई अप्सरा कोई किन्नरी। तो वहाँ तो ठीक-ठाक ही जाना होगा न। प्रारम्भ होगी यात्रा महर्षि होस्टल से वहाँ से लेना है अनूप को। वह अपने प्रान्त जाएगा, हिमालय के किसी गाँव में। कई वर्षों बाद पढ़ाई समाप्त हुई है। जिगरी रहा दोस्त। इसलिए हफ़्तों से भावुकता में अधमरा हो रहा था, लौटकर अब क्यों आएगा ? उधर ही नौकरी और ज़िंदगी का बसेरा। बोला था कि दोस्त, तुम्हीं ने इस शहर में पाँच वर्ष पहले ट्रेन से उतारा था और जाते वक्त भी तुम्हीं ट्रेन में बैठाओगे। पत्रिका खरीद कर दोगे और चाय पिलाओगे। उसी को छोड़कर... भारी मन को सहज कर विष्णु के साथ थोड़ी देर कहवा घर में बैठकर तब डॉ. साहब के जाना होगा।

स्टेशन पर बड़ी भीड़ थी। आदमियों-औरतों को क्या और काम नहीं होता, जो पहाड़ भर सामान लादकर और बच्चों की उम्रों को थाम बहलाकर यों चल पड़ते है। सवारियों-कुलियों के आपस में कंधे खिल पड़ते हैं। सवारियों के लिए हॉकर्स ठेले अलग।
हम दोनों की हिम्मत पस्त हो गयी थी। पत्रिका के लिए मैगज़ीन स्टॉल पर जाकर पता लगा कि गाड़ी एक घंटा देरी से आयेगी। सारे मूड का पलस्तर उध़ड़ गया। सुबह की सहेजी खुशी थकने लगी थी। साथ में बिछुड़ने के दर्द ने वैसे ही हम दोनों के चेहरे लटका  रखे थे। बातों में चुहलबाजी और मिज़ाज की रंगीनी को जैसे दीमक चाट बैठी थी, ऐसे में वक्त काटना दूभर हो रहा था। सच तो यह था कि हम दोनों शिद्दत के साथ रेल की पटरी पर बिछे इन्तज़ार को जल्दी-जल्दी समेटना चाह रहे थे लेना चाह रहे थे, मुक्ति की एक आजाद साँस....
आखिर रेल आई....उसकी रफ्तार ने हिला दिया, कलेजे धड़धड़ा उठे थे।

क्या वाकई गति में इतनी घबराहट, इतना भय और इतना विकट आकर्षण होता है ? पूरे प्लेटफार्म पर हलचल मच गई थी। डिब्बा आरक्षित था। अनूप को आराम से बैठ कर उसकी पसन्द के अंगूर और सेब भी भर दिए। हम दोनों की आँखों में चैन का अलगोजा तरंगें ले रहा था। उत्साह फिर होठों पर घूमने लगा था। रेल ने सीटी दी। हमने हाथ मिलाए। रेंगती त्वरा ने हमारे हाथों को अलग कर दिया..... जाओ अनूप- अपनों के बीच पहुँचकर नए-नए प्रश्न अर्थ बुनों।
अपने आप एक फुर्सती साँस धीरे से निकल गई। लम्बी थकान के बाद मुक्ति के आनन्द का स्वाद कितना बढ़िया होता है। इत्मीनान से बैठकर जूस पिया..... धीरे-धीरे बूँद-बूँद......। अब। चला जाए खरामा-खरामा अवस्थी साहब की हवेली की ओर। हवेली। नहीं जी .....लम्बे चौड़े हरे मखमली लॉन पर सजी जहाज़नुमा कलात्मक शैली की कोठी।
तभी पीछे से किसी ने पुकारा। घर का नाम लेकर ....अरे, छोटू ......अरे छोटू कौन हो सकता है, जो उसका बचपन में मौसी का दिया घरेलू नाम लेकर पुकार रहा है ? मुड़कर देखा तो आँखों पर विश्वास नहीं हुआ। होता भी तो कैसे ? वर्षो बाद अपने शहर के स्टेशन पर ढेर सारे सामान के बीच विशाखा चाची ही थी ......मेरठ वाले मामाजी की पड़ौसन। अरे बिटर-बिटर क्या देख रहा है ? पहचाना नहीं क्या ? इधर आ ना, वहीं गोल-मटोल गोरा चेहरा और वहीं हँसती मुस्कराती खिली-खिली आँखें।

उसने आगे बढ़कर जल्दी से झुककर उनके पाँव छुए। उन्हें यहाँ पाकर बड़ी ही अचरज हो रहा था।
आप इधर चाची जी ! पहचान गया था पूरी तरह, लेकिन इधर यों अचानक देखकर बस हैरान रह गया था। मन का उत्साह चेहरे पर छा गया था।
‘‘हाँ रे, बीच में काफी साल गुज़र जो गए। क्यों छोटू, हम लोग कोई ग्यारह-बारह वर्ष बाद मिले होंगे। तू यहाँ ठीक तो है न। सिर पर हाथ फिरा-फिरा कर उन्होंने मुझे आशीषों से भर दिया था।

उसने उनके स्नेह से गदगद होकर फिर हाथ जोड़ दिये थे। एक खाली बैंच के पास उनका सारा समान गिन कर सम्भाल कर रख दिया और रूमाल से बैंच पोंछ कर उन्हें बैठाया। चाची की रेलगाड़ी आने में  भी एक डेढ़ घंटे की देरी थी।
दो गिलास में गर्म चाय और नमकीन बिस्कुट लेकर वह भी उन के पास बैठ गया था। वह हँस पड़ी कि आज तक भूला नहीं कि वह मीठे बिस्कुट नहीं लेती हैं और हमेशा जीरे के नमकीन बिस्कुट चलते हैं .....क्यों ? वह मुस्करा भर गया था।
‘‘आपको देखकर अब भी यकीन नहीं हो रहा है कि मेरे इस सहर में आप आई क्या ? हैरानी अब तक तक दूर नहीं हुई थी।
नहीं रे, रुकने का तो प्रश्न ही नहीं है छोटी। मुझे क्या यों ही आना पड़ा है ? जीजा जी तबादला हो गया है इधर प्रतापगढ में और तेरे चाचा जी गए हैं दौरे पर। जीजी आते ही पड़ गई बुखार में। बस दे दिया तार कि फौरन चली आ। रोटी वहाँ खा, तो पानी यहाँ पी। तार और चिट्ठी दोनों पाकर वहाँ रुका जावे था। सो भागी हूँ। आवाज़ में थकान झलक रही थी।
तो फिर चलो कमरे पर’’ वह जिद्दी बालक सा झूम उठा।

‘‘अरे पागल ....घर से निकले पूरे सोलह दिन हो गये हैं। हाँ जीजी का बुखार जाता रहा है। सयानी लड़कियाँ हैं, रे वे ही चटर-मटर सी थी न, हीरा और डुक्की। अब बड़ी नहीं होंगी रे ....वहीं निर्मल हँसी से भरा उसका चेहरा दमक रहा था।  
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