स्वास्थ्य-चिकित्सा >> मनोरोग मनोरोगमनजीत सिंह भाटिया
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मनोरोग चिकित्सा पर आधारित ...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
हमारे देश में मनोरोग विज्ञान अभी तक अल्प विकसित अवस्था में है। मनोरोगों
के बारे में आम व्यक्ति की जानकारी गलत धारणाओं से भरी है। यह
दुर्भाग्यपूर्ण है कि वह आज के वैज्ञानिक युग में भी भूत-प्रेत, ऊपरी
साया, देवी-देवता, मौसम, नक्षत्र, भाग्य, बुरे कर्मों का फल आदि को इन
रोगों का कारण मानता है। इसलिए हमारे देश में ओझा, पुजारी, मौलवी, साधु,
नकली वैद्य, नीम-हकीम, अप्रशिक्षित यौन-विशेषज्ञ इत्यादि अवैज्ञानिक रूप
से मनोरोग चिकित्सकों का कार्य कर रहे हैं। सामान्य चिकित्सक एवं
चिकित्सा-विशेषज्ञ मनोरोगों को सही समय पर पहचानने तथा रोगियों को मनोरोग
चिकित्सक के पास भेजने में प्राय: असमर्थ हैं। इसके कई कारण हैं; जिनके
प्रमुख हैं धन लोलुपता, अपर्याप्त जानकारी, अपर्याप्त प्रशिक्षण
मनोचिकित्सकों की कमी, गरीबी, रोगी या उसके रिश्तेदारों द्वारा मनोरोग को
स्वीकार न करना, आदि।
हमारे देश की 100 करोड़ से अधिक आबादी पर मात्र लगभग 4000 मनोरोग चिकित्सक हैं। यह संख्या बहुत कम है। भारत में 42 मनोरोग के अस्पताल हैं जिनमें लगभग बीस हजार बिस्तर हैं। हाल ही में सभी सरकारी अस्पतालों में मनोरोग चिकित्सा प्रदान करने की योजना बनायी गयी है ताकि मनोरोगियों को सामान्य अस्पतालों में ही चिकित्सा प्रदान की जा सके। परन्तु मनोरोग चिकित्सकों का काफी समय और मनोरोग चिकित्सालयों को मिलने वाली काफी अधिक सहायता नशेड़ियों के उपचार में खर्च हो जाती है। समाचार-पत्र तथा अन्य प्रचार-प्रसार माध्यम भी लोगों को मनोरोगों के बारे में सही जानकारी देने में असफल रहे हैं। परिणामस्वरूप लोगों में इन रोगों के बारे में डर व अज्ञानता की गलत धारणाएं दूर नहीं हुई हैं।
जनसाधारण को मनोरोगों के बारे में सही जानकारी प्रदान करना इस पुस्तक का मुख्य उद्देश्य है ताकि विभिन्न मनोरोगों की समय पर पहचान करके उनका उचित उपचार किया जा सके और इनसे होने वाले व्यक्तिगत, पारिवारिक, आर्थिक, सामाजिक एवं कानूनी जटिलताओं की समय रहते रोकथाम की जा सके।
मनोरोगों के विषय में जनसाधारण में व्याप्त मिथ्या धारणाओं की धुंध जरा-सी भी छंट सके तो इन रोगों की पूर्ण चिकित्सा की संभावनाएं बढ़ जायेंगी। यदि इस पुस्तक के कारण एक भी मनोरोगी स्वस्थ होकर सामान्य जीवन व्यतीत करने लगे तो यह पुस्तक अपने उद्देश्य में सफल होगी।
पुस्तक को जनसाधारण के हाथों में पहुंचाने के उद्देश्य से ही इसे मूलत: हिन्दी में लिखा गया है।
हमारे देश की 100 करोड़ से अधिक आबादी पर मात्र लगभग 4000 मनोरोग चिकित्सक हैं। यह संख्या बहुत कम है। भारत में 42 मनोरोग के अस्पताल हैं जिनमें लगभग बीस हजार बिस्तर हैं। हाल ही में सभी सरकारी अस्पतालों में मनोरोग चिकित्सा प्रदान करने की योजना बनायी गयी है ताकि मनोरोगियों को सामान्य अस्पतालों में ही चिकित्सा प्रदान की जा सके। परन्तु मनोरोग चिकित्सकों का काफी समय और मनोरोग चिकित्सालयों को मिलने वाली काफी अधिक सहायता नशेड़ियों के उपचार में खर्च हो जाती है। समाचार-पत्र तथा अन्य प्रचार-प्रसार माध्यम भी लोगों को मनोरोगों के बारे में सही जानकारी देने में असफल रहे हैं। परिणामस्वरूप लोगों में इन रोगों के बारे में डर व अज्ञानता की गलत धारणाएं दूर नहीं हुई हैं।
जनसाधारण को मनोरोगों के बारे में सही जानकारी प्रदान करना इस पुस्तक का मुख्य उद्देश्य है ताकि विभिन्न मनोरोगों की समय पर पहचान करके उनका उचित उपचार किया जा सके और इनसे होने वाले व्यक्तिगत, पारिवारिक, आर्थिक, सामाजिक एवं कानूनी जटिलताओं की समय रहते रोकथाम की जा सके।
मनोरोगों के विषय में जनसाधारण में व्याप्त मिथ्या धारणाओं की धुंध जरा-सी भी छंट सके तो इन रोगों की पूर्ण चिकित्सा की संभावनाएं बढ़ जायेंगी। यदि इस पुस्तक के कारण एक भी मनोरोगी स्वस्थ होकर सामान्य जीवन व्यतीत करने लगे तो यह पुस्तक अपने उद्देश्य में सफल होगी।
पुस्तक को जनसाधारण के हाथों में पहुंचाने के उद्देश्य से ही इसे मूलत: हिन्दी में लिखा गया है।
मनजीत सिंह भाटिया
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पृष्ठभूमि
आइये, सबसे पहले पुस्तक में प्रयुक्त विभिन्न शब्दों, तकनीकी शब्दों एवं
भावों से संबंधित परिभाषाओं को संक्षेप में जान लें। विषय को गहराई से
समझने के लिए इन्हें जानना आवश्यक हैं।
मनोरोग चिकित्सा :
चिकित्सा विज्ञान की एक महत्वपूर्ण शाखा जो
कि मनोरोगों
के उपचार, निदान एवं निवारण से संबंध रखती है।
मनोविज्ञान :
विज्ञान की वह शाखा जिसमें मन की सामान्य क्रिया का अध्ययन
किया जाता है। मनोवैज्ञानिकों के प्रशिक्षण के लिए चिकित्सा का ज्ञान
जरूरी नहीं है, इसलिए मनोवैज्ञानिक अक्सर केवल मनोरोगों की जांच-पड़ताल (न
कि उपचार) में सहयोग देते हैं।
मनोविश्लेषण :
मनोरोगों की उत्पत्ति के कारणों का पता लगाने की एक विधि जो
कुछ प्रकार के मनोरोगों, जैसे हिस्टीरिया आदि के उपचार में भी सहायक होती
है। इसके लिए मनोरोग चिकित्सा या मनोविज्ञान की जानकारी होनी चाहिए।
मन :
मस्तिष्क की कार्यशक्ति का द्योतक। यह कार्यशक्ति कई तरह की होती है,
जैसे चिंतन शक्ति, स्मरण-शक्ति, निर्णय शक्ति, बुद्धि, भाव,
इंद्रियाग्राह्यता, एकाग्रता, व्यवहार, परिज्ञान (अंतर्दृष्टि), इत्यादि।
फ्रायड नामक मनोवैज्ञानिक के बनावट के अनुसार मन को तीन भागों में वर्गीकृत किया गया था :
फ्रायड नामक मनोवैज्ञानिक के बनावट के अनुसार मन को तीन भागों में वर्गीकृत किया गया था :
सचेतन :
यह मन का लगभग दसवां हिस्सा होता है, जिसमें स्वयं तथा वातावरण के
बारे में जानकारी (चेतना) रहती है। दैनिक कार्यों में व्यक्ति मन के इसी
भाग को व्यवहार में लाता है।
अचेतन :
यह मन का लगभग 90 प्रतिशत हिस्सा है, जिसके कार्य के बारे में
व्यक्ति को जानकारी नहीं रहती। यह मन की स्वस्थ एवं अस्वस्थ क्रियाओं पर
प्रभाव डालता है। इसका बोध व्यक्ति को आने वाले सपनों से हो सकता है।
इसमें व्यक्ति की मूल-प्रवृत्ति से जुड़ी इच्छाएं जैसे कि भूख, प्यास, यौन
इच्छाएं दबी रहती हैं। मनुष्य मन के इस भाग का सचेतन इस्तेमाल नहीं कर
सकता। यदि इस भाग में दबी इच्छाएं नियंत्रण-शक्ति से बचकर प्रकट हो जाएं
तो कई लक्षण उत्पन्न हो जाते हैं जो बाद में किसी मनोरोग का रूप ले लेते
हैं।
अर्धचेतन या पूर्वचेतन :
यह मन के सचेतन तथा अचेतन के बीच का हिस्सा है,
जिसे मनुष्य चाहने पर इस्तेमाल कर सकता है, जैसे स्मरण-शक्ति का वह हिस्सा
जिसे व्यक्ति प्रयास करके किसी घटना को याद करने में प्रयोग कर सकता है।
फ्रायड ने कार्य के अनुसार भी मन को तीन मुख्य भागों में वर्गीकृत किया है।
फ्रायड ने कार्य के अनुसार भी मन को तीन मुख्य भागों में वर्गीकृत किया है।
इड (मूल-प्रवृत्ति) :
यह मन का वह भाग है, जिसमें मूल-प्रवृत्ति
की
इच्छाएं (जैसे कि उत्तरजीवित यौनता, आक्रामकता, भोजन आदि संबंधी इच्छाएं)
रहती हैं, जो जल्दी ही संतुष्टि चाहती हैं तथा खुशी-गम के सिद्धांत पर
आधारित होती हैं। ये इच्छाएं अतार्किक तथा अमौखिक होती हैं और चेतना में
प्रवेश नहीं करतीं।
ईगो (अहम्) :
यह मन का सचेतन भाग है जो मूल-प्रवृत्ति की इच्छाओं को
वास्तविकता के अनुसार नियंत्रित करता है। इस पर सुपर-ईगो (परम अहम् या
विवेक) का प्रभाव पड़ता है। इसका आधा भाग सचेतन तथा अचेतन रहता है। इसका
प्रमुख कार्य मनुष्य को तनाव या चिंता से बचाना है। फ्रायड की
मनोवैज्ञानिक पुत्री एना फ्रायड के अनुसार यह भाग डेढ़ वर्ष की आयु में
उत्पन्न हो जाता है जिसका प्रमाण यह है कि इस आयु के बाद बच्चा अपने अंगों
को पहचानने लगता है तथा उसमें अहम् भाव (स्वार्थीपन) उत्पन्न हो जाता है।
सुपर-ईगो (विवेक; परम अहम्) :
यह मन का वह हिस्सा है जो अहम् से सामाजिक,
नैतिक जरूरतों के अनुसार उत्पन्न होता है तथा अनुभव का हिस्सा बन जाता है।
इसके अचेतन भाग को अहम्-आदर्श (ईगो-आइडियल) तथा सचेतन भाग को विवेक कहते
हैं।
ईगो (अहम्) का मुख्य कार्य वास्तविकता, बुद्धि, चेतना, तर्क-शक्ति, स्मरण-शक्ति, निर्णय-शक्ति, इच्छा-शक्ति, अनुकूलन, समाकलन, भेद करने की प्रवृत्ति को विकसित करना है।
ईगो (अहम्) का मुख्य कार्य वास्तविकता, बुद्धि, चेतना, तर्क-शक्ति, स्मरण-शक्ति, निर्णय-शक्ति, इच्छा-शक्ति, अनुकूलन, समाकलन, भेद करने की प्रवृत्ति को विकसित करना है।
मनोरोगों के मुख्य कारण
मनोरोगों के कारण कई प्रकार के होते हैं। इनमें से मुख्य प्रकार
निम्नलिखित हैं :
जैविक कारण :
आनुवंशिक :
मनोविक्षिप्ति या साइकोसिस (जैसे स्कीजोफ्रीनिया, उन्माद,
अवसाद इत्यादि), व्यक्तित्व रोग, मदिरापान, मंदबुद्धि, मिर्गी इत्यादि रोग
उन लोगों में अधिक पाये जाते हैं, जिनके परिवार का कोई सदस्य इनसे पीड़ित
हों तो संतान को इनका खतरा लगभग दोगुना हो जाता है।
शारीरिक गठन :
स्थूल (मोटे) व्यक्तियों में भावात्मक रोग
(उन्माद, अवसाद
या उदासी इत्यादि), हिस्टीरिया, हृदय रोग इत्यादि अधिक होते हैं जबकि लंबे
एवं दुबले गठन वाले व्यक्तियों में विखंडित मनस्कता (स्कीजोफ्रीनिया),
तनाव, व्यक्तित्व रोग अधिक पाये जाते हैं।
व्यक्तित्व :
अपने में खोये हुए, चुप रहने वाले, कम मित्र रखने वाले
किताबी-कीड़े जैसे गुण वाले, स्कीजायड व्यक्तित्व वाले लोगों में
स्कीजोफ्रीनिया अधिक होता है, जबकि अनुशासित तथा सफाई पसंद, समयनिष्ठ,
मितव्ययी जैसे गुणों वाले खपती व्यक्तित्व के लोगों में खपत रोग (बाध्य
विक्षिप्त) अधिक पाया जाता है।
शरीरवृत्तिक कारण :
किशोरावस्था, युवावस्था, वृद्धावस्था, गर्भ-धारण जैसे
शारीरिक परिवर्तन कई मनोरोगों का आधार बन सकते हैं।
वातावरण जनित कारण :
जैविक कारण :
शारीरिक खान-पान संबंधी कारण :
कुछ दवाओं, रासायनिक तत्वों, धातुओं, मदिरा
तथा अन्य मादक पदार्थों इत्यादि का सेवन मनोरोगों की उत्पत्ति का कारण बन
सकता हैं।
मनोवैज्ञानिक कारण :
आपसी संबंधों में तनाव, किसी प्रिय व्यक्ति की
मृत्यु, सम्मान को ठोस, कार्य को खो बैठना, आर्थिक हानि, विवाह, तलाक,
शिशु जन्म, कार्य-निवृत्ति, परीक्षा या प्यार में असफलता इत्यादि भी
मनोरोगों को उत्पन्न करने या बढ़ाने में योगदान देते हैं।
सामाजिक-सांस्कृतिक कारण :
सामाजिक एवं मनोरंजक गतिविधियों से दुराव,
अकेलापन, राजनीतिक, प्राकृतिक या सामाजिक दुर्घटनाएं (जैसे कि लूटमार,
आतंक, भूकंप, अकाल, बाढ़, सामाजिक बोध एवं अवरोध, महंगाई, बेरोजगारी
इत्यादि) मनोरोग उत्पन्न कर सकते हैं।
ऊपर लिखे कारणों में से कुछ, व्यक्ति में मनोरोगों की पूर्वप्रवृत्ति पैदा करते हैं जबकि कुछ उनका अवक्षेप करते हैं।
ऊपर लिखे कारणों में से कुछ, व्यक्ति में मनोरोगों की पूर्वप्रवृत्ति पैदा करते हैं जबकि कुछ उनका अवक्षेप करते हैं।
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लोगों की राय
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