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भारतीय कविताएं 1983

बालस्वरूप राही

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 1990
पृष्ठ :260
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5669
आईएसबीएन :000000

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भारतीय भाषाओं में वर्ष 1983 में प्रकाशित कविताओं में से अग्रणी काव्य-मर्मज्ञों द्वारा चुनी गयी 74 विशिष्ट कविताएँ...

Bhartiya Kavitayen 1983

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्रस्तुत प्रयास

अपनी स्थापना से ही भारतीय ज्ञानपीठ का लक्ष्य भारतीय साहित्य के संवर्द्धन में योगदान रहा है। अपने इस लक्ष्य की सिद्धि के लिए वह प्रारम्भ से ही त्रि-आयामी प्रयास करता आ रहा है। एक ओर तो वह जटिल किन्तु विश्वसनीय मूल्यांकन-प्रणाली द्वारा भारतीय साहित्य की शिखर उपलब्धियों को रेखांकित-पुरस्कृत करता है, ताकि साहित्य को समर्पित अग्रणी रचनाकारों को अधिकतम मान सम्मान एवं राष्ट्रव्यापी प्रतिष्ठा प्राप्त हो और उनकी शीर्ष कृतियाँ अन्य रचनाकारों के लिए प्रकाश स्तम्भ का कार्य करे। दूसरी ओर वह समग्र समकालीन भारतीय साहित्य में से कालजयी रचनाओं का चयनकर उन्हें, प्रायः हिन्दी के माध्यम से, बृहत्तर प्रबुद्ध पाठक समुदाय तक ले जाता है, ताकि एक भाषा का सर्वोत्कृष्ट साहित्य दूसरी भाषा तक पहुँचे और इस प्रकार विभिन्न भाषाओं के रचनाकारों एवं सजग पाठकों के मध्य तादात्म्य स्थापित हो और परस्पर प्रतिक्रिया हो। तीसरी ओर वह संवेदनशील सम्भावनावान उदीयमान रचनाकारों की सशक्त कृतियाँ प्रकाशित कर उन्हें उनका दाय प्राप्त कराने में सक्रिय सहयोग करता है। साहित्य राष्ट्रीय चेतना का सर्वप्रमुख संवाहक है। यदि किसी देश की सांस्कृतिक धड़कनों को समझना हो तो उनकी नब्ज-साहित्य पर हाथ रखना आवश्यक होता है। अन्य राष्ट्र को ही नहीं, अपने राष्ट्र को भी हम प्रमुखतः अपने साहित्य के माध्यम से ही सही-सही पहचानते हैं। स्वराष्ट्र की आत्मा से साक्षात्कार करना कौन नहीं चाहता। राष्ट्र की आत्मा साहित्य के माध्यम से अभिव्यक्त होती है और साहित्य भाषा के माध्यम से मुखरित होता है। किन्तु हमारे लिये कठिनाई यह है कि भारतीय साहित्य एक दो भाषाओं के माध्यम से मुखरित होता नहीं। अतः भाषा जो एक पथ है, सेतु है, वही व्यवधान बन जाती है। इस व्यवधान के अतिक्रमण में भारतीय ज्ञानपीठ निरन्तर सुधी पाठकों का सहायक रहा है। इस बार सोचा गया कि एक और नयी राह निकाली जाए एक और नयी दिशा का संधान हो। कालजयी शाश्वत रचनाओं तक ही सीमित क्यों रहा जाए ? जिन रचनाओं को अभी काल की कसौटी पर कसा जाना है, उन तक भी पहुँच क्यों न हो ? आज की धड़कने पहचानने के लिये आज का आमना-समना आवश्यक है। जो सबसे ताजी है, आज की रचना है, वही तो वर्तमान को समझने में सबसे बड़ी सहायक बन जाती है। वही कालजयी सिद्ध होकर धरोहर भी बन सकती है। प्रतिवर्ष स्फुट रूप से स्थायी महत्व को कई रचनाएँ प्रकाशित होती हैं, और सामान्य रचनाओं की भीड़ में खो जाती हैं। यदा-कदा चर्चित होती है रेखांकित भी होती है, किन्तु एक स्थान पर सहेजी नहीं जातीं। अन्य भाषाओं की उपलब्धियों से साक्षात्कार तो दुर्लभ ही है, हम अपनी भाषा की सर्वोत्तम कृतियों से अपरिचित रह जाते हैं। परिचय होता भी है तो बस क्षण मात्र के लिए। यों हम सभी न्यूनाधिक यह अनुभव और स्वीकार करते हैं कि भारतीय साहित्य विभिन्न भाषाओं में रचे जाने पर भी कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में एक मुख्यधारा से सम्पृक्त है। भाषा विशेष के साहित्य के सही मूल्यांकन एवं सच्चे आस्वाद के लिये समग्र भारतीय साहित्य के परिदृष्य में रखकर देखा जाना नितान्त आवश्यक एवं वांछनीय है।

इसी भावना से प्रेरित होकर हमने यह निर्णय किया कि भारतीय ज्ञानपीठ प्रति वर्ष समस्त भारतीय भाषाओं में प्रकाशित होने वाली विधा विशेष की श्रेष्ठ रचनाओं को एक संकलन में एक साथ सँजोने का क्रम प्रारम्भ करे। निर्णय हुआ कि वार्षिक चयनिकाओं की इस श्रृंखला का प्रारम्भ 1983 में प्रकाशित कविताओं और कहानियों के चयन से हो। तय हुआ कि कविता-संकलन के लिए हर भाषा से पाँच कविताएँ चुनी जाएँ और इस प्रकार काव्य-चयनिकाओं में सभी भाषाओं की लगभग 75 कविताओं का समावेश हो। इसमें 1983 की विशिष्ट कविताएँ एक ही स्थान पर उपलब्ध एवं सुरक्षित हो सकेंगी और समकालीन भारतीय काव्य धारा के प्रति जिज्ञासु काव्य- प्रेमियों को इधर-उधर भटकना नहीं पड़ेगा।
सबसे बड़ी समस्या थी रचनाओं का चयन। कोई एक तो सभी भाषाओं का जानकार होता नहीं। अतः इस योजना के क्रियान्वयन के लिए सोचा यह गया कि हर भाषा से रचना-चयन का दायित्व भाषा विशेष के ही किसी काव्य-मर्मज्ञ को सौंपा जाए जो कविताओं का चयन भी करे और चुनी हुई कविताओं के हिन्दी रूपान्तरों की प्रामाणिकता भी परख ले।
‘भारतीय कविताएँ: 1983’ हमारी इस महत्त्वाकांक्षापूर्ण योजना का मूर्त रूप है। चुनाव उन्हीं रचनाओं में से किया गया जो लिखी चाहे कभी भी गयी हों, पुस्तक पत्र-पत्रिका, आकाशवाणी, दूरदर्शन आदि के माध्यम से पहली बार सन् 1983 में ही प्रकाश में आयीं।

यहाँ हम यह स्पष्ट कर दें कि कविता-चयन में चयन-मण्डल के हर सदस्य को हमने पूरी-पूरी स्वतन्त्रता दी है और अपनी पसन्द को कहीं भी आरोपित नहीं किया। चुनाव के लिये पूरी जिम्मेदारी, पूरी की पूरी जवाब देही चयनकर्ता की ही है। हाँ, चयनकर्ता का चुनाव हमारा है और हमने यह पूरी सावधानी एवं दायित्व के साथ किया है। हर चयनकर्ता अपनी भाषा के साहित्य का विश्वसनीय मर्मज्ञ एवं अधिकारी विद्वान है। अनेक तो मूर्द्धन्य भारतीय साहित्यकारों अथवा साहित्य मनीषियों में गौरवपूर्ण स्थान रखतें हैं। यदि एकाध कविता के चयन से हमारी असहमति रही भी तो हमने अपने मत के प्रति आग्रह नहीं रखा और चयनकर्ता के निणर्य को अन्तिम माना। एक बांग्ला कविता का समावेश हम चाहकर भी नहीं कर पाये। क्योंकि कई बार प्रयास करने पर भी हमें मूल कवि से अपेक्षित सहयोग प्राप्त न हो सका। सम्भव है कि वह संग्रह की सम्भावनाओं के प्रति आश्वस्त न रहे हों।

स्पष्ट ही है कि प्रतिनिधि कविता-चयन का कोई भी निर्णय निर्विवाद नहीं हो सकता। इस कविता-चयन के सामने भी प्रश्नचिन्ह लगाए जा सकते हैं और सम्भव है लगें भी। दो-चार नहीं, दर्जनों ऐसी कविताएँ होंगी जो अपनी भाषा में 1983 की उपलब्धि मानी जाएँ।अपनी भाषा में ही क्यों, सम्पूर्ण भारतीय साहित्य में एक उप्लब्धि मानी जाएँ। किन्तु प्रतिनिधि रचनाओं की संख्या सीमित एवं सुनिश्चित रखना व्यावहारिक समझा गया-संकलन के आकार नियन्त्रण के लिए भी और सभी भाषाओं के प्रति समभाव की दृष्टि से भी। हमारे लिए सभी भाषाएँ महत्त्वपूर्ण हैं। प्रतिनिधि रचनाएँ और भी हो सकती हैं या यह भी हो सकता है कि इनमें से किसी रचना को प्रतिनिधि माना ही न जाए। तब भी इतना तो है ही ये कि ये सर्वोत्कृष्ट हों या नहीं, इस संकलन के माध्यम से हम आज के भारतीय काव्य-साहित्य का चेहरा काफ़ी कुछ पहचान सकते हैं। पूर्ण तो कुछ नहीं होता वृत्त के अतिरिक्त। पूर्ण सन्तोष भी दुर्लभ ही है।

‘भारतीय कहानियाँ: 1983’ के लिये कहानियाँ प्रस्तुत करते समय दो-एक चयनकर्ताओं ने अपनी भाषा के कथा-वर्ष के प्रति असन्तोष व्यक्त करते हुए कहा था। कि ये कहानियाँ भी उपलब्धि के रूप में रेखांकित की जा सकतीं, इन्हें हद से हद ग़नीमत कहा जा सकता है। किन्तु ‘भारतीय कविताएँ : 1983’ के लिए कविताएँ चुनकर भेजते हुए इस प्रकार का कोई असन्तोष चयन-मण्डल के किसी सदस्य ने व्यक्त नहीं किया। उन्होंने 1983 के काव्य उप्लब्धियों के प्रती सन्तोष का भाव व्यक्त किया है और ये रचनाएँ निसंकोच प्रस्तुत की हैं कविताओं के अनुवाद का कार्य गद्यानुवाद की अपेक्षा अधिक कठिन था, किन्तु रूपान्तरकारों के उत्साह के कारण अन्नतः संभव हुआ। यों कविता के अनुवाद का कार्य बड़ा जोखिम का काम है, फिर भी हमें लगता है कि मूल का पूरा-पूरा स्वाद भले ही इन रचनाओं के माध्यम से आपको न मिल सके, कविता का कथ्य बड़ी सीमा तक प्रेषित हो सका है। यह एक सुविधापूर्ण है स्थिति है कि अधिकतर भारतीय भाषाओं में अब कविता छन्द में नहीं लिखी जा रही, अन्यथा अनुवाद का कार्य और भी दुःसाध्य हो जाता। फिर भी मूल कविता के मुहावरे को अनुवाद की भाषा में पकड़ना। गोताख़ोरी के समान है।

दरकती राष्ट्रीय चेतना और चटखते एकात्म भाव के संकटपूर्ण समय में इस प्रकार के प्रयासों की विशिष्ट भूमिका हो सकती है। परिचर्य सौहार्द की पहली सीढ़ी है। अपनी भाषा के इतर साहित्य के साक्षात्कार से न केवल भारतीय साहित्य की समझ अधिक परिपक्क होती है, बल्कि हम अपनी भाषा के साहित्य की प्रासंगिकताओं को भी और बेहतर ढंग से समझते हैं। हमें प्रशन्नता है कि हमारे इस विनम्र प्रयास को प्रारम्भ से ही सभी दिशाओं से सहयोग एवं सराहना प्राप्त होती रही है। एक पत्रकार बन्धु ने तो इसे ‘‘राष्ट्र में स्वाधीनता के उपरान्त किया जाने वाला सर्वाधिक उल्लेखनीय साहित्यिक एकता आयोजन ’’ माना है। हमारा प्रयत्न होगा कि हम यह क्रम बनाए रख सकें। यदि प्रति वर्ष की साहित्य-उपलब्धियाँ इस प्रकार सुरक्षित की जा सकीं तो इस दशक की समाप्ति पर दशक के भारतीय साहित्य पर शोध करनेवाले शोधार्थियों के लिए ग्रन्थ आधार-सामग्री के रूप में अपनी उपयोगिता सिद्ध करेंगे। भारतीय साहित्य मूल रूप से एक है अथवा एक मुख्य धारा से जुड़ा है-यह एक सत्य है या मात्र एक आह्लादकारी मिथक? इस आशय के विवादास्पद प्रश्नों का उत्तर खोजने में इस प्रकार के ग्रंथों की सार्थकता विवादातीत मानी जा सकती है।

यों तो प्रत्येक देश की कविता उसकी सांस्कृतिक चेतना की संवाहक होती है। फिर भी भारतीय कविता के सन्दर्भ में यह सच्चाई और भी प्रबलता के साथ उभर कर आती है। मूल कारण है भारतीय संस्कृति की विशिष्टता और मूल्य-निष्ठा। भारतीय संस्कृति की पहचान संसार की किसी भी संस्कृति से अलग है। ग्रेट ब्रिटेन, फ्रांस जर्मनी, अमेरिका आदि की संस्कृतियों में समानताएँ देखी जा सकती हैं, किन्तु भारतीय संस्कृति का ऐसा सादृश्य किसी अन्य देश की संस्कृति में प्रायः अप्राप्य ही है।

भारतीय साहित्य को एकरूपता, विशिष्टता और निजता प्रदान करने में सबसे महत्त्वपूर्ण भूमिका भारतीय दर्शन की है। भारतीय आध्यात्मिकता विश्व में अद्वितीय है। जब हम पश्चिम की स्वछन्दतावादी काव्य-धारा को भारतीय छायावादी काव्य-धारा के समकक्ष घोषित करते हैं तब हम भूल जाते हैं कि पाश्चात्य स्वछन्दतावादी कवि, चाहे वह वर्ड् सवर्थ हो या शैली, कीट्स, बायरन या कॉलरिज फूल को फूल और बादल को बादल के रूप में ही देखता है। किन्तु महादेवी, पन्त, प्रसाद या निराला के लिए फूल मात्र फूल नहीं है, बादल मात्र बादल नहीं। वे किसी अदृश्य सत्ता के संदेशवाहक हैं।छायावाद जहाँ रहस्यवाद की पगडण्डी पर जा निकलता है वहीं से विशुद्ध भारतीयता की हरित भूमि प्रारम्भ हो जाती है। भारतीय दर्शन में महत्त्व व्यष्टि का उतना नहीं जितना समष्टि का है। हम महत्त्वपूर्ण हैं क्योंकि हम उससे जुड़े हैं जो चरम महत्त्वपूर्ण हैं। जब अद्वैत की अध्यात्म-भावना को सामाजिक रूप मिलता है तब वसुधैव कुटुम्बकम की उदात्त भावना को जन्म होता है। पाश्चात्य संस्कृति में व्यक्ति का अत्यधिक महत्त्व है, अतः व्यक्ति और समाज प्रायः टकराव की मुद्रा में रहते हैं। किन्तु हमारा एकात्म भाव निरन्तर सामरस्य एवं सामंजस्य स्थापित करने वाले के लिए प्रयत्नशील रहता है।

दूसरी विशेष रूप से उल्लेखनीय बात यह है कि हमारे यहाँ क्षणाभाष की अपेक्षा निरन्तरता बोध अधिक जाग्रत है। हम मृत्यु से पूर्व जीवन मानते हैं और मृत्यु के उपरान्त भी जीवन की स्थिति स्वीकार करते हैं। जीवन की निरन्तरता की इस अवधारणा का भारतीयों पर ऐसा प्रभाव पड़ता है रहा है कि मीर तकी मीर तक कह उठेः
मौत इक मांदगी का वक़्फ़ा है
यानी आगे चलेंगे दम लेकर
हमारे विचार से अद्वैत और शाश्वतता बोध भारतीय संस्कृति की दो ऐसी विशेष पहचानें हैं जो भारतीय साहित्य को भी विशेष चरित्र और स्वरूप प्रदान करती है। निरन्तरता बोध और किंचित् परम्परा-निष्ठता का यह स्वर नियूनाधिक सभी भाषाओं की कविता में मिल जाता हैः
मेरी भाषा दादी माँ का पानदान है सात पुश्तों का
अंगुलियों का चूना लगते-लगते
अँधेरे में, यातना में, विषाद में,
आत्मा की तरह, आशा की तरह, मन्त्र की तरह
सफ़ेद झक्क दिखता है
मेरे शब्द में पूर्वजों की सभी आशाएँ, सारी रूलायी
हुँकार और रिरियाहट, टपटपाहट, गुनगुनाहट,
स्मित हँसी थमी सांस की धड़कनें
समुद्र में नदी के साथ मिलती है ।
सीताकान्त महापात्र की इस उड़िया कविता को जब हम सिर्पि की तमिल कविता के साथ पढ़ते हैं तो भारतीय साहित्य की मुख्यधारा के एक होने की बात आसानी से समझ में आती-सी लगती हैः
काल और मैं
अंकुरित और पल्लवित हुए
एक के बाद एक
या एक के पहले एक
ऐसा नहीं
हम दोनों
एक ही प्रसव में उपजी
प्रशाखाद्वय हैं
एक ही वेणी की
दायीं लट और बायीं लट है
गगन पिंजरे से निर्मुक्त
आदिम पक्षी के
पंखद्वय हैं।
-कल, आज और कल (तमिल) : सिरपि

काल की निरन्तरता और धरती की निस्सीमता भारतीय कवि को हताश नहीं होने देती। भारतीय संस्कृति का मूल स्वर आशा है, हताशा नहीं। हताशा को पाश्चात्य कविता का एक अंग माना जा सकता है किन्तु सामान्यत: भारतीय कविता में आशा का ओज प्रवाहित रहता है। आशा का यह स्वर पाश्चात्य कविता में जहाँ-तहाँ उभरा है-‘‘वेन विन्टर कम्स केन स्प्रिंग बी फार बिहाइन्ड ?’’ किन्तु अन्धकार का समुद्र तैरकर आने वाली सुबह के प्रति भारतीय कवि जैसा आश्वस्त कोई नहीं:
‘‘आज भले ही डूबे लेकिन आने वाला कल तो है ही
कल सूरज निकलेगा ही
और बहुत कुछ तपेगा और तपकर हलका होगा,
-बहुत कुछ को मिलेगी धूप ऊनी-ऊनी
और तब हमारा आज का स्थगित कार्यक्रम
फिर से गतिमान होगा, शानदार ढंग से सूरज के साथ
बरसात बारहों महीने तो रहती नहीं।’’
कल सूरज निकलेगा (गुजराती)
: चन्द्रकांत शेठ
इसका अर्थ यह नहीं निकाला जाना चाहिए कि भारत का आधुनिक कवि आधुनिकता के श्राप और सामयिकता के उत्ताप से बिल्कुल बेखबर है। वह जा सोया है किसी रस-सरोवर में, डूबा है आकण्ठ। नीलकण्ठ होना उसे आता नहीं। आधुनिकता के विष को पिया है उसने, किन्तु तब भी बचाया है स्वयं को और कविता को विषाक्त होने से। भारतीय कविता चाहे कन्नड़ में हो, चाहे तमिल या तेलुगु में, यथार्थ से साक्षात्कार करने का दम उसमें है। वह कड़वाहट बेचती नहीं, पर कड़वाहट से बचती भी नहीं। आज की विसंगतियों, विषमताओं को भारत की हर भाषा की कविता में चुनौती दी गयी है :
निकला है यह विज्ञापन बालकों की ओर से
रेडिय़ो में, समाचार पत्रों में, टी.वी.में और
सिनेमा में, ‘खो गयी हैं माताएँ
तोड़-ताड़ कर पालने को सोपानों पर
बच्चों को फेंक-फाँक कर रास्ते के पार
निकल गयी हैं पहुँच से कहीं बाहर
न रही अब वे माताएँ कर गयी है सीमोल्लंघन
रास्ते पर जहाँ सब मिल पाते हैं या
बैंक में जो हैं प्रसूतिघर चेकों के लिए
या शालाओं में जहाँ तुतलाये जाते हैं अक्षर।
-खो गयी हैं माताएँ (कन्नड़)
: एच.एस.शिवप्रकाश
बाप रे ! बाप रे !!
भारत में
एक
काम को ढूँढ़ना
वास्कोडिगामा को
भारत ढूँढ़ने में
हुए कष्टों से भी
अधिक ही है।
-भूचाल गर्जन (तमिल)
: पावण्णन
बाबू, आप मुझे जानते तो नहीं है
पर मैं आप की जाति का हूँ
जाति निर्मूलन दल का उम्मीदवार हूँ
एक बार अपना मत देकर मुझे
दिल्ली पहुँचा दो
फिर कभी इधर
मुँह नहीं दिखाऊँगा-
सौगन्ध खाकर कहता हूँ।
-नाखून के निशान (तेलुगु)
: बोयि भीमन्ना
चयनिका में संकलित नारी कविताएँ संवेदना की सूक्ष्मता के लिए विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं-
बारह सालों में सिर्फ़ एक बार कुरिंजिपुष्प खिलते हैं
जब वे नए सिरे से खिलेंगे तब
मेरे पाँवों में क्या पहाड़ पर चढ़ने की ताक़त रहेगी ?
क्या कल मानव कुल्हाड़ी, आग
और गीध की आँख ले उधर भी नहीं पहुँचेगा ?
-कुरिंजिपुष्प (मलयालम)
सुगत कुमारी
कब पता था कि चिन्तन और प्रेम सौतेली बहनें हैं
जो हमेशा लड़ती झगड़ती रहेंगी...
कब पता था कि मेरी सब से क़ीमती सोच
दुर्घटना में मर जाएगी...
कब पता था कि आत्मा पवन के वस्त्र पहनकर
चुपचाप सोये दरिया का माथा चूमकर लौट जाया करेगी
-कब पता था (पंजाबी)
मंजीत टिवाणा
चाहे बांग्ला हो, चाहे कश्मीरी, भारतीय कविताओं को एक साथ पढ़िए और देखिए उनमें आज के यथार्थ का कड़वा स्वर कितना साफ़ सुनाई देता हैः
मेरे विश्वास के छज्जों को
उड़ा ले गये मेरे ही तूफ़ान
जिस पंखुड़ी की रस पी रही थी
रंगबिरंगी तितली
उससे अब चू पड़ता है बूँद बूँद ज़हर
कोई भी स्थिति ऐसी नहीं
जिसे सहारा कहा जा सके
कोई आवाज़ ऐसी नहीं
जिससे साँसें मिलाकर
खोज ली जाए रात के स्वप्न-नगर की राह
ठण्डे सूरज का पथ ही छोटा पड़ गया है।
कोई भी चेहरा ऐसा नहीं
जिस पर उभरेगा सूर्य
-विश्वास (कश्मीरी)
चमनलाल चमन
तुम्हें देखता नहीं क्यों, देखकर भी पहचानता नहीं
भोर की मुखाकृति कहाँ छिपा रखते हो सारे दिन ?
-भोर की मुखाकृति (बांग्ला)
सुनील गंगोपाध्याय
ग़ज़ल उर्दू की सर्वाधिक लोक प्रिय काव्य विधा है। किन्तु दिलचस्प बात तो यह है कि उर्दू के साथ-साथ, बल्कि उससे भी ज़्यादा, वह अन्य भारतीय भाषाओं में लोक प्रिय होती जा रही है। हिन्दी में तो वह आज की जीवन्त कविता का एक उल्लेखनीय अंग बन चुकी है। अन्य भाषाओं में सिन्धी और गुजराती में उसका प्रचलन बड़ी तेजी से उभरा है।
वर्ष 1983 में प्रकाशित उल्लेखनीय भारतीय कविताओं का यह संकलन सुधी पाठकों को समर्पित करते हुए एक ओर उल्लास का अनुभव हो रहा है, तो दूसरी ओर यह पाकर मन अत्याधिक उदास रहा है कि इसमें संकलित हिन्दी के दो कवि हमसे विदा हो गये-विजयदेव नारायण साही और भवानी प्रसाद मिश्र। ये दो कवि अपने-अपने क्षेत्रों में सिर मौर रहे हैं। इनकी कविता अविस्मरणीय है। क्या हम भूल सकेंगे भवानी भाई की यह मार्मिकता-
होना तो उनका है
जो चुप हैं
जैसे बीज
माटी के भीतर का
-होना तो उनका है(हिन्दी)
भवानी प्रसाद मिश्र
हमें पूरा विश्वास है कि प्रस्तुत संकलन भारतीयता और भारतीय कविता की सही-सही पहचान आंकने में उपयोगी सिद्ध होगा। ‘भारतीय कविताएँ: 1983’ के प्रकाशन में जो विलम्ब हुआ, उसका हमें खेद है। किन्तु पूरी तरह प्रयत्नशील रहते हुए भी हम इस विलम्ब को टाल नहीं पाये। सभी भाषाओं से कविता-चयन और फिर उनका हिन्दी में रूपान्तरण, सभी सहयोगी साहित्कारों के चित्रों एवं संक्षिप्त परिचयों का एकत्रीकरण-ये सब काम समयसाध्य सिद्ध हुए। योजना की रूपरेखा ऐसी है कि यदि किसी एक भी भाषा से, एक भी साहित्यकार से सहयोग मिलने में देर हो जाये तो हम संकलन प्रकाशित नहीं कर सकते। फिर इस दिशा में यह हमारा प्रथम प्रयास है और इसके संकटों से हम क्रमशः परिचित हुए हैं। आशा की जा सकती है कि आगामी संकलन आने में अधिक विलम्ब न हो।
हम चयन-मण्डल के सभी सदस्यों, सहयोगी कवियों, अनुवादकों और उन पत्र-पत्रिकाओं आदि, जहाँ से ये कविताएँ ली गयी हैं, के प्रति हृदय से आभारी हैं। हमें प्रशन्नता है कि सहयोगी साहित्यकारों ने इस आयोजन में सोत्साह भाग लिया और काम आगे बढ़ाने में हमारी सहायता की।
इस चयनिका-क्रम के प्रति आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी।

कविता

घट सकता है यह आज रात
किसी भी क्षण
कहीं भी।

मेरे सारे श्रम की व्यर्थता
बार-बार प्रमाणित होते रहने पर भी
कुछ नहीं सीखा मैंने
फिर भी मैं दिये ही जाता हूँ सभी कुछ
और बदल में पाता हूँ
एक ओर अन्तर्दाही दिन जिसकी माँग
बढ़ती ही जाती है।
फिर भी पता है मुझे
मेरे लिये नहीं एकान्तवास
मेरे लिये नहीं है एकान्तवास
मेरे लिए नहीं है एकाकीपन का विलास
न ही मेरे लिये है नीलिमाओं के अपार विस्तार में
प्रेम-पण्डुकों की कुण्ठित उड़ान।

घट सकता है यह आज रात
और यदि घट ही जाता है
तो नहीं जानता मैं क्या करना होगा
और न ही पता मुझे कि क्या कहा था तुमसे
क्षण-भर पहले।
यह दुर्बोध अग्नि कुण्ड
भयावह रात का
तुम्हारी चुप्पी सुलगा सकती है
कहीं भी
किसी भी क्षण।
और मेरे आँसू ?


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