कहानी संग्रह >> बीता हुआ भविष्य बीता हुआ भविष्यबाल फोंडके
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विभिन्न भारतीय भाषाओं की 19 चुनिंदा विज्ञान कथाओं का संकलन..
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
आभार
विभिन्न भारतीय भाषाओं की चुनी हुई विज्ञान
कथाओं के संकलन
इससे पहले भी प्रकाशित हुए हैं। फिर भी, ऐसा कोई संकलन अभी तक नहीं छपा
जिसमें क्षेत्रीयता की सीमाओं को लांघकर भारतीय विज्ञान कथा-साहित्य का
प्रतिनिधित्व करने वाली रचनाएं संकलित की गयी हों। लेकिन विज्ञान
कथा-साहित्य के विश्व के मानचित्र पर भारत का नाम अंकित करने की दिशा में
अंततः नेशनल बुक ट्रस्ट ने पहल की, तथा इस पहल के लिए पुस्तक की रचनाओं के
चुनाव और संपादन की जिम्मेदारी मुझे सौंपने पर मैं नेशनल बुक ट्रस्ट के
प्रति अपना आभार प्रकट करता हूं। लेकिन जिम्मेदारी स्वीकार करते समय मैंने
यह नहीं सोचा था कि यह कितना कठिन काम है, विशेष रूप से इसलिए भी कि मैं
सभी भाषाओं से परिचित नहीं हूं। लेकिन तभी कई मित्रों ने अपना सहयोग दिया।
इनमें से विट्ठल नादकर्णी, आर.एस.भूसनूरमठ, सैबल कुमार नाग, सुकन्या दत्ता
का मैं विशेष रूप से आभारी हूं।
बाल फोंडके
भूमिका
विज्ञान कथा-साहित्य या साइंस फिक्शन ने जब
से साहित्य की
अनेक विधाओं की श्रेणी में अपनी पहचान एक नयी विधा के रूप में बनानी शुरू
की है, तभी से ‘विज्ञान कथा क्या है ?’ जैसे प्रश्नों
ने
समालोचकों और संपादकों का ध्यान बरबस अपनी ओर आकृष्ट किया है। एडगर
एलन.पो,विलयम विल्सन और एडगर फॉसेट जैसे आरंभिक दौर के प्रख्यात
बुद्धिजीवियों एवं साहित्यिक प्रतिभाओं तक ने विज्ञान कथा-साहित्य की
परिकल्पना को स्पष्ट करने के कुछ प्रयास किये। ‘साइंस
फिक्शन’
नाम का अपना एक रोचक एवं विकासपूर्ण इतिहास है जिसमें ह्यूगो गर्न्सबैक को
श्रीगणेश करने का श्रेय दिया जाता है। यह वही प्रसिद्ध हस्ती है जिसके नाम
पर इस क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान के लिए अत्यंत सम्मानीय
‘ह्यूगो पुरस्कार’ प्रदान किया जाता है। गर्न्सबैक के
प्रयासों को विज्ञान कथा-साहित्य की रोचक ऐतिहासिक यात्रा में एक मील का
पत्थर माना जाता है क्योंकि विज्ञान कथा-साहित्य को उन्होंने एक अलग विधा
के रूप में प्रस्तुत किया था और उसे ‘साइंटीफिक्शन’
का नाम
दिया था। विज्ञान कथा-साहित्य के क्षेत्र में नयी क्रांति की पत्रिका
‘अमेजिंग स्टोरीज’ के प्रवेशांक के संपादकीय में
ह्यूगो
गर्न्सबैक ने इस विधा की परिभाषा दी थी।
इस विधा की तीव्र गति से बढ़ती लोकप्रियता से गर्न्सबैक को विज्ञान कथा-साहित्य की सीमाएं निर्धारित करने की प्रेरणा मिली होगी। उन्होंने कहा था, ‘‘ ‘साइंटीफिक्शन’ से मेरा अभिप्राय जूल्स वर्न, एच.जी.वेल्स और एडगर एलन पो द्वारा लिखी गयी ऐसी कहानियों से है जिसमें आकर्षक रोमांस के साथ वैज्ञानिक तथ्य और युगदृष्टा की दूरदर्शिता का सम्मिश्रण हो। ये आश्चर्यजनक कहानियां न केवल पढ़ने में अति रोचक वरन् शिक्षाप्रद भी होती हैं। यह ज्ञान को बहुत ही सुग्राह्य रूप से प्रस्तुत करती हैं। आज विज्ञान कथा-साहित्य में विचित्र किये गये किसी आविष्कार के कल सत्य हो जाने में असंभव जैसा कुछ नहीं है।’’
जिस प्रकार धान से चावल को पृथक कर सारतत्व को निकाल लिया जाता है उसी प्रकार गर्न्सबैक ने सदैव ही यह चेष्टा की कि वास्तविक सार को किसी भी विषय से निकालकर प्रस्तुत किया जाये। ऐसा करना अत्यंत आवश्यक एवं औचित्यपूर्ण भी था क्योंकि छद्म विज्ञान के नाम पर कल्पना की किसी भी उड़ान को विज्ञान कथा-साहित्य के रूप में स्वीकार किये जाने की पूरी आशंका थी। गर्न्सबैक के बाद विज्ञान कथा-साहित्य को परिभाषित और परिमार्जित करने की दिशा में पर्याप्त प्रगति हुई फिर भी उक्त आशंका को पूरी तरह टाला नहीं जा सका। इसी आशंका के कारण गर्न्सबैक ने विज्ञान कथा-साहित्य की परिभाषा को नपे तुले शब्दों में तैयार करने में जो तत्परता बरती वह आवश्यक थी।
इस सबके बावजूद गर्न्सबैक द्वारा विज्ञान कथा-साहित्य को दी गयी परिभाषा को अग्नि परीक्षा की व्यथा से गुजरना पड़ा। इस कारण विज्ञान कथा-साहित्य की विधा को न केवल ‘अनुमानात्मक कथा-साहित्य’ का नाम दिया गया जो ठीक था, वरन् उसे ‘भविष्यदृष्टा कथा-साहित्य’ भी कहा जाने लगा। इसलिए साहित्य की इस विधा में लिखनेवालों से यह अपेक्षा की जाने लगी कि उनके लेखन में न केवल विलक्षणता, दूरदर्शिता हो, बल्कि अद्भुत कल्पनाशक्ति भी हो।
आरंभिक काल के वेल्स और वर्न जैसे चोटी के लेखकों के भावी घटनाक्रमों के पूर्वानुमानों के पर्याप्त ठीक निकलने की सफलता ने गर्न्सबैक जैसे व्यक्तित्व को प्रभावित किया होगा, भले ही उन लेखकों ने घटनाओं की ओर संकेत किया हो या रूपरेखा मात्र ही दी हो। वेल्स और वर्न के प्रयास चाहें कितने भी असाधारण रहे हों पर वे नियम नहीं वरन् अपवाद ही हो सकते थे। यह ठीक वैसे ही था जैसे कहीं ऊंची चोटी पर बैठकर नीचे की भूमि की पूरी जानकारी लिए बिना उसके लिए योजना और कानून बनाना, जो संभव नहीं हो सकता।
यह अवाछिंत भार विज्ञान कथा-साहित्य की तेजी से उभर रही नये लेखकों की पीढ़ी के लिए वास्तव में बहुत अधिक था। इस शताब्दी के दूसरे दशक में जान कैम्पबैल ने आइसाक आसिमोव और राबर्ट हेनलीन सहित तत्कालीन स्वर्णयुगीन नये लेखकों के लिए दाई मां की कठिन भूमिका निभाई और साथ ही उन्होंने संघर्ष का सामना भी किया। इस विधा के संबंध में उन्होंने अपना एक नीति-पत्र भी प्रस्तुत किया। उनके इस उपक्रम ने विज्ञान कथा-साहित्य की टेढ़ी नींव को सुस्थापित करने हेतु उसे संतुलित सशक्तता भी प्रदान की।
कैम्पबैल का प्रस्ताव था-‘‘विज्ञान कथा-साहित्य को विज्ञान परिवार का साहित्यिक माध्यम माना जाना चाहिए। वैज्ञानिक कार्यपद्धति एक ऐसी संभाव्यता है, जो न केवल भली प्रकार समझ-बूझकर सिद्धांत की व्याख्या करती है, वरन् नयी और अनखोजी वस्तुओं के बारे में भी अपना मत व्यक्त करती है। विज्ञान कथा-साहित्य भी बहुत ऐसे आकार ग्रहण करते हैं जो न केवल मशीनों पर बल्कि मानव समाज पर भी लागू होते हैं।’’ विज्ञान कथा-साहित्य को साइंटीफिक्शन की बजाय वर्तमान ‘साइंस फिक्शन’ नाम देने का श्रेय भी जान कैम्पबैल को ही है।
कैम्पबैल की इन परिभाषाओं में यह संभावना स्पष्ट रूप से अंतनिर्हित थी कि कथा-साहित्य की यह विधा अपनी समकालीन विधाओं की अपेक्षा विषय-वस्तु, रूप और क्षेत्र में कहीं अधिक गतिमान होगी। वह अपेक्षा से कहीं अधिक सफल रही, किंतु साथ ही इसकी मूल संकल्पना में उदारीकरण भी होता गया। इसके फलस्वरूप नये लेखकों को नये क्षेत्रों को खोजने का साहस हुआ और जो सत्कार योग्य लगा उन्होंने विज्ञान कथा-साहित्य की मुख्य धारा में जोड़ा। विज्ञान कथा-साहित्य के इन्हीं अर्धविकसित व परिवर्तित रूपांतरों ने अपने क्षेत्र के दिग्गज कथाकारों को जन्म दिया।
यह तो हमें ईमानदारी से मानना ही पड़ेगा कि विज्ञान कथा-साहित्य के इन नये मसीहाओं और उनके अनुयायियों ने इस माध्यम को समृद्ध बनाने में अपना योगदान दिया है। हर नयी सफलता ने दूसरों को उस दिशा में आगे साहसिक पग उठाने, नये प्रयोग कर नये मार्ग खोजने तथा नयी पद्धतियों को प्रसारित करने के लिए प्रोत्साहित किया। इसका परिणाम यह हुआ कि साहित्य की बहुत सी अन्य विधाओं की तरह विज्ञान कथा-साहित्य की प्रगति को कभी भी अवरुद्धता और गतिहीनता का भय नहीं हुआ।
फिर भी, इस दौरान कुछ खोज यात्राएं इतनी दूरी तक की गयीं जिनसे मूल विधा से जुड़े सूत्रों में बहुत अधिक तनाव का आभास हुआ। थियोडोर स्टर्जीऑन ने इस अभियान का शुभारंभ अपनी स्वयं की विज्ञान कथा-साहित्य की परिभाषा की घोषणा से किया कि ‘‘विज्ञान कथा-साहित्य एक ऐसी कहानी है जो मानव के चारों ओर किसी मानवीय समस्या और उसके समाधान के ऐसे ताने-बाने से गढ़ी जाती है जो वैज्ञानिक विषय-वस्तु के बिना घटित नहीं हो सकती है।’’ विज्ञान और कथा-साहित्य के एकीकरण का यह एक प्रशंसनीय प्रयास था क्योंकि विज्ञान किसी तर्कहीनता को सहन नहीं करता और कथा-साहित्य में भावावेश और कल्पना जैसी उन मानवीय शक्तियों की ओर झुकाव अधिक होता है जो कारण और तर्क पर प्रायः कटाक्ष करती हैं।
स्टर्जीऑन की इस परिभाषा ने गर्न्सबैक और कैम्पबैल के वर्षों के अथक प्रयासों द्वारा निर्मित मर्यादा पर एक ऐसी चोट की जिससे वर्षों से बंधा बांध टूट गया और लेखनी का उन्माद बह निकला। जिन लेखकों ने स्टर्जीऑन का अनुसरण किया उन्होंने सदैव कल्पना को विज्ञान की लगाम से शासित करना आवश्यक नहीं समझा। इसी कारण एक नयी परिभाषा को लोकप्रियता प्राप्त हुई-‘‘विज्ञान कथा-साहित्य वर्णनात्मक गद्य का वह स्वरूप है जिसकी पृष्ठभूमि उस विश्व की नहीं है जिसे हम जानते हैं वरन् उस काल्पनिक जगत की है जो विज्ञान के कुछ आविष्कारों या प्रौद्योगिकी या छद्म विज्ञान या छद्म प्रौद्योगिकी या मानव या पृथ्वी के अतिरिक्त अन्य स्थान की है।’’
यह ऐसी शुरुआत थी जिससे एक अजीब स्थिति पैदा हुई। परिणामस्वरूप अंग्रेजी भाषी पश्चिमी दुनिया में मौलिक रूप में ऐसा नया विज्ञान कथा-साहित्य बड़ी मात्रा में लिखा जा रहा है जिसमें वास्तविक विज्ञान का पुट बहुत कम है। वर्तमान के इस विज्ञान कथा-साहित्य में जिस रफ्तार और मात्रा में छद्म विज्ञान और छद्म प्रौद्योगिकी का समावेश किया जा रहा है उससे तो यह स्पष्ट है कि यह विधा अपना मूल स्वरूप खो बैठेगी। वास्तव में, ऐसा होने से विज्ञान कथा-साहित्य का रूप न सिर्फ अपने अनुरागी एवं पारखीजनों वरन् इस विधा को समर्थन और प्रेरणा देने वाले लेखकों और प्रतिभाओं में भी भ्रांतियां उत्पन्न करता दिखाई देता है।
पश्चिमी देशों की अन्य भाषाओं में उक्त विधा की स्थिति क्या और कैसी है, यह स्पष्ट नहीं है क्योंकि उनका अंग्रेजी में अनुवाद न के बराबर उपलब्ध है। हां, अंग्रेजी में उपलब्ध अनूदित रूसी और पोलिश विज्ञान कथा-साहित्य की संख्या काफी अधिक है। इन भाषाओं के लेखकों की गर्न्सबैक, कैम्पबैल और स्टर्जीऑन की विचारधारा में पूरी निष्ठा पायी जाती है और वे स्टेनीसला लैम द्वारा दिये उदाहरण से पूरी तरह प्रभावित लगते हैं। हालांकि रूसी कथा-साहित्य में भाषा का गठाव कुछ इस प्रकार का है कि कथा-साहित्य का रोचक पक्ष लुप्त होता दिखाई देता है।
भारत के अंग्रेजी तथा अन्य भारतीय भाषाओं के कई विज्ञान कथा-साहित्य लेखक अमेरिका-ब्रिटेन के समकालीन विज्ञान कथा-साहित्य में प्रतिनिधित्व करनेवाले लेखकों से प्रभावित हैं। परिणामस्वरूप वे भी छद्म विज्ञान का सहारा लेते हैं और कृतियों में उन मुहावरों का प्रयोग करते हैं जो भारतीय लोकाचार से मेल नहीं खाते। इस प्रकार के साहित्य को भारतीय विज्ञान कथा-साहित्य माना भी जाये या नहीं, यह प्रश्न अपने आपमें कम महत्वपूर्ण नहीं है। परंतु वास्तविकता मात्र यही है कि इसमें न तो भारतीयता है और न ही विज्ञान कथा-साहित्य का अंश, सिवा इसके कि ये लेखक भारत के हैं। अंग्रेजी साहित्य के भारतीय पाठकों का नाता शायद थोड़ा बहुत पश्चिमी जगत की संस्कृति से जुड़ा हुआ है, इसलिए संभवतः ये लेखक इस तरह की कहानियां लिखते हैं। यदि वे विज्ञान कथा-साहित्य के प्रतिष्ठित स्वरूप से जुड़े रहते तो उनका मूल विज्ञान और कल्पना की उन्मुक्त उड़ान के मध्य रखी सामन्जस्य की तलवार पर चलना आवश्यक हो जाता। कल्पना की उन्मुक्त उड़ान को उन्हें अपने विज्ञान के ज्ञात और मान्य तथ्यों तक सीमित रखना आवश्यक होता जिसे कर पाना आसान नहीं। छद्म विज्ञान की बैसाखी से उन्हें तुरंत इस बंधन से मुक्ति मिल जाती है। इस कारण इस तथ्य को नकारा नहीं जा सकता कि यह स्थिति उनके आकर्षण का बल रही होगी।
वैसे, इस प्रकार के लेखकों की संख्या, विशेषकर भारतीय भाषाओं में, अधिक नहीं है। अधिकांश उपलब्ध भारतीय भाषाओं का विज्ञान कथा-साहित्य स्टर्जीऑन के विचारों से प्रभावित दिखाई देता है। इसलिए, विज्ञान के किसी भी विकास को परिशुद्धता से प्रस्तुत करने को नहीं भूलना चाहिए तथा यह भी कि वह प्रस्तुतीकरण कहानी के रूप में हो। इसी तरह, कहानी का ताना-बाना सामान्यतया मानव के आसपास ही बुना जाना चाहिए।
भारतीय विज्ञान कथा-साहित्य की इसी प्रबल अंतर्धारा ने प्रस्तुत संग्रह के लिए कहानियों का चयन करते हुए महत्वपूर्ण एवं बुनियादी नियमों का काम किया। इस मुख्य आधार की उपेक्षा करना न तो उचित था और न ही प्रातिनिधिक।
ऐसा माना जाता है कि विज्ञान कथा-साहित्य का विकास चार विभिन्न चरणों में हुआ है। इस विधा के उद्बव के ठीक समय के बारे में पर्याप्त विवाद रहा है। कुछ विद्वान इस विधा को संभव है कि गिल्गामेश के बेबिलोनियाई महाकाव्य में खोजें। सभ्यता के उषाकाल की कहानियों में विज्ञान कथा-साहित्य का उद्भव खोजने का प्रलोभन भली प्रकार समझ में आता है। इसी तरह के विचारों एवं तर्कों को भारतीय समीकरणों में उतरते देखा गया है जहां आज के आधुनिक विज्ञान और प्रौद्योगिकी को वेदों से जोड़ा जाता है।
निष्पक्ष एवं तर्कपूर्ण विश्लेषणों के आधार पर सभी इस बात से सहमत हैं कि मेरी शैली कृत प्राचीन उत्कृष्ट ग्रंथ ‘फ्रैंक्स्टीन’ ही प्रथम विज्ञान कथा है। यह विडंबना ही है कि फ्रैंक्स्टीन वास्तव में उस वैज्ञानिक का नाम था जिसके अजीबोगरीब परीक्षणों की परिणति है वह दैत्याकार राक्षस, जिसे आज फ्रैंक्स्टीन समझा जाता है। संभवतया यह परिणाम भी उस मानवीय भूल का हो सकता है जो राक्षस की छाया में विज्ञान के छिपे काले पक्ष की आशंका से जन्मा हो और जो प्रयासकर्ताओं को भुगतना पड़ता है।
यह चाहे कितनी भी भयावह प्रतीत हो, मेरी शैली की कृति से उभरी अंतर्धारा में एक ऐसी पृष्ठभूमि थी जो साहसिक व रोमांचकारी थी और जिसने विज्ञान कथा-साहित्य के आरंभिक एवं मुख्य काल में अपना वर्चस्व बनाये रखा। यह स्थिति शताब्दी के तीसरे और चौथे दशक तक रही। जान कैम्पबैल द्वारा आसिमोव, हेनलीन और ऑर्थर क्लार्क जैसे लेखकों की सहायता से जब इस विधा में आमूल परिवर्तन किया गया तो सदियों से चले आ रहे इसके प्रभाव के पाश को तोड़ा जा सका।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि इस विधा के विकास का दूसरा चरण गर्न्सबैक और कैम्पबैल द्वारा रची गयी विज्ञान कथा-साहित्य की परिभाषा से प्रभावित था। इसलिए उस समय के स्पंदनशील विज्ञान कथा-साहित्य का आगे बढ़ाने के पीछे विज्ञान का बल लगा था। विज्ञान और कथा-साहित्य के बीच सामन्जस्य बनाये रखना तलवार की धार पर चलने के बराबर था। इस काल के कृतिकारों ने तटस्थ, अवैयक्तिक एवं पूर्णतः तार्किक विज्ञान का काल्पनिक, संवेदनशील और प्रायः तर्कहीन कथा-साहित्य से संगम कराया। चूंकि उस समय विज्ञान कथा-साहित्य लेखन का मूल उद्देश्य विज्ञान के मान्य सिद्धांतों की व्याख्या करना, उनका प्रचार करना और उनके संभावित भविष्य के मार्ग का वर्णन करना था, अतः यह संबंध कठिन सिद्ध नहीं हुआ। इस युग के विज्ञान कथा-साहित्य को परीक्षित एवं सर्वमान्य वैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित सीमित तर्क और भविष्य की कल्पना की उन्मुक्त उड़ान के समरूप और सामंजस्यपूर्ण समावेश से गढ़ा गया। परिणामस्वरूप, इस दौरान जो भी कृतियां सामने आयीं उन्हें आज भी विज्ञान कथा-साहित्य के स्वर्णयुगीन काल की भेंट माना जाता है, क्योंकि इस काल में विज्ञान कथा-साहित्य के कुछ ऐसे गौरव ग्रंथों की रचना हुई जिनका महत्व किसी समय कम नहीं होता।
इस विधा की इस धारा का आकर्षण इतना प्रबल रहा कि शायद आज तक भी बिना रुके वह जारी रहता। पर फिर आया द्वितीय विश्वयुद्ध, जिसने ब्रह्मांड के बारे में मानव की परिकल्पना को सदा के लिए बदल दिया। नागासाकी और हिरोशिमा पर गिराये गये परमाणु बमों से उठे मानवता को ध्वस्त करते बादलों ने जिस नृंशसता का परिचय दिया उससे मानव को यह विश्वास हो आया कि विज्ञान किस हद तक हिंसक होकर सामाजिक ढांचे और मानवीय मूल्यों को बदल सकता है। अब विज्ञान केवल ज्ञान की खोज और प्रकृति पर विजय पाने का अहिंसक मार्ग नहीं रह गया था। और इसके साथ जुड़ी विज्ञान प्रदत्त एक ऐसी संभावना, जिसमें मानव तो क्या मशीन तक, जीते जागते फ्रैंक्स्टीन की भांति बेकाबू दौड़ती दिखाई दी। जो भी हो, इसने मानव की कल्पनाशक्ति को व्यापकता अवश्य प्रदान की। समाज को भौगोलिक और नस्ल की संकीर्णताओं में बांटने वाली सीमा रेखाएं अब काल्पनिक दिखाई देने लगीं। मानव विश्व के परिप्रेक्ष्य में गंभीर चिंतन के लिए बाध्य हो गया था।
दृष्टिकोण के इस वैचारिक परिवर्तन को, तीसरे चरण में प्रवेश करते विज्ञान कथा-साहित्य में, प्रतिबिंबित होते देखा गया, जहां विज्ञान के उस गूढ़ क्षेत्र में अभी भी लिखा जाना बाकी था। परंतु आगे चलकर ज्ञात से अज्ञात की कल्पना और अनुभूति पर सामाजिक संदर्भों का वर्चस्व रहा। विज्ञान कथा-साहित्य में जो प्रमुखता विज्ञान की व्याख्या को दी जाती थी, अब वह विज्ञान और प्रौद्योगिकी के विकास और उसके सम्पूर्ण मानव समाज पर पड़ने वाले प्रभाव के परिणामों के खोजने को दी जाने लगी।
तीसरे चरण की इस परिपक्वता से विज्ञान कथा-साहित्य के आकर्षण को बढ़ावा मिला। यह वही समय था जब विश्व भर में समाजवाद और उदारवादी विचारों ने राजनैतिक और आर्थिक अखाड़ों में अपना प्रभुत्व स्थापित किया था। अब पाठक इस काल के विज्ञान कथा-साहित्य को न केवल कल्पना की उन्मुक्त उड़ान वरन् संभाव्य या वास्तविक सचाई से जोड़ सकते थे। दूरी और एकांत कम होने की वजह से पाठक में कथा-साहित्य के प्रति चाह उत्पन्न हुई जो उसके आराम और मनोरंजन तक पहुंची है। इस प्रगति से विज्ञानवादियों को भी संतोष हुआ क्योंकि इससे जन सामान्य की परोक्ष रूप में विज्ञान संबंधी मामलों में दिलचस्पी पैदा हुई।
कुछ लोगों का विचार था कि इस आकर्षण से जो कथा-साहित्य प्रेम उत्पन्न हुआ, वह विज्ञान और प्रौद्योगिकी की उस नयी और निराली व्यवस्था के कारण हुआ है, जबकि कुछ अन्य को यह आशंका थी कि कहीं विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के विकास का क्रम गलत हाथों में न चला जाये और पुनः उन दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं की पुनरावृत्ति न हो।
विज्ञान कथा-साहित्य के स्वरूप और उसकी मर्यादाओं के बारे में अभिव्यक्तियों की अग्नि-परीक्षा के फलस्वरूप विज्ञान कथा-साहित्य का एक स्थायी एवं अपूर्व रूप निखरकर सामने आया और वह नयी-नयी शाखाओं में विकसित होने लगा। यहीं से उसे अगले, यानी चौथे तथा निर्णायक चरण में पदार्पण करना था, परंतु उसमें अभी कुछ समय और वांछित था। किसी भी साहित्यिक विधा के विकास क्रम में, आगे या पीछे एक बार ऐसा पड़ाव अवश्य आता है जब उसके लेखक, आलोचक और पाठक सभी उसकी विषय-वस्तु की अपेक्षा उसकी शैली और स्वरूप पर अधिक ध्यान देने लगते हैं। छठे दशक में उभरा चौथे चरण का शैली-प्रधान विज्ञान कथा-साहित्य उसे उन नयी ऊंचाइयों पर ले गया जो कट्टरवादी विविधता वाले विज्ञान कथा-साहित्य से दूर था। उस समय से अमेरिका और यूरोप के विज्ञान कथा-साहित्य में इस काल की विशेषताओं का प्रबल प्रभाव रहा है। हालांकि सर्वसम्मत विज्ञान से इस कथा-साहित्यधारा का सूक्ष्म संबंध रहा है। इस कारण इसे नरम दल की धारा माना जाता है।
भारतीय विज्ञान कथा-साहित्य भी इसी तरह विभिन्न अवस्थाओं में से गुजरकर विकसित हुआ है। पिछली शताब्दी के संधिकाल में इस साहित्यिक विधा का कई भाषाओं में आविर्भाव हुआ। बंगला में पहली विज्ञान कथा लिखने का श्रेय प्रसिद्ध वैज्ञानिक जगदीश चन्द्र बसु को दिया जाता है। उनकी यह रचना वर्ष 1897 में प्रकाशित हुई। इसमें बताया गया था कि कैसे सिर पर लगाने वाले तेल की एक शीशी डालने से सन्निकट समुद्री तूफान टल गया। समुद्र पर विजय विज्ञान कथा-साहित्य की सर्वोत्कृष्ट विशेषताओं में से एक है अर्थात् कहानी का ताना-बाना वैज्ञानिक आधार पर एक दुर्बोध्य तथ्य का उद्घाटन है। मराठी में भी लगभग इसी समय, इस विधा में पहली कहानी लिखी गयी। एस.बी.रानाडे की कहानी ‘तरेचे हास्य’, और नाथ माधव रचित उपन्यास ‘श्रीनिवास राव’ लगभग एक साथ ही प्रकाशित हुए। उधर जूल्स वर्न की प्रसिद्ध विज्ञान कृति ‘जर्नी टू द मून’ का भी अनुवाद ‘केरल कोकिल’ में प्रकाशित हुआ।
इस अनूदित विज्ञान कथा-साहित्य में अधिकांशतः वर्न, वेल्स और उनके समकालीन लेखकों की कहानियां थीं जो इस विधा की उस प्रथम अवस्था से संबंधित थीं, जिसमें साहसिक कार्यों की प्रधानता थी। चूंकि इस शताब्दी के छठे दशक के अंत और सातवें दशक के आरंभ तक कथा-साहित्य की अन्य धाराओं का अलग-अलग शैलीगत विधाओं में वर्गीकरण हो चुका था, इसलिए विज्ञान कथा-साहित्य को परियों की कहानियों के साथ बाल साहित्य से जोड़कर छोड़ दिया गया। संभवतया यही कारण था कि बंगला में सत्यजीत रे और मराठी में डी.पी.खाम्बेटे और नारायण धारप जैसे नियमित रूप से लिखने वाले भारतीय लेखक भी विज्ञान कथा-साहित्य को निष्क्रियता से मुक्ति नहीं दिला सके।
यह स्थिति शताब्दी के सातवें दशक तक रही जब तक कि भारतीय विज्ञान कथा-साहित्य का पुनर्जन्म नहीं हुआ। इसके बाद उसने सीधे दूसरे सोपान पर छलांग लगायी और तेजी से तीसरे सोपान पर पहुंच गयी। इस पुनर्जन्म के कई कारण हो सकते हैं।
उधर वैज्ञानिक संचार कला में अभूतपूर्व परिवर्तन आया था। परिणामस्वरूप सभी भारतीय भाषाओं में वैज्ञानिक तथ्यों को सरल करके एक आम आदमी को समझाने की दृष्टि से लेख लिखे जाने लगे और ये एक साहित्यिक विधा का रूप ग्रहण करते गये जो विगत वर्षों में लिखे गये कथा-साहित्य की धरोहर मात्र थी। इस प्रकार, विज्ञान के लोकप्रिय लेखों को कहानी, लघुनाटिका या फिर साहित्यिक निबंधों के रूप में प्रस्तुत किया जाने लगा। इसी तरह वैज्ञानिक खोज की घटनाओं को लघुकथाओं के रूप में लिखा जाने लगा और उनमें वैज्ञानिकों को पात्र के रूप में प्रस्तुत भी किया जाने लगा। इन अनेक प्रयासों को गलती से प्रायः विज्ञान कथा-साहित्य माना जाने लगा। ऐसा साहित्य सभी भाषाओं में खूब लिखा गया और आज भी लिखा जा रहा है। हालांकि इसे न केवल लेखकों वरन् समीक्षकों और पाठकों द्वारा विज्ञान कथा-साहित्य नहीं माना जा सका और न ही विज्ञान कथा-साहित्य के किसी प्रतिनिधि संग्रह में उनको स्थान मिल सका। इसलिए उन्हें इस संग्रह में स्थान न मिलना स्वाभाविक था।
इधर, विज्ञान शिक्षा के नये पाठ्यक्रमों की १०+२+३ की प्रणाली में विज्ञान और गणित को प्रमुखता दी गयी। इस कारण अपने उज्जवल भविष्य की बलि चढ़ाये बिना विज्ञान और गणित से पीछा छुड़ाना संभव नहीं रहा। इसके परिणामस्वरूप आगे नहीं तो कम से कम दसवीं कक्षा तक तो विज्ञान का अध्ययन अनिवार्य हो गया। इलैक्ट्रानिक मीडिया, विशेषकर टेलिविजन के माध्यम ने आम आदमी में व्यापक वैज्ञानिक जागृति का अद्वितीय कार्य किया और विज्ञान कथा-साहित्य की पुन: शानदार वापसी के लिए मार्ग प्रशस्त किया।
वास्तव में, यह वही समय था जब मूर्धन्य वैज्ञानिकों अथवा प्रसिद्ध लेखकों ने विज्ञान कथा-साहित्य लिखने का प्रयास करना आरंभ किया। अंतर्राष्ट्रीय स्तर के सुविख्यात खगोलशास्त्री, जो विज्ञान कथा-साहित्य के प्रतिभाशाली लेखक भी हैं, सर फ्रेड हॉयल के शिष्य जयंत नार्लीकर ने मराठी में विज्ञान कथा-लेखन में अग्रणी होकर मार्गदर्शक के रूप में शुरूआत की। यह शुरूआत अति लोकप्रिय हुई और परिणामस्वरूप जो प्रसिद्ध पत्र-पत्रिकाएं पहले इस तरह के कथा साहित्य को छापने में स्पष्ट इन्कार करते थे, वे अब उन्हें प्रकाशित करने के लिए निश्चित स्थान का प्रावधान करने लगे। इस तरह से विज्ञान कथा-साहित्य के प्रति आये बदलाव में इस विधा के सम्मान में वृद्धि हुई, जिससे मराठी में विज्ञान कथा-साहित्य की जड़ें मजबूत हुईं और धीरे-धीरे समस्त विधा एक विशाल वृक्ष के रूप में पल्लवित होती दिखाई दी। इसी प्रकार के एक घटनाक्रम का तूफान बंगला साहित्य जगत में भी आया और उसने बंगला में विज्ञान कथा-साहित्य को सुस्थापित किया। अन्य भारतीय भाषाओं की स्थिति व विकास यात्रा भी इसी प्रकार की रही है।
इस तरह के आधुनिक भारतीय विज्ञान कथा-साहित्य पर अधिकांशतया विज्ञान कथा-साहित्य यात्रा के द्वितीय व तृतीय चरणों का प्रभाव दिखाई देता है। बाद में, विज्ञान कथा-साहित्य तृतीय चरण से प्रभावित पाया गया। यह तो सत्य है कि विज्ञान और प्रौद्योगिकी की प्रगति से आज मानव के क्रियाकलापों, व्यवहार और संबंधों में जो परिवर्तन आया है, उससे बदलते सामाजिक परिवेश और आचार-विचार दोनों में वास्तविकता और संभव हो सकने की सार्थकता प्रकाश में आयी। जीवन में विज्ञान के पदार्पण के परिणामस्वरूप हुई क्रांति को विज्ञान कथा-साहित्य में सत्य होते देखा गया। विज्ञान कथा-साहित्य के अतिरिक्त साहित्य की किसी अन्य विधा में इस प्रकार की कल्पना को सम्पूर्ण और इतने व्यापक ढंग से प्रस्तुत करने की सुविधा नहीं है।
सामाजिक संदर्भ में प्रासंगिक विज्ञान कथा-साहित्य के आज भारतीय विज्ञान कथा-साहित्य पर छाये होने का एक कारण दूसरा भी है। जीवविज्ञान के विकास ने विशेषकर आण्विक जीवविज्ञान और उसकी सहोदर जैवप्रौद्योगिकी जैसी अत्यंत शक्तिशाली नयी उपशाखाओं को जन्म दिया है। इन शाखाओं के विज्ञान ने मानव में जीवन का सृजन करने, उसे अपने अनुसार ढालने और बदलने की ऐसी क्षमता उत्पन्न करने की वचनबद्धता पूरी की है जिसके परिणामस्वरूप समाज के ढांचे और कार्यप्रणाली के साथ-साथ आचारिक और नैतिक सिद्धांतों में आमूल परिवर्तन संभव हो सका है। मानव का ईश्वर को खिलौना समझकर खेलने के प्रयास ने हमारे आपसी संबंधों की प्रकृति को इस हद तक बदलने की धमकी दी है जिससे वे अपनी पहचान तक खो दें। आज तक अत्यंत व्यक्तिगत समझी जाने वाली बातें और स्थितियां उस अवस्था में पहुंच रही हैं कि स्वयं व्यक्ति का ही उनमें दखल समाप्त हो जाये। ऐसे में यह स्वाभाविक था कि एक बड़ी संख्या में आज भारतीय विज्ञान कथाओं का विषय इस परिवर्तन से जुड़ा हो। आज के विज्ञान कथा-साहित्य में वैज्ञानिक प्रगति और मानवीय भावनाओं अथवा सामाजिक सिद्धांतों के आपसी प्रभाव को आज भारतीय विज्ञान कथा-साहित्य की प्रतिनिधि रचना-संग्रह की आधारशिला माना जाये।
यह सिर्फ इसलिए है कि अधिकांशतया भारतीय विज्ञान कथा-साहित्य इस विकास यात्रा के उस द्वितीय और तृतीय चरणों से संबंधित है जिसकी वजह से इसने एक ऐसा विशिष्ट गुण प्राप्त किया है जो इसे यूरोपीय और अमेरिकी विज्ञान कथा-साहित्य से भिन्न भारतीय नाम देता है। दूसरे शब्दों में, इस कथा-साहित्य की भारतीयता उसके भौगोलिक मूल पर नहीं वरन् सांस्कृतिक और सामाजिक अवधारणाओं पर आधारित है जो इसकी अंतर्रात्मा है।
साहसिक प्रवृत्ति का होने के कारण विज्ञान कथा-साहित्य का पहला चरण वास्तव में उन परिस्थितियों और जातिगत परिवेशों पर निर्भर नहीं करता जिनसे वह उत्पन्न हुआ है। मानव के साहसिक कार्यों के प्रति लगाव उसकी जाति से परे, उसके स्वयं के होते हैं। ऐसी कहानियां आम जीवन की गुणवत्ता और सामाजिक ढांचे से उत्पन्न आकांक्षाओं से बिल्कुल संबंधित नहीं होतीं जिन्हें लेखक और पाठक समान रूप से जीते हैं।
ऐसा द्वितीय एवं विशेषकर तृतीय चरण के विज्ञान कथा-साहित्य में नहीं है। यद्यपि दूसरे चरण में विज्ञान को समझाने की दृष्टि से लिखे गये कथा-साहित्य का वर्चस्व रहा, फिर भी रचनाकार इस बात को नजरअंदाज नहीं कर सकता है कि पाठक की सांस्कृतिक और भावात्मक पृष्ठभूमि क्या है। वैसे, चाहे कहानी और उसके विषय की कथा-साहित्य में कितनी भी महत्वपूर्ण भूमिका क्यों न हो, वह पाठक को अपनी ओर आकृष्ट करने में सफल नहीं है, जब तक कि वह कहानी के पात्रों के साथ एकाकार नहीं कर लेता।
इस विधा की तीव्र गति से बढ़ती लोकप्रियता से गर्न्सबैक को विज्ञान कथा-साहित्य की सीमाएं निर्धारित करने की प्रेरणा मिली होगी। उन्होंने कहा था, ‘‘ ‘साइंटीफिक्शन’ से मेरा अभिप्राय जूल्स वर्न, एच.जी.वेल्स और एडगर एलन पो द्वारा लिखी गयी ऐसी कहानियों से है जिसमें आकर्षक रोमांस के साथ वैज्ञानिक तथ्य और युगदृष्टा की दूरदर्शिता का सम्मिश्रण हो। ये आश्चर्यजनक कहानियां न केवल पढ़ने में अति रोचक वरन् शिक्षाप्रद भी होती हैं। यह ज्ञान को बहुत ही सुग्राह्य रूप से प्रस्तुत करती हैं। आज विज्ञान कथा-साहित्य में विचित्र किये गये किसी आविष्कार के कल सत्य हो जाने में असंभव जैसा कुछ नहीं है।’’
जिस प्रकार धान से चावल को पृथक कर सारतत्व को निकाल लिया जाता है उसी प्रकार गर्न्सबैक ने सदैव ही यह चेष्टा की कि वास्तविक सार को किसी भी विषय से निकालकर प्रस्तुत किया जाये। ऐसा करना अत्यंत आवश्यक एवं औचित्यपूर्ण भी था क्योंकि छद्म विज्ञान के नाम पर कल्पना की किसी भी उड़ान को विज्ञान कथा-साहित्य के रूप में स्वीकार किये जाने की पूरी आशंका थी। गर्न्सबैक के बाद विज्ञान कथा-साहित्य को परिभाषित और परिमार्जित करने की दिशा में पर्याप्त प्रगति हुई फिर भी उक्त आशंका को पूरी तरह टाला नहीं जा सका। इसी आशंका के कारण गर्न्सबैक ने विज्ञान कथा-साहित्य की परिभाषा को नपे तुले शब्दों में तैयार करने में जो तत्परता बरती वह आवश्यक थी।
इस सबके बावजूद गर्न्सबैक द्वारा विज्ञान कथा-साहित्य को दी गयी परिभाषा को अग्नि परीक्षा की व्यथा से गुजरना पड़ा। इस कारण विज्ञान कथा-साहित्य की विधा को न केवल ‘अनुमानात्मक कथा-साहित्य’ का नाम दिया गया जो ठीक था, वरन् उसे ‘भविष्यदृष्टा कथा-साहित्य’ भी कहा जाने लगा। इसलिए साहित्य की इस विधा में लिखनेवालों से यह अपेक्षा की जाने लगी कि उनके लेखन में न केवल विलक्षणता, दूरदर्शिता हो, बल्कि अद्भुत कल्पनाशक्ति भी हो।
आरंभिक काल के वेल्स और वर्न जैसे चोटी के लेखकों के भावी घटनाक्रमों के पूर्वानुमानों के पर्याप्त ठीक निकलने की सफलता ने गर्न्सबैक जैसे व्यक्तित्व को प्रभावित किया होगा, भले ही उन लेखकों ने घटनाओं की ओर संकेत किया हो या रूपरेखा मात्र ही दी हो। वेल्स और वर्न के प्रयास चाहें कितने भी असाधारण रहे हों पर वे नियम नहीं वरन् अपवाद ही हो सकते थे। यह ठीक वैसे ही था जैसे कहीं ऊंची चोटी पर बैठकर नीचे की भूमि की पूरी जानकारी लिए बिना उसके लिए योजना और कानून बनाना, जो संभव नहीं हो सकता।
यह अवाछिंत भार विज्ञान कथा-साहित्य की तेजी से उभर रही नये लेखकों की पीढ़ी के लिए वास्तव में बहुत अधिक था। इस शताब्दी के दूसरे दशक में जान कैम्पबैल ने आइसाक आसिमोव और राबर्ट हेनलीन सहित तत्कालीन स्वर्णयुगीन नये लेखकों के लिए दाई मां की कठिन भूमिका निभाई और साथ ही उन्होंने संघर्ष का सामना भी किया। इस विधा के संबंध में उन्होंने अपना एक नीति-पत्र भी प्रस्तुत किया। उनके इस उपक्रम ने विज्ञान कथा-साहित्य की टेढ़ी नींव को सुस्थापित करने हेतु उसे संतुलित सशक्तता भी प्रदान की।
कैम्पबैल का प्रस्ताव था-‘‘विज्ञान कथा-साहित्य को विज्ञान परिवार का साहित्यिक माध्यम माना जाना चाहिए। वैज्ञानिक कार्यपद्धति एक ऐसी संभाव्यता है, जो न केवल भली प्रकार समझ-बूझकर सिद्धांत की व्याख्या करती है, वरन् नयी और अनखोजी वस्तुओं के बारे में भी अपना मत व्यक्त करती है। विज्ञान कथा-साहित्य भी बहुत ऐसे आकार ग्रहण करते हैं जो न केवल मशीनों पर बल्कि मानव समाज पर भी लागू होते हैं।’’ विज्ञान कथा-साहित्य को साइंटीफिक्शन की बजाय वर्तमान ‘साइंस फिक्शन’ नाम देने का श्रेय भी जान कैम्पबैल को ही है।
कैम्पबैल की इन परिभाषाओं में यह संभावना स्पष्ट रूप से अंतनिर्हित थी कि कथा-साहित्य की यह विधा अपनी समकालीन विधाओं की अपेक्षा विषय-वस्तु, रूप और क्षेत्र में कहीं अधिक गतिमान होगी। वह अपेक्षा से कहीं अधिक सफल रही, किंतु साथ ही इसकी मूल संकल्पना में उदारीकरण भी होता गया। इसके फलस्वरूप नये लेखकों को नये क्षेत्रों को खोजने का साहस हुआ और जो सत्कार योग्य लगा उन्होंने विज्ञान कथा-साहित्य की मुख्य धारा में जोड़ा। विज्ञान कथा-साहित्य के इन्हीं अर्धविकसित व परिवर्तित रूपांतरों ने अपने क्षेत्र के दिग्गज कथाकारों को जन्म दिया।
यह तो हमें ईमानदारी से मानना ही पड़ेगा कि विज्ञान कथा-साहित्य के इन नये मसीहाओं और उनके अनुयायियों ने इस माध्यम को समृद्ध बनाने में अपना योगदान दिया है। हर नयी सफलता ने दूसरों को उस दिशा में आगे साहसिक पग उठाने, नये प्रयोग कर नये मार्ग खोजने तथा नयी पद्धतियों को प्रसारित करने के लिए प्रोत्साहित किया। इसका परिणाम यह हुआ कि साहित्य की बहुत सी अन्य विधाओं की तरह विज्ञान कथा-साहित्य की प्रगति को कभी भी अवरुद्धता और गतिहीनता का भय नहीं हुआ।
फिर भी, इस दौरान कुछ खोज यात्राएं इतनी दूरी तक की गयीं जिनसे मूल विधा से जुड़े सूत्रों में बहुत अधिक तनाव का आभास हुआ। थियोडोर स्टर्जीऑन ने इस अभियान का शुभारंभ अपनी स्वयं की विज्ञान कथा-साहित्य की परिभाषा की घोषणा से किया कि ‘‘विज्ञान कथा-साहित्य एक ऐसी कहानी है जो मानव के चारों ओर किसी मानवीय समस्या और उसके समाधान के ऐसे ताने-बाने से गढ़ी जाती है जो वैज्ञानिक विषय-वस्तु के बिना घटित नहीं हो सकती है।’’ विज्ञान और कथा-साहित्य के एकीकरण का यह एक प्रशंसनीय प्रयास था क्योंकि विज्ञान किसी तर्कहीनता को सहन नहीं करता और कथा-साहित्य में भावावेश और कल्पना जैसी उन मानवीय शक्तियों की ओर झुकाव अधिक होता है जो कारण और तर्क पर प्रायः कटाक्ष करती हैं।
स्टर्जीऑन की इस परिभाषा ने गर्न्सबैक और कैम्पबैल के वर्षों के अथक प्रयासों द्वारा निर्मित मर्यादा पर एक ऐसी चोट की जिससे वर्षों से बंधा बांध टूट गया और लेखनी का उन्माद बह निकला। जिन लेखकों ने स्टर्जीऑन का अनुसरण किया उन्होंने सदैव कल्पना को विज्ञान की लगाम से शासित करना आवश्यक नहीं समझा। इसी कारण एक नयी परिभाषा को लोकप्रियता प्राप्त हुई-‘‘विज्ञान कथा-साहित्य वर्णनात्मक गद्य का वह स्वरूप है जिसकी पृष्ठभूमि उस विश्व की नहीं है जिसे हम जानते हैं वरन् उस काल्पनिक जगत की है जो विज्ञान के कुछ आविष्कारों या प्रौद्योगिकी या छद्म विज्ञान या छद्म प्रौद्योगिकी या मानव या पृथ्वी के अतिरिक्त अन्य स्थान की है।’’
यह ऐसी शुरुआत थी जिससे एक अजीब स्थिति पैदा हुई। परिणामस्वरूप अंग्रेजी भाषी पश्चिमी दुनिया में मौलिक रूप में ऐसा नया विज्ञान कथा-साहित्य बड़ी मात्रा में लिखा जा रहा है जिसमें वास्तविक विज्ञान का पुट बहुत कम है। वर्तमान के इस विज्ञान कथा-साहित्य में जिस रफ्तार और मात्रा में छद्म विज्ञान और छद्म प्रौद्योगिकी का समावेश किया जा रहा है उससे तो यह स्पष्ट है कि यह विधा अपना मूल स्वरूप खो बैठेगी। वास्तव में, ऐसा होने से विज्ञान कथा-साहित्य का रूप न सिर्फ अपने अनुरागी एवं पारखीजनों वरन् इस विधा को समर्थन और प्रेरणा देने वाले लेखकों और प्रतिभाओं में भी भ्रांतियां उत्पन्न करता दिखाई देता है।
पश्चिमी देशों की अन्य भाषाओं में उक्त विधा की स्थिति क्या और कैसी है, यह स्पष्ट नहीं है क्योंकि उनका अंग्रेजी में अनुवाद न के बराबर उपलब्ध है। हां, अंग्रेजी में उपलब्ध अनूदित रूसी और पोलिश विज्ञान कथा-साहित्य की संख्या काफी अधिक है। इन भाषाओं के लेखकों की गर्न्सबैक, कैम्पबैल और स्टर्जीऑन की विचारधारा में पूरी निष्ठा पायी जाती है और वे स्टेनीसला लैम द्वारा दिये उदाहरण से पूरी तरह प्रभावित लगते हैं। हालांकि रूसी कथा-साहित्य में भाषा का गठाव कुछ इस प्रकार का है कि कथा-साहित्य का रोचक पक्ष लुप्त होता दिखाई देता है।
भारत के अंग्रेजी तथा अन्य भारतीय भाषाओं के कई विज्ञान कथा-साहित्य लेखक अमेरिका-ब्रिटेन के समकालीन विज्ञान कथा-साहित्य में प्रतिनिधित्व करनेवाले लेखकों से प्रभावित हैं। परिणामस्वरूप वे भी छद्म विज्ञान का सहारा लेते हैं और कृतियों में उन मुहावरों का प्रयोग करते हैं जो भारतीय लोकाचार से मेल नहीं खाते। इस प्रकार के साहित्य को भारतीय विज्ञान कथा-साहित्य माना भी जाये या नहीं, यह प्रश्न अपने आपमें कम महत्वपूर्ण नहीं है। परंतु वास्तविकता मात्र यही है कि इसमें न तो भारतीयता है और न ही विज्ञान कथा-साहित्य का अंश, सिवा इसके कि ये लेखक भारत के हैं। अंग्रेजी साहित्य के भारतीय पाठकों का नाता शायद थोड़ा बहुत पश्चिमी जगत की संस्कृति से जुड़ा हुआ है, इसलिए संभवतः ये लेखक इस तरह की कहानियां लिखते हैं। यदि वे विज्ञान कथा-साहित्य के प्रतिष्ठित स्वरूप से जुड़े रहते तो उनका मूल विज्ञान और कल्पना की उन्मुक्त उड़ान के मध्य रखी सामन्जस्य की तलवार पर चलना आवश्यक हो जाता। कल्पना की उन्मुक्त उड़ान को उन्हें अपने विज्ञान के ज्ञात और मान्य तथ्यों तक सीमित रखना आवश्यक होता जिसे कर पाना आसान नहीं। छद्म विज्ञान की बैसाखी से उन्हें तुरंत इस बंधन से मुक्ति मिल जाती है। इस कारण इस तथ्य को नकारा नहीं जा सकता कि यह स्थिति उनके आकर्षण का बल रही होगी।
वैसे, इस प्रकार के लेखकों की संख्या, विशेषकर भारतीय भाषाओं में, अधिक नहीं है। अधिकांश उपलब्ध भारतीय भाषाओं का विज्ञान कथा-साहित्य स्टर्जीऑन के विचारों से प्रभावित दिखाई देता है। इसलिए, विज्ञान के किसी भी विकास को परिशुद्धता से प्रस्तुत करने को नहीं भूलना चाहिए तथा यह भी कि वह प्रस्तुतीकरण कहानी के रूप में हो। इसी तरह, कहानी का ताना-बाना सामान्यतया मानव के आसपास ही बुना जाना चाहिए।
भारतीय विज्ञान कथा-साहित्य की इसी प्रबल अंतर्धारा ने प्रस्तुत संग्रह के लिए कहानियों का चयन करते हुए महत्वपूर्ण एवं बुनियादी नियमों का काम किया। इस मुख्य आधार की उपेक्षा करना न तो उचित था और न ही प्रातिनिधिक।
ऐसा माना जाता है कि विज्ञान कथा-साहित्य का विकास चार विभिन्न चरणों में हुआ है। इस विधा के उद्बव के ठीक समय के बारे में पर्याप्त विवाद रहा है। कुछ विद्वान इस विधा को संभव है कि गिल्गामेश के बेबिलोनियाई महाकाव्य में खोजें। सभ्यता के उषाकाल की कहानियों में विज्ञान कथा-साहित्य का उद्भव खोजने का प्रलोभन भली प्रकार समझ में आता है। इसी तरह के विचारों एवं तर्कों को भारतीय समीकरणों में उतरते देखा गया है जहां आज के आधुनिक विज्ञान और प्रौद्योगिकी को वेदों से जोड़ा जाता है।
निष्पक्ष एवं तर्कपूर्ण विश्लेषणों के आधार पर सभी इस बात से सहमत हैं कि मेरी शैली कृत प्राचीन उत्कृष्ट ग्रंथ ‘फ्रैंक्स्टीन’ ही प्रथम विज्ञान कथा है। यह विडंबना ही है कि फ्रैंक्स्टीन वास्तव में उस वैज्ञानिक का नाम था जिसके अजीबोगरीब परीक्षणों की परिणति है वह दैत्याकार राक्षस, जिसे आज फ्रैंक्स्टीन समझा जाता है। संभवतया यह परिणाम भी उस मानवीय भूल का हो सकता है जो राक्षस की छाया में विज्ञान के छिपे काले पक्ष की आशंका से जन्मा हो और जो प्रयासकर्ताओं को भुगतना पड़ता है।
यह चाहे कितनी भी भयावह प्रतीत हो, मेरी शैली की कृति से उभरी अंतर्धारा में एक ऐसी पृष्ठभूमि थी जो साहसिक व रोमांचकारी थी और जिसने विज्ञान कथा-साहित्य के आरंभिक एवं मुख्य काल में अपना वर्चस्व बनाये रखा। यह स्थिति शताब्दी के तीसरे और चौथे दशक तक रही। जान कैम्पबैल द्वारा आसिमोव, हेनलीन और ऑर्थर क्लार्क जैसे लेखकों की सहायता से जब इस विधा में आमूल परिवर्तन किया गया तो सदियों से चले आ रहे इसके प्रभाव के पाश को तोड़ा जा सका।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि इस विधा के विकास का दूसरा चरण गर्न्सबैक और कैम्पबैल द्वारा रची गयी विज्ञान कथा-साहित्य की परिभाषा से प्रभावित था। इसलिए उस समय के स्पंदनशील विज्ञान कथा-साहित्य का आगे बढ़ाने के पीछे विज्ञान का बल लगा था। विज्ञान और कथा-साहित्य के बीच सामन्जस्य बनाये रखना तलवार की धार पर चलने के बराबर था। इस काल के कृतिकारों ने तटस्थ, अवैयक्तिक एवं पूर्णतः तार्किक विज्ञान का काल्पनिक, संवेदनशील और प्रायः तर्कहीन कथा-साहित्य से संगम कराया। चूंकि उस समय विज्ञान कथा-साहित्य लेखन का मूल उद्देश्य विज्ञान के मान्य सिद्धांतों की व्याख्या करना, उनका प्रचार करना और उनके संभावित भविष्य के मार्ग का वर्णन करना था, अतः यह संबंध कठिन सिद्ध नहीं हुआ। इस युग के विज्ञान कथा-साहित्य को परीक्षित एवं सर्वमान्य वैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित सीमित तर्क और भविष्य की कल्पना की उन्मुक्त उड़ान के समरूप और सामंजस्यपूर्ण समावेश से गढ़ा गया। परिणामस्वरूप, इस दौरान जो भी कृतियां सामने आयीं उन्हें आज भी विज्ञान कथा-साहित्य के स्वर्णयुगीन काल की भेंट माना जाता है, क्योंकि इस काल में विज्ञान कथा-साहित्य के कुछ ऐसे गौरव ग्रंथों की रचना हुई जिनका महत्व किसी समय कम नहीं होता।
इस विधा की इस धारा का आकर्षण इतना प्रबल रहा कि शायद आज तक भी बिना रुके वह जारी रहता। पर फिर आया द्वितीय विश्वयुद्ध, जिसने ब्रह्मांड के बारे में मानव की परिकल्पना को सदा के लिए बदल दिया। नागासाकी और हिरोशिमा पर गिराये गये परमाणु बमों से उठे मानवता को ध्वस्त करते बादलों ने जिस नृंशसता का परिचय दिया उससे मानव को यह विश्वास हो आया कि विज्ञान किस हद तक हिंसक होकर सामाजिक ढांचे और मानवीय मूल्यों को बदल सकता है। अब विज्ञान केवल ज्ञान की खोज और प्रकृति पर विजय पाने का अहिंसक मार्ग नहीं रह गया था। और इसके साथ जुड़ी विज्ञान प्रदत्त एक ऐसी संभावना, जिसमें मानव तो क्या मशीन तक, जीते जागते फ्रैंक्स्टीन की भांति बेकाबू दौड़ती दिखाई दी। जो भी हो, इसने मानव की कल्पनाशक्ति को व्यापकता अवश्य प्रदान की। समाज को भौगोलिक और नस्ल की संकीर्णताओं में बांटने वाली सीमा रेखाएं अब काल्पनिक दिखाई देने लगीं। मानव विश्व के परिप्रेक्ष्य में गंभीर चिंतन के लिए बाध्य हो गया था।
दृष्टिकोण के इस वैचारिक परिवर्तन को, तीसरे चरण में प्रवेश करते विज्ञान कथा-साहित्य में, प्रतिबिंबित होते देखा गया, जहां विज्ञान के उस गूढ़ क्षेत्र में अभी भी लिखा जाना बाकी था। परंतु आगे चलकर ज्ञात से अज्ञात की कल्पना और अनुभूति पर सामाजिक संदर्भों का वर्चस्व रहा। विज्ञान कथा-साहित्य में जो प्रमुखता विज्ञान की व्याख्या को दी जाती थी, अब वह विज्ञान और प्रौद्योगिकी के विकास और उसके सम्पूर्ण मानव समाज पर पड़ने वाले प्रभाव के परिणामों के खोजने को दी जाने लगी।
तीसरे चरण की इस परिपक्वता से विज्ञान कथा-साहित्य के आकर्षण को बढ़ावा मिला। यह वही समय था जब विश्व भर में समाजवाद और उदारवादी विचारों ने राजनैतिक और आर्थिक अखाड़ों में अपना प्रभुत्व स्थापित किया था। अब पाठक इस काल के विज्ञान कथा-साहित्य को न केवल कल्पना की उन्मुक्त उड़ान वरन् संभाव्य या वास्तविक सचाई से जोड़ सकते थे। दूरी और एकांत कम होने की वजह से पाठक में कथा-साहित्य के प्रति चाह उत्पन्न हुई जो उसके आराम और मनोरंजन तक पहुंची है। इस प्रगति से विज्ञानवादियों को भी संतोष हुआ क्योंकि इससे जन सामान्य की परोक्ष रूप में विज्ञान संबंधी मामलों में दिलचस्पी पैदा हुई।
कुछ लोगों का विचार था कि इस आकर्षण से जो कथा-साहित्य प्रेम उत्पन्न हुआ, वह विज्ञान और प्रौद्योगिकी की उस नयी और निराली व्यवस्था के कारण हुआ है, जबकि कुछ अन्य को यह आशंका थी कि कहीं विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के विकास का क्रम गलत हाथों में न चला जाये और पुनः उन दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं की पुनरावृत्ति न हो।
विज्ञान कथा-साहित्य के स्वरूप और उसकी मर्यादाओं के बारे में अभिव्यक्तियों की अग्नि-परीक्षा के फलस्वरूप विज्ञान कथा-साहित्य का एक स्थायी एवं अपूर्व रूप निखरकर सामने आया और वह नयी-नयी शाखाओं में विकसित होने लगा। यहीं से उसे अगले, यानी चौथे तथा निर्णायक चरण में पदार्पण करना था, परंतु उसमें अभी कुछ समय और वांछित था। किसी भी साहित्यिक विधा के विकास क्रम में, आगे या पीछे एक बार ऐसा पड़ाव अवश्य आता है जब उसके लेखक, आलोचक और पाठक सभी उसकी विषय-वस्तु की अपेक्षा उसकी शैली और स्वरूप पर अधिक ध्यान देने लगते हैं। छठे दशक में उभरा चौथे चरण का शैली-प्रधान विज्ञान कथा-साहित्य उसे उन नयी ऊंचाइयों पर ले गया जो कट्टरवादी विविधता वाले विज्ञान कथा-साहित्य से दूर था। उस समय से अमेरिका और यूरोप के विज्ञान कथा-साहित्य में इस काल की विशेषताओं का प्रबल प्रभाव रहा है। हालांकि सर्वसम्मत विज्ञान से इस कथा-साहित्यधारा का सूक्ष्म संबंध रहा है। इस कारण इसे नरम दल की धारा माना जाता है।
भारतीय विज्ञान कथा-साहित्य भी इसी तरह विभिन्न अवस्थाओं में से गुजरकर विकसित हुआ है। पिछली शताब्दी के संधिकाल में इस साहित्यिक विधा का कई भाषाओं में आविर्भाव हुआ। बंगला में पहली विज्ञान कथा लिखने का श्रेय प्रसिद्ध वैज्ञानिक जगदीश चन्द्र बसु को दिया जाता है। उनकी यह रचना वर्ष 1897 में प्रकाशित हुई। इसमें बताया गया था कि कैसे सिर पर लगाने वाले तेल की एक शीशी डालने से सन्निकट समुद्री तूफान टल गया। समुद्र पर विजय विज्ञान कथा-साहित्य की सर्वोत्कृष्ट विशेषताओं में से एक है अर्थात् कहानी का ताना-बाना वैज्ञानिक आधार पर एक दुर्बोध्य तथ्य का उद्घाटन है। मराठी में भी लगभग इसी समय, इस विधा में पहली कहानी लिखी गयी। एस.बी.रानाडे की कहानी ‘तरेचे हास्य’, और नाथ माधव रचित उपन्यास ‘श्रीनिवास राव’ लगभग एक साथ ही प्रकाशित हुए। उधर जूल्स वर्न की प्रसिद्ध विज्ञान कृति ‘जर्नी टू द मून’ का भी अनुवाद ‘केरल कोकिल’ में प्रकाशित हुआ।
इस अनूदित विज्ञान कथा-साहित्य में अधिकांशतः वर्न, वेल्स और उनके समकालीन लेखकों की कहानियां थीं जो इस विधा की उस प्रथम अवस्था से संबंधित थीं, जिसमें साहसिक कार्यों की प्रधानता थी। चूंकि इस शताब्दी के छठे दशक के अंत और सातवें दशक के आरंभ तक कथा-साहित्य की अन्य धाराओं का अलग-अलग शैलीगत विधाओं में वर्गीकरण हो चुका था, इसलिए विज्ञान कथा-साहित्य को परियों की कहानियों के साथ बाल साहित्य से जोड़कर छोड़ दिया गया। संभवतया यही कारण था कि बंगला में सत्यजीत रे और मराठी में डी.पी.खाम्बेटे और नारायण धारप जैसे नियमित रूप से लिखने वाले भारतीय लेखक भी विज्ञान कथा-साहित्य को निष्क्रियता से मुक्ति नहीं दिला सके।
यह स्थिति शताब्दी के सातवें दशक तक रही जब तक कि भारतीय विज्ञान कथा-साहित्य का पुनर्जन्म नहीं हुआ। इसके बाद उसने सीधे दूसरे सोपान पर छलांग लगायी और तेजी से तीसरे सोपान पर पहुंच गयी। इस पुनर्जन्म के कई कारण हो सकते हैं।
उधर वैज्ञानिक संचार कला में अभूतपूर्व परिवर्तन आया था। परिणामस्वरूप सभी भारतीय भाषाओं में वैज्ञानिक तथ्यों को सरल करके एक आम आदमी को समझाने की दृष्टि से लेख लिखे जाने लगे और ये एक साहित्यिक विधा का रूप ग्रहण करते गये जो विगत वर्षों में लिखे गये कथा-साहित्य की धरोहर मात्र थी। इस प्रकार, विज्ञान के लोकप्रिय लेखों को कहानी, लघुनाटिका या फिर साहित्यिक निबंधों के रूप में प्रस्तुत किया जाने लगा। इसी तरह वैज्ञानिक खोज की घटनाओं को लघुकथाओं के रूप में लिखा जाने लगा और उनमें वैज्ञानिकों को पात्र के रूप में प्रस्तुत भी किया जाने लगा। इन अनेक प्रयासों को गलती से प्रायः विज्ञान कथा-साहित्य माना जाने लगा। ऐसा साहित्य सभी भाषाओं में खूब लिखा गया और आज भी लिखा जा रहा है। हालांकि इसे न केवल लेखकों वरन् समीक्षकों और पाठकों द्वारा विज्ञान कथा-साहित्य नहीं माना जा सका और न ही विज्ञान कथा-साहित्य के किसी प्रतिनिधि संग्रह में उनको स्थान मिल सका। इसलिए उन्हें इस संग्रह में स्थान न मिलना स्वाभाविक था।
इधर, विज्ञान शिक्षा के नये पाठ्यक्रमों की १०+२+३ की प्रणाली में विज्ञान और गणित को प्रमुखता दी गयी। इस कारण अपने उज्जवल भविष्य की बलि चढ़ाये बिना विज्ञान और गणित से पीछा छुड़ाना संभव नहीं रहा। इसके परिणामस्वरूप आगे नहीं तो कम से कम दसवीं कक्षा तक तो विज्ञान का अध्ययन अनिवार्य हो गया। इलैक्ट्रानिक मीडिया, विशेषकर टेलिविजन के माध्यम ने आम आदमी में व्यापक वैज्ञानिक जागृति का अद्वितीय कार्य किया और विज्ञान कथा-साहित्य की पुन: शानदार वापसी के लिए मार्ग प्रशस्त किया।
वास्तव में, यह वही समय था जब मूर्धन्य वैज्ञानिकों अथवा प्रसिद्ध लेखकों ने विज्ञान कथा-साहित्य लिखने का प्रयास करना आरंभ किया। अंतर्राष्ट्रीय स्तर के सुविख्यात खगोलशास्त्री, जो विज्ञान कथा-साहित्य के प्रतिभाशाली लेखक भी हैं, सर फ्रेड हॉयल के शिष्य जयंत नार्लीकर ने मराठी में विज्ञान कथा-लेखन में अग्रणी होकर मार्गदर्शक के रूप में शुरूआत की। यह शुरूआत अति लोकप्रिय हुई और परिणामस्वरूप जो प्रसिद्ध पत्र-पत्रिकाएं पहले इस तरह के कथा साहित्य को छापने में स्पष्ट इन्कार करते थे, वे अब उन्हें प्रकाशित करने के लिए निश्चित स्थान का प्रावधान करने लगे। इस तरह से विज्ञान कथा-साहित्य के प्रति आये बदलाव में इस विधा के सम्मान में वृद्धि हुई, जिससे मराठी में विज्ञान कथा-साहित्य की जड़ें मजबूत हुईं और धीरे-धीरे समस्त विधा एक विशाल वृक्ष के रूप में पल्लवित होती दिखाई दी। इसी प्रकार के एक घटनाक्रम का तूफान बंगला साहित्य जगत में भी आया और उसने बंगला में विज्ञान कथा-साहित्य को सुस्थापित किया। अन्य भारतीय भाषाओं की स्थिति व विकास यात्रा भी इसी प्रकार की रही है।
इस तरह के आधुनिक भारतीय विज्ञान कथा-साहित्य पर अधिकांशतया विज्ञान कथा-साहित्य यात्रा के द्वितीय व तृतीय चरणों का प्रभाव दिखाई देता है। बाद में, विज्ञान कथा-साहित्य तृतीय चरण से प्रभावित पाया गया। यह तो सत्य है कि विज्ञान और प्रौद्योगिकी की प्रगति से आज मानव के क्रियाकलापों, व्यवहार और संबंधों में जो परिवर्तन आया है, उससे बदलते सामाजिक परिवेश और आचार-विचार दोनों में वास्तविकता और संभव हो सकने की सार्थकता प्रकाश में आयी। जीवन में विज्ञान के पदार्पण के परिणामस्वरूप हुई क्रांति को विज्ञान कथा-साहित्य में सत्य होते देखा गया। विज्ञान कथा-साहित्य के अतिरिक्त साहित्य की किसी अन्य विधा में इस प्रकार की कल्पना को सम्पूर्ण और इतने व्यापक ढंग से प्रस्तुत करने की सुविधा नहीं है।
सामाजिक संदर्भ में प्रासंगिक विज्ञान कथा-साहित्य के आज भारतीय विज्ञान कथा-साहित्य पर छाये होने का एक कारण दूसरा भी है। जीवविज्ञान के विकास ने विशेषकर आण्विक जीवविज्ञान और उसकी सहोदर जैवप्रौद्योगिकी जैसी अत्यंत शक्तिशाली नयी उपशाखाओं को जन्म दिया है। इन शाखाओं के विज्ञान ने मानव में जीवन का सृजन करने, उसे अपने अनुसार ढालने और बदलने की ऐसी क्षमता उत्पन्न करने की वचनबद्धता पूरी की है जिसके परिणामस्वरूप समाज के ढांचे और कार्यप्रणाली के साथ-साथ आचारिक और नैतिक सिद्धांतों में आमूल परिवर्तन संभव हो सका है। मानव का ईश्वर को खिलौना समझकर खेलने के प्रयास ने हमारे आपसी संबंधों की प्रकृति को इस हद तक बदलने की धमकी दी है जिससे वे अपनी पहचान तक खो दें। आज तक अत्यंत व्यक्तिगत समझी जाने वाली बातें और स्थितियां उस अवस्था में पहुंच रही हैं कि स्वयं व्यक्ति का ही उनमें दखल समाप्त हो जाये। ऐसे में यह स्वाभाविक था कि एक बड़ी संख्या में आज भारतीय विज्ञान कथाओं का विषय इस परिवर्तन से जुड़ा हो। आज के विज्ञान कथा-साहित्य में वैज्ञानिक प्रगति और मानवीय भावनाओं अथवा सामाजिक सिद्धांतों के आपसी प्रभाव को आज भारतीय विज्ञान कथा-साहित्य की प्रतिनिधि रचना-संग्रह की आधारशिला माना जाये।
यह सिर्फ इसलिए है कि अधिकांशतया भारतीय विज्ञान कथा-साहित्य इस विकास यात्रा के उस द्वितीय और तृतीय चरणों से संबंधित है जिसकी वजह से इसने एक ऐसा विशिष्ट गुण प्राप्त किया है जो इसे यूरोपीय और अमेरिकी विज्ञान कथा-साहित्य से भिन्न भारतीय नाम देता है। दूसरे शब्दों में, इस कथा-साहित्य की भारतीयता उसके भौगोलिक मूल पर नहीं वरन् सांस्कृतिक और सामाजिक अवधारणाओं पर आधारित है जो इसकी अंतर्रात्मा है।
साहसिक प्रवृत्ति का होने के कारण विज्ञान कथा-साहित्य का पहला चरण वास्तव में उन परिस्थितियों और जातिगत परिवेशों पर निर्भर नहीं करता जिनसे वह उत्पन्न हुआ है। मानव के साहसिक कार्यों के प्रति लगाव उसकी जाति से परे, उसके स्वयं के होते हैं। ऐसी कहानियां आम जीवन की गुणवत्ता और सामाजिक ढांचे से उत्पन्न आकांक्षाओं से बिल्कुल संबंधित नहीं होतीं जिन्हें लेखक और पाठक समान रूप से जीते हैं।
ऐसा द्वितीय एवं विशेषकर तृतीय चरण के विज्ञान कथा-साहित्य में नहीं है। यद्यपि दूसरे चरण में विज्ञान को समझाने की दृष्टि से लिखे गये कथा-साहित्य का वर्चस्व रहा, फिर भी रचनाकार इस बात को नजरअंदाज नहीं कर सकता है कि पाठक की सांस्कृतिक और भावात्मक पृष्ठभूमि क्या है। वैसे, चाहे कहानी और उसके विषय की कथा-साहित्य में कितनी भी महत्वपूर्ण भूमिका क्यों न हो, वह पाठक को अपनी ओर आकृष्ट करने में सफल नहीं है, जब तक कि वह कहानी के पात्रों के साथ एकाकार नहीं कर लेता।
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