लेख-निबंध >> भवभूति भवभूतिअमृता भारती
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संस्कृत-साहित्य के कालजयी रचनाकार भवभूति पर केन्द्रित.....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
संस्कृत-साहित्य के कालजयी रचनाकार भवभूति पर केन्द्रित इस पुस्तक में
भवभूति के जीवन और रचना-कर्म का, पूरी समग्रता के साथ, सार्थक एवं
सर्जनात्मक विवेचन है। अपनी इस विवेचना में डॉ. अमृता भारती ने भवभूति का
ऐसा प्रभावी चित्र प्रस्तुत किया है उनके जीवन की पूर्णता और प्रकाशमयता
अभिव्यंजित है; उस पहचान का संस्पर्श है, जहाँ से भवभूति की कविता ने
रूपता ग्रहण की तथा अपने अन्तर और बाह्य-जगत् को सादृश्य-सारूप्य बनाये
रखते हुए, अपनी रचनाओं में प्रकट किया।
पुस्तक में भवभूति के जीवन, व्यक्तित्व तथा उनके परिवेश और पाण्डित्य को सघनता और तार्किकता के साथ उजागर करने के साथ ही भवभूति-कालीन भारत के भूगोल, समाज, संस्कृति, धर्म, दर्शन, राज्य एवं राजनीति का शोधपूर्ण प्रामाणिक विवेचन है। इसमें नाटककार भवभूति के सर्जनात्मक अवदान का भी विश्लेषण है। अमृता भारती ने कला-प्रतिमानों के परिप्रेक्ष्य में भवभूति के तीनों यशस्वी नाटकों-‘महावीर-चरित्र’, ‘मालती-माधव’ एवं ‘उत्तररामचरित’- में कथावस्तु के विकास, चरित्र-चित्रण, रस-सिद्ध, छन्द-विधान, अलंकार-योजना, भाषा एवं शैली-शिल्प आदि की गम्भीर विवेचना की है। अपने विषय-क्षेत्र की इस महत्त्वपूर्ण पुस्तक में सुधी अध्येताओं के लिए बहुआयामी भवभूति-अध्ययन एक बड़े फलक पर प्रस्तुत है।
पुस्तक में भवभूति के जीवन, व्यक्तित्व तथा उनके परिवेश और पाण्डित्य को सघनता और तार्किकता के साथ उजागर करने के साथ ही भवभूति-कालीन भारत के भूगोल, समाज, संस्कृति, धर्म, दर्शन, राज्य एवं राजनीति का शोधपूर्ण प्रामाणिक विवेचन है। इसमें नाटककार भवभूति के सर्जनात्मक अवदान का भी विश्लेषण है। अमृता भारती ने कला-प्रतिमानों के परिप्रेक्ष्य में भवभूति के तीनों यशस्वी नाटकों-‘महावीर-चरित्र’, ‘मालती-माधव’ एवं ‘उत्तररामचरित’- में कथावस्तु के विकास, चरित्र-चित्रण, रस-सिद्ध, छन्द-विधान, अलंकार-योजना, भाषा एवं शैली-शिल्प आदि की गम्भीर विवेचना की है। अपने विषय-क्षेत्र की इस महत्त्वपूर्ण पुस्तक में सुधी अध्येताओं के लिए बहुआयामी भवभूति-अध्ययन एक बड़े फलक पर प्रस्तुत है।
प्राक्कथन
तीन दशक से अधिक हो गये, जब इस काम को शुरू किया और समाप्त किया
था।
पं.बलदेव उपाध्याय के निर्देशन में इस काम की रूपरेखा तैयार हुई थी।
अध्ययन और शीर्षकों के अन्तर्गत सामग्री का चयन भी काफ़ी-कुछ हो गया था
उनके अवकाश ग्रहण कर लेने के पश्चात् इस काम को डॉ.सूर्यकान्त शास्त्री के
निर्देशन में समापन मिला।
पं.बलदेव उपध्याय-ब्राह्मणत्व के तेज से प्रदीप्त उनका चेहरा आज भी स्मृति में उनकी ही पूर्णता में विद्यमान है। उनके पाण्डित्य में श्रृंगार की रसालता का अद्भुत सामंजस्य था। उनके माथे का सिन्दूरी तिलक और कन्धे पर पड़ा दुशाला उनके भव्य व्यक्तित्व का अंग थे। प्रकाश और छाया का समन्वय साकार था उनमें। एम.ए. में उनसे ‘उत्तररामचरित्र’ पढ़ते समय ही मैंने भवभूति पर काम करने का निश्चय कर लिया था। उन्हें मेरा प्रणाम।
बनारस विश्वविद्यालय में हॉस्टल का परिसर और इण्डोलॉजी कॉलेज-यह एक छोटी-सी दूरी थी-दिनों के सुनहरेपन से भरी हुई। इसके अलावा और भी बहुत सी दूरियाँ थीं, जिसमें अन्दर की उजास साथ-साथ चला करती थी। बनारस कला और संगीत का गढ़ था....संगीत-सम्मेलनों की रातें जिनमें कोई एक कण्ठ या एक वाद्य-रत्न पूरी रात रस-वर्षण करता था।
चिरस्मरणीय है वह घटना-कैम्पस में ही मेरी प्रोफ़ेसर के घर के झूले पर बैठे थे पं.ओंकारनाथ ठाकुर। उनके पूछने पर जब मैंने बताया कि मैं भवभूति पर काम कर रही हूं- तब उन्होंने गाया, ‘‘अयि कठोर यशः किल ते प्रियं’’....और संगीत-मार्तण्ड के स्वरों में जैसे भवभूति आबद्ध हो गये थे....मुझे लगा था इस ‘घटना’ का अन्त न हो।
स्मृतियों की एक पूरी श्रृंखला।
दीक्षान्त-समारोह का दिन। उपाधि का सर्वप्रथम सम्मान संस्कृत के विद्यार्थियों को प्राप्त होता था। मैं पंक्ति में अग्रणी थी, लेकिन मुझसे पहले काशीनरेश को पी-एच.डी. की ऑनरेरी उपाधि प्रदान की गयी, तब यह बात मुझे विशेष महत्त्वपूर्ण लगी थी। शामियाने में पास ही बैठे थे युवराज कर्णसिंह और उनकी युवराज्ञी पत्नी। तब तक वे इसी रूप में अधिक मान्य थे। मुझे सब कुछ अत्यन्त विशिष्ट लगा था। उस दिन समारोह की भव्यता में वह उपाधि-पत्र मेरे लिए मानो अनमोल रत्न था।
तब से यह काम अवमानित ही पड़ा रहा। कविता या शब्द की रचनात्मकता एक बहाना हो गयी और अकादमिक क्षेत्र कार्य और व्यवसाय के रूप में छूटता चला गया।
यह काम इसलिए भी उपेक्षित रहा है क्योंकि मैं प्रकाशन के प्रति विशेष सजग नहीं थी। जब आयु और सोच की परिपक्वता ने अगला चरण लिया, तो मैंने इस काम को टटोला। भाग्य से शोधप्रबन्ध की एक प्रति मेरे साथ बनी रह सकी थी। मुझे लगा, मैंने मेहनत की है और भवभूति से जुड़े लगभग सभी शीर्षकों को मैंने समेटा है। पर पूरे काम को संशोधित करने का, दोहराने का संकल्प मेरे अन्दर नहीं था। आग्रह, समय और शक्ति तीनों की ही कमी महसूस हो रही थी। काम का प्रारूप भी कृति-सहित्य से जुड़ा हुआ नहीं था।, इसलिए यह मेरे लिए और भी भारी था।
मेरे पास या इर्द-गिर्द उन सन्दर्भ-ग्रन्थों का अभाव भी था जो संशोधित पाण्डुलिपि के लिए ज़रूरी थे और उन संस्करणों का भी, जिनके सन्दर्भ इस पुस्तक में थे।
पर मेरे अन्दर लगातार एक उत्तरदायित्व का दबाव बना हुआ था। मैंने हिम्मत की और इस काम की एक हस्तलिखित प्रति तैयार की। ऐसा करते हुए स्वाभाविक रूप से कुछ सुधारों का समावेश हुआ, काम को संस्पर्श मिले-आज की तारीख़ में इस पुराने काम का यही एक नया सन्दर्भ है।
मुझे याद आते हैं, अपने शिक्षक प्रो.गुहा, प्रो.बलदुआ, प्रो.तैलंग। समय के अन्दर या तो वे कहीं होंगे या खो गये होंगे-मैं अपनी कृतज्ञता उन्हें अर्पित करती हूँ।
प्रो.वी.वी मिराशी, जिन्हें मैंने केवल शब्दों के माध्यम से जाना-उनकी पुस्तक के माध्यम से। वे आज नहीं हैं। पर मेरे इस शोधप्रबन्ध के पहले खण्ड में उनकी प्रभाव छाया जैसे स्थिर हो गयी है। मैंने उनसे बहुत ग्रहण किया है-मैं उन्हें प्रणाम करती हूं।
तब इस प्रबन्ध पर काम करते हुए मैं महाकवि भवभूति की ‘रचनात्मकता’ को कोई विस्तृत आकाश नहीं दे सकी थी-‘रिवीज़न’ के द्वारा यह सम्भव नहीं है था- स्वयं कवि होने के नाते मुझे इसका दुख है। पर शिक्षा और शोध के क्षेत्र में यह अध्ययन और इसके शीर्षक यदि छोटा-सा भी योगदान बन पाते हैं तो मैं न केवल श्रम की निष्फलता से बच सकूंगी, बल्कि एक सार्थकताबोध पूरी विनम्रता के साथ मुझसे जुड़ा रहेगा।
पं.बलदेव उपध्याय-ब्राह्मणत्व के तेज से प्रदीप्त उनका चेहरा आज भी स्मृति में उनकी ही पूर्णता में विद्यमान है। उनके पाण्डित्य में श्रृंगार की रसालता का अद्भुत सामंजस्य था। उनके माथे का सिन्दूरी तिलक और कन्धे पर पड़ा दुशाला उनके भव्य व्यक्तित्व का अंग थे। प्रकाश और छाया का समन्वय साकार था उनमें। एम.ए. में उनसे ‘उत्तररामचरित्र’ पढ़ते समय ही मैंने भवभूति पर काम करने का निश्चय कर लिया था। उन्हें मेरा प्रणाम।
बनारस विश्वविद्यालय में हॉस्टल का परिसर और इण्डोलॉजी कॉलेज-यह एक छोटी-सी दूरी थी-दिनों के सुनहरेपन से भरी हुई। इसके अलावा और भी बहुत सी दूरियाँ थीं, जिसमें अन्दर की उजास साथ-साथ चला करती थी। बनारस कला और संगीत का गढ़ था....संगीत-सम्मेलनों की रातें जिनमें कोई एक कण्ठ या एक वाद्य-रत्न पूरी रात रस-वर्षण करता था।
चिरस्मरणीय है वह घटना-कैम्पस में ही मेरी प्रोफ़ेसर के घर के झूले पर बैठे थे पं.ओंकारनाथ ठाकुर। उनके पूछने पर जब मैंने बताया कि मैं भवभूति पर काम कर रही हूं- तब उन्होंने गाया, ‘‘अयि कठोर यशः किल ते प्रियं’’....और संगीत-मार्तण्ड के स्वरों में जैसे भवभूति आबद्ध हो गये थे....मुझे लगा था इस ‘घटना’ का अन्त न हो।
स्मृतियों की एक पूरी श्रृंखला।
दीक्षान्त-समारोह का दिन। उपाधि का सर्वप्रथम सम्मान संस्कृत के विद्यार्थियों को प्राप्त होता था। मैं पंक्ति में अग्रणी थी, लेकिन मुझसे पहले काशीनरेश को पी-एच.डी. की ऑनरेरी उपाधि प्रदान की गयी, तब यह बात मुझे विशेष महत्त्वपूर्ण लगी थी। शामियाने में पास ही बैठे थे युवराज कर्णसिंह और उनकी युवराज्ञी पत्नी। तब तक वे इसी रूप में अधिक मान्य थे। मुझे सब कुछ अत्यन्त विशिष्ट लगा था। उस दिन समारोह की भव्यता में वह उपाधि-पत्र मेरे लिए मानो अनमोल रत्न था।
तब से यह काम अवमानित ही पड़ा रहा। कविता या शब्द की रचनात्मकता एक बहाना हो गयी और अकादमिक क्षेत्र कार्य और व्यवसाय के रूप में छूटता चला गया।
यह काम इसलिए भी उपेक्षित रहा है क्योंकि मैं प्रकाशन के प्रति विशेष सजग नहीं थी। जब आयु और सोच की परिपक्वता ने अगला चरण लिया, तो मैंने इस काम को टटोला। भाग्य से शोधप्रबन्ध की एक प्रति मेरे साथ बनी रह सकी थी। मुझे लगा, मैंने मेहनत की है और भवभूति से जुड़े लगभग सभी शीर्षकों को मैंने समेटा है। पर पूरे काम को संशोधित करने का, दोहराने का संकल्प मेरे अन्दर नहीं था। आग्रह, समय और शक्ति तीनों की ही कमी महसूस हो रही थी। काम का प्रारूप भी कृति-सहित्य से जुड़ा हुआ नहीं था।, इसलिए यह मेरे लिए और भी भारी था।
मेरे पास या इर्द-गिर्द उन सन्दर्भ-ग्रन्थों का अभाव भी था जो संशोधित पाण्डुलिपि के लिए ज़रूरी थे और उन संस्करणों का भी, जिनके सन्दर्भ इस पुस्तक में थे।
पर मेरे अन्दर लगातार एक उत्तरदायित्व का दबाव बना हुआ था। मैंने हिम्मत की और इस काम की एक हस्तलिखित प्रति तैयार की। ऐसा करते हुए स्वाभाविक रूप से कुछ सुधारों का समावेश हुआ, काम को संस्पर्श मिले-आज की तारीख़ में इस पुराने काम का यही एक नया सन्दर्भ है।
मुझे याद आते हैं, अपने शिक्षक प्रो.गुहा, प्रो.बलदुआ, प्रो.तैलंग। समय के अन्दर या तो वे कहीं होंगे या खो गये होंगे-मैं अपनी कृतज्ञता उन्हें अर्पित करती हूँ।
प्रो.वी.वी मिराशी, जिन्हें मैंने केवल शब्दों के माध्यम से जाना-उनकी पुस्तक के माध्यम से। वे आज नहीं हैं। पर मेरे इस शोधप्रबन्ध के पहले खण्ड में उनकी प्रभाव छाया जैसे स्थिर हो गयी है। मैंने उनसे बहुत ग्रहण किया है-मैं उन्हें प्रणाम करती हूं।
तब इस प्रबन्ध पर काम करते हुए मैं महाकवि भवभूति की ‘रचनात्मकता’ को कोई विस्तृत आकाश नहीं दे सकी थी-‘रिवीज़न’ के द्वारा यह सम्भव नहीं है था- स्वयं कवि होने के नाते मुझे इसका दुख है। पर शिक्षा और शोध के क्षेत्र में यह अध्ययन और इसके शीर्षक यदि छोटा-सा भी योगदान बन पाते हैं तो मैं न केवल श्रम की निष्फलता से बच सकूंगी, बल्कि एक सार्थकताबोध पूरी विनम्रता के साथ मुझसे जुड़ा रहेगा।
5 फरवरी
2000
-अमृता भारती
अध्याय 1
नाम, जीवन और व्यक्तित्व
वाल्मीकि, अश्वघोष, भास, कालिदास के बाद संस्कृत
‘कविता’ में
एक अन्तराय आता है। यह अन्तराय रिक्त नहीं है, क्योंकि इसके अन्दर इन
कवियों की प्रभाव-छाया है, अत्यन्त समृद्ध और परिपूर्ण कला है, आत्मा और
हृदय का व्यापक रूप-दर्शन और जीवन एक जगत की विशद् व्याख्या है। फिर भी एक
और कवि, एक और नाम नहीं है। तब इन सबके प्रभाव को ग्रहण करते हुए अपनी
स्वतन्त्र व्यक्ति-सत्ता और नितान्त मौलिक काव्य-प्रतिभा के साथ एक उदय
होता है—एक नाम और एक कवि—भवभूति।
हमारा यह प्रयत्न है कि इस अध्ययन द्वारा भवभूति का एक ऐसा चित्र प्रस्तुत किया जा सके, जिसमें उनके जीवन की पूर्णता और प्रकाशमयता की अभिव्यंजना हो, उसे पहचान का स्पर्श हो जहाँ से इस कवि की कविता ने रूपता ग्रहण की एवं अपने अन्तर एवं बाह्य जगत को, सादृश्य सारूप्य बनाए रखते हुए, अपनी रचना में प्रकट किया। अध्ययन की स्पष्टता के लिए शीर्षकों की सीमाएँ स्वीकार की गयी हैं, पर वे बद्धता नहीं हैं क्योंकि हर शीर्षक का कथ्य दूसरे शीर्षकों के नीचे चल रही विषय-सामग्री के साथ जुड़कर पूर्ण होता है।
हमारा यह प्रयत्न है कि इस अध्ययन द्वारा भवभूति का एक ऐसा चित्र प्रस्तुत किया जा सके, जिसमें उनके जीवन की पूर्णता और प्रकाशमयता की अभिव्यंजना हो, उसे पहचान का स्पर्श हो जहाँ से इस कवि की कविता ने रूपता ग्रहण की एवं अपने अन्तर एवं बाह्य जगत को, सादृश्य सारूप्य बनाए रखते हुए, अपनी रचना में प्रकट किया। अध्ययन की स्पष्टता के लिए शीर्षकों की सीमाएँ स्वीकार की गयी हैं, पर वे बद्धता नहीं हैं क्योंकि हर शीर्षक का कथ्य दूसरे शीर्षकों के नीचे चल रही विषय-सामग्री के साथ जुड़कर पूर्ण होता है।
नाम एवं वंशावली
अपने बारे में संस्कृत कवियों का मौन एक परम्परा बन चुका है, पर भवभूति ने
इस परम्परागत मौन को तोड़ा है और अपने तीनों नाटकों की प्रस्तावना में
अपना परिचय प्रस्तुत किया है। ‘महावीरचरित’ का यह
उल्लेख—
‘अस्ति दक्षिणापथे पद्मपुर नाम नगरम्। तत्र केचित्तैत्तिरीयाः काश्यपाश्चरणगुरवः पंक्तिपावनाः पञ्चाग्नयो धृतव्रताः सोमपीथिन उदुम्बरनामानो ब्रह्मवादिनः प्रतिवसन्ति। तदामुष्यायणस्य तत्रभवतो वाजपेययाजिनो महाकवेः पञ्चमः सुगृहीतनाम्नो भट्टगोपालस्य पौत्रः पवित्रकीर्तेर्नीलकण्ठस्यात्मसम्भवः श्रीकण्डपदलाञ्छनः पदवाक्यप्रमाणज्ञो भवभूतानाम जातुकर्णीपुत्रः।....’
‘दक्षिणापथ में पद्मपुर नाम का नगर है। वहाँ कुछ ब्राह्मज्ञानी ब्राह्मण रहते हैं, जो तैत्तिरीय शाखा से जुड़े हैं, कश्यपगोत्री हैं, अपनी शाखा में श्रेष्ठ, पंक्तिपावन, पंचाग्नि के उपासक, व्रती, सोमयाज्ञिक हैं एवं उदुम्बर उपाधि धारण करते हैं। इसी वंश में वाजपेय यज्ञ करनेवाले प्रसिद्ध महाकवि हुए। उसी परम्परा में पाँचवें भवभूति हैं जो स्वनामधन्य भट्टगोपाल के पौत्र हैं और पवित्र कीर्ति वाले नीलकण्ठ के पुत्र हैं। इनकी माता का नाम जातुकर्णी है और ये श्रीकण्ठ पदवी प्राप्त, पद, वाक्य और प्रमाण के ज्ञाता हैं।’
’श्रीकण्ठ पदलाञ्छनः भवभर्तिनाम’ इस उल्लेख से यह प्रकट होता है कि श्रीकण्ठ कवि की उपाधि थी और भवभूति नाम था। किन्तु कुछ टीकाकारों का यह विश्वास है कि कवि का नाम नीलकण्ठ था और भवभूति उपाधि थी, जो उन्हें कुछ विशेष पदों की रचना की प्रशंसा में मिली थी। इस पक्ष की पुष्टि में ‘महावीरचरित’ एवं ‘उत्तररामचरित’ के टीकाकर वीर राघव1 ने इस वाक्य की व्याख्या इस प्रकार प्रस्तुत की है—
‘श्रीकण्ठपदं लाञ्छनं नाम यस्य सः। ‘लाञ्छनो नाम-लक्ष्मणोः’ इति रत्नमाला। पितृकृतनामेदम्...भवभूतिर्नाम ‘साम्बा पुनातु भवभूतिपवित्रमूर्तिः।’ इति श्लोकरचना सन्तुष्टेन राज्ञा भवभूतिरिति ख्यापितः।’
इस व्याख्या के अनुसार श्रीकण्ठ भवभूति का नाम था, क्योंकि ‘लाञ्छन’ शब्द नाम का परिचायक है। ‘साम्बा पुनातु भवभूतिपवित्रमूर्तिः’—शिव की भस्म से पवित्र निग्रहवाली माता पार्वती तुम्हें पवित्र करें—इस श्लोक की रचना से प्रसन्न होकर राजा ने उन्हें ‘भवभूति’ पदवी से सम्मानित किया।
जगद्धर2 ‘मालती माधव’ की टीका में ‘ नाम्ना श्रीकण्ठः; प्रसिद्धया भवभूतिरित्यर्थः’ तथा त्रिपुरारि3 ने भी इसी नाटक की टीका में ‘भवभूतिरित व्यवहारे तस्येदं नामान्तरम्’ कहकर इसी मत का प्रतिपादन किया है कि श्रीकण्ठ का नाम था और भवभूति प्रसिद्धि तथा व्यवहार का नाम था।
‘उत्तररामचरित’ के टीकाकार घनश्याम के शब्द ‘भवात् शिवात् भूतिः भस्म सम्पद् यस्य ईश्वरेणैव जाति द्विजरूपेण विभूतिर्दत्ता’—कि स्वयं भव (शिव) ने कवि को अपनी ‘भूति’ प्रदान की, अतः उसे ‘भवभूति’ पुकारा गया, —इसी मत की पुष्टि करते हैं। ‘आर्यासप्तशती’ (1.39) की व्याख्या करते हुए टीकाकार अनन्तपण्डित का मत है निम्नलिखित श्लोक—
‘अस्ति दक्षिणापथे पद्मपुर नाम नगरम्। तत्र केचित्तैत्तिरीयाः काश्यपाश्चरणगुरवः पंक्तिपावनाः पञ्चाग्नयो धृतव्रताः सोमपीथिन उदुम्बरनामानो ब्रह्मवादिनः प्रतिवसन्ति। तदामुष्यायणस्य तत्रभवतो वाजपेययाजिनो महाकवेः पञ्चमः सुगृहीतनाम्नो भट्टगोपालस्य पौत्रः पवित्रकीर्तेर्नीलकण्ठस्यात्मसम्भवः श्रीकण्डपदलाञ्छनः पदवाक्यप्रमाणज्ञो भवभूतानाम जातुकर्णीपुत्रः।....’
‘दक्षिणापथ में पद्मपुर नाम का नगर है। वहाँ कुछ ब्राह्मज्ञानी ब्राह्मण रहते हैं, जो तैत्तिरीय शाखा से जुड़े हैं, कश्यपगोत्री हैं, अपनी शाखा में श्रेष्ठ, पंक्तिपावन, पंचाग्नि के उपासक, व्रती, सोमयाज्ञिक हैं एवं उदुम्बर उपाधि धारण करते हैं। इसी वंश में वाजपेय यज्ञ करनेवाले प्रसिद्ध महाकवि हुए। उसी परम्परा में पाँचवें भवभूति हैं जो स्वनामधन्य भट्टगोपाल के पौत्र हैं और पवित्र कीर्ति वाले नीलकण्ठ के पुत्र हैं। इनकी माता का नाम जातुकर्णी है और ये श्रीकण्ठ पदवी प्राप्त, पद, वाक्य और प्रमाण के ज्ञाता हैं।’
’श्रीकण्ठ पदलाञ्छनः भवभर्तिनाम’ इस उल्लेख से यह प्रकट होता है कि श्रीकण्ठ कवि की उपाधि थी और भवभूति नाम था। किन्तु कुछ टीकाकारों का यह विश्वास है कि कवि का नाम नीलकण्ठ था और भवभूति उपाधि थी, जो उन्हें कुछ विशेष पदों की रचना की प्रशंसा में मिली थी। इस पक्ष की पुष्टि में ‘महावीरचरित’ एवं ‘उत्तररामचरित’ के टीकाकर वीर राघव1 ने इस वाक्य की व्याख्या इस प्रकार प्रस्तुत की है—
‘श्रीकण्ठपदं लाञ्छनं नाम यस्य सः। ‘लाञ्छनो नाम-लक्ष्मणोः’ इति रत्नमाला। पितृकृतनामेदम्...भवभूतिर्नाम ‘साम्बा पुनातु भवभूतिपवित्रमूर्तिः।’ इति श्लोकरचना सन्तुष्टेन राज्ञा भवभूतिरिति ख्यापितः।’
इस व्याख्या के अनुसार श्रीकण्ठ भवभूति का नाम था, क्योंकि ‘लाञ्छन’ शब्द नाम का परिचायक है। ‘साम्बा पुनातु भवभूतिपवित्रमूर्तिः’—शिव की भस्म से पवित्र निग्रहवाली माता पार्वती तुम्हें पवित्र करें—इस श्लोक की रचना से प्रसन्न होकर राजा ने उन्हें ‘भवभूति’ पदवी से सम्मानित किया।
जगद्धर2 ‘मालती माधव’ की टीका में ‘ नाम्ना श्रीकण्ठः; प्रसिद्धया भवभूतिरित्यर्थः’ तथा त्रिपुरारि3 ने भी इसी नाटक की टीका में ‘भवभूतिरित व्यवहारे तस्येदं नामान्तरम्’ कहकर इसी मत का प्रतिपादन किया है कि श्रीकण्ठ का नाम था और भवभूति प्रसिद्धि तथा व्यवहार का नाम था।
‘उत्तररामचरित’ के टीकाकार घनश्याम के शब्द ‘भवात् शिवात् भूतिः भस्म सम्पद् यस्य ईश्वरेणैव जाति द्विजरूपेण विभूतिर्दत्ता’—कि स्वयं भव (शिव) ने कवि को अपनी ‘भूति’ प्रदान की, अतः उसे ‘भवभूति’ पुकारा गया, —इसी मत की पुष्टि करते हैं। ‘आर्यासप्तशती’ (1.39) की व्याख्या करते हुए टीकाकार अनन्तपण्डित का मत है निम्नलिखित श्लोक—
तपस्वी कां गतोऽवस्थामिति स्मेराननाविव।
गिरिजायाः कुचौ वन्दे भवभूतिसिताननौ।।
गिरिजायाः कुचौ वन्दे भवभूतिसिताननौ।।
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1. म.च., निर्णयसागर प्रेस सं., पृ,8
2. मा.मा., पृ.8
3. मा.मा., निर्णयसागर सं., पृ.7
1. म.च., निर्णयसागर प्रेस सं., पृ,8
2. मा.मा., पृ.8
3. मा.मा., निर्णयसागर सं., पृ.7
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