इतिहास और राजनीति >> भारत-भक्त विदेशी महिलाएं भारत-भक्त विदेशी महिलाएंमानवकी आर्य्या
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हमारे देश को आजाद कराने में केवल भारत के लोग ही प्रयासरत नहीं थे। इस कार्य में कुछ विदेशी महिलाएं भी शामिल थीं.....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
भारत की स्वतंत्रता नव जागृति समाजोत्थान एवं नव निर्माण के लिए
आत्मोत्सर्ग करने वालों में कई ऐसी महिलाओं का अथक योगदान रहा है, जिनका
जन्म भारत से हजारों किलोमीटर दूर हुआ। इन महिलाओं ने भारत के संस्कारों
और परंपराओं को अपनाया और इनमें से कई एक तो यहीं की नागरिक बन गईं। रास
बिहारी बोस को अपनाया और इनमें से कई एक तो यहीं की नागरिक बन गईं। रास
बिहारी बोस की जापानी पत्नी तोशिको बोस और नेताजी सुभाष चंद्र बोस की
आस्ट्रियन पत्नी एमिली शैंकल बोस ने तो भारत को अंग्रंजों से आजाद करवाने
के सशस्त्र संग्राम में अपने पतियों के कंधे से कंधा मिलाकर साथ दिया।
विदेश की भारत-भक्त महिलाओं की गाथाएं विश्व की मातृजाति की महानता, उदारता और ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की प्राकृतिक प्रवृत्ति का उजागर करती हैं। इस पुस्तक में ऐसी ही कुछ महिलाओं के व्यक्तित्व और समाज के लिए उनके योगदान पर प्रकाश डाला गया है। अपने देश के गौरवशाली इतिहास व आदर्शों को याद दिलवाती यह पुस्तक लोगों को निस्पृत देश-भक्ति व देश सेवा के लिए प्रेरित करती है।
विदेश की भारत-भक्त महिलाओं की गाथाएं विश्व की मातृजाति की महानता, उदारता और ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की प्राकृतिक प्रवृत्ति का उजागर करती हैं। इस पुस्तक में ऐसी ही कुछ महिलाओं के व्यक्तित्व और समाज के लिए उनके योगदान पर प्रकाश डाला गया है। अपने देश के गौरवशाली इतिहास व आदर्शों को याद दिलवाती यह पुस्तक लोगों को निस्पृत देश-भक्ति व देश सेवा के लिए प्रेरित करती है।
प्रस्तावना
जिन अनगिनत देशभक्तों, बलिदानी क्रांतिकारियों और स्वतंत्रता संग्राम के
वीर-वीरांगना सेनानियों के त्याग- तपस्या एवं आत्माहुति से भारत स्वतंत्र
हुआ अथवा भारत की नवजागृति, समाजोत्थान एवं राष्ट्र के नव निर्माण में
जिन्होंने सेवाएं दीं और आत्मोत्सर्ग किया उनमें अनेक विदेशी भारत-भक्त भी
थे और आज भी हैं। यहां पर मैं स्वतंत्रता संग्राम में योगदान देने वाली
विदेशी महिलाओं पर ही विशेष रूप से चर्चा करने जा रही हूं। इन्होंने
‘वसुधैव कुटुंबकम्’ वैदिक सूत्र को मानने वाले इस
महान देश की
सेवा में अपने को समर्पित ही नहीं किया अपितु यहां की कर्तव्यनिष्ठ, सजग व
सक्रिय सेवाव्रती नागरिक बन कर भारत को गौरवान्वित किया और यहीं की माटी
में समा गईं या शक्ति-सामर्थ्य रहते भारत की सेवा करके वृद्धावस्था में ही
महाप्रयाण के लिए अपने देश वापस गईं।
इस पुस्तक में दो ऐसी श्रद्धास्पद विदेशी महिलाओं का भी उल्लेख किया गया है, जिन्होंने अपने ही देश में रहते हुए भारत की आजादी के लिए संघर्ष किया और किसी भी समय शहीद हो जाने को तैयार महान देशभक्त भारतीय नेताओं का वरण कर उनके संघर्षों में सहभागी बनीं। वे किसी दिन अपने भारतीय पति के साथ स्वतंत्र भारत में आने का सपना हृदय में संजोए, अपने ही देश में दिवंगत हो गईं। भारत-भक्त विदेशी महिलाओं की कड़ी में मैंने भारतीय पति के साथ उनके देश भारत के प्रति प्रगाढ़ प्रेम रखने वाली जिन दो महिलाओं की गाथा यहां प्रस्तुत की है
वे हैं-महान भारतीय क्रांतिकारी जापान प्रवासी नेता राम बिहारी बोस की जापानी पत्नी श्रीमती तोशिको बोस तथा सशस्त संग्राम द्वारा अपने देश भारत को अंग्रेजी हुकूमत से आजाद करने के लिए जर्मनी और दक्षिण एशिया में भारतीय सेना गठित कर संघर्ष करने वाले नेताजी सुभाष चंद्र बोस की आस्ट्रियन पत्नी श्रीमती एमिली शैंकल बोस। इन दो महान विदेशी महिलाओं ने भारत से दूर अपने-अपने देश में ही रह कर उपर्युक्त दोनों भारतीय देशभक्तों की पत्नियों के रूप में उनके स्वतंत्रता-संघर्षों में समर्पित होकर सहयोग दिया था और भारतीय पतिव्रता पत्नी की तरह पति के लिए त्याग व बलिदान का आदर्श प्रस्तुत किया था।
भारत के दर्शन तक से वंचित रह जाने वाली इन दो ‘भारत-भक्त’ पतिव्रता विदेशी महिलाओं को हमें भारतीय आदर्श महिलाओं के इतिहास में ससम्मान विशेष स्थान देना चाहिए।
भारत में, और विशेषतया जापान में भी, चिरकाल से कन्याओं को पति-भक्ति एवं पतिव्रत धर्म की शिक्षा से संस्कारित किया जाता रहा है। इसलिए भारतीय नारियों में पति के प्रति अंधभक्ति की हद तक पूर्णतया समर्पण का भाव होना स्वाभाविक है। लेकिन उनकी उस पति-भक्ति एवं समर्पण भाव के साथ ही प्रायः हर स्त्री में पति के साथ दांपत्य-सुख की उत्कट अभिलाषा और पति से निरंतर प्रणय, सान्निध्य एवं संरक्षण पाते रहने की कामना भी रहती है। पति से शारीरिक संबंध एवं दांपत्य सुख से वंचित रह कर भी भक्ति-भाव के साथ आजीवन पति की सेवा में लगी रहने वाली शारदा
मां-(रामकृष्ण परमहंस की धर्मपत्नी) अथवा पति के द्वारा छोड़ कर अन्यत्र चले जाने पर भी पति की स्मृति के सहारे अत्यंत अकिंचन अवस्था में जीवन बिता देने वाली संत तुलसीदास की धर्मपत्नी रत्नावली जैसी महान पति- भक्त नारियां भी हमारे देश में पाई गई हैं, किंतु विदेशों में ऐसी परंपरा नहीं रही है। विदेश की भारत- भक्त महिलाओं की गाथाएं विश्व की मातृजाति की महानता, उदारता और ‘वसुधैव कटुंबकम्’ की उदार प्राकृतिक प्रवृत्ति को उजागर करती हैं और
विदेशियों को अपनी ओर आकर्षित कर उन्हें भारतीय आदर्शों की ओर अभिमुख कर सकने की भारत की विशेषता भी व्यक्त करती हैं। अपने ही गौरवशाली इतिहास व आदर्शों को भूलती जा रही भारतीय जनता, विशेषतया महिलाओं को इन भारत-भक्त विदेशी महिलाओं की याद दिला कर उन्हें निस्पृह देश भक्ति व देश-सेवा के लिए समर्पित होने की प्रेरणा देने हेतु यह पुस्तक प्रस्तुत की जा रही है। आशा है, यह पुस्तक हमारी कुछेक देशभक्त कही जाने वाली उन भ्रमित भारतीय
बहिनों को भी उद्धबुद्ध करने में सहायक होगी जो केंद्रीय अथवा राज्य के शासन में महत्त्वपूर्ण पदों पर पहुंच कर भी भारत की गरिमा, उसका उदार दृष्टिकोण तथा उसकी ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ की उदात्त भावना को भूल कर अपने संकीर्ण विचारों एवं निजी राजनीतिक स्वार्थ तथा द्वेषभाव से प्रेरित होकर, भारतीय आदर्शों के विरुद्ध घोषणाएं कर देती हैं।
इस पुस्तक में दो ऐसी श्रद्धास्पद विदेशी महिलाओं का भी उल्लेख किया गया है, जिन्होंने अपने ही देश में रहते हुए भारत की आजादी के लिए संघर्ष किया और किसी भी समय शहीद हो जाने को तैयार महान देशभक्त भारतीय नेताओं का वरण कर उनके संघर्षों में सहभागी बनीं। वे किसी दिन अपने भारतीय पति के साथ स्वतंत्र भारत में आने का सपना हृदय में संजोए, अपने ही देश में दिवंगत हो गईं। भारत-भक्त विदेशी महिलाओं की कड़ी में मैंने भारतीय पति के साथ उनके देश भारत के प्रति प्रगाढ़ प्रेम रखने वाली जिन दो महिलाओं की गाथा यहां प्रस्तुत की है
वे हैं-महान भारतीय क्रांतिकारी जापान प्रवासी नेता राम बिहारी बोस की जापानी पत्नी श्रीमती तोशिको बोस तथा सशस्त संग्राम द्वारा अपने देश भारत को अंग्रेजी हुकूमत से आजाद करने के लिए जर्मनी और दक्षिण एशिया में भारतीय सेना गठित कर संघर्ष करने वाले नेताजी सुभाष चंद्र बोस की आस्ट्रियन पत्नी श्रीमती एमिली शैंकल बोस। इन दो महान विदेशी महिलाओं ने भारत से दूर अपने-अपने देश में ही रह कर उपर्युक्त दोनों भारतीय देशभक्तों की पत्नियों के रूप में उनके स्वतंत्रता-संघर्षों में समर्पित होकर सहयोग दिया था और भारतीय पतिव्रता पत्नी की तरह पति के लिए त्याग व बलिदान का आदर्श प्रस्तुत किया था।
भारत के दर्शन तक से वंचित रह जाने वाली इन दो ‘भारत-भक्त’ पतिव्रता विदेशी महिलाओं को हमें भारतीय आदर्श महिलाओं के इतिहास में ससम्मान विशेष स्थान देना चाहिए।
भारत में, और विशेषतया जापान में भी, चिरकाल से कन्याओं को पति-भक्ति एवं पतिव्रत धर्म की शिक्षा से संस्कारित किया जाता रहा है। इसलिए भारतीय नारियों में पति के प्रति अंधभक्ति की हद तक पूर्णतया समर्पण का भाव होना स्वाभाविक है। लेकिन उनकी उस पति-भक्ति एवं समर्पण भाव के साथ ही प्रायः हर स्त्री में पति के साथ दांपत्य-सुख की उत्कट अभिलाषा और पति से निरंतर प्रणय, सान्निध्य एवं संरक्षण पाते रहने की कामना भी रहती है। पति से शारीरिक संबंध एवं दांपत्य सुख से वंचित रह कर भी भक्ति-भाव के साथ आजीवन पति की सेवा में लगी रहने वाली शारदा
मां-(रामकृष्ण परमहंस की धर्मपत्नी) अथवा पति के द्वारा छोड़ कर अन्यत्र चले जाने पर भी पति की स्मृति के सहारे अत्यंत अकिंचन अवस्था में जीवन बिता देने वाली संत तुलसीदास की धर्मपत्नी रत्नावली जैसी महान पति- भक्त नारियां भी हमारे देश में पाई गई हैं, किंतु विदेशों में ऐसी परंपरा नहीं रही है। विदेश की भारत- भक्त महिलाओं की गाथाएं विश्व की मातृजाति की महानता, उदारता और ‘वसुधैव कटुंबकम्’ की उदार प्राकृतिक प्रवृत्ति को उजागर करती हैं और
विदेशियों को अपनी ओर आकर्षित कर उन्हें भारतीय आदर्शों की ओर अभिमुख कर सकने की भारत की विशेषता भी व्यक्त करती हैं। अपने ही गौरवशाली इतिहास व आदर्शों को भूलती जा रही भारतीय जनता, विशेषतया महिलाओं को इन भारत-भक्त विदेशी महिलाओं की याद दिला कर उन्हें निस्पृह देश भक्ति व देश-सेवा के लिए समर्पित होने की प्रेरणा देने हेतु यह पुस्तक प्रस्तुत की जा रही है। आशा है, यह पुस्तक हमारी कुछेक देशभक्त कही जाने वाली उन भ्रमित भारतीय
बहिनों को भी उद्धबुद्ध करने में सहायक होगी जो केंद्रीय अथवा राज्य के शासन में महत्त्वपूर्ण पदों पर पहुंच कर भी भारत की गरिमा, उसका उदार दृष्टिकोण तथा उसकी ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ की उदात्त भावना को भूल कर अपने संकीर्ण विचारों एवं निजी राजनीतिक स्वार्थ तथा द्वेषभाव से प्रेरित होकर, भारतीय आदर्शों के विरुद्ध घोषणाएं कर देती हैं।
मानवती आर्य्या
मैडम हैलीना पैट्रोवना ब्लावाट्स्की
भारत में अंतर्राष्ट्रीय थियोसॉफिकल सोसाइटी का मुख्यालय स्थापित करके हम
भारतीयों को गौरवान्वित करने वाली मैडम ब्लावाट्स्की अधिक दिन भारत में
नहीं रहीं। अपने विश्व भ्रमण के दौरान 1852 में वे पहली बार भारत आई थीं
और यहां थोड़े दिन रुक कर इसकी ऋषि परंपरा वाले ब्रह्मज्ञान की संपन्नता
से अवगत हो कर लौट गई थीं।
1855 के दिसंबर में, जापान से वापसी पर 1855 से 1857 के मध्य उन्होंने दुबारा भारत आकर अधिक समय तक पूरे देश का भ्रमण करके यहां की आध्यात्मिक ऊंचाइयों एवं धर्मग्रंथों के बारे में जानकारी प्राप्त की थी। तीसरी बार 1868 में वे 37 वर्ष की परिपक्व आयु में भारत व तिब्बत की यात्रा पर आईं तो कुछ दिन यहां के विद्वानों से विचारों का आदान-प्रदान एवं अध्ययन द्वारा भारत के बारे में और अधिक जानकारी प्राप्त कीं। फिर यहां से तिब्बत चली गईं।
8 सितंबर, 1875 को न्यूयार्क (अमेरिका) में थियोसॉफिकल सोसाइटी का गठन करने के बाद वे 1878 के अंत में चौथी बार भारत आई तो अपने सहयोगी कर्नल ऑलकॉट के साथ बंबई में सोसाइटी का कार्यालय स्थापित कर उसके प्रचार-प्रसार के लिए ‘द थियोसॉफिट’ नामक पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया। 19 दिंसबर, 1882 में उन्होंने थियोसॉफिकल सोसाइटी का अंतर्राष्ट्रीय कार्यालय मद्रास (चेन्नई) के अड्यार क्षेत्र में स्थानांतरित किया। उसके बाद सोसाइटी का व्यापक प्रचार-प्रसार शुरू हो गया
और देश के विभिन्न स्थानों में उसकी शाखाएं खोली गईं। 32 वर्षों तक सारे विश्व का भ्रमण करके उन्होंने भारत को ही थियोसॉफिकल सोसाइटी का मुख्य केंद्र बनाने के लिए अपने मनोनुकूल उपयुक्त पाया। यह उनके द्वारा भारत के मूल्यांकन एवं भारत के प्रति उनकी श्रद्धा-भक्ति का एक ज्वलंत प्रमाण है। एक विश्वव्यापी संगठन बनाने के लिए सारे विश्व का भ्रमण परम आवश्यक होने के कारण उन्होंने भारत में अधिक समय तक न रहकर 32 वर्ष विश्व भ्रमण में बिताया था। फिर भी कुल मिलाकर वे लगभग 10 वर्ष भारत में रहीं।
मैडम ब्लावाट्स्की ने 20 फरवरी, 1884 को कर्नल ऑलकॉट के साथ सोसाइटी के प्रचार-प्रसार हेतु यूरोप गईं। वहां के कई देशों में काम करने के बाद वे लंदन पहुंची और वहां से 1884 के अक्टूबर में रवाना हो कर 21 दिसंबर को अड्यार लौट आईं। 1885 के आरंभ में वे बहुत बीमार हो गईं। फरवरी में उन्हें यूरोप में इलाज कराने तथा वहां काम करने के लिए भारत से प्रस्थान करना पड़ा। यह उनकी भारत से अंतिम विदाई थी। यूरोप में थियोसॉफिकल सोसाइटी का काम आगे बढ़ाते हुए उन्होंने लंदन को अपना अंतिम पड़ाव बनाया।
वहां ‘ब्लावाट्स्की लॉज’ नाम से अपना आवास बना कर, 1857 के सितंबर से उन्होंने अपना दूसरा मासिक पत्र ‘लूसिफर’ का प्रकाशन शुरू कर दिया। 1888 में ‘दि सीक्रेट डॉक्टिन’ नामक उनका 1500 पृष्ठों का ग्रंथ लंदन से प्रकाशित हुआ। 1889 में उन्होंने ‘द वॉइस ऑफ साइलेंस’ तथा ‘दि की टु थियोसॉफी’ नामक दो पुस्तकें प्रकाशित कीं। उस अवधि में सोसाइटी के प्रचार-प्रसार का काम निरंतर चलता रहा।
8 मई, 1891 को मैडम हैलीना ब्लावाट्स्की ने लंदन में अंतिम सांस लीं। अपने निधन से पहले उन्होंने सोसाइटी के यूरोप मुख्यालय की स्थापना 1890 में ही 19 एवेन्यू रोड, लंदन में कर दी थी और अपने गूढ़ विद्या का एक विचार केंद्र ‘इसोटरिक स्कूल’ नाम से 1888 में ही चालू कर दिया था। उनके शिष्यों का कहना है कि उनकी महान आत्मा ने अपने जीर्ण शरीर को छोड़ कर युवा दलाईलामा की देह में प्रवेश किया।
दक्षिण रूस के यूक्रेन प्रदेश स्थित एकाटरीनों स्लाव में 12 अगस्त, 1831 को हैलीना पैट्रोवना का जन्म रूसी फौज के एक प्रतिष्ठित उच्चाधिकारी, कर्नल पीटर वानहाःन के परिवार में हुआ था। उनकी मां सुविख्यात उपन्यासकार हैलीना आंद्रेयेवना थीं, जो उन्हें 11 वर्ष की आयु में छोड़ कर दिवंगत हो गई थीं। इसलिए वे बचपन में अपने नाना प्रिवी काउंसिलर आद्रे-डि-फादेयेव तथा नानी राजकुमारी हैलीना पावलोवना डोलगोरुकोव की देखरेख में पली थीं। सारतोव व तिफ्लिस (काकेशस) में उन्होंने शिक्षा प्राप्त की। बचपन से ही उनकी मनःशक्तियां एवं पारलौकिक ज्ञान अद्भुत ढंग से विकसित होने लगे थे।
1849 में उन्होंने अपने से काफी बड़ी आयु के सरकारी उच्चाधिकारी निकिफोर ब्लावाट्स्की से 18 वर्ष की ही आयु में विवाह कर लिया था किंतु वासनामय विलासितापूर्ण दांपत्य जीवन उन्हें रास नहीं आया। हर समय आध्यात्मिक चिंतन एवं ब्रह्मांड के गूढ़ रहस्यों के बारे में मनन-चिंतन करने वाली किशोरी हैलीना पैट्रोना विवाह के तुंरत बाद ही पति को हमेशा के लिए छोड़ कर पिता के घर लौट गईं। पुत्री द्वारा जल्दीबाजी में किए गए
विवाह और उसके तुरंत बाद पति से संबंध-विच्छेद उन्हें अच्छा नहीं लगा। लेकिन जो हो गया उसे मानने के लिए वे मजबूर थे। अपनी मातृविहीना पुत्री को वे बहुत प्यार करते थे। और उसे खुश रखते थे। पुत्री ने जब यह इच्छा व्यक्त की कि अब वह कभी दुबारा विवाह बंधन में नहीं पड़ेगी। अब वह अपने मनोनुकूल अध्यात्म चिंतन व अपने में ब्रह्मज्ञान का विकास करेगी। और ब्रह्मांड के अव्यक्त गूढ़ रहस्यों की खोज व अध्ययन करेगी, तब पिता को उसे अनुमति देनी ही पडी। आर्थिक समस्या उनकी पुत्री के आगे थी नहीं क्योंकि पिता की इकलौती पुत्री होने के नाते पिता की संपत्ति उसके लिए यथेष्ट थी जिससे वह आजीवन अपना निर्वाह कर सकती थीं।
मैडम ब्लावाट्स्की के उत्कृष्ट चरित्र के बारे में लक्ष्य करने योग्य एक बात यह है कि उन्होंने विवाह को केवल वासनापूर्ति का साधन न मान कर किसी ऊंचे उद्देश्य की पूर्ति के लिए पति-पत्नी के रूप में एक दूसरे का सहयोगी बनना, माना था। विवाह करके उन्होंने देखा कि ‘ब्रह्मज्ञान के अर्जन तथा ब्रह्मांड के गूढ़ रहस्यों का उद्धाटन करने और संसार में विश्व- बंधुत्व कायम करने के उनके उद्देश्यों को उनके पति ब्लावाट्स्की कोई महत्त्व नहीं देते।
वे पत्नी को केवल वासनापूर्ति का साधन एवं अपनी विलासितापूर्ण जीवन में साथी मानते हैं।’ इसलिए हैलीना विवाह के तुरंत बाद पति से अलग हो गईं, किंतु उन्होंने अपने नाम के साथ पति का नाम अपने जीवन की अंतिम घड़ी तक बरकरार रखा क्योंकि उन्होंने अपना दूसरा विवाह करने के उद्देश्य से अपने पति से संबंध विच्छेद नहीं किया था। एक बार जो पति बन गया, कोई संबंध न रहने पर भी, वह उनका पति बना रहा।
1855 के दिसंबर में, जापान से वापसी पर 1855 से 1857 के मध्य उन्होंने दुबारा भारत आकर अधिक समय तक पूरे देश का भ्रमण करके यहां की आध्यात्मिक ऊंचाइयों एवं धर्मग्रंथों के बारे में जानकारी प्राप्त की थी। तीसरी बार 1868 में वे 37 वर्ष की परिपक्व आयु में भारत व तिब्बत की यात्रा पर आईं तो कुछ दिन यहां के विद्वानों से विचारों का आदान-प्रदान एवं अध्ययन द्वारा भारत के बारे में और अधिक जानकारी प्राप्त कीं। फिर यहां से तिब्बत चली गईं।
8 सितंबर, 1875 को न्यूयार्क (अमेरिका) में थियोसॉफिकल सोसाइटी का गठन करने के बाद वे 1878 के अंत में चौथी बार भारत आई तो अपने सहयोगी कर्नल ऑलकॉट के साथ बंबई में सोसाइटी का कार्यालय स्थापित कर उसके प्रचार-प्रसार के लिए ‘द थियोसॉफिट’ नामक पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया। 19 दिंसबर, 1882 में उन्होंने थियोसॉफिकल सोसाइटी का अंतर्राष्ट्रीय कार्यालय मद्रास (चेन्नई) के अड्यार क्षेत्र में स्थानांतरित किया। उसके बाद सोसाइटी का व्यापक प्रचार-प्रसार शुरू हो गया
और देश के विभिन्न स्थानों में उसकी शाखाएं खोली गईं। 32 वर्षों तक सारे विश्व का भ्रमण करके उन्होंने भारत को ही थियोसॉफिकल सोसाइटी का मुख्य केंद्र बनाने के लिए अपने मनोनुकूल उपयुक्त पाया। यह उनके द्वारा भारत के मूल्यांकन एवं भारत के प्रति उनकी श्रद्धा-भक्ति का एक ज्वलंत प्रमाण है। एक विश्वव्यापी संगठन बनाने के लिए सारे विश्व का भ्रमण परम आवश्यक होने के कारण उन्होंने भारत में अधिक समय तक न रहकर 32 वर्ष विश्व भ्रमण में बिताया था। फिर भी कुल मिलाकर वे लगभग 10 वर्ष भारत में रहीं।
मैडम ब्लावाट्स्की ने 20 फरवरी, 1884 को कर्नल ऑलकॉट के साथ सोसाइटी के प्रचार-प्रसार हेतु यूरोप गईं। वहां के कई देशों में काम करने के बाद वे लंदन पहुंची और वहां से 1884 के अक्टूबर में रवाना हो कर 21 दिसंबर को अड्यार लौट आईं। 1885 के आरंभ में वे बहुत बीमार हो गईं। फरवरी में उन्हें यूरोप में इलाज कराने तथा वहां काम करने के लिए भारत से प्रस्थान करना पड़ा। यह उनकी भारत से अंतिम विदाई थी। यूरोप में थियोसॉफिकल सोसाइटी का काम आगे बढ़ाते हुए उन्होंने लंदन को अपना अंतिम पड़ाव बनाया।
वहां ‘ब्लावाट्स्की लॉज’ नाम से अपना आवास बना कर, 1857 के सितंबर से उन्होंने अपना दूसरा मासिक पत्र ‘लूसिफर’ का प्रकाशन शुरू कर दिया। 1888 में ‘दि सीक्रेट डॉक्टिन’ नामक उनका 1500 पृष्ठों का ग्रंथ लंदन से प्रकाशित हुआ। 1889 में उन्होंने ‘द वॉइस ऑफ साइलेंस’ तथा ‘दि की टु थियोसॉफी’ नामक दो पुस्तकें प्रकाशित कीं। उस अवधि में सोसाइटी के प्रचार-प्रसार का काम निरंतर चलता रहा।
8 मई, 1891 को मैडम हैलीना ब्लावाट्स्की ने लंदन में अंतिम सांस लीं। अपने निधन से पहले उन्होंने सोसाइटी के यूरोप मुख्यालय की स्थापना 1890 में ही 19 एवेन्यू रोड, लंदन में कर दी थी और अपने गूढ़ विद्या का एक विचार केंद्र ‘इसोटरिक स्कूल’ नाम से 1888 में ही चालू कर दिया था। उनके शिष्यों का कहना है कि उनकी महान आत्मा ने अपने जीर्ण शरीर को छोड़ कर युवा दलाईलामा की देह में प्रवेश किया।
दक्षिण रूस के यूक्रेन प्रदेश स्थित एकाटरीनों स्लाव में 12 अगस्त, 1831 को हैलीना पैट्रोवना का जन्म रूसी फौज के एक प्रतिष्ठित उच्चाधिकारी, कर्नल पीटर वानहाःन के परिवार में हुआ था। उनकी मां सुविख्यात उपन्यासकार हैलीना आंद्रेयेवना थीं, जो उन्हें 11 वर्ष की आयु में छोड़ कर दिवंगत हो गई थीं। इसलिए वे बचपन में अपने नाना प्रिवी काउंसिलर आद्रे-डि-फादेयेव तथा नानी राजकुमारी हैलीना पावलोवना डोलगोरुकोव की देखरेख में पली थीं। सारतोव व तिफ्लिस (काकेशस) में उन्होंने शिक्षा प्राप्त की। बचपन से ही उनकी मनःशक्तियां एवं पारलौकिक ज्ञान अद्भुत ढंग से विकसित होने लगे थे।
1849 में उन्होंने अपने से काफी बड़ी आयु के सरकारी उच्चाधिकारी निकिफोर ब्लावाट्स्की से 18 वर्ष की ही आयु में विवाह कर लिया था किंतु वासनामय विलासितापूर्ण दांपत्य जीवन उन्हें रास नहीं आया। हर समय आध्यात्मिक चिंतन एवं ब्रह्मांड के गूढ़ रहस्यों के बारे में मनन-चिंतन करने वाली किशोरी हैलीना पैट्रोना विवाह के तुंरत बाद ही पति को हमेशा के लिए छोड़ कर पिता के घर लौट गईं। पुत्री द्वारा जल्दीबाजी में किए गए
विवाह और उसके तुरंत बाद पति से संबंध-विच्छेद उन्हें अच्छा नहीं लगा। लेकिन जो हो गया उसे मानने के लिए वे मजबूर थे। अपनी मातृविहीना पुत्री को वे बहुत प्यार करते थे। और उसे खुश रखते थे। पुत्री ने जब यह इच्छा व्यक्त की कि अब वह कभी दुबारा विवाह बंधन में नहीं पड़ेगी। अब वह अपने मनोनुकूल अध्यात्म चिंतन व अपने में ब्रह्मज्ञान का विकास करेगी। और ब्रह्मांड के अव्यक्त गूढ़ रहस्यों की खोज व अध्ययन करेगी, तब पिता को उसे अनुमति देनी ही पडी। आर्थिक समस्या उनकी पुत्री के आगे थी नहीं क्योंकि पिता की इकलौती पुत्री होने के नाते पिता की संपत्ति उसके लिए यथेष्ट थी जिससे वह आजीवन अपना निर्वाह कर सकती थीं।
मैडम ब्लावाट्स्की के उत्कृष्ट चरित्र के बारे में लक्ष्य करने योग्य एक बात यह है कि उन्होंने विवाह को केवल वासनापूर्ति का साधन न मान कर किसी ऊंचे उद्देश्य की पूर्ति के लिए पति-पत्नी के रूप में एक दूसरे का सहयोगी बनना, माना था। विवाह करके उन्होंने देखा कि ‘ब्रह्मज्ञान के अर्जन तथा ब्रह्मांड के गूढ़ रहस्यों का उद्धाटन करने और संसार में विश्व- बंधुत्व कायम करने के उनके उद्देश्यों को उनके पति ब्लावाट्स्की कोई महत्त्व नहीं देते।
वे पत्नी को केवल वासनापूर्ति का साधन एवं अपनी विलासितापूर्ण जीवन में साथी मानते हैं।’ इसलिए हैलीना विवाह के तुरंत बाद पति से अलग हो गईं, किंतु उन्होंने अपने नाम के साथ पति का नाम अपने जीवन की अंतिम घड़ी तक बरकरार रखा क्योंकि उन्होंने अपना दूसरा विवाह करने के उद्देश्य से अपने पति से संबंध विच्छेद नहीं किया था। एक बार जो पति बन गया, कोई संबंध न रहने पर भी, वह उनका पति बना रहा।
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