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कालापानी अंडमान की दंडी-बस्ती

प्रमोद कुमार

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :109
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5651
आईएसबीएन :81-237-4807-4

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कालापानी की सेलुलर जेल में भारतियों पर हुए अत्याचार पर एक नजर...

Kala Pani Andman Ki Dandi Basti

प्रस्तुत हैं इसी पुस्तक के कुछ अंश

कालापानी का सेलूलर जेल भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के सेनानियों पर हुए बर्बर अत्याचारों का ऐसा अध्याय रहा है, जो तत्कालीन अंग्रेज सरकार की सामंतवादी सोच को उजागर करता है। अग्रेजों की स्पष्ट खोज थी कि बदलाव की विचारधारा को समाज से जितना दूर रखा जा सके, उतना ही उनका शासन मजबूत होगा। इसी मानसिकता को रेजिनाल्ड-क्रैडाक ने ‘सेप्टिक टैंक व निरापद हिरासत’ का सिद्धान्त कहा। इस सिद्धान्त के अनुसार जहरीली गैस को टैंक के अंदर ही रहने देने व उसके उत्पादों को निरापद हिरासत में रखना आवश्यक है। यहां जहरीली गैस से तात्पर्य राजनैतिक बंदियों के खतरनाक विचारों से था। सेप्टिक टैंक का अर्थ अंडमान जैसी दंडी-बस्तियों से था, जो निरापद होने के साथ-साथ ऐसी हों कि वहां से पलायन नहीं किया जा सके।

औपनिवेशिक राज व्यवस्था ने खतरनाक राजनैतिक बंदियों को अंडमान में एकांत में बंदी बनाने का प्रारम्भ 1858 के गदर बंदियों से किया था। यह पुस्तक सजा देने के ब्रिटिश कानूनों, अंडमान जेल में बन्द किए गए कैदियों पर अत्याचारों और उस वीरान द्वीप में बसावट के इतिहास को प्रस्तुत करती है। लेखक ने भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद द्वारा अनुदान की सहायता से कालापानी की सजा पाए राजनैतिक युद्धबंदियों के अनुभवों के दस्तावेजीकरण का कार्य किया है और इन्हीं अनुभवों के आधार पर वे कालापानी पर एक प्रामाणिक, सजीव और रोमांचकारी पुस्तक तैयार कर पाए हैं।
श्री प्रमोद कुमार (7 अक्टूबर, 1952) लखनऊ विश्वविद्यालय के पाश्चात्य इतिहास विभाग में रीडर हैं। उनकी अन्य चर्चित पुस्तकें हैं- हंगर स्ट्राइक इन अंडमान, महात्मा बिट्रेड, ओशिनिया, आधुनिक यूरोप का इतिहास, पूर्वी एशिया का इतिहास, पश्चिमी एशिया का इतिहास भारत का स्वतंत्रता संग्राम आदि।

 चार वर्ष के लिए
अंडमान में निर्वासित,

हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन के सदस्य,

चन्द्रशेखर आजाद व सरदार भगत सिंह
के सहयोगी,

लाहौर षडयंत्र मुकदमे  
के एक प्रमुख अभियुक्त,

लखनऊ नगर में
शहीद स्मारक व स्वतंत्रता संग्राम शोध केंद्र स्थापित करने वाले,

‘संस्मृतियां’ तथा ‘मौत का इंतजार’ जैसी पुस्तकों को लिखने वाले,
‘भगत सिंह के पुत्र व दस्तावेज’ को संपादित करने वाले

तथा मुझे
अंडमान में निर्वासित
क्रांतिकारियों के इतिहास
पर शोध करने के लिये प्रेरित करने वाले
शिव दा
को
सादर नमन सहित
समर्पित


प्रस्तावना

1857 के विद्रोह के तत्काल पश्चात अचानक ब्रिटेन के औपनिवेशिक सरकार ने अंडमान द्वीप समूह में एक दंडी-बस्ती बनाकर विद्रोहियों को वहां निर्वासित करना प्रारंभ कर दिया था।
बाद में विभिन्न प्रकार के राजनैतिक विद्रोहियों के साथ-साथ खतरनाक किस्म के अपराधियों को भी निर्वासित कर दिया गया। अंडमान की इसी दंडी-बस्ती को ‘कालापानी’, तथा निर्वासित कैदियों को ‘दामिली’ का नाम प्राप्त हुआ। यह पूरी तरह स्पष्ट नहीं है कि इस दंडी-बस्ती को ‘कालापानी’ का नाम कैसे और क्यों प्राप्त हुआ, परन्तु इस नाम के साथ जिस रहस्यात्मक आतंक का बोध होता था, वह किसी से छिपा हुआ नहीं है। ‘कालापानी’ की सजा पाने का एक मात्र तात्पर्य था, एक ऐसे रहस्यात्मक स्थान, पर भेजा जाना, जहां से इस जन्म में वापसी संभव नहीं थी। परंतु, बीसवीं सदी के प्रारम्भिक दशकों में जब राष्ट्रवादी व क्रांतिकारी कैदियों को निर्वासित किया जाना प्रारंभ किया गया, तब अंडमान के सेलूलर जेल में उन राजनैतिक बंदियों ने जो परिपक्व राजनैतिक-प्रतिरोध प्रारंभ किया, वह भारत के स्वतंत्रता संग्राम का एक महत्त्वपूर्ण अध्याय बन गया।

उन प्रतिरोधों में मई 1933 की भूख-हड़ताल का एक महत्वपूर्ण स्थान है, जिसमें उन राजनैतिक बंदियों ने अपने तीन साथियों की शहादत के बाद भी अपना घोषित उद्देश्य प्राप्त कर लिया था, तथा न केवल उन्होंने ब्रिटिश-औपनिवेशिक दंड-न्याय व्यवस्था की वास्तविक्ता को जगजाहिर कर दिया था, बल्कि कारावास-प्रशासन को अपना दमनात्मक रवैया त्यागने के लिए मजबूर भी कर दिया था। 1947 में भारत की आजादी के बाद अंडमान की इस दंडी-बस्ती को सदैव के लिए समाप्त कर दिया गया तथा 1950 में इसे भारतीय गणतंत्र का संघ शासित क्षेत्र बना दिया गया। उसके पश्चात अंडमान व निकोबार द्वीप समूह महत्वपूर्ण पर्यटक स्थल के रूप में विकसित हुआ तथा आतंक का पर्याय बन चुका वहां का सेलूलर जेल स्वतंत्रता संग्राम के एक राष्ट्रीय-स्मारक के रूप में दर्शनीय स्थल बना दिया गया।

‘कालापानी’ अथवा अंडमान व निकोबार द्वीप समूह की दंडी-बस्ती व सेलूलर कारावास के राजनैतिक कैदियों के इतिहास को यहां सामान्य पाठकों के लिए प्रस्तुत किया जा रहा है। इसका मुख्य उद्देश्य ‘कालापानी’ के निर्वासन, सेलूलर जेल के अनुशासन व प्रशासन, राजनैतिक बंदियों के साथ होने वाले दमन तथा उनके प्रतिरोधों पर प्रकाश डालने का एक विनम्र प्रयास करना है। इस पुस्तक की रचना के लिए लेखक ने इस विषय पर प्रकाशित इतिहास की पुस्तकों, राष्ट्रीय अभिलेखागार, नई दिल्ली, लन्दन के इंडिया ऑफिस रिकार्डस व लाइब्रेरी के दस्तावेजों तथा कालापानी की सजा पाये राजनैतिक कैदियों के साक्षात्कारों की सहायता ली है।

इस विषय पर शोध करने के लिए लेखक को अनेक संस्थाओं व व्यक्तियों का सहयोग मिला है, जिन सभी के प्रति वह हृदय आभारी है, परन्तु यहां पर उनमें से कुछ महत्वपूर्ण संस्थाओं व व्यक्तियों का नाम लिये बिना उसके प्रयास को न्याय संगत नहीं कहा जा सकेगा। लेखक सर्वप्रथम अंडमान की राजनैतिक बंदियों द्वारा लखनऊ में स्थापित ‘शहीद स्मारक व स्वतंत्रता संग्राम शोध केन्द्र’, पुराना किला, के प्रति आभार प्रदर्शन करना चाहता है, जहां उसे यह कार्य करने की प्रेरणा मिली। यह शोध कार्य पूरा ही न हो पाया होता यदि भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद, नई दिल्ली ने तथा उपरोक्त शोध केंद्र की वर्तमान सचिव डॉ. पुष्पावती तिवारी ने इसके लिए अनुदान नहीं प्रदान किया होता। इन दोनों के प्रति लेखक कृतज्ञता ज्ञापन करना चाहता है। इस अवसर पर उन राजनैतिक बंदियों को कैसे भूला जा सकता है, जिन्होंने अपने वृद्धावस्था के बाद भी कालापानी के अपने अनुभवों संबंधी साक्षात्कारों को दिया था, जिसके बिना यह शोध-कार्य एक-पक्षीय रह गया होता। 1992-96 से अब तक इनमें से अधिकांश दिवंगत हो चुके हैं, परन्तु लेखक उन सभी स्वर्गीय व जीवित राजनैतिक कैदियों को विनम्र अभिवादन करना चाहता है। इन साक्षात्कारों में अपने शोध-सहायक श्री अमित अग्निहोत्री, कु. विभा व प्रूफ रीडिंग में कु. शालिनी श्रीवास्तव से प्राप्त सहायता के लिए लेखक इन तीनों का आभारी है। इस कार्य को पूरा करने के लिए लेखक ने राष्ट्रीय अभिलेखागार, नई दिल्ली, नेहरू मेमोरियल म्यूजियम एंड लाइब्रेरी नई दिल्ली, इंडिया ऑफिस रिकार्डस एंड लाइब्रेरी, लंदन में सुरक्षित रखे गए प्रकाशित व अप्रकाशित दस्तावेजों का प्रयोग किया है, जिसके लिए वह इनके व इनके कर्मचारियों के प्रति कृतज्ञ है।

इसके अतिरिक्त लेखक ‘शहीद स्मारक व स्वतंत्रता संग्राम शोध केंद्र, लखनऊ से जुड़े साथियों-उत्तर प्रदेश सरकार के पूर्व मंत्री व एडवोकेट जनरल श्री उमेश चंद्रा, श्री चन्द्र दत्त तिवारी, श्रीमती पुष्पावती तिवारी, डॉ. बैजनाथ सिंह, श्री अशोक चौबे, जयप्रकाश, प्रो. के.सी. स्नेही, प्रभात कुमार, उग्रनाथ नागरिक, राम किशोर व भानू प्रताप सिंह द्वारा प्रदत्त प्रेरणा व सहयोग के लिए सदैव आभारी रहेगा। अपने विद्वान अग्रज मित्रों श्री कृष्ण मुरारी लाल व श्री विनायक तथा मित्र श्री अनुराग मित्तल के सहयोग, व विचार-विमर्शों के लिए लेखक सदैव उनका आभारी रहेगा। इस कार्य को पूरा होने में अपनी पत्नी वसुधा व पुत्री प्रथुप्रिया द्वारा उठाए गए कष्टों के लिए मैं उन्हें याद करना चाहता हूं। अंत में, लेखक ‘शहीद स्मारक स्वतंत्रता संग्राम शोध केंद्र, की कार्यालय सहायिका कु. पूजा सक्सेना के प्रति आभार व्यक्त करना चाहता है, जो इस पुस्तक लेखन के दौरान मेरी आवश्यकताओं को अत्यंत तत्परतापूर्वक पूरा करती रहीं इसकी पाण्डुलिपि को कंप्यूटर कंपोजिंग कर उसे समय पर पूरा करने के लिए वह श्री सुनील पांडेय को धन्यवाद देना चाहता है।

प्रमोद कुमार श्रीवास्तव

लखनऊ अक्टूबर, 2005


विषय प्रवेश


मुझे ज्ञात है
विनाश करता है प्रतीक्षा,
उसकी जो उठता है सबसे पहले
अत्याचारी की दासता के विरुद्ध,
मेरी नियति प्रमाणित है और बंद,
लेकिन मुझे बताओ
कब और कहां बिना शहीदों के
कभी जीती गयी है स्वतंत्रता ?
मरता हूं मैं अपनी मातृभूमि के लिए
और प्रतीत था और जानता था मैं इसे
अपने हृदय में ऐ मेरे परमेश्वर।।

(पुश्किन)

‘कालापानी’, शब्द आज भी आम भारतीयों के मन पर आतंक का एक पर्याय बन कर अंकित है। ‘कालापानी’ अर्थात् एक ऐसा स्थान जहां से कोई बंदी जीवित वापस नहीं लौटता था। किसी बंदी को ‘कालापानी’ भेजने का मतलब था, उसे अंडमान द्वीप समूह भेजना। आज तक यह स्पष्ट नहीं हो पाया कि किसी बंदी को अंडमान भेजने के लिए ‘कालापानी’ शब्द का प्रयोग क्यों किया जाता था। संभव है इसका तात्पर्य ‘सागर पार’ भेजना रहा हो, जो धार्मिक-परंपराओं के अनुसार एक प्रतिबंधित कृत्य था। भारत की लोक-परंपराओं में ऐसे बंदियों को ‘दामिली’ बंदी भी कहा गया है। ‘कालापानी’ की सजा औप निवेशिक राज्य के विद्रोहियों तथा ऐसे जघन्य अपराधियों को ही दिया जाता था,
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(1993 की भूख-हड़ताल में सर्वप्रथम शहीद होने वाले महाबीर सिंह की डायरी के पहले पृष्ठ पर अंकित शिव वर्मा, संस्मृतियां, 1991, पृ.191; अंग्रेजी से लेखक द्वारा अनुवादित)

जिन्हें मृत्युदंड के स्थान पर आजीवन कारावास की सजा दी गई हो। परंतु बीसवीं सदी के प्रारंभ पर यह दंड उन राजनैतिक बंदियों को भी दिया जाने लगा, जिन्हें आजीवन कारावास के स्थान पर सावधि कारावास का दंड दिया गया था, तथा जिन्हें ब्रिटिश औपनिवेशिक व्यवस्था अपने लिये अत्यंत खतरनाक मानती थी।
‘कालापानी’ का दंड एक प्रकार से निर्वासन या देश-निकाले के दंड समान ही था। यद्यपि, भारत में ब्रिटिश औपनिवेशिक राज की स्थापना के पूर्व निर्वासन के उदाहरण तो मिलतें हैं, परन्तु किसी बंदी को भारतीय प्रायद्वीप से निष्काषित कर सागर पार भेजने का कोई उदाहरण नहीं मिलता है। किसी भी भारतीय द्वारा किन्हीं भी परिस्थितियों में सागर पार करना एक ऐसा पापमय कृत्य माना जाता था, जिसका कोई प्रायश्चित नहीं था। वास्तव में, सामाजिक परंपराओं के अनुसार सागर-पार करने से एक हिंदू अपनी जाति खो देता था, अर्थात् वह हिंदू नहीं रह जाता था। जाति खो देने अर्थात् हिंदू व्यवस्था में पूरा अस्तित्व ही समाप्त हो जाना। नि:संदेह, भारतीय समाज के लिए यह दंड मृत्युदंड से भी अधिक जघन्य था।

आश्चर्य नहीं कि किसी भी प्रकार के अपराध के लिए भारतीयों को भारतीय प्रायद्वीप से बाहर निष्काषित करने की कोई परंपरा नहीं मिलती है। भारतीय प्रायद्वीप से बाहर दंडितों के लिए बस्ती बनाने की यह परंपरा एक गैर-भारतीय परंपरा रही है, जो भारत में अंग्रेज़ी राज की स्थापना के साथ ही भारत आयी।
भारतीय बंदियों के लिए प्रथम ‘दंडी-बस्ती’ या ‘पीनल सेटलमेंट’ अंग्रेजों ने सागर-पार सुमात्रा के बेंकोलीन नामक स्थान पर बनायी थी। अंग्रेजों ने इस पर 1685 में अधिकार किया था। सबसे पहले, 1787 में भारतीय बंदियों को यहां मार्लबारो के दुर्ग में निर्वासित किया गया था। यहां भेजे जाने वाले अधिकांश बंदी हत्या, लूट, डकैती, ठगी और धोखाधड़ी के अपराधों के लिए दंडित किए गये थे।

1823 में जब बेंकोलीन पर डचों का अधिकार हो गया, तब इन बंदियों को मलाया के पेनांग नामक स्थान पर बने एक अन्य ‘दंडी-बस्ती’ में स्थानांतरण कर दिया गया। इस स्थानांतरण के समय बेंकोलीन में बंगाल व मद्रास प्रेसीडेंसी से आए कुल लगभग 800-900 भारतीय बंदी थे। बेंकोलीन से पेनांग के अतिरिक्त सिंगापुर तथा मलक्का में भी दंडी-बस्तियां बनायी गयी थीं। 1832 में इन सबको सिंगापुर प्रेषित कर दिया गया। इनके अतिरिक्त अंग्रेजों ने 1826 के बाद म्यांमार में अराकान व तेनासरीम में तथा मॉरीशस में भी दंडी-बस्तियों का निर्माण किया था। अंततोगत्वा, सभी दंडी-बस्तियों को 1858 में स्थायी रूप से अंडमान स्थानांतरित कर दिया गया।

अवधारणा

यद्यपि, दंडी-बस्तियों के इन कैदियों से जंगलों को साफ कराने तथा सड़कों के बनवाने का कार्य लिया जाता था, परन्तु इनका मुख्य उद्देश्य राज्य के अस्तित्व को सुरक्षित रखना ही होता था। भारत में अंग्रेजी राज्य की स्थापना के अवसर पर इंगलैंड में ‘दंडी बस्तियों’ की अवधारणा जन्म ले चुकी थी। यूरोप के प्रारंभिक राष्ट्र-राज्यों द्वारा भौगोलिक खोजों को प्रारंभ करने के साथ ही सुदूर क्षेत्रों में ‘दंडी-बस्तियों’, को निर्मित करने की प्रक्रिया प्रारंभ हो गई थी। आश्चर्य नहीं कि अमेरिका में ब्रिटिश उपनिवेशों के निर्माण के साथ ही वहां ‘दंडी-बस्तियां’ बनायी जाने लगी थीं। 18 वीं सदी के अंतिम दशकों तक ब्रिटेन में कोड़े लगाना, टिकठी पर चढ़ाना, फांसी पर लटकाना तथा निर्वासित करना जैसे दंड सामान्य हो चुके थे। अमेरिका की आजादी के बाद ब्रिटेन ने अपने कैदियों को आस्ट्रेलिया भेजना प्रारंभ कर दिया था।

इसके विपरीत भारतीय प्रायद्वीप के साम्राज्य, राज्यों व रजवाड़ों में दंडी-बस्तियां बनाने की परंपरा कभी नहीं रही। नि:संदेह, इसका कारण भारतीय दंड-न्याय व्यवस्था की कोई सैद्धान्तिक बाध्यता नहीं थी। बल्कि, अपने राज्यों में सुदूर क्षेत्रों पर अधिकार न होना तथा भौगोलिक खोजों के दौर में यूरोपीय समाजों में पिछड़ जाना ही था। यूरोप की ही भांति भारतीय रजवाड़ों में भी दंड-न्याय का आधार राज्य को आंतरिक व वाह्य खतरों से बचाना ही होता था।
18 वीं सदी के मराठा-राज्यों में अंग-भंग करना तथा मृत्यु दंड देना एक सामान्य सजा होती थी।

दंड का उद्देश्य कैदियों को सुधारना, एक सभ्य समाज में रहने योग्य बनाना तथा दूसरों को अपराध के रास्ते पर जाने से रोकना आदि आधुनिक दंड-न्याय व्यवस्था के लक्षण रहे हैं। दंड-न्याय व्यवस्था में इन आधुनिक मूल्यों का आगमन 19 वीं सदी के इंगलैंड में हुआ। उदारवाद के मूल्यों से आप्लावित यह सदी इंगलैंड में सुधारों का दौर लेकर आयी थी। दंड-न्याय व्यवस्था में यह दौर बंदियों के लिए कारावास की अवधारणा को लेकर आया। इस विचार के आगमन के साथ ही कि बंदियों को सुधारा भी जा सकता था, निर्वासन का दंड अनावश्यक होता चला गया। क्योंकि, सुदूर दंडी-बस्तियों के स्थान पर स्थानीय कारावासों के बंदियों को सुधारना अधिक सुविधाजनक माना गया था।
हालांकि 19 वीं सदी के इंगलैंड में दंड-न्याय व्यवस्था तीव्र सुधारों के दौर से गुजर रही थी, परन्तु इसी सदी में ब्रिटेन की औपनिवेशिक सरकार ने 1857 के भारतीय गदर के पश्चात विद्रोहियों को सागर-पार सुदूर अंडमान में निर्वासित करना प्रारंभ कर दिया था। निर्वासन की यह प्रक्रिया गदर के विद्रोहियों तक सीमित नहीं रही, बल्कि आगामी अस्सी वर्षों तक तब तक जारी रही, जब तक कि द्वितीय विश्व युद्ध के कारण निर्वासन असंभव नहीं हो गया।

इंगलैंड के लिए दंड-न्याय व्यवस्था का मापदंड सार्वभौमिक नहीं था। अपने मातृभूमि व अपने उपनिवेश इन दोनों के लिए इंगलैंड की राजसत्ता ने दंड-न्याय के दो अलग-अलग मापदंड निर्धारित किये थे। वास्तव में, ब्रिटिश राजसत्ता का यह दोहरा चरित्र केवल दंड-न्याय व्यवस्था तक सीमित नहीं था, बल्कि प्रशासनिक-व्यवस्था, शिक्षा-व्यवस्था व संपूर्ण कानून-व्यवस्था तक विस्तृत रहा। ब्रिटिश राजसत्ता ने अपने भारतीय उपनिवेशियों को कभी भी अपने ‘नागरिक’ का दर्जा नहीं दिया, बल्कि उसके साथ सदैव अपनी ‘उपनिवेशी प्रजा’ की भाँति ही व्यवहार करता रहा। एक ‘नागरिक’ व एक ‘उपनिवेशी प्रजा’ का यह भेद पूरे औपनिवेशिक काल तक बना रहा।

1835 तक भारत की दंड-न्याय व्यवस्था हिंदू, मुस्लिम व ब्रिटिश संहिताओं का एक ऐसा घालमेल हो गया था, जिसके नियमों व प्रक्रियाओं में कोई समरूपता नहीं थी। एक ही अपराध के लिये अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग दंड का प्राविधान लागू था। किसी अपराधी को कौन सा दंड मिलेगा, यह इस बात पर निर्भर था कि उसका मुकदमा कोलकाता में चल रहा था कि मुंबई में। इसी कमी को दूर करने के लिए मैकाले भारत के एक सार्वभौम दंड-संहिता निर्मित करना आवश्यक मानता था।

भारतीय दंड-संहिता के निर्माण के साथ-साथ मैकाले औपनिवेशिक कारावास-व्यवस्था का भी जन्मदाता था। मैकाले की इस कारावास-व्यवस्था का उद्देश्य एक ऐसी दंड तकनीक को विकसित करना था, जो अराजकता के स्थान पर व्यवस्था का मार्ग प्रशस्त कर सके। 1835 में ही उसने एक समिति का गठन कर कारावास के नियमों को विकसित कराने का कार्य किया। इस समिति ने एक ऐसे कारावास-व्यवस्था की आवश्यकता पर बल दिया, जिसमें प्रत्येक कारावास का एक अधीक्षक हो, प्रत्येक बंदी के सोने के लिए एक अलग स्थान हो, एकांत काल-कोठरी की व्यवस्था  हो, तथा भौतिक सुख अनुपस्थित हो। अंडमान के दंडी-बस्ती में निर्वासित बंदियों को दंड व अनुशासन के जिन नियमों के अंतगर्त रहना पड़ता था, उनका मूल स्रोत्र उक्त मैकाले-समिति द्वारा विकसित वही कारावास-व्यवस्था थी, जो 1830 के दशक में बनायी गयी।
नव-निर्मित भारतीय दंड-संहिता ने दंडी-बस्तियों की व्यवस्था का पुष्टिकरण कर दिया था।

यद्यपि, उस समय यह बस्तियां मलाया व मॉरीशस में ही थीं न कि अंडमान में। मैकाले के अनुसार भारतीय बंदियों का दंडस्वरूप निर्वासन एक महत्वपूर्ण निर्णय था, क्योंकि सागर-पार निर्वासन से भारतीय अपराधियों पर पड़ने वाला दंडात्मक प्रभाव और अधिक बढ़ जाता। मैकाले के अनुसार अपराधी को उसके परिचित समाज से सदैव के लिए अलग कर एक अज्ञात सुदूर स्थान पर, जहाँ से कभी लौटना संभव नहीं था, भेजकर मूल निवासियों में एक विस्मयकारी श्रद्धा व भय की भावना भरी जा सकती थी। भारतीय बंदियों को सागर-पार निर्वासित करने का उद्देश्य उपनिवेश के मूल-निवासियों में विजेता नस्ल के प्रति एक ऐसा श्रद्धा-मिश्रित भय उत्पन्न करना था, जो विजेता की राजसत्ता को निर्भीक होकर शासन करने हेतु अवसर निर्मित करने में सहायक हो सके। भारतीय बंदियों को एक ऐसे रहस्यमय स्थान पर निर्वासित कर, जिसमें गंतव्य, यात्रा का प्रकार व वापसी सभी कुछ अज्ञात था, औपनिवेशिक राजसत्ता अपनी दांडिक क्षमताओं का प्रदर्शन कर सकती थी। भारतीय बंदियों को सुदूर अंडमान के मिथकीय दंडी बस्ती में निर्वासित कर भारत के मूल निवासियों में एक ऐसे मायवी आतंक को उत्पन्न किया गया, जो राजसत्ता के विरुद्ध जाने वाली कल्पनाओं पर भी प्रभावी नियंत्रण लगाने में सक्षम था।


राजनैतिक अपराधी व निरापद हिरासत


दंडी-बस्ती के इतिहास में अंडमान का एक महत्वपूर्ण स्थान है। अंडमान से पूर्व की दंडी-बस्तियां ऐसे बंदियों के लिए बनायी गई थीं, जो औपनिवेशिक राजसत्ता को अंदर से खतरा उत्पन्न कर सकते थे। हत्या, लूट, डकैती व धोखाधड़ी में लिप्त खतरनाक भारतीय अपराधी ऐसे श्रेणी में आते थे। इनसे औपनिवेशिक कानून-व्यवस्था को एक ऐसा खतरा उत्पन्न होता था, जिससे मुक्ति पाए बिना न उपनिवेश में शांति-व्यवस्था बनी रह सकती थी, न औपनिवेशिक राजसत्ता के प्रति आवश्यक निष्ठा ही जागृत हो सकती थी। इन्हें मलाया व मॉरीशस के दंडी-बस्तियों में निर्वासित कर ऐसे अपराधियों में सत्ता का आतंक तथा सामान्य उपनिवेशियों में ऐसे अपराधों में लिप्त होने के परिणाम का आतंक उत्पन्न करने का कार्य किया गया।

परंतु 1857 के गदर ने औपनिवेशिक सत्ता के लिए बिल्कुल ही एक अलग प्रकार का खतरा उत्पन्न कर दिया था। इन विद्रोहियों ने केवल कानून व्यवस्था के लिए नहीं, बल्कि इसके संचालक नस्ल के लिए भी खतरा उत्पन्न कर दिया था। इन्हें अपराधियों की उस सामान्य श्रेणी में नहीं रखा जा सकता था, जिन्हें अंडमान पूर्व की दंडी-बस्तियों में निर्वासित किया गया था। इन्हें मुख्य भूमि के कारावासों में भी नहीं रखा जा सकता था; क्योंकि विद्रोह के दौरान इन्होंने कारावासों को ही अपना प्रमुख निशाना बनाया था, तथा उन कारावासों में उनके विद्रोही विचारों के फैलने का भी खतरा था। ऐसे विद्रोहियों के लिए औपनिवेशिक राज-सत्ता अंडमान द्वीप समूह से अधिक सुरक्षित कोई अन्य स्थान नहीं पा सकती थी।
एक बार अंडमान में दंडी-बस्ती का निर्माण हो जाने के बाद भविष्य के सभी विद्रोहियों को वहां निर्वासित करने की नीति बना ली गई। 1857 के विद्रोहियों को भी अंडमान ही निर्वासित किया गया। 20 वीं सदी के आगमन के साथ-साथ ही भारत में सैन्यवादी  राष्ट्रवाद का भी आगमन हुआ। इन्हें भी अंडमान के दंडी बस्ती में ही निर्वासित किया गया। ऐसे राष्ट्रवादियों का निर्वासन द्वितीय विश्वयुद्ध तक जारी रहा।

सामान्य अपराधी व राजनैतिक अपराधी का यह अंतर भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन स्थापित होने के साथ ही प्रारंभ हो गया था। 1793 का ‘ईस्ट इंडिया कंपनी अधिनियम’ गर्वनर-जनरल को यह अधिकार प्रदान करता था कि वह भारत में ब्रिटिश हितों के विरुद्ध कार्य करने वाले किसी भी संदेहास्पद व्यक्ति को बंदी बना सके। यद्यपि, बंदी-प्रत्यक्षीकरण नियम के अंतगर्त एक बंदी को अपने विरुद्ध लगाये गए अभियोगों को जानने, इस निरोधी आदेश के विरुद्ध गर्वनर जनरल को प्रतिवेदन भेजने व अपने बचाव में साक्ष्य प्रस्तुत करने का अधिकार था, परन्तु इस अधिनियम में बंदी को न्यायालय में प्रस्तुत करने हेतु कोई समय-सीमा नहीं रखी गई थी। इस प्रकार किसी राजनैतिक बंदी को बिना मुकदमा चलाए बंदी बनाये रखने का अधिकार ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपने पास रख रखा था। हालांकि, ईस्ट इंडिया कंपनी को यह अवैधानिक अधिकार देने वाली ब्रिटिश संसद यह भली-भांति जानती थी, कि राजसत्ता के इस अधिकार के विरुद्ध चले संघर्ष ने ही ब्रिटेन में लोकतंत्र की नींव रखी थी व संसद को अधिकार संपन्न बनाया था।


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