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बीसवीं शताब्दी का हिन्दी साहित्य

विजयमोहन सिंह

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :259
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5648
आईएसबीएन :81-267-1090-x

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प्रस्तुत ह बीसवीं शताब्दी का हिन्दी साहित्य....

Bisvin Shatabdi Ka Hindi Sahitya a hindi book by Vijay Mohan Singh - बीसवीं शताब्दी का हिन्दी साहित्य - विजयमोहन सिंह

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


‘बीसवीं शताब्दी का हिन्दी साहित्य’ विजयमोहन सिंह की नवीनतम समीक्षा कृति है। लगभग ढाई सौ पृष्ठों के अपने सीमित आकार में, एक पूरी सदी के साहित्य की पड़ताल करने वाली यह एक ऐसी किताब है, जिसे एक सर्जक-आलोचक के सुदीर्घ अध्ययन तथा मनन का परिपाक कहा जा सकता है। पिछले कुछ समय से पश्चिम में और अपने यहाँ भी, साहित्येतिहास के लेखन की परम्परा कुछ ठहर गई है-बल्कि कुछ हलकों में तो ऐसे लेखन की क्रमबद्ध पद्धति को संदेह की दृष्टि से भी देखा गया है। ऐसी स्थिति में इस प्रश्न का उठना स्वाभाविक है कि इक्कीसवीं सदी के जिस बिन्दु पर हम खड़े हैं वहाँ साहित्य के विकास की प्रक्रिया को किस, तरह देखा परखा जाए या फिर उसकी पद्धति क्यों हो ? इस पुस्तक को पढ़ते हुए मेरे मन पर पहला प्रभाव यही पड़ा कि यह उसी प्रश्न के उत्तर की दिशा में की गई एक कोशिश है-शायद पहली मगर गम्भीर कोशिश।
अपनी भूमिका में लेखक ने जोर देकर कहा है कि इस पुस्तक को किसी भी अर्थ में इतिहास न माना जाए-क्योंकि न तो यहाँ तिथियों का अंकगणित मिलेगा, न किसी तरह के फुटनोट, न ही पूर्वापर सम्बन्धों की क्रमिकता। यदि मिलेगी तो कुछ अलक्षित अन्त:सूत्रों की निशानदेही और कई बार कुछ स्थापित मान्यताओं के बरक्स कोई सर्वथा नया विचार और हाँ, वह नैतिक साहस भी जो किसी नए विचार की प्रस्तावना के लिए ज़रूरी होता है।
अनुभव पकी दृष्टि, गहरी सूझ-बूझ और विश्लेषण परक पद्धति के साथ किया गया, पिछली सदी के साहित्य का यह पुनरावलोकन, साहित्य के अध्येताओं का ध्यान तो आकृष्ट करेगा ही-शायद कुछ प्रश्नों पर नए सिरे से सोचने के लिए उत्प्रेरित भी करे।


केदारनाथ सिंह


यह किताब



बीसवीं शताब्दी के अन्तिम वर्ष अर्थात् सन् 2000 में हिन्दी ‘इंडिया टुडे’ ने एक ‘शताब्दी अंक’ प्रकाशित किया था। मुझसे कहा गया था कि मैं उसके लिए बीसवीं शताब्दी की प्रायः सभी साहित्य विधाओं का सर्वेक्षण करते हुए एक लेख लिखूँ। निश्चित रूप से यह एक दुःखास्य कार्य थाः सौ वर्षों के साहित्य को समेटते हुए एक लेख लिखना।
फिर भी मुझे यह प्रस्ताव दिलचस्प लगा और मैंने स्मृति के सहारे बीसवीं सदी के साहित्य पर वह लेख लिखा। जाहिर है वह लेख अनमने और अटपटे ढंग से ही लिखा गया था। लेकिन प्रकाशित होने पर जो प्रतिक्रियाएँ मिली वे बेहद दिलचस्प थीं: कुछ लोगों ने लेख के लिए निर्धारित समय तथा स्थान का ध्यान न रखते हुए जो प्रतिक्रियाएँ व्यक्त की वे मेरे अज्ञान तथा पूर्वग्रहों की ओर संकेत करने वाली थीं। कुछ लोगों को लेख में व्यक्त मेरी मान्यताएँ विवादास्द ही नहीं ‘फतबेबाजी’ भी लगी। लेकिन आधुनिक हिन्दी साहित्य से अल्पपरिचिति लोगों को उससे न केवल उसके बारे में नई सूचनाएँ मिली बल्कि अनेक उद्धाटक नए तथ्यों का भी पता चला। स्पष्टतः वह लेख बीसवीं सदी के हिन्दी साहित्य का पर्याप्त सर्वेक्षण नहीं था। लेकिन उसे ‘परिचयात्मक’ भी नहीं कहा जा सकता था क्योंकि साहित्य के विद्यार्थी अध्यापक तथा लेखक होने के कारण मेरी अपनी कुछ रुचियाँ तो निर्मित हो ही चुकी थीं, एक समीक्षक के रुप में निजी दृष्टि भी उसमें शामिल थी, जिसके पीछे एक सुदीर्य चिन्तन परम्परा भी थी।
बाद में मेरे अनेक मित्रों ने कहा कि उसमें व्यक्त मेरे विचार, मान्यताएँ और स्थापनाएँ विस्तृत विश्लेषण और विवेचन की माँग करती हैं, इसलिए अच्छा हो कि बीसवीं सदी के हिन्दी साहित्य पर केन्द्रित मैं एक पूरी पुस्तक लिख दूँ। कुछ दिनों बाद राजकमल प्रकाशन के संचालक श्री अशोक महेश्वरी भी यही प्रस्ताव लेकर मेरे पास आए। किन्तु यह कहना कि केवल इन्हीं कारणों से मैंने यह किताब लिखने का निर्णय लिया शायद सच नहीं होगा। वस्तुतः प्रायः आधी शताब्दी तक हिन्दी साहित्य की विभिन्न विधाओं का घनघोर पाठक रहने के कारण स्वयं मेरे मन से एक दुर्दमनीय जिज्ञासा उत्पन्न हो गई कि वह सब जो पीछे छूट चुका है, छूटता जा रहा है और जिसका मेरे होने, सोचने-समझने तथा एक सीमा तक जीवन का अर्थ तलाशने की प्रक्रिया में लक्षित या अलक्षित रूप में अह्म भूमिका रही है, उसे फिर से देखा परखा जाए: अगर मैं उसे नए सिरे से देखूँ और पाठक के रूप में फिर उसी प्रक्रिया से गुजरूँ जिससे गुजरता हुआ, यहाँ पहुँचा हूँ, तो वह (वह सब) अब कैसा लगेगा ? क्या मेरे निर्णय, निकष और मेरी दृष्टि बदल चुकी है या उसके पुनर्परीक्षण की आवश्यकता है ? शायद इस प्रक्रिया में अपने को भी नए सिरे से समझ सकूँ यानी अपनी साहित्यिक समझ को ? यह दुर्दमनीय आकर्षण ही मुझे बीसवीं शताब्दी के उस विपुल साहित्य संसार की ओर दुबारा ले गया। यह कहना भी गलत होगा कि इसके पीछे एक प्रकार की ‘नाट्रेलजिया’ भी काम नहीं कर रही थी। बहुत से उपन्यास, कहानियाँ, कविताएँ, नाटक, समीक्षा पुस्तकें जिन्होंने मुझे न जाने कितनी बार, कितनी तरह से उत्तेजित आन्दोलित तथा विचलित किया होगा-उन सबके करीब जाने पर अब वे कैसी दिखेंगी, कैसी लगेंगी ? क्या वे मुझे अब निराश करेंगी और मुझे तब की नासमझी पर शर्म आएगी कि क्यों मैंने तब लगभग एक बुखारी जूनून में उनका साक्षात्कार किया था ?
अतः कहना चाहिए कि यह सब कुछ मुझे उस बीसवीं सदी के हिन्दी साहित्य की ओर ले गया जिसे आधुनिक हिन्दी साहित्य और उसका विकास कहा जा सकता है।
किन्तु उसका किंचित कष्टप्रद तथा जटिल पक्ष यह था कि यह कार्य केवल कल्पना तथा स्मृति के सहारे नहीं किया जा सकता था जैसा मैंने उस पर केन्द्रित अपने ‘भ्रूण निबन्ध’ में किया था। अतः यहीं से लेखन के इस कठिन पक्ष का प्रारम्भ हुआ: पुस्तक को यथासम्भव प्रामाणिक तथ्यों पर आधारित सत्यपरक तथा वस्तुपरक बनाने के लिए मुझे डेढ़ वर्षों तक तो केवल वह सब कुछ जो जब और जहाँ से उपलब्ध हो सका उसे पढ़ने नए सिरे से समझने और नोट्स लेने में लग गए।

उसके लिए पर्याप्त सन्दर्भ सामग्री भी चाहिए थी-मुख्यतः अंग्रेजी साहित्य की वे पुस्तकें जिन्हें पुनः पढ़ने और विश्लेषित किए बिना हिन्दी साहित्य के निर्माण के सन्दर्भों तथा स्रोतों को भी नहीं जाना जा सकता था। इस कार्य को सम्भव बनाने में मेरे मित्र तथा पड़ोसी, अंग्रेजी साहित्य के मर्मज्ञ, प्राध्यापक और समीक्षक श्री के. जी वर्मा ने मेरी जो सहायता की वह किसी भी कृतज्ञता से परे है : जब जिस पुस्तक (किसी भी विधा की) की आवश्यकता पड़ी या मुझे लगा कि उसे भी पढ़ना और देखना जरूरी है, श्री वर्मा ने प्रायः चमत्कारिक ढंग से मुझे उपलब्ध करा दिया।
यह सब उन्होंने कैसे, कहाँ से और किन साधनों द्वारा सम्भव किया यह मेरे लिए आज भी एक सुखद रहस्य है। अतः कायदे से यह किताब उन्हीं को समर्पित यानी बनानी चाहिए। समय-समय पर मैं अपने अन्य अभिन्य मित्रों, गुरुजनों डॉ. नामवर सिंह, डॉ. केदारनाथ सिंह, विष्णु खरे, प्रयाग शुक्ल, अशोक बाजपेयी आदि से भी विचार विनिमय करता रहा तथा नई सूचनाएँ प्राप्त करता रहा। विशेष रूप से डॉ. केदारनाथ सिंह तथा डॉ. नामवरसिंह से विचार विनिमय तो हुआ ही उन्होंने मेरे अनेक विचारों में संशोधन भी किए और अनेक उपयोगी जानकारियाँ भी दीं।
यहाँ यह कहना आवश्यक है कि इस पुस्तक को किसी भी अर्थ में इतिहास न माना जाय। यह इतिहास तो है ही नहीं, इसमें साहित्य सम्बन्धी विधिवत रचनाएँ, सुसम्बद्ध, पूर्वाचर सम्बन्ध और क्रमिकता भी नहीं मिलेगी। हाँ, यदि कोई सुसम्बद्धता रखने की कोशिश है तो वह चिन्तन तथा विश्लेषण ही है और वह भी मेरी सीमित, मति, पद्धति और अवधारणाओं पर आधारित है। इसके अतिरिक्त चूँकि मेरी एक निश्चित जीवन दृष्टि भी है, उससे मैं युक्त नहीं हो पाया हूँ, बल्कि वही हर जगह प्रमुख तथा प्रधान रही है।
मैं लेखन में भाषा, चिन्तन और दृष्टि के किसी भी प्रकार के उलझाव को पसन्द नहीं करता बल्कि उसे, भ्रम में डालनेवाला और स्वयं ऐसे लोगों को मतिभ्रम का शिकार मानता हूँ जो अपनी अस्पष्टता, आलस्य तथा प्रमाद के कारण अनावश्यक जटिलता और उलझावपूर्ण कौशल को ही गम्भीर चिन्तन तथा सत्यान्वेषण का पर्याय मानते हैं। भाषा का समझ की स्पष्टता से सीधा सम्बन्ध है-उलझावपूर्ण तथा अबूझ शब्द तथा वाक्य विन्यास लिखना मेरी समझ में लेखक की ही ‘समझ’ का दिवालियापन हैं। अतः मैंने इससे बचने का कोई प्रयत्नपूर्वक प्रयास नहीं किया है-
बल्कि मैं प्रारम्भ से ही तर्क संगत, सीधे तथा स्पष्ट ढंग से सोचने-लिखने का अभ्यस्त रहा हूँ। हो सकता है कि मैं इतनी गम्भीरता, जटिलता तथा अतिविश्लेषणात्मक ढंग से लिखना नहीं जानता। इसे मेरी मति और चिन्तन क्षमता की सीमा समझना चाहिए।
लेखकों, पुस्तकों, नामों स्फुट रचनाओं आदि के चयन में मेरी भूमिका प्रायः ‘रुचि के राजा’ की रही है जो मुझे नहीं जँचा, मेरी रुचि के निकष पर खरा नहीं उतरा, जिसने मेरा ध्यान आकृष्ट नहीं किया, जो मुझे बहुत महत्त्वपूर्ण और अर्थवान नहीं लगा-वह मैंने छोड़ दिया या मुझसे छूट गया। यदि इस क्रिया में मुझसे कोई गहरी चूक हो गई हो तो मुझे-क्षमा माँग लेनी चाहिए। लेकिन जैसा मैंने पहले भी संकेत दिया मेरी अपनी तर्क तथा चिन्तन पद्धति रही है, जिससे मुक्त होकर लिखना मेरे लिए असम्भव था।
इसीलिए यह पुस्तक अधूरी है, एकांगी है। बीसवीं शताब्दी के साहित्य का आधा-अधूरा परिदृश्य जिसे मैं जितना देख और समझ सका। अधिक से अधिक इसे बीसवीं सदी के हिन्दी साहित्य का ऐसा पुनरावलोकन कहा जा सकता है जिसमें मेरी ‘मायोपिया’ भी शामिल है।


विजयमोहन सिंह


बीसवीं शताब्दी का हिन्दी साहित्य : पार्श्व तथा पृष्ठभूमि



1857 के विद्रोह (या क्रान्ति ?) के दमन के पश्चात लगभग यह सुनिश्चित हो चला था कि अंग्रजों को अभी भारत में रहना है। ‘ईस्ट इण्डिया कम्पनी’ की विदाई के बाद अंग्रेजों ने नए सिरे से शासन व्यवस्था को सुदृढ़ करना शुरु किया : नई आर्थिक नीतियाँ बनी तथा नई शिक्षा प्रणाली अपनाई गई। इसके साथ ही नई नौकरशाही का भी जन्म हुआ। किन्तु भारत की अर्थव्यवस्था पर सर्वाधिक प्रभाव नई आयात तथा निर्यात नीति का पड़ा। इतने भारत के परम्परागत समृद्ध कुटीर उद्योग को ध्वस्त कर दिया : देश का सारा कच्चा माल विदेश जाने लगा और वहाँ से तैयार माल का बड़े पैमाने पर आयात होने लगा।
इसके साथ ही भारत की कृषि प्रधान संस्कृति का ह्रास भी होने लगा जिसका प्रभाव सम्पूर्ण जीवन पद्धति तथा मानव मूल्यों पर पड़ा। शताब्दी के आरम्भ में देश की 80 प्रतिशत जनता गाँवो में रहती थी। उनकी जीवन पद्धति में इस परिवर्तन ने खलबली मचा दी। अब तक ग्रामीण जीवन एक सामूहिक जीवन पद्धति पर आधारित था जो क्रमशः बिखरने लगा। इसके साथ ही इस जीवन के मूल्य भी बदल गए। बिखरने की इसी प्रक्रिया में ही ‘शहरी पक्षी’ का जन्म हुआ। लोग बड़ी संख्या में शहर की ओर जाने लगे। जहाँ नए स्थापित उद्योगों के कारण रोजगार की अनेक सम्भावनाएँ थीं। कृषि व्यवस्था भी छिन्न-भिन्न होने लगी थी।
किन्तु इस सन्दर्भ में पहले यह देखने की जरूरत है कि बीसवीं सदी के साहित्य ने विरासत में उन्नीसवीं सदी से क्या पाया ?
इसे समझने के लिए हिन्दी की तत्कालीन दो अत्यन्त महत्त्वपूर्ण पत्रिकाओं और उनके सम्पादकों के लेखन तथा चिन्तन से भी तत्कालीन सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक तथा सांस्कृतिक पृष्ठभूमि का पता चलता है जिससे उस समय का साहित्य भी प्रेरित तथा प्रभावित था। ये दो आचार्य प्रवर हैं : पं.बालकृष्ण भट्ट तथा पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी। यह संयोग ही था कि तत्कालीन साहित्य निर्माण में सबसे महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली पत्रिका सरस्वती का प्रकाशन शताब्दी के ठीक प्रारम्भ के वर्ष 1900 में
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1. "Agriculture is not one industry among many, but it is a way of life, unique and irreplaceble in it human and spiritual values."

हुआ। अतः जिसे हम बीसवीं सदी का हिन्दी साहित्य कहते हैं उसके निर्माण का आरम्भ स्वतः ही सरस्वती के साथ संयुक्त हो जाता है।
लेकिन जैसा मैंने कहा इन दो सम्पादकों के लेखन तथा चिन्तन से भी उस समय के बौद्धिक परिवेश का बहुत कुछ पता चल जाता है। उस समय के साहित्य तथा साहित्यकारों पर महावीर प्रसाद द्विवेदी का प्रभाव या कह लें अंकुश इस हद तक था कि विनोद भाव से उन्हें साहित्य का डिक्टेटर कहा जाने लगा और उनकी तुलना अंग्रेजी के प्रख्यात साहित्यकार डॉ. जॉनसन से की जाने लगी थी।

स्वयं महावीर प्रसाद द्विवेदी के चिन्तन को विश्व के जिन विचारकों ने आकार दिया होगा। उनमें फ्रांसिस बेकन, हरबर्ट स्पेंसर तथा जॉन स्टुअर्ट मिल आदि प्रमुख थे। द्विवेदी जी ने उनकी कुछ कृतियों का हिन्दी में अनुवाद भी किया था। जो लोग इन नामों से परिचित हैं वे जानते होंगे कि इन तीन महान चिन्तकों की शिक्षा, संस्कृति तथा राजनैतिक परिवेश को किस सीमा तक प्रभावित किया था।
निश्चित रूप से जॉन स्टुअर्ट मिल के स्वतंन्त्रता सम्बन्धी विचारों ने भी द्विवेदी जी को प्रभावित किया होगा ओर अंग्रेजी शासन से भारत को मुक्त कराने के लिए सक्रिय शीर्षस्थ नेताओं बाल गंगाधर तिलक, महात्मा गांधी और अरविन्द घोष पर लिखते हुए उन्होंने ‘स्वाधीनता" के प्रश्न को साहित्य की केन्द्रीय उत्प्रेरक शक्ति माना होगा। इसी प्रकार अर्थशास्त्र तथा अर्थतन्त्र जैसे विषयों पर भी द्विवेदी जी क अद्भुत अधिकार था।

उन्होंने तत्सम्बन्धी सम्पत्तिशास्त्र की भूमिका, सम्पत्ति का वितरण, भारत पर कर्ज, रेलों पर सरकारी खर्च, शिक्षा का प्रसार आदि विषयों से चमत्कृत कर देने वाले लेख लिखे थे। स्पष्टतः वे इन प्रश्नों तथा विषयों को भी साहित्य की सीमा में ले आने के हिमायती थे। उन्होंने मैथिलीशरण गुप्त जैसे कवियों को भी ऐसे विषयों पर लिखने के लिए प्रेरित किया था।
लगभग ऐसा ही कार्य पं. बालकृष्ण भट्ट अपनी पत्रिका ‘प्रदीप’ के माध्यम से कर रहे थे।

उसके माध्यम से बीसवीं सदी के आरम्भिक वर्षों (प्रायः ढाई दशकों) के साहित्य को रूपायित करने वाले अनेक महत्त्वपूर्ण तथ्य सामने आते हैं : इस पत्रिका ने पत्रकारिता तथा साहित्य को भी स्वाधीनता संघर्ष का अनिवार्य अंग माना तथा उन्नीसवीं सदी के नवजागरण की जो छाया बीसवीं सदी के साहित्य, जीवन तथा चिन्तन पर पड़ रही थी उसमें बहुत कुछ फेर-बदल तथा संशोधन की जरूरत समझी। स्वयं द्विवेदी जी ने भी आर्य समाज का कोप जैसा निबन्ध लिखना आवश्यक समझा। इसीलिए उनके लेखन ‘आर्य समाज का कोप’ जैसा निबन्ध लिखना आवश्यक समझा। इसीलिए उनके लेखन में ‘वैदिक रुझान’ ही नहीं था, नए अर्थ- शास्त्र, अंग्रेजों के शोषण तन्त्र तथा नई शिक्षा पद्धति आदि पर भी कहने को बहुत कुछ था।
दरअसल द्विवेदी जी ने उस समय के साहित्य को ढेर सारा ‘कच्चामाल’ दिया। उनके विचारों के क्षेत्र विस्तार का पता उनके निबन्धों से ही चल जाता है : वे वेद ब्राह्मणग्रन्थ, अर्थशास्त्र, कॉपीराइट ऐक्ट, मुसलमान विद्वानों का संस्कृत प्रेम, पुलिस व्यवस्था राज, कर्मचारियों का वेतन, विज्ञान, साहबी हिन्दी, प्रेस, कुनैन, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय, खुदाबक्श लाईब्रेरी, रोजगारी स्त्रियाँ आदि न जाने कितने विषयों पर एक साथ सोच रहे थे।

इस तरह वे एक ऐसा विचार परिवेश बना गए जिसकी नींव पर ही आने वाले कई दशकों की साहित्यिक इमारतें खड़ी हुई। वे नवजागरण के अंग थे। लेकिन एक ओर तो उन्होंने ‘नवजागरण’ के ‘आभिजात्य’ को तोड़ा और सामाजिक समस्याओं को रोजमर्रा के जीवन से जोडा़ तथा दूसरी ओर अंग्रेजियत से घृणा करने के बावजूद पश्चिमी विद्वानों के भारत तथा प्राचीन भारत प्रेम सम्बन्धी उनकी गवेषणाओं के समादृत किया।
अतः द्विवेदी जी के विचारों में हिन्दूवाद तथा ब्राह्मणवाद देखने वालों को उनके लेखन का विधिवत अध्ययन करके ही कोई निष्कर्ष निकालना चाहिए : वैदिक युग में स्त्रियों के लिए वेदों की शिक्षा वर्जित थी, सामान्यतः यही समझा जाता है किन्तु द्विवेदी जी ने वैदिक रचना करने वाली स्त्रियों की खोज की और उनके नाम गिनाए। वे न तो आर्य समाज के अन्ध प्रवाह में बहे और न सनातन धर्म के विचारों को अन्धभाव से स्वीकार किया।
वे शताब्दी के प्रथम सम्प्रदाययुक्त (सेक्युलर) साहित्यिक चिन्तक थे। इससे जो वातावरण बना उसने प्रारम्भ से ही हिन्दी साहित्य को एक सम्प्रदायुक्त (सेक्युलर) स्वरूप प्रदान किया। शताब्दी के प्रारम्भ की इस विशेषता को रेखांकित करने की जरूरत है क्योंकि यही क्रमशः विकसित होती हुई शताब्दी के उत्तरार्द्ध के दशकों में एक व्यापक जनाधारवाले साहित्य के निर्माण का आधार तथा विचारों में प्रगतिशील तथा जनवादी चेतना का वाहक बनी।
पं. बालकृष्ण भट्ट वैसे तो मूलतः उन्नीसवीं सदी कि साहित्यकार माने जाएँगे किन्तु उनकी पत्रिका ‘प्रदीप’ 1910 तक निकलती रही। इसके अतिरिक्त यदि उनके विचारों का अध्ययन करके देखें तो पाएँगे कि वे भारतेन्दु युग के नहीं बल्कि द्विवेदी युग के विचारों के अधिक निकट थे।
कुछ मामलों में तो उनके विचार द्विवेदी जी से अधिक प्रगतिशील तथा क्रान्तिकारी थे। इस तरह बाल गंगाघर तिलक के समर्थक होते हुए भी कई स्थलों पर उनके विचार तिलक से आगे निकल जाते हैं। उस जमाने में जब संयुक्त परिवार के ढाँचे को बरकरार रखने के लिए सामाजिक-साहित्यिक स्तर पर कई प्रकार के उपक्रम किए जा रहे थे, तब उन्होंने ‘संयुक्त परिवार’ के ‘साँझा रसोईघर’ को ‘बाल विवाह’ से कम त्याज्य नहीं माना था।
उनके लेखों के शीर्षकों को देखें तो उन्होंने ऐसे विषयों पर लिखा था जिन पर लिखना या सोचना महावीर प्रसाद द्विवेदी अनावश्यक समझते थे। बीसवीं शताब्दी के तीसरे दशक तक जब रामचन्द्र शुक्ल जैसे प्रखर तथा जागरूक समीक्षक कविता को हृदय की मुक्तावस्था मान रहे थे वहीं बहुत पहले भट्ट जी ने ‘साहित्य जन समूह के हृदय का विकास है’ शीर्षक निबन्ध लिखा था और इस रूप में अलक्षित ढंग से प्रगतिशील साहित्य की नींव रखी थी।
यही नहीं उन्होंने ‘उन्नीसवीं शताब्दी का आदि और अन्त’ शीर्षक निबन्ध लिखकर उसकी अन्त की घोषणा भी कर दी थी। यद्यपि भट्ट जी ने उसके निहितार्थों की अधिक व्याख्या नहीं की थी किन्तु उनके विचारों में बीसवीं सदी के आरम्भ के प्रसुप्त- बीज जरूर मिलते हैं।
अतः हमें बीसवीं सदी के साहित्य की पृष्ठभूमि को दो भागों में बाँटकर देखना चाहिए। एक तो भारत में अंग्रेजी राजवाला भारत और दूसरा स्वदेशी राज का स्वप्न देखने वाला भारत।
बीसवीं सदी का आरम्भ होते-होते भारत में अंगेजी राज की जड़ें पूरी तरह जम चुकी थीं। अतः उस समय भारत पर जो प्रभाव और दबाव पड़ रहे थे उसे समझने के लिए पूरे विश्व में फैले ब्रिटिश साम्राज्य के स्वरूप को समझना आवश्यक है ! सन् 1900 तक ब्रिटिश साम्राज्य 13,000,000 स्कायर मील तक पूरे विश्व में फैल चुका था अर्थात् उसके अन्तर्गत 370,000,000 मनुष्य रह रहे थे। यह सारी भूमि ब्रिटिश साम्राज्य का उपनिवेश बन चुकी थी। इतने बड़े साम्राज्य को संचालित करने के लिए ब्रिटिश राज ने जो तन्त्र और नीति अपनाई उसके स्वरूप को भी समझना जरूरी है :
ये सभी उपनिवेश ब्रिटिश राज के लिए कच्चे माल के आयात के स्रोत थे। ब्रिटेन इन सबसे अपने यहाँ के उद्योग के विकास के लिए उन जगहों पर उत्पन्न होने वाले उत्पादनों का उपयोग कर रहा था। इस आयात में वे मनुष्य भी शामिल थे जो दूसरे देशों में मजदूर बना कर भेजे जा रहे थ
े ताकि वे कहाँ के उत्पादन में वृद्धि ब्रिटेन के आयात में भी वृद्धि कर सकें।
किन्तु ऐसा नहीं कि विश्व के एक विशाल भूभाग में स्थापित इस साम्राज्य में सब कुछ शान्त और सुस्थिर था : बोझर युद्ध के लम्बा खिंच जाने के कारण इस साम्राज्य के विशाल बैलून में एक सुराख तो हो ही गया था। लेकिन उसे सबसे बड़ा झटका भारत में लगा और बिटेश राज्य की अपनी नीतियों के कारण 1918 में लॉर्ड चेम्सफोर्ड ने सम्राट-जार्ज पंचम को लिखा था कि भारत में एक बड़ा वर्ग शिक्षित हो गया है,
लेकिन इस शिक्षित वर्ग के मन में हमारे प्रति घोर घृणा है। (राज की अपनी शिक्षा नीति के कारण ही) यह तो शासित वर्ग तथा बुद्धिजीवियों की मानसिकता थी। किन्तु इस आग में घी का काम किया। अमृतसर गोली काण्ड ने। इसके बाद ही गांधी जी ने इस मानसिकता को देशव्यापी जन आन्दोलन में परिवर्तित कर दिया। तभी से ब्रिटिश राज की चूलें हिलने लगीं और उसकी थरथराहट अन्य उपनिवेशों तक भी पहुँची।
तब तक इंग्लैण्ड के बुद्धिजीवी वर्ग में भी भारत के लिए एक हितैषी समुदाय बन चुका था। वहाँ जवाहलाल नेहरू ‘फेबियन सोसाइटी’ के सम्पर्क में आए जिसके अधिकांश सदस्य भारत के प्रति सहानुभूति रखनेवाले थे और उनकी अपनी विश्व दृष्टि भी थी। यही दृष्टि लेकर नेहरू भारत आए थे। ब्रिटेन के उपनिवेशवादी रूख को लेकर वहाँ के महान उपन्यासकार जार्ज ऑरवेल के मन में एक अपराध बोध उत्पन्न हो गया था।
उसके अलावा लम्बे अरसे तक भारत में रह चुके ‘ए पैटेज टू इण्डिया’ के लेखक ई.एस. फॉस्टर ने लिखा था कि यदि मुझे अपने देश और अपने दोस्त के बीच ‘दगाबाजी’ का चुनाव करना पड़े तो मुझमें इतना साहस होना चाहिए कि मैं अपने देश से दगाबाजी करूँ।" (व्हाट आई बिलीव ?-1939) फास्टर एक ऐसे विश्व की कल्पना कर रहे थे जहाँ एक देश दूसरे देश तक सांस्कृतिक मैत्री, सद्भावना तथा शान्ति के माध्यम से पहुँचे न कि युद्ध और साम्राज्य विस्तार के माध्यम से। यह बात फॉस्टर ने हिटलर के जमाने में लिखी थी लेकिन तब वह यह कल्पना भी नहीं कर सकता था कि बीसवीं शताब्दी के अन्त तक ‘विश्व ग्राम’ बन चुका होगा
और संस्कृतियाँ युद्ध के बिना भी एक दूसरे प्रकार का उपनिवेश बनाने में संलग्न होगी। यदि संस्कृतियों में संचार माध्यमों को भी शुमार कर लिया जाय तो उपनिवेशवाद का यह स्वरूप संचार माध्यमों के द्वारा तथा सम्पत्ति के विनिवेश के द्वारा विकासशील देशों में बाजार के रूप में पहुँचेगा।

साम्राज्यवादी उपनिवेशों के टूटने के बाद स्वतंन्त्र हुए देश एक दूसरे के निकट आने लगे। इस प्रकार साहित्य के लिए भी एक मुक्त आवागमन का मार्ग प्रशस्त हुआ। किन्तु भारत में इन सबके साथ ही कुछ विडम्बनात्मक परिस्थितियाँ भी सामने आई : अंग्रेजों ने भारत की स्वतन्त्रता के साथ ही विरासत में दंगों की बर्बरता तथा विभाजन की बरहादियाँ भी दीं। शासन तथा व्यवस्था के लिए देश मिला वह उसके प्रथम प्रधानमन्त्री जवाहरलाल नेहरू को भी एक ‘चिथड़ा देश’ लगा। यूरोप में उदारतावाद दम तोड़ चुका था और 1917 की रूसी क्रान्ति के बारे में मार्क्सवादी विचारधारा तेजी से विश्व के बुद्धिजीवियों को प्रभावित करने लगी थी।
लेकिन भारत में चूँकि स्वतंन्त्रता संग्राम में कम्युनिस्ट पार्टी की भूमिका नगण्य थी इसलिए यहाँ मार्क्सवाद को कोई विशेष बढ़ावा नहीं मिला। गांधी के सामने तो स्वदेशी का स्वरूप स्पष्ट था। किन्तु आधुनिक लोग उसके पिछड़ेपन को समझने लगे। किन्तु गांधी को तब एकदम नकारना मुश्किल था क्योंकि उनके लक्ष्यों में एक पिछड़ापन दूर करना भी था। उनका एक उद्देश्य जातीयता तथा साम्प्रदायिकता को भी पराजित करना था।
नेहरू यद्यपि आधुनिकता तथा औद्योगिकरण के हिमायती थे किन्तु वे गांधी से पूरी तरह मुक्त नहीं हो सकते थे। अकसर उन्हें गांधी विरोधाभासों की मूर्ति नजर आते थे क्योंकि वे गरीबों की ‘गरीबी’ को दूर करना चाहते थे किन्तु अमीरों की मदद से। 1919 में प्रथम महायुद्ध समाप्त हुआ और पूरे संसार में एक नए दौर की शुरुआत हुई : जन आन्दोलनों की बाढ़ आ गई और यूरोप के कई देश आजाद हो गए।
जर्मनी में जनतन्त्र कायम हुआ। रूस में क्रान्ति के बाद किसान-मजदूर संगठनों का शासन स्थापित हुआ। भारत में भी प्रथम महायुद्ध समाप्त होने के कुछ ही वर्षों के भीतर विभिन्न शहरों में अनेक किसान मजदूर आन्दोलन हुए। ‘रोलेट एक्ट’ के विरुद्ध अभियान चला। मुसलिम लीग ने कांग्रेस के साथ मिलकर ‘खिलाफत आन्दोलन’ शुरू किया।




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