पर्यावरण एवं विज्ञान >> तंतु प्रकाशिकी तंतु प्रकाशिकीजी.के. भिड़े
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तंतु प्रकाशिकी विषय पर आधारित...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
तंतु प्रकाशिकी जैसे महत्वपूर्ण एवं कठिन विषय के विभिन्न आयामों पर
प्रकाश डालती एक सूचना-प्रधान पुस्तक। विषय नया होने के बावजूद पढ़ते समय
पाठक को समझने में बिलकुल कठिनाई नहीं होती। एक महत्वपूर्ण प्रकाशन।
मुख्य रूप से भौतिक के छात्र रहे श्री जी.के.भिड़े, भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र में एक शोध वैज्ञानिक के रूप में कार्यरत हैं। ऐल्कली हैलाइड समूह के यौगिकों की वृहद् एकल क्रिस्टल वृद्धि, नाभिकीय कण संसूचकों आदि से संबंधित स्वदेशी तकनीकी जानकारी के विकास के साथ वह जुड़े़ रहे हैं। करीब एक दशक तक, वह भारत इलेक्ट्रॉनिक्स लिमिटेड, पुणे के मुख्य कार्यपालक रहे। सन् 1997 में निर्वात विज्ञान व प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में उनके अभूतपूर्व योगदान के लिए इंडियन वेक्यूम सोसाइटी ने उन्हें सम्मानित किया था।
मुख्य रूप से भौतिक के छात्र रहे श्री जी.के.भिड़े, भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र में एक शोध वैज्ञानिक के रूप में कार्यरत हैं। ऐल्कली हैलाइड समूह के यौगिकों की वृहद् एकल क्रिस्टल वृद्धि, नाभिकीय कण संसूचकों आदि से संबंधित स्वदेशी तकनीकी जानकारी के विकास के साथ वह जुड़े़ रहे हैं। करीब एक दशक तक, वह भारत इलेक्ट्रॉनिक्स लिमिटेड, पुणे के मुख्य कार्यपालक रहे। सन् 1997 में निर्वात विज्ञान व प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में उनके अभूतपूर्व योगदान के लिए इंडियन वेक्यूम सोसाइटी ने उन्हें सम्मानित किया था।
प्राक्कथन
तंतु प्रकाशिकी के बारे में लोगों की आम धारणा कदाचित् काफी धुंधली है। वे
‘तंतु’ शब्द का अर्थ प्राय: वस्त्रोद्योग में
प्रयुक्त मानव
निर्मित संश्लिष्ट तंतुओं से लेते हैं जबकि
‘प्रकाशिकी’ का
तात्पर्य प्रकाश से लिया जाता है। इसलिए संयुक्त शब्द ‘तंतु
प्रकाशिकी’ कुछ भ्रामक लगता है। यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है
कि
बड़े कस्बों और शहरों के कुछ घरों में देखे जाने वाले प्रकाशीय फव्वारों
के रूप में सजावट की कुछ वस्तुओं को छोड़कर, तंतु प्रकाशिकी अधिक उत्सुकता
और स्पष्ट रुचि उत्पन्न नहीं कर करती। यहां पर, रुचि भी निश्चय ही आकस्मिक
दिखाने वाली वस्तु किस प्रकार का कार्य करती हैं। परन्तु हम जैसे ही तंतु
प्रकाशिकी के बारे में थोड़ी गहराई से दिलचस्पी लेते हैं तो
‘तंतु
प्रकाशिकी’ विषय को काफी रोमांचक पाते हैं।
हालांकि किसी पाइप जैसे माध्यम से प्रकाश को निर्दिष्ट करने के वैज्ञानिक सिद्धांत पिछले 125 वर्षों से ज्ञात हैं, फिर भी बीसवीं शताब्दी के अन्तिम 25 वर्षों में ही उनके अनुप्रयोगों की व्यापक क्षमता का सही अर्थों में दोहन किया जा सका। आज तंतु प्रकाशिकी ने दूरसंचार के क्षेत्र पर वस्तुत: विजय पा ली है। यहां तक कि विश्व भर में दूरसंचार से संबंधित कोई भी नई विस्तार परियोजना, संकेत संचरण के माध्यम के रूप में हमेशा तंतु प्रकाशीय केबल को ही प्राथमिकता देती है।
दूरसंचार के क्षेत्र में प्रवेश से पूर्व तंतु प्रकाशिकी ने कई अन्य क्षेत्रों में महत्वपूर्ण स्थान बना लिया था। संबद्ध प्रकाशीय तंतुओं के फूलों (बंडल) ने प्रतिबिंब निर्माण के लिए लेंसों की प्रकाशीय व्यवस्था के बिना ही एक स्थान से दूसरे स्थान तक प्रकाशीय चित्रों के स्थानांतरण के अत्यंत उपयोगी उद्देश्य को पूरा किया। कदाचित् सैन्य निगरानी उपकरणों में इनका उपयोग विशेष रुचि का विषय था। आधुनिक अंतर्दर्शीय (एंडोस्कोपिक) यंत्रों के विकास में प्रकाशीय तंतुओं ने महत्वपूर्ण योगदान दिया है। जटिल शल्यक्रियाओं के लिए लेसर तकनीकों का उपयोग करने वाले आधुनिक शल्यक एंडोस्कोपों को सदैव ही प्रकाशीय तंतुओं की सहायता लेनी पड़ी है, जो शक्तिशाली लेसर किरणों को प्रभावशाली तरीके से मानव शरीर के अंदर तक पहुंचाने में सक्षम हैं।
‘तंतु प्रकाशिकी’ पुस्तक संक्षिप्त परिचयात्मक अध्याय से आरंभ होती है जिसमें तंतु प्रकाशिकी के व्यापक अनुप्रयोगों की एक झलक दी गई है। इसके बाद अध्यायों में पूर्ण आंतरिक परावर्तन और कांच की पारदर्शिता जैसे मूलभूत वैज्ञानिक सिद्धांतों को समझने के लिए आवश्यक अल्पतम जानकारी दी गई है। पूर्ण आंतरिक परावर्तन एक अत्यंत प्रारंभिक वैज्ञानिक घटना है। यदि इसे भ्रमवश दर्पण में प्रतिबिंब देखने के सामान्य अनुभव के रूप में सामान्यतया परवाह नहीं की जाती है, यहां तक की हो सकता है पाठक भी इसके महत्व पर चर्चा करना आवश्यक न समझें। फिर भी तंतु प्रकाशिकी इन्हीं परिघटनाओं के इर्द-गिर्द घूमती है, उनके अनुप्रयोग चाहे जो भी हों। दुरुह वैज्ञानिक विवेचनाओं, विशेषकर गणितीय विवेचनाओं से बचने का प्रयास किया गया है, फिर भी संकल्पनात्मक सुस्पष्टता को वांछित स्तर तक बनाए रखा गया है।
वैज्ञानिक प्रगति का सफल उपयोग केवल प्रौद्योगिकी विकास के माध्यम के साथ प्राप्त किया जा सकता है। इसलिए तंतु प्रकाशिकी के प्रौद्योगिकीय पहलुओं पर कुछ विस्तारपूर्वक चर्चा की गई है। पुस्तक में आधारभूत पदार्थ के निर्माण, इस पदार्थ से तंतुओं के उत्पादन, केबल निर्माण, फूलों (विशेषकर संबद्ध प्रकार के) के विनिर्माण आदि पर चर्चा की गई है।
उपयोग के तीन मुख्य क्षेत्रों, जिनमें तंतु प्रकाशिकी ने क्रांति ला दी है, वे हैं चिकित्सा, सैन्य और दूरसंचार। इन पर चर्चा की गई है और इनमें से प्रत्येक क्षेत्र में तंतुओं की भूमिका पर प्रकाश डाला गया है। ताकि पाठक तंतुओं के अद्वितीय योगदान का मूल्यांकन कर सकें। दूरसंचार के दृश्य पटल पर तंतुओं के आविर्भाव से पूर्व की दूरसंचार प्रौद्योगिकी का उल्लेख करने की आवश्यकता महसूस की गई ताकि उनके पूर्ण प्रभाव को समझा और ग्रहण किया जा सके। मनुष्य की सदैव तीव्र आकांक्षा रही है कि वह भविष्यवाणी करने के योग्य बन सके। भविष्य के बारे में स्वप्न देखना अत्यन्त रोचक है। किन्तु वैज्ञानिक तथ्यों के आधार पर जांचा-परखा केवल व्यावहारिक यथार्थवाद ही संभवत: सही भविष्यवाणी कर सकता है। इस पुस्तक के अंतिम-पृष्ठों में यह देखने का प्रयास किया गया है कि अगले दशक में तंतु प्रकाशिकी का स्वरूप क्या होगा।
हालांकि किसी पाइप जैसे माध्यम से प्रकाश को निर्दिष्ट करने के वैज्ञानिक सिद्धांत पिछले 125 वर्षों से ज्ञात हैं, फिर भी बीसवीं शताब्दी के अन्तिम 25 वर्षों में ही उनके अनुप्रयोगों की व्यापक क्षमता का सही अर्थों में दोहन किया जा सका। आज तंतु प्रकाशिकी ने दूरसंचार के क्षेत्र पर वस्तुत: विजय पा ली है। यहां तक कि विश्व भर में दूरसंचार से संबंधित कोई भी नई विस्तार परियोजना, संकेत संचरण के माध्यम के रूप में हमेशा तंतु प्रकाशीय केबल को ही प्राथमिकता देती है।
दूरसंचार के क्षेत्र में प्रवेश से पूर्व तंतु प्रकाशिकी ने कई अन्य क्षेत्रों में महत्वपूर्ण स्थान बना लिया था। संबद्ध प्रकाशीय तंतुओं के फूलों (बंडल) ने प्रतिबिंब निर्माण के लिए लेंसों की प्रकाशीय व्यवस्था के बिना ही एक स्थान से दूसरे स्थान तक प्रकाशीय चित्रों के स्थानांतरण के अत्यंत उपयोगी उद्देश्य को पूरा किया। कदाचित् सैन्य निगरानी उपकरणों में इनका उपयोग विशेष रुचि का विषय था। आधुनिक अंतर्दर्शीय (एंडोस्कोपिक) यंत्रों के विकास में प्रकाशीय तंतुओं ने महत्वपूर्ण योगदान दिया है। जटिल शल्यक्रियाओं के लिए लेसर तकनीकों का उपयोग करने वाले आधुनिक शल्यक एंडोस्कोपों को सदैव ही प्रकाशीय तंतुओं की सहायता लेनी पड़ी है, जो शक्तिशाली लेसर किरणों को प्रभावशाली तरीके से मानव शरीर के अंदर तक पहुंचाने में सक्षम हैं।
‘तंतु प्रकाशिकी’ पुस्तक संक्षिप्त परिचयात्मक अध्याय से आरंभ होती है जिसमें तंतु प्रकाशिकी के व्यापक अनुप्रयोगों की एक झलक दी गई है। इसके बाद अध्यायों में पूर्ण आंतरिक परावर्तन और कांच की पारदर्शिता जैसे मूलभूत वैज्ञानिक सिद्धांतों को समझने के लिए आवश्यक अल्पतम जानकारी दी गई है। पूर्ण आंतरिक परावर्तन एक अत्यंत प्रारंभिक वैज्ञानिक घटना है। यदि इसे भ्रमवश दर्पण में प्रतिबिंब देखने के सामान्य अनुभव के रूप में सामान्यतया परवाह नहीं की जाती है, यहां तक की हो सकता है पाठक भी इसके महत्व पर चर्चा करना आवश्यक न समझें। फिर भी तंतु प्रकाशिकी इन्हीं परिघटनाओं के इर्द-गिर्द घूमती है, उनके अनुप्रयोग चाहे जो भी हों। दुरुह वैज्ञानिक विवेचनाओं, विशेषकर गणितीय विवेचनाओं से बचने का प्रयास किया गया है, फिर भी संकल्पनात्मक सुस्पष्टता को वांछित स्तर तक बनाए रखा गया है।
वैज्ञानिक प्रगति का सफल उपयोग केवल प्रौद्योगिकी विकास के माध्यम के साथ प्राप्त किया जा सकता है। इसलिए तंतु प्रकाशिकी के प्रौद्योगिकीय पहलुओं पर कुछ विस्तारपूर्वक चर्चा की गई है। पुस्तक में आधारभूत पदार्थ के निर्माण, इस पदार्थ से तंतुओं के उत्पादन, केबल निर्माण, फूलों (विशेषकर संबद्ध प्रकार के) के विनिर्माण आदि पर चर्चा की गई है।
उपयोग के तीन मुख्य क्षेत्रों, जिनमें तंतु प्रकाशिकी ने क्रांति ला दी है, वे हैं चिकित्सा, सैन्य और दूरसंचार। इन पर चर्चा की गई है और इनमें से प्रत्येक क्षेत्र में तंतुओं की भूमिका पर प्रकाश डाला गया है। ताकि पाठक तंतुओं के अद्वितीय योगदान का मूल्यांकन कर सकें। दूरसंचार के दृश्य पटल पर तंतुओं के आविर्भाव से पूर्व की दूरसंचार प्रौद्योगिकी का उल्लेख करने की आवश्यकता महसूस की गई ताकि उनके पूर्ण प्रभाव को समझा और ग्रहण किया जा सके। मनुष्य की सदैव तीव्र आकांक्षा रही है कि वह भविष्यवाणी करने के योग्य बन सके। भविष्य के बारे में स्वप्न देखना अत्यन्त रोचक है। किन्तु वैज्ञानिक तथ्यों के आधार पर जांचा-परखा केवल व्यावहारिक यथार्थवाद ही संभवत: सही भविष्यवाणी कर सकता है। इस पुस्तक के अंतिम-पृष्ठों में यह देखने का प्रयास किया गया है कि अगले दशक में तंतु प्रकाशिकी का स्वरूप क्या होगा।
1
तंतु प्रकाशिकी - संक्षिप्त विवरण
संस्कृत साहित्य में ऐसे अनेक श्लोक भरे पड़े हैं जिन्हें वास्तव में
‘बुद्धिमत्ता के मोती’ कहा जा सकता है- इनमें निहित
सुस्पष्ट
और संक्षिप्त अभिव्यक्तियों का अत्यधिक महत्व है और ये विचारों के लिए
भोजन के समान हैं। इससे और आगे चलें तो अकबर-बीरबल के किस्से, विशेषकर
बच्चों में काफी लोकप्रिय हैं। ये किस्से कुतूहल उत्पन्न करने वाले
प्रश्नों के बीरबल द्वारा दिए गए सुस्पष्ट उत्तर के लिए प्रसिद्ध हैं। हम
सभी बीरबल का एक ऐसा किस्सा जानते हैं जिससे वे कुतूहल उत्पन्न करने वाले
तीन प्रश्नों का एक अद्वितीय उत्तर देते हैं। इन तीनों प्रश्नों में
प्रथमदृष्टया कुछ भी सर्वनिष्ठ नहीं है। एक क्षण के लिए कल्पना कीजिए कि
बीरबल अभी अर्थात् बीसवीं शताब्दी के उत्तारार्द्ध में जीवित हैं। निम्न
तीन प्रश्न इस शर्त पर उनके सामने रखे जाते हैं कि वह इनका एक अद्वितीय
उत्तर देंगे: मेघाच्छन्न चंद्रमारहित रात में स्पष्ट देख पाना किस प्रकार
संभव है ? कोई मानव शरीर में झांककर किसी बड़े चीरे के बिना जटिल शल्य
क्रियाएं कैसे कर सकता है ? कई हजार टेलीफोन लाइन पर एक साथ कैसे संपन्न
की जा सकती हैं ? यह पूरे विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि आधुनिक बीरबल
इन प्रश्नों का उत्तर दो शब्दों में देगा। वह उत्तर है, ‘तंतु
प्रकाशिकी’ !
1870 में ब्रिटेन के भौतिकशास्त्री जॉन टिंडाल ने एक पाइप के भीतर पूर्ण आंतरिक परावर्तन द्वारा निर्देशित प्रकाश के सिद्धान्त का प्रदर्शन किया। उन्होंने दिखाया कि जल से भरे टैंक के एक किनारे पर छिद्र में से चमकते प्रकाश की किरणें छिद्र से निकलने वाली धारा का अनुगमन करती हैं। यह ऐसे था मानो प्रकाश की किरणें जल की धारा में कैद हो गई हों। प्रकाश की किरणों का मार्ग जल की बहती धारा की दिशा में झुका हुआ प्रतीत हुआ। प्रकाश की किरणों का यह अनोखा व्यवहार उस सामान्य आशा का खंडन करता हुआ प्रतीत हुआ। प्रकाश की किरणों का यह अनोखा व्यवहार उस सामान्य आशा का खंडन करता हुआ प्रतीत हुआ कि वे सीधी रेखा में चलती हैं। वास्तव में प्रकाश का यह असामान्य व्यवहार उस घटना के कारण है जिसे पूर्ण आंतरिक परावर्तन कहते हैं। यह घटना केवल तभी घटित हो सकती है जब प्रकाश की किरण सघन माध्यम से विरल माध्यम में गुजरती है, उदाहरणार्थ, कांच या जल से वायु में।
प्रकाश की किरण दोनों माध्यमों में विभाजित करनेवाली सतह पर जैसे-जैसे उत्तरोत्तर बढ़ते हुए कोण पर आपतित होती है, अपवर्तित किरण वैसे-वैसे अभिलंब से दूर हटती जाती है। एक ऐसे आपतन कोण, जिसे क्रांतिक कोण कहते हैं, पर आपतित प्रकाश की किरण सघन माध्यम से बाहर न निकलकर उसी माध्यम में ही परावर्तित हो जाती है। दैनिक जीवन में पूर्ण आंतरिक परावर्तन के कई उदाहरण मिलते हैं। हीरे की चमक उनमें से एक है। टिंडाल के प्रयोग से यह स्पष्ट हो गया कि प्रकाश को सतत माध्यम से वक्रीय पथ से गुजारा जा सकता है और उसे दूसरे छोर पर पहुंचाने के लिए निर्देशित किया जा सकता है। यह ऐसे है जैसे कि प्रकाश कोई द्रव हो जिसे एक लंबी पाइपलाइन में से स्थानांतरित करके पाइप के दूसरे छोर से निकाला जा सकता है। तंतु प्रकाशिकी का पूर्ण विकास कांच या प्लास्टिक जैसे पारदर्शी पदार्थों के महीन तंतुओं में से प्रकाश के संचरण पर केंद्रित रहा है। टिंडाल के प्रदर्शन के बाद के विकास को आधार प्रदान किया जिसके परिणाम स्वरूप ‘तंतु प्रकाशिकी’ एक प्रमुख प्रौद्योगिकी के रूप में सामने आया।
कांच तैयार करने की तकनीक ऐसी तकनीक ऐसी प्राचीनतम प्रौद्योगिकी में से एक थी जिनमें मनुष्य ने प्रवीणता प्राप्त की थी। यह ज्ञात था कि रेत (सिलिकन डाइऑक्साइड), सोडा (सोडियम ऑक्साइड), चूना (कैल्शियम ऑक्साइड) आदि के मिश्रण को जब गर्म किया जाता है तो ये मिलकर ऐसे द्रव्य की रचना करते हैं। जो दृश्य प्रकाश के लिए पारदर्शी होता है। यह द्रव्य कांच था। तापमान बढ़ाकर इस कांच को लचीला बनाकर इसे विभिन्न आकृतियों में ढाला जा सकता है। एक समान मोटाई का बारीक तंतु भी इससे बनाया जा सकता है।
यदि कांच साफ और पारदर्शी है तो इससे बनाए गए तंतु प्रयोग प्रकाश को वक्रीय पथ पर संचरित करने के लिए किया जा सकता है। परन्तु एक अकेला तंतु इतना अधिक पतला होता है कि यह व्यावहारिक प्रयोग में नहीं लाया जा सकता। यह बहुत की कम प्रकाश को ले जा सकता है। इसलिए तंतु-पूलों का प्रयोग किया जाता है। 1950 और 1960 के दशकों में तंतु प्रकाशिक प्रौद्योगिकी में तीव्र प्रगति हुई। विभिन्न प्रकार के तंतु-पूलों को बनाने की विधियां विकसित की गईं। तंतु-पूल दो प्रकार से बनाए जा सकते हैं- एक, जिसमें तंतु, पूल में इस प्रकार व्यवस्थित किए जाते हैं कि अनुप्रस्थ काट में प्रत्येक तंतु की सापेक्षिक स्थिति अपरिवर्तित रहती है। इस प्रकार के पूल को संबद्ध-पूल कहते हैं। दूसरा, जिसे असंबद्ध पूल कहते हैं, में यह सुनिश्चित किए बिना तंतुओं का गुच्छा बनाया जाता है कि दोनों सिरों पर उनकी सापेक्षिक स्थिति समान रहेगी। असंबद्ध तंतु प्रकाशिक पूलों का प्रयोग प्राय: केवल ऐसे स्थानों को प्रकाशित करने के लिए किया जाता है जहां पर सामान्यतया पहुंचा नहीं जा सकता है। दूसरी ओर, संबद्ध पूलों का प्रयोग वहां किया जाता है जहां चित्र संप्रेषण की आवश्यकता हो, जैसे अंतरदर्शिकी (एंडोस्कोपी) में। प्रारंभ में, असंबद्ध पूलों के व्यावसायिक उपयोग मोटर डेश-बोर्ड की प्रदीप्ति, वायुयान कॉकपिट प्रदर्शन, सजावटी प्रकाश की व्यवस्था आदि में थे। हालांकि, ये प्रदीप्ति के लिए उस काल में उपयोग में लाई जाने वाली परंपरागत प्रौद्योगिकी में परिष्कृत क्रांतिवर्द्धक सुधार की प्रकृति के थे।
संबद्ध पूलों में व्यवस्थित प्रकाशीय तंतुओं का प्रारंभिक विकास चित्र निर्माण की आवश्यकता के फलस्वरूप हुआ। पृथक तंतु इन पूलों में योजनाबद्ध तरीके से इस तरह व्यवस्थित किए जाते हैं कि सभी तंतु, पूल की लंबाई की दिशा में एक दूसरे के समानांतर होते हैं। 1950 के दशक के अंतिम वर्षों में संबद्ध तंतु पूलों के विकास में योगदान के लिए भारतीय वैज्ञानिक नरिंदर एस. कपानी प्रमुख रूप से चर्चित रहे हैं। इनके उपयोग तंतुदर्शी के क्षेत्र में थे-प्रमुख रूप से चिकित्सा उपकरणों में, ताकि मानव शरीर के अंदरूनी अंगों, जैसे आहारनाल, मूत्राशय, आंतों आदि को देखा जा सके। एंडोस्कोप (अंतर्दर्शी), लेपरोस्कोप आदि आधुनिक चिकित्सा यंत्रों में प्रकाशकीय तंतु दो कार्य करने के लिए उपयोग में लाए जाते हैं : अंदर के क्षेत्र को प्रकाशमान करने के लिए तथा इस तरह प्रकाशमान आंतरिक अंगों के चित्र लेने के लिए। ये कार्य तंतु-पूल के एक सिरे पर रखे प्रकाश के स्रोत्र से प्रकाश भीतरी क्षेत्र में पूल की लंबाई में ले जाकर और प्रकाशमान आंतरिक क्षेत्र के चित्र, पूल के सहारे बिंदु-दर-बिंदु लौटाकर संपन्न किए जाते हैं। चित्र की सुस्पष्टता पूल में पृथक तंतु के व्यास पर निर्भर करती है। जितना अधिक बारीक पृथक् तंतु होगा उतना ही अधिक सुस्पष्ट चित्र होगा। अर्थात् सूक्ष्मतर भाग दिख पाएंगे।
तंतु आधारित चिकित्सीय उपकरणों का क्षेत्र केवल नैदानिक उपयोगों तक ही सीमित नहीं रहा है बल्कि इसमें लेसर पुंजों का प्रयोग करके शल्य क्रियाओं में उपयोग के लिए भी इसका विकास किया गया है। इस तरह की युक्तियों का प्रयोग करके रक्तविहीन शल्य क्रियाएं सफलतापूर्वक सम्पन्न की जाती हैं। भारत के अनेक अस्पताल इन आधुनिक उपकरणों से सज्जित हैं।
तंतु प्रकाशिकी पर आधारित उपकरणों का प्रयोग युद्ध क्षेत्र में भी देखने को मिलता है। रात्रि-दृष्टि यंत्र रात में शत्रु शिविर की गतिविधियों को देखने में सेना के जवानों की सहायता करते हैं। ये उपकरण तंतु बहुत तंतु प्रकाशिकी पर निर्भर होते हैं। विशेषकर रात्रि-दृष्टि यंत्र में रात्रि के अत्यंत मंद प्रकाश का तीव्रीकरण किया जाता है। ऐसा सोपनी क्रियाविधि के नाम से ज्ञात प्रक्रिया को उपयोग में लाकर किया जाता है। इसमें मंद प्रकाशीय प्रतिबिंबों की चमक बढ़ाने के लिए अनेक चरणों में प्रकाश-इलेक्ट्रॉनिक प्रवर्धन का प्रयोग किया जाता है। रात्रि-दृष्टि यंत्र में करोड़ों तंतुओं से बनी तंतु-प्रकाशिक फलक पट्टिकाओं का प्रयोग प्रतिबिंब की तीव्रता बढ़ाने के विभिन्न चरणों को जोड़ने के लिए किया जाता है। तंतु प्रकाशिक फलक पट्टिका तत्वत: एक संबद्ध तंतु प्रकाशिक पूल है।
तंतु प्रकाशिक फलक पट्टिका (FoP) के उपयोग से निर्मित रात्रि-दृष्टि यंत्र अब दूरबीन, बाइनॉक्युलर जैसे अनेक उपकरणों के रूप में उपलब्ध हैं। इनके प्रयोग से प्रकाश का स्तर सैकड़ों-हजारों गुना बढ़ाया जा सकता है।
परन्तु 1950 और 1960 के दशकों में अनुसंधानकर्ता दूरसंचार क्षेत्र में अत्यधिक मात्रा में सूचनाओं को वहन करने की क्षमता की कल्पना भी नहीं कर सके होंगे जिसमें प्रकाशीय तंतुओं का वाहक माध्यम के रूप में प्रयोग होता हो।
1966 में, आज से लगभग तीन दशक पहले ब्रिटेन की स्टैंडर्ड टेलीकम्यूनिकेशन्स लेबोरेटरीज में कार्य करते हुए चार्ल्स काओ और जॉर्ज हॉकहम ने सुझाव दिया कि प्रकाशीय तंतुओं का संभवत: ‘संचार’ के लिए उपयोग किया जा सकता है। उन्होंने सुझाव दिया कि धातु के परंपरागत केबलों के स्थान पर प्रकाशीय तंतु उपयोग में लाए जा सकते हैं। इसका अर्थ यह था कि संकेतवाहक के रूप में इलेक्ट्रॉनों की धारा के स्थान पर प्रकाश किरणों का प्रभावशाली ढंग से उपयोग किया जा सकता है। और यह सुझाव एक महान क्रांति को जन्म दे चुका था।
तंतु-प्रकाशिकी केबल उद्योग विकसित देशों में मजबूती के साथ स्थापित हो चुका है। यहां तक कि विश्व में कहीं पर भी दूरसंचार सेवाओं की विस्तार योजना के क्रियान्वयन के लिए तंतु-प्रकाशिक विकल्प को ही प्राथमिकता दी जाती है। यह इस बात को सत्यापित करता है कि परंपरागत प्रणालियों की तुलना में तंतु प्रकाशिकी उच्च गुणवत्ता की सेवा प्रदान कर सकती है। मजे की बात यह है कि आज प्रकाशीय तंतु संचार में मानवीय आंख को दिखाई पड़ने वाले प्रकाश को उपयोग नहीं किया जाता है। इसके स्थान पर दृश्य क्षेत्र वाले लाल प्रकाश के तरंगदैर्घ्य से अधिक तरंगदैर्घ्य वाले विद्युत चुम्बकीय विकिरण (अर्थात् विद्युत-चुंबकीय स्पेक्ट्रम के अवरक्त क्षेत्र) का प्रयोग किया जाता है। इसीलिए सही अर्थ में अब इनकी प्रकृति ‘प्रकाशीय’ नहीं है क्योंकि संचार ‘अदृश्य’ प्रकाश द्वारा होता है, जिसे मानव आंख नहीं देख सकती है। चूकि शब्दकोश में ‘प्रकाशीय’ का अर्थ ‘दिखाई पड़ने वाली’ वस्तु से है इसलिए ‘प्रकाशीय तंतु संचार’ अयथार्थ प्रतीत होता है !
किसी वाहक से होकर प्रभावी संचरण के लिए यह अत्यन्त आवश्यक है कि संकेत की तीव्रता का कम से कम ह्नास हो। पहला कम ह्नास वाला प्रकाशीय तंतु 1970 में सिलिका (क्वार्टज़) से तैयार किया गया था। हालांकि इस तंतु में भी एक किलोमीटर की दूरी तय करने के बाद संकेत की तीव्रता का यह ह्नास अधिकांश व्यावहारिक उद्देश्यों के लिए बहुत अधिक माना गया। इस प्रकार की प्रकाशीय तंतु लाइनों की तदरूपता बनाए रखने के लिए अत्यधिक पुनरावर्तक (रिपीटर) स्टेशनों की आवश्यकता होगी, विशेषकर लंबी दूरी के संचार के लिए। तंतु काफी भंगुर थे और तंतु प्रकाशकीय केबलों के लिए अंत:योजकों में सूक्ष्म तरंग और विद्युत केबलों की तुलना में अधिक संवृति की यांत्रिक सह्यता की आवश्यकता थी। वास्तव में, आम धारणा यह थी कि यदि आकड़ों का कम ह्नास करने वाले प्रकाशीय तंतु केबल विकसित कर भी लिए जाएं तो भी प्रकाशकीय तंतु संचार प्रणाली के लिए वांछित विनिर्देशों के अन्य घटक तैयार कर पाना बहुत कठिन होगा। प्रौद्योगिकी से संबंधित समस्याओं पर नियंत्रण पाना अत्यंत कठिन जान पड़ता था। इस प्रकार का अहसास लगभग एक दशक तक रहा।
परन्तु अध्यवसाय से लाभ हुआ। हार्डवेयर (मशीनरी) विकास के क्षेत्र में तीव्र वैज्ञानिक अनुसंधान एवं प्रौद्योगिकीय सुधारों से, विशेषकर, 1970 के दशक में, अनेक उल्लेखनीय सफलताएं प्राप्त हुई और तंतु प्रकाशिक संचार प्रणालियां दृढ़ता से स्थापित हो गईं। यहां तक कि वे परंपरागत संचार तकनीकों को पीछे छोड़ने वाली हैं और कम ह्नास वाले प्रकाशीय तंतु, लंबी दूरी की टेलीफोन प्रणालियों के लिए चुनिंदा प्रसारण माध्यम बन गए हैं।
प्रारंभिक तंतु-प्रकाशिक संचार प्रणालियां लगभग 800 नैनोमीटर (1 नैनोमीटर= मीटर का एक अरबवां भाग) के तरंगदैर्घ्य के प्रकाश से परिचालित होती थीं। हालांकि अवरक्त प्रकाश में कार्य कर सकने वाले लेसरों और प्रकाश उत्सर्जक डायोडों (LED) के साथ कम ह्नास के तंतुओं के विकास ने शीघ्र ही प्रचालन परिसर (आपरेटिंग रेंज) को दृश्य प्रकाश से अवरक्त प्रकाश की ओर स्थानांतरित कर दिया। पूर्ण संचार संपर्क बनाने के लिए आवश्यक हार्डवेयर की सभी वस्तुएं जैसे प्रकाश स्रोत्र, युग्मक, बहुसंकेतक (मल्टीप्लेक्सर), विबहुसंकेतक, प्रकाश संसूचक, अंतरचरण प्रवर्धक आदि की मान्य निष्पादन विनिर्देशों के साथ स्थापित हो चुके हैं।
इस प्रगति के परिणामस्वरूप प्रकाशीय-तंतु आधारित संचार प्रणाली के उपयोगों का क्षेत्र अत्यंत व्यापक हो गया है। तंतु प्रकाशिकी का प्रयोग करने वाले लंबी दूरी के अनेक टेलीफोन संचार संपर्क उपयोग में लाए जा रहे हैं। उदाहरण के लिए, ब्रिटेन के वाइडमाउथ और फ्रांस के पेनमार्च को संयुक्त राज्य अमेरिका के पूर्वी तट पर स्थित टकरटन से जोड़ने के लिए अटलांटिक महासागर से होकर तंतु प्रकाशिक टेलीफोन संपर्क बिछाए गए हैं। प्रशांत महासागर के आर-पार भी संयुक्त राज्य अमेरिका में कैलीफोर्निया, प्रशांत महासागर में हवाई, जापान में होंशू और फिलीपींस के द्वीपों के मार्ग पर संपर्क कार्य कर रहा है। जर्मनी, जापान, संयुक्त राज्य अमेरिका आदि अधिकांश विकसित देशों के आंतरिक भागों में हजारों किलोमीटर लंबी दूरी के तंतु प्रकाशिक केबल बिछे हैं।
भारत में भी, हमारा टेलीफोन नेटवर्क अंतर्राष्ट्रीय विकास के साथ-साथ प्रगति पर रहा है। तंतु प्रकाशीय केबल पर आधारित पहला टेलीफोन संपर्क काफी पहले 1982-83 में पुणें (महाराष्ट्र) में बिछाया गया था। हालांकि अभी हाल में मुंबई और दिल्ली में महानगर टेलीफोन निगम और चेन्नई और कोलकत्ता महानगरों के टेलीफोन प्राधिकरणों ने इस दिशा में धीरे-धीरे काफी प्रगति की है। मुंबई में अब तक 1000 किलोमीटर से भी अधिक दूरी तक तंतु प्रकाशिक केबल बिछाए जा चुके हैं।
प्रकाशीय तंतु संचार का एक महत्वपूर्ण पक्ष व्यापक बैंडविड्थ है जिसके परिणामस्वरूप अधिक सूचना वहन करने की क्षमता सरलता से प्राप्त की जा सकती है। अब तो रोजमर्रा के कार्यों से लिए गीगाबिट्स प्रति सेकेंड (109 बिट्स प्रति सेकेंड) की क्षमता के प्रकाशीय तंतु संचार संपर्क स्थापित हो चुके हैं। मनुष्य के एक वाणी चैनल के लिए 50 से 60 किलोबिट्स प्रति सेकेंड क्षमता की आवश्यकता होती है। इस प्रकार केबल एक तंतु प्रकाशिक केबल में एक गीगाबिट्स प्रति सेकेंड की क्षमता कई हजार वाणी चैनलों को एक साथ समाहित कर सकती है। क्या यह अविश्वसनीय नहीं है ? हां, अविश्वसनीय है किंतु उतना ही सच भी !
1870 में ब्रिटेन के भौतिकशास्त्री जॉन टिंडाल ने एक पाइप के भीतर पूर्ण आंतरिक परावर्तन द्वारा निर्देशित प्रकाश के सिद्धान्त का प्रदर्शन किया। उन्होंने दिखाया कि जल से भरे टैंक के एक किनारे पर छिद्र में से चमकते प्रकाश की किरणें छिद्र से निकलने वाली धारा का अनुगमन करती हैं। यह ऐसे था मानो प्रकाश की किरणें जल की धारा में कैद हो गई हों। प्रकाश की किरणों का मार्ग जल की बहती धारा की दिशा में झुका हुआ प्रतीत हुआ। प्रकाश की किरणों का यह अनोखा व्यवहार उस सामान्य आशा का खंडन करता हुआ प्रतीत हुआ। प्रकाश की किरणों का यह अनोखा व्यवहार उस सामान्य आशा का खंडन करता हुआ प्रतीत हुआ कि वे सीधी रेखा में चलती हैं। वास्तव में प्रकाश का यह असामान्य व्यवहार उस घटना के कारण है जिसे पूर्ण आंतरिक परावर्तन कहते हैं। यह घटना केवल तभी घटित हो सकती है जब प्रकाश की किरण सघन माध्यम से विरल माध्यम में गुजरती है, उदाहरणार्थ, कांच या जल से वायु में।
प्रकाश की किरण दोनों माध्यमों में विभाजित करनेवाली सतह पर जैसे-जैसे उत्तरोत्तर बढ़ते हुए कोण पर आपतित होती है, अपवर्तित किरण वैसे-वैसे अभिलंब से दूर हटती जाती है। एक ऐसे आपतन कोण, जिसे क्रांतिक कोण कहते हैं, पर आपतित प्रकाश की किरण सघन माध्यम से बाहर न निकलकर उसी माध्यम में ही परावर्तित हो जाती है। दैनिक जीवन में पूर्ण आंतरिक परावर्तन के कई उदाहरण मिलते हैं। हीरे की चमक उनमें से एक है। टिंडाल के प्रयोग से यह स्पष्ट हो गया कि प्रकाश को सतत माध्यम से वक्रीय पथ से गुजारा जा सकता है और उसे दूसरे छोर पर पहुंचाने के लिए निर्देशित किया जा सकता है। यह ऐसे है जैसे कि प्रकाश कोई द्रव हो जिसे एक लंबी पाइपलाइन में से स्थानांतरित करके पाइप के दूसरे छोर से निकाला जा सकता है। तंतु प्रकाशिकी का पूर्ण विकास कांच या प्लास्टिक जैसे पारदर्शी पदार्थों के महीन तंतुओं में से प्रकाश के संचरण पर केंद्रित रहा है। टिंडाल के प्रदर्शन के बाद के विकास को आधार प्रदान किया जिसके परिणाम स्वरूप ‘तंतु प्रकाशिकी’ एक प्रमुख प्रौद्योगिकी के रूप में सामने आया।
कांच तैयार करने की तकनीक ऐसी तकनीक ऐसी प्राचीनतम प्रौद्योगिकी में से एक थी जिनमें मनुष्य ने प्रवीणता प्राप्त की थी। यह ज्ञात था कि रेत (सिलिकन डाइऑक्साइड), सोडा (सोडियम ऑक्साइड), चूना (कैल्शियम ऑक्साइड) आदि के मिश्रण को जब गर्म किया जाता है तो ये मिलकर ऐसे द्रव्य की रचना करते हैं। जो दृश्य प्रकाश के लिए पारदर्शी होता है। यह द्रव्य कांच था। तापमान बढ़ाकर इस कांच को लचीला बनाकर इसे विभिन्न आकृतियों में ढाला जा सकता है। एक समान मोटाई का बारीक तंतु भी इससे बनाया जा सकता है।
यदि कांच साफ और पारदर्शी है तो इससे बनाए गए तंतु प्रयोग प्रकाश को वक्रीय पथ पर संचरित करने के लिए किया जा सकता है। परन्तु एक अकेला तंतु इतना अधिक पतला होता है कि यह व्यावहारिक प्रयोग में नहीं लाया जा सकता। यह बहुत की कम प्रकाश को ले जा सकता है। इसलिए तंतु-पूलों का प्रयोग किया जाता है। 1950 और 1960 के दशकों में तंतु प्रकाशिक प्रौद्योगिकी में तीव्र प्रगति हुई। विभिन्न प्रकार के तंतु-पूलों को बनाने की विधियां विकसित की गईं। तंतु-पूल दो प्रकार से बनाए जा सकते हैं- एक, जिसमें तंतु, पूल में इस प्रकार व्यवस्थित किए जाते हैं कि अनुप्रस्थ काट में प्रत्येक तंतु की सापेक्षिक स्थिति अपरिवर्तित रहती है। इस प्रकार के पूल को संबद्ध-पूल कहते हैं। दूसरा, जिसे असंबद्ध पूल कहते हैं, में यह सुनिश्चित किए बिना तंतुओं का गुच्छा बनाया जाता है कि दोनों सिरों पर उनकी सापेक्षिक स्थिति समान रहेगी। असंबद्ध तंतु प्रकाशिक पूलों का प्रयोग प्राय: केवल ऐसे स्थानों को प्रकाशित करने के लिए किया जाता है जहां पर सामान्यतया पहुंचा नहीं जा सकता है। दूसरी ओर, संबद्ध पूलों का प्रयोग वहां किया जाता है जहां चित्र संप्रेषण की आवश्यकता हो, जैसे अंतरदर्शिकी (एंडोस्कोपी) में। प्रारंभ में, असंबद्ध पूलों के व्यावसायिक उपयोग मोटर डेश-बोर्ड की प्रदीप्ति, वायुयान कॉकपिट प्रदर्शन, सजावटी प्रकाश की व्यवस्था आदि में थे। हालांकि, ये प्रदीप्ति के लिए उस काल में उपयोग में लाई जाने वाली परंपरागत प्रौद्योगिकी में परिष्कृत क्रांतिवर्द्धक सुधार की प्रकृति के थे।
संबद्ध पूलों में व्यवस्थित प्रकाशीय तंतुओं का प्रारंभिक विकास चित्र निर्माण की आवश्यकता के फलस्वरूप हुआ। पृथक तंतु इन पूलों में योजनाबद्ध तरीके से इस तरह व्यवस्थित किए जाते हैं कि सभी तंतु, पूल की लंबाई की दिशा में एक दूसरे के समानांतर होते हैं। 1950 के दशक के अंतिम वर्षों में संबद्ध तंतु पूलों के विकास में योगदान के लिए भारतीय वैज्ञानिक नरिंदर एस. कपानी प्रमुख रूप से चर्चित रहे हैं। इनके उपयोग तंतुदर्शी के क्षेत्र में थे-प्रमुख रूप से चिकित्सा उपकरणों में, ताकि मानव शरीर के अंदरूनी अंगों, जैसे आहारनाल, मूत्राशय, आंतों आदि को देखा जा सके। एंडोस्कोप (अंतर्दर्शी), लेपरोस्कोप आदि आधुनिक चिकित्सा यंत्रों में प्रकाशकीय तंतु दो कार्य करने के लिए उपयोग में लाए जाते हैं : अंदर के क्षेत्र को प्रकाशमान करने के लिए तथा इस तरह प्रकाशमान आंतरिक अंगों के चित्र लेने के लिए। ये कार्य तंतु-पूल के एक सिरे पर रखे प्रकाश के स्रोत्र से प्रकाश भीतरी क्षेत्र में पूल की लंबाई में ले जाकर और प्रकाशमान आंतरिक क्षेत्र के चित्र, पूल के सहारे बिंदु-दर-बिंदु लौटाकर संपन्न किए जाते हैं। चित्र की सुस्पष्टता पूल में पृथक तंतु के व्यास पर निर्भर करती है। जितना अधिक बारीक पृथक् तंतु होगा उतना ही अधिक सुस्पष्ट चित्र होगा। अर्थात् सूक्ष्मतर भाग दिख पाएंगे।
तंतु आधारित चिकित्सीय उपकरणों का क्षेत्र केवल नैदानिक उपयोगों तक ही सीमित नहीं रहा है बल्कि इसमें लेसर पुंजों का प्रयोग करके शल्य क्रियाओं में उपयोग के लिए भी इसका विकास किया गया है। इस तरह की युक्तियों का प्रयोग करके रक्तविहीन शल्य क्रियाएं सफलतापूर्वक सम्पन्न की जाती हैं। भारत के अनेक अस्पताल इन आधुनिक उपकरणों से सज्जित हैं।
तंतु प्रकाशिकी पर आधारित उपकरणों का प्रयोग युद्ध क्षेत्र में भी देखने को मिलता है। रात्रि-दृष्टि यंत्र रात में शत्रु शिविर की गतिविधियों को देखने में सेना के जवानों की सहायता करते हैं। ये उपकरण तंतु बहुत तंतु प्रकाशिकी पर निर्भर होते हैं। विशेषकर रात्रि-दृष्टि यंत्र में रात्रि के अत्यंत मंद प्रकाश का तीव्रीकरण किया जाता है। ऐसा सोपनी क्रियाविधि के नाम से ज्ञात प्रक्रिया को उपयोग में लाकर किया जाता है। इसमें मंद प्रकाशीय प्रतिबिंबों की चमक बढ़ाने के लिए अनेक चरणों में प्रकाश-इलेक्ट्रॉनिक प्रवर्धन का प्रयोग किया जाता है। रात्रि-दृष्टि यंत्र में करोड़ों तंतुओं से बनी तंतु-प्रकाशिक फलक पट्टिकाओं का प्रयोग प्रतिबिंब की तीव्रता बढ़ाने के विभिन्न चरणों को जोड़ने के लिए किया जाता है। तंतु प्रकाशिक फलक पट्टिका तत्वत: एक संबद्ध तंतु प्रकाशिक पूल है।
तंतु प्रकाशिक फलक पट्टिका (FoP) के उपयोग से निर्मित रात्रि-दृष्टि यंत्र अब दूरबीन, बाइनॉक्युलर जैसे अनेक उपकरणों के रूप में उपलब्ध हैं। इनके प्रयोग से प्रकाश का स्तर सैकड़ों-हजारों गुना बढ़ाया जा सकता है।
परन्तु 1950 और 1960 के दशकों में अनुसंधानकर्ता दूरसंचार क्षेत्र में अत्यधिक मात्रा में सूचनाओं को वहन करने की क्षमता की कल्पना भी नहीं कर सके होंगे जिसमें प्रकाशीय तंतुओं का वाहक माध्यम के रूप में प्रयोग होता हो।
1966 में, आज से लगभग तीन दशक पहले ब्रिटेन की स्टैंडर्ड टेलीकम्यूनिकेशन्स लेबोरेटरीज में कार्य करते हुए चार्ल्स काओ और जॉर्ज हॉकहम ने सुझाव दिया कि प्रकाशीय तंतुओं का संभवत: ‘संचार’ के लिए उपयोग किया जा सकता है। उन्होंने सुझाव दिया कि धातु के परंपरागत केबलों के स्थान पर प्रकाशीय तंतु उपयोग में लाए जा सकते हैं। इसका अर्थ यह था कि संकेतवाहक के रूप में इलेक्ट्रॉनों की धारा के स्थान पर प्रकाश किरणों का प्रभावशाली ढंग से उपयोग किया जा सकता है। और यह सुझाव एक महान क्रांति को जन्म दे चुका था।
तंतु-प्रकाशिकी केबल उद्योग विकसित देशों में मजबूती के साथ स्थापित हो चुका है। यहां तक कि विश्व में कहीं पर भी दूरसंचार सेवाओं की विस्तार योजना के क्रियान्वयन के लिए तंतु-प्रकाशिक विकल्प को ही प्राथमिकता दी जाती है। यह इस बात को सत्यापित करता है कि परंपरागत प्रणालियों की तुलना में तंतु प्रकाशिकी उच्च गुणवत्ता की सेवा प्रदान कर सकती है। मजे की बात यह है कि आज प्रकाशीय तंतु संचार में मानवीय आंख को दिखाई पड़ने वाले प्रकाश को उपयोग नहीं किया जाता है। इसके स्थान पर दृश्य क्षेत्र वाले लाल प्रकाश के तरंगदैर्घ्य से अधिक तरंगदैर्घ्य वाले विद्युत चुम्बकीय विकिरण (अर्थात् विद्युत-चुंबकीय स्पेक्ट्रम के अवरक्त क्षेत्र) का प्रयोग किया जाता है। इसीलिए सही अर्थ में अब इनकी प्रकृति ‘प्रकाशीय’ नहीं है क्योंकि संचार ‘अदृश्य’ प्रकाश द्वारा होता है, जिसे मानव आंख नहीं देख सकती है। चूकि शब्दकोश में ‘प्रकाशीय’ का अर्थ ‘दिखाई पड़ने वाली’ वस्तु से है इसलिए ‘प्रकाशीय तंतु संचार’ अयथार्थ प्रतीत होता है !
किसी वाहक से होकर प्रभावी संचरण के लिए यह अत्यन्त आवश्यक है कि संकेत की तीव्रता का कम से कम ह्नास हो। पहला कम ह्नास वाला प्रकाशीय तंतु 1970 में सिलिका (क्वार्टज़) से तैयार किया गया था। हालांकि इस तंतु में भी एक किलोमीटर की दूरी तय करने के बाद संकेत की तीव्रता का यह ह्नास अधिकांश व्यावहारिक उद्देश्यों के लिए बहुत अधिक माना गया। इस प्रकार की प्रकाशीय तंतु लाइनों की तदरूपता बनाए रखने के लिए अत्यधिक पुनरावर्तक (रिपीटर) स्टेशनों की आवश्यकता होगी, विशेषकर लंबी दूरी के संचार के लिए। तंतु काफी भंगुर थे और तंतु प्रकाशकीय केबलों के लिए अंत:योजकों में सूक्ष्म तरंग और विद्युत केबलों की तुलना में अधिक संवृति की यांत्रिक सह्यता की आवश्यकता थी। वास्तव में, आम धारणा यह थी कि यदि आकड़ों का कम ह्नास करने वाले प्रकाशीय तंतु केबल विकसित कर भी लिए जाएं तो भी प्रकाशकीय तंतु संचार प्रणाली के लिए वांछित विनिर्देशों के अन्य घटक तैयार कर पाना बहुत कठिन होगा। प्रौद्योगिकी से संबंधित समस्याओं पर नियंत्रण पाना अत्यंत कठिन जान पड़ता था। इस प्रकार का अहसास लगभग एक दशक तक रहा।
परन्तु अध्यवसाय से लाभ हुआ। हार्डवेयर (मशीनरी) विकास के क्षेत्र में तीव्र वैज्ञानिक अनुसंधान एवं प्रौद्योगिकीय सुधारों से, विशेषकर, 1970 के दशक में, अनेक उल्लेखनीय सफलताएं प्राप्त हुई और तंतु प्रकाशिक संचार प्रणालियां दृढ़ता से स्थापित हो गईं। यहां तक कि वे परंपरागत संचार तकनीकों को पीछे छोड़ने वाली हैं और कम ह्नास वाले प्रकाशीय तंतु, लंबी दूरी की टेलीफोन प्रणालियों के लिए चुनिंदा प्रसारण माध्यम बन गए हैं।
प्रारंभिक तंतु-प्रकाशिक संचार प्रणालियां लगभग 800 नैनोमीटर (1 नैनोमीटर= मीटर का एक अरबवां भाग) के तरंगदैर्घ्य के प्रकाश से परिचालित होती थीं। हालांकि अवरक्त प्रकाश में कार्य कर सकने वाले लेसरों और प्रकाश उत्सर्जक डायोडों (LED) के साथ कम ह्नास के तंतुओं के विकास ने शीघ्र ही प्रचालन परिसर (आपरेटिंग रेंज) को दृश्य प्रकाश से अवरक्त प्रकाश की ओर स्थानांतरित कर दिया। पूर्ण संचार संपर्क बनाने के लिए आवश्यक हार्डवेयर की सभी वस्तुएं जैसे प्रकाश स्रोत्र, युग्मक, बहुसंकेतक (मल्टीप्लेक्सर), विबहुसंकेतक, प्रकाश संसूचक, अंतरचरण प्रवर्धक आदि की मान्य निष्पादन विनिर्देशों के साथ स्थापित हो चुके हैं।
इस प्रगति के परिणामस्वरूप प्रकाशीय-तंतु आधारित संचार प्रणाली के उपयोगों का क्षेत्र अत्यंत व्यापक हो गया है। तंतु प्रकाशिकी का प्रयोग करने वाले लंबी दूरी के अनेक टेलीफोन संचार संपर्क उपयोग में लाए जा रहे हैं। उदाहरण के लिए, ब्रिटेन के वाइडमाउथ और फ्रांस के पेनमार्च को संयुक्त राज्य अमेरिका के पूर्वी तट पर स्थित टकरटन से जोड़ने के लिए अटलांटिक महासागर से होकर तंतु प्रकाशिक टेलीफोन संपर्क बिछाए गए हैं। प्रशांत महासागर के आर-पार भी संयुक्त राज्य अमेरिका में कैलीफोर्निया, प्रशांत महासागर में हवाई, जापान में होंशू और फिलीपींस के द्वीपों के मार्ग पर संपर्क कार्य कर रहा है। जर्मनी, जापान, संयुक्त राज्य अमेरिका आदि अधिकांश विकसित देशों के आंतरिक भागों में हजारों किलोमीटर लंबी दूरी के तंतु प्रकाशिक केबल बिछे हैं।
भारत में भी, हमारा टेलीफोन नेटवर्क अंतर्राष्ट्रीय विकास के साथ-साथ प्रगति पर रहा है। तंतु प्रकाशीय केबल पर आधारित पहला टेलीफोन संपर्क काफी पहले 1982-83 में पुणें (महाराष्ट्र) में बिछाया गया था। हालांकि अभी हाल में मुंबई और दिल्ली में महानगर टेलीफोन निगम और चेन्नई और कोलकत्ता महानगरों के टेलीफोन प्राधिकरणों ने इस दिशा में धीरे-धीरे काफी प्रगति की है। मुंबई में अब तक 1000 किलोमीटर से भी अधिक दूरी तक तंतु प्रकाशिक केबल बिछाए जा चुके हैं।
प्रकाशीय तंतु संचार का एक महत्वपूर्ण पक्ष व्यापक बैंडविड्थ है जिसके परिणामस्वरूप अधिक सूचना वहन करने की क्षमता सरलता से प्राप्त की जा सकती है। अब तो रोजमर्रा के कार्यों से लिए गीगाबिट्स प्रति सेकेंड (109 बिट्स प्रति सेकेंड) की क्षमता के प्रकाशीय तंतु संचार संपर्क स्थापित हो चुके हैं। मनुष्य के एक वाणी चैनल के लिए 50 से 60 किलोबिट्स प्रति सेकेंड क्षमता की आवश्यकता होती है। इस प्रकार केबल एक तंतु प्रकाशिक केबल में एक गीगाबिट्स प्रति सेकेंड की क्षमता कई हजार वाणी चैनलों को एक साथ समाहित कर सकती है। क्या यह अविश्वसनीय नहीं है ? हां, अविश्वसनीय है किंतु उतना ही सच भी !
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