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आदमखोर

आबिद सुरती

प्रकाशक : झारीसन प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :135
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5640
आईएसबीएन :000000

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आबिद सुरती का एक रोचक उपन्यास...

Aadamkhor - A Hindi Novel by Aabid Surti आदमखोर - आबिद सुरती

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

रोमा आदमखो़र है, पतिता है, विषकन्या है। उसके डसे हुए मर्द को पानी तक नहीं नसीब होता। वही रोमा जब पापाचार के दलदल से निकलकर प्रभु की शरण में जाती है, उसका जीवन सार्थक हो जाता है। यही सार्थकता किसी और के लिए ख़तरे का कारण भी बन जाती है। रोमा का नया जीवन आतंकित हो उठता है। कौन है वह पर्दापोश शत्रु जो उसके प्राण चलाता है ?
यकीनन आबिद सुरती का यह नया उपन्यास आदमखोर पहले आपको गुदगुदाएगा, फिर रूलाएगा, और अंत तक आते-आते दिल की धड़कनें तेज़ भी कर देगा।

आदमख़ोर


हनुमान हाईस्कूल के साये तक आते-आते मास्टर संतोष कुमार ने फिर एक बार कलाई-घड़ी में देखा। दस दस और दौड़ी जा रही सेकंड की सुई। काफी हड़बडी के बावजूद आज वह दस मिनट देरी से पहुँचा था। अलबत्ता कल के मुकाबले आज वह पंद्रह मिनट जल्दी आया था।
इस विचार से उसे थोड़ी तसल्ली हुई, मगर तेज़ी से सीढ़ियाँ चढ़कर पहली मंज़िल तक आते-आते उसके चेहरे पर जैसै सब कुछ गायब हो गया। आँख, नाक, कान सूखी रेत के कणों की तरह झड़ गये। चेहरा सपाट हो गया। उसी सपाट चेहरे से वह सामने खड़े हेडमास्टर श्री शाम कपूर की आँखों में देखता रहा।
संतोष चुप्पी साधे था, मगर उसका मौन बोल रहा था : सर आज मैंने सुबह की चाय नहीं पी, नाश्ता नहीं किया। अरे, स्नान तक नहीं किया है, फिर भी देर हो गई। क्या करता ? लंबी कतार थी, बसस्टॉप पर। मैं सब से आगे खड़ा था। पहली बस आई। मैं चढ़ूँ उससे पहले सफ़ेद कॉलर वाले कुछ गुंडे मुझे धकेल कर अंदर घुस गये।
हेडमास्टर श्री शाम कपूर अपने दोनों हाथ पीठ-पाछे लिए ख़ामोश खड़े, स्थिर नज़रों से संतोष के चेहरे को तौल रहे थे। संतोष थोड़ा मुसकराकर आगे बढ़ने गया।

हेडमास्टर ने उसका रास्ता रोका। उनकी बेधक आँखें संतोष को ऊपर से नीचे तक छलनी करने लगीं। तलवार जैसी उनकी पतली मूँछे बार-बार खिंच रही थीं। उनका अंडाकार चेहरा गुस्से के कारण कभी आमलेट बन जाता था तो कभी सींककबाब। लिबास में उन्होंने सूट पहना था और गोलगुंबद जैसी अपनी तोंद को छिपाने के लिए कमर पर कसकर पट्टा बाँधा था।
संतोष ने फिर एक बार मुसकराने का साहस किया और हेडमास्टर ने पीठ-पीछे छिपा कर रखी हुई बेंत  को हवा में फटकारा जैसे उनके आगे कोई शिक्षक नहीं, विद्यार्थी खड़ा हो। संतोष दो क़दम पीछे हट गया।
हेडमास्टर ने गुस्से में पाँव पछाड़ा और भारी क़दमों  से अपनी केबिन की ओर चले गये। ड्राइंग मास्टर संतोष को एक शब्द भी कहने का कोई मतलब न था।

अभी कल ही उन्होंने संतोष को भाषण झाड़ा था, ‘‘अगर शिक्षक ही समय का पाबंद न हो, तब विद्यार्थियों से हम अनुशासन की उम्मीद कैसे कर सकते हैं ? बच्चों पर इसका क्या असर पड़ेगा ?’’
संतोष ने दृढ़तापूर्वक कहा था, ‘‘सर ! कल दस की घंटी बजने के पहले ही मैं हाजिर हो जाऊँगा, बल्कि यों कहूँ कि ठीक नौ बजे मैं यहाँ मौजूद होऊँगा तो वह भी गलत नहीं होगा।’’  
आज फिर एक बार वह लेट आया था, पर इस में उसका क्या दोष ? आज उसने स्कूल जल्दी पहुँचने के लिए ऐड़ी-चोटी का ज़ोंर लगाया था। यदि किस्मत ने साथ दिया होता तो नौ-साढ़े नौ के बीच स्कूल में दाखिल होकर सबको चौंका दिया होता। अपना ही रेकॉर्ड उसने तोड़ा होता। रेकॉर्ड तो नहीं टूटा, वह खुद ही टूट गया।
हाँफते हुए वह कार्यालय के कमरे में आया। कर्मचारियों के रजिस्टर में उसने हस्ताक्षर किये और टाइमटेबल देखा। उसे फिर एक बार अफसोस हुआ। आज उसे जल्दी आने की ज़रूरत नहीं थी आज उसका पहला पीरियड फ्री था।
‘‘क्या सोच रहे हो, बेटे ?’’ पास की मेज़ पर बिछी खाताबही में डूबे कार्यालय के हैडक्लर्क मुनीम शर्मा जी ने उनकी ओर बिना देखे पूछा। शर्माजी अपनी उम्रे-दराज़ के कारण युवा शिक्षकों को ‘बेटा’ कहकर संबोधित करते थे।
संतोष ने उनके आगे आकर मेज़ पर अपने दोनों हाथ टिका दिये। फिर तल्खी से पूछा, ‘‘इस महीने की तनख्वाह किस महीने मिलेगी ?’’

शर्माजी जी ने बही में से धीरे-धीरे सिर उठाया। उनकी काली टोपी थोड़ी पीछे सरक गई। पलती कमानी का चश्मा नाक पर उतर आया। सफेद मूँछों के बाल पंखे की हवा में थिरकने लगे। ओंठ खुल गये ‘‘मेरी समझ में यही नहीं आता कि तुम जैसे फक्कड़ों को पगार की इतनी जल्दी क्यों होती है ?’’
‘‘क्या फक्कडों का पेट नहीं होता ?’’
वह मुसकराये, ‘‘पेट होता है पत्नी नहीं होती।’’
संतोष कुछ कहने लगा कि स्कूल की घंटी बज उठी। मुर्दा माहौल में जैसे जीवन आया हो, बच्चे जाग उठे। थोड़े समय के लिए भिनभिनाहट बढ़ गई। कक्षाएँ बदलते शिक्षकों की चहल-पहल शुरू हो गयी। चंद मिनटों में वातावरण फिर से शांत हो गया।

दोपहर के खाने से पहले संतोष स्टॉफरूम में दाखिल हुआ तो उसे लगा, कुछ खिचड़ी पक रही है। एक कुर्सी खींचकर वह बैठ गया। तीन मेज़ो को मिलाकर बनाया हुआ एक लंबा टेबल कमरे के बीचोंबीच सजाया हुआ था। शिक्षक अपने-अपने टिफिन खोलकर डिब्बे अलग कर रहे थे। दबे स्वरों में बातें हो रही थीं। ऊँची आवाज़ो में हँसी उठ रही थी। भूगोल के शिक्षक पोपटलाल मास्टर के ठहाके कुछ ज्यादा ही तेज़ थे।
स्वभाव से पोपटलाल हँसमुख था। माहात्मा गाँधी को उसने कभी देखा या सुना हो, ऐसा कोई प्रमाण नहीं, किंतु खुद को वह पक्का गाँधीवादी मानता था। गाँधी टोपी, खादी का कुर्ता, उसके ऊपर खादी का जैकेट और कमर के नीचे खादी की धोती पहनना उसका धर्म था। (पैर में अहिंसक चप्पलें थी, या कहने की ज़रूरत नहीं।)
संतोष ने कान खड़े किए तो वह इतना ग्रहण कर पाया। हनुमान हईस्कूल में पहली से एस.एस.सी. तक की कक्षाएँ थीं। कमी थी केवल बालमंदिर की। इसी कारण अन्य किसी किडंरगार्डन में नन्हें बच्चे एक साल गुज़ारकर इस स्कूल में दाखिला लेते थे।

एक अर्से से इस स्कूल को बालमंदिर की कमी महसूस हो रही थी। पिछले महीने निर्णय लिया गया। बालमंदिर की कक्षा तैयार हो गयी। उसके लिए शिक्षिकाओं के साक्षात्कार लिये जा चुके थे। एक शिक्षिका भी नियुक्त हो चुकी थी। बहुत जल्दी वह पधारने वाली थी। शायद इसी हफ्ते, शायद कल ही। आज की चर्चा का विषय भी यही था।
पोपटलाल मास्टर बाकी शिक्षकों को संबोधित करते हुए बोला, ‘‘अब तो हद हो गयी, स्टॉफरूम की दीवारों पर रंग उखड़ने लगा है। परदों के बिना खिड़कियाँ बिना वस्त्रों के मनुष्य जैसी लगती हैं। खैर, अब तो यहाँ एक आइने की आवश्यकता भी होगी। लेडी टीचर को कम-से-कम उतनी तो सुविधा मिलनी ही चाहिए, वर्ना वह ऐसे जर्जर माहौल में कैसे बैठ सकेगी ?’’

हेडक्लर्क शर्माजी अपने डिब्बे में से पूरी-भाजी खाते हुए तिरछी नज़रों से सब के चेहरों का मुआयना कर रहे थे। शर्माजी शिक्षक नहीं थे, पर रोज़ दोपहर को अपना टिफिन लेकर स्टॉफरूम में चले आते। स्कूल के रखरखाव की ज़िम्मेदारी भी उनके सिर पर थी और इसलिए पोपटलाल मास्टर ने उन्हीं को संबोधित करते हुए कहा था।
शर्माजी पर उसका ज़रा भी असर नहीं हुआ। टिफिन बंद करके खड़े होते हुए वे बोले, ‘‘रंगाई की ज़रूरत इस कमरे को नहीं, तुम्हारे नूरानी चेहरे को है। पहले तुम सब अपना हुलिया बदलो, फिर खिड़कियों में परदे डलवाने की सोचना, समझे ?’’
शर्माजी बाहर निकलने लगे कि दरवाजे़ में ही उनकी भेंट इतिहास के शिक्षक फैज़ी से हुई। फैज़ी ने उन्हें रोकते हुए कहा, ‘‘शर्माजी ! आपके विचार से मैं सहमत हूँ। यकीनन हमें अपने लाबादे बदलने की जरूरत है और कम तनख्वाह में हम वैसा नहीं कर सकते। अगर आप खिड़कियों में परदे डलवा दें तो हमें अपने हुलिये बदलने की ज़रूरत ही नहीं रहेगी।’’
पोपटलाल मास्टर हँस पड़ा। संतोष खड़ा हो गया। स्टॉफरूम में फैज़ी की प्रतीक्षा करते हुए बैठा था। फैज़ी की बीवी पीहर गई हुई थी, अतः पिछले हफ्ते से वह संतोष के साथ बाहर किसी होटल में दोपहर का भोजन लेता था।
दोनों सटेशन के पास वाली ईरानी होटल में जा बैठे। फैज़ी ने दो बिरयानी का आर्डर दिया, सिगरेट की डिबिया निकालकर एक सिगरेट को ओठों के बीच फँसायी और लाइटर जलाया।
‘‘फैज़ी !’’ संतोष ने शुरुआत की, ‘‘के.जी. की कक्षा नई टर्म से शुरू होगी। शिक्षिका की नियुक्ति इस, सप्ताह से करने का क्या मतलब ?’’

‘‘मेरे खयाल से यह शिक्षिका हैंडीक्राफ्ट भी लेगी !’’ फैज़ी ने धुएँ में छल्ला छोड़ते हुए बताया, ‘‘तुमने  देखा है उसे ?’’
संतोष ने ‘ना’ कहकर जो़ड़ा, ‘‘मैं तो उसका नाम भी नहीं जानता।’’
‘‘जानना चाहते हो ?’’
‘‘तुम्हें मालूम है ?’’
वह थोड़ा मुसकराया, फिर कहा, ‘‘इंटव्यू हमने लिये थे।’’
‘‘हम से मतलब ?’’
‘‘मैं और शाक।’’

शाक यानी हेडमास्टर शाम कपूर। शिक्षक आपस में उन्हें इसी नाम से पहचानते थे और कभी-कभी उन्हें शाक से ‘शार्क’ भी बना देते थे। गुरुजनों के लिये वे शार्क मछली से थोड़े अधिक ही ख़तरनाक थे।
‘‘फिर ?’’ संतोष की उत्सुकता बढ़ी।
‘‘इंटरव्यू के लिए नौ उम्मीदवार आयी थीं। उनमें से मिस कल्पना देसाई और मीरा पंडित को चुनकर बाकी सातों को हमने रद्द कर दिया।’’ फैज़ी कह रहा था, ‘‘मगर उन दोनों में से किसे चुना जाए यह सचमुच मुश्किल था ।’’
‘‘वाह !’’ संतोष ने हैरत जतायी, ‘‘जिसके पास डिग्रियों के पुलिंदे के साथ काबिलियत भी हो, उसे आसानी से पसंद किया जा सकता है’’
‘‘दोनों की डिग्रियाँ और तजुर्बे लगभग समान थे।’’
संतोष पल भर सोच में पड़ गया, ‘‘फिर ?’’
‘‘मिस मीरा पंडित के सिर पर सेहरा बाँधा गया।’’
‘‘किस आधार पर ?’’

‘‘उसके चेहरे पर दिलकश मुस्कराहट जो थी।’’ सिगरेट के ठूँठ को फेंककर फैज़ी ने बताया, ‘‘दुसरा, उसका जिस्म नपातुला है, रंग भी गोरा-चिट्टा। उसकी तुलना में मिस कल्पना देसाई बेचारी तरूणी होने पर भी प्रौढ़ा लग रही थी।’’
बिरयानी की प्लेट के साथ कचूमर भी था। खाने पर दोनों टूट पड़े। संतोष के जबड़ों के साथ विचार भी चलने लगे। पोपटलाल मास्टर के शब्दों में छिपे व्यंग्य का ख़याल उसे अब आया। शर्माजी ने ठीक ही कहा था रंगाई-पुताई की आवश्यकता दीवारों को नहीं, कर्मचारियों को थी और उसका कारण था।
हनुमान हाईस्कूल के शिक्षकों में एक भी महिला टीचर नहीं थी। ब्रह्मचारियों के अखाडे़ जैसा यहाँ का नीरस वातावरण था। रोज सुबह आँखे मलते हुए शिक्षक पाठशाला में दाखिल होते, घंटी बजने पर चूहों की तरह एक कक्षा में दूसरी कक्षा में छलांग लगाते और आखिरी घंटी बजने पर बस की कतार या रेलवे प्लेटफार्म पर खड़े नज़र आते।
यही उनका रोजमर्रा का जीवन था। दुनिया गोल थी दौड़ सीधी थी। घर से स्कूल। स्कूल से घर तक।
इस शांत जल में कहीं एक कंकड़ गिरा था। धीरे-धीरे वर्तुल पैदा होने लगे थे। मिस मीरा पंडित के आगमन से पहले ही मौसम गरमाने लगा था। फिर भी शिक्षकों के चेहरे सूने-सपाट थे। एक भी बंदा अपने भीतर की भावनाओं को आँखो द्वारा प्रकट करने को तैयार न था।

तजुर्बेकार होने के कारण पोपटलाल मास्टर ने फिज़ा में लहराती तरंगो को महसूस कर लिया था। इसी कारण उसने आज से ही चुहल शुरू कर दी थी।
लंच ख़त्म कर फैज़ी स्कूल में वापस नहीं लौटा, आज उसका आदा दिन ऑफ था। संतोष अकेले स्कूल से जुड़े हुए मैदान में दाखिल हुआ और उसके कदम रुक गये। उसकी आँखें पी.टी. के शिक्षक पांडे पर ठहर गईं।
पांडे महाराष्ट्रीयन नहीं था, पर वर्षों से महाराष्ट्र में रहने के कारण वह लगभग मराठा बन गया था। हनुमान हाईस्कूल के बच्चों को कसरत सिखाने के साथ-साथ विद्यार्थियों को खेलकूद की स्पर्धाओं को लिए भी तैयार करता।
दिखने में वह इकहरा था। उसकी लंब-तड़ंग काठी को देख शायद ही कोई सोच सके कि वह पी.टी. मास्टर होगा। स्काउट की तरह वह खाकी कमीज़ और खाकी घुटन्ना पहनता था। खाकी कमीज़ की छाती पर दो जेबें थीं। एक जेब में सीटी थी। कभी वह कम्पाउण्ड में बैडमिन्टन ग्राउण्ड को संवार रहा था।
संतोष को ताज्जुब हुआ। इस स्कूल के किसी शिक्षक या विद्यार्थी को बैडमिन्टन के खेल में रुचि हो, ऐसा उसे ज्ञात नहीं था। उसकी जानकारी के अनुसार पिछले सात वर्षों से बैडमिन्टन भूमि विधवा की माँग-सी उजाड़ पड़ी थी। उस पर झाड़-झंखाड़ भी उग आये थे।

पांडे पी.टी के विद्यार्थियों से घास कटवा रहा था, पत्थर हटाकर, पौधे उखड़वा रहा था। कार्य फुर्ती से चल रहा था। साथ ही वह बारंबार सीटी बजाकर विद्यार्थियों को सूचना देता था : पत्थरों का ढेर कहाँ किया जाए ? पौधों को कहाँ पटकें ? घास कहाँ डालें ? सब कुछ उसके आदेशानुसार हो रहा था।
संतोष उसकी ओर आगे बढ़ा तो पांड़े ने ज़ोर से सीटी बजाकर उसे रोका और खुद ही लंबे डग भरता हुआ उसके सामने आ खड़ा हुआ। फिर मुसकराकर बोला, ‘‘संतोष। क्या तुम्हें नही लगता मेरे विद्यार्थी जवानों के मुकाबले कुछ कम नहीं हैं ?’’
संतोष ने उचटती-सी नज़रों से बालकों को दमभर देख पांडे से प्रश्न किया, ‘‘यह ग्राउण्ड साफ करने की तुम्हें जरूरत कैसे पड़ी ?’’            
‘‘तुम तो जानते ही हो।’’ पांडे फिर हंसा, ‘‘जब से यह स्कूल बना है, मैदान बंजर पड़ा है। अगर आज भी इसे काबिले-दीद नहीं बनाया गया, तब कब बनेगा ?’’
‘‘पर आज क्यों ?’’
‘‘क्या तुम कुछ भी नहीं जानते ?’’
‘‘मतलब ?’’

पांडे ने आगे कुछ कहने से पहले फिर एक बार विद्यार्थियों के सामने देखकर सीटी बजाई और कुछेक सूचनाएँ देकर संतोष की ओर देखा, ‘‘तुम कलाकार हो और कलकार लोग अपनी मस्ती में रहे, यह सहज है। समझो ! कल से हमारे स्कूल में एक शिक्षिका आने वाली है।’’
‘‘यह तो सभी जानते हैं।’’ संतोष बीच में बोला।
‘‘मगर कोई यह नहीं जानता कि वह शिक्षिका बैडमिन्टन की चैमिप्यन भी है। सच बताओ, तुम्हें मालूम था, ?
‘‘ऐं’....’’
‘‘ऐं क्या ?’’ पांडे की सीटी फिर गूँज उठी, ‘‘क्या  हम उसकी खुशी के लिए इतना भी नहीं कर सकते ?’’
एक विद्यार्थी घास की टोकरी उठाए उल्टी दिशा में आगे बढ़ रहा था कि पांडे सीटी बजाते हुए उसके पीछे दौड़ा। संतोष हैरत से सारी गतिविधियों को देखते हुए अपनी कक्षा में दाखिल हुआ। होहल्ला करते विद्यार्थी शांत हो गये ।
संतोष ने उनके सामने दीवार पर एक चार्ट लगाया। इस चार्ट में तीन तिकोनों से बनी रंगोली थी। उसने विद्यार्थियों को रंगोली की नकल कर उसमें रंग भरने की सूचना दी और फिर एक बार गहन विचारों में खो गया।
मिस मीरा पंडित नाम का प्राणी कैसा होगा ? क्या होगा ? फैज़ी ने कहा था- उसकी मुस्कराहट दिलकश है। उसका चेहरा प्रभावशाली, काया सप्रमाण और रंग गोरा-चिट्टा है। ये सारी खूबियाँ किसी नायिका में होती हैं।
वह अभिनेत्री नहीं, शिक्षिका थी। हनुमान हाईस्कूल में कल से आने वाली थी, किंतु आज बँधे समा से तो ऐसा लगता था कि, जैसे वह यहाँ मौजूद हो। अभी पांडे उस पर झपटेगा।

यदि वह सचमुच बैडमिन्टन की चैम्पियन है तो पांडे आसानी से बाजी जीत सकता था। बाकी सब शिक्षकों को अंगूठा दिखाकर वह मिस मीरा पंडित की मुसकराहट को अपने लिए आरक्षित कर सकता था।
 उसकी पुरजोश तैयैरियाँ यही सूचित करती थीं। उसकी बार-बार चीख़ती सीटियों में से यही गूँज उठ रही थी। वह कसरतबाज़ था। भले ही देखने में बाँस जैसा था परन्तु उसकी शक्ति, उसके कहने के अनुसार हनुमानजी से उन्नीस नहीं थी।
शाम को स्कूल छूटने के पर संतोष विज्ञान के पारसी शिक्षक कूका के साथ बाहर निकला। बच्चे शोर मचाते हुए घर जा रहे थे। संतोष कूका के साथ बस-स्टॉप की दिशा में आगे बढ़ रहा था। वह लिंकिंग रोड पर रहता था, कूका माहिम में। रोज शाम को बस पकड़कर दोनों साथ ही घर जाते, एक ही बस में दोनों साथ-साथ प्रवास करते थे।
बस-स्टॉप आने पर कूका आगे बढ़ गया। संतोष को सहज ही अचरज हुआ। उसने पुकारा तो वह लौट आया।
‘‘क्या आज बस में आने का विचार नहीं ?’’ संतोष ने प्रश्न किया।

दोनों अँधेरी के बस-स्टॉप पर खड़े थे। यहाँ से ट्रेन में भी जा सकते थे। संतोष ने सोचा, शायद आज कूका का विचार ट्रेन में यात्रा करने का होगा। वह जवान था, लगभग संतोष की ही उम्र का था। उसने गहरे रंग का पतलून और हल्का सफेद शर्ट पहना था।
‘‘आज थोड़ी शॉपिंग करनी है।’’ कूका ने क्षणिक विचार कर उत्तर दिया ‘‘यहीं एक स्टोर में सेल चल रहा है। सोचा, आज खरीदरी करने का माल सस्ता मिलगा। जो भी थोड़े बहुत रुपये बचें है। तुम्हें कुछ नहीं खरीदना ?’’
‘‘मेरे पास बस के किराये के अलावा एक फूटी कौड़ी भी नहीं !’’ संतोष ने निश्छलता से बता दिया, ‘‘आज का लंच भी फैज़ी की बदौलत नसीब हुआ है।’’
‘‘ठीक है तुम मत खरीदना।’’ कूका ने कहा, ‘‘मगर साथ चलने में तो कोई हर्ज नहीं है न ?’’
दोनों एक स्टोर के पास पहुँचे तो पता चला, सेल दो दिन पहले ही खत्म हो चुका था। अब ? संतोष ने सवालिया नज़र डाली। उत्तर में कूका अंदर घुस गया। यहाँ तक आकर खरीदारी नहीं करना हिमाकत थी।
कूका ने थोड़े रंगीन शर्ट पसंद किये और काउन्टर पर से टाई का डिब्बा उठाकर संतोष के आगे बढ़ाया, ‘‘तुम महान चित्रकार हो। इन सभी शर्टों को मैच करने वाली एक-एक टाई तुम्हीं पसंद करो।’’
‘‘लेकिन...’’ संतोष कुछ कहने जा रहा था कि उसे खयाल आया, कूका ने आज से पहले कभी टाई नहीं बाँधी थी। आज से पहले उसने कभी रंगीन शर्ट भी कहाँ पहना था ? आज क्यों ?

उसने प्रश्न नहीं किया। कूका ने उसे उत्तर भी नहीं दिया। दोनों एक-दूसरे की आँखों में झाँककर समझ गये थे।
संतोष ने आर्धा दर्जन शर्ट के लिए मैचिंग केवल तीन टाई पसंद कीं। छः शटर्स के लिए छः टाई खरीदने की ज़रूरत नहीं थी। एक टाई दो-दो शर्ट के साथ मैच हो रही थी। कूका प्रसन्न हो उठा।
‘‘संतोष !’’ उसने बखुशी कहा, ‘‘यार, तुम भी एकाध बुश-शर्ट खरीद लो। मैं थो़डे पैसै उधार दे सकता हूँ।’’
संतोष ने फीकी हँसी हँसकर ‘ना’ कर दिया।
दूसरे दिन संतोष तीन बसें चूक गया। वह स्कूल पहुँचा, तब दस की घंटी बज चुकी थी। आज वह बाईस मिनट लेट था। हेडमास्टर शाम कपूर उर्फ शाक उसके सत्कार के लिए सीढ़ियों पर नहीं थे, यह जानकर उसे आन्नद हुआ। वह तेजी से कक्षा की ओर बढ़ा और जाने कहाँ से शाक मछली प्रकट हुई।
शाम कपूर बेंत लिये उसके सामने खड़े थे। उनका चेहरा असली शार्क मछली जैसा डरावना लग रहा था। संतोष काँप उठा।
‘‘पधारिये !’’ हेडमास्टर ने तीव्र कटाक्ष किया, ‘‘कहिए, मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ ?’’
उसने बुद्दू की तरह पूछा, ‘‘कैसी सेवा सर ?’’
‘‘ओह ! तो मुझे कारण भी बाताना होगा !’’

संतोष समझ गया। उसने नज़रे झुकाकर कहा, ‘‘बस चूक गया, सर !’’
‘‘और कल ?’’
उसने नज़रें उठायीं कल तो मैं समय से पहले ही आ गया था !’’
‘‘अच्छा !’’ कहकर हेडमास्टर ने हवा में छड़ी फटकारी, ‘‘अब आप झूठ बोलना भी सीख गये।’’
‘‘नहीं, सर। मैं सच...’’
‘‘क्या ख़ाक सच कह रहे हो ?’’ उसे टोकते हुए हेडमास्टर का स्वर तेज़ हुआ, ‘‘मुझे बराबर याद है। मैंने अपनी कलाई-घड़ी में गौर से देखा था। कल श्रीमान दस बजकर दस मिनट पर पधारे थे।’’
‘‘बिल्कुल सही साहब !’’ संतोष ने शांतिपूर्वक कहा, ‘‘कल मेरा पहला पीरियड ऑफ था।’’
हेडमास्टर ने आँखें झपकायीं। वह अपनी हार स्वीकार करने को तैयार नहीं थे। उन्होंने फिर पूछा, ‘‘परसों ?’’
‘‘परसों रविवार था, साहब !’’

हेडमास्टर ने फिर हवा में बेंत फटकारी और अचानक उसका चेहरा खिल उठा। उनकी आँखें चमक उठीं, ‘‘पधारिये।’’ उन्होंने एक-एक अक्षर को खींचते हुए कहा। ‘‘वेलकम, मिस मीरा पंडित !’’
संतोष चौंका, ‘‘साहब !’’ उसने कहा, ‘‘मेरा नाम संतोषकुमार संतोष है।’’
हेडमास्टर उसे छोड़ आगे बढ़े। संतोष ने पलटकर देखा तो मिस मीरा पंडित के साथ वे हाथ मिला रहे थे। मिस मीरा पंडित मुसकराहट बिखेर रही थी। संतोष इस मौके का लाभ उठाकर चुपचाप अपनी कक्षा में घुस गया। वह अपनी कुर्सी पर बैठे, उससे पहले ही घंटी बज उठी। पहला पीरियड पूरा हुआ था। दूसरे पीरियड के लिए उसे दूसरी मंज़िल की सातवीं कक्षा में जाना था।
तेज़ी से वह बाहर निकला तो उसकी भेंट गणित के शिक्षक भरुचा से हुई। उसके बालों में बिलक्रीम की चमक देखकर वह दंग रह गया।

भरुचा के आधे सफेद और आधे काले बाल भी संपूर्ण काले हो गये थे। उसकी मूछों के बाल, जिनमें कुछ नाक में और कुछ ओठों के बीच घुसपैंठ करने की फ़िराक में रहते थे, सुव्यवस्थित ढंग से कतरे हुए थे। अब मूंछें भद्र लग रही थीं। वेशभूषा में उसके बंद गले का कोट और सफेद पतलून पहनी थी।
‘‘भरुचा !’’ उसके साथ सीढ़ियाँ चढ़ते हुए संतोष ने कहा, ‘‘आज तो तुम फिल्मस्टार जैसे लगते हो।’’
‘‘जैसे से मतलब ?’’ भरुचा बमका, ‘‘अरे, हूँ ही।’’
पी.टी.. के विद्यार्थियों को सामने से दौड़ते हुए आते देखकर दोनों एक तरफ खिसक गये। विद्यार्थी एक साथ दो-दो सीढ़ियाँ कूदते नीचे चले गये। तीन विद्यार्थियों ने जाते-जाते भरुचा को ‘गुड मार्निंग, सर’ भी कहा।
‘‘तुमने देखा उसे ?’’ भरुचा ने अपनी कक्षा के सामने खड़े होकर नयी शिक्षिका के संदर्भ में पूछा।
सतोष ने ‘हाँ’ कहा।

उसने एक ठंडी आह भरी, ‘‘कैसी है ?’’
संतोष थोड़ा मुसकराया, ‘‘जैसी और युवतियाँ होती हैं, वह भी एक युवती है।’’
‘‘कोई खास बात नहीं ?’’
‘‘खास मतलब ’’

‘‘जयाप्रदा ?’’
दिखने में अभिनेत्री जैसी जरूर है।’’
‘‘तब तो 34-24-36 ही होगी।’’
गणित के शिक्षक का यह अंको का रहस्य संतोष समझ न सका। सिर खुजलाता हुआ वह अपनी कक्षा की ओर बढ़ा। भरुचा को उस पर दया आई। ‘‘बेचारा...’’ वह मन-ही-मन बड़बड़ाया ‘‘सचमुच चित्रकार है।’’
अपनी कक्षा में प्रवेश करते हुए उसको एक विचार ने चौंका दिया। कलाकारों का सीधा संबंध सुंदरता से होता है। इस बेवकूफ को सौंदर्य में रुचि क्यों नहीं है ? एक हसीन शिक्षिका स्कूल में नियुक्त हुई थी और वह मूर्ख कहता था कि अन्य युवतियों जैसी वह भी एक है उसकी नज़र में सभी लड़कियाँ एक-सी हैं विचित्र। जयाप्रदा और टुनटुन के बीच कोई फर्क ही नहीं है


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