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किस्सों का गुलदस्ता

अमर गोस्वामी

प्रकाशक : चेतना प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :220
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5639
आईएसबीएन :81-89364-12-x

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प्रस्तुत हैं 51 बाल कहानियाँ...

Kisson Ka Guldasta

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

नानी, अम्मा या किसी और बुजुर्ग के आस-पास के बच्चे कहानी सुनने को जुट जाते हैं और कल्पना के घोड़ों पर उड़ते हुए जानी अनजानी दुनिया में पहुँच जाते हैं। कहानी नयी ही हो, यह भी जरूरी नहीं...एक ही कहानी कई-कई बार भी सुनी जाती है।
कहानी कहने-सुनने की परम्परा मनुष्यता के बचपन से चली आ रही है। कहानियों के माध्यम से दुनियादारी की शिक्षा भी अनायास ही दी और पायी जाने लगी है। ऐसी ही 51 बाल कहानियों का संग्रह है यह पुस्तक। जिसको पढ़ने से बच्चों का ज्ञान तो बढ़ेगा ही और वह आनन्दित भी होंगे।

जंगल में घड़ी

उछलकूद बंदर पेड़ों पर उछलता-कूदता दूसरी बार शहर घूमने आया था। मकानों की छतों पर कूदते-कूदते एक कमरे के खुले दरवाजे पर उसकी नजर पड़ी। वह बिना किसी से पूछे ही उसमें घुस गया। सामने ड्रेसिंग टेबल के शीशे में अपना चेहरा देखकर वह एकाएक बेहोश हो गया। वह अपने को बड़ा खूबसूरत समझता था, पर शीशे ने उसे धोखा दे दिया। वह बड़ा दुःखी हुआ। खीज के मारे उसने शीशे को मुँह बिराकर वहाँ रखी एक अलार्म घड़ी चोरी से उठाकर अपनी जेब में रख ली और पेड़ों पर उछलता-कूदता जंगल में वापस लौट गया।

उछलकूद बंदर को घड़ी अच्छी चीज लगी थी। पहली बार शहर में जाते ही इस पर उसकी नजर पड़ी थी। उसने वहाँ पर सभी को घड़ी के हिसाब से काम करते देखा था। इसलिए इस बार उसका भी मन हुआ था कि शहर की घड़ी को जंगल में ले जाए। उछलकूद बन्दर ने जो घड़ी चुराई थी, वह ट्रिन-ट्रिन करके बजती भी थी। उसने वह घड़ी ले जाकर जंगल में राजा शेरसिंह को भेंट में दे दी। उछल-कूद बन्दर से घड़ी की महिमा सुनकर राजा शेरसिंह बहुत खुश हुए।
राजा शेरसिंह ने घड़ी को उलट-पुलट कर देखा।

घड़ी टिक-टिक-टिक-टिक करके चल रही थी। राजा शेरसिंह ने घड़ी को अपने कानों में लगा लिया और आँखें बंद कर ली। टिक-टिक की आवाज उन्हें इतनी प्यारी लगी कि वे सो गए। राजा शेरसिंह को दरबार में सोता देखकर सब जानवर असमंजस में पड़ गए। सोते हुए राजा को अब जगाए कौन ? राजा शेरसिंह अगर इसी तरह से दरबार में सोएँगे तो राजकाज कैसे चलेगा ? सब इसी उधेड़बुन में थे कि तभी घड़ी की तेज ट्रिन-ट्रिनाहट से राजा शेरसिंह चौंककर जाग गए। सब जानवर वाह-वाह कर उठे। बोले, ‘‘यह तो बड़े काम की चीज है। यह सबको सुला भी देती है। घड़ी हो तो सोने जागने की चिंता मिट जाए।’’

राजा शेरसिंह ने खुशी से दहाड़कर कहा, ‘‘जंगल के सभी जनवरों, खामोश होकर सुनो। कल से हमारे राज्य में भी सब काम वक्त पर होगा। वक्त पर सोना, वक्त पर जागना, वक्त पर खाना, वक्त पर मिलना-जुलना, वक्त पर आना-जाना। जो वक्त की पाबन्दी नहीं मानेगा वह दण्ड का भागी होगा।’’
सभी जानवरों ने एक स्वर से कहा, ‘‘हम सभी वक्त के पाबन्द बनेंगे।’’
राजा शेरसिंह घड़ी लेकर अपनी गुफा में चले गए। दिक्कत यह थी घड़ी पूरे जंगल में एक ही थी। इसलिए जंगल के जानवरों को जगाने की जिम्मेदारी राजा शेरसिंह पर आ गई थी। उन्हें घड़ी देखकर दूसरे दिन सुबह जंगल के जानवरों को दहाड़ मारकर जगाना था।

कुछ तो जिम्मेदारी के अहसास से और कुछ घड़ी की टिकटिकाती आवाज से राजा शेरसिंह की आँखों की नींद गायब हो गई। राजा शेरसिंह रात भर घड़ी देखते रहे और करवटें बदलते रहे। उछलकूद बन्दर ने सुबह पांच बजे का अलार्म लगा दिया था। मगर अलार्म बजा नहीं और सुबह पहले हो गई। आदतन कुटकुट मुर्गे ने बाँग दे दी। राजा शेरसिंह कुटकुट मुर्गे की बेअदबी पर बहुत नाराज हुए।
धूप निकल आई थी। जंगल के सभी जानवर लेटे-लेटे करवटें बदल रहे थे। राजा शेरसिंह के डर से कोई उठ नहीं पा रहा था। सब उनके दहाड़ने की प्रतीक्षा कर रहे थे। सब सोच रहे थे आखिर यह कैसी घड़ी है। कुछ सोचने लगे कहीं राजा शेरसिंह ही तो नहीं सो गए ?

राजा शेरसिंह भी लेटे-लेटे सब सोच रहे थे। आखिर उन्होंने उछलकूद बन्दर को बुला भेजा। उछल-कूद बन्दर ने घड़ी को देखकर कहा, ‘महाराज, इसमें तो आप चाबी भरना ही भूल गए हैं। घड़ी बंद हो गई है।
तभी राजा शेरसिंह को जंगल के जानवरों को जगाने की बात याद आई। राजा शेरसिंह के डर से सभी जानवर चुप्पी साधे पड़े थे। कुछ चुपके-चुपके गर्दन उठाकर देख भी रहे थे। झेंपते हुए राजा शेरसिंह ने दहाड़ मारी। उनकी दहाड़ पर सभी जानवर झटपट उठ खड़े हुए और हाथ-मुँह धोने के लिए नदी की ओर भागे। घड़ी बन्द होने के कारण उस दिन जंगल का सारा काम गड़बड़ हो गया।

घड़ी की इस बेअदबी पर राजा शेरसिंह बहुत नाराज थे। घड़ी ने उनकी नाक कटवा दी थी। उन्होंने घड़ी को फेंक देना चाहा, मगर उछलकूद बन्दर ने कहा, ‘‘महाराज इसमें घड़ी का कोई कसूर नहीं है। कलपुर्जे वाली चीज है यह। पहली-पहली बार कुछ न कुछ गड़बड़ी तो हो ही जाती है।’’
राजा शेरसिंह उछलकूद बन्दर की बात सुनकर उठ खड़े हुए। बोले, ‘‘ठीक है मगर आज से घड़ी में चाबी देने की जिम्मेदारी तुम्हारी।’’

‘‘जो आज्ञा महाराज।’’ उछलकूद बन्दर ने सिर झुका कर कहा।
राजा शेरसिंह ने घड़ी के समय के हिसाब से जंगल का सारा काम बाँट दिया था। हर चीज का समय तय हो गया था। राजा-प्रजा को अब घड़ी के मुताबिक चलना था।
समय के अनुसार चलने में सबसे अधिक परेशानी राजा शेरसिंह को ही थी। अब तक उन्होंने कोई काम समय से किया नहीं था। उन्हें बड़ी दिक्कत होती। कहाँ वह दिनभर गुफा के बाहर दरबार लगाए बैठे रहते थे, जिसका मन होता फरियाद लेकर आ जाता था; अब वक्त तय हो गया था। राजा शेरसिंह बैठे-बैठे मक्खियाँ मारते और घड़ी देखते रहते। घड़ी ने उन्हें बाँध दिया था। शिकार का वक्त होने पर वे शिकार करने जाते। घड़ी के कारण राजा शेरसिंह के शिकार का समय जंगल में सबको मालूम हो गया था। फल यह हुआ कि सारे जानवर उस समय छिपकर बैठ जाते थे। राजा शेरसिंह को भूखा-प्यासा घर लौटना पड़ता था। उसपर हालत यह कि उन्हें ही दहाड़ कर जंगल में समय की सूचना देनी होती थी। राजा शेरसिंह अधमरे हो गए।

जंगल के जानवरों ने भी समय की पाबन्दी मान तो ली थी, मगर इस पर चल नहीं पाते थे। रोज राजा शेरसिंह के सामने उनकी पेशी होने लगी। राजा शेरसिंह सबको आदमियों की तरह दो टाँगों पर खड़ा करने लगे। इस तरह सारे चौपायों को दो टाँगों पर खड़े होने में बड़ी तकलीफ होती थी। वे मन ही मन घड़ी को अपना दुश्मन समझने लगे।
घड़ी कुछ अपनी भी हरकतें करती थी। कभी वह आधी रात को अलार्म बजाकर पूरे जंगल को जगा देती, कभी तेज चलने लगती तो कभी धीमे। कभी गलत घंटी बजाती थी। कभी बन्द हो जाती थी। घड़ी के समय से काम करते-करते सब जानवरों की समझ धीरे-धीरे खत्म हो गई थी। उछलकूद बन्दर को शहर जाकर समय मालूम करना पड़ता था। जब घड़ी चलने लगती तब जंगल का काम चलने लगता।
एक दिन जंगल में न जाने कहाँ से एक खूँखार भेड़िया घुस आया। कालू कौआ यह खबर देने शेरसिंह से पास पहुँचा। मगर वह राजा से मिलने का समय नहीं था। जब थोड़ी देर बाद राजा शेरसिंह मिले, तब तक दुष्ट भेड़िया कुछ जानवरों का नाश्ता करके भाग गया था। राजा शेरसिंह हाथ मलते रह गए।
 
धीरे-धीरे राजा शेरसिंह घड़ी के झंझट-झमेले से बेहद चिड़चिड़े हो गए। उन्हें लगता कि जंगल का बादशाह तो यह घड़ी ही है। वे सब घड़ी के गुलाम हो गए हैं। उनके अब हर काम के लिए घड़ी का मुँह देखना पड़ता था। उन्हें घड़ी पर बहुत गुस्सा आता था।

एक दिन राजा शेरसिंह की भूख सहने की शक्ति समाप्त हो गई। मारे क्रोध के वे तिलमिला उठे। उन्होंने गुस्से में घड़ी से कहा। ‘‘तूने पूरे जंगल को गुलाम बना दिया है। आज मैं तुझे ही खा डालूँगा।’’ यह कहकर शेरसिंह मुँह खोलकर घड़ी को गड़प कर गए।
घड़ी पेट में जाते ही एलार्म बजाने लगी। राजा शेरसिंह के पेट के अन्दर घंटी बजने लगी। उनका पेट फूलकर ढोल हो गया। झटपट वैद्यराज भालू बुलाए गए। उन्होंने शेरसिंह का पेट चीरकर घड़ी निकाली। तब राजा शेरसिंह की जान बची।
ठीक हो जाने के बाद राजा शेरसिंह ने उछलकूद बन्दर को बुलाया। बेचारा बन्दर काँपता हुआ आया। राजा ने उसका कान पकड़कर कहा, ‘‘इस मनहूस घड़ी को जहाँ से लाए हो, वहाँ जाकर रख आओ और कान खोलकर सुन लो, खबरदार अब कोई चोरी की चीज जंगल में मत लाना। तुम्हें मालूम नहीं चोरी की चीज हजम नहीं होती ? नहीं तो क्या मेरा हाजमा इतना खराब है ! यह कहकर वह अपने पेट पर हाथ फेरने लगे।


शेरसिंह का चश्मा



जाड़े के दिन थे। राजा शेरसिंह अपनी गुफा के बाहर बैठे धूप सेंक रहे थे। थोड़ी देर बाद उन्होंने सामने वाली सड़क से किसी को गुजरते हुए देखा। गौर से देखने के बाद उन्होंने पुकारा, ‘‘बेटे चूहेराम, कहाँ जा रहे हो ?’’
‘‘महाराज की जय हो ! लेकिन, मैं चूहेराम नहीं, गोरा खरगोश हूँ। जरा मूँगफली के खेत की ओर जा रहा हूँ।’’
‘‘कोई बात नहीं।’’, राजा शेरसिंह ने कहा, ‘जाओ। खूब मौज करो।’’
थोड़ी देर बाद फिर उधर से कोई गुजरा। शेरसिंह ने उसे पुकारा, ‘‘कहाँ जा रहे हो डम्पी कुत्ते ! आज सुबह-सुबह किसके पीछे लग लिए ?’’
‘‘महाराज की जय हो ! मगर महाराज, मैं डम्पी कुत्ता नहीं, ढेंचू गधा हूँ। जरा नदी किनारे तक जा रहा हूँ।’’
‘‘कोई बात नहीं’’, राजा शेरसिंह ने कहा, ‘‘जाओ। खूब मौज करो।’’
गधा चला गया। वहाँ से थोड़ी देर बाद एक और जानवर गुजरा। शेरसिंह ने इस बार काफी गौर से उसे देखा फिर बोले, ‘‘नीले घोड़े ! कहाँ जा रहे हो ?’’

‘‘महाराज की जय हो ! मगर, क्षमा करें महाराज, मैं नीला घोड़ा नहीं, कुबड़ा ऊँट हूँ। जरा पहाड़ तक घूमने जा रहा हूँ।
‘‘ठीक है, जाओ’’, शेरसिंह ने कहा, ‘‘पहाड़ के पास जाकर जरा अपना कद भी नाप लेना।’’
अपनी बात पर वे थोड़ा मुस्कुराए। ऊँट शरमाता हुआ चला गया।
तभी सामने वाले पेड़ पर कुछ खड़खड़ाहट हुई। पेड़ से उतरकर कोई जानवर उनकी ओर आ रहा था। उन्हें कुछ देर गौर से उसे देखा, फिर बोले, ‘‘आओ गिलहरी रानी ! क्या बात है ? मुझसे कुछ कहना चाहती हो ?’’
‘‘गुड मॉर्निंग सर ! सॉरी, महाराज की जय हो ! महाराज, मैं रानी गिलहरी नहीं, रेड्डी मंकी हूँ। कल रात ही शहर से लौटा हूँ।’’
‘‘कौन रेड्डी ?’’

‘‘पहचाना नहीं महाराज ?...अपने लाली बन्दर को नहीं पहचाना ?’’
‘‘अच्छा तो तू है, लाली ! मगर रेड्डी कब से बन गया ?’’
‘‘महाराज, रेड माने लाल। रेड्डी माने लाली। यह अंग्रेजी है। अब शहरों में यही चलती है ?’’
‘‘शेरसिंह ने कहा, ‘‘तेरी अंग्रेजी सुनकर बहुत खुशी हुई। मगर मेरे आगे अब इसे मत बोलना। इसे सुनकर कानों में न जाने कैसी खुजली मचने लगी।’’
‘‘इसे एलर्जी कहते हैं महाराज !’’
‘‘यह क्या चीज है रे, लाली ?’’

‘‘महाराज ! हमारी त्वचा जिस चीज को पसन्द नहीं करती, उसे अपने तरीके से बता देती है। जैसे कभी आप नाराज होते हैं, तो आपकी आँखें लाल हो जाती हैं। इसी तरह कभी त्वचा भी कभी-कभी नाराज होती है।’’
राजा शेरसिंह ने जम्हाई लेते हुए कहा, ‘‘समझ गया।’’
लाली बन्दर थोड़ा डरते-डरते बोला, ‘‘महाराज, गुस्ताखी माफ हो। आपकी आँखों को क्या हो गया ? सुबह से ही देख रहा हूँ, ये ठीक से काम नहीं कर रही हैं।’’
‘‘उम्र हो गई है। आँखें कमजोर होंगी ही।’’
‘‘महाराज, आप चश्मा लगा लीजिए। उसमें से चीजें साफ नजर आएँगी।’’
‘‘मगर चश्मा इस जंगल में मिलेगा कहाँ ?’’
‘‘मैं इंतजाम कर दूँगा।’’

शेरसिंह उसकी बात पर बहुत खुश हुए। बोले ‘‘जा लाली, जंगल में घूम आ। जितना चाहे फल खा। मौज कर।’’
‘‘थैंक यू !’’ कहकर लाली बन्दर जो उछला तो सीधे पेड़ की डाल पर जा बैठा। फिर एक डाली से दूसरी डाल पर फुर्ती से कूदते हुए वहाँ से गायब हो गया।
 
लाली बन्दर काफी दिनों बाद शहर से जंगल लौटा था। जंगल जैसी मस्ती शहर में कहाँ थी ! वह खुशी से फलदार पेड़ों पर उछल-कूदकर और मीठे-मीठे फल तोड़कर खा रहा था। फल खाते-खाते उसकी नजर दो आदमियों पर पड़ी, जो एक पेड़ के नीचे सुस्ता रहे थे। उनमें से एक आदमी काफी मोटा था। उसकी आँखों पर चश्मा चढ़ा हुआ था। वह ऊँघ रहा था। उसका चश्मा बार-बार उसकी गोद में गिर पड़ता था। वह जितनी बार अपना चश्मा नाक पर लगाता, चश्मा उतनी बार गिर पड़ता।
लाली को शरारत सूझी। उसने उन दोनों के पास पहुँचकर अचानक जोरदार घुड़की दी ! लाली बन्दर की घुड़की सुनकर दोनो ही घबरा गए। वे भाग खड़े हुए। मोटा आदमी अपना चश्मा छोड़कर भागा। लाली का हँसते-हँसते बुरा हाल हो गया।

मैदान साफ देखकर लाली ने गिरा हुआ चश्मा उठा लिया और उसे लेकर राजा शेरसिंह के पास जा पहुँचा। राजा शेरसिंह अपनी गुफा के बाहर बैठे धूप सेंक रहे थे। लाली बन्दर को आता देखकर बोले, ‘‘आओ गिल्लू गिलहरी, क्या हाल है ? लाली बन्दर ने तुम्हें सताया तो नहीं ? वह कल ही शहर से लौटा है।’’
‘‘महाराज, गुस्ताखी माफ। मैं लाली बन्दर ही खड़ा हूँ, गिल्लू गिलहरी नहीं। मैं भला गिल्लू गिलहरी को क्यों परेशान करूँगा ? खैर अपनी आँखें बन्द कीजिए, देखिए मैं क्या लाया हूँ।’’
राजा शेरसिंह ने अपनी आँखों से घूरते हुए लाली बन्दर की ओर देखा। बोले, ‘‘जब मैं अपनी ही बन्द कर लूँगा तो देखूँगा क्या ? मगर तुम कहते हो तो मैं आँखें बन्द कर लेता हूँ।’’
लाली बन्दर ने लपककर राजा शेरसिंह को चश्मा पहना दिया। राजा शेरसिंह ने अपनी आँखें खोलीं। उन्हें उस चश्मे से साफ नजर नहीं आया। उन्हें सब धुँधला-धुँधला ही लगा।
वे बोले, ‘‘अरे लाली, लगता है जैसे तू कोहरे में खड़ा है। अभी-अभी तो धूप थी, यह कोहरा कहाँ से आ गया ?’’
लाली मुँह बिचकाकर बोला, ‘‘मैं कोहरे में नहीं खड़ा हूँ, धूप में ही हूँ। लगता है आपको यह चश्मा ही फिट नहीं आया।’’
‘‘फिट यह क्या चीज है ?’’ राजा शेरसिंह ने पूछा।

‘‘मतलब यह कि चश्मा आपके लिए बेकार है।’’
‘‘अब वही चश्मा लाना लाली, जो मुझे फिट बैठे। नहीं तो समझ लेना...’’
राजा शेरसिंह को गुस्से में देखकर लाली बन्दर के पसीने छूटने लगे। वह वहाँ से भाग खड़ा हुआ।
शेरसिंह ने दहाड़ते हुए कहा, ‘‘चश्मा जल्दी से लाना लाली ! कहीं भाग मत जाना !’’
लाली बन्दर के लिए यह बड़ी मुसीबत हो गई। उसने मन ही मन कहा-अब भुगतो लाली !
मगर लाली को ज्यादा देर भुगतना नहीं पड़ा।
कुछ दिनों के बाद लाली बन्दर को जंगल में एक पिकनिक पार्टी दिखाई पड़ गई। उसने देखा कि उस पार्टी के कई लोगों की आँखों में चश्मे थे। लाली बन्दर ने गिना एक दो तीन....कुल पन्द्रह चश्मे थे। मगर इनमें से किसका चश्मा राजा शेरसिंह को फिट बैठेगा ? अगर इस बार भी चश्मा फिट नहीं बैठा तो लाली की जान की खैर नहीं थी। लाली बन्दर चिंता में पड़ गया।

फिर उसे एक बात सूझी। क्यों न राजा शेरसिंह को ही यहाँ ले आया जाए। वे खुद ही देख लेंगे। जो चश्मा फिट बैठेगा, वह उनका।’’
वह पेड़ों पर फुर्ती से कूदता हुआ राजा शेरसिंह के पास जा पहुँचा। शेरसिंह अपनी गुफा में लेटे हुए थे। लाली बन्दर ने उनको सब कुछ बताकर अपने साथ झटपट चलने के लिए कहा। पहले तो राजा शेरसिंह ने वहाँ जाने में आनाकानी की, फिर लाली बन्दर के साथ चल पड़े।
लाली बन्दर ने जंगल के कुछ और जानवरों को अपने साथ ले लिया। जल्दी ही वे पिकनिक पार्टी के पास पहुँच गए। लाली बन्दर के इशारा करते ही सभी जानवरों ने पिकनिक पार्टी को चारों तरफ से घेर लिया।
अपने को चारों तरफ से इस तरह जानवरों से घिरा देखकर पिकनिक में आए लोगों के हाथ-पाँव फूल गए। लाली ने उन सबको इशारे से समझाया कि घबराने की जरूरत नहीं। बस, सब चुपचाप बैठ जाएँ।
राजा शेरसिंह एक ऊँची जगह चुनकर बैठ गए। रोब जमाने के लिए उन्होंने एक जोरदार दहाड़ मारी।
दहाड़ क्या थी, जैसे दीवाली का बम था। कुछ लोग घबराकर गिर पड़े। कुछ थरथर काँपने लगे। किसी की टोपी जमीन पर गिर पड़ी तो किसी का चश्मा उन्हें उठाने की हिम्मत भी नहीं पड़ी।

लाली बन्दर ने अपना काम शुरू किया। वह पहले गिरे हुए चश्मे को उठाकर उसे झाड़-पोंछकर राजा शेरसिंह के पास ले गया। राजा शेरसिंह ने पहली बार की तरह इस बार अपनी आँखें बन्द नहीं कीं। उन्होंने आँखें खोले ही उसे पहन लिया। मगर कोई फायदा नहीं। पिछले चश्मे की तरह ही इस चश्मे से उन्हें धुँधला ही नजर आ रहा था। उन्हें लग रहा था कि सब कोहरे में खड़े हैं। उन्होंने चश्मा फेंक दिया। अब लाली बन्दर सभी की आँखों से चश्मा उतारकर राजा शेरसिंह को पहनाने लगा। इनकार करने की हिम्मत किसी में नहीं थी। लाली बन्दर ने जिससे चश्मा माँगा, उसी ने उतारकर उसे दे दिया। उतारते-पहनते, पहनते-उतारते आखिरकार एक ऐसा चश्मा निकल ही आया, जिसे पहनकर राजा शेरसिंह को सब कुछ नजर आने लगा। अब कहीं कोहरा नहीं था। उन्हें दूर की चीजें साफ नजर आने लगीं। मतलब यह कि चश्मा उन्हें फिट बैठ गया था।

राजा शेरसिंह खुशी से दहाड़कर बोले, ‘‘फिट ?’’
‘‘फिट !’ वहाँ खड़े सभी जानवर चिल्लाकर ताली बजाने लगे। फिट है...फिट है !’’ के शोर से पूरा जंगल काँप उठा।
राजा शेरसिंह ने खुशी से लाली बन्दर को गले लगाने के लिए अपने हाथों को फैलाया। मगर राजा शेरसिंह की मोटी-मोटी बाँहों को देखकर लाली बन्दर घबराकर पेड़ पर चढ़ गया।
उसे इस तरह घबराया हुआ देखकर सभी हँसने लगे।

 

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