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बाघ

केदारनाथ सिंह

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 1998
पृष्ठ :64
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5637
आईएसबीएन :00000000

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प्रस्तुत हैं केदारनाथ की लम्बी कविताएं...

Bagh a hindi book by Kedarnath Singh - बाघ - केदारनाथ सिंह

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


नयी हिन्दी कविता के वरिष्ठ कवि केदार नाथ सिंह की ‘बाघ’ कविता का पुस्तकाकार प्रकाशन पहली बार हो रहा है। इससे पहले इसका एक बड़ा हिस्सा न सिर्फ़ छप चुका है बल्कि पाठकों के बीच पर्याप्त चर्चित भी रहा है। यहां उसका जो पाठ प्रकाशित हो रहा है, वह पहले से भिन्न है।
इस प्रदीर्घ कविता के केंद्र में बाघ है, पर पाठक देखेंगे कि सिर्फ़ बाघ नहीं है। आज का मनुष्य बाघ की प्रत्यक्ष वास्तविकता से इतना दूर आ गया है कि बाघ उसके लिए हवा-पानी की तरह एक प्राकृतिक सत्ता भी है, जिसके साथ हमारे होने का भवितव्य जुड़ा हुआ है। कविता में बाघ को इन दोनों ही स्तरों पर और दोनों ही रूपों में देखा जा सकता है।

‘बाघ’ कविता के हर टुकड़े में बाघ चाहे एक अलग इकाई के रूप में दिखाई पड़ता हो, पर अंततः सारे चित्र एक दीर्घ सामूहिक ध्वनि-रूपक में समाहित हो जाते हैं। कविता जिस बड़े फलक पर आकार लेती है, उसमें देश और काल के की दिक् और कई आयाम घुले-मिले हैं। परन्तु एक साथ अनेक दिशाओं में संक्रमित होनेवाली इस कविता की ठोस भूमि पर इस ढलती हुई शताब्दी का वह बिन्दु है, जहाँ उसमें घिरे हुए जीवन की कुछ चुप्पियाँ और कुछ आवाजें साफ़ सुनाई पड़ेंगी-कई बार अलग-अलग और कई बार एक ही जगह और एक ही पंक्ति में।


बाघ के बारे में



बाघ का लिखना कब शुरू हुआ-ठीक-ठाक याद नहीं। याद है केवल इतना कि नवें दशक के शुरू में कभी हंगरी भाषा के कवि यानोश पिलिंस्की की एक कविता पढ़ी थी और उस कविता में अभिव्यक्ति की जो एक नई सम्भावना दिखी थी, उसने मेरे मन में पंचतन्त्र को फिर से पढ़ने की इच्छा पैदा कर दी थी। उस कविता में जो एक पशुलोक था-बल्कि एक भोली-भाली पशुगाथा-मुझे लगा कि पंचतन्त्र में उसका एक बहुत पुराना और अधिक आत्मीय रूप पहले से मौजूद है। पंचतन्त्र की संरचना की अपनी कुछ ऐसी खूबियाँ हैं, जो सतह पर जितनी सरल दिखती हैं, वस्तुतः वे उतनी सरल हैं नहीं। हर कालजयी कृति की तरह पंचतन्त्र का ढाँचा भी अपनी आपात सरलता में अननुकरणीय है। पर मुझे लगा कि पंचतन्त्र एक ऐसी कृति है जो एक समकालीन रचनाकार के लिए जितनी चाहे बड़ी चुनौती हो, पर ज़रा-सा रुककर सोचने पर वह सृजनात्मक संभावना की बहुत सी नई और लगभग अनुद्घाटित पर्तें खोलती-सी जान पड़ेगी। मुझे यह भी लगा कि एक बार यदि उस ढाँचे की कार्यकारण-बद्ध श्रृंखला को थोड़ा ढ़ीला कर दिया जाए तो इस संभावना को कई गुना बढ़ाया जा सकता है। वस्तुतः सृजनात्मक सत्य के इसी नए साक्षात्कार में बाघ का जन्म हुआ था- लगभग आड़ी-तिरछी रेखाओं के बीच घिरे एक शिशु की क्रीड़ा की तरह।

पंचतन्त्र के गुंफित ढाँचे से निकलकर पहली बार जब बाघ का बिंब मेरे मन में कौंधा था, तब यह बिल्कुल स्पष्ट नहीं था कि वह एक लम्बी काव्य-श्रृंखला का बीज-बिंब बन सकता है। वस्तुतः पहले टुकड़े में लिखे जाने के बाद यह पहली बार लगा कि इस क्रम को और आगे बढ़ाया जा सकता है। फिर तो एक खण्ड के किसी आंतरिक दबाव से दूसरा खंड जैसे अपने आप बनता गया। कथात्मक ढाँचे की इस स्वतः स्फूर्त प्रजननशीलता से यह मेरा प्रथम काव्यात्मक साक्षात्कार था।

आज का मनुष्य बाघ की प्रत्यक्ष वास्तविकता से इतनी दूर आ गया है कि जाने-अनजाने बाघ उसके लिए एक मिथकीय सत्ता में बदल गया है। पर इस मिथकीय सत्ता के बाहर बाघ हमारे लिए आज भी हवा-पानी की तरह प्राकृतिक सत्ता है, जिसके होने साथ हमारे अपने होने का भवितव्य जुड़ा हुआ है। इस प्राकृतिक बाघ के साथ उसकी सारी दुर्लबता के बावजूद-मनुष्य का एक ज़्यादा गहरा रिश्ता है, जो अपने भौतिक रूप में जितना आदिम है, मिथकीय रूप में उतना ही समकालीन।

इस पूरी काव्य-श्रृंखला में मेरी एक कोशिश लगातार यह रही है कि बाघ को किसी एक बिन्दु पर इस तरह कीलित न किया जाए कि वह अपनी ऐंद्रिक मूर्तिमत्ता को छोड़कर किसी एक विशेष प्रतीक में बदल जाए। इसलिए श्रृंखला की हर एक कड़ी में हर बार बाघ एक नए की तरह आता है-और लगभग हर बार अपने बाघपन के एक नए अनुषंग के साथ। इस कोशिश में मैं कहाँ तक सफल हुआ-या फिर नहीं हुआ-इसके बारे में मैं कुछ नहीं कह सकता। कविता के बारहवें खण्ड में जो कवि त्रिलोचन का सन्दर्भ आया है, उसका आना एकदम आकस्मिक था। पर बाद में लगा-और एक पाठक ने जब पत्र लिखा तो इसकी और भी पुष्टि हुई-कि यह कविता के मिथक लोक में समकालीन संदर्भ का एक अचानक हस्तक्षेप था जो बिना किसी योजना के चुपचाप आ गया था।

‘बाघ’ के जो अंश पत्र-पत्रिकाओं में पहले प्रकाशित हुए थे, प्रस्तुत पाठ उससे भिन्न है। अंतिम रूप में पाण्डुलिपि तैयार करते समय कविता में कुछ और खंड जोड़ दिए गए हैं। अब जो कविता पहली बार यहाँ पुस्तकाकार छप रही है, वह कुल इक्कीस छोटे बड़े खंडों से मिलकर बनी है। हर कृति का अंतिम आकार अंततः एक चुपचाप रचनात्मक समझौते का परिणाम होता है और बाघ के ये इक्कीस खंड भी इसका अपवाद नहीं है। फिलहाल ‘बाघ’ के बारे में इससे अधिक कहने के लिए मेरे पास कुछ नहीं है। अंत में मैं भारतीय ज्ञानपीठ के प्रति आभार व्यक्त करना चाहता हूँ कि उसने इस पुस्तक को इतनी सुरूची और तत्परता के साथ प्रकाशित किया।

आमुख


बिंब नहीं
प्रतीक नहीं
तार नहीं
हरकारा नहीं
मैं ही कहूँगा

क्योंकि मैं ही
सिर्फ़ मैं ही जानता हूँ
मेरी पीठ पर
मेरे समय के पंजो के
कितने निशान हैं

कि कितने अभिन्न हैं
मेरे समय के पंजे
मेरे नाख़ूनों की चमक से

कि मेरी आत्मा में जो मेरी ख़ुशी है
असल में वही है
मेरे घुटनों में दर्द

तलवों में जो जलन
मस्तिष्क में वही
विचारों की धमक

कि इस समय मेरी जिह्वा
पर जो एक विराट् झूठ है
वही है--वही है मेरी सदी का
सब से बड़ा सच !

यह लो मेरा हाथ
इसे तुम्हें देता हूँ
और अपने पास रखता हूँ
अपने होठों की
थरथराहट.....

एक कवि को
और क्या चाहिए !


दो


आज सुबह के अख़बार में
एक छोटी-सी ख़बर थी
कि पिछली रात शहर में
आया था बाघ !
किसी ने उसे देखा नहीं
अँधेरे में सुनी नहीं किसी ने
उसके चलने की आवाज़
गिरी नहीं थी किसी भी सड़क पर
ख़ून की छोटी-सी एक बूँद भी
पर सबको विश्वास है
कि सुबह के अख़बार मनें छपी हुई ख़बर
ग़लत नहीं हो सकती
कि ज़रूर-ज़रूर पिछली रात शहर में
आया था बाघ

सचाई यह है कि हम शक नहीं कर सकते
बाघ के आने पर
मौसम जैसा है
और हवा जैसी बह रही है
उसमें कभी भी और कहीं भी
आ सकता है बाघ
पर सवल यह है
कि आख़िर इतने दिनों बाद
इस इतने बड़े शहर में
क्यों आया था बाघ ?

क्या वह भूखा था ?
बीमार था ?
क्या शहर के बारे में
बदल गए हैं उसके विचार ?

यह कितना अजीब है
कि वह आया
उसने पूरे शहर को
एक गहरे तिरस्कार
और घृणा से देखा

और जो चीज़ जहाँ थी
उसे वहीं छोड़कर
चुप और विरक्त
चला गया बहार !

सुबह की धूप में
अपनी-अपनी चौखट पर
सब चुप हैं
पर मैं सुन रहा हूँ
कि सब बोल रहे हैं

पैरों से पूछ रहे हैं जूते
गरदन से पूछ रहे हैं बाल
नखों से पूछ रहे हैं कंधे
बदन से पूछ रही है खाल
कि कब आएगा
फिर कब आएगा बाघ ?


तीन


कथाओं से भरे इस देश में
मैं भी एक कथा हूँ
एक कथा है बाघ भी
इसलिए कई बार
जब उसे छिपने को नहीं मिलती
कोई ठीक-ठाक जगह
तो वह धीरे से उठता है
और जाकर बैठ जाता है
किसी कथा की ओट में

फिर चाहे जितना ढूँढ़ो
चाहे छान डालो जंगल की पत्ती-पत्ती
वह कहीं मिलता ही नहीं है
बेचारा भैंसा
साँझ से सुबह तक
चुपचाप बँधा रहता है
एक पतली-सी जल की रस्सी के सहारे
और बाघ है कि उसे प्यास लगती ही नहीं
कि वह आता ही नहीं है
कई कई दिनों तक
जल में छूटू हुई
अपनी लंबी शानदार परछाईं को देखने

और जब राजा आता है
और जंगल में पड़ता है हाँका
और तान ली जाती हैं सारी बँदूकें
उस तरफ़
जिधर हो सकता है बाघ
तो यह सचाई है
कि उस समय बाघ
यहाँ होता है न वहाँ
वह अपने शिकार का ख़ून
पी चुकने के बाद
आराम से बैठा होता है
किसी कथा की ओट में !


चार


इस विशाल देश के
धुर उत्तर में
एक छोटा-सा खँडहर है
किसी प्राचीन नगर का
जहाँ उसके वैभव के दिनों में
कभी-कभी आते थे बुद्ध
कभी-कभी आ जाता था
बाघ भी

दोनों अलग-अलग आते थे
अगर बुद्ध आते थे पूरब से
तो बाघ क्या
कभी वह पश्चिम से आ जाता था
कभी किसी ऐसी गुमनाम दिशा से
जिसका किसी को
आभास तक नहीं होता था

पर कभी-कभी दोनों का
हो जाता था सामना
फिर बाघ आँख उठा
देखता था बुद्ध को
और बुद्ध सिर झुका
बढ़ जाते थे आगे

इस तरह चलता रहा

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