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श्रंगार - प्रेम >> प्रेम अनंत

प्रेम अनंत

श्याम विमल

प्रकाशक : किताबघर प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :370
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5632
आईएसबीएन :9788189859435

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प्रेम अनंत

Prem Anant

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

लेखक-पात्र-पाठक को समक्ष रखकर एक त्रिभंगिमा बनती है इस तिहरे उपन्यास में।
एक नायक के जीवन में तीन नायिकाएँ विभिन्न नाक-काम-धाम-रूपों में देखी पहचानी जाएँ, किंतु वस्तु केंद्र में ये एक ही देह के तीन मन हो जाते हैं और एक ही मन की तीन देहें भी। प्रेम इन तीनों के प्रति अनंत पुरुष में प्राणत्व-सा व्याप्त है।

‘सिन्धु’ सागर की तरह उन्मुक्त और लावण्यमय है तो ‘रीति’ भीतर से रीती-रीती सी महसूस होती है, जबकि ‘रुचि’ ? वह पसंद से जुड़ी है तो बेरुखी से भी। इन तीन तरह के स्त्री-पात्रों का निमित्त बना हुआ ‘अनंत’ कथा-लेखक है, जो अपने तौर पर द्विधा भाव में रहना-जीना चाहता है, किंतु उसे मात्र लेखक के खेल में विद्यमान अपनी कमजोरियों के साथ जुड़े मनुष्य के तौर से अनपेक्षित मान लिया जाता है।

लेखक को सृष्टा सा अकेला क्यों मान लिया जाता है ?

यदि हर स्त्री-पुरुष लेखक के अथवा इसके उलट पुरुष पात्र स्त्री-लेखिका से अपेक्षा रखे कि वह स्रष्टा होने तक सीमित रहे, अपनी ऐन्द्रिय इच्छाओं को न परोसे, पात्रों की निजी ज़िन्दगी में प्रवेश न करे, खुद को न प्रस्तावित करे, तो रचना प्रेमिल और प्रभावी कैसे हो पाएगी ?

लेखक में ही तो अकांक्षाएँ-इच्छाएँ-अपेक्षाएँ या सपने लिए हुए अनर्गल पात्र प्रादुर्भूत होते हैं, प्रतिरूपित होते हैं। खलबली करते हैं। एक तरह से स्रष्टा-लेखक के भीतर अनंत पात्रों के जीवाणु सक्रिय होते रहते हैं।

‘एकोऽहं बहु स्याम्’—ऐसे नहीं चाहा होगा आदि अकेले स्रष्टा ने ! स्रष्टा-रचयिता-लेखक-कलाकार-रंगकर्मी जैसी सभी विभूतियाँ एक ही रूप के सहस्र नाम हैं।

‘ढाई आखर प्रेम के पढ़ै सो पंडित होय !’ यहाँ नायक अनंत कितने पांडित्य में है यह जाँच इस उपन्यास को पढ़कर सामने आएगी-फलित होगी।


‘प्रेम न माटी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय’

प्रिय पात्रों को जो स्मृतियों में सोए थे और शब्दों में अक्षरशः- जागे हैं

पहला प्रेम


जब कभी तुम्हारे
कमरे की खिड़की में से झाँकते आकाश पर
भटकता कोई मेघखंड आ टिके
तो अपनी आँख में आँसू भर उसे
देख लेना तुम
क्योंकि वह मेरी तरह है
-मैं तुम्हारी आँखों से आँसू चुरा जाऊँगा।

जब कभी हवा का बहका-बहका झोंका
तुम्हारे बालों से खेलता हुआ
तुम्हें परेशान कर दे
तो मुझे याद कर लेना
क्योंकि तुम्हारे बालों से खेलना मुझे पसंद था
-मैं तुम्हारे बालों की महक सूँघ जाऊँगा।

जब कभी तुम्हारे देश की
उन वीरान घाटियों में भटकता हुआ
रात का पंक्षी पूँछता फिरे-
‘तू कहाँ---तू कहाँ---’
तो तुम्हारे देवदार
यूँ न कंधे लटकाकर चुप खड़े रहें
उन्हें कह रखो कि वे
बाँहें फैलाकर उन्हें आश्रय दें
क्योंकि वह मेरी तरह थका होगा
-मैं तुम्हारी देवदारों-सी रोमाँचित बाँहों में सो जाऊँगा।

शिमला स्टेशन से,
25 मई...

प्रिय विवेक और प्राण

शिमला में पहुँच चुका हूँ। शिमला ! –यूँ कि नाम लेते हुए कुल्फी का सा ठंडा-ठंडा स्वाद चख लिया हो। बीसियों चोटियों और देवदारों तथा चीड़ के हज़ारों पेड़ों वाला यह इलाक़ा, जहाँ पर मैं बैठा हूँ, मेरी आँखों के सामने-रेलवे स्टेशन है यह, नन्ही-सी लाइन पर नन्ही-सी गाड़ी अभी सामने नहीं है, बस आने वाली है...लो, गाड़ी, ने आकर सामने के दृश्य को ढांप दिया है।
अब थोड़ी पिछली बातें।

बाइस की सुबह इस स्टेशन पर कदम रखा था। कुली को सामान देकर भेज दिया था और मैं पैरों ही पैरों माल से होता हुआ चार मील की थकान लिए ‘घर’ पहुँचा था।...यह भी नहीं लिखता। तो क्या लिखूँ ? तुम लोग जो चाहते थे, मुझसे, वह अभी नहीं घट पाया। ज़रूरी है क्या कि शिमला आने वाले प्यार ही की खोज किया करें ? लेकिन मेरी आदत-? मैं उपन्यासकार हूँ, यह किसी के लिए काफ़ी नहीं; जबकि एक ऐसे उपन्यास का लेखक होना, जो बोर करे, तो उससे क्या आशा की जा सकती है ?
खैर, संभवतः कल से कुछ नया लिखने लगूँ !

...गाड़ी जा चुकी है। मैं एक बुकस्टाल पर जाने लगा हूँ।...अरे, यह मैं क्या देख रहा हूँ ? बुकस्टाल पर मेरा उपन्यास, ‘दो जीवन : एक स्वप्न’ ! अरे, इसे तो एक लड़की देख-पलट रही है ! बात करके देखूँ इससे ? बात करता हूँ, जो होगी लिख भेजूँगा, अभी डाक निकलने वाली है न ! इतना ही पोस्ट करता हूँ।

तुम्हारा अनंत

शिमला स्टेशन से ही,
25 मई ही : 4 बजे सायं

प्रिय विवेक,
अभी कुछ देर पहले एक पत्र पोस्ट कर चुका हूँ तुम्हें। मेरे उपन्यास को एक लड़की देख रही थी न ! और मैंने चाहा था उससे बात करना, तो सुनो-
तो मैं बुकस्टाल पर जाकर रुक गया। चाहा, बात ही बात में कहूँ, ‘यह उपन्यास आप मत खरीदिए---निराश होंगी।’ ऐसा कहकर यह भी तो नहीं चाहता था कि वह उसे खरीदे ही नहीं। तो क्या करूँ ? देखो न, एक उपन्यासकार को भी बात करने का सलीका सोचना पड़ रहा है। बुद्धूपन की बात की मैंने, ‘‘यह उपन्यास आप को पसन्द है ?’’
समझो कि जब उसने उपन्यास पढ़ा ही नहीं, तो कैसे उसकी पसंद-नापसंद की राय बन सकती है ? पहले तो वह मेरी ओर घूरने लगी। नीचे से ऊपर तक मैं देखा गया। मैंने महसूस किया कि मेरी काली कमीज़ व हरी पैंट का प्रभाव अच्छा नहीं पड़ा उस पर, फिर भी मैं दाँत फाड़े अपने प्रश्न का उत्तर चाह रहा था। तुरंत मैंने अपनी ग़लती समझी, फिर एक और मूर्खता (मूर्खता इसलिए कि जल्दी में अपना सुपरिचय दे डाला) कर दी, ‘‘क्षमा कीजिए, मैं इसलिए पूछ रहा था कि मेरा नाम अनंत है। मैं ही इस नाचीज़ उपन्यास का लेखक हूँ।’’

‘‘मुझे भी क्षमा कीजिए...मैं आपको नहीं जानती कि आप ही इस उपन्यास के लेखक हैं। मैं यह इसलिए नहीं खरीद रही कि मुझे पढ़ना है, मैं इसे बड़ी सिस्टर के लिए खरीद रही हूँ। मुझे हिन्दी के नावेल में कोई इंट्रेस्ट नहीं। कह दूँगी उनसे कि मुझे श्रीमान् लेखक मिले थे, धन्यवाद !’’ कहकर वह उपन्यास की कीमत चुकाने लगी स्टॉल वाले को। मैं टला नहीं, ‘‘धन्यवाद तो मुझे कहना चाहिए, जो आपने इतनी भी बात करने का चाँस मुझे दिया...आइए एक-एक कप चाय हो जाए।’’ पास ही चाय का स्टॉल था, इसलिए शायद मुझे याद आ गया चाय का पूछना।
‘‘नो, थैंक्स !’’ कहकर कर वह गर्दन-इधर-उधर घुमाकर किसी को खोजने लगी। उसके मुँह से यह वाकोच्चार हो रहा था, न जाने कहाँ मर गया यह बंशी !’’

मुझे लगा, जैसे मुझे पिटवाने का बंदोबस्त किया जा रहा है। मैं भी ढीठ हो गया। कम से कम नए उपन्यास के लिए मैटर तो मिलेगा। लज्जा तो आनी-जानी है। ढीठ होना कभी-कभी सुफल भी बना देता है। ‘बंशी के मरने’ के सूचक वाक्योच्चार को याद करते हुए बोला, ‘‘उस बेचारे को क्या मरा समझ रही हैं ? कुछ बात हो तो मुझे बता दीजिए !’’
मेरा यह कथन और रंग लाया। खीज़ व मज़ाकिया ‘टोन’ में वह बोली, तो सुनो मेरे भाई, क्या कहा है उसने। कहा, ‘‘बैग उठवाना था। बंशी हमारा नौकर है। आप उठवाएँगे क्या इसे ?’’
लड़की है कि तूफ़ान ! मैं सकते में था। सुन रखा था प्यार पाने को हीरो घोड़ा-गधा भी बन जाया करते हैं। कुछ आत्मग्लानि तो हुई। आख़िर उपन्यासकार ठहरा और यह है कि मुझे नौकर बनाने में लिहाज़ नहीं कर रही।
‘‘चलिए, मैं कुली करा देता हूँ।’’ मैंने कहा।
‘‘बस-बस धन्यवाद’, बंशी आ रहा है।’’ और वह ऊँची गर्दन करके खुली आँखों से दूर आ रहे बंशी को पहचानने लगी। सुसरी की आँखें हैं कि कटारियाँ ! बंशी आ गया था। हल्की-सी डाँट उस पर पड़ी। सकपकाकर उस पीले कुर्ते व सफेद धोती वाले दुबले-से बंशी ने बैग उठा लिया।
‘‘नमस्ते, मिस्टर लेखक !’’ व्यंग्य मुद्रा में बिना हाथ जोड़े, चलते-चलते उसका यह कहना मेरे लिए अप्रत्याशित तो न था, पर इसे लेखक-मन-अपमान समझे बिना न रहा। तुरंत ही मैंने कह डाला, ‘‘इस थोड़े वक्त की कम्पनी में आपको जो कष्ट दिया उसके लिए क्षमा, और देखिए...आप जैसी सुंदरी से ऐसे व्यवहार की आशा मुझे न थी। मेरी भी नमस्ते !’’
चलते-चलते अचानक वह रुकी, जबकि मैं लौटने के लिए क़दम बढ़ा चुका था, तो एकदम बदली हुई वाणी में बोली, ‘‘सुनिए...आप...आप कहाँ ठहरे हुए हैं ?’’

जवाब देने के लिए मुझे रुकना पड़ा। चाहता तो बिना अधिकार पाए मैं रूठ सकता था। झूठ भी बोल सकता था, पर सच ही बोल दिया, ‘‘छोटा शिमला में।’’
‘‘छोटा शिमला में भी आख़िर कहाँ ? पता तो दें। आप बड़े दिलचस्प मालूम देते हैं।’’
ये मारा बाण ! परंतु मुझ पर अब तक लेखकपन का कवच था, सो जख़्मी नहीं हुआ, ‘‘तारीफ के लिए धन्यवाद ! आज शाम को अगर रिज पर मिलें, तो पता बता दूँगा।...अब जाइए, आपको देर हो रही होगी।’’
‘‘कितने बजे ?’’
‘‘ठीक सात बजे।’’
‘‘ओ.को.।’’

तो भाई मेरे, यह तो हुई न चार बजे की बात। सात बजे मिलने का समय देकर अब मुझमें शर्मीलापन आ गया है। कैसे बात करूँगा ? बात क्या करूँगा ? जेब भी हल्कती करनी पड़ सकती है। लेखक मैं नहीं हो सकता। मैं तो मात्र अनंत हूँ, मामूली-सी आदमी। अपने चिंतनों को पीने वाला। सिगरेट ली और प्लेटफॉर्म पर ही पीता घूमता रहा, ताकि यह लड़की आसानी से उस तरफ़ चली जाए, जिस तरफ मैंने घंटा-भर बाद चलने की ठानी थी। क्योंकि जाने का मार्ग एक था, सो यहीं बैठकर इस समय को काटने के लिए यह दूसरा पत्र लिखा है। पोस्ट करता हूँ और यदि शाम को कोई बात बनी, तो तीसरा पत्र प्राणनाथ के पते पर भेजूँगा, ताकि वह बुरा न माने। पढ़ लेना, अच्छा !

-अनंत

छोटा शिमला से,
25 मई रात

प्रिय प्राण नाथ,
क्या नाम पाया है तूने यार ! क्या कभी भाभी ने इस नाम से पुकारा है तुझे ? खैर, यह तीसरा पत्र भी आज ही लिख रहा हूँ। यदि मैं अध्यापक न होकर प्रेस-रिपोर्टर होता, तो कितना कामयाब रहता जीवन में !...क्या करूँ ? बात आ ही ऐसी पड़ी है कि ताज़ा लिखकर हल्का होना चाहता हूँ। आज शाम दूसरा पत्र भी विवेक के पते पर भेजा था। यह पत्र तुझे भेज रहा हूँ। तीनों पत्र मिल-मिलाकर पढ़ लेना। तो सुनो आज शाम की बात भी-

विश्वास तो नहीं हो पा रहा था कि शाम को मिलने की बात कहकर सचमुच वह आएगी। दूसरा पत्र पोस्ट करने के बाद मैं स्टेशन से धीरे-धीरे लौट लिया था। उतावलापन भी था। शर्म भी आ टपकी थी मुझमें, तो मन में निर्णय लिया, मिलना ही चाहिए। सात की बजाए साढ़े छह बजे ही मैं रिज पर पहुँचा। मन में यह था कि ऐसा उपन्यास लिखना है, जिसे साधारण आदमी पढ़ सके। उसमें पहले वाले उपन्यास का सा दर्शन का घोटाला न हो, बल्कि-प्रेम कथा हो, तो मैं क्या करूँ ? नए उपन्यास के लिए प्रेम का अनुभव कर लूँ ? छोड़ दूँ इस लड़की से मिलने का विचार ? ओढ़ लूँ पर दर्शन का लौह कवच और घिर जाऊँ एकान्त की दीवारों में ?...यूँ मैं सोचता भी रहा और मेरा शरीर रिज पर चक्कर लगा रहा था।
इतने में पीछे मुड़ कर देखता हूँ, लक्कड़ मंडी की तरफ से वह चली आ रही है। मैं, पता नहीं क्यों, झट से किनारे सरक गया, फिर ऊँची-ऊँची सीढ़ीदार बेंचों के पीछे हो लिया। देखता भी रहा कि वह किधर जाती है। घड़ी देखी, सात बजने में नौ मिनट अभी भी थे, तो जाऊँ ?...नहीं, अभी नहीं। इसे बैठने दिया जाए, तब। वह इधर-उधर ताकती हुई मर्दाने तरफ की बेंच पर जा बैठी।

मैं बेंचों के पीछे से निकलकर ऐसी जगह जा ठहरा, जहाँ से मुझे वह नहीं देख सकती थी। मेरे निकट खड़े एक व्यक्ति के हाथ में ट्रांजिस्टर था-‘लगता नहीं है दिल मेरा उजड़े दयार में’ मैं इसी गीत को सुनने में खो गया। कुछ और गीत भी सुनने को मिले। वह लड़की साढ़े सात तक तो बैठी रही, फिर उठी। इधर-उधर देखकर सीधे स्कैंडल प्वाइंट की तरफ चल दी। थोड़ी देर उसे देखता रह कर मैं भी पीछे हो लिया। अनेक पौरुष निगाहें उसे घूर रही थीं। ऐसे में किसी सुंदरी को अपना अकेलापन तो अखरता ही होगा। मैंने चाहा, जाकर मिल ही लूँ अब, किंतु दृढ़तापूर्ण ‘नहीं’ ने चाह को ठंडा कर दिया। घूमे जी, माल भी घूम ली, फिर वह वापस हो ली, रिज पार करते हुए लक्कड़ बाज़ार की तरफ़। इसी बाज़ार के शुरू में स्केटिंग हॉल है। लोहे की पहाड़ियों की गड़गड़ाहट में ‘रॉक एंड रोल’ का रिकार्ड बज रहा था। एक-दो फर्लांग चलने पर वह एक चौड़ी पगडंडी से नीचे उतरी। खपरैल की ढलाऊ छत वाले एक कॉटेज में चली गई। दरवाज़ा बंद हो गया। मैंने उसका ठिकाना देख लिया था। साढ़े आठ बजे थे। ठंडी-ठंडी हवा चल रही थी। छितराई-सी सैलानियों की भीड़ में से होता हुआ मैं ‘घर’ लौट आया हूँ।

मेरा इस लौटने को तुम लोग क्या कहोगे ? ‘घर के बुद्धू घर को आए’, यही न ! मैं भी यही सोच रहा हूँ। ख़ैर, ग्यारह बजने जा रहे हैं। अब लेटूँ ? नींद तो भला क्या आएगी ! कल की कल देखी जाएगी।
भाभी को प्रणाम। मेरा पत्र न पढ़ा देना उन्हें, समझे ?

-तेरा अनंत

-छोटा शिमला से, 26 मई, रात


मित्रों ! क्या तुम लोगों को विश्वास हो रहा होगा ? तुम्हारे कहने का कि मैं शिमला पहुँचकर कुछ न कुछ लिखूँ, चाहे झूठ, चाहे सच, चाहे कल्पना, चाहे यथार्थ। पालन तो कर रहा हूँ अथवा लिखने को मजबूर हो गया हूँ, क्योंकि ‘मैटर’ पा लिया है। कैसे बताऊँ कि यह सच है, जबकि अन्न-जल के आकर्षण से खींच लिया जाऊँगा दिल्ली की गर्मी में, तुम लोगों के बीच, कभी चाय पीते, सिगरेट पीते, कभी कविता करते-सुनते या और-और बातें करते, जो सिर्फ़ हमारी होती हैं। तो क्या समझूँगा नहीं कि शिमला एक स्वप्नलोक था और स्वप्न असत्य होते हुए भी दिल पर असर कर ही देते हैं ? और फिर यह स्वप्न-सा सत्य, कल्पना-सा यथार्थ, कौन विश्वास करेगा ? मैं ही तो ? तो सुनो-

आज शाम पाँच बजे लक्कड़ बाज़ार होता हुआ उसके घर तक पहुँचा। साहस न हुआ घर के भीतर जाने का मिलने का। साहस करता भी कैसे, जबकि मैंने कल न मिलकर उसे धोखा दिया था। उसके घर से कुछ पहले ही रास्ते में रखी बेंच पर बैठ गया। मेरा चेहरा दूर घाटियों की तरफ था, किंतु आंख की कोर से देख लेता कि वह इसी रास्ते-आती जाती होगी। यही तो वक़्त होता है बाहर घूमने-निकलने का।
क्या दिल से दिल की राह होती है ? बंधुओं, सचमुच वह आ निकली। इस समय वह सफ़ेद कमीज़, काली सलवार ओढ़नी और काले स्वेटर में थी। मैंने अपना चेहरा घाटी के नज़ारे की तरफ़ किए रखा। वह मुझे लाँघ गई। उसके कुछ दूर जाने पर मैं उसके पीछे हो लिया। मेरे देखते ही वह स्केटिंग हॉल में घुस गई।

बीसेक मिनट मैंने बाहर गुज़ारे। उसके बाद मैं भी दर्शक टिकट खरीदकर सीढ़िया चढ़ हॉल में जा पहुँचा। बजते रिकार्ड पर अंग्रेज़ी धुन, स्केट्स शू की गड़गड़ाहट। हॉल के दो तरफ ऊपर गैलरी में और नीचे भी दर्शक। भीड़ अधिक नहीं थी। मैं ऊपर की दर्शक गैलरी में चला गया। नीचे झाँककर क्या देखता हूँ कि वह भी स्केटिंग कर रही है। दो-तीन और भी लड़कियाँ थीं। सात-आठ लड़के भी। सभी पहियों की बदौलत रेंग रहे थे, तरह-तरह पैंतरें बदलते दौड़ रहे थे। एक-दो सिखंतू धड़ाम से गिरते वहाँ लकड़ी के फर्श पर, तो देखने वालों की हँसी का फव्वारा फूट पड़ता।

मेरा ध्यान तो उसी पर केंद्रित था। क्या बताऊँ दोस्त, क्या कमाल की स्केटिंग कर रही थी ? इतने में देखता क्या हूँ कि वह एक लड़के के साथ हाथ में हाथ डाले स्केटिंग कर रही है ! न जाने क्यों, मुझमें डाह का संचार होने लगा ! अब तो उस लड़के ने उसकी कमर पर अपना हाथ रखा था। एक अंग्रेज़ी गाना बज रहा था—‘आई लव यू एंड यू लव मी’—इस तरह के बोल थे। इस धुन पर वह ‘जोड़ी’ नृत्य-मुद्रा में स्केटिंग करने लगी। ऊपर गैलरी में ठहरे मुझ उल्लू पर उसकी निगाह नहीं पड़ रही थी। अपने आपको दिखलाने-जतलाने के वास्ते मैं तुरंत नीचे आकर रेलिंग पर झुक कर खड़ा हो गया। दो-तीन चक्करों मे उससे मैं नहीं देख गया। अगले चक्कर में जब वह मेरे आगे से गुजरी, तो मैंने सिगरेट का कश खींचकर उस पर धुआँ छोड़ दिया, ‘‘नॉनसेंस’’, एक बारीक़ आवाज़ में सुनाई दिया। फिर एक और चक्कर। लेकिन इस बार मैं देख लिया गया। आश्चर्यजनक मुस्कान झलकाई उसने और निकल गई। लड़का उसको अब भी बाँहों में थामे था। अगले चक्कर में आते-आते उसने लड़के से हाथ छुड़ा लिया और पहियों पर रेंगती हुई मेरी ओर सरक आई। गिरने को हुई कि मैंने हाथ ‘ऑफर’ किया। नहीं लिया और रेलिंग पर टिककर उसने पूछा ‘‘स्केटिंग करेंगे ?’’
‘‘मुझे नहीं आता करना।’’

‘‘बट यू ट्राई।’’
‘‘नो, थैंक्स।’’
इतने में वह लड़का, जो उसे बगल में लिए स्केटिंग कर रहा था, आ रुका। परिचय कराया जाने लगा, ‘‘इनसे मिलिए, नॉवलिस्ट अनंत।’’
हाथ मिलाते हुए उसने कहा, ‘‘आ’यम के.सी. चौधरी।’’
‘‘मेरे स्केटिंग के पार्टनर।’’ उस छोकरी ने विशेषण जड़ दिया, पार्टनर। सचमुच उस वक़्त के लिए मेरे मन में उसके लिए ‘छोकरी’ शब्द ही उचित लग रहा था।
‘‘कम ऑन, यस !’’ लड़के का मुझे स्केटिंग के लिए आमंत्रण।
‘‘मी ?...नो, नॉट एट ऑल, यू प्लीज़ कैरी ऑन, आई विल सी।’’
‘‘रुकिएगा जरूर, आपसे बातें करनी हैं।’’ छोकरी का कथन।
‘‘बहुत अच्छा जी।’’ मेरा जवाब।

तो भाई, खड़े-खड़े देखा किया उन दोनों को हाथ में हाथ थामें, रेंगता, मोड़ पर यूँ झटके से खींच लेता वह चौधरी लड़का उसे कि गिरने के भय से हल्के से चीख़ उठती वह। तभी मुस्कराती आँखों से उसका मुझे देखना, कटारियाँ न कहूँ क्या ? सिगरेट फूँके जा रहा था मैं। कुछ बातें होती उन दोनों में। एक बार मेरा मन किया, क्यों रुका हूँ, क्या है मेरा काम ? चल दूँ ! पर अब की धोखा ? नो-नो। लेखक के नाते अनुभव तो ले लूँ। देखा जाएगा। रुका रहा। आध घंटे की रेस के बाद उसने ‘स्केट शू’ उतारे और मेरे निकट आ गई।
‘‘आपका वह पार्टनर कहाँ है ?’’ उसे अकेला देख मैंने पूछा।
‘‘ही इज़ गॉन...चलिए न !’’ मेरी कुहनी छूते उसने कहा।
मैं यंत्रवत् उसके साथ स्केटिंग हॉल से बाहर आ गया। रिज की तरफ चलने लगे हम। बोली, ‘‘क्या कल आपकी तबीयत ठीक नहीं थी ?’’

यूँ इत्मीनान से उसका पूछना कि मैंने ‘हाँ’ से अनुमोदन कर दिया।
‘‘आध घंटा ‘वेट’ की आपकी।’’ मेरी बगल से चलते, मुझे देखते उसने कहा। कुछ मिनटों की चुप्पी। तुम तो जानते हो ही मित्र, मैं ‘कम-बोला’ हूँ।
‘‘कितने उपन्यास लिखे हैं आपने ?’’ चुप्पी भंग की उसने।
‘‘अभी वही एक लिखा है.....लेकिन आपको विश्वास हो गया कि मैं उपन्यासकार हूँ ?’’
‘‘हाँऽऽ।’’
‘‘कैसे ?’’

‘‘आपका उपन्यास पढ़कर और आपकी ‘नेचर’ देख कर।’’
‘‘कैसा लगा उपन्यास ?’’ अभी पूरा कहाँ पढ़ पाई हूँ...लेकिन इंट्रेस्टिंग नहीं है।’’
‘‘तो इसका मतलब हुआ, मैं भी इंट्रेस्टिंग नहीं हूँ!’’
‘‘लगते तो नहीं हैं,’’ आँखों से व्यंग्य नज़राती वह कह रही थी, ‘‘लेकिन उपन्यासकार होना अपने में इंट्रेस्टिंग होता है।’’
बातों से मसझदार मालूम देती थी, मुझे संतोष हुआ। अब हम एक बेंच पर थे।
‘‘सभी यही कहते हैं,’’ मैंने कहा, ‘‘अब मैं इंट्रेस्टिंग उपन्यास लिखना चाह रहा हूँ। मैं शिमला आया इसीलिए हूँ।’’
‘‘कितने दिन यहाँ रहेंगे ?’’
‘‘कोई महीना-भर।....आप यहाँ कह तक हैं ?’’ मैंने पूछा
‘‘देखो...दस जून तक तो हूँ।’’
‘‘कहाँ से आई हैं आप ?’’
‘‘बनारस से...और आप ?’’
‘‘दिल्ली से।’’

‘‘कहीं सर्विस करते होंगे ?’’ उसने सवालिया लहजे में कहा।
‘‘हाँ..टीचर हूँ, पर आपने अपना नाम नहीं बतलाया।’’
‘‘आपने पूछा ही कब था !’’
‘‘ओह, वेरी सॉरी...अब बताइए तो !’’
‘‘नीलम।’’
‘‘नीलम...कितना प्यारा नाम है ! यह तो मेरे एक मित्र का भी नाम है। बल्कि उनका ‘पैन नेम’ है। वह कवि हैं।’’
‘‘आप भी कविता लिखते हैं ?’’
‘‘हाँ, पर बहुत कम। वह भी तो इंट्रेस्टिंग नहीं होती।’’
‘‘कुछ सुनाइए तो !’’
‘‘इंट्रेस्टिंग नहीं होतीं इसलिए कोई याद भी नहीं रहती।’’
‘‘कुछ तो होगा याद ?’’

‘‘नहीं, पर आप समय दें तो कल सुना दूँगा।’’
‘‘आपको लिखने की प्रेरणा कहाँ से मिलती है ?’’
‘‘यही तो मुसीबत है। मेरी कोई प्रेरणा-व्रेरणा नहीं। एकांत हो और यह सिगरेट !’’ अपना सिगरेट जो मैं पी रहा था दिखला दिया।
‘‘यह क्यों पीते हैं ?’’
‘‘कहा तो...प्रेरणा मिलती है।....हाँ, यदि आप साथ दें, तो इस नशे की कोई जरूरत नहीं।’’
‘‘क्या मतलब ?....मुझे पीएँगे ?’’ वह खिलखिला पड़ी। शायद ‘मतलब’ का संकोच छिपाने के लिए। बड़ी चंट है। मन ही मन दोहराकर मैंने कहा, ‘‘तो बताइए आप साथ देंगी ?’’
चुप रही। कुछ सोचा हुआ उसके मन में रहा होगा, तभी तो उसके मुख पर चमक थी।
‘‘मुझे सवाल का जवाब चाहिए।’’ मैंने कहा।
‘‘चलिए कहीं कॉफ़ी पी जाए।’’ क्यों टालने लगी वह ? मैंने अपने लेखकीय व्यक्तित्व को ताक़ पर रख कर पूछा, ‘‘पर मेरा सवाल ?’’

‘‘यह सवाल ही नहीं है’’, कहती वह उठ खड़ी हुई। मैं नहीं उठा, ‘‘चलिए वहीं दूँगी।’’ कहकर उसने मुझे साथ उठा लिया। कितना सोचना पड़ता है लड़की को ! मैं चुप, साथ चलता रहा। रिज से उतरकर स्कैंडिल प्वाइंट पर बने ‘डैबिको’ में हम घुस गए। यह एक बड़ा रेस्तराँ है। भीतर मंद-मंद इंग्लिश म्यूज़िक की लहरे बह रही थीं। हम एक मेज़ पर जा बैठे। वेटर को उसने कॉफ़ी लाने का आर्डर दे दिया, फिर मेरी ओर मुखातिब होकर पूछा क्या खाएँगे ?’’
‘‘कुछ नहीं, कॉफ़ी ही काफ़ी रहेगी।’’
‘‘कविता न करिए....नमकीन या स्वीट ?’’
‘‘अच्छा तो नमकीन ही सही।’’
कॉफ़ी के दो प्याले आ गए। दो ‘हाट डॉग’ भी मंगवा लिए गए।
.....मैं कहाँ हूँ ? क्या सचमुच मैं हूँ ? विश्वास नहीं हो रहा था। मैंने कहा, ‘‘नीलम जी, इस समय मुझे लग रहा है कि मैं, मैं नहीं हूँ।’’

‘‘तो बोल कौन रहा है ? कवि ?’’
‘‘पता नहीं, शायद लेखक बोल रहा हो।’’ चम्मच से कॉफ़ी हिलाते न जाने मैं कहाँ खो गया ? मुझे लगा, मेरे नए उपन्यास का पात्र बैठा है, सूरज, शशि के साथ, दिल्ली के किसी रेस्तराँ में। पानी का गिलास जहाँ रखा था, उस जगह पर बन आए पनीले शून्य पर मैं उँगली घुमा-घुमाकर उसे सूखता देख रहा था। अचानक मेरे मुँह से निकला, ‘‘शशि !’’...और उस नीलम को शशि के रूप में देखता रहा।
‘‘मेरा नाम नीलम है...आपको हो क्या रहा है ?’’
‘‘कुछ नहीं ...बस।’’
‘‘शशि कौन है ?’’ कहकर उसने मेरे निकट कुर्सी खींच ली।
‘‘कुछ नहीं,’’ मैंने कुर्सी से पीठ टेकते हुए कहा, ‘‘मेरे नए उपन्यास के पात्र का नाम है यह।’’



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