सामाजिक >> विप्रदास विप्रदासशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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प्रस्तुत है सामाजिक उपन्यास....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
बाँग्ला के अमर कथाशिल्पी शरत्चन्द्र चट्टोपाध्याय प्रायः सभी भारतीय
भाषाओं में पढ़े जाने वाले शीर्षस्थ उपन्यासकार हैं। उनके कथा-साहित्य की
प्रस्तुति जिस स्वरूप में भी हुई, लोकप्रियता के तत्त्व ने उनके पाठकीय
आस्वाद में वृद्धि ही की। सम्भवतः वह अकेले ऐसे भारतीय कथाकार भी हैं,
जिनकी अधिकांश कालजयी कृतियों पर फिल्में भी बनीं तथा अनेक धारावाहिक
सीरियल भी। ‘देवदास’ ‘चरित्रहीन’
और श्रीकान्त के
साथ तो यह बारम्बार घटित हुआ है।
अपने विपुल लेखन के माध्यम से शरत् बाबू ने मनुष्यों को उनकी मर्यादा सौंपी और समाज की उन तथाकथित ‘परम्पराओं को ध्वस्त किया, जिनके अन्तर्गत नारी की आँखें अनिच्छित आँसुओं से हमेशा छलछलाई रहती हैं। समाज द्वारा अनसुनी रह गई वंचितों की बिलख-चीख और आर्तनाद को उन्होंने परखा तथा गहरे पैठकर यह जाना कि जाति, वंश और धर्म आदि के नाम पर एक बड़े वर्ग को मनुष्य की श्रेणी से ही अपदस्थ किया जा रहा है। इस षड्यन्त्र के अन्तर्गत पनप रही तथाकथित सामाजिक ‘आम सहमति’ पर उन्होंने अपने लेखन के माध्यम से रचनात्मक हस्तक्षेप किया, जिसके चलते वह लाखों-करोंड़ों पाठकों के चहेते शब्दकार बने। नारी और अन्य शोषित समाजों के धूसर जीवन का उन्होंने चित्रण ही नहीं किया, बल्कि उनके आम जीवन में आच्छादित इन्द्रधनुषी रंगों की छटा भी बिखेरी है। प्रेम को आध्यात्मिकता तक ले जाने में शरत् का विरल योगदान है। शरत्-साहित्य आम आदमी के जीवन को जीवंत करने में सहायक जड़ी-बूटी सिद्ध हुआ है।
हिन्दी के एक विनम्र प्रकाशक होने के नाते हमारा यह उत्तरदायित्व बनता ही था कि शरत्-साहित्य को उनके मूलतम ‘पाठ’ के अन्तर्गत अलंकृत करके पाठकों को सौंप सकें, अतः अब यह प्रस्तुति आपके हाथों में है।
अपने विपुल लेखन के माध्यम से शरत् बाबू ने मनुष्यों को उनकी मर्यादा सौंपी और समाज की उन तथाकथित ‘परम्पराओं को ध्वस्त किया, जिनके अन्तर्गत नारी की आँखें अनिच्छित आँसुओं से हमेशा छलछलाई रहती हैं। समाज द्वारा अनसुनी रह गई वंचितों की बिलख-चीख और आर्तनाद को उन्होंने परखा तथा गहरे पैठकर यह जाना कि जाति, वंश और धर्म आदि के नाम पर एक बड़े वर्ग को मनुष्य की श्रेणी से ही अपदस्थ किया जा रहा है। इस षड्यन्त्र के अन्तर्गत पनप रही तथाकथित सामाजिक ‘आम सहमति’ पर उन्होंने अपने लेखन के माध्यम से रचनात्मक हस्तक्षेप किया, जिसके चलते वह लाखों-करोंड़ों पाठकों के चहेते शब्दकार बने। नारी और अन्य शोषित समाजों के धूसर जीवन का उन्होंने चित्रण ही नहीं किया, बल्कि उनके आम जीवन में आच्छादित इन्द्रधनुषी रंगों की छटा भी बिखेरी है। प्रेम को आध्यात्मिकता तक ले जाने में शरत् का विरल योगदान है। शरत्-साहित्य आम आदमी के जीवन को जीवंत करने में सहायक जड़ी-बूटी सिद्ध हुआ है।
हिन्दी के एक विनम्र प्रकाशक होने के नाते हमारा यह उत्तरदायित्व बनता ही था कि शरत्-साहित्य को उनके मूलतम ‘पाठ’ के अन्तर्गत अलंकृत करके पाठकों को सौंप सकें, अतः अब यह प्रस्तुति आपके हाथों में है।
विप्रदास
बलरामपुर गांव में रथ-शाला के समीप किसान-मज़दूरों द्वारा आयोजित सभा में
समीपस्थ रेलवे लाइन के कुलियों ने भी सम्मिलित होकर संगठन में अपनी आस्था
जताई है। कलकत्ता के कुछ सुप्रसिद्ध वक्ताओं ने आज के समाज में व्याप्त
विषमता और भेद-भाव के विरुद्ध भड़काऊ भाषाण दिए हैं। तथा अनेक प्रस्ताव भी
पारित किए गये हैं। सभा की समाप्ति पर ‘वंदेमातरम्’
का उद्घोष
करते हुए गांव की परिक्रमा करने के रूप में जुलूस भी निकाला गया है।
बड़ी संख्या में अनेक छोटे-छोटे ताल्लुक़ेदारों और ज़मींदारों की बस्ती होने के कारण बलरामपुर सम्पन्न गांव माना जाता है। गाँव के एक किनारे पर खेतिहर मुसलमानों का महल्ला है और इससे दूर बागदी और दूले जातियों के खेत-मज़दूरों की आवादी है। किसी समय इस गांव के एक छोर पर भागीरथी नदी बहती थी, किन्तु अब एक कोस के घेरे में आधे गोल चक्कर का एक तालाब सा बनकर रह गया है। इसी तालाब के किनारे ग़रीब श्रमिकों की झोंपड़-पट्टी है।
यज्ञेश्वर मुखोपाध्याय इस गांव का सर्वाधिक धनी माना जाता है। सम्पत्ति, धन, धरती, सम्पदा और व्यापार सभी क्षेत्रों में वह अन्य सभी सम्पन्न लोगों से कहीं अधिक बढ़-चढ़ कर है। लोगों द्वारा उसे ‘अकूत सम्पत्ति का स्वामी’ अथवा ‘धन कुबेर’ कहने को ग़लत नहीं कहा जा सकता।
मज़दूर सभा का लाल झण्डों को लहराता और नारे लगाता हुआ जुलूस जब यज्ञेश्वर की विशाल अट्टालिका के सामने से निकला, तो महल की छत पर चुपचाप खड़े एक बलिष्ठ एवं लम्बे-चौड़े शरीर वाले युवक को देखते ही जुलूस में शामिल सभी लोगों को सांप सूघ गया। नारे लगाने वालों ने चुप्पी साध ली और लोग इस प्रकार अपना मुंह छिपाने लगे, मानों उन्होंने अनजाने में अजगर के ऊपर पैर रख दिया हो। जुलूस के लोगों को एकदम सहमा देखकर बाहर से आये नेता लोगों ने नज़र उठाकर ऊपर देखा कि खम्भों की ओट में खड़ा होकर इस दृश्य को देखता तगड़े डील-डौल वाला एक युवक आराम से नीचे उतर रहा है। नेताओं ने स्थानीय लोगों से पूछा, ‘‘कौन हैं यह सज्जन !’’
लोगों ने दबी आवाज़ में धीरे-से कहा, ‘‘आप विप्रदास बाबू हैं।’’
‘‘कौन विप्रदास महाशय ! क्या यही गांव के ज़मींदार हैं ?’’
लोगों ने सिर हिलाकर संकेत दिया, ‘‘हां।’’
शहर के लोग भला किसी को क्यों महत्त्व देने लगे, अतः वे बोले, ‘‘तो इसी से डरकर तुम लोग चुप हो गए ?’’ भीड़ का उत्साह बढ़ाने के लिए नेताओं ने ऊंची आवाज में नारे लगाने शुरू किये, किन्तु गांव वालों ने उनका साथ नहीं दिया। वे नेता ‘भारत माता की जय’, ‘वन्दे मातरम्’, ‘किसान मज़दूर की जय’ जैसे नारों को अकेले ही बोलते हुए थककर परेशान हो गये। गांव के लोगों के होंठ भले हिले हों, किन्तु गले से आवाज़ बिलकुल नहीं निकली। सभी यही सोच रहे थे कि कहीं उनकी आवाज़ विप्रदा, के कानों में न पड़ा जाये। गांव वालों के इस कायरतापूर्ण व्यवहार ने नेताओं को बुरी तरह आहत किया। वे व्यथित एवं चिन्तित स्वर में बोले, ‘‘गांव के एक साधारण-से ज़मींदार से लोगों का इतना अधिक भयभीत होना सचमुच एक अनोखी बात है। ये ज़मींदार किसानों और मज़दूरों का ख़ून चूसने वाले होने के कारण तुम्हारे शत्रु हैं...ये ही तो...।’’
नेताओं के ओजस्वी भाषण में बाधा पड़ गयी। वे शायद बहुत कुछ उलटा-सीधा कहते, किन्तु भीड़ में से आवाज़ आयी, ‘‘ज़मीदार बाबू इनके भाई हैं।’’
‘‘किनके भाई हैं ?’’
सबसे आगे डण्डा लेकर खड़े पच्चीस-छब्बीस वर्ष के युवक नेताओं का ध्यान अपनी ओर खींचते हुए कहा, ‘‘मेरे भाई साहब हैं।’’
इस युवक के ख़र्चे, उत्साह ,उद्यम और आग्रह पर यह सारा आन्दोलन चल रहा था।
नेता का चकित होना स्वाभाविक था, वह बोले, ‘‘तो आप भी यहां के ज़मींदार हैं ?’’
युवक ने बिना कुछ बोले लजाकर सिर झुका दिया।
बड़ी संख्या में अनेक छोटे-छोटे ताल्लुक़ेदारों और ज़मींदारों की बस्ती होने के कारण बलरामपुर सम्पन्न गांव माना जाता है। गाँव के एक किनारे पर खेतिहर मुसलमानों का महल्ला है और इससे दूर बागदी और दूले जातियों के खेत-मज़दूरों की आवादी है। किसी समय इस गांव के एक छोर पर भागीरथी नदी बहती थी, किन्तु अब एक कोस के घेरे में आधे गोल चक्कर का एक तालाब सा बनकर रह गया है। इसी तालाब के किनारे ग़रीब श्रमिकों की झोंपड़-पट्टी है।
यज्ञेश्वर मुखोपाध्याय इस गांव का सर्वाधिक धनी माना जाता है। सम्पत्ति, धन, धरती, सम्पदा और व्यापार सभी क्षेत्रों में वह अन्य सभी सम्पन्न लोगों से कहीं अधिक बढ़-चढ़ कर है। लोगों द्वारा उसे ‘अकूत सम्पत्ति का स्वामी’ अथवा ‘धन कुबेर’ कहने को ग़लत नहीं कहा जा सकता।
मज़दूर सभा का लाल झण्डों को लहराता और नारे लगाता हुआ जुलूस जब यज्ञेश्वर की विशाल अट्टालिका के सामने से निकला, तो महल की छत पर चुपचाप खड़े एक बलिष्ठ एवं लम्बे-चौड़े शरीर वाले युवक को देखते ही जुलूस में शामिल सभी लोगों को सांप सूघ गया। नारे लगाने वालों ने चुप्पी साध ली और लोग इस प्रकार अपना मुंह छिपाने लगे, मानों उन्होंने अनजाने में अजगर के ऊपर पैर रख दिया हो। जुलूस के लोगों को एकदम सहमा देखकर बाहर से आये नेता लोगों ने नज़र उठाकर ऊपर देखा कि खम्भों की ओट में खड़ा होकर इस दृश्य को देखता तगड़े डील-डौल वाला एक युवक आराम से नीचे उतर रहा है। नेताओं ने स्थानीय लोगों से पूछा, ‘‘कौन हैं यह सज्जन !’’
लोगों ने दबी आवाज़ में धीरे-से कहा, ‘‘आप विप्रदास बाबू हैं।’’
‘‘कौन विप्रदास महाशय ! क्या यही गांव के ज़मींदार हैं ?’’
लोगों ने सिर हिलाकर संकेत दिया, ‘‘हां।’’
शहर के लोग भला किसी को क्यों महत्त्व देने लगे, अतः वे बोले, ‘‘तो इसी से डरकर तुम लोग चुप हो गए ?’’ भीड़ का उत्साह बढ़ाने के लिए नेताओं ने ऊंची आवाज में नारे लगाने शुरू किये, किन्तु गांव वालों ने उनका साथ नहीं दिया। वे नेता ‘भारत माता की जय’, ‘वन्दे मातरम्’, ‘किसान मज़दूर की जय’ जैसे नारों को अकेले ही बोलते हुए थककर परेशान हो गये। गांव के लोगों के होंठ भले हिले हों, किन्तु गले से आवाज़ बिलकुल नहीं निकली। सभी यही सोच रहे थे कि कहीं उनकी आवाज़ विप्रदा, के कानों में न पड़ा जाये। गांव वालों के इस कायरतापूर्ण व्यवहार ने नेताओं को बुरी तरह आहत किया। वे व्यथित एवं चिन्तित स्वर में बोले, ‘‘गांव के एक साधारण-से ज़मींदार से लोगों का इतना अधिक भयभीत होना सचमुच एक अनोखी बात है। ये ज़मींदार किसानों और मज़दूरों का ख़ून चूसने वाले होने के कारण तुम्हारे शत्रु हैं...ये ही तो...।’’
नेताओं के ओजस्वी भाषण में बाधा पड़ गयी। वे शायद बहुत कुछ उलटा-सीधा कहते, किन्तु भीड़ में से आवाज़ आयी, ‘‘ज़मीदार बाबू इनके भाई हैं।’’
‘‘किनके भाई हैं ?’’
सबसे आगे डण्डा लेकर खड़े पच्चीस-छब्बीस वर्ष के युवक नेताओं का ध्यान अपनी ओर खींचते हुए कहा, ‘‘मेरे भाई साहब हैं।’’
इस युवक के ख़र्चे, उत्साह ,उद्यम और आग्रह पर यह सारा आन्दोलन चल रहा था।
नेता का चकित होना स्वाभाविक था, वह बोले, ‘‘तो आप भी यहां के ज़मींदार हैं ?’’
युवक ने बिना कुछ बोले लजाकर सिर झुका दिया।
2
अगले दिन विप्रदास ने अपने अनुज द्विजदास को अपनी बैठक में बुलाकर कहा,
‘‘कल के तुम्हारे आयोजन को सफल ही कहा जाना चाहिए।
नारे भी
काफ़ी जोश पैदा करने वाले थे। यह तो मानना पड़ेगा कि आन्दोलन
करने
वालों में काफ़ी दम-ख़म है।’’
द्विजदास ने कोई उत्तर नहीं दिया।
विप्रदास ने पूछा क्या जुलूस का आयोजन केवल मज़दूरों की शक्ति से परिचित कराने और डराने के लिए किया गया था ?
द्विजदास ने उत्तर दिया, ‘‘भाई साहब ! जुलूस किसी भी रास्ते से क्यों न जाता, जिन्हें डर लगना है वे तो डरेंगे ही।’’
सुनकर विप्रदास द्विजदास के कथन का अपमान करते हुए मुस्करा दिये और फिर बोले, ‘‘क्या तुम मुझे इस प्रकार की हरकतों से डर जाने वाला समझते हो ? जुलूस में शामिल बहुत-से लोग मेरी प्रकृति से परिचित हैं, अन्यथा उनके नारों को सुनने के लिए मुझे बरामदे में आना और कान लगाना पड़ता। तुम लोग कितने बड़े-बड़े झण्डे लेकर, कितने भी ज़ोर के नारे लगाओ और लम्बे–चौड़े भाषण झाड़ो, मेरी सेहत पर कोई असर नहीं पड़ने वाला नहीं। मुझे यह काम भली प्रकार से मालूम है कि हाथी के बाहर दिखाई देने वाले दांत खाने के काम कभी नहीं आते।’’
वास्तव में, अपने सामने आते ही शोर करते लोगों की घिग्घी बंध जाने को विप्रदास ने अपनी आंखों से अभी-अभी देखा था और इस कारण द्विजदास का लज्जित होना उनसे छिपा नहीं था। द्विजदास शान्त प्रकृति का और अपने अग्रज के प्रति गहरा सम्मान रखने वाला होने पर भी उनके द्वारा किये उपहास को सहन नहीं कर सका। वह बुरी तरह तिलमिला उठा, फिर भी शिष्टता का त्याग न करते हुए शान्त और संयत स्वर में बोला, ‘‘भाई साहब ! बनावटी अथवा दिखावटी दांतों की निर्थकता से केवल आप ही नहीं, हम लोग भी भली प्रकार परिचित हैं, किन्तु आपको काटने का समय आने पर काटने वाले दांत रखने वालों की भी कमी देखने को नहीं मिलेगी। इसे भी आप निश्चित समझिये।’’
विप्रदास को अपने अनुज से ऐसे चुभते उत्तर की आशा कदापि नहीं थी, इसलिए वह आश्चर्यचकित होकर उसके मुंह को ताकते रह गये।
कुछ कहने जा रहा द्विजदास अचानक द्वार के बाहर से मां के कण्ठस्वर को सुनकर रुक गया। विप्रदास का द्विजदास से निश्संक होने पर मां के सामने कुछ ऊट-पटांग कहना संभव नहीं था। मां ने भीतर आते ही कहा, ‘‘तुम लोगों ने दरवाज़े पर परदे लटकाकर विलायती फ़ैशन तो अपना लिया है, किन्तु यह नहीं सोचा कि दूसरों को आते-जाते इन परदों के भिड़ने में कितना कष्ट उठाना पड़ता है।’’
द्विजदास ने फुर्ती से परदा हटा दिया और विप्रदास कुर्सी छोड़कर खड़े हो गये। चालीस पार कर चुकी एक विधवा आ गयी। चेहरे पर वैधव्य की कठोरता और शरीर कृशता लिये रहने पर भी वह स्त्री अपने रूप-सौंदर्य को अक्षुण्ण बनाकर रखे हुए थी। छोटे लड़के की ओर पीठ करके और बड़े लड़के की ओर उन्मुख होकर वह बोली, ‘‘विप्र ! यह मैं क्या सुन रही हूं कि पंचांग में इस महीने की एकादशी के सम्बन्ध में कुछ गड़बड़ है ? पहले तो ऐसा कभी नहीं हुआ।’’
विप्रदास ने कहा, ‘‘मांजी ! ऐसा कुछ होना तो नहीं चाहिए।’’
‘‘तुम पण्डित स्मृति रत्नजी से सम्पर्क करो, मैं उनका मत जानना चाहती हूं।’’
हंसते हुए विप्रदास बोला, ‘‘ठीक है मां, अभी बुलवा देता हूं, किन्तु उनका मत जानने से क्या लाभ होगा ? आपको जब एकादशी के दो दिन पड़ने की बात मालूम पड़ चुकी है, तो आपको दोनों ही दिन पक्का उपवास करना है, जल तक ग्रहण नहीं करना है।’’
हंसते हुए महिला बोली, ‘‘व्रत की तिथि न होने पर उपवास के नाम पर निर्रथक भूखे मरने का क्या मुझे शौक़ है ? शास्त्रों के अनुसार झूठ-मूठ के इस ढोंग से पुण्य के बदले पाप लगता है और स्वर्ग के बदले नरक मिलता है। अच्छा सुन, बहू ने अखबार में पढ़ा है कि कलकत्ता में भागवत की कथा बांचने वाले कोई बड़े विद्वान आये हुए हैं। ज़रा पता तो लगा कि क्या उन्हें इस घर में आमंत्रित किया जा सकता है ?’’
‘‘आप चाहती हैं, तो उन्हें बुलवा लूंगा।’’
‘‘केवल मेरे चाहने से निमन्त्रित करोगे, क्या तुम लोगों की भागवत सुनने में कोई रुचि नहीं है ? पिछली बार हमारे यहाँ हुई कथा को कितना समय बीत गया है, तुम्हें स्मरण ही होगा।’’
हंसते हुए विप्रदास बोला, ‘‘दो-तीन महीनों से अधिक नहीं बीता है।’’
‘‘हैं ! क्या केवल तीन महीने हुए हैं ? अच्छा, क्या इतने समय से घर में कोई आयोजन नहीं हुआ, क्या यह विचारणीय नहीं है ? बेटे ! कथा तो करानी ही होगी। हां, एक बात और है, मेरी दोनों मामियां कैलास मानसरोवर की यात्रा पर जा रही हैं, उनके साथ मैं भी जाऊंगी।’’
विप्रदास अधीर होकर बोला, ‘‘मां ! क्षमा करना। मैं आपको मामियों के साथ ऐसी दुर्गम यात्रा करने पर कदापि सहमत नहीं हो सकता। आपको किसी दूसरे के भरोसे छोड़ना मुझे स्वीकार्य नहीं। यदि आपने यात्रा का संकल्प ले ही लिया है, तो आपको अपने दोनों बेटों में से किसी एक को अपने साथ ले जाना होगा।’’
प्रौढ़ा की आंखें सजल हो उठीं। वह भावावेश में दोनों बेटों को अपनी बाहों में समेटते हुए बोली, ‘‘कैलास यात्रा में प्राण छूटने का सौभाग्य इस अभागिन के भाग्य में नहीं लिखा। अतः मैं निश्चित रूप से लौट आऊंगी। जहां तक तुम दोनों में से किसी एक को साथ ले जाने का प्रश्न है, तुझ पर गृहस्थी और ज़मींदारी का इतना बोझ है कि तुम्हारे लिए इतने दिनों तक घर से बाहर रहने की कोई सोच भी नहीं सकता। फिर अपने छोटे के साथ तो मैं बैकुण्ठ जाने की भी नहीं सोच सकती। ब्राह्मण के घर में जन्म लेकर भी जो कभी सन्ध्या-वन्दन आदि नित्यकर्म नहीं करता और सुना है कि कलकता में इसने भक्ष्य-अभक्ष्य का विचार भी नहीं रखा और फिर तुम्हें मालूम है कि इसने क्या गुल खिलाया है ?’’
‘‘ऐसा क्या किया इसने ?’’ उत्सुकता प्रकट करते हुए विप्रदास ने कहा, ‘‘मुझे कुछ भी मालूम नहीं।’’
‘‘तुझे सब मालूम है। अभी यह छोटा इतना होशियार नहीं हुआ कि अपनी किसी गतिविधि को तुमसे छिपा सके। तू इसे अनुशासित कर, यह तो ‘मियां की जूती, मियां के सिर’ की उक्ति चरितार्थ कर रहा है। हमारे ही धन से हमारे विरुद्ध आन्दोलन कर रहा है, लोगों को संगठित कर रहा है। कलकत्ता से लोगों को बुलाकर हमारी प्रजा को हमारे विरुद्ध विद्रोह करने के लिए प्रेरित कर रहा है। तुम इसे कलकत्ता में निवास का ख़र्च देना बन्द कर दो, यह मेरा सुझाव है।’’
आश्चर्य प्रकट करते हुए विप्रदास बोला, ‘‘मां ! पढ़ाई के लिए जब उसे कलकत्ता रहना ही है, तो ख़र्च बन्द कर देने से क्या यह भीख मांगकर आपना निर्वाह करेगा ?’’
मां ने कहा, ‘‘इसके वहां पढ़ने की आवश्यकता ही क्या है ? तुम्हें याद होगा कि मेरे ससुरजी के स्कूल में संगठित होकर आये बच्चों द्वारा विदेशी शिक्षा को राष्ट्रघाती बताने पर तुम उन्हें दण्डित करने को उद्यत हो गये थे। अब जब तुम्हारा अपना यह लाडला ऐसी भाषा बोलता है, तो तुम चुपचाप क्यों सुनते रहते हो ?’’
द्विजदास ने कोई उत्तर नहीं दिया।
विप्रदास ने पूछा क्या जुलूस का आयोजन केवल मज़दूरों की शक्ति से परिचित कराने और डराने के लिए किया गया था ?
द्विजदास ने उत्तर दिया, ‘‘भाई साहब ! जुलूस किसी भी रास्ते से क्यों न जाता, जिन्हें डर लगना है वे तो डरेंगे ही।’’
सुनकर विप्रदास द्विजदास के कथन का अपमान करते हुए मुस्करा दिये और फिर बोले, ‘‘क्या तुम मुझे इस प्रकार की हरकतों से डर जाने वाला समझते हो ? जुलूस में शामिल बहुत-से लोग मेरी प्रकृति से परिचित हैं, अन्यथा उनके नारों को सुनने के लिए मुझे बरामदे में आना और कान लगाना पड़ता। तुम लोग कितने बड़े-बड़े झण्डे लेकर, कितने भी ज़ोर के नारे लगाओ और लम्बे–चौड़े भाषण झाड़ो, मेरी सेहत पर कोई असर नहीं पड़ने वाला नहीं। मुझे यह काम भली प्रकार से मालूम है कि हाथी के बाहर दिखाई देने वाले दांत खाने के काम कभी नहीं आते।’’
वास्तव में, अपने सामने आते ही शोर करते लोगों की घिग्घी बंध जाने को विप्रदास ने अपनी आंखों से अभी-अभी देखा था और इस कारण द्विजदास का लज्जित होना उनसे छिपा नहीं था। द्विजदास शान्त प्रकृति का और अपने अग्रज के प्रति गहरा सम्मान रखने वाला होने पर भी उनके द्वारा किये उपहास को सहन नहीं कर सका। वह बुरी तरह तिलमिला उठा, फिर भी शिष्टता का त्याग न करते हुए शान्त और संयत स्वर में बोला, ‘‘भाई साहब ! बनावटी अथवा दिखावटी दांतों की निर्थकता से केवल आप ही नहीं, हम लोग भी भली प्रकार परिचित हैं, किन्तु आपको काटने का समय आने पर काटने वाले दांत रखने वालों की भी कमी देखने को नहीं मिलेगी। इसे भी आप निश्चित समझिये।’’
विप्रदास को अपने अनुज से ऐसे चुभते उत्तर की आशा कदापि नहीं थी, इसलिए वह आश्चर्यचकित होकर उसके मुंह को ताकते रह गये।
कुछ कहने जा रहा द्विजदास अचानक द्वार के बाहर से मां के कण्ठस्वर को सुनकर रुक गया। विप्रदास का द्विजदास से निश्संक होने पर मां के सामने कुछ ऊट-पटांग कहना संभव नहीं था। मां ने भीतर आते ही कहा, ‘‘तुम लोगों ने दरवाज़े पर परदे लटकाकर विलायती फ़ैशन तो अपना लिया है, किन्तु यह नहीं सोचा कि दूसरों को आते-जाते इन परदों के भिड़ने में कितना कष्ट उठाना पड़ता है।’’
द्विजदास ने फुर्ती से परदा हटा दिया और विप्रदास कुर्सी छोड़कर खड़े हो गये। चालीस पार कर चुकी एक विधवा आ गयी। चेहरे पर वैधव्य की कठोरता और शरीर कृशता लिये रहने पर भी वह स्त्री अपने रूप-सौंदर्य को अक्षुण्ण बनाकर रखे हुए थी। छोटे लड़के की ओर पीठ करके और बड़े लड़के की ओर उन्मुख होकर वह बोली, ‘‘विप्र ! यह मैं क्या सुन रही हूं कि पंचांग में इस महीने की एकादशी के सम्बन्ध में कुछ गड़बड़ है ? पहले तो ऐसा कभी नहीं हुआ।’’
विप्रदास ने कहा, ‘‘मांजी ! ऐसा कुछ होना तो नहीं चाहिए।’’
‘‘तुम पण्डित स्मृति रत्नजी से सम्पर्क करो, मैं उनका मत जानना चाहती हूं।’’
हंसते हुए विप्रदास बोला, ‘‘ठीक है मां, अभी बुलवा देता हूं, किन्तु उनका मत जानने से क्या लाभ होगा ? आपको जब एकादशी के दो दिन पड़ने की बात मालूम पड़ चुकी है, तो आपको दोनों ही दिन पक्का उपवास करना है, जल तक ग्रहण नहीं करना है।’’
हंसते हुए महिला बोली, ‘‘व्रत की तिथि न होने पर उपवास के नाम पर निर्रथक भूखे मरने का क्या मुझे शौक़ है ? शास्त्रों के अनुसार झूठ-मूठ के इस ढोंग से पुण्य के बदले पाप लगता है और स्वर्ग के बदले नरक मिलता है। अच्छा सुन, बहू ने अखबार में पढ़ा है कि कलकत्ता में भागवत की कथा बांचने वाले कोई बड़े विद्वान आये हुए हैं। ज़रा पता तो लगा कि क्या उन्हें इस घर में आमंत्रित किया जा सकता है ?’’
‘‘आप चाहती हैं, तो उन्हें बुलवा लूंगा।’’
‘‘केवल मेरे चाहने से निमन्त्रित करोगे, क्या तुम लोगों की भागवत सुनने में कोई रुचि नहीं है ? पिछली बार हमारे यहाँ हुई कथा को कितना समय बीत गया है, तुम्हें स्मरण ही होगा।’’
हंसते हुए विप्रदास बोला, ‘‘दो-तीन महीनों से अधिक नहीं बीता है।’’
‘‘हैं ! क्या केवल तीन महीने हुए हैं ? अच्छा, क्या इतने समय से घर में कोई आयोजन नहीं हुआ, क्या यह विचारणीय नहीं है ? बेटे ! कथा तो करानी ही होगी। हां, एक बात और है, मेरी दोनों मामियां कैलास मानसरोवर की यात्रा पर जा रही हैं, उनके साथ मैं भी जाऊंगी।’’
विप्रदास अधीर होकर बोला, ‘‘मां ! क्षमा करना। मैं आपको मामियों के साथ ऐसी दुर्गम यात्रा करने पर कदापि सहमत नहीं हो सकता। आपको किसी दूसरे के भरोसे छोड़ना मुझे स्वीकार्य नहीं। यदि आपने यात्रा का संकल्प ले ही लिया है, तो आपको अपने दोनों बेटों में से किसी एक को अपने साथ ले जाना होगा।’’
प्रौढ़ा की आंखें सजल हो उठीं। वह भावावेश में दोनों बेटों को अपनी बाहों में समेटते हुए बोली, ‘‘कैलास यात्रा में प्राण छूटने का सौभाग्य इस अभागिन के भाग्य में नहीं लिखा। अतः मैं निश्चित रूप से लौट आऊंगी। जहां तक तुम दोनों में से किसी एक को साथ ले जाने का प्रश्न है, तुझ पर गृहस्थी और ज़मींदारी का इतना बोझ है कि तुम्हारे लिए इतने दिनों तक घर से बाहर रहने की कोई सोच भी नहीं सकता। फिर अपने छोटे के साथ तो मैं बैकुण्ठ जाने की भी नहीं सोच सकती। ब्राह्मण के घर में जन्म लेकर भी जो कभी सन्ध्या-वन्दन आदि नित्यकर्म नहीं करता और सुना है कि कलकता में इसने भक्ष्य-अभक्ष्य का विचार भी नहीं रखा और फिर तुम्हें मालूम है कि इसने क्या गुल खिलाया है ?’’
‘‘ऐसा क्या किया इसने ?’’ उत्सुकता प्रकट करते हुए विप्रदास ने कहा, ‘‘मुझे कुछ भी मालूम नहीं।’’
‘‘तुझे सब मालूम है। अभी यह छोटा इतना होशियार नहीं हुआ कि अपनी किसी गतिविधि को तुमसे छिपा सके। तू इसे अनुशासित कर, यह तो ‘मियां की जूती, मियां के सिर’ की उक्ति चरितार्थ कर रहा है। हमारे ही धन से हमारे विरुद्ध आन्दोलन कर रहा है, लोगों को संगठित कर रहा है। कलकत्ता से लोगों को बुलाकर हमारी प्रजा को हमारे विरुद्ध विद्रोह करने के लिए प्रेरित कर रहा है। तुम इसे कलकत्ता में निवास का ख़र्च देना बन्द कर दो, यह मेरा सुझाव है।’’
आश्चर्य प्रकट करते हुए विप्रदास बोला, ‘‘मां ! पढ़ाई के लिए जब उसे कलकत्ता रहना ही है, तो ख़र्च बन्द कर देने से क्या यह भीख मांगकर आपना निर्वाह करेगा ?’’
मां ने कहा, ‘‘इसके वहां पढ़ने की आवश्यकता ही क्या है ? तुम्हें याद होगा कि मेरे ससुरजी के स्कूल में संगठित होकर आये बच्चों द्वारा विदेशी शिक्षा को राष्ट्रघाती बताने पर तुम उन्हें दण्डित करने को उद्यत हो गये थे। अब जब तुम्हारा अपना यह लाडला ऐसी भाषा बोलता है, तो तुम चुपचाप क्यों सुनते रहते हो ?’’
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