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शुभदा

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : किताबघर प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :194
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5620
आईएसबीएन :978-81-89859-27

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बाँग्ला के अमर कथाशिल्पी शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय की कालजयी कृति...

Shubhnda

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

बाँग्ला के अमर कथाशिल्पी शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय प्रायः सभी भारतीय भाषाओं में पढ़े जाने वाले शीर्षस्थ उपन्यासकार हैं। उनके कथा-साहित्य की प्रस्तुति जिस स्वरूप में भी हुई, लोकप्रियता के तत्त्व ने उनके पाठकीय आस्वाद में वृद्धि ही की। सम्भवतः वह अकेले ऐसे भारतीय कथाकार भी हैं, जिनकी अधिकांश कालजयी कृतियों पर फिल्में भी बनीं तथा अनेक धारावाहिक सीरियल भी। ‘देवदास’ ‘चरित्रहीन’ और श्रीकान्त के साथ तो यह बारम्बार घटित हुआ है। अपने विपुल लेखन के माध्यम से शरत् बाबू ने मनुष्यों को उनकी मर्यादा सौंपी और समाज की उन तथाकथित ‘परम्पराओं को ध्वस्त किया, जिनके अन्तर्गत नारी की आँखें अनिच्छित आँसुओं से हमेंशा छलछलाई रहती हैं।

समाज द्वारा अनसुनी रह गई वंचितों की बिलख-चीख और आर्तनाद को उन्होंने परखा तथा गहरे पैठकर यह जाना कि जाति, वंश और धर्म आदि के नाम पर एक बड़े वर्ग को मनुष्य की श्रेणी से ही अपदस्थ किया जा रहा है। इस षड्यन्त्र के अन्तर्गत पनप रही तथाकथित सामाजिक ‘आम सहमति’ पर उन्होंने अपने लेखन के माध्यम से रचनात्मक हस्तक्षेप किया, जिसके चलते वह लाखों-करोंड़ों पाठकों के चहेते शब्दकार बने। नारी और अन्य शोषित समाजों के धूसर जीवन का उन्होंने चित्रण ही नहीं किया, बल्कि उनके आम जीवन में अच्छादित इन्द्रधनुषी रंगों की छटा भी बिखेरी है। प्रेम को आध्यात्मिकता तक ले जाने में शरत् का विरल योगदान है। शरत्-साहित्य आम आदमी के जीवन को जीवंत करने में सहायक जड़ी-बूटी सिद्ध हुआ है। हिन्दी के एक विनम्र प्रकाशक होने के नाते हमारा यह उत्तरदायित्व बनता ही था कि शरत्-साहित्य को उनके मूलतम ‘पाठ’ के अन्तर्गत अलंकृत करके पाठकों को सौंप सकें, अतः अब यह प्रस्तुति आपके हाथों में है।

शुभदा
प्रथम खण्ड


गरदन तक गंगाजल में खड़ी महाराजिन कृष्णप्रिया ने आंखों और कानों को अपने हाथों की अंगुलियों से ढककर तीन डुबकियां लगायीं और फिर अपनी पीतल की कलसी में जल भरते हुए बुदबुदायी, ‘‘जब किसी का भाग्य फूटता है, तो यही परिणाम निकलता है।’’
घाट पर नहा रहीं अन्य तीन-चार स्त्रियों ने महाराजिन की बड़बड़ाहट सुनी तो वे उसके चेहरे की ओर देखने लगीं किंतु किसी को उस झगड़ालू स्त्री से पूछने का, उससे तर्क करने का अथवा उसकी बात काटने का साहस नहीं हुआ। संयोगवश, नहा रही सभी स्त्रियां आयु में उससे छोटी थीं।

महाराजिन की बौखलाहट विन्ध्यवासिनी को सम्बोधित थी। बड़े बाप की बेटी और बड़े घर की यह बहू आजकल अपने मायके आयी हुई है। बिन्दो ने साहस जुटाकर पूछा, ‘‘बुआजी ! क्या बात है ?’’
महाराजिन बोली, ‘‘मैं हारान मुखर्जी के दुर्भाग्य की चर्चा कर रही थी। वास्तव में, बिन्दो एक महीना पहले हारान मुखर्जी के पांच-छह वर्षीय लड़के की मृत्यु का समाचार सुन चुकी थी।’’ उसी का उल्लेख करते हुए वह उनके प्रति सहानुभूति प्रकट करने लगी और बोली, ‘‘भगवान् के आगे किसी का क्या वश चलता है, फिर जीना-मरना, तो सबके यहां लगा ही रहता है।’’

सुनकर चुप हो गयी कृष्णप्रिया थोड़ी देर बाद बोली, ‘‘बिन्दो ! तू सच कहती है कि किसी का जीना-मरना तो ऊपर वाले के हाथ में, किन्तु मुखर्जी के लड़के की मृत्यु की बात नहीं कर रही थी। मैं तो दूसरी बात कह रही थी।’’
विन्ध्यवासिनी को उत्सुकता से अपने चेहरे पर ताकते हुए देखकर कृष्णप्रिया बोली, ‘‘शायद तुम्हें हारान मुखर्जी के बारे में अभी तक कुछ मालूम नहीं।’’

बिन्दो ने पूछा, ‘‘उनके जीवन में कुछ नया घट गया क्या ?’’
‘‘बेटी ! मैं वही तो तुम्हें बताने लगी हूं। भगवान् जिससे रूठते हैं, तो उस व्यक्ति का भाग्य इसी बुरी तरह फूटता है। मुझे तो इस बूढ़े खूसट के बारे में कुछ नहीं कहना है, मेरी चिन्ता और सहानुभूति तो सोने की मूर्ति उस मासूम बहू के प्रति है, जो बेचारी इस कलमुहे के पल्लू में बंधकर सुख शब्द तक से कभी परिचित नहीं हो सकी।’’
पहले की भांति कृष्णप्रिया के चेहरे पर ताकती बिन्दो समझ न सकी कि महाराजिन पहेलियां क्यों बुझा रही है ? मूल विषय से क्यों नहीं कहती ? घाट पर उपस्थित सभी स्त्रियों की उत्सुकता अपनी चरम सीमा पर पहुंच गयी थी। वे चकित होकर सोच रही थीं कि आख़िर हारान मुखर्जी के घर में ऐसा क्या घटित हो गया है, जिसकी जानकारी सारी दुनिया को है, किन्तु उन्हें उसके बारे में कुछ पता नहीं है !

काफ़ी देर तक सोच-विचार करने के बाद बिन्दो बोली, ‘‘बुआजी ! क्या आप वह बात हमें बताना ठीक नहीं समझतीं ?’’
महाराजिन बोली, ‘‘बेटी ! ऐसा कुछ नहीं है, किन्तु कहने को इसलिए मन नहीं करता; क्योंकि वह कुछ सुखद नहीं। उलटा, उसकी चर्चा करने से कलेजा फटने लगता है। भगवान् ने भी ऐसी स्त्री के भाग्य में इतना अधिक कष्ट लिखकर एक प्रकार से अन्याय ही किया है।’’
‘‘बुआजी ! आप किसके कष्ट की बात कर रही हो ?’’
‘‘बेटी ! कष्ट, व्यथा और वेदना का कोई एक रूप हो, तो मैं उसका वर्णन तुम लोगों से करूं ?’’
‘‘कुछ तो बताओ।’’

‘‘मैं अभी अपना मुंह नहीं खोलती। समय आने पर सबको अपने आप पता चल जायेगा। वैसे तो सबको पता चल ही गया है। थोड़ा पहले पीछे-वाली बात है। तुम लोगों को भी सब पता चल ही जायेगा।’’
‘‘क्या आप कुछ नहीं बताओगी ?’’
‘‘नहीं मैंने किसी से कुछ न कहने का पक्का विचार बना लिया है।’’
हंसकर बिन्दो बोली, ‘‘क्या हम आपकी बेगानी हैं ? क्या आप झूठ कहने लगी हैं ?’’
किन्तु गंगाजल के भीतर खड़ी महाराजिन बोली, ‘‘किसी से न कहने का वचन ले चुकी हूं। अब कहूं भी, तो भला कैसे कहूं ?’
झगड़ालू कृष्णप्रिया के इस प्रकार बिना कुछ बताये चल देने पर सभी स्त्रियां एक-दूसरे का मुंह ताकती रह गयीं। आज तक इस स्त्री को किसी बात इस प्रकार दबाते हुए किसी ने नहीं देखा। सुना था, उल्टे इसे तो सदैव दूसरों का बखिया उधेड़ने में आनन्द आता था। स्नान से निबटी सभी स्त्रियां अपने घर चली गयीं। बिन्दो घर जाकर और गीली साड़ी बदलकर मां के पास आयी, तो उसकी मां बोली ! देर तक पानी में रहने से बीमार पड़ने की आशंका बढ़ जाती है।’’
‘‘बीमार पड़ गयी, तो भोग लूंगी और क्या होगा ?’’

हंसते हुए मां बोली, ‘‘फिर काहे की चिन्ता ?’’
बिन्दो ने पूछा, ‘‘मां ! हारान मुखर्जी के यहां क्या विशेष घटा है ?’’
मां बोली, ‘‘विशेष घटने को और क्या रह गया है ?’’
‘‘आज घाट पर कृष्णप्रिया उनके यहां किसी नयी दुर्घटना के घटने का संकेत कर रही थी। आपको तो सब मालूम होगा ?’’
‘‘नहीं, कृष्णप्रिया ने क्या बताया है ?’’
‘‘उसने बताया कि उनका दुर्भाग्य उनकी जीवन-नैया को पूरी तरह से डुबोने पर तुला हुआ है। वह कलमुंहे मर्द के लिए तो दुखी नहीं थी, किन्तु उसकी पत्नी-रूप की रानी और साक्षात् देवी-के प्रति वह अत्यन्त विह्वल और संवेदनशील थी। बस, इस संकेत के अलावा उसने और कुछ नहीं बताया। कहती थी कि उसने दूसरों के झमेले में पड़ना छोड़ दिया है।’’
‘‘इतने दिनों के बाद महाराजिन को ऐसा सद्विचार आया है ?’’
‘‘मां ! क्या तुम्हें सचमुच इस बारे में कुछ भी मालूम नहीं है ?’’
मां के मुंह से ‘‘नहीं’’ सुनकर बिन्दो बोली, ‘‘ठीक है, तो आज दोपहर को उनके घर जाऊंजी।’’
मां के द्वारा—‘‘क्या करने जायेगी ?’’—पूछे जाने पर बिन्दो ने स्पष्ट उत्तर दिया, ‘‘उनके यहां घटी दुर्घटना की जानकारी लेने जाऊंगी।’’

‘‘क्या तू पागल हो गयी है, जिस बात को उसने नहीं बताना चाहा, उस बारे में पूछने जाना अच्छा थोड़े ही लगता है।’’
‘‘मां। आप किसकी बात कर रही हो, किसने नहीं बताना चाहा ?’’
‘‘अरी ! और किसने, कृष्णप्रिया महाराजिन ने।’’
‘‘क्या कृष्णप्रिया महाराजिन ऐसी आदर्श महिला है कि जो बात वह न बताना चाहती, वह बात दूसरों को जाननी ही नहीं चाहिए।’’

‘‘इस तरह के मामलों में तो उसे आदर्श ही समझना चाहिए।’’
‘‘आपकी दृष्टि में ऐसा होगा किन्तु मैं तो जानने का उत्सुक हूं।’’
‘‘पराये मामलों में टांग अड़ाना कोई बुद्धिमत्ता का काम नहीं है। अच्छा मां ! क्या किसी डूबते को बचाना, दूसरे के मामलों में दख़ल देना—जैसा बुरा काम कहलायेगा ?’’
‘‘किन्तु तुम वहां उस परिवार का बचाव करने नहीं जा रही हो।’’
‘‘किसी के डूबने का पता चलेगा तभी तो बचाने के बारे में सोचा जायेगा।’’
कुछ देर तक चुप रहने के बाद बिन्दो की मां बोली, ‘‘देखो, बेटी ! एक तो हारान मुखर्जी भला मानस नहीं है, दूसरे, तुम्हारे पिताजी के साथ उसकी तीन-छह का नाता है। इसलिए मुझे तो तुम्हारा उसके घर जाना अच्छा नहीं लगता।’’
‘‘मैं ! मैंने भी हारान मुखर्जी के बारे में सुना है, किन्तु मैं उससे तो मिलने नहीं जा रही। उसकी स्त्री से मिलने में क्या बुराई है ? मुझे पक्का विश्वास है कि वह किसी घोर संकट में फंस गये हैं। यदि पड़ोसी होकर भी हम उदासीन बने रहे तो क्या मेरी ससुराल वाले मेरी निन्दा करते नहीं थकेंगे ?’’

‘‘क्या तेरे पति अघोरनाथ ने तुम्हें दुनिया-भर के संकटग्रस्त व्यक्तियों की सहायता का काम सौंप रखा है, जो तेरे द्वारा मुखर्जी का उद्धार न किये जाने पर वह तुमसे नाराज़ होंगे ? फिर मैं तुम्हारी मां होकर तुम्हें जाने से रोक रही हूं, उसका कोई महत्त्व नहीं।’’
हठ करते हुए बिन्दो बोली, ‘‘मां ! मैं वहां जाने से अपने को नहीं रोक पा रही हूं।’’

‘‘क्या जाकर यही पूछेगी कि हारान बाबू के साथ क्या बीती है ? किन्तु इस बारे में परिवार के किसी सदस्य को कुछ पता ही नहीं है।’’
‘‘आपको यह सब कहां से मालूम हुआ ?’’
‘‘मुझे तुम्हारे पिताजी से पता चला है।’’
‘‘फिर मुझे बताओ।’’
‘‘हारान मुखर्जी द्वारा कोश से रुपये चुराने के अपराध में नन्दी बाबू ने उन्हें गिरफ़्तार करवाकर जेल में डलवा दिया है।’’
‘‘यह नन्दी बाबू कौन हैं ?’’
‘‘वह बामनपाड़ा के ज़मींदार हैं और हारान मुखर्जी उनके यहां कचहरी में नौकरी करते थे।’’
बिन्दो ने पूछा, ‘‘कितने रुपये चुराये थे ?’’
‘‘दो सौ रुपये।’’

‘‘क्या किसी ने उनकी ज़मानत नहीं ली ?’’
‘‘इस गांव में तुम्हारे पिताजी को छोड़कर ज़मानत देने का सामर्थ्य और किस व्यक्ति में है ? हारान के तुम्हारे बाबूजी से सम्बन्ध अच्छे नहीं, दोनों में वैर-भाव है। इसलिए उन्होंने हारान मुखर्जी की प्रार्थना को ठुकरा दिया।’’
काफ़ी देर चुप रहने के बाद बिन्दो बोली, ‘‘मैं आज दोपहर को एक बार उनके घर अवश्य जाऊंगी। मेरा मुखर्जी से मिलने का मन कर रहा है।’’
कुछ हैरान और नाराज़ हुई बिन्दो की मां कठोर स्वर में बोली, ‘‘क्या यह सब जानने के बाद भी वहां जाओगी ?’’
धृष्ठबनी बिन्दो सहज स्वर में बोली, ‘‘मुझे तो इसमें कोई बुराई नहीं दिखती। मैं नहीं समझती कि मेरे वहां जाने से किसी का कोई अहित होने वाला है। मैं तो कहती हूं कि मर्दों की लड़ाई अथवा उनके झगड़े से हम स्त्रियों को एकदम अलग ही रहना चाहिए।’’

दिन चढ़ आने के कारण घर का काम निबटाने में लगी बिन्दो की मां बोली, ‘‘तुम्हारे बाबूजी को तुम्हारा वहां जाना अच्छा नहीं लगेगा।’’
‘‘मैं इस प्रकार चुपके से जाऊंगी कि किसी को कानोंकान ख़बर ही नहीं लगेगी।’’
‘‘इस तरह की मुलाक़ात कभी गुप्त नहीं रह पाती।’’
‘‘आप जानती हैं, इसलिए यदि आप बाबूजी से नहीं कहोगी, तो उन्हें कैसे पता चलेगा ?’’
‘‘उन्हें जब भी पता चलेगा, वह काफ़ी नाराज़ होंगे।’’
‘‘मां ! माता-पिता अपनी सन्तान की ग़लती पर अवश्य बिगड़ते हैं, किन्तु अपनी नाराज़गी को गांठ नहीं बांधे रहते।’’

: 2 :


हम हलूदपुर गांव के ज़िले के नाम का उल्लेख करना इसलिए आवश्यक नहीं समझते; क्योंकि वह इस प्रकार उपेक्षित स्थान है कि कुछ भी देखने योग्य न होने के कारण, आज तक वहीं कभी किसी ने जाने का नाम नहीं लिया। फिर भी, हम इस स्थान का इतना विवरण प्रस्तुत कर देगे कि पाठकों की उत्सुकता की निवृत्ति के लिए पर्याप्त होगा।
यह गांव कभी संपन्न लोगों ने बसाया था। इसे मानने में कोई कठिनाई इसलिए नहीं; क्योंकि एक, यह गांव गंगाजी के किनारे पर स्थित है, दूसरे, पुराने जीर्ण-शीर्ण अथवा खण्डहर हो गये दो-चार शिवमन्दिर और बाग़-बग़ीचे इसके प्राचीन वैभव की गवाही देते हैं।
आज भी सूखे पोखरों के पक्के घाटों को देखकर यह अनुमान लगाना उचित प्रतीत होता है कि कभी यह गांव अत्यन्त विकसित रहा होगा।

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