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अमृतलाल नागर का अन्तिम उपन्यास ‘‘पीढ़ियां’’...
peedhiyan
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
‘‘पीढ़ियां’’ अमृतलाल नागर का अन्तिम उपन्यास है जो उन्होंने अपने निधन से कुछ दिन पहले ही समाप्त किया था। यह उपन्यास एक बड़े कैनवास पर अनेकानेक पात्रों और वास्तविक घटनाओं पर आधारित है। इसमें एक पूरी सदी के समाज का सजीव चित्रण है और भारत की स्वतन्त्रता चेतना के उतार-चढ़ाव की मर्मस्पर्शी कहानी भी।
अपनी बात
सन् 1983 में एक मित्र से बातें करते हुए प्रसंगवश मेरे मन में यह बात आई कि गदर के बाद के अंग्रेजी पढ़े-लिखे मध्यवर्ग की बदली हुई मानसिकता और उसके क्रमिक विकास को देखना और समझना आवश्यक है। उसके लिए पढ़ना और आवश्यक अंशों पर निशान लगाना आरम्भ किया।
‘करवट’ जहाँ तक याद पढ़ता है, मार्च सन् 1985 में पूरा कर लिया था। उसमें 1854 से 1902 तक के बदलते हुए समय का चित्रण किया गया है। 28 मई, 85 को मेरी जीवन संगिनी प्रतिभा का देहान्त हो गया। उसके बाद ही मेरी आंखों की रोशनी भी क्रमशः कम होती गई। लिखने का अभ्यास तो पुराना है किन्तु न पढ़ पाने के कारण बड़ी कठिनाई अनुभव करता हूँ। मेरे बचपन के साथी प्रियवर ज्ञानचन्द्रजी जैन यदि मेरी सहायता न करते तो शायद यह उपन्यास पूरा न कर पाता। भाई ज्ञानचन्द्र ने ही मेरी पांडुलिपि टाइप हो जाने के बाद टंकित प्रतिलिपि में भी आवश्यक संशोधन किए। ज्ञानचन्द्र के इस उपकार को कभी भूल नहीं सकता। और शब्दों को बखानू तो वे बुरा मान जाएंगे। करवट और प्रस्तुत उपन्यास की पांडुलिपियां चि. कमलाशंकर त्रिपाठी को बोलकर लिखवाई। दोनों ही पाण्डुलिपियों को चि. राजेन्द्र श्रीवास्तव ने टंकित किया है। दोनों ही मेरे आशीर्वाद के सुपात्र हैं।
जैसा कि पहले लिखा चुका हूं कि ‘करवट’ में 1854 से लेकर 1902 तक के काल का चित्रण किया गया है और प्रस्तुत उपन्यास में सन् 1905 के स्वदेशी आन्दोलन और क्रान्तिकारी आतंकवाद से लेकर सन् 1986 के विघटनकारी आतंकवाद तक का काल अंकित है। करवट में रायसाहब बंसीधर टंडन से लेकर उनके पौत्र और सन् 1942 के शहीद जयन्त के जन्म तक की कहानी आई है। प्रस्तुत उपन्यास में जयन्त की कहानी उनका पौत्र युधिष्ठिर टण्डन लिखता है।
उपन्यास लिखने से पहले अनेक पुस्तकों को पढ़ा था। उन सबके नाम न देकर केवल कुछ जनपदीय इतिहासों का उल्लेख अवश्य करूँगा। जिनसे मुझे स्वतन्त्रता संग्राम काल से सम्बन्धित महत्त्वपूर्ण सामग्री मिली। बलिया में सन् 42 की जनक्रान्ति पुस्तक के लेखक श्री दुर्गाप्रसाद गुप्त, ‘लखनऊ जनपद का स्वतन्त्रता संग्राम’ पुस्तक के लेखक श्री तबस्सुम निजामी भारतीय, रायबरेली का स्वतन्त्रता संग्राम के लेखक प्रिय श्री मनमोहन मिश्र का विशेष रूप से कृतज्ञ हूँ, ये पुस्तकें चूंकि कम पढ़ी जाती हैं, इसलिए इनका हवाला देना मैंने बहुत ही आवश्यक समझा।
अन्त में लखनऊ विश्वविद्यालय के वर्तमान कुलपति प्रियवर डॉ. हरिकृष्ण अवस्थी, को शुभकामनाएँ अर्पित करना भी अपना कर्तव्य मानता हूँ। डॉ. अवस्थी सन् 42 के स्थानीय नायकों में श्रेष्ठतम थे इसलिए मैंने इनसे भी उस समय के संस्मरण मांगे। हरिकृष्ण के लम्बे पत्र से मैंने कुछ वाक्य अपने उपन्यास में जस के तस ले लिये। हम दोनों की भाषा लगभग समान थी और उसका औपचारिक एहसान मानने का झंझट भी न था। उन्हें मेरे अनेकानेक आशीर्वाद।
‘करवट’ की पाण्डुलिपि का पार्सल विश्वनाथ जी को भेजने के लिए स्व. प्रतिभा ने तैयार किया था। इस बार उनकी याद बहुत आ रही है।
‘करवट’ जहाँ तक याद पढ़ता है, मार्च सन् 1985 में पूरा कर लिया था। उसमें 1854 से 1902 तक के बदलते हुए समय का चित्रण किया गया है। 28 मई, 85 को मेरी जीवन संगिनी प्रतिभा का देहान्त हो गया। उसके बाद ही मेरी आंखों की रोशनी भी क्रमशः कम होती गई। लिखने का अभ्यास तो पुराना है किन्तु न पढ़ पाने के कारण बड़ी कठिनाई अनुभव करता हूँ। मेरे बचपन के साथी प्रियवर ज्ञानचन्द्रजी जैन यदि मेरी सहायता न करते तो शायद यह उपन्यास पूरा न कर पाता। भाई ज्ञानचन्द्र ने ही मेरी पांडुलिपि टाइप हो जाने के बाद टंकित प्रतिलिपि में भी आवश्यक संशोधन किए। ज्ञानचन्द्र के इस उपकार को कभी भूल नहीं सकता। और शब्दों को बखानू तो वे बुरा मान जाएंगे। करवट और प्रस्तुत उपन्यास की पांडुलिपियां चि. कमलाशंकर त्रिपाठी को बोलकर लिखवाई। दोनों ही पाण्डुलिपियों को चि. राजेन्द्र श्रीवास्तव ने टंकित किया है। दोनों ही मेरे आशीर्वाद के सुपात्र हैं।
जैसा कि पहले लिखा चुका हूं कि ‘करवट’ में 1854 से लेकर 1902 तक के काल का चित्रण किया गया है और प्रस्तुत उपन्यास में सन् 1905 के स्वदेशी आन्दोलन और क्रान्तिकारी आतंकवाद से लेकर सन् 1986 के विघटनकारी आतंकवाद तक का काल अंकित है। करवट में रायसाहब बंसीधर टंडन से लेकर उनके पौत्र और सन् 1942 के शहीद जयन्त के जन्म तक की कहानी आई है। प्रस्तुत उपन्यास में जयन्त की कहानी उनका पौत्र युधिष्ठिर टण्डन लिखता है।
उपन्यास लिखने से पहले अनेक पुस्तकों को पढ़ा था। उन सबके नाम न देकर केवल कुछ जनपदीय इतिहासों का उल्लेख अवश्य करूँगा। जिनसे मुझे स्वतन्त्रता संग्राम काल से सम्बन्धित महत्त्वपूर्ण सामग्री मिली। बलिया में सन् 42 की जनक्रान्ति पुस्तक के लेखक श्री दुर्गाप्रसाद गुप्त, ‘लखनऊ जनपद का स्वतन्त्रता संग्राम’ पुस्तक के लेखक श्री तबस्सुम निजामी भारतीय, रायबरेली का स्वतन्त्रता संग्राम के लेखक प्रिय श्री मनमोहन मिश्र का विशेष रूप से कृतज्ञ हूँ, ये पुस्तकें चूंकि कम पढ़ी जाती हैं, इसलिए इनका हवाला देना मैंने बहुत ही आवश्यक समझा।
अन्त में लखनऊ विश्वविद्यालय के वर्तमान कुलपति प्रियवर डॉ. हरिकृष्ण अवस्थी, को शुभकामनाएँ अर्पित करना भी अपना कर्तव्य मानता हूँ। डॉ. अवस्थी सन् 42 के स्थानीय नायकों में श्रेष्ठतम थे इसलिए मैंने इनसे भी उस समय के संस्मरण मांगे। हरिकृष्ण के लम्बे पत्र से मैंने कुछ वाक्य अपने उपन्यास में जस के तस ले लिये। हम दोनों की भाषा लगभग समान थी और उसका औपचारिक एहसान मानने का झंझट भी न था। उन्हें मेरे अनेकानेक आशीर्वाद।
‘करवट’ की पाण्डुलिपि का पार्सल विश्वनाथ जी को भेजने के लिए स्व. प्रतिभा ने तैयार किया था। इस बार उनकी याद बहुत आ रही है।
अमृतलाल नागर
एक
युधिष्ठिर अपनी मां के साथ कार में सआदतगंज से घर लौट रहा है। लगभग एक माह से जिस समाचार ने शहर और राजनीति को अपने सच-झूठ की अफवाहों से घटाटोप ढक रखा है और जिससे एक गहरा साम्प्रदायिक तनाव इतने दिनों से क्रमशः उभर रहा है उसकी वास्तविकता के सूर्य को प्रत्यक्ष देखकर वह घर लौट रहा है। इस बात का संतोष और गर्व भरा आनन्द तो उसके मन में है ही, परन्तु साथ-ही-साथ तरह-तरह की वैचारिक परेशानियां भी मन को मथ रही हैं।
पिताजी कहते हैं, काल अपना माया भ्रम प्रसारित करता है, योगी उस जाल को काटकर सत्य को देखता है। पिताजी सच कहते हैं। उस वास्तविकता को जिसे हम प्रतिदिन अखबारों में उद्घाटित करते हैं, कितनी अवास्तविक और छिछली होती है। देखने में वास्तविक और अगम गहरी होने पर भी वह पिताजी के शब्दों में सचमुच माया है-इन्सानी दिमाग की रची हुई माया। घटना की प्रमुख नायिका श्रीमती जगदम्बा देवी मेहरोत्रा की अखबारों में प्रचारित कहानी, उसके पीछे उनके ईर्ष्यालु जेठ सेठ हरिमोहन दास और उनके चार सौ बीस वकील बेटे बृजमोहनदास की चालबाजियां हैं और इन सबके पीछे वह काले पहाड़ सा भूतपूर्व मुख्यमंत्री बी.पी. वर्मा जिसकी चालबाजियों ने पिताजी के मुख्यमंत्रित्व पद को धक्का दिया था, जिसके कारण वह सहसा जीवन से विरक्त हो गये। वह कार का रास्ता रोके सड़क पर खड़ा है। उसकी नज़रों को सहसा यह लगता है कि बी.पी. वर्मा की सूरत कार के सामने विशाल भूधराकार होकर खड़ी है। मन के बाहर भी उसे देखकर युधिष्ठिर के भीतर क्रोध और घृणा के पटाखे फूटने लगे हैं।
‘‘अरे भैंसा’....तेरा ध्यान कहां है नन्हा।’’
अम्मा की घबराहट-भरी चेतावनी से लगभग एक दो पल पहले ही विचार मंडित कल्पना तिरोहित होकर उसकी दृष्टि बाहर की दुनिया में लौटी थी। बी.पी. के बजाय एक भैंसा उसकी कार का रास्ता रोके खड़ा था। दाहिनी ओर से एक बस गुजर रही थी, कार ने झटके से ब्रेक लगाया। बस उसकी कार से लगभग दो बालिश्त दूर से गुज़र गई। युधिष्ठिर ने सड़क खाली देखकर कार को भैंसे से तनिक कतराकर आगे निकाला, किन्तु निकालते-निकलाते भी जान-बूझकर भैंसे के पिछले हिस्से को धक्का दे ही दिया। अम्मा बोली:‘‘आंख खोलकर चलाया कर रे।’’
‘‘आंखें तो खुली थीं अम्मा मगर खयालों में भैंसे की जगह तुम्हारा बी.पी. वर्मा मुझे दिखाई दे रहा था।’’
अम्मा हंस पड़ी, बोलीः ‘‘सच कहा, वह कम्बख्त राजनीति का भैंसा ही है, तेरे पिताजी का दुश्मन निगोड़ा। जैसे सन्त सुभाव के तेरे पिताजी को इसने राजनीति में दांव देकर गिराया वैसा ही आप भी चौपट हुआ। निगोड़ा। हाय बिचारी हमारी जगदम्बा को कैसे फंसाव में फंसाया है। सत्यानास जाय मरे का।’’
‘‘सत्यानास ही नहीं, साढ़े सत्यनास होगा अम्मा। इस बी.पी. के काले मुंह को मैं और भी तारकोल लगाके बल्कि उल्टे तवे की कालिख मल के काला करूंगा।’’
‘‘पहले तू मुझे घर छोड़ दे फिर जो चाहे करना।’’
हॉल में सात-आठ मेजें लगी हुई हैं। पास ही एक अलग खुली कमरेनुमां जगह में विभिन्न समाचार एजेंसियों की टेलीप्रिण्टर मशीनें खड़खड़ा रही हैं। मार्निंग टाइम्स के दफ्तर में पत्र के सांध्य संस्करण ‘द ईवनिंग स्टार’ का स्टाफ खबरों के प्रेतों और चुड़ौलों द्वारा नचाया जा रहा है। बरामदे के दूसरी ओर इस कमरे के समानान्तर हॉल में ‘मार्निग टाइम्स’ का सम्पादकीय दफ्तर है।
मेज़ पर रखी पी.टी.आई. की चिटों में से एक को उठाकर पढ़ते हुए जगदीश अरोड़ा अपनी खरखरी आवाज में चहका : भई वाह, भइ वाह’ अमां पाण्डेजी सुना, शाहबानों केस में राजीव गांधी की सरकार ने मुसलिम फंडामेण्टलिस्टों के आगे घुटने टेक दिये। सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस चन्द्रचूड़ के फैसले को काटने के लिए सी.आर.पी.सी में संशोधन किया जायेगा।’’
‘‘अरे मौलवियों के दबाव में आ गई बेचारों की सरकार क्या करें।’’
‘‘अच्छा दबाव है, तलाकशुदा मुसलिम महिलाओं को देश के कानून के अन्तर्गत गुजारा पाने का जो हक था उससे भी महरूम करके क्या वे देश को इक्कीसवीं सदी में ले जायेंगे या मिडीवल एज में ढकेल देंगे।
लिखते हुए ही सफीक ने कहा :‘‘मुसलिम पर्सनल लॉ की बात है। मौलवी साहबान बेचारे वही बात कहेंगे जो शरीयत कहती है।’’
विनोद पाण्डे तैश में बोले, ‘‘शरीयत क्या कहेगी। जस्टिस चन्द्रचूड़ ने उसे भी सावधानी से देखकर फैसला दिया था।’’
‘‘अरे भाई, इनकी मुर्गी की टेढ़ टांग ही होती है। मौलवी कहते हैं कि हमारी शरीयत अदालतों को सुप्रीमकोर्ट से भी सुप्रीम मानो बरना इस्लाम खतरे में पड़ जायेगा।’’
इस्लाम के खतरे की धमकियां सुनते-सुनते तो यार हम बोर हो गये। इस्लाम क्या मामूली कागज़ का टुकड़ा है जो फूंक मारने से उड़ जायेगा।’’
‘‘अमां पाण्डे तुम तो बात को कम्यूनल ऐंगिल से देखते हो यार। यह मत भूलो कि तुम्हारे मजहवी कानून हमसे भी ज़्यादा बेहूदा हैं। अभी कल ही खबर छपी थी कि खीरी के एक गांव में तुम्हारे एक हिन्दू पण्डित ने अपने एक जिजमान से उसकी बीबी का दान करवाके मज़ा लूट लिया। जहालत की हद है।’’
‘‘यह हद मुसलमानों में और भी जादा है शफीक। उस पण्डित को तो गांव के जाहिल हिन्दूओं ने ही पकड़ कर पुलिस में पहुंचा दिया मगर तुम्हारे यहां के तो पढ़े-लिखे लोग भी जाहिल मौलवियों के काबू में फंस जाते हैं।’’ कहकर विनोद पाण्डे ने अपनी पतलून की जेब से स्टील की बनी चूने तम्बाकू की डिबिया निकाली।’’
शफीकुर्ररहमान ताव खा गये, बोले, ‘‘तुम दिनोंदिन कम्यूनल होते जा रहे हो पाण्डे। ब्राहमन पण्डित क्लास के होने के नाते शायद तुम अपने को सुप्रीम समझते हो।’’
हथेली पर तम्बाकू गिराकर उस पर चूना थोपते हुए पाण्डे बोले : अमां सूप बोले तो बोले चलनी क्या बोले जिसमें बहत्तर छेद। ब्राहमण सुप्रीम हो या न हो मगर तुम्हारे मुल्ले-मौलवी तो सुप्रीम कोर्ट से भी सुप्रीम हैं।’’
शफीक ने विनोद पाण्डे को कड़ी नज़रों से देखकर अपनी खसखसी दाढ़ी खुजलायी। चपरासी शिवदीन मशीन से ख़बरों का नया पुलिन्दा लेकर पाण्डे की मेज़ पर रखने आया था, उसे खैनी मलते देखकर बोला परसादी हमहूं का मिलै पाण्डेजी।’’
तभी जावेद भी बोल पड़ा। ‘‘अमां, ये मजहवी नाबदान क्यों खोले बैठे हो तुम लोग। बर्नार्ड शॉ ने कहा है देअर इज़ ओनली वन रेलिजनः दो देअर ऑर हण्ड्रेड वर्शन्स ऑफ इट।’’
‘‘शॉ ने ऐसी कौन-सी ओरिजनल बात कह दी। हमारे स्वामी विवेकानन्द तो यह वर्षों पहले ही कह चुके हैं।’’
‘‘देखा जावेद फिर अपने हिन्दूपने पर उतर आये ये बम्महन पाण्डे।’’
शफीक की बात पर ध्यान न देकर जावेद ने कहाः ‘‘विवेकानन्द हिन्दू और मुसलमानपन दोनों ही से बहुत ऊपर उठे हुए थे। वह दोनों मजहबों की खूबियों को एक में मिला देना चाहते थे।’’
शिवदीन बोला, अच्छा जाबेद बाबू ये हिन्दू मुस्लिम समिस्या में हमरिऔ एक मगजखोरी का समाधान कर देओ आप। ससुरी कल्ह से परेशान कर रही है।’’
‘‘अमां तुम्हारी मगजखोरियां तो लाजवाब होती हैं यार। सुनाओ अपनी लालबुझक्कड़ी।’’
शिवदीन अपनी एक नज़र विनोद पाण्डे की खैनी मलती हुई हथेली पर रखकर बोला साहेब आप लोग अंग्रेजी में कहते हो कि हम इण्डियन हैं और तब आप सब पंच सिकूलर कहे जात हो हिन्दी में भारती कहते हो तबहूं सिकूलर और हम ससुर जो कहें कि हम हिन्दू हैं तो आप लोग कहत हौ कि न साले कमूनल आये। ईमां कौन बात ठीक है तनिक बताव जरा। अरे ई देस का नाम इण्डियौ है और हिन्दुस्थानों है और भारतौ है। तौ हम, कमूनल कैसे हुई गये।’’
जावेद : ‘‘हाँ यह मगज़खोरी बाजिब है यार। हिन्दू होना कम्यूनल नहीं है। हिन्दू तो हम सभी हैं जैसे इण्डियन वैसे हिन्दू।
शफीक तैश में आकर बोला :‘‘मगर मुसलमान अपने को हिन्दू हरगिज नहीं कहेगा। हां, वह हिन्दोस्तानी मुसलमान हो सकता है।’’
शफीक की बात पर जावेद हंस पड़ा। बोलाः ‘‘चेखुश यानी हिन्दुस्तानी और हिन्दू लफ्जों को भी अलग-अलग बांट दिया।’’
‘‘मैंने नहीं, हमारी तवारीख ने बांटा है। हिन्दू हिन्दुस्तानी हो सकता है मगर वह कम्यूनल है।’’
हेल्मेट बगल में दबाये बाएं हाथ में ब्रीफकेस लिये सफरी में जिसे सफारी सूट कहते हैं, चुस्त और टिप-टाप लगनेवाले युधिष्ठिर टण्डन ने सम्पादकीय कक्ष में प्रवेश किया। जावेद उसे देखते ही खिल उठा बोला, कहो बेटा, मार लाये चिड़िया कि टांय-टांय फिस।’’
जावेद की मेज़ पर अपना ब्रीफकेस और हेल्मेट रखकर आंखों से धूप का चश्मा उतारते हुए उसके सामने की कुर्सी पर बैठते हुए युधिष्ठिर बोला, अमां चिड़िया तो तुम जैसे लोग मारते हो, मैं सदा शिकरों और बाजों का शिकार करता हूं।’’
विनोद पाण्डे ने छींटा कसा : ‘‘अरे भाई, यह खत्रीवाद फैलाकर आ रहे हैं। हमारा छोटा भाई प्रमोद बतला रहा था कि सारे जर्नलिस्ट बिचारे टापते ही रह गये और यह अपनी मदर के साथ जगदम्बा मेहरोत्रा के यहां अपना खत्रीवाद फैलाते हुए घुस गये।’’
‘‘खत्रीवाद नहीं गुरु, कहो कि रिश्तेदारीवादी की सेंध लगाकर घुसा और ख़बर की तिजोरी लूट लाया।’’ युधिष्ठिर बोला।
जगदीश अरोड़ा अपनी मेज़ से चहके : अरे पर इसका फल क्या मिला तुम्हें।
जावेद की मेज़ पर रखे सिगरेट केस में से एक सिगरेट निकालते हुए युधिष्ठिर टण्डन बड़े जोर से हंसा बोला, ‘‘अजी बहुत शोर सुनते थे पहलू में दिल का जो चीरा तो बी.पी. का भूत निकल भागा।’’
जावेदः ‘‘वण्डरफुल, तो भूत पकड़ लिया तुमने।’’
सिगरेट सुलगाकर एक कश लेते हुए : ‘‘नहीं अभी तो सिर्फ भागते भूत की लंगोटी छीन लाया हूं।’’
पाण्डे बोला : ‘‘अमां खबर क्या लाये।’’
‘‘खबर यह है पाण्डेजी महराज कि आलमनगर मज़ार केस अभी तक जिस एंगिल से हम लोगों के सामने पेश किया गया है और जिस पर हम अखबारवालों ने अपनी इण्टलेक्चुअल अफवाहों के चार चांद और जड़ रखे हैं वह सौ में दो सौ फीसदी झूठ है। जगदम्बाजी के मकान में न कभी कोई मज़ार थी, न है और अब आगे बनने का तो सवाल ही नहीं उठता।’’
शफीक अपनी दृष्टि से उभरी कड़वी क्रोधभरी तीखी मुद्रा को बचाकर विनोद पाण्डे से बोला, ‘‘यार पाण्डे तुम सच कहते हो यह अब खत्रीवाद फैलायेगा। खतरानी को बचाने के लिए ये हजरत अस्लियत पर नकली अस्लियत का मुलम्मा चढ़ाने के लिए यह कोई नया प्लॉट ज़रूर सोच आये हैं।’’
‘‘शफीक मियां, हकीकत को हकीकत साबित करने के लिए प्लॉट सोचने की जरूरत नहीं पड़ती, उनके लिए फैक्ट्स बटोरने की अक्ल चाहिए। पाण्डेजी, इन फोटोग्राफ के ब्लाक बनवा लो और पहले पेज के दो कालम मेरे लिए रिजर्व रखना।’’
एक चुटकी चपरासी शिवदीन को दे और बाकी खैनी मुंह में डालकर रूमाल से हाथ पोंछते हुए पाण्डेजी तन गये, बोले : पहले पेज का मेकअप हो गया है, वह शायद मशीन पर भी गया है।’’
उसे तुरन्त रुकवाओ, वर्ना पाण्डेजी पछताओगे, एडीटर की डाँट खाओगे। क्या समझे बेटा। मैं एक कापी मार्निंग टाइम्स के लिए भी दे जाऊँगा। जावेद अब मैं अपने केबिन में जाता हूं।’’ कहकर युधिष्ठिर उठ खड़ा हुआ।
‘‘आर यू क्वाइट श्योर टण्डन। यह बी.पी. की कांसपिरेसी है।’’
हेल्मेट बगल में दबाकर ब्रीफकेस उठाते हुए मुंह में सिगरेट दबाकर युधिष्ठिर बोला, टू हन्ड्रेट पर्सेन्ट।’’ फिर सिगरेट मुंह से निकाल कर तुरन्त कहा : काम खतम करके मेरे केबिन में आना जावेद। आइ वान्ट टू सी योर फादर टुडे।’’
युधिष्ठिर ने पीठ फेरी तो शफीक बोला, ‘‘टण्डन मेरी इस एडवाइस को ध्यान में रखना दोस्त कि काले पहाड़ के पास वह कौन सी मस्जिद है यार उसके मौलवी नूरुद्दीन साहब ने मज़ार की बाबत एक पुरानी किताब का रेफरेन्स दिया है, वह झूठी नहीं हो सकती।’
युधिष्ठिर ने चलते हुए कहा तीन घण्टे बाद खुद ही जान जाओगे कि वह हिस्टॉरिकल रेफरेन्स वन थाउजेन्ड परसेन्ट झूठ है।’’
सआदतगंज में दालों के बड़े व्यापारी और खानदानी रईस सेठ हरिमोहनदास मेहरोत्रा दो भाई थे। छोटे स्व. जगमोहनदास की विधवा पत्नी जगदम्बा देवी ने दो महीने पहले नवाब दिलशेर खां के तबाह और शराबी बेटे गुलशेर खां से उनका आलमनगर स्थित दो एकड़ का एक बाग और उसमें बनी हुई एक हवेली पांच लाख रुपये में खरीद ली थी। सौदा इतना गुप-चुप हुआ कि किसी को कानों कान-खबर तक न लग पायी। यह होशियारी दिखलाने के लिए जगदम्बा देवी ने अपने स्वामिभक्त मुख्तार मथुराबख़्श को अपने बेगमगंज फार्म के पास दस बीघे जमीन का एक टुकड़ा पुरस्कारस्वरूप भेंट किया था। पिछले महीने जब हवेली और बाग की चहारदीवारी की मरम्मत होने लगी तो भूतपूर्व मुख्यमंत्री श्री भैरोंप्रसाद वर्मा को इसकी सूचना मिली, वह ताव खा गये। बाग के आस-पास उनकी भी लगभग तीन एकड़ ऊसर जमीन पड़ी है जिसे वह गुलशेर खां को दो एकड़ जमीन खरीद कर एक कालोनी के रूप में परिवर्तित करना चाहते थे। गुलशेर खां उनकी बात कुछ चल भी रही थी, मगर सौदा चूंकि पटा न था और इसी बीच में जमीन जगदम्बा देवी ने हथिया ली, इसीलिए वह बेहद खौल उठे थे।
बी.पी. ने बृजमोहनदास वकील की मार्फत उनके पिता हरिमोहनदास को इस बात के लिए पटाया कि वह अपनी विधवा अनुज वधू पर दबाव डालकर वह बाग उनके हाथों बिकवा दें। जगदम्बा देवी ने अपने जेठ की बात न मानी और कहा कि मेरा बेटा मनमोहनसिंह जब अमरीका से लौटकर आयेगा तो वहां एक प्राइवेट नर्सिंग होम बनवायेगा। हरिमोहन चुप हो गये पर बृजमोहन और बी.पी. के काले फनों की जीभें तेजी से लपलपाने लगीं। एक नया षड्यन्त्र रचा गया जिसमें मौलवी नूरुद्दीन से यह बयान दिलवाया गया कि हाथ से लिखी एक पुरानी किताब के अनुसार अट्ठारहवीं सदी के अन्त में बसरे से एक पहुंचे हुए फकीर काले पहाड़ की जियारत के लिए आये थे। वह शमशेर खां की इसी हवेली में टिके थे। यहीं उन्होंने चालीस रोज का चिल्ला खींचा और यहीं उनका नूर खुदा के नूर में मिल गया। जिस कमरे में बैठकर उन्होंने चिल्ला खींचा और जीवन मुक्ति पाई थी, उसी कमरे में उनकी मज़ार भी बनी। मौलवी जी के दादा को ही नवाब शमशेर खां ने उस पवित्र मज़ार की देख-रेख के लिए नियुक्त किया था। वह मुसलमानों की पाक मजहबी जगह है। इसलिए न तो गुलशेर खां को उसे बेचने का हक़ है और न जगदम्बा देवी को खरीदने का।
आस-पास के महल्ले के मुसलमानों की एक सभा भी की गई। उसमें सेठ हरिमोहनदास ने यह बयान दिया था कि मैं अपने बचपन से पीरबसरे की मज़ार का माहात्म्य सुनता आ रहा हूँ। यहां मज़ार थी और मौलवी जी के वालिद उनके दादा के बाद उसकी देख-रेख करते थे। मौलवी जी ने भी पुरानी किताब का हवाला दिया और जोश में बहुत सी बातें कहीं। भूतपूर्व मुख्यमंत्री और वकील बृजमोहनदास ने जोशीले लेक्चर झाड़े और मुसलमानों को उनकी यह पवित्र जगह वापिस दिलाने के लिए आन्दोलन छेड़ने का वचन दिया। अखबारों में भी इस कथा का खूब प्रचार हुआ।
इसके बाद एक दिन अचानक दो-ढाई सौ लुच्चे लुगाड़ों की भीड़ चहार दीवारी में घुस आयी और हवेली का फाटक जलाने की तरकीब में लगी। किन्तु श्रीमती जगदम्बा देवी ने उस मौके पर अपना साहस न खोया, बन्दूक लेकर छत पर आ खड़ी हुईं और भीड़ से कहा : खबरदार जो भी आगे बढ़ेगा उसे मैं पहले भून दूंगी। दस-बीस को तो मार ही डालूंगी। बाद में चाहे जो हो। छत से एक हवाई फायर भी हुआ, तब तक मुख्तार मथुराबख्श के प्रयत्नों से पुलिस भी हवेली की रक्षा करने के लिए आ गई।
भीड़ तितर-बितर हो गयी किन्तु अखबारों में खबरें-दर-खबरे जुड़ने लगीं। इसी बीच में मथुराबख्श यह टोह भी पा गये कि बी.पी. वर्मा की तीन एकड़ ऊसर जमीन वास्तव में उनकी नहीं है बल्कि उनकी किसी मौसेरी बहन कुसमा देवी की है। कुसमा देवी के पति ने मृत्यु शैय्या से एक वसीयत लिखी थी जिसमें उन्होंने अपनी मृत्यु के बाद अपने साले देशसेवक बरेली के भैरोंप्रसाद वर्मा को अपनी पत्नी और एकमात्र पुत्र का संरक्षक नियुक्त किया था। श्रीमती कुसमा देवी तो अपने पति की मृत्यु के कुछ वर्षों बाद ही पति लोक सिधार गयीं और लड़का शायद लखीमपुर खीरी में मौसी के पास रहता है। वर्मा जी अब उसी जमीन को अपनी पैतृक जायदाद बताते हैं।
इस रहस्योद्घाटन ने एडीशन इंचार्ज श्री विनोद पाण्डे को भी अचानक सत्यावेश दे दिया। आम तौर पर युधिष्ठिर से मन-ही मन खार खाने वाले विनोद पाण्डे ने युधिष्ठिर की लायी हुई इस रिपोर्ट को बड़े डिस्पले के साथ प्रकाशित किया। युधिष्ठिर अपने साथ तीन चित्र लाया था। एक चित्र उस हंगामे भरे दिन का था जब जगदम्बा देवी बन्दूक लिये छत पर खड़ी थीं। किसी पड़ोसी ने वह चित्र खींच लिया था और मुख्तार मथुराबख़्श के माध्यम से उसकी एक प्रति प्राप्त की थी। दूसरा चित्र मौलवी नूरुद्दीन का था जिसमें वह युधिष्ठिर टण्डन के साथ बैठे अपना वक्तव्य टेप करा रहे थे और तीसरा चित्र उस कमरे का जिसमें पीरबसरे की तथाकथित मज़ार बतलाई जाती थी। पांच फिट गहरे खुदे हुए उस कमरे में मजार के किसी चिह्न का अस्तित्व न था। पेज का मेकअप कराते हुए पाण्डे बड़बड़ाया कुछ भी कहो, है यह सच्चे बाप का बेटा।’’
पिताजी कहते हैं, काल अपना माया भ्रम प्रसारित करता है, योगी उस जाल को काटकर सत्य को देखता है। पिताजी सच कहते हैं। उस वास्तविकता को जिसे हम प्रतिदिन अखबारों में उद्घाटित करते हैं, कितनी अवास्तविक और छिछली होती है। देखने में वास्तविक और अगम गहरी होने पर भी वह पिताजी के शब्दों में सचमुच माया है-इन्सानी दिमाग की रची हुई माया। घटना की प्रमुख नायिका श्रीमती जगदम्बा देवी मेहरोत्रा की अखबारों में प्रचारित कहानी, उसके पीछे उनके ईर्ष्यालु जेठ सेठ हरिमोहन दास और उनके चार सौ बीस वकील बेटे बृजमोहनदास की चालबाजियां हैं और इन सबके पीछे वह काले पहाड़ सा भूतपूर्व मुख्यमंत्री बी.पी. वर्मा जिसकी चालबाजियों ने पिताजी के मुख्यमंत्रित्व पद को धक्का दिया था, जिसके कारण वह सहसा जीवन से विरक्त हो गये। वह कार का रास्ता रोके सड़क पर खड़ा है। उसकी नज़रों को सहसा यह लगता है कि बी.पी. वर्मा की सूरत कार के सामने विशाल भूधराकार होकर खड़ी है। मन के बाहर भी उसे देखकर युधिष्ठिर के भीतर क्रोध और घृणा के पटाखे फूटने लगे हैं।
‘‘अरे भैंसा’....तेरा ध्यान कहां है नन्हा।’’
अम्मा की घबराहट-भरी चेतावनी से लगभग एक दो पल पहले ही विचार मंडित कल्पना तिरोहित होकर उसकी दृष्टि बाहर की दुनिया में लौटी थी। बी.पी. के बजाय एक भैंसा उसकी कार का रास्ता रोके खड़ा था। दाहिनी ओर से एक बस गुजर रही थी, कार ने झटके से ब्रेक लगाया। बस उसकी कार से लगभग दो बालिश्त दूर से गुज़र गई। युधिष्ठिर ने सड़क खाली देखकर कार को भैंसे से तनिक कतराकर आगे निकाला, किन्तु निकालते-निकलाते भी जान-बूझकर भैंसे के पिछले हिस्से को धक्का दे ही दिया। अम्मा बोली:‘‘आंख खोलकर चलाया कर रे।’’
‘‘आंखें तो खुली थीं अम्मा मगर खयालों में भैंसे की जगह तुम्हारा बी.पी. वर्मा मुझे दिखाई दे रहा था।’’
अम्मा हंस पड़ी, बोलीः ‘‘सच कहा, वह कम्बख्त राजनीति का भैंसा ही है, तेरे पिताजी का दुश्मन निगोड़ा। जैसे सन्त सुभाव के तेरे पिताजी को इसने राजनीति में दांव देकर गिराया वैसा ही आप भी चौपट हुआ। निगोड़ा। हाय बिचारी हमारी जगदम्बा को कैसे फंसाव में फंसाया है। सत्यानास जाय मरे का।’’
‘‘सत्यानास ही नहीं, साढ़े सत्यनास होगा अम्मा। इस बी.पी. के काले मुंह को मैं और भी तारकोल लगाके बल्कि उल्टे तवे की कालिख मल के काला करूंगा।’’
‘‘पहले तू मुझे घर छोड़ दे फिर जो चाहे करना।’’
हॉल में सात-आठ मेजें लगी हुई हैं। पास ही एक अलग खुली कमरेनुमां जगह में विभिन्न समाचार एजेंसियों की टेलीप्रिण्टर मशीनें खड़खड़ा रही हैं। मार्निंग टाइम्स के दफ्तर में पत्र के सांध्य संस्करण ‘द ईवनिंग स्टार’ का स्टाफ खबरों के प्रेतों और चुड़ौलों द्वारा नचाया जा रहा है। बरामदे के दूसरी ओर इस कमरे के समानान्तर हॉल में ‘मार्निग टाइम्स’ का सम्पादकीय दफ्तर है।
मेज़ पर रखी पी.टी.आई. की चिटों में से एक को उठाकर पढ़ते हुए जगदीश अरोड़ा अपनी खरखरी आवाज में चहका : भई वाह, भइ वाह’ अमां पाण्डेजी सुना, शाहबानों केस में राजीव गांधी की सरकार ने मुसलिम फंडामेण्टलिस्टों के आगे घुटने टेक दिये। सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस चन्द्रचूड़ के फैसले को काटने के लिए सी.आर.पी.सी में संशोधन किया जायेगा।’’
‘‘अरे मौलवियों के दबाव में आ गई बेचारों की सरकार क्या करें।’’
‘‘अच्छा दबाव है, तलाकशुदा मुसलिम महिलाओं को देश के कानून के अन्तर्गत गुजारा पाने का जो हक था उससे भी महरूम करके क्या वे देश को इक्कीसवीं सदी में ले जायेंगे या मिडीवल एज में ढकेल देंगे।
लिखते हुए ही सफीक ने कहा :‘‘मुसलिम पर्सनल लॉ की बात है। मौलवी साहबान बेचारे वही बात कहेंगे जो शरीयत कहती है।’’
विनोद पाण्डे तैश में बोले, ‘‘शरीयत क्या कहेगी। जस्टिस चन्द्रचूड़ ने उसे भी सावधानी से देखकर फैसला दिया था।’’
‘‘अरे भाई, इनकी मुर्गी की टेढ़ टांग ही होती है। मौलवी कहते हैं कि हमारी शरीयत अदालतों को सुप्रीमकोर्ट से भी सुप्रीम मानो बरना इस्लाम खतरे में पड़ जायेगा।’’
इस्लाम के खतरे की धमकियां सुनते-सुनते तो यार हम बोर हो गये। इस्लाम क्या मामूली कागज़ का टुकड़ा है जो फूंक मारने से उड़ जायेगा।’’
‘‘अमां पाण्डे तुम तो बात को कम्यूनल ऐंगिल से देखते हो यार। यह मत भूलो कि तुम्हारे मजहवी कानून हमसे भी ज़्यादा बेहूदा हैं। अभी कल ही खबर छपी थी कि खीरी के एक गांव में तुम्हारे एक हिन्दू पण्डित ने अपने एक जिजमान से उसकी बीबी का दान करवाके मज़ा लूट लिया। जहालत की हद है।’’
‘‘यह हद मुसलमानों में और भी जादा है शफीक। उस पण्डित को तो गांव के जाहिल हिन्दूओं ने ही पकड़ कर पुलिस में पहुंचा दिया मगर तुम्हारे यहां के तो पढ़े-लिखे लोग भी जाहिल मौलवियों के काबू में फंस जाते हैं।’’ कहकर विनोद पाण्डे ने अपनी पतलून की जेब से स्टील की बनी चूने तम्बाकू की डिबिया निकाली।’’
शफीकुर्ररहमान ताव खा गये, बोले, ‘‘तुम दिनोंदिन कम्यूनल होते जा रहे हो पाण्डे। ब्राहमन पण्डित क्लास के होने के नाते शायद तुम अपने को सुप्रीम समझते हो।’’
हथेली पर तम्बाकू गिराकर उस पर चूना थोपते हुए पाण्डे बोले : अमां सूप बोले तो बोले चलनी क्या बोले जिसमें बहत्तर छेद। ब्राहमण सुप्रीम हो या न हो मगर तुम्हारे मुल्ले-मौलवी तो सुप्रीम कोर्ट से भी सुप्रीम हैं।’’
शफीक ने विनोद पाण्डे को कड़ी नज़रों से देखकर अपनी खसखसी दाढ़ी खुजलायी। चपरासी शिवदीन मशीन से ख़बरों का नया पुलिन्दा लेकर पाण्डे की मेज़ पर रखने आया था, उसे खैनी मलते देखकर बोला परसादी हमहूं का मिलै पाण्डेजी।’’
तभी जावेद भी बोल पड़ा। ‘‘अमां, ये मजहवी नाबदान क्यों खोले बैठे हो तुम लोग। बर्नार्ड शॉ ने कहा है देअर इज़ ओनली वन रेलिजनः दो देअर ऑर हण्ड्रेड वर्शन्स ऑफ इट।’’
‘‘शॉ ने ऐसी कौन-सी ओरिजनल बात कह दी। हमारे स्वामी विवेकानन्द तो यह वर्षों पहले ही कह चुके हैं।’’
‘‘देखा जावेद फिर अपने हिन्दूपने पर उतर आये ये बम्महन पाण्डे।’’
शफीक की बात पर ध्यान न देकर जावेद ने कहाः ‘‘विवेकानन्द हिन्दू और मुसलमानपन दोनों ही से बहुत ऊपर उठे हुए थे। वह दोनों मजहबों की खूबियों को एक में मिला देना चाहते थे।’’
शिवदीन बोला, अच्छा जाबेद बाबू ये हिन्दू मुस्लिम समिस्या में हमरिऔ एक मगजखोरी का समाधान कर देओ आप। ससुरी कल्ह से परेशान कर रही है।’’
‘‘अमां तुम्हारी मगजखोरियां तो लाजवाब होती हैं यार। सुनाओ अपनी लालबुझक्कड़ी।’’
शिवदीन अपनी एक नज़र विनोद पाण्डे की खैनी मलती हुई हथेली पर रखकर बोला साहेब आप लोग अंग्रेजी में कहते हो कि हम इण्डियन हैं और तब आप सब पंच सिकूलर कहे जात हो हिन्दी में भारती कहते हो तबहूं सिकूलर और हम ससुर जो कहें कि हम हिन्दू हैं तो आप लोग कहत हौ कि न साले कमूनल आये। ईमां कौन बात ठीक है तनिक बताव जरा। अरे ई देस का नाम इण्डियौ है और हिन्दुस्थानों है और भारतौ है। तौ हम, कमूनल कैसे हुई गये।’’
जावेद : ‘‘हाँ यह मगज़खोरी बाजिब है यार। हिन्दू होना कम्यूनल नहीं है। हिन्दू तो हम सभी हैं जैसे इण्डियन वैसे हिन्दू।
शफीक तैश में आकर बोला :‘‘मगर मुसलमान अपने को हिन्दू हरगिज नहीं कहेगा। हां, वह हिन्दोस्तानी मुसलमान हो सकता है।’’
शफीक की बात पर जावेद हंस पड़ा। बोलाः ‘‘चेखुश यानी हिन्दुस्तानी और हिन्दू लफ्जों को भी अलग-अलग बांट दिया।’’
‘‘मैंने नहीं, हमारी तवारीख ने बांटा है। हिन्दू हिन्दुस्तानी हो सकता है मगर वह कम्यूनल है।’’
हेल्मेट बगल में दबाये बाएं हाथ में ब्रीफकेस लिये सफरी में जिसे सफारी सूट कहते हैं, चुस्त और टिप-टाप लगनेवाले युधिष्ठिर टण्डन ने सम्पादकीय कक्ष में प्रवेश किया। जावेद उसे देखते ही खिल उठा बोला, कहो बेटा, मार लाये चिड़िया कि टांय-टांय फिस।’’
जावेद की मेज़ पर अपना ब्रीफकेस और हेल्मेट रखकर आंखों से धूप का चश्मा उतारते हुए उसके सामने की कुर्सी पर बैठते हुए युधिष्ठिर बोला, अमां चिड़िया तो तुम जैसे लोग मारते हो, मैं सदा शिकरों और बाजों का शिकार करता हूं।’’
विनोद पाण्डे ने छींटा कसा : ‘‘अरे भाई, यह खत्रीवाद फैलाकर आ रहे हैं। हमारा छोटा भाई प्रमोद बतला रहा था कि सारे जर्नलिस्ट बिचारे टापते ही रह गये और यह अपनी मदर के साथ जगदम्बा मेहरोत्रा के यहां अपना खत्रीवाद फैलाते हुए घुस गये।’’
‘‘खत्रीवाद नहीं गुरु, कहो कि रिश्तेदारीवादी की सेंध लगाकर घुसा और ख़बर की तिजोरी लूट लाया।’’ युधिष्ठिर बोला।
जगदीश अरोड़ा अपनी मेज़ से चहके : अरे पर इसका फल क्या मिला तुम्हें।
जावेद की मेज़ पर रखे सिगरेट केस में से एक सिगरेट निकालते हुए युधिष्ठिर टण्डन बड़े जोर से हंसा बोला, ‘‘अजी बहुत शोर सुनते थे पहलू में दिल का जो चीरा तो बी.पी. का भूत निकल भागा।’’
जावेदः ‘‘वण्डरफुल, तो भूत पकड़ लिया तुमने।’’
सिगरेट सुलगाकर एक कश लेते हुए : ‘‘नहीं अभी तो सिर्फ भागते भूत की लंगोटी छीन लाया हूं।’’
पाण्डे बोला : ‘‘अमां खबर क्या लाये।’’
‘‘खबर यह है पाण्डेजी महराज कि आलमनगर मज़ार केस अभी तक जिस एंगिल से हम लोगों के सामने पेश किया गया है और जिस पर हम अखबारवालों ने अपनी इण्टलेक्चुअल अफवाहों के चार चांद और जड़ रखे हैं वह सौ में दो सौ फीसदी झूठ है। जगदम्बाजी के मकान में न कभी कोई मज़ार थी, न है और अब आगे बनने का तो सवाल ही नहीं उठता।’’
शफीक अपनी दृष्टि से उभरी कड़वी क्रोधभरी तीखी मुद्रा को बचाकर विनोद पाण्डे से बोला, ‘‘यार पाण्डे तुम सच कहते हो यह अब खत्रीवाद फैलायेगा। खतरानी को बचाने के लिए ये हजरत अस्लियत पर नकली अस्लियत का मुलम्मा चढ़ाने के लिए यह कोई नया प्लॉट ज़रूर सोच आये हैं।’’
‘‘शफीक मियां, हकीकत को हकीकत साबित करने के लिए प्लॉट सोचने की जरूरत नहीं पड़ती, उनके लिए फैक्ट्स बटोरने की अक्ल चाहिए। पाण्डेजी, इन फोटोग्राफ के ब्लाक बनवा लो और पहले पेज के दो कालम मेरे लिए रिजर्व रखना।’’
एक चुटकी चपरासी शिवदीन को दे और बाकी खैनी मुंह में डालकर रूमाल से हाथ पोंछते हुए पाण्डेजी तन गये, बोले : पहले पेज का मेकअप हो गया है, वह शायद मशीन पर भी गया है।’’
उसे तुरन्त रुकवाओ, वर्ना पाण्डेजी पछताओगे, एडीटर की डाँट खाओगे। क्या समझे बेटा। मैं एक कापी मार्निंग टाइम्स के लिए भी दे जाऊँगा। जावेद अब मैं अपने केबिन में जाता हूं।’’ कहकर युधिष्ठिर उठ खड़ा हुआ।
‘‘आर यू क्वाइट श्योर टण्डन। यह बी.पी. की कांसपिरेसी है।’’
हेल्मेट बगल में दबाकर ब्रीफकेस उठाते हुए मुंह में सिगरेट दबाकर युधिष्ठिर बोला, टू हन्ड्रेट पर्सेन्ट।’’ फिर सिगरेट मुंह से निकाल कर तुरन्त कहा : काम खतम करके मेरे केबिन में आना जावेद। आइ वान्ट टू सी योर फादर टुडे।’’
युधिष्ठिर ने पीठ फेरी तो शफीक बोला, ‘‘टण्डन मेरी इस एडवाइस को ध्यान में रखना दोस्त कि काले पहाड़ के पास वह कौन सी मस्जिद है यार उसके मौलवी नूरुद्दीन साहब ने मज़ार की बाबत एक पुरानी किताब का रेफरेन्स दिया है, वह झूठी नहीं हो सकती।’
युधिष्ठिर ने चलते हुए कहा तीन घण्टे बाद खुद ही जान जाओगे कि वह हिस्टॉरिकल रेफरेन्स वन थाउजेन्ड परसेन्ट झूठ है।’’
सआदतगंज में दालों के बड़े व्यापारी और खानदानी रईस सेठ हरिमोहनदास मेहरोत्रा दो भाई थे। छोटे स्व. जगमोहनदास की विधवा पत्नी जगदम्बा देवी ने दो महीने पहले नवाब दिलशेर खां के तबाह और शराबी बेटे गुलशेर खां से उनका आलमनगर स्थित दो एकड़ का एक बाग और उसमें बनी हुई एक हवेली पांच लाख रुपये में खरीद ली थी। सौदा इतना गुप-चुप हुआ कि किसी को कानों कान-खबर तक न लग पायी। यह होशियारी दिखलाने के लिए जगदम्बा देवी ने अपने स्वामिभक्त मुख्तार मथुराबख़्श को अपने बेगमगंज फार्म के पास दस बीघे जमीन का एक टुकड़ा पुरस्कारस्वरूप भेंट किया था। पिछले महीने जब हवेली और बाग की चहारदीवारी की मरम्मत होने लगी तो भूतपूर्व मुख्यमंत्री श्री भैरोंप्रसाद वर्मा को इसकी सूचना मिली, वह ताव खा गये। बाग के आस-पास उनकी भी लगभग तीन एकड़ ऊसर जमीन पड़ी है जिसे वह गुलशेर खां को दो एकड़ जमीन खरीद कर एक कालोनी के रूप में परिवर्तित करना चाहते थे। गुलशेर खां उनकी बात कुछ चल भी रही थी, मगर सौदा चूंकि पटा न था और इसी बीच में जमीन जगदम्बा देवी ने हथिया ली, इसीलिए वह बेहद खौल उठे थे।
बी.पी. ने बृजमोहनदास वकील की मार्फत उनके पिता हरिमोहनदास को इस बात के लिए पटाया कि वह अपनी विधवा अनुज वधू पर दबाव डालकर वह बाग उनके हाथों बिकवा दें। जगदम्बा देवी ने अपने जेठ की बात न मानी और कहा कि मेरा बेटा मनमोहनसिंह जब अमरीका से लौटकर आयेगा तो वहां एक प्राइवेट नर्सिंग होम बनवायेगा। हरिमोहन चुप हो गये पर बृजमोहन और बी.पी. के काले फनों की जीभें तेजी से लपलपाने लगीं। एक नया षड्यन्त्र रचा गया जिसमें मौलवी नूरुद्दीन से यह बयान दिलवाया गया कि हाथ से लिखी एक पुरानी किताब के अनुसार अट्ठारहवीं सदी के अन्त में बसरे से एक पहुंचे हुए फकीर काले पहाड़ की जियारत के लिए आये थे। वह शमशेर खां की इसी हवेली में टिके थे। यहीं उन्होंने चालीस रोज का चिल्ला खींचा और यहीं उनका नूर खुदा के नूर में मिल गया। जिस कमरे में बैठकर उन्होंने चिल्ला खींचा और जीवन मुक्ति पाई थी, उसी कमरे में उनकी मज़ार भी बनी। मौलवी जी के दादा को ही नवाब शमशेर खां ने उस पवित्र मज़ार की देख-रेख के लिए नियुक्त किया था। वह मुसलमानों की पाक मजहबी जगह है। इसलिए न तो गुलशेर खां को उसे बेचने का हक़ है और न जगदम्बा देवी को खरीदने का।
आस-पास के महल्ले के मुसलमानों की एक सभा भी की गई। उसमें सेठ हरिमोहनदास ने यह बयान दिया था कि मैं अपने बचपन से पीरबसरे की मज़ार का माहात्म्य सुनता आ रहा हूँ। यहां मज़ार थी और मौलवी जी के वालिद उनके दादा के बाद उसकी देख-रेख करते थे। मौलवी जी ने भी पुरानी किताब का हवाला दिया और जोश में बहुत सी बातें कहीं। भूतपूर्व मुख्यमंत्री और वकील बृजमोहनदास ने जोशीले लेक्चर झाड़े और मुसलमानों को उनकी यह पवित्र जगह वापिस दिलाने के लिए आन्दोलन छेड़ने का वचन दिया। अखबारों में भी इस कथा का खूब प्रचार हुआ।
इसके बाद एक दिन अचानक दो-ढाई सौ लुच्चे लुगाड़ों की भीड़ चहार दीवारी में घुस आयी और हवेली का फाटक जलाने की तरकीब में लगी। किन्तु श्रीमती जगदम्बा देवी ने उस मौके पर अपना साहस न खोया, बन्दूक लेकर छत पर आ खड़ी हुईं और भीड़ से कहा : खबरदार जो भी आगे बढ़ेगा उसे मैं पहले भून दूंगी। दस-बीस को तो मार ही डालूंगी। बाद में चाहे जो हो। छत से एक हवाई फायर भी हुआ, तब तक मुख्तार मथुराबख्श के प्रयत्नों से पुलिस भी हवेली की रक्षा करने के लिए आ गई।
भीड़ तितर-बितर हो गयी किन्तु अखबारों में खबरें-दर-खबरे जुड़ने लगीं। इसी बीच में मथुराबख्श यह टोह भी पा गये कि बी.पी. वर्मा की तीन एकड़ ऊसर जमीन वास्तव में उनकी नहीं है बल्कि उनकी किसी मौसेरी बहन कुसमा देवी की है। कुसमा देवी के पति ने मृत्यु शैय्या से एक वसीयत लिखी थी जिसमें उन्होंने अपनी मृत्यु के बाद अपने साले देशसेवक बरेली के भैरोंप्रसाद वर्मा को अपनी पत्नी और एकमात्र पुत्र का संरक्षक नियुक्त किया था। श्रीमती कुसमा देवी तो अपने पति की मृत्यु के कुछ वर्षों बाद ही पति लोक सिधार गयीं और लड़का शायद लखीमपुर खीरी में मौसी के पास रहता है। वर्मा जी अब उसी जमीन को अपनी पैतृक जायदाद बताते हैं।
इस रहस्योद्घाटन ने एडीशन इंचार्ज श्री विनोद पाण्डे को भी अचानक सत्यावेश दे दिया। आम तौर पर युधिष्ठिर से मन-ही मन खार खाने वाले विनोद पाण्डे ने युधिष्ठिर की लायी हुई इस रिपोर्ट को बड़े डिस्पले के साथ प्रकाशित किया। युधिष्ठिर अपने साथ तीन चित्र लाया था। एक चित्र उस हंगामे भरे दिन का था जब जगदम्बा देवी बन्दूक लिये छत पर खड़ी थीं। किसी पड़ोसी ने वह चित्र खींच लिया था और मुख्तार मथुराबख़्श के माध्यम से उसकी एक प्रति प्राप्त की थी। दूसरा चित्र मौलवी नूरुद्दीन का था जिसमें वह युधिष्ठिर टण्डन के साथ बैठे अपना वक्तव्य टेप करा रहे थे और तीसरा चित्र उस कमरे का जिसमें पीरबसरे की तथाकथित मज़ार बतलाई जाती थी। पांच फिट गहरे खुदे हुए उस कमरे में मजार के किसी चिह्न का अस्तित्व न था। पेज का मेकअप कराते हुए पाण्डे बड़बड़ाया कुछ भी कहो, है यह सच्चे बाप का बेटा।’’
दो
वजीरगंज थाने से कुछ ही दूर पर बने ‘मुश्ताकविला’ के सामने हसन जावेद और युधिष्ठिर टण्डन के ‘वेस्पा’ और ‘विजयसुपर’ स्कूटर आकर रुके। गली में हरे-भरे लॉन और पेड़-फूलों सहित यह जगह युधिष्ठिर को अनोखी और आश्चर्यजनक लगी। जावेद फाटक के बाहर अपना स्कूटर खड़ा कर फाटक खोलने लगा। युधिष्ठिर बोलाः ‘‘जान पड़ता है इस हवेली को फिर से ‘रीशेप’ दिया गया है।’’
‘‘हाँ, अब्बू मियां ने इसे काफी हद तक नया बना दिया है। मगर ये आगे वाला हिस्सा जिसमें तुम ये लॉन व दरख्त वगैरह देख रहे हो, अस्ल में इस हवेली का हिस्सा नहीं थे। यह एक धोबी का मकान था जिसे मेरे फादर ने मुंहमाँगे दाम से भी कुछ ज्यादे देकर खरीद लिया और ज़मीन चौरस करवाके उसे यह शक्ल दे दी। बड़ी बादशाह तबियत पायी है उन्होंने। और उस जमाने में एक ताल्लुकेदारका बड़ा मुकद्मा यहां से लेकर प्रीवीकौन्सिल तक लड़ा था, उसमें काफी दौलत कमाई थी।’’
‘‘यह तुम्हारी पुश्तैनी हवेली है ?’’
जावेद ने दरवाज़े की घण्टी बजाई फिर जवाब दिया हमारा पुश्तैनी मकान तो बरेली में है। मेरे नाना यानी अब्बू मियां के चाचा लखनऊ चले आये थे। यह हवेली उन्होंने ही खरीदी थी।’’ तभी गुलखैरू की मौटी अम्मा ने दरवाज़ा खोला, साथ ही उसके चार टूटे दांतों वाला खिला हुआ मुंह भी खुला।
‘‘आज तो बड़ी जल्दी आ गये बन्ने मियां, अभी तो बेगम साहिबा अस्कूल से पढ़ा कर भी नहीं आई हैं।’’
‘‘न सही तुम तो हो बुआ ये हमारे बड़े अज़ीज दोस्त हैं, यहां के वज़ीरे आज़म के साहबजादे। इनको अच्छी-सी चाय पिलाओगी तो तुम्हें दो चार गांव बख्श देंगे। गुलखैरू की मोटी अम्मा ने आँखें फाड़कर युधिष्ठिर टण्डन को देखा।
उसने हंसकर कहाः ‘‘इसकी बातों पर न जाइए बुआ। हां, चाय पिलाने के लिए मैं भी आपसे दरख्वास्त करूंगा और कुछ इस्कुट-बिस्कुट, डबलरोटी केक जो भी हो ज़रा...
मोटी अम्मा के अधपोपले मुंह से हंसी फिर फिसली। कंधों पर पड़ा दोपट्टा सम्हाला और कहा आप तशरीफ रखें हम अभी हाज़िर करते हैं।’’
अब्बू सो तो नहीं रहे बुआ ?’’
बड़े मालिक पढ़ रहे हैं, अपने वजीरेआज़म दोस्त को डिराइन रूम में ही ले जाओ।’’ मोटी अम्मा खिलखिलाकर हंसती हुई भीतर चली गई।
‘‘हाँ, अब्बू मियां ने इसे काफी हद तक नया बना दिया है। मगर ये आगे वाला हिस्सा जिसमें तुम ये लॉन व दरख्त वगैरह देख रहे हो, अस्ल में इस हवेली का हिस्सा नहीं थे। यह एक धोबी का मकान था जिसे मेरे फादर ने मुंहमाँगे दाम से भी कुछ ज्यादे देकर खरीद लिया और ज़मीन चौरस करवाके उसे यह शक्ल दे दी। बड़ी बादशाह तबियत पायी है उन्होंने। और उस जमाने में एक ताल्लुकेदारका बड़ा मुकद्मा यहां से लेकर प्रीवीकौन्सिल तक लड़ा था, उसमें काफी दौलत कमाई थी।’’
‘‘यह तुम्हारी पुश्तैनी हवेली है ?’’
जावेद ने दरवाज़े की घण्टी बजाई फिर जवाब दिया हमारा पुश्तैनी मकान तो बरेली में है। मेरे नाना यानी अब्बू मियां के चाचा लखनऊ चले आये थे। यह हवेली उन्होंने ही खरीदी थी।’’ तभी गुलखैरू की मौटी अम्मा ने दरवाज़ा खोला, साथ ही उसके चार टूटे दांतों वाला खिला हुआ मुंह भी खुला।
‘‘आज तो बड़ी जल्दी आ गये बन्ने मियां, अभी तो बेगम साहिबा अस्कूल से पढ़ा कर भी नहीं आई हैं।’’
‘‘न सही तुम तो हो बुआ ये हमारे बड़े अज़ीज दोस्त हैं, यहां के वज़ीरे आज़म के साहबजादे। इनको अच्छी-सी चाय पिलाओगी तो तुम्हें दो चार गांव बख्श देंगे। गुलखैरू की मोटी अम्मा ने आँखें फाड़कर युधिष्ठिर टण्डन को देखा।
उसने हंसकर कहाः ‘‘इसकी बातों पर न जाइए बुआ। हां, चाय पिलाने के लिए मैं भी आपसे दरख्वास्त करूंगा और कुछ इस्कुट-बिस्कुट, डबलरोटी केक जो भी हो ज़रा...
मोटी अम्मा के अधपोपले मुंह से हंसी फिर फिसली। कंधों पर पड़ा दोपट्टा सम्हाला और कहा आप तशरीफ रखें हम अभी हाज़िर करते हैं।’’
अब्बू सो तो नहीं रहे बुआ ?’’
बड़े मालिक पढ़ रहे हैं, अपने वजीरेआज़म दोस्त को डिराइन रूम में ही ले जाओ।’’ मोटी अम्मा खिलखिलाकर हंसती हुई भीतर चली गई।
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