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पराग रंग झरने दो

बाल गोविन्द द्विवेदी

प्रकाशक : मीमांसा प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :108
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5604
आईएसबीएन :000000

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‘पराग रंग झरने दो’ डॉ बाल गोविन्द द्विवेदी का चतुर्थ काव्य-संग्रह है, जिसमें कवि की आस्था के पुष्प पराग-राग से अनुरंजित होकर झर रहे हैं।

Parag Rang Jharane Do - Kavita Sangrah by Dr. Bal Govind Dwivedi

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

कतिपय प्रेरक-अंश


फल की डोरी से ही, दुःख-दर्द बँधे होते हैं।
कर्म निष्काम हो ! इच्छा को ढुलक जाने दो

ब्रह्म सर्वत्र है, मंदिर में ही नहीं रहता;
मन में मंदिर को बसा लो ! तो मेरे साथ चलो।

नित जलाये नहीं दीप सद्भाव के,
तम का अजगर, बसेरा निगल जायेगा।

मंदिर की घंटियाँ-अजान साथ न हुए,
कैसे लिखें भविष्य, हमें सोचना होगा।

कर्म निष्काम करो ! दुनिया से डरते क्यों हो ?
कर्म पूजा है, तो परिणाम से डरते क्यों हो ?

सीने में बोझ भय का, बस, जी रहे हैं लोग।
चिंता को सोमरस की तरह, पी रहे हैं लोग।।

वीत-राग की विषम राह में, इनको मत उलझाओ !
कर्म-संस्कृति के साँचे में ढालो ! सब ढल जाओ !


        ‘पराग रंग झरने दो’ : एक दृष्टि


‘पराग रंग झरने दो’ डॉक्टर बाल गोविन्द द्विवेदी का चतुर्थ काव्य-संग्रह है, जिसमें कवि की आस्था के पुष्प पराग-राग से अनुरंजित होकर झर रहे हैं। इसके पूर्व उनके ‘आने दो शब्दों के’, अधर के द्वार पर’ और ‘आस्था के फूलों से’ काव्य-संग्रह प्रकाशित और चर्चित रहे हैं, जिनमें उनके गीतों के नाना रंग-रूप बिखरे हैं।

डॉ. बाल गेविन्द द्विवेदी मूलतः राष्ट्रीय-सांस्कृतिक चेतना के कवि हैं। शिक्षक एवं विज्ञान का अध्येता होने के कारण उनके काव्य में आदर्श एवं सत्य का सुयोग सहज है। इसीलिए वे एक भावुक कवि ही नहीं विचारक भी हैं। जब भावना से बुद्धि का योग होता है तो विवेक जाग्रत होता है। आज के बुद्धिवादी युग में केवल भाव-प्रवण कविता समाज के ग्राह्य नहीं है। इसलिए कवि को विवेकशील होना पड़ेगा। काव्य-परम्परा में यह विवेक कविता में सदैव रहा है। इसलिए कवि को मनीषी कहा जाता रहा है। लेकिन गीतों या मुक्तक-काव्य में बौद्धिकता के अभिनिवेश से सरसता पर संघात पहुँचता है। इसलिए गीतकार सामान्यतः संवेदना एवं प्रेमाभिव्यक्ति के कवि माने जाते रहे हैं। डॉ. बाल गोविन्द द्विवेदी की कविताओं का यह सहज शक्ति मिली है कि वे गीतों में बौद्धिकता एवं भावना का सुन्दर समन्वय प्रस्तुत कर लेते हैं। इसकी पृष्ठभूमि में कवि का गहरा जीवनानुभव एवं अतीत के प्रति आस्था है।

‘पराग रंग झरने दो’ कवि का चतुर्थ संग्रह है अतः निश्चित रूप से इस कृति में प्रौढ़ता है—भाव, भाषा एवं विचार तीनों दृष्टियों से। इस संग्रह की एक विशेषता यह भी है कि इसमें रचनाकार ने हिन्दी की एक नयी विधा गज़ल का प्रयोग बहुलता से किया है। ग़ज़ल और हिन्दी ग़ज़ल की चर्चा आगे करेंगे। प्रारम्भ में यह विचारणीय है कि ‘पराग रंग झरने दो’ की कवताएँ किस भावभूमि एवं विचार-सरणि से अनुप्राणित है। डॉ. द्विवेदी के काव्य में यूँ तो प्रेमानुभूति एवं प्रकृति का स्वरूप सर्वत्र उद्घाटित हुआ है लेकिन उनकी प्रेमव्यंजना न शरीरी है, न अशरीरी है। रूमानियत की अपेक्षा कवि ने इंसानियत से प्रेम को अधिक महत्व दिया है और यही उन्हें वर्तमान गीतकारों से पृथक करता है। वे कविता को केवल स्वान्तःसुखाय सीमित न मानकर स्वीकारते हैं—

‘सामाजिक दायित्व बोध है, केवल शब्द नहीं है कविता’
इसलिए उनके काव्य में ‘स्वानुभूत सत्यों का निर्झर’ बहता है। सामाजिक दायित्व का बोध उसी कवि को हो सकता है जिसकी कविता में मानवता से प्रेम हो। इसलिए हम डॉ. बाल गोविन्द द्विवेदी की इन कविताओं को मानवता की कविता कह सकते हैं।

आज के युग में मानवता का पक्षधर होने का अर्थ है उन शक्तियों के प्रतिपक्ष में होना जो मानवता की विरोधी हैं। मानवता का विरोध आज के युग में केवल अमानवीय दृष्टि नहीं है, न तो वर्तमान संसार सुर और असुर के खेमों में बँटा है। आज की विडम्बना यह है कि मानव के हितार्थ होने वाले कार्य ही मानवता के शत्रु हैं जिनमें अतिबौद्धिकता, अतिवैज्ञानिकता और अतियथार्थ के साथ उत्तर-आधुनिकता भी सम्मिलित हैं।

अधुनिकता से उत्तर आधुनिकता का पुश्चरण वास्तव में विश्व बाजार की देन है जहाँ मानवीय अस्तित्व की तुलना में मशीनीकरण को वरीयता दी जाती है। यंत्र मानव ने मानव के अस्तित्व को संकट में डाल दिया है जिसका परिणाम प्रत्यक्ष है। मानवीय संवेदना के जो पहलू कभी मानवता के संवर्द्धक थे—जैसे धर्म, कला, संस्कृति, विश्वबन्धुत्व वही आज के युग में मानवता के शत्रु हैं। धर्म, कला और संस्कृति वर्तमान युग में मानवीय भावों के उपचारक न रह कर विरोधी खेमे में चले गए हैं। विज्ञान का अध्येता होने के कारण डॉ. द्विवेदी इन आसन्न खतरों से वाकिफ़ हैं। अतः उनके काव्य में जहाँ वर्तमान मानव के प्रति गहरी संवेदना उनकी भावप्रवणता का प्रतीक है, वहीं इन संकटों का विरोध गहरी बौद्धिकता का परिचायक है। इसे ही काव्य विवेक कहा जाता है। वे कहते हैं—


        ‘विश्वास चोट खा रहा है, गिर-गिर के उठ रहा है।
        सिहरन है बेशुमार, अधर सी रहे हैं लोग।।’


‘लोग’ के प्रति इस गहरी संवेदना में दर्द है विश्वास के चोट खाने पर, कवि की आशावादी चेतना इतनी प्रगाढ़ है कि वे विश्वास को टूटने नहीं देते। मानवता के शत्रु जितना नष्ट करते हैं वह चोट खाने पर बार-बार उठकर संकेत देता है कि अन्ततः वह बना रहेगा। तभी तक यह चोट है, जब तक लोगों के अधर बन्द हैं। बौद्धिक वर्ग का अधर सी लेना ही विश्वास की चोट है, जिसकी परिणति बुद्धिजीवियों की इस कायरता में छिपी है—


        ‘अंतस् की वेदना हमें रह-रह के काटती।
        लिखना था उनकी हार मगर जीत लिख गए।।’

डॉ. बाल गोवन्द द्विवेदी ने मूलतः वर्तमान की विसंगतियों को अपनी कविता के केन्द्र में रखा है। विसंगतियों का चित्रण करने का यह अर्थ नहीं है कि वे अतीतजीवी हैं और किसी पुरातनता या गतानुगतिका के पक्षधर हैं। कवि ने आधुनिकता का नहीं उसमें प्रसारित अपसंस्कृति का निषेध अपनी कविताओं में किया है। संस्कति और अपसंस्कृति का यह द्वन्द्व आधुनिक जीवन की त्रासदी है। संस्कृति को उपभोक्तावादी दृष्टि से स्वीकर करना, धर्म एवं अध्यात्म को बाजार की वस्तु बनाना और पूरे परिवेश का राजनीतिकरण युग की विडम्बना है। इन तत्वों से मानवता का क्षरण निरन्तर होता जा रहा है। इसके कारण मनुष्य रहकर जीना कितना कठिन है—


‘सीने में बोझ भय का, बस जी रहे हैं लोग।
चिन्ता को सोम-रस की तरह पी रहे हैं लोग।।’


‘सोम-रस’ में मादकता होती है। वैदिक साहित्य में सोम-रस के पान ने देवासुर संग्राम को जन्म दिया था। आज की सारी आपाधापी के पीछे असुरक्षा की भावना है। समाज में कोई सुरक्षित अनुभव नहीं करता इसलिए चिन्ता से मुक्त नहीं है। असुरक्षा के नाम पर समाज के अस्तित्व पर संकट लाना चिन्ता का निरसन नहीं है किन्तु चिन्ता ने सोम-रस की तरह जीवन को इस तरह आच्छादित कर लिया है कि उसने मादकता के स्थान पर उन्माद उत्पन्न कर दिया है। यह उन्माद हर क्षेत्र में व्याप्त है—धर्म, शिक्षा, संस्कृति, विज्ञान, कला, राजनीति, आर्थिक तंत्र-हर क्षेत्र का उन्मादीकरण है। जो जहाँ है वहाँ स्थिर न रह कर एक दूसरे से आगे बढ़ने की होड़ में है। धर्म जैसे स्थिर क्षेत्रों में यह उन्माद यदि प्रखर है तो अन्य क्षेत्रों की गति को क्या कहा जाए ? इसीलिए कवि धर्म की शाश्वतता की दुहाई बार-बार देता और कहता है


‘मन्दिर की घंटियाँ, अजान साथ न हुए,
कैसे लिखें भविष्य, हमें सोचना होगा।’


धर्म ही नहीं जनसेवा का अर्थ भी बदला है जिसके संदर्भ में कवि कहता है—


‘जनसेवकों के झूठ वादों से सचाई मर गई।
दल-दलों की बाढ़ आई, धँस रहा है आदमी।।


सचाई के मरने और दल-दलों के श्लेष ने वर्तमान राजनीतिक परिवेश पर गहरी चोट की है।
डॉ. बाल गोविन्द द्विवेदी मंचीय कवि नहीं हैं। वे एक मनीषी कवि हैं जिनकी स्पष्ट जीवन-दृष्टि है। कविता उनके लिए साधना है जिसका साध्य है मनुष्य। इसलिए वे कविता में नारेबाजी और वाहवाही की अपेक्षा न कर साधना-पथ पर निरन्तर चलने में विश्वास करते हैं। अतः उन्हें जनकवि की अपेक्षा जनभावनाओं का कवि कहा जा सकता है। डॉ. द्विवेदी की सभी रचनाओं में उनका एकान्त चित्रण प्रस्फुटित हुआ है। कवि की एकान्तिकता केवल चिन्तन के धरातल पर है, अभिव्यक्ति के स्तर पर नहीं। अभिव्यक्ति के स्तर पर कवि के पीछे जन-संमर्द है। डॉ. बाल गोविन्द द्विवेदी की कविताएँ उस भीड़ की आवाज हैं, जिसको पता नहीं है कि लोक प्रचलित शैली का उपयोग अपने काव्य में किया तथा गज़ल और गीत को अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया है। दूसरी और उन्होंने भाषिक संरचना को जनभाषा का रूप दिया है किन्तु आवश्यकता पड़ने पर पौराणिक प्रतीकों को नए सन्दर्भों में प्रस्तुत करने का अवसर नहीं खोया है—नारी—प्रताड़ना के सन्दर्भ में उनका यह प्रतीक अवलोकनीय है


सभी भस्मासुरों को दे रहे वरदान नित शंकर।
गूंजती चीख नारी की, भला इसमें नया क्या है ?


अतीत से वर्तमान को जोड़ता यह प्रतीक नारी की वर्तमान स्थिति में स्त्री-विमर्श के तमाम आयोजनों के मध्य बहुत कुछ कह जाता है।
जब डॉ. बाल गोविन्द द्विवेदी को वर्तमान से जूझते मनुष्य का कवि कहा जाता है तो नारी, पुरुष और समाज के विभिन्न वर्गों से जुड़ी समस्याएँ स्वतः समाहित हो जाती हैं। मानवता के कवि से कोई समस्या ओझल नहीं होती। डॉ. द्विवेदी की कविता-यात्रा में एक सातत्य है और उनका युग-चिन्तन भी शाश्वत है। भस्मासुरों के अत्याचारों को अतीत से वर्तमान तक जोड़ना भी उसी सातत्य का प्रतिफल है। अतः कवि ने समस्याएँ वर्तमान से ली अवश्य हैं लेकिन मानवता के संघर्ष की कहानी पुरानी है और आगे भी रहेगी। इसलिए कवि ने समस्याओं को सांकेतिक रूप में उठाया है उसे कोई इतिवृत्त नहीं दिया है जिससे कविता के टटकेपन में कमी आए। कविता और कथा का यही अंतर है। कविता में युग-चिन्तन के साथ ताजापन रहता है। पर कहानी में युग चिन्तन की सनातनता के बावजूद इतिवृत्त बदलता रहता है।

 डॉ. द्विवेदी की कविताओं को पूर्व संग्रहों के परिप्रेक्ष्य में देखें तो यह क्रमिक विकास दिखाई पड़ता है। मानवता की कराह पर उन्होंने जिन शब्दों का आह्वान किया और जो उनके अधर के द्वार पर आए उनसे उन्हें जनसमर्थन लिया, उनकी आस्था के फूल खिले। चौथे संग्रह तक उनकी आस्था के फूल पराग-कण बिखर रहे हैं। ऐसी संकल्पना कोई साधक ही कर सकता है जिसे साधना की कठिनाइयों की चिन्ता नहीं है, जिसकी दृष्टि साध्य पर है। डॉ. द्विवेदी मानते हैं कि ये विडम्बनाएँ और विसंगतियाँ क्षणिक हैं, अन्ततः सत्य और शिव ही रहेगा। इसीलिए वे कहते हैं—
‘साधना-पथ के पथिक है, हम सितारा खोज लेंगे।
निज भँवर में पल रहे है, हम किनारा खोज लेंगे।।’

डॉ. बाल गोविन्द द्विवेदी मेरे आत्मीय हैं। आत्मीय की रचनाओं की समीक्षा एक जटिल झलक बन जाती है लेकिन इसका एक सुखद पक्ष है कि आत्मीय की सृजन-समीक्षा के समय रचना और रचनाकार दोनों अनचाहे समीक्षा के केन्द्र होते हैं। डॉ. बाल गोविन्द द्विवेदी की जीवन-यात्रा कर्मठता की जीवन-गाथा है। उसका भी क्रमिक विकास-क्रम है। मुझे प्रसन्नता है कि डॉ. द्विवेदी की आस्था न जीवन में डगमगाई है, न काव्य में। विपथन और विचलन से मुक्त मानवता की प्रहरी बनीं उनकी कविताएँ इस बात का संकेत करती देती हैं कि उनकी कविता-यात्रा अविराम है। पराग रंग झरेंगे तो नए फूल खिलेंगे, सुगंध फैलेगी। इस अविश्वास के साथ डॉ. द्विवेदी को साधुवाद देता हूँ कि एक अंतराल के बाद उनका यह संग्रह हिन्दी जगत के समक्ष नए कलेवर में नए विहान का संकेत देता प्रकाशित हो रहा है।

डॉ. लक्ष्मीकान्त पाण्डेय
अध्यक्ष, हिन्दी-विभाग
पी.पी.एन. कॉलेज, कानपुर

कविता क्या है ?


काव्य कल्पना, काव्य कला है, काव्य समीक्षा जीवन की।
काव्य स्वयं अनुभूत सत्य है, कवि मन में अंकित-चित्रित।।

सामाजिक दायित्व बोध है, केवल शब्द नहीं है कविता।
हृदय-बुद्धि का परम समन्वय, जीवन का अनुभव है कविता।।

वामन से विराट की यात्रा, नित्य सनातन-शाश्वत कविता,
स्वानुभूत सत्यों का निर्झर, सत्यं-शिवम्-सुन्दरम् कविता।।

सुधा कलश, सरिता की लय गति, नव-समीर का स्पन्दन,
निर्मल मन का सच्चा दर्पण, समाधिस्थ की भाषा कविता।


 केदारनाथ धाम


 
प्रातः की मधुरिम बेला में, मलय-अनिल चलने लगता है।
मन का कीर भोर होते ही, शिव-शिव-शिव कहने लगता है।

हिम से आच्छादित धरती पर, नीलकंठ का पावन मन्दिर,
चरणामृत पी-पीकर जिनका, हिमनद भी बहने लगता है।
मन का कीर भोर होते ही, शिव-शिव-शिव कहने लगता है।
झुरमुट झूम रहे मादक हो, शिव की जटिल-जटाओं जैसे,
वंदन कर इठलाता निर्झर, पीड़ा को सहने लगता है।
मन का कीर भोर होते ही, शिव-शिव-शिव कहने लगता है।

श्वेत-धवल गौरी का आँचल, फैला है नीलाम्बर तक,
मनः शान्ति का दूत प्रफुल्लित, नवगति से उड़ने लगता है।
मन का कीर भोर होते ही, शिव-शिव-शिव कहने लगता है।

गणपति का क्रीड़ास्थल यह, हरी-भरी पावन-धरती,
दैहिक-बंधन ढीले पड़ते, तन-मन सब रमने लगता है।
मन का कीर भोर होते ही, शिव-शिव-शिव कहने लगता है।


अपना गाँव-घर



स्मृति के पट खुले तो, खुलते चले गये।।
रंगों में रंग मिल गये, जुड़ते चले गये।।

माटी की गंध आ रही, जिसमें पले थे हम।
आँसू के साथ स्वप्न भी, घुलते चले गये।।

गलियाँ पुकारती हैं, खेले थे हम जहाँ।
अभिनय के साथ गीत को गुनते चले गये।।

बचपन में स्वर्ग लग रहा था अपना गाँव-घर।
विहंगों के स्वर्ण-पंख भी चुनते चले गये।।

मन में उठल रही हैं, सरोवर की मछलियाँ।
लहरों की मर्म ध्वनि को सुनते चले गये।।

लौटेंगे माँ की छाँव में, बीते हुए वो पल।
ताने में निज अतीत को बुनते चले गये।।


तुम भूलते नहीं



कैसी है वह विसात, कि तुम भूलते नहीं।
मन में बसे हठात, कि तुम भूलते नहीं।।

ऊर्जा का स्रोत खोजते, शिखरों पे चढ़ गया।
भीगी हुई थी-रात, कि तुम भूलते नहीं।।

मंदिर के द्वार चढ़ गया, घंटे बजा दिये।
भीनी सुगंध-वात, कि तुम भूलते नहीं।।

नौका-विहार चल रहा, झीलों में राग-रंग।
हंसता हुआ प्रपात, कि तुम भूलते नहीं।।

वादी में खो गया मन, सौन्दर्य-बोध में।
पुलकित थे पात-पात, कि तुम भूलते नहीं।।

छिटकी थी चाँदनी, मुग्धा धरा-गगन।
चकई-चकोर-घात, कि तुम भूलते नहीं।।


काश ! मेरे मौन को पहचान पाते



सीप मोती से भरा है जान जाते।
काश ! मेरे मौन को पहचान पाते।।

चल रहे नित संग पग-पग खिले डोले।
कह रहे, निज व्यथा पल-पल मिले बोले।
दीप मन का है तरंगित जान जाते।
             काश ! मेरे मौन को पहचान पाते।।

चल रहे, अंधी गुफा में, नयन खोल।
चल रहे अनुबंध में, संग बिना बोले।।
मीत मन का यह समर्पण जान जाते।
           काश ! मेरे मौन को पहचान पाते।।

पल रहे हैं, एक साधन-एक ही आवास में।
रह रहे हैं, एक धरती-एक ही आकाश में।
प्राण-पिक मम हिय-पटल पर झाँक जाते।
            काश ! मेरे मौन को पहचान पाते।।

पी रहे मीठा—गरल नित प्रेम में-विश्वास में।
जी रहे जीवन अँधेरे में-उनींदी आश में।।
धैर्य की इस साधना का गान गाते।
           काश ! मेरे मौन को पहचान पाते।।

 

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