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दूसरा सप्तक

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :176
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5601
आईएसबीएन :81-263-0739-0

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सात कवियों का यह संकलन ‘अज्ञेय’ द्वारा 1949 में सम्पादित हुआ था...

Doosra Saptak - A Hindi Book of Poetry by Agyeya

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

सात कवियों का यह संकलन ‘अज्ञेय’ द्वारा 1949 में सम्पादित हुआ था और प्रकाशित 1951 में। और अब प्रस्तुत है एक और नया संस्करण।
यह संग्रह ऐतिहासिक है। एक अर्थ में ‘तार सप्तक’ से भी अधिक, क्योंकि जहाँ ‘तार सप्तक’ के सभी कवियों का अपने परवर्तियों पर प्रभाव अलग-अलग देखा जा सका था, वहाँ ‘दूसरा सप्तक’ के कवियों ने समसामयिक काव्य की प्रवृत्तियों का प्रतिनिधित्व किया और उनका प्रभाव अपने समय के काव्य पर पड़ा। आज भी अनेक काव्यप्रेमियों में इस संग्रह की कविताएँ आधुनिक हिन्दी कविता के उस रचनाशील दौर की स्मृतियाँ जगाएँगी जब भाषा और अनुभव दोनों में नये प्रयोग एक साथ कर सकना ही कवि-कर्म को सार्थक बनाता था। निस्संदेह ये कविताएँ अपने में तृप्तिकर हैं- उनके लिए जिन्हें अब भी कविता पढ़ने का समय है। साथ ही, इस संग्रह की विचारोत्तेजक और विवादास्पद भूमिका को पढ़ना भी अपने में एक ताजा बौद्धिक अनुभव आज भी है।

भूमिका

‘तार सप्तक’ का प्रकाशन जब हुआ, जब मन में यह विचार ज़रूर उठा था कि इसी प्रकार की पुस्तकों का एक अनुक्रम प्रकाशित किया जा सकता है, जिस में क्रमश: नये आने वाले प्रतिभाशाली कवियों की कविताएँ संग्रहीत की जाती रहें- ऐसे कवियों की जिन में प्रतिभा तो है कि उनकी संग्रहीत रचनाएँ प्रकाशित हों, लेकिन जो इतने प्रतिष्ठापित नहीं हुए हैं कि कोई प्रकाशक सहसा उन के अलग-अलग संग्रह निकाल दे। ‘तार सप्तक’ का आयोजन भी मूलत: इसी भावना से हुआ था, यद्यपि इस में साथ ही यह आदर्शवादी आरोप भी था कि संग्रह का प्रकाशन सहकार-मूलक हो। (जिन पाठकों ने यह संग्रह देखा है वे शायद स्मरण करेंगे कि इस आदर्श की रक्षा तब भी नहीं हो सकी थीं; ‘दूसरे सप्तक’ में तो उसे निबाहने का यत्न ही व्यर्थ मान लिया गया था।)

तो ‘तार सप्तक’ के कवि ऐसे कवि थे, जिन के बारे में कम से कम सम्पादक की यह धारणा थी कि उन में ‘कुछ’ है, और वे पाठक के सामने लाये जाने के पात्र हैं; यद्यपि वे हैं ‘नये’ ही, केवल ‘कवियश:प्रार्थी’ ही और इस लिए काव्यक्षेत्र के अन्वेषी ही। यह तो नहीं कहा जा सकता कि उन में से सभी अनन्तर काव्य-क्षेत्र में आगे बढ़े – कम से कम एक ने तो न केवल ऐलान कर के कविता छोड़ दी बल्कि क्रमश: कविता के ऐसे आलोचक हो गये कि उसे साहित्य-क्षेत्र से ही खदेड़ देने पर तुल गये; और बाकी में से दो-एक और भी कविता से उपराम-से हैं। फिर भी, हम आज भी समझते हैं कि ‘तार सप्तक’ का प्रकाशन –प्रकाशन ही नहीं, उस का आयोजन, संकलन, सम्पादन- न केवल समयोचित और उपयोगी था बल्कि उसे हिन्दी काव्य-जगत् की एक महत्त्वपूर्ण घटना भी कहा जा सकता है। और आलोचकों द्वारा उसकी जितनी चर्चा हुई है उसे ‘सप्तक’ के प्रभाव का सूचक मान लेना कदाचित् अनुचित न होगा।

‘दूसरा सप्तक’ में फिर सात नये कवियों की संग्रहीत रचनाएँ प्रस्तुत की जा रही हैं। सात में से कोई भी हिन्दी-जगत् का अपरिचित हो, ऐसा नहीं है, लेकिन किसी का कोई स्वतंत्र कविता-संग्रह नहीं छपा है, अत: यह कहा जा सकता है कि प्रकाशित कविता-ग्रंथ के जगत में ये कवि इसी पुस्तक के साथ प्रवेश कर रहे हैं। और हमारा विश्वास है कि हिन्दी में सम्प्रति जो काव्य-संग्रह छपते हैं; उन में कम ऐसे होंगे जिन में अच्छी कविताओं की इतनी बड़ी संख्या एकत्र मिले, जितनी ‘दूसरा सप्तक’ में पायी जायेगी।

क्या ये रचनाएँ प्रयोगवादी हैं ? क्या ये कवि किसी एक दल के हैं, किसी मतवाद- राजनीतिक या साहित्यिक- को पोषक हैं ? ‘प्रयोगवाद’ नाम के नये मतवाद के प्रवर्त्तन का दायित्व क्योंकि अनचाहे और अकारण ही हमारे मत्थे मढ़ दिया गया है, इस लिए हमारा इन प्रश्नों के उत्तर में कुछ कहना आवश्यक है, और नहीं तो इसी लिए कि ‘दूसरा सप्तक’ के संग्रहीत कवि आरंभ से ही किसी पूर्वग्रह के शिकार न बनें, अपने कृतित्व के आधार पर ही परखे जायें।

प्रयोग का कोई वाद नहीं है। हम वादी नहीं रहे, नहीं हैं। न प्रयोग अपने-आप में इष्ट या साध्य है। ठीक इसी तरह कविता का भी कोई वाद नहीं है। अत: हमें ‘प्रयोगवादी’ कहना उतना ही सार्थक या निरर्थक है जितना हमें ‘कवितावादी’ कहना। क्योंकि यह आग्रह तो हमारा है कि जिस प्रकार कविता-रूपी माध्यम को बरतते हुए आत्माभिव्यक्ति चाहने वाले कवि को अधिकार है कि उस माध्यम का अपनी आवश्यकता के अनुरूप श्रेष्ठ उपयोग करे, उसी प्रकार आत्म-सत्य के अन्वेषी कवि को, अन्वेषण के प्रयोग-रूपी माध्यम का उपयोग करते समय उस माध्यम की विशेषताओं को परखने का भी अधिकार है। इतना ही नहीं, बिना माध्यम की विशेषता, उस की शक्ति, और उस की सीमा को परखे और आत्मसात किये हुए उस माध्यम का श्रेष्ठ उपयोग हो ही नहीं सकता।

जो लोग प्रयोग की निन्दा करने के लिए परम्परा की दुहाई देते हैं, वे यह भूल जाते हैं कि परम्परा, कम से कम कवि के लिए, कोई ऐसी पोटली बाँध कर अलग रखी हुई चीज़ नहीं है, जिसे उठाकर वह सिर पर लाद ले और चल निकले। (कुछ आलोचकों के लिए भले ही वैसा हो।) परम्परा का कवि के लिए कोई अर्थ नहीं है जब तक वह उसे ठोक-बजा कर, तोड़-मरोड़ कर देख कर आत्मसात् नहीं कर लेता; जब तक वह इतना गहरा संस्कार नहीं बन जाती कि उसका कोई चेष्टा पूर्वक ध्यान रख कर उसका निर्वाह करना अनावश्यक न हो जाये। अगर कवि की आत्माभिव्यक्ति एक संस्कार-विशेष के वेष्टन में ही सहज सामने आती है, तभी वह संस्कार देने वाली परम्परा कवि की परम्परा है, नहीं तो-वह इतिहास है, शास्त्र है, ज्ञान-भण्डार है जिस से अपरिचित भी रहा जा सकता है। अपरिचित ही रहा जाये, ऐसा आग्रह हमारा नहीं है- हम पर तो बौद्धिकता का आरोप लगाया जाता है ! - पर इस से अपरिचित रह कर भी परम्परा से अवगत हुआ जा सकता है और कविता की जा सकती है।

तो प्रयोग अपने-आप में इष्ट नहीं है, वह साधन है दोहरा साधन है। क्योंकि एक तो वह उस सत्य को जानने का साधन है जिसे कवि प्रेषित करता है, दूसरे वह एक तो प्रेषण की क्रिया को और उसके साधनों को जानने का भी साधन है। अर्थात् प्रयोग-द्वारा कवि अपने सत्य को अधिक अच्छी तरह जान सकता है और अधिक अच्छी तरह अभिव्यक्त कर सकता है। वस्तु और शिल्प दोनों के क्षेत्र में प्रयोग फलप्रद होता है। यह इतनी सरल और सीधी बात है कि इस से इनकार करना चाहना कोरा दुराग्रह है; ऐसे दुराग्रही अनेक हैं और उस वर्ग में हैं जो साहित्य-शिक्षण का दायित्व लिये हैं, इस से हमें आतंकित न होना चाहिए। जिस वर्ग की घोषित नीति यह है कि उन के द्वारा ग्राह्य होने के लिए कोई वस्तु या रचना तीन सौ वर्ष पुरानी तो होनी ही चाहिए, उस वर्ग से आज की कविता पर बहस कर के क्या लाभ ? उस से तो तीन सौ वर्ष बाद बात करना अलम् होगा- और तब कदाचित् वह अनावश्यक होगा क्योंकि आज का प्रयोग तब की परम्परा हो गयी होगी- उन की परंपरा ! छायावाद जब एक जीवित अभिव्यक्ति था, तब वह जिन्हें अग्राह्य था, आज वे उस के समर्थक और प्रतिवादक हैं, जब वह मृत हो चुका; आज वे उसे उन से बचना चाहते हैं जिन में आज का जीवित सत्य अभिव्यक्ति खोज रहा है, भले ही अटपटे शब्दों में।

प्रयोग का हमारा कोई वाद नहीं है, इस को और भी स्पष्ट करने के लिए एक बात हम और कहें। प्रयोग निरन्तर होते आये हैं, और प्रयोगों के द्वारा ही कविता या कोई भी कला, कोई भी रचनात्मक कार्य, आगे बढ़ सका है। जो कहता है कि मैं ने जीवन-भर कोई प्रयोग नहीं किया, वह वास्तव में यही कहता है कि मैं ने जीवन-भर कोई रचनात्मक कार्य करना नहीं चाहा; ऐसा व्यक्ति अगर सच कहता है तो यही पाया जायेगा कि उस की ‘कविता’ नहीं है; उस में रचनात्मकता नहीं है, वह कला नहीं, शिल्प है, हस्तलाघव है। जो उसी को कविता मानना चाहते हैं, उन से हमारा झगड़ा नहीं है। झगड़ा हो ही नहीं सकता। क्योंकि हमारी भाषाएँ भिन्न हैं, और झगड़े के लिए भी साधारणीकरण अनिवार्य है ! लेकिन इस आग्रह पर स्थिर रहते हुए भी हमें यह भी कहना चाहिए कि केवल प्रयोगशीलता ही किसी रचना को काव्य नहीं बना देती। हमारे प्रयोग का पाठक या सहृदय के लिए कोई महत्त्व नहीं है, महत्त्व उस सत्य का है जो प्रयोग द्वारा हमें प्राप्त हो। ‘हम ने सैकड़ों प्रयोग किये हैं’ यह दावा ले कर हम पाठक के  सामने नहीं जा सकते, जब तक हम यह न कह सकते हों कि ‘देखिए, हम ने प्रयोग द्वारा यह पाया है।’ प्रयोगों का महत्त्व कर्त्ता के लिए चाहे जितना हो, सत्य की खोज, लगन, उस में चाहे जितनी उत्कट हो, सहृदय के निकट वह सब अप्रासंगिक है। पारखी मोती परखता है, गोताखोर के असफल उद्योग नहीं। गोताखोर का परिश्रम या प्रयोग अगर प्रासंगिक हो सकता है तो मोती को सामने रख कर ही - ‘इस मोती को पाने में इतना परिश्रम लगा’ –बिना मोती पाये उस के निकट जीवन-मरण का प्रयोग करता है वह खूब जानता है कि उस के प्रयोग उस के निकट जीवन-मरण का ही प्रश्न क्यों न हो, दूसरों के लिए उन का कोई महत्त्व नहीं। महत्त्व होगा शोध के परिणाम का। और वह यह भी जानता है कि ऐसा ही ठीक है। स्वयं वह भी उस सत्य को अधिक महत्त्व देता है, नहीं तो उस शोध में इतना संलग्न न होता।

हम समझते हैं कि इस भूमिका के बाद उन आक्षेपों का उत्तर देना अनावश्यक हो जाता है जो हमें ‘प्रयोगवादी’ कह कर हम पर किये गये हैं। कुछ आक्षेपों को पढ़ कर तो बड़ा क्लेश होता है, इस लिए नहीं कि उनमें कुछ तत्त्व है, इस लिए कि उन में तर्क-परिपाटी की ऐसी अद्भुत विकृति दीखती है, जो आलोचक से अपेक्षित नहीं होती। आलोचक में पूर्वग्रह हो सकता है; पर कम से कम तर्क-पद्धति का ज्ञान उसे होगा, और उसे वह विकृत नहीं करेगा ऐसी आशा उस से अवश्य की जाती है। श्री नन्ददुलारे बाजपेयी का ‘प्रयोगवादी रचनाएँ’ शीर्षक निबंध तर्क-विकृति का आश्चर्यजनक उदाहरण है। इस प्रकार के आक्षेपों का उत्तर देना एक निष्फल प्रयोग होगा; और हम कह चुके कि निष्फल प्रयोगों का कोई सार्वजनिक महत्त्व नहीं है। लेकिन साधारणीकरण के प्रश्न पर कुछ विचार कर लेना कदाचित् उचित होगा।

‘तार सप्तक’ के कवियों पर यह आक्षेप किया गया कि वे साधारणीकरण का सिद्धान्त नहीं मानते। यह दोहरा अन्याय है। क्योंकि वे न केवल इस सिद्धान्त को मानते हैं बल्कि इसी से प्रयोगों की आवश्यकता भी सिद्ध करते हैं। यह मानना होगा कि सभ्यता के विकास के साथ-साथ हमारी अनुभूतियों का क्षेत्र भी विकसित होता गया है और अनुभूतियों को व्यक्त करने के हमारे उपकरण भी विकसित होते गये हैं। यह कहा जा सकता है कि हमारे मूल राग-विराग नहीं बदले- प्रेम अब भी प्रेम है और घृणा अब भी घृणा, यह साधारणतया स्वीकार किया जा सकता है। पर यह भी ध्यान में रखना होगा कि राग वही रहने पर भी रागात्मक संबंधों की प्रणालियाँ बदल गयी हैं, और कवि का क्षेत्र रागात्मक संबंधों का क्षेत्र होने के कारण इस परिवर्तन का कवि-कर्म पर बहुत गहरा असर पड़ा है। निरे ‘तथ्य’ और ‘सत्य’ में- या कह लीजिए ‘वस्तु-सत्य’ और ‘व्यक्ति-सत्य’ में- यह भेद है कि ‘सत्य’ और ‘तथ्य’ है जिस के साथ हमारा रागात्मक संबंध है; बिना इस संबंध के वह एक बाह्य वास्तविकता है जो तद्वत् काव्य में स्थान नहीं पा सकती।

 लेकिन जैसे-जैसे बाह्य वास्तविकता बदलती है- वैसे-वैसे हमारे उस से रागात्मक संबंध जोड़ने की प्रणालियाँ भी बदलती हैं- और अगर नहीं बदलतीं तो उस बाह्य वास्तविकता से हमारा संबंध टूट जाता है। कहना होगा कि जो आलोचक इस परिवर्तन को नहीं समझ पा रहे हैं, वे उस वास्तविकता से टूट गये हैं, जो आज की वास्तविकता है। उस से रागात्मक संबंध जोड़ने में असमर्थ वे उसे केवल बाह्य वास्तविकता मानते हैं जब कि हम उस से वैसा संबंध स्थापित कर के उसे आन्तरिक सत्य बना लेते हैं। और इस विपर्यय से साधारणीकरण की नयी समस्याएँ  आरम्भ होती हैं। प्राचीन काल में, जब ज्ञान का क्षेत्र सीमित था और अधिक संहत था, जब कवि, वैज्ञानिक, साहित्यिक आदि अलग-अलग बिल्ले अनावश्यक थे और जो पठित या शिक्षित था, सभी ज्ञानों का पारंगत नहीं तो परिचित था ही, साधारणीकरण की समस्या दूसरे प्रकार की थी। तब भाषा का केवल एक मुहावरा था। यह कह लीजिए कि शिक्षित वर्ग का एक मुहावरा था, जन का एक और। एक संस्कृत था, एक प्राकृत। लेकिन आज क्या वह स्थिति है ? विशेष ज्ञानों के इस युग में भाषा एक रहते हुए भी उस के मुहावरे अनेक हो गये हैं। भाषा आज भी प्रेषण का माध्यम है; यह कोई नहीं कहता कि उस ने अपनी सार्वजनिकता की प्रवृत्ति छोड़ दी है या छोड़ दे। लेकिन वह अब प्रवृत्ति है, तथ्य नहीं।

 ऐसी कोई भाषा नहीं है जो सब समझते हों, सब बोलते हों। अँगरेज़ी है, अँगरेज़ी के बड़े-बड़े कोश हैं जो शब्दों के सर्वसम्मत अर्थ देते हैं, पर गणितज्ञ की अँगरेज़ी दूसरी है, अर्थशास्त्री की दूसरी और उपन्यासकार की दूसरी। ऐसी स्थिति में जो कवि एक क्षेत्र का सीमित सत्य (तथ्य नहीं, सत्य : अर्थात् उस सीमित क्षेत्र में जिस तथ्य से रागात्मक संबंध है वह) उसी क्षेत्र में नहीं, उस से बाहर अभिव्यक्त करना चाहता है, उस के सामने बड़ी समस्या है। या तो वह यह प्रयत्न ही छोड़ दे; सीमित सत्य को सीमित क्षेत्र में सीमित मुहावरे के माध्यम से अभिव्यक्त करे- यानी साधारणीकरण तो करे पर साधारण का क्षेत्र संकुचित कर दे- अर्थात् एक अन्तर्विरोध का आश्रय ले; या फिर वह बृहत्तर क्षेत्र तक पहुँचने का आग्रह न छोड़े और इस लिए क्षेत्र के मुहावरे से बँधा न रह कर उस से बाहर जा कर राह खोजने की जोखिम उठाये। इस प्रकार वह साधारणीकरण के लिए ही एक संकुचित क्षेत्र का साधारण मुहावरा छोड़ने को बाध्य होगा- अर्थात् एक-दूसरे अन्तर्विरोध की शरण लेगा ! यदि यह निरूपण ठीक, है तो प्रश्न इतना ही है कि दोनों अन्तर्विरोधों में से कौन-सा अधिक ग्राह्य-या कम अग्राह्य-है। हम इतना ही कहेंगे कि जो दूसरा पथ चुनता है, उसे कम से कम एक अधिक उदार, अधिक व्यापक दृष्टि से देखने या देखना चाहने का श्रेय तो मिलना चाहिए- उस के साहस को आप साहसिकता कह लीजिए पर उस की नीयत को बुरा आप कैसे कह सकते हैं ?

ज़रा भाषा के मूल प्रश्न पर- शब्द और उस के अर्थ के संबंध पर- ध्यान दीजिए। शब्द में अर्थ कहाँ से आता है, क्यों और कैसे बदलता है, अधिक या कम व्याप्ति पाता है ? शब्दार्थ- विज्ञान का विवेचन यहाँ अनावश्यक है; एक अत्यंत छोटा उदाहरण लिया जाये। हम कहते हैं ‘गुलाबी’, और उस से एक विशेष रंग का बोध हमें होता है। निस्संदेह इस का अभिप्राय है गुलाब के फूल के रंग-जैसा रंग; यह उपमा उसमें निहित है। आरंभ में ‘गुलाबी’ शब्द से उसे उस रंग तक पहुँचाने के लिए गुलाब के फूल की मध्यस्थता अनिवार्य रही होगी; उपमा के माध्यम से ही अर्थ लाभ होता रहा होगा। उस समय यह प्रयोग चमत्कारिक रहा होगा। पर अब वैसा नहीं है। अब हम शब्द से सीधे रंग तक पहुँच जाते हैं; फूल की मध्यस्थता अनावश्यक है। अब उस अर्थ का चमत्कार मर गया है, अब वह अभिधेय हो गया है। और अब इस से भी अर्थ में कोई बाधा नहीं होती कि हम जानते हैं, गुलाब कई रंगों का होता है- सफ़ेद, पीला, लाल, यहाँ तक कि लगभग काला तक। यह क्रिया भाषा में निरंतर होती रहती है और भाषा के विकास की एक अनिवार्य क्रिया है। चमत्कार मरता रहता है और चमत्कारिक अर्थ अभिधेय बनता रहता है। यों कहें कि कविता कि भाषा निरन्तर गद्य की भाषा होती जाती है। इस प्रकार कवि के सामने हमेशा चमत्कार की सृष्टि की समस्या बनी रहती है- वह शब्दों को निरंतर नया संस्कार देता चलता है और वे संस्कार क्रमश: सार्वजनिक मानस में पैठ कर फिर ऐसे हो जाते हैं कि – उस रूप में – कवि के काम के नहीं रहते। ‘बासन अधिक घिसने से मुलम्मा छूट जाता है।’ कालिदास ने जब ‘रघुवंश’ के आरंभ में कहा था:


‘‘वागर्थाविव संपृक्तौ वागर्थप्रतिपत्तये।
जगत: पितरौ वन्दे पार्वतीपरमेश्वरौ।।’’


तब इस बात को उन्होंने समझा था और इसी लिए वाक् में अर्थ की प्रतिपत्ति की प्रार्थना की थी। जो अभिधेय है, जो अर्थ वाक् में है ही, उस की प्रतिपत्ति की प्रार्थना कवि नहीं करता ! अभिधेयार्थ युक्त शब्द तो वह मिट्टी, वह कच्चा माल है जिस से वह रचना करता है; ऐसी रचना जिसके द्वारा वह अपना नया अर्थ उस में भर सके, उस में जीवन डाल सके। यही वह अर्थ-प्रतिपत्ति है जिस लिए कवि ‘वागर्थाविव सम्पृक्त’ पार्वती-परमेश्वर की वन्दना करता है। और इस प्रार्थना को निरा वैचित्र्य या नयेपन की खोज कह कर उड़ाना चाहना कवि-कर्म को बिलकुल न समझते हुए उस की अवहेलना करना है। जब चमत्कारिक अर्थ मर जाता है और अभिधेय बन जाता है तब उस शब्द     रागोत्तेजक शक्ति    भी क्षीण हो जाती है। उस अर्थ से रागात्मक संबंध नहीं स्थापित होता। कवि तब उस अर्थ की प्रतिपत्ति करता है जिस से पुन: राग का संचार हो, पुन: रागात्मक संबंध स्थापित हो। साधारणीकरण का अर्थ यही है। नहीं तो, अगर भाव भी वही जाने-पुराने हैं, रस भी, और संचारी-व्यभिचारी सब की तालिकाएँ बन चुकी हैं तो कवि के लिए नया करने को क्या रह गया है ? क्या है जो कविता को आवृत्ति नहीं, सृष्टि का गौरव दे सकता है ?

 कवि नये तथ्यों को उन के साथ नये रागात्मक संबंध जोड़ कर नये सत्यों का रूप दे, उन नये सत्यों को प्रेष्य बना कर उन का साधारणीकरण करे, यही नयी रचना है। इसे नयी कविता का कवि नहीं भूलता। साधारणीकरण का आग्रह भी उस का काम नहीं है; बल्कि यह देख कर कि आज साधारणीकरण अधिक कठिन है वह अपने कर्तव्य के प्रति अधिक सजग है और उस की पूर्ति के लिए अधिक बड़ा जोखिम उठाने को तैयार है। यह किसी हद तक ठीक है कि जहाँ कवि की संवेदनाएँ अधिक उलझी हुई हैं, वहाँ ग्राहक या सहृदय में भी उन्हीं परिस्थितियों के कारण वैसा ही परिवर्तन हुआ है और इस लिए कवि को प्रेषण की कुछ सुविधा भी मिलती है। पर ऊपर ज्ञान के विशेष विभाजनों की जो बात कही गयी है, उस का हल इस में नहीं है; बल्कि वह प्रश्न और भी जटिल हो जाता है। आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की समूची प्रगति और प्रवृत्ति विशेषीकरण की है, इस बात को पूरी तरह समझ तक ही यह अनुभव किया जा सकता है कि साधारणीकरण का काम कितना कठिनतर हो गया है – समूचे ज्ञान-विज्ञान की विशेषीकरण की प्रवृत्ति को उलाँघ कर, उस से ऊपर उठ कर, कवि को उस के विभाजित सत्य को समूचा देखना और दिखाना है।

इस दायित्व को वह नहीं भूलता है। लेकिन यह बात उस की समझ में नहीं आती कि वह तब तक के लिए कविता ही छोड़ दे जब तक कि सारा ज्ञान फिर एक हो कर सब की पहुँच में न आ जाये – सब अलग-अलग मुहावरे फिर एक हो कर ‘एक भाषा, एक मुहावरे’ के नारे के अधीन न हो जायें। उसे अभी कुछ कहना है जिसे वह महत्त्वपूर्ण मानता है, इस लिए वह उसे उन के लिए कहता है जो उसे समझें, जिन्हें वह समझा सकें; साधारणीकरण को उसने छोड़ नहीं दिया है पर वह जितनों तक पहुँच सके, उन तक पहुँचता रह कर और आगे जाना चाहता है, उन को छोड़ कर नहीं। असल में देखें तो वही परम्परा को साथ ले कर चलना चाहता है, क्योंकि वह कभी उसे युग से कट कर अलग होने नहीं देता, जब कि उस के विरोधी परिमाणत: यह कहते हैं कि ‘कल का सत्य कल सब समझते थे, आज का सत्य अगर आज सब एक साथ नहीं समझते तो हम उसे छोड़ कर कल ही का सत्य कहें’ – बिना यह विचारे कि कल के उस सत्य की आज क्या प्रासंगिकता है, आज कौन उस के साथ तुष्टिकर    रागात्मक संबंध जोड़    सकता    है !

यहाँ    तक हम ‘तार सप्तक’ और उसकी उत्तेजनाप्रसूत आलोचनाओं से उलझते रहे हैं। ‘दूसरा सप्तक’ की भूमिका को इस से आगे जाना चाहिए। बल्कि यहाँ से उसे आरम्भ करना चाहिए, क्योंकि एक पुस्तक की सफ़ाई दूसरी पुस्तक की भूमिका में देना दोनों के साथ थोड़ा अन्याय करना है। हम यहाँ ‘तार सप्तक’ का उल्लेख कर के आलोचकों के तत्सम्बन्धी पूर्वग्रहों को इधर न आकृष्ट करते, यदि यह अनुभव न करते कि दोनों पुस्तकों का नाम-साम्य और दोनों का एक संपादकत्व ही इस के लिए काफ़ी होगा। उन पूर्वग्रहों का आरोप अगर होना ही है, तो क्यों न उनका उत्तर देते चला जाये ?

‘दूसरा सप्तक’ के कवियों में संपादक स्वयं एक नहीं है, इस से उस का कार्य कुछ कम कठिन हो गया है। कवियों के बारे में कुछ कहने में एक ओर हमें संकोच कम होगा, दूसरी ओर भी हमारी बात को आसानी से एक ओर रख कर कविताओं पर स्वयं अपनी राय क़ायम कर सकेंगे। इन नये कवियों को भी कदाचित् ‘प्रयोगवादी’ कह कर उन की अवहेलना की जाये, या – जैसा कि पहले भी हुआ –अवहेलना के लिए यही पर्याप्त समझा जाये कि इन कवियों ने जो प्रयोग किये हैं वे वास्तव में नये नहीं हैं, प्रयोग नहीं हैं। ऐसा कहना इन कवियों के बारे में उतना ही उचित या अनुचित होगा जितना कि पहले ‘सप्तक’ के; हमारी धारणा है कि उससे भी कम कम उचित होगा। यद्यपि सब कवियों में भाषा का परिमार्जन और और अभिव्यक्ति की सफ़ाई एक-सी नहीं है और अटपटेपन की झाँकी न्यूनाधिक मात्रा में प्रत्येक में मिलेगी, तथापि सभी को ऐसी उपलब्धि हुई है जो प्रयोग को सार्थक करती है। ‘प्रोयग के लिए प्रयोग’ इन में से भी किसी ने नहीं किया है, पर नयी समस्याओं और नये दायित्वों का ताक़ाजा़ सब ने अनुभव किया है और उससे प्रेरणा सभी को मिली है। ‘दूसरा सप्तक’ नये हिन्दी काव्य को निश्चित रूप से एक कदम आगे ले जाता है और कृतित्व की दृष्टि से लगभग सूने आज के हिन्दी-क्षेत्र में आशा की नयी लौ जगाता है। ये कवि भी विरामस्थल पर नहीं पहुँचे हैं, लेकिन उनके आगे प्रशस्त पथ है और आलोकित क्षितिज-रेखा। गुप्त, ‘प्रसाद’, ‘निराला’, पन्त, महादेवी, ‘बच्चन’, ‘दिनकर’; इस सूची को हम आगे बढ़ायेंगे तो निस्ससंदेह ‘दूसरा सप्तक’ के कुछ कवियों का उल्लेख उस में होगा। और, फुटकर कविताओं को लें तो, जैसा कि हम ऊपर भी कह आये हैं, एक जिल्द में संख्या में इतनी अच्छी कविताएँ इधर के प्रकाशनों में कम नज़र आयेंगी।

यह फिर कहना आवश्यक है कि इन सात कवियों का एकत्र होना किसी दल या गुट के संगठन का सूचक नहीं है। पहली बार हमने कवियों के आपसी मत-भेद की बात की थी; नन्दुदुलारे जी ने यह परिणाम निकाला कि प्रयोगवादी कविता उन कवियों की कविता होती है, जिन में आपस में मतभेद हो: अब हम कहें कि प्रस्तुत संग्रह में ऐसे भी कवि हैं; जिन्हें हमने आज तक देखा नहीं, तो कदाचित उन्हें प्रयोगवाद की एक नयी परिभाषा यह भी मिल जाये कि प्रयोगवादी वे होते हैं, जो एक-दूसरे का मुँह देखे बिना एक-सी कविता लिखते हैं ! उन्हें यह अवसर देने में हमें संकोच नहीं, उन के तर्क पढ़ने में रोचक हैं और और उत्तर की अपेक्षा नहीं रखते। लेकिन कहना हम यह चाहते हैं कि ये सात कवि भी विचार-साम्य या समान राजनीतिक या साहित्यिक मतवाद के कारण एकत्र नहीं हुए या किये गये। कुछ से हमारा व्यक्तिगत परिचय भी हुआ अवश्य, पर उनके यहाँ एकत्र होने के कारण उन की कविता ही है। उसी की शक्ति ने हमें आकृष्ट किया और उसी का सौंदर्य इस ‘सप्तक’ की मूल प्रेरणा है। कवियों की ओर से इस संग्रह में भी उतना ही कम, उतना ही अन्यमनस्क और विलम्बित सहयोग मिला, जितना पहले ‘सप्तक’ में मिला था;  बल्कि इस बार कठिनाई अधिक थी क्योंकि इस बार प्रस्ताव उन का नहीं था कि एक सहकारी प्रकाशन किया जाये, इस बार हमारा आग्रह था कि नये काव्य का एक प्रतिनिधि संग्रह निकाला जाये। जो हो, संग्रह आप के सामने है; आप कविताओं को उन्हीं के गुण-दोष के आधार पर देखें,         उन्हीं से कवि की सफलता-असफलता और जो कुछ कहा, इसी आशा से कि आप आलोचकों-द्वारा आरोपित पूर्वग्रहों की मैली ओट से इन्हें न देखें, अपनी स्वच्छ सहृदयता से ही देखें; हमारा विश्वास है कि इस संग्रह से आप को तृप्ति मिलेगी।


-अज्ञेय’     


[भवानीप्रसाद मिश्र :      जन्म 1913; पहली कविता पच्चीस वर्ष पहले लिखी गयी थी, मगर करीब चार साल कुछ नहीं लिखा। पंद्रह-सोलह साल की उमर से लगातार लिखना शुरू किया और ‘अब तक बहुत कविताएँ लिख कर डाल ली हैं ।’ संग्रह कोई प्रकाशित नहीं है, पत्र-पत्रिकाओं में अलबत्ता ‘हाथ तंग होने पर छपने भेज देता हूँ – वह भी कम’ ।
‘‘छोटी-सी जगह में रहता था, छोटी-सी नर्मदा नदी के किनारे, छोटे-से पहाड़ विन्ध्याचल के आँचल में, छोटे-छोटे साधारण लोगों के बीच। एक दम घटना-विहीन, अविचित्र मेरे जीवन की कथा है। साधारण मध्यवित्त के परिवार में पैदा हुआ, साधारण पढ़ा-लिखा और काम जो किये, वे भी असाधारण से अछूते। मेरे आस-पास के तमाम लोगों की-सी सुविधाएँ-असुविधाएँ मेरी थीं। मैं नहीं जानता किसी बात को सुनाने लायक मान कर सुनाने लगूँ – ख़ासकर जब उसे सुनाने का मतलब यह माना जायेगा कि इस सबका मेरी कविता से गहरा संबंध है।’’ कई वर्ष ‘आकाशवाणी’ से संबद्ध रहे; अब गाँधी वाङ्मय का सम्पादन कर रहे हैं। ]

भवानीप्रसाद मिश्र का पहला कविता संग्रह ‘गीत फ़रोश’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ। उनके अन्य महत्वपूर्ण संग्रह हैं – खुशबू के शिलालेख, अँधेरी कविताएँ, चकित है दु:ख, बनी हुई रस्सी, व्यक्तिगत, गाँधी पंचशती आदि। साहित्य अकादेमी पुरस्कार, ग़ालिब पुरस्कार, दिल्ली साहित्य परिषद् पुरस्कार आदि से सम्मानित मिश्रजी ‘कल्पना’, ‘सर्वोदय’, ‘गाँधी मार्ग’, ‘गगनांचल’ पत्रिकाओं के संपादन-विभाग से संबद्ध रहे। संपूर्ण गाँधी वाङ्मय का भी संपादन किया। सन् 1985 में देहावसान।

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