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कविता संग्रह >> प्यास बढ़ती ही गई

प्यास बढ़ती ही गई

राम निवास जाजू

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :87
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5599
आईएसबीएन :0000000

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प्रस्तुत है कविताओं का संग्रह....

Pyas Badati Hi Gai

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

आमुख

‘भावों की भीख’ के प्रकाशन के काफी समय बाद जाजू जी की कविताओं का यह संग्रह देखने को मिला, जो उनके जीवन के सर्जनात्मक क्षणों की अभिव्यक्ति का प्रमाण है। श्री जाजू वर्षों से मौन साहित्य-साधना कर रहे हैं। उनकी साधना के स्वर में अपना एक वैशिष्ट्य इसलिए भी है कि वे एक विशाल औद्योगिक प्रतिष्ठान के दायरे में बँध कर भी सर्जनात्मक क्षणों के अनन्त आयामों में कही-न-कहीं अपने ‘स्व’ को विस्तार देने का संकल्प सँजोये हुए हैं।

जाजू जी की कविताएँ विकास के एक क्रमिक सोपान को प्रस्तुत करती हैं। ‘प्यास बढ़ती ही गई’ संग्रह में 1951 से 1967 तक की रचनाएँ हैं। राजस्थान की धरती के ‘बरसते सावन’ और ‘सुहागरात’ से चलकर ‘अर्द्धावस्था के गीत’ तक अनुभूति के अनेक स्तरों से ढली हुई चेतना रूपायित होती प्रतीत होती है। इन सभी स्तरों पर उनका मन एक भावुक और रूमानी द्रष्टा का मन है। ‘क्यों तुमने स्वप्न रचाये, ‘गुलाबी होली’, ‘फिर मनुहारें करवाते’ जैसी रचनाओं में एक मुग्ध किशोर कवि की सृजन-चेतना का विस्मय, उसकी रूपासक्ति एवं उत्तेजना सभी का समाहार हुआ हैं।

एक अन्य प्रकार की रचनाएँ भी हैं, जिनमें न विस्मय है, न औत्सुक्य और न वैसी सहज भावुकता। ऐसी रचनाएँ वे हैं जहां कवि जीवन की आलोचना करने बैठता है, जहाँ वह अपने अनुभवों के घेरे में बँधे हुए जीवन का विवेचन करता है। ऐसी रचनाएँ विचार-विथिकाओं में घुमाती हैं, कतिपय प्रश्नों को उठाती है और कवि की जीवन-संरचना के वृत्तों में उन प्रश्नों के समाधान खोजने का प्रयास करती हैं। इन रचनाओं में कवि की आस्था और उसके आत्मविश्वास का स्वर बड़ा ही प्रबल है। इस प्रकार की कविताओं में ‘गीतों का सत्य’, ‘जीवन से प्यार’, ‘मन जब मुक्त-मुक्त होता है’, ‘भावुकता ढाल रहा हूं, ‘आशा जीवन का धन है’ एवं ‘अर्द्धावस्था का गीत’ प्रमुख है। कवि का स्वयं का जीवन जिस प्रकार की एकदम विरोधी स्थितियों, भावुकता एवं यथार्थ के द्वन्द्व में बीता है, उसकी अनुभूति इन रचनाओं में बड़े वेग से नि:सृत हुई है :


मुझको अपने जीवन के हर पल, हर क्षण से प्यार है,
इसीलिए मेरे गीतों में मस्ती मौज बहार है।
संघर्षों का रथ जो मेरे आगे-पीछे चलता है,
सौ-सौ बार पटक कर मुझको मेरा साहस छलता है।


लेकिन मेरे विश्वासों का सागर तो लहराता है,
क्योंकि इसी खारे पानी में मोती का भंडार है।


सर्वत्र अपने मार्ग पर विश्वास, अपनी मंजिल का भरोसा और अपने चरणों की शक्ति का ज्ञान इस प्रकार की कविताओं में दिखलाई देता है। ‘अर्द्धावस्था के गीत’ की सभी पंक्तियाँ कवि का आत्म-कथ्य प्रस्तुत करती प्रतीत होती है :


मेरी अपनी थोड़ी चाहें, इसलिए हैं निश्चित राहें,
मेरे पथ की ही बाधाएँ, मेरा मार्ग स्वयं बन जायें।


अपने जीवन की सफलताओं से कवि को पूर्ण सन्तोष है, साथ ही अपने कवि-कर्म के प्रति भी वह आश्वस्त और आस्थावान् है।
वर्षों के अंतराल में बिखरी जाजू जी की इन सभी रचनाओं में रूप, सौंदर्य और प्रेम की प्रतिष्ठा के साथ-साथ प्रकृति के रुपहले सुनहले चित्रों की प्रचुर छवियों का अंकन भी हुआ है। ‘वन की बहार’, ‘सावन की तीज’, ‘चाँदनी का गीत’ जैसी रचनाओं में प्रकृति की छवियाँ बड़े गहरे रंगों से आँकी गई हैं। राजस्थान की धरती, वर्षों की धानी चूनर ओढ़कर न जाने कितने रंगों को बिखराती है और उन रंगों से जुड़ती है राजस्थान के जीवन की रागमयी चेतना।

श्री जाजू की कविता आज की हिन्दी-कविता के प्रतिमानों से प्रभावित नहीं है; उसके शिल्प और कथ्य में नवीनता के प्रति कोई आग्रह नहीं है। यही कारण है कि वह हमारी बौद्धिकता को ‘चैलेंज नहीं करती, हमें कहीं बड़ी मीठी-सी चुटकी दे जाती है। उसमें हल्की-सी मुसकान होती है, थोड़ा-सा गालों का गुलाबीपन और मन में उफनती हुई यौवन और आकर्षण की एक हल्की सी तरंग। इस कविता की बौद्धिकता कवि के अपने अनुभवों के आयामों से जुड़ी हुई है और उसके प्रश्न कवि-जीवन की अर्द्धावस्था तक के ऋजु-कुंचित मार्गों के प्रश्न-चिन्ह हैं।

इन रचनाओं में एक सृजन-धर्मा व्यक्ति का राग, चिंतन और दर्प सभी समवेत रूप से मुखरित हुआ है। इन गीतों में जो लय-बद्धता है वह भाषा और शिल्प दोनों का सहज अंग है। प्राय: सभी गीतों में ऐसी बिम्बात्मकता है जो परिचित शब्द चित्रों द्वारा उभरती है। इनमें से अधिकांश गीत आकाशवाणी द्वारा प्रसारित किये जा चुके हैं।
इस संग्रह की या इसी प्रकार की अन्य रचनाओं को पढ़कर यह आशा जागती है कि संभवत: हिन्दी की कविता अपनी बौद्धिकता की मरुभूमि से निकल कर किसी दिन सहज भावनाओं का कोई ऐसा नख़लिस्तान पा जाये यहाँ वह थोड़ी देर सुस्ता ले और, कुछ क्षणों के लिए सही, अपने सहज परिवेश में लौट आए।
प्रस्तुत संग्रह को कलात्मकता प्रदान करने में उन रेखा-चित्रों का योगदान भी है जो प्रत्येक कविता के साथ अंकित है। कविता के भावों को ही इन चित्रों में जड़ दिया गया है।

दिल्ली विश्वविद्यालय,
30 सितम्बर 1999

-नगेन्द्र


अपनी बात



जीवन संघर्ष से मुझे एक खोया हुआ विश्वास पुन: मिला। प्रणय और प्रकृति के रीझते क्षणों से सौंदर्य बोध और संवेदना का मुझे सहज अभ्यास हो गया। इस प्रकार मेरे गीतों की रंगशाला में विश्वास, सौंदर्य बोध और संवेदना ने स्थायित्व पा लिया। इन्होंने हर पूरे गीत में अधूरेपन की एक नई सिहरन का सृजन किया। किसी गुलाबी कपोल पर मानो एक काला चिन्ह जड़ दिया। हर गीत को मैंने एक रात सपनों की तरह गोया और दूसरी रात दीपक की तरह जोया है। हर गीत मुझे एक नव-वधू के रूप में मिला और मुझ पर मुसकुराता रहा। मेरी विवशताएँ, व्यथाएँ आस्थाएँ और आकांक्षाएँ सम्मोहक रूप से इनमें बँधी पड़ी है। इन गीतों को गाकर मैं झूमा हूँ और अनेक बार झूमे हैं और मेरे श्रोता और मेरे साथी। इनकी बढ़ती हुई प्यास यदि तनिक भी आपकी तृप्ति छीन सके तो मैं अपने को सफल मानूँगा।

इन गीतों के कारण मुझे अनेकों की मित्रता मिली है और अनेकों के उपदेश। मैं उन सबको आज सहज हृदय से स्मरण करना चाहता हूँ। साथ ही वरेण्य विद्वान डा. नगेन्द्र के प्रति अपनी कृतज्ञता ज्ञापन करता हूँ जिन्होंने इस संग्रह पर अपनी समीक्षा प्रस्तुत की है।

-रामनिवास जाजू


मैं विवश हूँ



मैं विवश हूँ गीत मुझसे छूटते भी तो नहीं

पथ मिला मैं चल पड़ा फिर क्यों हुआ अपराध चलना
गति मिली मैं दौड़ निकला स्वयं को सीखा न छलना
आज भी मैं हूँ न विचलित धार गति पर चढ़ गई है
दौड़ता पर पथ न कटता बात कैसी अड़ गई है

हाँफता हूँ काँपता हूँ किन्तु यह पथ रूठते भी तो नहीं
मैं विवश हूँ गीत मुझसे छूटते भी तो नहीं

रस वही ढाले कि जिनमें थी मुझे लगती सरसता
पथ वही पाले कि सारा जग पथिक को था तरसता
आज भी पथ सरसता भी किन्तु रस ढालूँ कहाँ से
विश्व के प्रतिरोध में फिर गीत मैं गा लूँ कहाँ से

खटखटाता ही गया मैं मंजिलों के द्वार सारे
थका भी तो रुक न पाया चरण मेरे नहीं हारे
कंटकित पथ किन्तु छाले फूटते भी तो नहीं
मैं विवश हूँ गीत मुझसे छूटते भी तो नहीं

प्रीति चाखी क्योंकि मुझमें चाखने की शक्ति भी थी
मैं निभाता ही गया बस क्योंकि मन में शक्ति भी थी
शक्ति तो है आज भी पर स्नेह की पहचान कम है
क्योंकि जग यह भूल जाता प्रीति की कोंपल नरम है

किन्तु कैसा मैं दिवाना स्नेह के घट टूटते भी तो नहीं
मैं विवश हूँ गीत मुझसे छूटते भी तो नहीं

कलकत्ता,18-8-1952



तुम कुछ तो रस में डूबो



तुम अपना परिचय दे दो फिर तुमको गीत सुनाऊँ

आये हो अज्ञात देश में जिसका मुझे ज्ञान नहीं है
मिले स्वत: हम या प्रयत्न से इसका मुझे ध्यान नहीं है
मेरे गीतों की हाला पी क्या क्षण भर विश्राम चाहते
अथवा इसके अनुरागी बन जग में मेरा नाम चाहते

तुम यह तो निर्णय कर लो फिर प्रश्न जटिल सुलझाऊँ
तुम अपना परिचय दे दो फिर तुमको गीत सुनाऊँ

क्या गीतों की चंचलता से तुम भी चंचल बन पाओगे
क्या इस उर की धड़कन सुनकर तुम भी क्षणभर हिल जाओगे
मेरे मन का भेद समझकर किस पर जादू अजमाओगे
इन गीतों का राग पकड़ कर क्या मधुमास बुला लाओगे

तुम मन का भेद बता दो मैं भी निश्चय कर पाऊँ
तुम अपना परिचय दे दो फिर तुमको गीत सुनाऊँ

आँखों से कुछ परिचय देकर पलकों में क्या छिपा रहे हो
तुम कहते हो प्रीति पुरानी मुझको लगते किन्तु नये हो
संशय तुमने खूब बिखेरा अब थोड़ा विश्वास लुटा दो
तुमको सब अधिकार दिये पर मुझसे भी प्रतिबंध उठा लो

पहले तुम तार मिला लो फिर मुक्त स्वरों में गाऊँ
तुम अपना परिचय दे दो फिर तुमको गीत सुनाऊँ

लगता ऐसा प्यासे तो हो किन्तु प्यास में श्वास नहीं है
गाने की तुमको भी इच्छा पर खुद पर विश्वास नहीं है
कण्ठ चुराये हैं तुमने पर भाव उधारे ला न सके हो
चाहे मन में कुछ भी समझो इस मंजिल को पा न सके हो

तुम कुछ तो रस में डूबो फिर अपना रंग लगाऊँ
तुम अपना परिचय दे दो फिर तुमको गीत सुनाऊँ

पिलानी, 9-4-51


गीतों का सत्य



मेरा गीत अधूरा लगता मुझको भी अब मैं कहता हूँ
पर्वत से क्या एक धार में
पानी सारा बह जाता है
कवि कब अपनी सारी बातें
एक गीत में कह पाता है
धार सैकड़ों ज्यों पर्वत की
कवि के वैसे गीत हजारों
लिखता हूँ जी हलका करने किन्तु छलाछल फिर रहता हूँ
मेरा गीत अधूरा लगता मुझको भी अब मैं कहता हूँ

चूम चूम कलियों को नित
चुम्बन अलि का रहा अधूरा
कवि ने अगणित भाव भरे पर
गीत कभी हो सका न पूरा
कलियाँ ज्यों अलि को सहलातीं
कविता भी कवि को बहलाती
बहला दे पर मैं कब रुकता भावों में दूना बहता हूँ।
मेरा गीत अधूरा लगता मुझको भी अब मैं कहता हूँ

मेघ चाहते जल भर-भर कर
सातों सागर कर दें खाली
दुनिया कहती कुछ गीतों से
हमने भी कवि की सुधि पाली
मेघ भरें जल गीत सुनें जन
किंतु अतल हैं जलधि और कवि
जग की आँखों में स्वतंत्र पर सदा प्रीति-बंधन सहता है
मेरा गीत अधूरा लगता मुझको भी अब मैं कहता हूँ

कितनी बार निराशा आती
आशा को जीवित खा जाने
कई बार दुनिया दौड़ी है
कवि का भी अस्तित्व मिटाने
रहे निराशा दौड़े दुनिया
आशा जीवित कवि जाग्रत है
यों लगता चट्टान अडिग पर एक विनय से भी ढहता हूँ
मेरा गीत अधूरा लगता मुझको भी अब मैं कहता हूँ


पिलानी, 23-3-52


जीवन से प्यार



मुझको अपने जीवन से हर पल हर क्षण से प्यार है
इसीलिए मेरे गीतों में मस्ती मौज बहार है

मैं ऐसी ऋतु में जन्मा जब फूल चमन के मुरझाये
झरनों के थे बंद तराने मधुप पड़े थे मुँह बाये
पीले-पीले पत्तों में कोयल ने आना छोड़ दिया
बरबादी के इसी दृश्य ने माली का जी तोड़ दिया

फिर भी मेरे सपनों में हरियाली की चादर तनती
क्योंकि मुझे इठलाती दिखती सावन की बौछार है

संघर्षों का रथ जो मेरे आगे-पीछे चलता है
सौ-सौ बार पटक कर मुझको मेरा साहस छलता है
पीड़ा की तीखी चुभनें अवरुद्ध मुझे पग-पग करतीं
प्रतिद्वंद्वी की बात-बात जब मेरा पथ डगमग करती

लेकिन मेरे विश्वासों का सागर तो लहराता है
क्योंकि इसी खारे पानी में मोती का भंडार है

रूप और वैभव की मैंने बड़ी मित्रता देखी है
इन दोनों की फिर कुरूप से बड़ी शत्रुता देखी है
रूप कभी कूड़े-करकट में सड़ते भी मैंने देखा
रो-रोकर वैभव से इसको लड़ते भी मैंने देखा

लेकिन रूप देह में ही क्यों देख रही दुनिया पागल
जबकि प्रकृति के रूप रंग पर सब का ही अधिकार है

मरने-जीने का आडंबर रोज रचाया जाता है
कल पैदा होने वाले को आज जलाया जाता है
मौत जिंदगी को खा सकती पर न पचा सकती इसको
जीव उभरता कण-कण से फिर मौज न पा सकती इसको

इसीलिए मरने से डरने वालों को मैं यह कहता
मृत्यु जिंदगी की पगडंडी चलने में उद्धार है

मुझको अपने जीवन के हर पल हर क्षण से प्यार है
इसीलिए मेरे गीतों में मस्ती मौज बहार है

कलकत्ता, 12-9-52




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