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कविता संग्रह >> पहले तुम्हारा खिलना

पहले तुम्हारा खिलना

विजेन्द्र

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :120
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5594
आईएसबीएन :81-263-108-5

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प्रस्तुत है कविता संग्रह....

Pahale Tumhara Khilna

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

अपनी बात

इस संग्रह की कथा अपूर्व है। ‘नया ज्ञानोदय’ 6 अगस्त, 03 में मेरी एक कविता छपी। कविता थी, ‘पहले तुम्हारा खिलना’। इस कविता के लिए अपने प्रिय पाठकों तथा साहित्यिक मित्रों के पत्र पाकर मैं आश्वस्त हुआ। 28 अगस्त, 03 को एक पत्र मुझे श्री आलोक जैन ने लिखा, ‘‘....आपकी कविता ‘नया ज्ञानोदय’ के छठे अंक, अगस्त 03 में पढी़। छाप छोड़ गयी। आपका हाल में प्रकाशित कविता-संग्रह और ‘उदित क्षितिज पर’ सॉनेट-संग्रह पढ़ने को मँगाया है।...आपसे आशा है कि ज्ञानपीठ को कुछ नया देंगे। कविता-संग्रह या सॉनेट-संग्रह देंगे तो भी अच्छा लगेगा।...’’ यह संग्रह सचमुच इसी रचनाशील सदाशयता का सुफल है। मैं आलोक जैन तथा भारतीय ज्ञानपीठ दोनों का हार्दिक आभार व्यक्त करता हूँ।
अब तक प्रकाशित और प्रकाश्य कविता-संग्रहों के क्रम में यह मेरा दसवाँ संग्रह है। पर ऐसा उदात्त और रचनात्मक परितोष अब तक किसी संग्रह के प्रकाशित होने से पहले नहीं मिला।
चूँकि उक्त कविता-संग्रह हिन्दी के वरिष्ठ समीक्षक तथा कव्य मर्मज्ञ डॉ. प्रभाकर श्रोत्रीय के सम्पादन में ही छपा है, सो मैं उनके प्रति भी आभार व्यक्त करता हूँ। कविताओं को छाप-छापकर अम्बार लगाने वाले तथाकथित बड़े प्रकाशक भी काश कविता पढ़कर अपने कवियों तक पहुँच पाते !

यहाँ संग्रहित कविताओं के चयन से लेकर पाण्डुलिपि को अन्तिम रूप देने तक की मेहनत युवा समीक्षक डॉ. सत्यपाल ने की है। मैं उनके प्रति भी अपना आभार व्यक्त करता हूँ।

विजेन्द्र

पहले तुम्हारा खिलना

सफेद फूलों वाला पौधा
मैं देख रहा हूँ-
उसके गहरे चॉकलेटी पत्ते....
जिनमें उभरी हैं भूरी-भूरी नसें-
देख रहा हूँ
ढलते सूर्य में।
मैं इसका सही नाम नहीं जानता
यह अब वर्षा की धुल कर
निखरी धूप में चमक रहा है-
तनिक-तनिक आकाश में
हिल रहा है।

मैं अपने अन्दर
क्यों-
घना खालीपन झेल रहा हूँ
जबकि यह पौधा समूल
मेरे चित्त में उतर कर
भीतर भी
हिल रहा है।

आँखों ने इसे देखा
नसपुटों ने धरती की गन्ध महसूस की।
पहले अगर मैंने इसे न देखा होता
तो शायद यह अपने उजास को न खोलता-
उतना नहाया हुआ न दिखता
उनके फूलों का उजलापन बूँदों में न टपकता।

मैं इसका नाम नहीं जानता
न प्रजाति का ज्ञान है मुझे-
फिर भी....इसको जहाँ देखा
कुछ अलग लगा
कुछ निरा अपना लगा
इसने अपनी भौएँ टेढ़ी नहीं की...
एक ही पौधा-
और चित्त में झलकती इतनी छबियाँ
इतने राग इतने रिश्ते
इतने पियरमन तन्तुओं की नरम नरम नोकें।

पहले तुम्हारा खिलना ही सच है-
उगना जीवन है
फूल आगे की काम्य इच्छाएँ।
अगर मैं इसे अपना साथी न बनाऊँ
तो भी
यह मेरे लिए
अगली ऋतु में खिलेगा...
खिलेगा-
नाचते मोर की तरह।

मैं इसका सही नाम नहीं जानता
बहुत सारे पौधों के नाम
मुझे याद नहीं।
मुझे अपने पुस्तक ज्ञान का बड़ा गुमान है
तो भी
चॉकलेटी चमकदार पत्ते वाला पौधा कह कर
काम चलाता हूँ।

जब पूछते-पूछते थक गया
नाम किसी ने नहीं बताया
तो मैंने इसे कहा ‘सलौना’
पहले बच्चों ने इसे सलौना कह कर बुलाया
बाद में सब सलौना कहने लगे।
कई लोगों ने कहा
क्यों उसके पीछे पड़े हो
फूलों में न खुशबू है
न सुहाना इसका रूप
उस समय मैंने सुनी चित्त की धड़कनें...
कोई फूल ऐसा नहीं
जिसमें गन्ध न हो
धरती से अंकुरित होने वाला हर कल्ला
गन्धवान होता है
भले ही मेरे नसपुट उसे न पकड़ पाएँ
हर पौधा धरती का शिशु है
वनस्पतियाँ उनकी सन्तानें
जैसे मुझमें कहीं-न-कहीं
मेरे पुरखों के गुण-सूत्र जीवित हैं
जैसे कि पेड़ों की खुरदरी छाल का रिश्ता
उन गहरी जड़ों से है
जो पौंड़ी हैं धरती में
दूर-दूर।

भले ही देखने में भिन्न लगूँ
पर चेहरे पर रहेगा बना
देसी भदेसपन
एकदम !
धरती उद्भिज्ज को
पहले अपने गर्भ में रखती है
अंकुरित होने पर
वही उसका प्रतिरूप है।
जब वह द्विपत्र बना एकान्त में
उसे किसी ने देखा नहीं
पर वह बिना पानी
बिना धूप उगा है आज तक
अँधेरे में...
जब वह बड़ा होकर खिला है आकाश में
मैं चकित हूँ।

ऋतुएँ आयीं, गयीं
किसी ने उससे उगने को कहा नहीं
मुझे हर पतझर में
एक बेजान शून्य भरता दिखाई दिया।
कैसा प्रस्फुटित...महकता क्षण है
चैत में नीम की मंजरी-सा
जिनके उगने के बारे में सोचता हूँ
फिर कभी
बिल्कुल भिन्न और अलग सोचूँगा
और मेरे आगे आने वाले लोग
इसके बारे में सोचने को मुक्त होंगे।

पौधे का जीवन
मुझे एक तरह नहीं सोचने देता।
पहले उद्भिज्ज का धरती से फूटना
फिर उसके बारे में भावत्वरित सोचना।
अगर यह उजासित नहीं खिलता
तो शून्य भरता कैसे
मैं सोचता कैसे
जैसे पहले-पहल तुम्हारा होना
बाद में तुमसे भिन्न होकर
एक होकर खिलना।

पकना

तुम्हारे बारे में
मेरे भाव
ऐसे ही पकें
जैसे समुद्र-तल में पकते हैं
प्रवाल और मोती
पपीहा-
कितनी प्रतीक्षा करता है
स्वाति बूँद की
ऋतुओं की क्रूरता सह कर।
ओ मेरे कवि,
पकना ही जीवन का
सृजनोत्सव है....
ऐसा पकना वृक्ष की तरह
जहाँ तुच्छता मुझे छुए तक नहीं।
जो पहले ही
अपनी नियत खो चुके हैं
क्या उनसे कहूँ
मुझे इस गिरी हालत से
उबारो।
झूठ बोलते समय-
मैं अपने जमीर से मरा हूँ
और साँच को सहेजने पर
वृक्ष की खुराक में
रवानी आयी है।
धरती में जड़े
अपने को ज्यादा मजबूत समझती हैं।

जो धुआँता है काले द्वेष से हर समय
ओ कवि,
उसे अंकुरों से टपकती
रोशनी की बूँदें दिखाओ।
हर रोज देखता हूँ उन्हें
चुपचाप लू सहते
बरसात में भागते
कटखनी ठण्ड में
खेतों में ठिठुरते...
फिर भी अग्रसर, बढ़ते-
हर रंगत में खिलते हुए।

किसी ने नहीं सुना
जब फलों से लद कर
वे नबे
धरती को..
बिना चीखे चिल्लाये !
पर उनसे तपते इरादे
सदा शिखरोन्मुख थे।
पकना ही वह निकष है
जिस पर मैं
अपने कंचन होते प्यार को कसूँगा।
धीरज और उगान-
ये दोनों वरदान
मैंने
तुमसे ही सीखे हैं।

एक दिन पकी फसल को
खिरान में ही आना है-
यही वह अन्न है
जिसकी गोलाइयों में
मेहनत की आभा रची है-
यह वही है...
जिसमें हवा, जल और रोशनी के
कण दमकते हैं।
जब जब फलते वृक्ष को देख
अनदेखा किया
मैं खुद बौना हुआ हूँ।
प्रिय,
इसी तरह अमूल्य रत्नों को धरती
चुपचाप
अपने गर्भ में सहेजे है।

जो पककर गिरा है
उसका बीज फिर फूटेगा
कविता में तुम
सदा दिखोगी वृन्त पर
खिला फूल
और पककर
सुन्दर होते फल की तरह
उस क्षण अजेय !
चीजों को छूते ही
मेरा नस-तन्त्र सजग होता है

यानि मैं-
हर जोखिम को तैयार हूँ।
दिखाओ, दिखाओ-
ओ मेरे कवि, उनको दिखाओ-
कि इरादे भी कैसे पकते हैं
जैसे धमन भट्टियों में
कच्चा खनिज
दिखाओ उन्हें
जो अपनी हताशा से हारे हैं
कि बूँदें मकरन्द में बदल जाती हैं।
और धूल कणों में
अजस्र वेग होता है।
घने गाढ़े बादलों के बीच
खिली धूप की इच्छा ही
मेरा प्रतिरोध है
पकने की यही खूबी है
कि लीचियों की अन्दरूनी बन्दिश
उनके खुरदरे ललौंहेपन में भी-
दहकती है।

ढलान

मैं सुनता हूँ हर पल
पके अन्न की अनुगूँज
ऋतु के आने पर
जैसे भरा अंकुरण
और नवजात फूलों का
सहसा खिल उठना।

शब्द ने ही
आकाश को सींचा है
धरती के रस से।
देखते देखते-
आज फिर
एक सबल दिन
रात के सन्नाटे में
जिन्दा समा गया।

तुम्हारे लिए
अभी-अभी जैसे
मेरी हथेली पर
नीले पुष्प की पंखुडियां कुम्हलायीं

तब मैंने देखीं
तुम्हारे चेहरे पर घिरती
कालातुर कालिमा
काँटेदार भय
और गर्दन पर
निरभ्र झुर्रियाँ।

रेत के-
इन धौरों पर
खिला फूल
और पका फल
जैसे मुझे अपनी ही
दो भिन्न अवस्थाएँ दिखी हैं-
आरक्त ढलान के
इस थरथराते छोर पर।

कितना क्रूर समय है
जो सारे पेड़
बेमौसम निपात हुए हैं
और अन्दर से खोखले-
तब ढली साँझ के शान्त धुँधलके में
सूखे पत्तों ने
चीख कर
मुझे रोका।

तुम्हारे लिए प्रफुल्ल अभिलाषाओं से भरा
यह जीवन
और अगली ऋतु का उल्लास
धरती की अनन्त गति से
जुड़े हैं।

इस अँधेरे में
मुझे कैसे भरोसा बँधे
समय के
इस पैने दराँत से
मैं तुम्हें
हर पोर
बचा पाऊँगा !

वसन्त

जिस धरती से जनमता है अंकुर
उसी से फूटता हूँ मैं।
मेरी खाल बचपन में
फूल जैसी नरम थी
अब गाढ़ी धूप में
काली और कठोर हुई है।
आदमी के अदम्य साहस को देख कर
मेरे अन्दर उमड़ता है-
ओज: स्रोत...
बड़ी इच्छा होती है- प्यार करूँ मुक्त

और निडर चल सकूँ
सिर उठाकर
अपने ही पथ पर।
सुन्दर चीजों को देखने की इच्छा
कभी मरे नहीं।
लगता है-
एक बार सारी चीजें होंगी
बेतरतीब
कई बार गिरे दिखेंगे
खोखले ज्योतिस्तम्भ।

मेरे भीतर भी लड़ेगा देवता
खूँखार दानव से।
कई बार हुआ हूँ परास्त
देखकर आदमी के दैन्य को
बहुत बार हुआ हूँ विचलित
अपने ही इरादों में
कई बार भागा हूँ दुनिया से दूर
हर बार हुआ हूँ रिक्त...
रिक्त, रिक्त...
मगर मुझे हर बार लगा

हो रहा हूँ अन्दर से
समृद्ध और मजबूत।
जनमती हैं हर रोज
बड़ी बड़ी इच्छाएँ
जैसे टूटे अरावली के पीछे से
उठे गाढ़े बादल।
यहीं रहूँ
यहीं-
अपने जैसों के बीच
ठीक यहीं
पकी फसल को देखूँ।

यहीं स्वीकार करूँ अपनी पराजय।
थोड़ी-सी सुविधा के लिए
हर दिन
होता हूँ अधीन
उस दैत्य के
छिपकर बेचता हूँ
अपनी आत्मा
उसी दानव को।

जो हवाओं के रुख को भाँपते हैं
हर क्षण
वे मेरे दोस्त नहीं।
काई जमी है पानी की सतह पर
कैसे देख पाऊँगा अपना प्रतिबिम्ब यहाँ।
भरोसा रखना होगा
पृथ्वी की गति
और अपनी साँसों पर।
रसमय धरती से उठा शब्द
आकाश में जीवित है।
आदमी बनने का गौरव
जो दिया है मुझे तुमने
उसे गिरने न दूँगा
गिरने न दूँगा !

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