कहानी संग्रह >> धुंध के पार धुंध के पारदिनेश पाठक
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दिनेश पाठक ‘शशि’ का तीसरा कहानी-संग्रह‘धुंध के पार’
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
कहानी मूलतः कहने की चीज थी जैसे कि ग़ज़ल मूलतः कही जाती थी, लिखी नहीं
जाती थी किन्तु धीरे-धीरे यह विधाएँ अपनी कहने की प्रभविष्णुता और
मनरंजक-शक्ति के बल पर श्रोता को पाठक में परिवर्तित करती हुई
‘श्रव्य’ से आगे उठकर पाठ्य बन बैठीं और शिष्ट
साहित्य की
स्थापित विधाओं में प्रतिष्ठित हो गईं। कथा-साहित्य की अनेक विधाओं-नाटक,
एकांकी, उपन्यास, जीवनी, आत्मकथा, संस्मरण आदि सभी में कथा-सूत्र के रूप
में कहानी की उपस्थिति किसी न किसी रूप में आवश्यक होती है। कथा-साहित्य
की ये अन्य विधाएँ निश्चित ही कहानी की एक प्रकार से मुँहताज हैं। कहानी
का साहित्य में विधिवत् पदार्पण यद्यपि संस्कृत नाट्य-साहित्य के बाद का
है किन्तु नाट्य साहित्य के ढाँचे के रूप में कहानी का बीज वहाँ भी
उपस्थिति रहा है। कथा-साहित्य की विधाओं में ही नहीं प्रबन्धात्मक काव्यों
में भी कहानी आधार-शिला के रूप में अपना महत्व रखती है, यहाँ तक कि
आदि-कवि वाल्मीकि की रामायण ‘राम-कथा’ के बिना क्या
संभव थी ?
कहानी ‘कथ’ से उठकर लेखन की स्थिति को किस प्रकार
प्राप्त हुई
इसका अपना एक इतिहास रहा है। ‘कथ’ स्थिति में पहले
गेय रुप
में लोक-गाथाएँ प्रचलित रहीं। वस्तुतः कहानी से पहले कहानी की एक समृद्ध
परम्परा रही है-मौखिक कहानी की भी और लिखित कहानी की भी। प्राचीन काल से
ही कहानी तीन रूपों में दिखाई देती रही है-
1. गेय लोक-गाथाएँ
2. लिखित कथाएँ,
3. मौखिक कथ-परम्परा की कहानियाँ।
इनमें गेय लोक गथाओं में आल्हा-ढोला माँरु की कथा’ हीर राँझा के प्रेम पर आधारित पंजाबी लोक कवि की ‘हीर’ काव्य कृति भोजपुरी बोली की ‘कुँवर विजयी’ मुल्ला दाउद की ‘चंदायन’ जैसी अनेकानेक लोक-गाथाएँ बहुत प्रचलित रहीं।
हिन्दी साहित्य के ‘आधुनिक काल’ को ‘गद्य-काल’ भी कहा गया है। वस्तुतः सार्थक खड़ी बोली गद्य का अवतरण विकास और प्रकाशन आधुनिक काल की ही उपलब्धि है, इससे पूर्व हिन्दी साहित्य के प्राचीन काल तथा मध्य काल तो कविता के ही काल थे। इस गद्य-काल का वर्त्तमान समय तो विशेष रूप से कहानी और उपन्यास का ही समय है, गद्य की अन्य सभी विधाएँ आज इनसे पीछे रह गई हैं। साहित्य को समाज का दर्पण कहा गया है इस दृष्टि से भी वर्त्तमान युगीन सृजन सन्दर्भ में कहानी और उपन्यास विधाएँ ही ‘दर्पण’ की प्रमुख भूमिका में दिखाई देती हैं। हिन्दी साहित्य के व्यापक फलक पर पिछली अर्द्धशती में रचनाकारों की भाव-भूमि और शैली शिल्प दोनों में ही नई सोच ने रचनाकारों को प्रभावित किया है। युगीन सामाजिक सरोकारों को प्रतिबिम्बित करने के साथ-साथ विसंगतियों का परिप्रेक्ष्य सामने लाने तथा उनके समाधान की खोज की एक प्रत्यनशीलता आज के रचनाकारों में प्रमुखता से दिखाई देती है।
कथा साहित्य में कहानी विधा आज लोकप्रियता के शीर्ष पर है इसी कारण से कहानीकारों की एक भीड़ नई उपज के रूप में सक्रिय दिखाई देती है। विभिन्न पत्र-पत्रिकाएँ भी कहानी को बहुलता के साथ छाप रही हैं। इस भीड़ में अपनी अलग पहचान बना सकने वालों में दिनेश पाठक शशि का नाम भी उल्लेख्य है। इनका तीसरा कहानी संग्रह ‘धुंध के पार’ पाठकों के सम्मुख है। इनका प्रथम कहानी ‘अनुत्तरित और दूसरा कहानी संग्रह अमर ज्योति था। कहानी-जगत में ये दोनों संग्रह दिनेश पाठक शशि की पहचान एक अच्छे कहानीकार के रूप में बनाने में सफल रहे हैं। दिनेश पाठक शशि का कहानी लेखन जीवन के यथार्थ की भूमि से जुड़ा हुआ है। श्री दिनेश पाठक वर्त्तमानयुगीन पारिवारिक समस्याओं स्त्री-पुरुष सम्बन्धों का आधुनिक बोध और सामाजिक सांस्कृतिक राष्ट्रीय और मानवधर्मों मूल्यों को अपनी कहानियों की मूल संवेदना में उतारते हैं। उनकी कहानी पाठक को अपने बीच की कहानी का विन्यास, वातावरण-चित्रण, भाषा-सम्प्रेषण और संवाद-योजना भी प्रभावी रहती है।
कहानी सर्वप्रथम कदाचित् किसी बच्चे को किसी कल्पित कथ्य की रोचक ‘कहन’ के साथ किसी नानी ने सुनाई होगी। प्रारम्भ में निश्चित ही कहानी का कथ्य पशु-पक्षियों, राजा-रानी अथवा परियों की कहानी के रूप में प्रस्फुटित हुआ होगा, जो सोपान दर सोपान चढ़ता हुआ मनोरंजन के साथ-साथ संदेशप्रदता से जुड़ता गया होगा।
बच्चों के मन-बहलाव और उनके पुनः-पुनः कहानी सुनाने के आग्रह ने कहानी के प्रारंभिक विकास को दिशा दी होगी। धीरे-धीरे कहानी प्राचीन काल में समय पास करने का साधन बन गई होगी। रात को लोक अंचल में अलाव के पास बैठकर अथवा रात्रि भोजन के पश्चात् सोने से पूर्व कहानी सुनने-सुनाने की रूचि विगत दो तीन दशकों तक समाज में देखी जा सकती थी। वर्तमान समय में, सामाजिक परिवर्तन के साथ की जीवन की व्यस्तताओं तथा विखंडन के फलस्वरूप ग्रामीण अंचल में भी अन्य सामूहिक रुचियों के लोप की तरह कहानी सुनने-सुनाने की रुचि और परंपरा भी लुप्तप्राय हो गई है।
कहानी वर्तमान हिन्दी-साहित्य में एक विधा के रूप में स्थापित होने और पहचान बनाने में बीसवीं सदी के प्रारंभ में सफल हुई। हिन्दी की प्रथम कहानी की खोज एक विवादित विषय है, फिर भी कहानी को एक स्थापित विधा के रूप में उभरते हुए हम 1900 से 1911 तक देखते है। 1900 में ‘सुभाषित रत्न’ माधव राव सप्रे की तथा ‘इन्दुमती’ किशोरी लाल गोस्वामी की 1901 में एक टोकरी भर मिट्टी माधव राव सप्रे की, 1903 में ‘ग्यारह वर्ष का समय’ आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की, 1907 में ‘दुलाई वाली’ बंग महिला की ‘राखी बंद भाई’ वृन्दावन लाल वर्मा शर्मा गुलेरी की ऐसी कहानियाँ हैं जिनमें कहानी के विन्यास ने क्रमिक विकास पाया तथा कहानी की संवेदना के साथ-साथ उसके शिल्प में भी निखार आया। 1915 में आकर चन्द्रधर शर्मा गुलेरी की कहानी ‘उसने कहा था’ ने हिन्दी की कहानी विधा को उच्च सोपान पर प्रतिष्ठित करने का चमत्कार कर दिया।
‘उसने कहा था’ 1915 में उस कहानी प्रविधि की संवाहक है जो उसके दशकों बाद के कहानी लेखन में दिखाई देती है। किशोर प्रेम का रोमाण्टिक तानाबाना और संवाद-कौशल, युद्ध की पृष्ठ-भूमि फ्लैशबैक की तकनीक वर्णन और चित्रण के अंदर की लेखकीय सूझ ये सारी विशेषताएँ ऐसी है जो ‘उसने कहा था’ को आधुनिक कहानी के समकक्ष लाकर खड़ा करती हैं। इसके पूर्व की चर्चित कहानियों में अलग-अलग संवेदनाओं की विशेषताएँ तो थीं किन्तु कहानी के शिल्प के मानकों पर वे कहानियाँ बहुत पीछे रह जाती हैं। कहानी के विन्यास में इनमें कहीं निबंधात्मकता तो कहीं वर्णानात्मक शिथिलता तो कहीं अति विस्तार जैसी दुर्बलताएँ देखने को मिलती हैं।
हिन्दी कहानी विधा को रचनात्मक दिशा देने में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी की क्रांतिकारी भूमिका रही। सन् 1903 में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने सरस्वती के संपादन का दायित्व सँभाला तो प्रथम वर्ष से ही उन्होंने आख्यायिका-खण्ड के अंतर्गत कहानी को प्रोत्साहन दिया। तीन आख्यायिकाएँ उन्होंने स्वयं लिखीं ‘तीन देवता’, ‘महारानी चन्द्रिका’ और ‘भारतवर्ष का तारा’। इसके बाद सरस्वती के प्रत्येक अंक में दो तीन आख्यायिकाएँ प्रकाशित की जाने लगीं। प्रारम्भ में अनूदित और मौलिक कहानी लेखन को इससे प्रोत्साहन मिला तथा एक प्रकार से आख्यायिका लेखन की क्रांति शुरू हुई। अन्य मासिक पत्र-पत्रिकाएँ भी आख्यायिकाएँ तथा गल्प प्रकाशित करने लगे। आचार्य द्विवेदी ने कहानी लेखन के नए परिवर्तनवादियों को पूरा महत्व दिया। बंग महिला की कहानी, ‘‘चन्द्रदेव से मेरी बातें’’ सरस्वती 1904 में प्रकाशित इसका प्रमाण है। इस कहानी में प्रथम बार अपने समय की राजनीति और अर्थनीति को अपना केन्द्रीय कथ्य बनाया गया। भारत की बदहाल आर्थिक दशा, देश में फैली बेरोजगारी का चित्रण, समाज में नारी की स्थिति जातीगत पक्षधरता तथा वृद्ध पीढ़ी के अनुचित दवाब जैसे सामाजिक सरोकारों को प्रथम बार लेखन मूल्यों के रूप में देखा जा सकता है। भाषा की मारक शैली तथा व्यंग्य शक्ति की दृष्टि से भी यह कहानी इस प्रकार की प्रथम कहानी का स्थान रखती है। 1909 तक सरस्वती पत्रिका और आचार्य द्विवेदी के बीच दरार पड़ जाने से कहानी लेखन के उत्कर्ष को ठेस लगी !
वस्तुतः बीसवीं सदी का प्रथम दशक इतिहास बाज, इश्क बाज अथवा तिलिस्म मिजाज कहानीकारों का समय रहा, इनका अपवाद थीं बंग महिला जिन्होंने सामाजिक सरोकारों की कहानियाँ लिखीं। हिन्दी गजल के क्षेत्र में जो भूमिका दुष्यन्त कुमार की रही लगभग वही भूमिका कहानी के क्षेत्र में बंग महिला की है। कहानी लेखन को नई दिशा देने वाली प्रथम कहानीकार के रूप में बंग महिला का नाम अग्रगम्य है। बंग महिला ने शोषक संस्कृति के विरुद्ध खड़ा होने की ताकत देकर अपने पात्रों का अवतरण किया है। ‘दुलाईवाली’ कहानी में बंग महिला ने जो आंचलिकता का रंग बिखराया है उसका प्रवर्त्तन आगे चलकर फणीश्वरनाथ रेणु के लेखन में देखने को मिलता है। आंचलिक दृष्टि की प्रथम कलमकार के रूप में भी बंग महिला का नाम अविस्मरणीय है।
आज की कहानी अपने परिवेश की उपज है। आज दाम्पत्य की दरार, साम्प्रदायिकता, आतंकवाद, नारी उत्पीड़न, दलितों और हरिजनों पर अत्याचार, राजनेताओं का भ्रष्ट चरित्र, तथा बेरोजगारी आदि समस्याओं ने कहानीकारों का ध्यान आकृष्ट किया है। जनवादी कहानी के नारे की छाया में कुछेक कहानीकारों ने विभिन्न कोणों से पनपते हुए जन-शोषण की समस्या को कहानी के केन्द्र में रखा किन्तु जनवाद का नारा निष्प्रभ ही रहा। इसके अतिरिक्त सम्बन्धों में बदलाव की पहचान आज के कहानीकार ने सूक्ष्मता से की है। विशेषकर नारी-पुरुष के सम्बन्ध की छद्म स्थितियों तथा प्रेम-रोमांस की संलिष्ट परतों तक पहुँच कर सम्बन्धों के यथार्थ को सामने लाने का प्रयत्न आज की कहानी में कदम-कदम पर दिखाई देता है। असगर बजाहत की ‘‘सारी तालीमात’’ हरीभटनागर की ‘‘मेज कुर्सी तख्ता टाट’’, शशांक की ‘‘अनार’’, संजय की ‘‘तख्तोताब’’, स्वयं प्रकाश की ‘‘बर्डे’’ आदि नई जमीन की अच्छी कहानियाँ हैं। आज का कहानीकार शिल्प के प्रति अत्यधिक सजग हो गया है। कहानीकार मन की दुर्बलताओं तथा पात्रों की परिस्थितिगत स्वानुभूति को बारीकी से उजागर करता हुआ चलता है। संवाद को परिसीमित करते हुए विचार बिंब के जरिए या घटनाओं के छोटे-छोटे स्फोट से अपने मंतव्य को पाठक तक पहुँचाने की तकनीक आज के कहानीकार की कहानी कला की विशेषता है।
नारी जीवन की टूटन और घुटन तथा पारिवारीक सम्बन्धों का अंतर्विरोध भी समकालीन कहानी के केंद्र में देखा जा सकता है।
प्रस्तुत कहानी-संग्रह ‘धुंध के पार’ दिनेश पाठक ‘शशि’ का तीसरा कहानी-संग्रह है। इसमें कहानीकार की नए सृजन-मूल्यों के प्रति सजगता तथा लेखन की प्रौढ़ता दृष्टिगोचर होती है। लेखक ने इन कहानियों में यथार्थ के धरातल पर उतर कर अपने पात्रों के द्वारा पारिवारिक और परिवेशगत विभिन्न समस्याओं और विसंगतियों को उभारा है। कई कहानियाँ दांपत्य की दरार में झाँक कर प्रेमानुभूति की निर्मल भावुकता के यथार्थ को सामने लाती हैं और पाठक के लिये एक संदेश छोड़ती हैं। ‘मोहभंग’, ‘घुंध के पार’ और ‘अभिशप्त’ कहानियों में यही समस्या उठाई गई है। तुम्हारी आँखों से कहानी सात्विक प्रेम की चरम परिणति है तो ‘नासूर’ नारी स्वातंत्रय के भ्रम को तोड़ती है।
‘याही में बाग हरे’ कहानी में सास बहू के सम्बन्धों की स्वाभाविक कटुता को उजागर करने के साथ-साथ नारी के मन की दया, माया, ममता के हरे बाग की हरीतिमा आलोकित है। ‘आस्था और आत्मबल’ कहानी में भगवान में आस्था तथा ‘संकल्पशील’ आत्मबल का फलित होना दर्शाया गया है। मुझसे भी पहले राष्ट्रीय संदर्भ की कहानी है जिसमें एक पुत्र के शहीद हो जाने पर दूसरे पुत्र की भी देश पर कुर्बान होने की इच्छा का भावपूर्ण चित्रण है। इस कहानी में पुत्र-मोह पर देश-भक्ति की भावना की विजय दिखाई गई है। पिता अंततः पुत्र की इच्छा का सम्मान करते हुए कहता है-‘‘बेटे तुम ठीक कह रहे हो, मैं तो भूल ही गया था कि मुझसे भी पहले तुम देश के लाल हो, भारत माँ के लाल।’’
‘पहल’ कहानी नौकरपेशा व्यक्ति के बालकों का गाँव में रह रहे दादी माँ के प्रति प्रेम की उत्कटता दर्शाती है। ‘अभिलाषा’ कहानी में गाँव के लड़के के पढ़-लिख जाने पर भी उसका गाँव न छोड़ने का संकल्प तथा पिता की अभिलाषा को साकार करते हुए गाँव में ही रहकर सभी को अपनी कृषि की उच्च शिक्षा का लाभ पहुँचाने का निश्चय दिखाया है जो कहानी की संदेशप्रदता का परिचायक है।
‘कृत-संकल्प’ कहानी नारी अशिक्षा की समस्या के सार्थक समाधिगान की कहानी है। ‘नील कंठ की भांति’ कहानी दापंत्य के बीच प्रेम-त्रिकोण का संदर्भ लेकर चलती हैं, जिसमें पत्नी और प्रेमिका की स्वाभाविक मनोदशा का सजीव चित्रण है। इस कहानी में पत्नी की अंतर्मुखी वेदना और उसकी व्यवहारगत उदात्तता का सजीव चित्रण कहानीकार की मनोवैज्ञानिक सूक्ष्म दृष्टि को प्रमाणित करता है। संग्रह की अंतिम कहानी है-‘डायरी के पृष्ठों ने’ इसमें नारी के लिये डायरी लेखन के दुष्परिणाम के रूप में शंकालु पुरुषमन की असहिष्णुता दर्शाई गई है।
दिनेश पाठक ‘शशि’ का यह कहानी संग्रह कथ्य की बहुआयामी व्यापकता से आप्लावित है। स्त्री-पुरुष सम्बन्धों की विकलता तथा प्रेम त्रिकोण ग्रस्त गृहस्थ-जीवन की विसंगतियाँ और नारी स्वातंत्रय के दुराग्रह का दुष्परिणाम जैसी ज्वलंत समस्याओं के साथ-साथ ग्राम्य युवकों का शिक्षा पाकर गाँव से पलायन, नारी साक्षरता की समस्या तथा राष्ट्र चिंता जैसे वर्तमान युगीन बड़े सकोकारों को भी दिनेश पाठक शशि की लेखनी ने अपनी कहानियों में पिरोया है। इस संग्रह की भाषा पात्रानुकूल तथा संप्रेषणीय है। ग्रामीण अंचल के पात्रों के संवाद आंचलिक भाषा से जीवंत हो उठे हैं। ‘याही में बाग हरे’ कहानी में माँ के संवादों में ब्रज भाषा का पुट, अभिशप्त कहानी में शिरीन के संवादों में अंग्रेजी शब्दों का स्वाभाविक प्रयोग, अभिलाषा कहानी में ग्रामीण पात्रों का ब्रज-भाषा में वार्तालाप कहानीकार के भाषा प्रयोग की कुशलता के प्रमाण है। लेखक का वातावरण चित्रण तथा पात्रों की मानसिक दशा का वर्णन-कौशल भी प्रशंसनीय है। कहानी के पात्रों के चरित्र विकास में भी लेखक ने अपनी विशेष कुशलता दर्शाई है। अनेक पात्रों के व्यवहार चित्रण द्वारा अथवा घटनाक्रम के विकास के साथ-साथ इंगित से ही चरित्रांकन दृश्यमान कर दिया है। इस प्रकार इक्कीसवीं सदी के प्रथम दशक में आने वाले कहानी-संग्रहों में ‘धुंध के पार’ एक ऐसा संग्रह होगा जो कहानी लेखन की धुंध के पार अपनी चमक दिखाएगा। लेखक को इस संग्रह के प्रकाशन पर हमारी हार्दिक बधाई है। हमारा विश्वास है कि कहानी-जगत में इस संग्रह का भरपूर स्वागत होगा।
सस्नेह-
1. गेय लोक-गाथाएँ
2. लिखित कथाएँ,
3. मौखिक कथ-परम्परा की कहानियाँ।
इनमें गेय लोक गथाओं में आल्हा-ढोला माँरु की कथा’ हीर राँझा के प्रेम पर आधारित पंजाबी लोक कवि की ‘हीर’ काव्य कृति भोजपुरी बोली की ‘कुँवर विजयी’ मुल्ला दाउद की ‘चंदायन’ जैसी अनेकानेक लोक-गाथाएँ बहुत प्रचलित रहीं।
हिन्दी साहित्य के ‘आधुनिक काल’ को ‘गद्य-काल’ भी कहा गया है। वस्तुतः सार्थक खड़ी बोली गद्य का अवतरण विकास और प्रकाशन आधुनिक काल की ही उपलब्धि है, इससे पूर्व हिन्दी साहित्य के प्राचीन काल तथा मध्य काल तो कविता के ही काल थे। इस गद्य-काल का वर्त्तमान समय तो विशेष रूप से कहानी और उपन्यास का ही समय है, गद्य की अन्य सभी विधाएँ आज इनसे पीछे रह गई हैं। साहित्य को समाज का दर्पण कहा गया है इस दृष्टि से भी वर्त्तमान युगीन सृजन सन्दर्भ में कहानी और उपन्यास विधाएँ ही ‘दर्पण’ की प्रमुख भूमिका में दिखाई देती हैं। हिन्दी साहित्य के व्यापक फलक पर पिछली अर्द्धशती में रचनाकारों की भाव-भूमि और शैली शिल्प दोनों में ही नई सोच ने रचनाकारों को प्रभावित किया है। युगीन सामाजिक सरोकारों को प्रतिबिम्बित करने के साथ-साथ विसंगतियों का परिप्रेक्ष्य सामने लाने तथा उनके समाधान की खोज की एक प्रत्यनशीलता आज के रचनाकारों में प्रमुखता से दिखाई देती है।
कथा साहित्य में कहानी विधा आज लोकप्रियता के शीर्ष पर है इसी कारण से कहानीकारों की एक भीड़ नई उपज के रूप में सक्रिय दिखाई देती है। विभिन्न पत्र-पत्रिकाएँ भी कहानी को बहुलता के साथ छाप रही हैं। इस भीड़ में अपनी अलग पहचान बना सकने वालों में दिनेश पाठक शशि का नाम भी उल्लेख्य है। इनका तीसरा कहानी संग्रह ‘धुंध के पार’ पाठकों के सम्मुख है। इनका प्रथम कहानी ‘अनुत्तरित और दूसरा कहानी संग्रह अमर ज्योति था। कहानी-जगत में ये दोनों संग्रह दिनेश पाठक शशि की पहचान एक अच्छे कहानीकार के रूप में बनाने में सफल रहे हैं। दिनेश पाठक शशि का कहानी लेखन जीवन के यथार्थ की भूमि से जुड़ा हुआ है। श्री दिनेश पाठक वर्त्तमानयुगीन पारिवारिक समस्याओं स्त्री-पुरुष सम्बन्धों का आधुनिक बोध और सामाजिक सांस्कृतिक राष्ट्रीय और मानवधर्मों मूल्यों को अपनी कहानियों की मूल संवेदना में उतारते हैं। उनकी कहानी पाठक को अपने बीच की कहानी का विन्यास, वातावरण-चित्रण, भाषा-सम्प्रेषण और संवाद-योजना भी प्रभावी रहती है।
कहानी सर्वप्रथम कदाचित् किसी बच्चे को किसी कल्पित कथ्य की रोचक ‘कहन’ के साथ किसी नानी ने सुनाई होगी। प्रारम्भ में निश्चित ही कहानी का कथ्य पशु-पक्षियों, राजा-रानी अथवा परियों की कहानी के रूप में प्रस्फुटित हुआ होगा, जो सोपान दर सोपान चढ़ता हुआ मनोरंजन के साथ-साथ संदेशप्रदता से जुड़ता गया होगा।
बच्चों के मन-बहलाव और उनके पुनः-पुनः कहानी सुनाने के आग्रह ने कहानी के प्रारंभिक विकास को दिशा दी होगी। धीरे-धीरे कहानी प्राचीन काल में समय पास करने का साधन बन गई होगी। रात को लोक अंचल में अलाव के पास बैठकर अथवा रात्रि भोजन के पश्चात् सोने से पूर्व कहानी सुनने-सुनाने की रूचि विगत दो तीन दशकों तक समाज में देखी जा सकती थी। वर्तमान समय में, सामाजिक परिवर्तन के साथ की जीवन की व्यस्तताओं तथा विखंडन के फलस्वरूप ग्रामीण अंचल में भी अन्य सामूहिक रुचियों के लोप की तरह कहानी सुनने-सुनाने की रुचि और परंपरा भी लुप्तप्राय हो गई है।
कहानी वर्तमान हिन्दी-साहित्य में एक विधा के रूप में स्थापित होने और पहचान बनाने में बीसवीं सदी के प्रारंभ में सफल हुई। हिन्दी की प्रथम कहानी की खोज एक विवादित विषय है, फिर भी कहानी को एक स्थापित विधा के रूप में उभरते हुए हम 1900 से 1911 तक देखते है। 1900 में ‘सुभाषित रत्न’ माधव राव सप्रे की तथा ‘इन्दुमती’ किशोरी लाल गोस्वामी की 1901 में एक टोकरी भर मिट्टी माधव राव सप्रे की, 1903 में ‘ग्यारह वर्ष का समय’ आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की, 1907 में ‘दुलाई वाली’ बंग महिला की ‘राखी बंद भाई’ वृन्दावन लाल वर्मा शर्मा गुलेरी की ऐसी कहानियाँ हैं जिनमें कहानी के विन्यास ने क्रमिक विकास पाया तथा कहानी की संवेदना के साथ-साथ उसके शिल्प में भी निखार आया। 1915 में आकर चन्द्रधर शर्मा गुलेरी की कहानी ‘उसने कहा था’ ने हिन्दी की कहानी विधा को उच्च सोपान पर प्रतिष्ठित करने का चमत्कार कर दिया।
‘उसने कहा था’ 1915 में उस कहानी प्रविधि की संवाहक है जो उसके दशकों बाद के कहानी लेखन में दिखाई देती है। किशोर प्रेम का रोमाण्टिक तानाबाना और संवाद-कौशल, युद्ध की पृष्ठ-भूमि फ्लैशबैक की तकनीक वर्णन और चित्रण के अंदर की लेखकीय सूझ ये सारी विशेषताएँ ऐसी है जो ‘उसने कहा था’ को आधुनिक कहानी के समकक्ष लाकर खड़ा करती हैं। इसके पूर्व की चर्चित कहानियों में अलग-अलग संवेदनाओं की विशेषताएँ तो थीं किन्तु कहानी के शिल्प के मानकों पर वे कहानियाँ बहुत पीछे रह जाती हैं। कहानी के विन्यास में इनमें कहीं निबंधात्मकता तो कहीं वर्णानात्मक शिथिलता तो कहीं अति विस्तार जैसी दुर्बलताएँ देखने को मिलती हैं।
हिन्दी कहानी विधा को रचनात्मक दिशा देने में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी की क्रांतिकारी भूमिका रही। सन् 1903 में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने सरस्वती के संपादन का दायित्व सँभाला तो प्रथम वर्ष से ही उन्होंने आख्यायिका-खण्ड के अंतर्गत कहानी को प्रोत्साहन दिया। तीन आख्यायिकाएँ उन्होंने स्वयं लिखीं ‘तीन देवता’, ‘महारानी चन्द्रिका’ और ‘भारतवर्ष का तारा’। इसके बाद सरस्वती के प्रत्येक अंक में दो तीन आख्यायिकाएँ प्रकाशित की जाने लगीं। प्रारम्भ में अनूदित और मौलिक कहानी लेखन को इससे प्रोत्साहन मिला तथा एक प्रकार से आख्यायिका लेखन की क्रांति शुरू हुई। अन्य मासिक पत्र-पत्रिकाएँ भी आख्यायिकाएँ तथा गल्प प्रकाशित करने लगे। आचार्य द्विवेदी ने कहानी लेखन के नए परिवर्तनवादियों को पूरा महत्व दिया। बंग महिला की कहानी, ‘‘चन्द्रदेव से मेरी बातें’’ सरस्वती 1904 में प्रकाशित इसका प्रमाण है। इस कहानी में प्रथम बार अपने समय की राजनीति और अर्थनीति को अपना केन्द्रीय कथ्य बनाया गया। भारत की बदहाल आर्थिक दशा, देश में फैली बेरोजगारी का चित्रण, समाज में नारी की स्थिति जातीगत पक्षधरता तथा वृद्ध पीढ़ी के अनुचित दवाब जैसे सामाजिक सरोकारों को प्रथम बार लेखन मूल्यों के रूप में देखा जा सकता है। भाषा की मारक शैली तथा व्यंग्य शक्ति की दृष्टि से भी यह कहानी इस प्रकार की प्रथम कहानी का स्थान रखती है। 1909 तक सरस्वती पत्रिका और आचार्य द्विवेदी के बीच दरार पड़ जाने से कहानी लेखन के उत्कर्ष को ठेस लगी !
वस्तुतः बीसवीं सदी का प्रथम दशक इतिहास बाज, इश्क बाज अथवा तिलिस्म मिजाज कहानीकारों का समय रहा, इनका अपवाद थीं बंग महिला जिन्होंने सामाजिक सरोकारों की कहानियाँ लिखीं। हिन्दी गजल के क्षेत्र में जो भूमिका दुष्यन्त कुमार की रही लगभग वही भूमिका कहानी के क्षेत्र में बंग महिला की है। कहानी लेखन को नई दिशा देने वाली प्रथम कहानीकार के रूप में बंग महिला का नाम अग्रगम्य है। बंग महिला ने शोषक संस्कृति के विरुद्ध खड़ा होने की ताकत देकर अपने पात्रों का अवतरण किया है। ‘दुलाईवाली’ कहानी में बंग महिला ने जो आंचलिकता का रंग बिखराया है उसका प्रवर्त्तन आगे चलकर फणीश्वरनाथ रेणु के लेखन में देखने को मिलता है। आंचलिक दृष्टि की प्रथम कलमकार के रूप में भी बंग महिला का नाम अविस्मरणीय है।
आज की कहानी अपने परिवेश की उपज है। आज दाम्पत्य की दरार, साम्प्रदायिकता, आतंकवाद, नारी उत्पीड़न, दलितों और हरिजनों पर अत्याचार, राजनेताओं का भ्रष्ट चरित्र, तथा बेरोजगारी आदि समस्याओं ने कहानीकारों का ध्यान आकृष्ट किया है। जनवादी कहानी के नारे की छाया में कुछेक कहानीकारों ने विभिन्न कोणों से पनपते हुए जन-शोषण की समस्या को कहानी के केन्द्र में रखा किन्तु जनवाद का नारा निष्प्रभ ही रहा। इसके अतिरिक्त सम्बन्धों में बदलाव की पहचान आज के कहानीकार ने सूक्ष्मता से की है। विशेषकर नारी-पुरुष के सम्बन्ध की छद्म स्थितियों तथा प्रेम-रोमांस की संलिष्ट परतों तक पहुँच कर सम्बन्धों के यथार्थ को सामने लाने का प्रयत्न आज की कहानी में कदम-कदम पर दिखाई देता है। असगर बजाहत की ‘‘सारी तालीमात’’ हरीभटनागर की ‘‘मेज कुर्सी तख्ता टाट’’, शशांक की ‘‘अनार’’, संजय की ‘‘तख्तोताब’’, स्वयं प्रकाश की ‘‘बर्डे’’ आदि नई जमीन की अच्छी कहानियाँ हैं। आज का कहानीकार शिल्प के प्रति अत्यधिक सजग हो गया है। कहानीकार मन की दुर्बलताओं तथा पात्रों की परिस्थितिगत स्वानुभूति को बारीकी से उजागर करता हुआ चलता है। संवाद को परिसीमित करते हुए विचार बिंब के जरिए या घटनाओं के छोटे-छोटे स्फोट से अपने मंतव्य को पाठक तक पहुँचाने की तकनीक आज के कहानीकार की कहानी कला की विशेषता है।
नारी जीवन की टूटन और घुटन तथा पारिवारीक सम्बन्धों का अंतर्विरोध भी समकालीन कहानी के केंद्र में देखा जा सकता है।
प्रस्तुत कहानी-संग्रह ‘धुंध के पार’ दिनेश पाठक ‘शशि’ का तीसरा कहानी-संग्रह है। इसमें कहानीकार की नए सृजन-मूल्यों के प्रति सजगता तथा लेखन की प्रौढ़ता दृष्टिगोचर होती है। लेखक ने इन कहानियों में यथार्थ के धरातल पर उतर कर अपने पात्रों के द्वारा पारिवारिक और परिवेशगत विभिन्न समस्याओं और विसंगतियों को उभारा है। कई कहानियाँ दांपत्य की दरार में झाँक कर प्रेमानुभूति की निर्मल भावुकता के यथार्थ को सामने लाती हैं और पाठक के लिये एक संदेश छोड़ती हैं। ‘मोहभंग’, ‘घुंध के पार’ और ‘अभिशप्त’ कहानियों में यही समस्या उठाई गई है। तुम्हारी आँखों से कहानी सात्विक प्रेम की चरम परिणति है तो ‘नासूर’ नारी स्वातंत्रय के भ्रम को तोड़ती है।
‘याही में बाग हरे’ कहानी में सास बहू के सम्बन्धों की स्वाभाविक कटुता को उजागर करने के साथ-साथ नारी के मन की दया, माया, ममता के हरे बाग की हरीतिमा आलोकित है। ‘आस्था और आत्मबल’ कहानी में भगवान में आस्था तथा ‘संकल्पशील’ आत्मबल का फलित होना दर्शाया गया है। मुझसे भी पहले राष्ट्रीय संदर्भ की कहानी है जिसमें एक पुत्र के शहीद हो जाने पर दूसरे पुत्र की भी देश पर कुर्बान होने की इच्छा का भावपूर्ण चित्रण है। इस कहानी में पुत्र-मोह पर देश-भक्ति की भावना की विजय दिखाई गई है। पिता अंततः पुत्र की इच्छा का सम्मान करते हुए कहता है-‘‘बेटे तुम ठीक कह रहे हो, मैं तो भूल ही गया था कि मुझसे भी पहले तुम देश के लाल हो, भारत माँ के लाल।’’
‘पहल’ कहानी नौकरपेशा व्यक्ति के बालकों का गाँव में रह रहे दादी माँ के प्रति प्रेम की उत्कटता दर्शाती है। ‘अभिलाषा’ कहानी में गाँव के लड़के के पढ़-लिख जाने पर भी उसका गाँव न छोड़ने का संकल्प तथा पिता की अभिलाषा को साकार करते हुए गाँव में ही रहकर सभी को अपनी कृषि की उच्च शिक्षा का लाभ पहुँचाने का निश्चय दिखाया है जो कहानी की संदेशप्रदता का परिचायक है।
‘कृत-संकल्प’ कहानी नारी अशिक्षा की समस्या के सार्थक समाधिगान की कहानी है। ‘नील कंठ की भांति’ कहानी दापंत्य के बीच प्रेम-त्रिकोण का संदर्भ लेकर चलती हैं, जिसमें पत्नी और प्रेमिका की स्वाभाविक मनोदशा का सजीव चित्रण है। इस कहानी में पत्नी की अंतर्मुखी वेदना और उसकी व्यवहारगत उदात्तता का सजीव चित्रण कहानीकार की मनोवैज्ञानिक सूक्ष्म दृष्टि को प्रमाणित करता है। संग्रह की अंतिम कहानी है-‘डायरी के पृष्ठों ने’ इसमें नारी के लिये डायरी लेखन के दुष्परिणाम के रूप में शंकालु पुरुषमन की असहिष्णुता दर्शाई गई है।
दिनेश पाठक ‘शशि’ का यह कहानी संग्रह कथ्य की बहुआयामी व्यापकता से आप्लावित है। स्त्री-पुरुष सम्बन्धों की विकलता तथा प्रेम त्रिकोण ग्रस्त गृहस्थ-जीवन की विसंगतियाँ और नारी स्वातंत्रय के दुराग्रह का दुष्परिणाम जैसी ज्वलंत समस्याओं के साथ-साथ ग्राम्य युवकों का शिक्षा पाकर गाँव से पलायन, नारी साक्षरता की समस्या तथा राष्ट्र चिंता जैसे वर्तमान युगीन बड़े सकोकारों को भी दिनेश पाठक शशि की लेखनी ने अपनी कहानियों में पिरोया है। इस संग्रह की भाषा पात्रानुकूल तथा संप्रेषणीय है। ग्रामीण अंचल के पात्रों के संवाद आंचलिक भाषा से जीवंत हो उठे हैं। ‘याही में बाग हरे’ कहानी में माँ के संवादों में ब्रज भाषा का पुट, अभिशप्त कहानी में शिरीन के संवादों में अंग्रेजी शब्दों का स्वाभाविक प्रयोग, अभिलाषा कहानी में ग्रामीण पात्रों का ब्रज-भाषा में वार्तालाप कहानीकार के भाषा प्रयोग की कुशलता के प्रमाण है। लेखक का वातावरण चित्रण तथा पात्रों की मानसिक दशा का वर्णन-कौशल भी प्रशंसनीय है। कहानी के पात्रों के चरित्र विकास में भी लेखक ने अपनी विशेष कुशलता दर्शाई है। अनेक पात्रों के व्यवहार चित्रण द्वारा अथवा घटनाक्रम के विकास के साथ-साथ इंगित से ही चरित्रांकन दृश्यमान कर दिया है। इस प्रकार इक्कीसवीं सदी के प्रथम दशक में आने वाले कहानी-संग्रहों में ‘धुंध के पार’ एक ऐसा संग्रह होगा जो कहानी लेखन की धुंध के पार अपनी चमक दिखाएगा। लेखक को इस संग्रह के प्रकाशन पर हमारी हार्दिक बधाई है। हमारा विश्वास है कि कहानी-जगत में इस संग्रह का भरपूर स्वागत होगा।
सस्नेह-
डॉ. अनिल कुमार सिंह गहलौत
रीडर, एवं शोध-निदेशक, हिन्दी विभाग
किशोरीरमण स्नातकोत्तर महाविद्यालय
मथुरा (उ.प्र.)
रीडर, एवं शोध-निदेशक, हिन्दी विभाग
किशोरीरमण स्नातकोत्तर महाविद्यालय
मथुरा (उ.प्र.)
अपनी बात
जीवन सुख-दुःख के संगम का नाम है। इसमें बहुत कुछ ऐसा घटित हो जाता है जो
मनुष्य की अपेक्षा से परे होता है। आम आदमी से इतर, लेखक में संवेदना एवं
भावुकता कुछ अधिक होती है फलतः तालाब में फैंकी कंकड़ी से तरंगायित जल की
भाँति ही जीवन के सूक्ष्म से सूक्ष्म अनुभव एवं अनुभूतियाँ लेखक के दिलों
दिमाग को तरंगायित करके, उन क्षणों को कलमबद्ध करने को बाध्य कर देती हैं।
अति भौतिकतावादी युग में आज संयुक्त परिवार टूटकर एकल परिवारों में बदल रहे हैं। नौकरीपेशा व्यक्ति संयुक्त परिवार के होते हुए भी ताउम्र एकल परिवार की भाँति जीवन जीने को अभिशप्त हैं। कारण-नौकरी की अपनी-अपनी मजबूरियाँ, परिस्थितियाँ आड़े आकर अपनों से, स्वजनों से ताउम्र दूर ही दूर रखती हैं, यही कसक मेरे मन में हूक बनकर अक्सर ही उठा करती है परिणामतः ‘पहल’ जैसी कई कहानियों को जन्मती है।
बिना नारी के पुरुष-जीवन अधूरा है। नारी के पारिवारिक-दायित्वों को जो कम करके आँकते हैं, मेरी नजर में ऐसे लोग दया के पात्र हैं। पुरुष के कठिन से कठिन कार्यों की तुलना में भी नारी का पारिवारिक दायित्व कहीं ज्यादा गुरुतर है, ऐसा मेरा मानना है।
एक सरल हृदया, सुशील पत्नी जहाँ मनुष्य के दाम्पत्य जीवन में रस-वर्षा करके घर-परिवार को स्वर्गिक आनन्द प्रदान करती है वहीं स्पर्धा अति भौतिकतावाद और आधुनिकता के रंग में रंगी अति महत्वाकांक्षी नारी कुमार्गगामी बनकर दाम्पत्य में विष देती है साथ ही जीवन को नारकीय बना देती है। भारतीय संस्कृति पाश्चात्य संस्कृति की भाँति नारी की उच्छृंखलता, स्त्री-पुरुष मैत्री एवं विवाहेतर सम्बन्धों को प्रश्रय नहीं देती। भारतीय नारी ने जब-जब लक्ष्मण रेखा का उल्लंघन किया है, घर से बाहर निकले हर कदम पर उसने धोखा खाया है और पीड़ा भोगी है। नारी-स्वातंत्रय का अर्थ पुरुष को पीछे धकियाकर आगे बढ़ना नहीं है और न ही नारी-महत्त्वाकांक्षाएँ बिना पुरुष के ही या घर परिवार को छोड़कर ही पूरी होती हों, ऐसा भी नहीं है। स्त्री-पुरुष दोनों ही एक दूसरे के पूरक हैं और एक दूसरे के बिना अधूरे, ऐसा मेरा मानना है साथ ही आदि काल से ही नारी ही नारी की शोषक एवं प्रताड़क रही है, ये भी कटु सत्य है, पुरुष तो विभिन्न रूपों में नारी का अस्त्र बनता रहा है। इन्हीं सब बातों को उकेरने का प्रयास इस संग्रह की ‘विगत की लहरों में’, ‘नासूर’, ‘धुंध के पार’, ‘नीलकंठ की भाँति’ और ‘अभिशप्त’ आदि कहानियों में मैंने किया है। कृत संकल्प की नायिका की प्रारम्भिक विवशता का अनुमान कोई भुक्त भोगी ही लगा सकता है।
संग्रह की सभी कहानियाँ यथार्थ के धरातल पर, घटित घटनाओं में थोड़े-बहुत कहानियों के पात्र साक्षात् अपने आस-पास जरूर ही दिखलाई पड़ेंगे।
मेरी इस लेखन यात्रा में जिन साहित्यकार मित्रों से समय-समय पर कहानी के मुद्दों पर लम्बी और गम्भीर बहसें होती रहीं हैं उनमें सरल हृदय के श्री कमलेश भट्ट कमल (गाजियाबाद) डॉ. जगदीश व्योम (होशंगाबाद) मदनमोहन उपेन्द्र सरिता शर्मा, मुनीश मदिर, सत्येन्दु याज्ञवल्क्य (मथुरा) अशोक गुप्ता जगन्नाथ गौतम फरीदाबाद राजेन्द्र टांक तारापुर अरुण जैन भुवनेश्वर तथा किशोर श्रीवास्तव (दिल्ली) आदि के नाम उल्लेख्य हैं।
आकाशवाणी दिल्ली की डॉ. अलका पाठक, डॉ. हरीसिंह पाल एवं मोहन सिंह, मीना तथा डॉ. वेदप्रकाश अमिताभ (अलीगढ़), डॉ. गिरजाशंकर त्रिवेदी (मुंबई), अनिलगाँधी (फरीदाबाद), डॉ. प्रेमदत्तमिश्र मैथिल आदि का स्नेह भी किसी न किसी रूप में मुझे मिलता रहा है।
प्रसिद्धि साहित्यकार डॉ. अनिल गहलौत ने इस संग्रह की भूमिका ही नहीं लिखी कहानियों के शीर्षक आदि में उपयुक्त सुधार आदि करके मुझ पर विशेष कृपा की है। अस्वस्थ होने से पूर्व तक इन कहानियों की प्रथम श्रोता के रूप में पत्नी शशि पाठक एवं पुत्र आकाश और सागर के विचार-विमर्श व सहयोग का लाभ भी मैंने उठाया है।
जाह्नवी प्रकाशन के मालिक अतुल गुप्ता ने इस संग्रह को प्रकाशित किया है, मेरे लिए ये हर्षप्रद है।
संग्रह की कहानियाँ आपके सामने है अच्छी या बुरी का निर्णय तो आपके ही हाथ है। अपनी प्रतिक्रिया से अवगत कराने का कष्ट करेंगे तो मुझे प्रसन्नता होगी।
आपका ही-
अति भौतिकतावादी युग में आज संयुक्त परिवार टूटकर एकल परिवारों में बदल रहे हैं। नौकरीपेशा व्यक्ति संयुक्त परिवार के होते हुए भी ताउम्र एकल परिवार की भाँति जीवन जीने को अभिशप्त हैं। कारण-नौकरी की अपनी-अपनी मजबूरियाँ, परिस्थितियाँ आड़े आकर अपनों से, स्वजनों से ताउम्र दूर ही दूर रखती हैं, यही कसक मेरे मन में हूक बनकर अक्सर ही उठा करती है परिणामतः ‘पहल’ जैसी कई कहानियों को जन्मती है।
बिना नारी के पुरुष-जीवन अधूरा है। नारी के पारिवारिक-दायित्वों को जो कम करके आँकते हैं, मेरी नजर में ऐसे लोग दया के पात्र हैं। पुरुष के कठिन से कठिन कार्यों की तुलना में भी नारी का पारिवारिक दायित्व कहीं ज्यादा गुरुतर है, ऐसा मेरा मानना है।
एक सरल हृदया, सुशील पत्नी जहाँ मनुष्य के दाम्पत्य जीवन में रस-वर्षा करके घर-परिवार को स्वर्गिक आनन्द प्रदान करती है वहीं स्पर्धा अति भौतिकतावाद और आधुनिकता के रंग में रंगी अति महत्वाकांक्षी नारी कुमार्गगामी बनकर दाम्पत्य में विष देती है साथ ही जीवन को नारकीय बना देती है। भारतीय संस्कृति पाश्चात्य संस्कृति की भाँति नारी की उच्छृंखलता, स्त्री-पुरुष मैत्री एवं विवाहेतर सम्बन्धों को प्रश्रय नहीं देती। भारतीय नारी ने जब-जब लक्ष्मण रेखा का उल्लंघन किया है, घर से बाहर निकले हर कदम पर उसने धोखा खाया है और पीड़ा भोगी है। नारी-स्वातंत्रय का अर्थ पुरुष को पीछे धकियाकर आगे बढ़ना नहीं है और न ही नारी-महत्त्वाकांक्षाएँ बिना पुरुष के ही या घर परिवार को छोड़कर ही पूरी होती हों, ऐसा भी नहीं है। स्त्री-पुरुष दोनों ही एक दूसरे के पूरक हैं और एक दूसरे के बिना अधूरे, ऐसा मेरा मानना है साथ ही आदि काल से ही नारी ही नारी की शोषक एवं प्रताड़क रही है, ये भी कटु सत्य है, पुरुष तो विभिन्न रूपों में नारी का अस्त्र बनता रहा है। इन्हीं सब बातों को उकेरने का प्रयास इस संग्रह की ‘विगत की लहरों में’, ‘नासूर’, ‘धुंध के पार’, ‘नीलकंठ की भाँति’ और ‘अभिशप्त’ आदि कहानियों में मैंने किया है। कृत संकल्प की नायिका की प्रारम्भिक विवशता का अनुमान कोई भुक्त भोगी ही लगा सकता है।
संग्रह की सभी कहानियाँ यथार्थ के धरातल पर, घटित घटनाओं में थोड़े-बहुत कहानियों के पात्र साक्षात् अपने आस-पास जरूर ही दिखलाई पड़ेंगे।
मेरी इस लेखन यात्रा में जिन साहित्यकार मित्रों से समय-समय पर कहानी के मुद्दों पर लम्बी और गम्भीर बहसें होती रहीं हैं उनमें सरल हृदय के श्री कमलेश भट्ट कमल (गाजियाबाद) डॉ. जगदीश व्योम (होशंगाबाद) मदनमोहन उपेन्द्र सरिता शर्मा, मुनीश मदिर, सत्येन्दु याज्ञवल्क्य (मथुरा) अशोक गुप्ता जगन्नाथ गौतम फरीदाबाद राजेन्द्र टांक तारापुर अरुण जैन भुवनेश्वर तथा किशोर श्रीवास्तव (दिल्ली) आदि के नाम उल्लेख्य हैं।
आकाशवाणी दिल्ली की डॉ. अलका पाठक, डॉ. हरीसिंह पाल एवं मोहन सिंह, मीना तथा डॉ. वेदप्रकाश अमिताभ (अलीगढ़), डॉ. गिरजाशंकर त्रिवेदी (मुंबई), अनिलगाँधी (फरीदाबाद), डॉ. प्रेमदत्तमिश्र मैथिल आदि का स्नेह भी किसी न किसी रूप में मुझे मिलता रहा है।
प्रसिद्धि साहित्यकार डॉ. अनिल गहलौत ने इस संग्रह की भूमिका ही नहीं लिखी कहानियों के शीर्षक आदि में उपयुक्त सुधार आदि करके मुझ पर विशेष कृपा की है। अस्वस्थ होने से पूर्व तक इन कहानियों की प्रथम श्रोता के रूप में पत्नी शशि पाठक एवं पुत्र आकाश और सागर के विचार-विमर्श व सहयोग का लाभ भी मैंने उठाया है।
जाह्नवी प्रकाशन के मालिक अतुल गुप्ता ने इस संग्रह को प्रकाशित किया है, मेरे लिए ये हर्षप्रद है।
संग्रह की कहानियाँ आपके सामने है अच्छी या बुरी का निर्णय तो आपके ही हाथ है। अपनी प्रतिक्रिया से अवगत कराने का कष्ट करेंगे तो मुझे प्रसन्नता होगी।
आपका ही-
15 अगस्त 2004
दिनेश पाठक शशि
आर बी-3/98-बी
रेलवे कालोनी मथुरा,
फोन-0565-2410264
आर बी-3/98-बी
रेलवे कालोनी मथुरा,
फोन-0565-2410264
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