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निशीथ एवं अन्य कविताएँ

उमाशंकर जोशी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 1999
पृष्ठ :351
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5584
आईएसबीएन :81-263-0082-5

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भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रवर्तित साहित्य-पुरस्कार से सम्मानित गुजराती काव्यकृति ‘निशीथ’ का हिन्दी रूपान्तरण...

Nisheeth Evam Anya Kavitayen

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्रस्तुति

प्रथम संस्करण से
भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रवर्तित साहित्य-पुरस्कार से सम्मानित गुजराती काव्यकृति ‘निशीथ’ हिन्दी रूपान्तरण के माध्यम से कृतिकार श्री उमाशंकर जोशी के कृतित्व का समुचित परिचय दे सके, इस दृष्टि से प्रस्तुत संकलन ‘निशीथ एवं अन्य कविताएँ’ शीर्षक से हिन्दी के पाठकों को समर्पित करते हुए हमें विशेष प्रसन्नता हो रही है।
20 दिसम्बर 1968 को दिल्ली के विज्ञान-भवन में आयोजित पुरस्कार समर्पण समारोह के कार्यक्रम का विशिष्ट अंग है, इस कृति का ग्रन्थिविमोचन। 1966 के समारोह के अवसर पर महाकवि जी. शंकर कुरुप की मलयालम काव्यकृति ‘ओटक्कुषल’ का हिन्दी अनुवाद विमोचित हुआ था और 1967 के समारोह में श्री ताराशंकर बन्द्धोपाध्याय के पुरस्कृत बांग्ला उपन्यास ‘गणदेवता’ का। ये प्रकाशन जहाँ हमें भारतीय साहित्य के मानदण्ड का, उसकी सर्वोच्च उपलब्धि का, परिचय देते हैं वहाँ हमें इस बात की भी प्रतीति देते हैं कि भारतीय साहित्य परिकल्पना में, प्रभावों की प्रतिक्रिया में, विषय-वस्तु में, रसानुभूति में, और यहाँ तक कि सांस्कृतिक-अभिव्यक्ति की वाहक शब्द-सम्पदा में समग्र रूप से सम्पृक्त हैं। भाषाएँ विभाजित नहीं करती, इन तत्त्वों के माध्यम से एक-दूसरे को जोड़ती हैं।

गुजराती में ‘निशीथ’ का प्रकाशन-वर्ष 1939 है, किन्तु इस संग्रह की कविताओं का सृजन-काल 1930 से प्रारम्भ होता है। इस युग के राष्ट्रीय चिन्तन ने, अन्तर्राष्ट्रीय घटनाओं की प्रतिक्रिया ने देश की मनीषा को जिस रूप में और जिन आयामों में प्रभावित किया है, उसका मार्मिक प्रतिफलन इन कविताओं में मुखरित हुआ है। इस हिन्दी-संस्करण में एक पृथक् खण्ड कुछ पूर्व और परवर्ती कविताओं के संकलन का है, ताकि कवि की काव्य-प्रतिभा, शिल्पविधान, विषयगत वैविध्य और एक ही भाव की बहुरूपी व्यंजना का परिचय प्राप्त हो सके।
सन् 1931 में लिखी ‘विश्वशान्ति’ कविता की केन्द्रीय कवि-दृष्टि कि शान्ति केवल अहिंसा के मार्ग से प्राप्त हो सकती है, ‘निशीथ’ में अधिक स्पष्टता के साथ परिभाषित हुई है।
श्री उमाशंकर की भाव-चेतनाबाह्य जगत् से रूपायित होती है और वह समकालीन स्थिति-बोध से अन्तःसम्पृक्त है। आदर्श और यथार्थ के बीच अद्भुत रूप से सन्तुलित उनका काव्य, परम्परागत गीतात्मकता और निरी आशावादिता की सीमा से ऊपर उठकर मानव-वेदना के उदात्त शिखरों पर आरोहण करता है। यद्यपि उनके काव्य का मूल्य उत्स हमारी परम्परा में परिनिष्ठित है और यह उनके मूल्यों से समृद्ध है, किन्तु सृजनात्मक और समीक्षात्मक प्रज्ञा के अदभुत तादात्म्य के कारण यह वास्तविक अर्थों में आधुनिक है।

प्रो. विष्णुप्रसाद त्रिवेदी के शब्दों में, ‘सुकुमार ह्रदय, तेजस्वी बुद्धि, समर्थ कल्पना, उच्चस्तरीय चिन्तन और समृद्ध व्यक्तित्व का परिचय ‘निशीथ’ में व्यक्त है।’

‘निशीथ’ में संकलित कवि की एक विशिष्ट रचना है ‘आत्मानां खंडेर’। यह 17 चतु्ष्पदियों की एक श्रृंखलित इकाई है, जो इस संग्रह की सर्वोत्तम रचना भी है। इसमें कवि ने एक ऐसे युवक की शोक-करुण अनुभूति को वाणी दी है जो विश्वविजय की साध लेकर आया, पर उसके खँडहर देखने को बाध्य होता है। कविता की अन्तिम पंक्तियाँ उमाशंकर की सबसे सुन्दर पंक्तियाँ हैं; शायद गुजराती भाषा की सबसे सुन्दर पंक्तियों में से :

‘‘असुख नहीं दमते मुझे, जितने कि वितथ सौख्य चुभते,
नहीं रुचते सुख, जैसे रुचते समझ में उतरे दुःख,
यथार्थ ही सुपथ्य एक, समझते रहना होगा जो शक्य,
अनजान रमना क्या ? यातना के मोल भी समझना ही इष्ट।’’

निःसन्देह, अनुवाद की अपनी सीमाएँ हैं। यह विशेष रूप से तब स्पष्ट हो जाता है जब बायें पृष्ठ पर देवनागरी लिपि में उद्धृत मूल गुजराती कविता से मिलान करते हैं। कवि की कई उत्तम गीत-रचनाएँ तो अनुवादकों को छोड़ देनी पड़ीं। छन्द की लय, प्रास की माधुरी और भावों की क्षेत्रीय व्यंजना अनुवाद में लाना कैसे सम्भव हो ? फिर भी श्री रघुवीर चौधरी और श्री भोलाभाई पटेल ने प्रत्येक कविता की भाव-सम्पदा को सम्प्रेषित करने और अनुवाद को एक गद्यात्मक लय देने का पूरा प्रयत्न किया है। संग्रह की प्रथम कविता ‘निशीथ’ को, श्रीमती मदालसा श्रीमन्नारायण द्वारा प्रस्तुत प्रारूप के आधार पर अन्तिम रूप देने का सुख मुझे इन बन्धुओं के सहयोग से प्राप्त हुआ। ‘निशीथ’ की अन्य कविताओं को अनुवाद के माध्यम से समझने और संशोधन सुझाव आदि के विनिमय का सन्तोष भी मुझे उमाशंकर भाई के साथ कुछ दिन रहकर प्राप्त हुआ है।

डॉ. प्रभाकर माचवे ने ‘स्वर्गीय बड़े भाई’, ‘पांचाली’ तथा अन्य रचनाओं का अनुवाद भेजकर कार्य में शीघ्रता लाने में स्तुत्य सहयोग दिया है। दोनों अनुवादक डॉ. रामदरश मिश्र के साथ बैठकर अनुवाद की पाण्डुलिपि पढ़ चुके हैं। डॉ. रणधीर उपाध्याय से भी उन्हें इस प्रकार का सहयोग प्राप्त हुआ है। इन तीनों विद्वानों के प्रति मैं कृतज्ञता का भाव व्यक्त करता हूँ।
पुरस्कार-समर्पण समारोह के अवसर पर ही ज्ञानपीठ श्री उमाशंकर जोशी की दो अन्य कृतियों का अनुवाद भी प्रकाशित कर रही हैं-‘प्राचीना’ एवं ‘श्री अने सौरभ’ का। ‘प्राचीना’ में कवि की सात पद्य-नाट्यात्मक रचनाएँ ‘कर्ण-कृष्ण’, ‘19वें दिन का प्रभात’, ‘गान्धारी’, ‘बाल राहुल’, ‘रतिमदन’, ‘आशंका’ और ‘कुब्जा’ संकलित हैं। गुजराती काव्य-साहित्य में इस कृति का विशिष्ट स्थान है। ‘श्री और सौरभ’ निबन्ध-संग्रह उमाशंकर जोशी के उस चिन्तक, समीक्षक और अध्येता व्यक्तित्व से आह्लादकारक परिचय कराता है जिसने प्राचीन भारतीय साहित्य की प्रभूत काव्य-ऋद्धि को, उसकी अन्तर्दृष्टि को जिज्ञासु की उत्सुकता से समझा है, मनीषी की दृष्टि से परखा है और कवि की भावानुभूति से सम्प्रेषित किया है।
कवि की सृजनशील प्रतिभा ने साहित्य की विविध विधाओं : नाटक, उपन्यास, कहानी, निबन्ध, साहित्यिक आलोचना आदि के माध्यम से आत्मसिद्धि प्राप्त की है। उदात्त भव्यता उनकी रचनाओं का मूल निःश्वास है और व्यक्ति तथा उसका कृतित्व सदा एकात्म है !

कविता : आत्मा की मातृभाषा

कॉलेज का मेरा पहला बरस था। दिवाली की छुट्टियाँ शुरू होते ही पन्द्रह रुपये मँगनी पर लेकर हम तीन मित्र अहमदाबाद से आबू जाने के लिए गाड़ी में बैठे। गाड़ी से आबूरोड तो पहुँचे, पर फिर पहाड़ चढ़े, चल कर उतरे और वतन का सौ मील जितना डूँगरमाला से गुजरता विकट मार्ग भी पैदल ही काटा।
मूल में मैं डूँगरों का। उत्तर गुजरात के मेरे गाँव में मेरे घर के पीछे ही डूँगर है। परन्तु अर्बुदगिरि का अनुभव मुझे प्रकृति-प्रेम में लहराता ही रहा। शरद पूर्णिमा की रात्रि थी। काव्यदीक्षा के लिए तरसते तरुण चित्त को अर्बुदगिरि की पर्वतश्री ने शरदपूर्णिमा के प्रफुल्ल आलोक में धन्य मन्त्र दिया : सौन्दर्यो पी : उरझरण गाशे पछी आपमेळे.
-हमें पहाड़ मुँह खोलकर पानी पीते दिखाई नहीं देते, हम पर पानी पड़ते ही लुढ़क जाता दीखता है, फिर भी चुपचाप हम अपने भीतर उसे संगृहीत कर लेते हैं। भीतर पानी का पर्याप्त संचय हुआ कि फिर चाहे शिलाएँ कैसी भी क्यों न हों, उनके द्वार तोड़कर निर्झर अपने आप बाहर फूट आता है। मानो हमारा-कठोर पर्वतों का ह्रदय ही गाने लग गया हो ! विश्व में सौन्दर्य की सतत धारा-वर्षा हो रही है। तूने यदि उसे भीतर उतारा होगा तो फिर तेरा उरनिर्झर अपने आप गाने लग जाएगा।

उस समय काव्यजीवन का आरम्भ करने के लिए यह मन्त्र पर्याप्त था।
गुजरात कॉलेज की पत्रिका में वह कविता छपी। उस समय मैं संस्कृत में भी रचनाएँ किया करता था। इस राह पर चढ़ गया इण्टर के वर्ग में, संस्कृत के अध्यापक ने कीट्स की ‘ला बेल दाम साँ मेर्सी’ की दो कड़ियों का अनुवाद कर लाने के लिए कहा, इस पर से। अनुवाद करते समय संस्कृत भाषा की भरपूर साधनसज्जा (resourcefulness) का मुझे अनुभव हुआ।

लम्बालकां लघुगतिं ललितां स्थलीषु
उन्मत्तचारुदृशमीक्षितवान् सुबालाम्।
तत्कण्ठभूषणमहं कृतवांश्च मालां
काञ्चीं च सौरभवहामपि कंकणं च।।
बद्धभावेव मय्येषा दृष्टिं चिक्षेप कामिनी।
ततो दीर्घं च निःश्वस्य मुग्धैषा चित्रवत् स्थिता।।

अन्तिम चरण में मैंने जोड़ा था। बाद में ‘तत्रापश्यं गिरिपथचरस्त्वां भ्रमन्तीं सुखेन’-इन शब्दों से आरम्भ होता साबरमती से उद्बोधन, ‘सुधाऽऽस्वादं यत्ते स्मितं नाहं याचे, तदभिलषिताः सन्तु बहवः।...’-ये प्रणयोद्गार आदि स्वतन्त्र संस्कृत रचनाएँ भी, कॉलेज-पत्रिका में प्रकाशित हुईं।

इतने में 1930 की सत्याग्रह की लड़ाई शुरू हुई। कच्चे जेल में था, तब वहाँ से एक कविमित्र को भेजी हुई रचनाएँ, कुछ महीनों के बाद जेल से बाहर आया उसके पूर्व ही, अग्रगण्य मासिक-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई थीं। सूरत में एक समारम्भ में एक कृति को नृत्य के साथ प्रस्तुत करने वाली बालिका का चित्र भी एक अंक में प्रकाशित हो चुका था। आरम्भ था-

हुं गुलाम ?
सृष्टि बागनुं अमूल फूल मानवी गुलाम ?
(मैं गुलाम ? सृष्टि के उपवन का अमूल्य पुष्प मनुष्य गुलाम ?)
ह्रदय-चित्त पर राष्ट्रीयता की भावना ने अधिकार कर लिया था।

उस समय केवल राष्ट्रीयता का ही आकर्षण था? या राष्ट्रीय लड़ाई के नेपथ्य में रही किसी व्यापक भावना का भी आकर्षण था?
1930 में जेल में एक अनुभव हुआ। आबू पर प्राप्त अनुभव जिस तरह काव्यजीवन की दीक्षा देनेवाला था, यह जीवन समग्र की दीक्षा में प्रेरित करने वाला था।
साबरमती जेल में मैं साथियों से बिछुड़कर एक के बाद दूसरी बैरक में हटाया जाता था। ऐसे में सितारों की लगन लगी। मुझे हँसी आती कि बाहर खुले आसमान के नीचे था तब कभी तारों का ऐसा आकर्षण न जगा, अब यहाँ बन्द होने की बारी आयी तब ये दूर-दूर से टिमटिमा कर मुझे बिलखाते हैं। बैरक का एक छोर उत्तर की ओर था। वहाँ खिड़की के पास खड़ा मैं सप्तर्षि की ओर ताका करता। उनको छोड़कर और तारों को मैं पहचानता भी नही रहा हूँगा।

उसी समय श्री शंकर दीक्षित की खगोल-विषयक मराठी पुस्तक ‘ज्योतिर्विलास’ का अनुवाद मैंने पढ़ा। तुकाराम के अभंगो का तथा टॉमस ए. केम्पिस के ईसा-अनुसरण की पुस्तक का परिचय भी चल रहा था। राष्ट्रप्रेम की विराट तरंग तो हम सब उठाए हुए थे ही, उसमें ये रंग भी आ मिले। उस समय हर रोज सुबह जल्द उठकर दीवार से जरा दूर-उससे बिना टिके-बैठने की आदत डाली थी। एक दिन अलख सुबह में सर पर जैसे कोई अगोचर स्पर्श हुआ हो और उसके वेग के तले दब कर मेरा सारा अस्तित्व मानो पृथ्वी की सतह के साथ समरेख हो गया हो ऐसा अनुभव हुआ। मानो आत्मविलोपन का- प्रकाशभरे आत्मविलोपन का भाव उमड़ता रहा। शून्यता का नहीं-सभरता का यह अनुभव था।
इस अनुभव की छाया में मुझे एक नाटक सूझा। उसमें नक्षत्र-ग्रह पात्रों के रूप में थे। स्वयं काल भी एक पात्र था। सनातनता के बागे सजकर काल प्रवेश करता है, और अपनी महत्त्वाकांक्षा प्रकट करता है-जो सारे नाटक में बीजरूप है। कहता है कि सृष्टि में सौन्दर्य को प्रस्थापित करने में तो मैं कुछ सफल हुआ हूँ-

तेजने पूर्यु तारलिये,
दीध परिमलने फूलवेश.
विश्वने आंगण वेरवा मारे
प्रेम-भीना सन्देश.

(तेज को तारकों में रूपान्वित किया, सौरभ को पुष्प की सज्जा दी। विश्व के आँगन में मुझे बिखेरने हैं प्रेमभीगे सन्देश।)
अब विश्व में प्रेमतत्त्व को वह प्रतिष्ठित देख पाए कि बस ! इस नाटक के दूसरे अंक में मानव जाति के इतिहास के मुख्य क्षणों को स्पर्श करने का सोचा था। सारा प्रयत्न मानवजीवन में संवादिता की शक्यताएँ खोजने-जाँचने का और प्रेमधर्म की महिमा गाने का था।

कहने की जरूरत नहीं है कि उस समय ऐसा नाटक लिखने की स्थिति में मैं नहीं था। कुछ अंश लिखे थे, बस वे ही। परन्तु इससे मुझे एक बड़ा लाभ यह पहुँचा कि नाटक लिखने की-कवि होने की-तैयारी कर रहा हूँ ऐसा भाव ही अनुगामी वर्षों में सतत बना रहा। कृति लिखने की सज्जता के लिए शिक्षा का एक पूरा अभ्यासक्रम मुझे अनायास मिल गया। यह काव्यकृति सूझी उसके बाद भले ही इसकी रचना पूरी न हुई, किन्तु उसमें से अन्य अनेक छोटी-बड़ी कृतियों का उद्भव हुआ है। आत्म-विलोपन का वह परम आह्लादाकारी अनुभव विश्व से-मानव जाति से-राष्ट्र से तादात्म्य का अनुभव करने में बार-बार प्रेरित किया करता है।

शोधीश मां मावडी खोवायो बाळ रे
खोवायो धरतीने आंगणे.
खण्ड खण्ड लोकवृन्द टोळे ऊमटियां ने
मळियो आ मानवीनो मेळो रे,
खोळीश मां धरतीने व्होले रे खोळले
हुं जो भळी जाऊं भेळो-
हो मावडी, खोवायो धरतीने आंगणे।

(हे माँ, मत खोजना अपने बाल को, खो गया है वह इस धरती के ही आँगन में। खण्ड खण्ड में लोकवृन्द एक साथ उमड़ आये हैं। और लगा है मनु्यों का यह मेला। मत खोजना, धरती की विशाल गोद में जो मिल जाऊँगा सबके साथ। हे माँ, मैं तो खो गया हूँ धरती के आँगन में।)
‘रखडुनुं गीत’ (यायावर का गीत) उपर्युक्त शब्दों से उभरता है, और ‘विश्वमानवी’ (विश्वमानव) इन पंक्तियों में विरमता है :
व्यक्ति मटीने बनुं विश्वमानवी,
माथे धरूं धूल वसुन्धरानी.

(मिट कर व्यक्ति बनूँ विश्वमानव, सर पर धारण करूँ वसुन्धरा की धूल।)
बाद में ‘सिवान के पत्थर पर’ और ‘विराट प्रणय’ में भी तादात्म्य का भाव ही अलग-अलग रीति से झाँक जाता है।
साबरमती जेल में प्राप्त अनुभव का काव्य तो स्वयं रचा न गया, परन्तु वह काव्यसर्जन के एक अन्तःस्त्रोत के रूप में अनुभूति देता रहा। अनुभूति शब्द प्रयुक्त करता हूँ तब मुझे खयाल है कि कोई इसे चाहे तो भ्रान्ति भी कह सकता है, पर जहाँ तक कवितासर्जन का सम्बन्ध है, भ्रान्ति भी एक हकीकत सी ही परिणामकारक सिद्ध हो सकती है, यह इस मिसाल से देखा जा सकेगा।

1931 में गाँधी-इरविन समझौते के समय में मैं कॉलेज में वापिस न गया। फिर से लड़ाई आ रही है, इस अपेक्षा से गाँधीजी द्वारा स्थापित गुजरात विद्यापीठ में जाकर आचार्य श्री काका साहब कालेलकर के साथ रहा। वहाँ उस नाटक की तैयारी के लिए स्वाध्याय का आरम्भ किया। एक दृश्य ‘युधिष्ठिर का युद्धविषाद’ का मसौदा भी बना लिया। पर इस तैयारी के एक आकस्मिक अंकुर के रूप में ‘विश्वशान्ति’ खण्डकाव्य लिखा गया-पाँच दिन में। गाँधीजी के विभूतिमत्व के परिवेश में यह काव्य चलता है। गोलमेज परिषद में जाना लगभग स्थगित कर दिया गया था और वे विद्यापीठ में आकर कुछ दिन रहे थे, सुबह से प्रार्थनाप्रवचन के दरमियान उनका सान्निध्य पूरा मिलता। ‘विश्वशान्ति’ समिष्टि में समरस होने की अभीप्सा को साकार करने का प्रयत्न है। यह काव्य गाँधीजी द्वारा स्थापित नवजीवन प्रेम से प्रकाशित हुआ। इसका जो स्वागत हुआ उसमें प्रकाशन-संस्था का योगदान भी कम नहीं रहा होगा परन्तु छोटी-सी काव्य पुस्तिका गाँधीजी को पहुँचाने की हिम्मत मैं कर न पाया।

काव्यदीक्षा सौन्दर्य की, जीवनदीक्षा प्रेम की-यों मन में उग आना एक बात है, जीए जाते जीवन में प्रतिपल उनका अनुभव-वस्तु बनना और बात है। 1932 में जेल से ‘गंगोत्री’ संग्रह की कुछ कविताएँ और ‘सापना भारा’ एकांकी संग्रह के पहले पाँच नाटक लेकर बाहर आया, जिन पर सामाजिक एवं वैयक्तिक विसंवाद की छायाएँ अंकित हैं। गाँधीजी की प्रेरणा से जेलों में ब्रिटिश सरकार का आतिथ्य चखते युवक समाजवाद की भावना से रँगे जा रहे थे। ‘गंगोत्री’ में ‘भूखे जनों की जठराग्नि जगेगी’ यह उद्घोष और ‘निशीथ’ में ‘बेंक पासेनुं झाड’ (बैंक के नजदीक का पेड़) तथा ‘पांचाली’ जैसी कृतियाँ इस भावना के जीवन्त प्रभाव में हैं।

तीसरे दशक के बाद लगभग सभी गुजराती नवलेखक इस भावना से बहुत कुछ प्रभावित हुए, पाँच वर्ष के बाद ‘प्रगतिवाद’ के पुरस्कर्ता भी बने, परन्तु ‘साहित्य अने प्रगति’ नामक दो लेखसंचय प्रकाशित करके चौथे दशक के अन्त तक तो सबने प्रगतिवाद पर अधिकृत रूप से पर्दा गिराकर आन्दोलन को समेट लिया। दूसरे विश्वयुद्ध के वक्त साम्यवादियों की प्रमाणभूत पक्षीय नीति ने हमारे कदम को सही सिद्ध किया। पक्षवाद में फँसने से हम बच गये, पर समाजवाद की मूल प्रेरणा-सामाजिक न्याय की माँग-किसी न किसी रूप में हमसे लगी ही रही। 40 के नवकवियों में सौन्दर्याभिमुखता प्रकट हुई, परन्तु उसके लाभों के साथ,’ 50 के बाद प्रवेश करते नवकवियों की कविता में पुनःसमाजसन्दर्भ का परिणाम बिम्ब प्रतीक द्वारा आ मिलता है। इसके अनन्तर मानवनियति की, खास करके आधुनिक समय के दबाव के बीच कवि जैसे संवेदनशील व्यक्ति को मनुष्य की गति-स्थिति की कैसी झाँकी होती है इसकी सम्प्रज्ञता (Awareness) कविता द्वारा मूर्त होना चाहती है। ‘छिन्नभिन्न हूँ’ (1956) और ‘शोध’ (1959) रचनाएँ मेरे इस दिशा के प्रयत्न हैं।
विश्वशान्ति के वैयक्तिक अशान्ति के अनुभव की विपरीत गति हमारे युग के सर्जकों के लिए निर्मित हो चुकी थी-अनिवार्य रूप से-ऐसा भी कहा जा सकता है। यह भावनाओं का पीछे हटना नहीं है, अनुभूत यथार्थ का स्वीकार है। इस स्वीकार के बावजूद विश्वशान्ति की अभीप्सा मिटनेवाली नहीं थी, बल्कि धीरे-धीरे वैयक्तिक अशान्ति और विश्वशान्ति दोनों अलग-अलग न दीख कर परस्पर ओतप्रोत प्रतीत होने वाली थीं।

‘निशीथ’ में जो ‘देश-निर्वासित-सा’ नामक कृति है उसे मूल अँग्रेजी में लिखा गया था :
I wonder how this little soul
Was smuggled into life,
Not that I dread the fact of being
That men misname as strife.
From birth to death the mortals roam,
I seek the way from death to birth.
I have wandered and will wander still
An exile on this earth. *

परन्तु वैयक्तिक चेतना की बात को पूर्ण रूप से अंक में भरने का प्रयत्न ‘निशीथ’ की सॉनेटमाला ‘आत्मा के खँडहर’ में होता है। इस सॉनेटमाला का महदंश मैंने बम्बई में तीन दिनों में लिखा। उन दिनों मैं बी.ए. में भारतीय बैंकिंग का अध्ययन कर रहा था, ‘निशीथ’ की प्रमुख रचनाएँ वहीं लिखी गईं, वे बम्बई के जीवन के सूक्ष्म प्रभाव से अंकित हैं। खुद ‘निशीथ’ रचना का जन्म बम्बई की लोकल ट्रेन में, रात को उपनगर लौटते समय कविश्री मेघाणी की मेरे नाम लिखी गई चिट्ठी के कोरे हिस्से पर कुछ पंक्तियों के रूप में, हुआ था। इसमें छन्द वैदिक-सा प्रयुक्त करने पर भी लोकल ट्रेन के गति-आन्दोलन प्रवेश पा चुके हैं।

‘निशीथ’ की कविताओं की भूमिका पूर्व लिखित कृतियाँ ‘विश्वशान्ति’ और ‘गंगोत्री’ से कटी हुई तो नहीं है। एक मुख्य तन्तु है ‘विश्वशान्ति’ के पहले और पाँचवें-छठे खण्ड से संलग्न। मानव-नियति विषयक यह तन्तु ‘निशीथ’ में, ‘विराट प्रणय’ में तथा ‘आत्मा के खँडहर’ में-तीनों में भिन्न-भिन्न रीति से प्रतीत होता है। कवि के खयाल से ‘मंगल शब्द’ के पूर्वार्ध में वैश्विक चित्रण का जो आकर्षण है वह ‘निशीथ’ कविता में पूर्णतया व्यक्त हुआ है। ‘विश्वशान्ति’ के तीसरे खण्ड में झाँकते इतिहासप्रेम को ‘विराट प्रणय’ में अभिव्यक्ति का अवसर मिलता है।
दूसरा तन्तु है प्रणय कविता का। ‘गंगोत्री’ में ‘अकेले या साथ में’ आदि मौग्ध्य उद्गार ‘रहनुमा बिना’ रचना में भावना-संकेत, ‘मुखर कन्दरा’ जैसी रचनाओं में अपरीक्षित, अननुभूत तथापि विश्वस्त उच्चारण-इन सबके बाद अब विवाहोत्तर कृतियां मिलती हैं। मेरे एक मित्र ने तो कह भी दिया-‘विवाहोत्तर कृतियों को प्रणयकविता कौन कहे ?’
तीसरा एक तन्तु मृत्यु-विषयक संवेदन का है : ‘एक बच्ची को श्मशान ले जाते हुए’ के बाद ‘पिता के फूल’ तथा ‘स्वर्गीय बड़े भाई’ कृतियाँ मिलती हैं।

चौथा तन्तु जीवन की वास्तविकताओं का है, जिनमें केवल विषमताओं के ही नहीं, किन्तु जगत्-जीवन के विशाल फलक पर की, दृष्टि की व्याप्ति से बाहर रह गई निपट वस्तुस्थितियों के कुछ अंश अनुभूति-विषय बनते हैं।

*1934 में अँग्रेजी में ऐसे कुछ प्रयत्न किये थे। उस समय बम्बई में रहते श्री हरीन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय से मेरा सम्बन्ध था। उन्होंने ये कृतियाँ प्रकाशित करने की इच्छा प्रकट की थी, लेकिन मैंने बात को आगे बढ़ने नहीं दिया।

पाँचवाँ तन्तु-बल्कि उसे पाँचवाँ न कहें; यहाँ उपर्युक्त चारों तन्तु समवेत होकर अनुभूति का रूप लेकर स्फुट होना चाहते हों ऐसा लगता है। मेरे लिए तो यह जीवन का, कम-से-कम कवि-जीवन का शायद मुख्य भाग बनाता रहा है। यह दिखाई देता है ‘आत्मा के खँडहर में’। विश्वशान्ति के स्थान पर यहाँ व्यक्ति की अशान्ति शायद विषय-वस्तु बनती है, बुलन्द अभीप्सा जीए जाते विविधरंगी जीवन के स्पर्श से पहलदार बनती हैं। और यथार्थ-निरा यथार्थ, केवल यथार्थ के स्वागत में परिणत होती है। विश्वशान्ति और वैयक्तिक अशान्ति विरोधी वस्तुएँ नहीं रह जातीं। दोनों यथार्थ के सेतु से जुड़ जाती हैं। सॉनेटमाला के अन्तभाग में एक प्रकार के संशयवाद, निराशावाद, शून्यवाद (Nihilism), स्वप्न-आदर्श-भावना विषयक पराजयवाद (Defeatism) और आगे चलकर हमें पाश्चात्य साहित्य द्वारा दिखाये गये निःसारवाद (The Absurd), अस्तित्ववाद (Existentialism) के इंगित हैं, किन्तु परिणाम स्वरूप उबर आती है एक प्रकार की कोई आध्यात्मिक अनुभूति। व्यक्ति दबता, झेलता, मँजकर बाहर आता है यथार्थ का स्वागत करते, उसे अपनाते हुए। मुक्त ह्रदय से, मुक्त चित्त से यथार्थ का निःशेष स्वीकार भी स्वतः एक आध्यात्मिक विजय की भूमिका है।

‘अभिज्ञा’ (1967) में संगृहीत ‘छिन्नभिन्न हूँ’ और ‘शोध’ कृतियाँ आगे बढ़कर एक पूरा काव्यस्तबक बनें ऐसी परिकल्पना है। इस काव्य-संपुट में वे चारों समवेत तन्तु पुनः किस प्रकार प्रत्यक्ष होंगे यह फिलहाल मैं ही न जानता होऊँ तो कैसे कह सकूँ ? अपने ढंग से वह अलग और अनूठा प्रयत्न होना चाहेगा। मुझे कुछ ऐसा लगता है कि सर्जक चेतना कभी-कभी गोल सीढ़ी पर चढ़ती (spiralling) भी देखने को मिलती है।
कहिए कि ‘आत्मा के खँडहर’ में जो बाहर देखने को मिला था उसका साक्षात्कार ‘छिन्नभिन्न हूँ’ में भीतर होता है। ‘आत्मा के खँडहर’ सॉनेट के दृढ़ पद्यबन्द1 में साकार हुआ था, यहाँ छन्दोलय भिन्न, विक्षिप्त है, बल्कि गुजरती पद्यरचना के चारों प्रकार और बीच-बीच में गद्यपंक्तियों के द्वारा लय अन्वित होती चलती है। ‘छिन्नभिन्न छुं’ के बाद दूसरी ही पंक्ति-‘निश्छंद कवितामां धबकवा करता लय समो’ के आरम्भ के तीन शब्द और अन्तिम तीन शब्दों के बीच लय हिचक जाती है।
छिन्नभिन्नता के अनुभव की रचना यदि कलाकृति हो पाई तो इतना तो मनुष्य एक-केन्द्र हो पाया है, ऐसा कहा जा सकता है। साहित्य का माध्यम शब्द है। बाह्य वास्तविकता को शब्द एकत्व अर्पित करता है, इस अर्थ में कला स्वयं एक आध्यात्मिक प्रवृत्ति है। आज का मु्ख्य प्रश्न यह है कि यन्त्र-संस्कृति में मनुष्य जीए कैसे ? केवल जीए नहीं बल्कि मानवीय गरिमा के साथ जीए। यन्त्र-वैज्ञानिक संस्कृति का पश्चिमी जीवन पर भारी दबाव है और हमारे जीवन पर भी उसका असर न पड़ना असम्भव है। पश्चिम में भी विज्ञान और टेक्नॉलॉजी की उपलब्धियों के असन्तोष के बीच धर्म की- एक प्रकार की आध्यात्मिकता की-खोज के चिह्न दिखाई दे रहे हैं। किन्तु धर्म का मार्ग विज्ञान के सत्यों के बीच से ही गुजरता है। ‘डिवाइन कॉमेडी’ में इनफरनो (दोजक) और परगेटोरियो (शोधनागार) से होकर ही पेरेडिसो (स्वर्ग) का रास्ता गुजरा है। हमारे देश में भी ऐसे लोग हो सकते हैं जो इन अनुभवों की आँच में पक रहे हों।

दूसरी कृति ‘शोध’ जीवन के सर्जनात्मक सिद्धान्त की खोज को विषय-वस्तु बनाती है। द्रष्टा जब बिखरे वृक्ष नहीं देखता, वृक्ष-रचना-मय हो जाता है तब सौन्दर्यानुभूति प्रकट होती है; द्रष्टा और दृश्य के जुदा न रह जाने से केवल सौन्दर्यवस्तु ही प्राकट्य हो पाती है। यह प्रतीति सहानुभूति के फलक के विस्तरण मात्र से ही नहीं परन्तु तद्रूपता-समरसता पर आधारित है। पुष्प, शिशुओं का कलहास्य-ये इस कविता के शब्द और छन्द हैं और कन्याओं के आशा उल्लास हैं ‘मेरी कविता की नसों का रुधिर’। अन्ततोगत्वा काव्य की सौन्दर्य दीक्षा और जीवन की प्रेमदीक्षा अलग-अलग रह नहीं पातीं। प्रेम और सौन्दर्य एकज्वाल होकर रहते हैं।

निशीथ

1

निशीथ हे ! नर्तक रुद्ररम्य !
स्वर्गंगनो सोहत हार कंठे,
कराल झंझा-डमरू बजे करे,
पींछां शीर्षे घूमता धूमकेतु,
तेजोमेघोनी ऊडे दूर पामरी.
हे सृष्टिपाटे नटराज भव्य !

भूगोलार्धे, पायनी ठेक लेतो;
विश्वान्तर्ना व्यापतो गर्त ऊंडा.
प्रतिक्षणे जे चकराती पृथ्वी,
पीठे तेनी पाय मांडी छटाथी
ताली लेतो दूरना तारकोथी.
फेलावी बे बाहु, ब्रह्मांडगोले
वींझाई र्हेतो, घूमती पृथ्वी साथे.
घूमे, सुघूमे चिरकाल नर्तने,
पडे परन्तु पद तो लयोचित
वसुन्धरानी मृदु रंगभोमे;
वजंत ज्यां मंद्र मृदंग सिंधुनां.

2

पाये तारे पृथ्वी चंपाय मीठुं,
स्पर्शे तारे तेजरोमांच द्यौने.
प्रीतिप्रोयां दंपतीअंतरे को
बिकारवंटोळ मचे तुं-हूंफे.

3

निहारिकानां सलिले खेलनारो,
लेनार जे ताग ऊंडा खगांलना,

निशीथ

1

हे निशीथ, रुद्ररम्य नर्तक !
कंठ में शोभित स्वर्गंगा का हार
बजता है कर में झंझा-डमरू
घूमता हुआ धूमकेतु है तेरे शीश का पिच्छ-मुकुट
तेजस्-मेघों के हैं तेरे दुकूल फहराते दूर,
सृष्टिफलक पर, हे भव्य नटराज !

भूगोलार्ध पर दे रहा पाँव की थाप
व्याप्त करता विश्वान्तर के गहरे गत्तों को
प्रतिक्षण घूमती इस पृथ्वी की पीठ पर पाँव रखकर छटा से
ले रहा ताली तू दूरवर्ती तारकों के साथ !
फैलाकर दोनों भूजाएँ ब्रह्माण्ड के गोलार्धों में
हिल्लोल ले रहा घूमती धरा के संग
घूमता ही रहता है चिरन्तन नर्तन में
रहती है फिर भी पदगति लयोचित
वसुन्धरा की मृदु रंगभूमि पर
बजते हैं जहाँ मंद मृदंग सिन्धु के !

2

पैरों से तेरे पृथ्वी दबती है मधुर
स्पर्श से तेरे होता है तेज-रोमांच द्यौ को
प्रीति-पिरोये दम्पती-ह्रदय में उठता है
आवेग का बवंडर, तेरे स्निग्ध सहारे।

3

खेलता तू नीहारिका-नीर में
लेता थाह अथाह खगोल की

रंकांगणे तुं ऊतरे अमारे.
दीठो तने स्वंर घूमंत व्योमे,
अगस्त्यनी झूंपडीए झूकंतो,
के मस्त पेला मृगलुब्ध श्वानने
प्रेरंत व्योमांत सुधी अकेल,
सप्तर्षिनो वा करीने पतंग
चगावी रहेता घ्रवशुं रमंतो,
पुनर्वसुनी लई होडली जरी
नौकाविहारे उरने रिझावतो,
के देवयानी महीं जै झूलंतो,
दीठेल हेमंत महीं वळी, मघा
तणुं लई दातरडुं निरंतर
श्रमे नभक्षेत्र तणा सुपक्व
तारागणो-धान्यकणो लणंतो,
ने वर्षामां लेटतो अभ्र ओढ़ी.
हे रूपोमां राचता नव्य योगी !

4

निशीथ हे ! शांतमना तपस्वी !
तजी अविश्रांत विराट तांडवो
कदीक तो आसन वाळी बेसतो
हिमाद्रि जेवी दृढ तुं पलांठिए.
उत्क्रांतिनी धूणी धखे झळांझळां,
उडुस्फुलिंगो ऊडता दिगंतमां;
त्यां चिंतवे सृष्टिरहस्य ऊंडां
अमासअंधारतले निगूढ तुं.
अने अमे मानव मंद चेतवी
दीवो तने ज्यां करीए निहाळवा,
जृम्भाविकास्युं मुख जोई चंड
तारुं, दृगोथी रहीए ज वींटी
नानी अमारी घरदीवडीने,

तू उतरता हमारे रंक-आँगन में।
देखा तुझे स्वच्छन्द विहरते व्योम में
उझकते झोंपड़ी में अगस्त्य की
या खदेड़ते व्योमान्त तक अकेले
उस मृग-लुब्ध श्वान को,

या देखा खेलते ध्रुव के साथ
जो सप्तर्षि को चढ़ाता है ऊँचा पतंग-सा,
या लेकर पुनर्वसु की नाव
रिझाते हुए उर को तनिक नौका-विहार से,
या झूलते हुए देवयानी में जाकर,
तुझे देख पाया हेमन्त में
मघा का हँसिया लिये निरन्तर
नभक्षेत्र के सुपक्व तारक-धानकणों को
मेहनत से पाटते,
और देखा वर्षा में लेटे अभ्र ओढ़कर।
रूपों-रूपों में रमते, हे नव्य योगी !

4

हे निशीथ, हे शान्तमना तपस्वी !
तजकर अविश्रान्त विराट ताण्डव
बैठ जाता है तू कभी आसन लगा
हिमाद्रि-सी दृढ़ पालती जमाकर।
धू-धू जलती धूनी उत्क्रान्ति की
दिगन्त में उड़ते उडु-स्फुलिंग
वहाँ निगूढ़ अमा-तमान्तर में
करता तू गहन सृष्टि-रहस्य-चिन्तन।
और जैसे ही हम मानव, जलाकर मन्द दीप
निकलते हैं निरखने तुझे
देखकर जृं भाविकसित चंडमुख तेरा
दृगों से घेर लेते हैं अपनी नन्हीं-सी गृहदीपिका को

ने भूलवाने मथीए खीलेलुं
स्वरूप तारुं शिवरुद्र व्योमे.

5

संन्यासी है ऊर्ध्वमूर्धा अघोर !
अंधार अर्चेल कपोलभाले,
डिले चोळी कौमुदीश्वेत भस्म.
कमंडलु बंकिम अष्टमीनुं
के पूर्णिमाना छलकंत चंद्रनुं.
करे रसप्रोक्षण चोदिशे, जे
स्वंय चरे निःस्पृह आत्मलीन,
द्वारे द्वारे ढूकतो भेखधारी.
प्रसुप्त कोई प्रणयी युगोनां
उन्निद्र हैयाकमलो विशे मीठो
फोरावतो चेतननो पराग.
स्वयं सुनिश्चंचल, अन्य केरां
राचे करी अंतर मत्त चंचल.
खेलन्दा हे शांत तांडवोना !

6

मारा देशे शाश्वती शर्वरी कशी !
निद्राघेरां लोचनो लोक केरां
मूर्छाछायां भोळुडां लोकहैयां,
ते सर्व त्वन्नीरव नृत्य-ताले
न जागशे, द्यौनट हे विराट ?
मारे चित्ते मृत्युघेरी तमिस्त्रा,
रक्तस्त्रोते दास्यदुर्भेद्य तंद्रा.
पदप्रघाते तव, हे महानट,
न तूटशे शुं उरना विषाद ए ?

और करते हैं प्रयत्न भूल जाने का
व्योम में खिला तेरा रुद्र रूप !

5

हे सन्यासी, उर्ध्वमूर्धा अघोर !
अर्चित है अन्धकार तेरे कपोल-भाल पर
अंगो पर लेपी है कौमुदी-श्वेत भस्म।

लेकर कमंडलु बंकिम अष्टमी का
या पूर्णिमा के छलकते चन्द्रमा का
छिड़कता है रस चतुर्दिक्
तू जो विचरता है स्वयं निस्पृह आत्मलीन,
घूमघूम कर ठोकता है द्वार-द्वार पर भेखधारी।

प्रसुप्त किसी प्रणयी युगल के
उन्निद्र ह्रत्कमलों में मधुरतम महकाता है
चेतना का पराग;
कर के मत्त चंचल दूसरों के ह्रदय
स्वयं रहकर निश्चंचल
पाता है प्रमोद,
हे शान्त ताण्डवों के खिलाड़ी !

6

कैसी यह मेरे देश में शाश्वत शर्वरी ?
निद्राच्छन्न जन-जन के लोचन
मूर्च्छाग्रस्त भोलेभाले ह्रदय लोगों के
जानेंगे न क्या ये सब तेरी नृत्यताल से ?
द्यौनट, हे विराट् !
मेरे चित्त में घिरी मृत्युमय तमिस्त्रा
रक्त-स्त्रोत में दास्यं-दुर्भेद्य तन्द्रा।

चूर चूर होंगे न क्या ह्रदय के ये विषाद
पाद-प्रघात से तेरे, हे महानट !
ताले ताले नृत्यना रक्तव्हे

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