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कविता संग्रह >> दुःख तन्त्र

दुःख तन्त्र

बोधिसत्व

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :96
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5580
आईएसबीएन :81-263-1142-8

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प्रस्तुत है कविताओं का यह संकलन...

Dukh Tantra - A hindi Book by Bodhisatva

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

इन कविताओं के बारे में

खण्ड एक-‘उत्खनन’ की कविताओं के बारे में फ़िलहाल कुछ नहीं कहना। मगर खण्ड दो-‘स्थापना’ की कविताओं के बारे में जरूर कुछ कहना है।
जून 1999 में मैं गाँव भिखारीरामपुर से इलहाबाद जा रहा था। बुन्देलखण्ड एक्सप्रेस का एक डिब्बा। कहीं-कहीं ही यात्री थे। फ़ैज़ अहमद ‘फ़ैज़’ का ‘सारे सुख़न हमारे’ पढ़ता, कभी बाहर देखता। सब कुछ परिचित। सब कुछ पुराना।
फै़ज़ की एक कविता ‘इन्तिख़ाब’ बार-बार पढ़ रहा था। कहीं बोलकर, कभी गाकर। बिना इस पर ध्यान दिये कि किसी को बुरी लग सकती है मेरी अजीब आवाज़। ऊपर की बर्थ से एक महिला ने पूछा, इसमें वह कविता है ‘रसूल हमजा तोव’ की मैं तेरे सपने देखूँ’ वह महिला एक सुडौल सुघड़ काया लिये थी, जिस पर ढलान के चिह्न प्रकट होने के बावजूद आकर्षक थी। सफ़ेद पहनावा। मैंने बताया ‘है’, पर आप ? महिला नीचे उतरी और फ़ैज़ की दसियों कविताएँ सुना गयी ? फ़ैज़ को किसने गाया, किसने उनकी कविताएँ कहाँ-कहाँ किसने पढ़ीं, अनुवाद किया।
फिर उसने बताया कि रसूल हमजा तोव से उसकी चिट्ठी पत्री थी। उसने बनारस हिन्दू युनिवर्सिटी से एम.एस.सी. किया है पर उसके बाद सब कुछ छूट गया।

मैंने सोचा, मुझे बना रही है। पर बातें ऐसी थीं कि भरोसा करने के अलावा कोई चारा न था। मैंने पूछा, ऐसे कहाँ जा रही हैं- न कोई सामान, न साथी ? उसने फिर फैज़ को उद्धृत किया ‘न कोई जागा न कोई मंज़िल’। पर जा रही हूँ। इस बीच मैंने उसे बताया कि कवि हूँ। एक संग्रह आ चुका है। एक आने वाला है। उसने कहा, कुछ बात मेरी भी लिख दो। मैंने कहा कि ‘लिखिया’ बनना कोई ख़राब बात नहीं । पर एक बात, यह महिला संन्यासिन मुझे कहाँ ले जाना चाहती है, तय नहीं हुआ।
मैंने उससे उसके पिछले जीवन के बारे में पूछा। उसने अपनी रामकहानी संक्षेप में बतायी।
बनारस में पढ़ती थी। एक लड़के के साथ बिना किसी को बताये भाग गयी। डेढ़ वर्ष तक उसकी पत्नी बनी रही। फिर वह निकल भागा। फिर ‘इस शहर, उस वन’ भटकती रही।
फिर लगा कि अब जीवन का कोई अर्थ गृहस्थ- जीवन में न पा सकूँगी, सो संन्यासिन बनी।
मैंने जानना चाहा कि इतनी सुघड़ काया के साथ जीना क्या सहज है ? उसने साफ़ किया कि वाकई वह महन्तों के लिए एक रखैल से अधिक नहीं। तमाम संन्यासिनें ऐसा ही जीवन जी रही थीं। जी रही हैं। जाने क्यों मुझे देवदासियों के बारे में पढ़ा-सुना याद आ गया। मैं कुछ देर यूँ ही देखता रहा उस ओर। खँडहर होता-सा एक शिवाला मेरे सामने था। जिसमें अरसे से दीया-बाती के लिए कोई नहीं आया।

उसके आग्रह पर तथा कुछ अनुभव के लिए मैं इलाहाबाद स्टेशन पर उतरा। बाँदा का टिकट लिया और उसके साथ, बातचीत करता हुआ बाँदा, फिर वहाँ से चित्रकूट चला गया।
वहाँ मैं जान गया कि उस महिला का नाम कमला दासी है और आश्रम में काफी दबंग है। काफी रोब-दाब है। मैं उसका अतिथि था। आश्रम में लोग चकित थे। कमला दासी का मैं वहाँ के पन्द्रह वर्ष के जीवन में पहला अतिथि था। लोग मुझे काफी अचरज से देख-सुन रहे थे। मेरे बारे में खुसुर-फुसुर चल रही थी।
मुझे एक अलग हिस्से में रूकाया गया और कहा गया कि अब सुबह होने पर ही भेंट सम्भव है। आश्रम की नित्य दिनचर्या ऐसी ही है।
फिर सुबह मुझे एक दुबला-पतला किशोर संन्यासी कमला दासी के कक्ष तक छोड़ आया। फिर उसके साथ दिन भर रहना होता। बाद को अपने कक्ष में लौट आता।
ये कविताएँ कहीं-कहीं उनकी अपनी, कहीं सिर्फ मेरी और कहीं सिर्फ उनकी हैं। इनका सारा श्रेय कमला दासी को ही है। मैं ‘लिखिया’ मात्र हूँ। कमला दासी को ऐ कविताएँ सुनाता, फिर उसके कहने पर इसमें कुछ ‘फेर-बदल’ करना होता। पर उनका कोई परिचय इसके अलावा नहीं प्राप्त हुआ है। इसी स्मृति के लिए दूसरे खण्ड का शीर्षक ‘कमला दासी की कविताएँ’ दिया है। हालाँकि उनकी ऐसी इच्छा न थी, पर इतना तो मेरा भी अधिकार बनता है। मेरी जिद को उन्होंने स्वीकार किया।
अब कविताएँ आपके समक्ष हैं, आप जाने और ये कविताएँ।
सधन्यवाद।

एक आदमी मुझे मिला

एक आदमी मुझे मिला भदोही में,
वह टायर की चप्पल पहने था।
वह ढाका से आया था छिपता-छिपाता,
कुछ दिनों रहा वह हावड़ा में
एक चटकल में जूट पहचानने का काम करता रहा
वहाँ से छटनी के बाद वह
गया सूरत
वहाँ फेरी लगा कर बेचता रहा साड़ियाँ
वहाँ भी ठिकाना नहीं लगा
तब आया वह भदोही
टायर की चप्पल पहनकर

इस बीच उसे बुलाने के लिए
आयी चिट्ठियाँ, कितनी
बार आये ताराशंकर बनर्जी, नन्दलाल बोस
रवीन्द्रनाथ ठाकुर, नज़रूल इस्लाम और
मुज़ीबुर्रहमान।

सबने उसे मनाया,
कहा, लौट चलो ढाका
लौट चलो मुर्शिदाबाद, बोलपुर
वीरभूम कहीं भी।

उसके पास एक चश्मा था,
जिसे उसने ढाका की सड़क से
किसी ईरानी महिला से ख़रीदा था,
उसके पास एक लालटेन थी
जिसका रंग पता नहीं चलता था
उसका प्रकाश काफ़ी मटमैला होता था,
उसका शीशा टूटा था,
वहाँ काग़ज़ लगाता था वह
जलाते समय।

वह आदमी भदोही में,
खिलाता रहा कालीनों में फूल
दिन और रात की परवाह किये बिना।

जब बूढ़ी हुई आँखें
छूट गयी गुल-तराशी,
तब भी,
आती रहीं चिट्ठियाँ, उसे बुलाने
तब भी आये
शक्ति चट्टोपाध्याय, सत्यजित राय
आये दुबारा
लकवाग्रस्त नज़रूल उसे मनाने
लौट चलो वहीं....
वहाँ तुम्हारी ज़रूरत है अभी भी...।

उसने हाल पूछा नज़रूल का
उन्हें दिये पैसे,
आने-जाने का भाड़ा,
एक दरी, थोड़ा-सा ऊन,
विदा कर नज़रूल को
भदोही के पुराने बाज़ार में
बैठ कर हिलाता रहा सिर।

फिर आनी बन्दी हो गयीं चिट्ठियाँ जैसे
जो आती थीं उन्हें पढ़ने वाला
भदोही में न था कोई।
भदोही में
मिली वह ईरानी महिला
अपने चश्मों का बक्सा लिये

भदोही में
उसे मिलने आये
जिन्ना, गाँधी की पीठ पर चढ़ कर
साथ में थे मुज़ीबुर्रहमान,
जूट का बोरा पहने।

सब जल्दी में थे
जिन्ना को जाना था कहीं
मुज़ीबुर्रहमान सोने के लिए
कोई छाया खोज रहे थे।
वे सोये उसकी मड़ई में...रातभर,
सुबह उनकी मइयत में
वह रो तक नहीं पाया।

गाँधी जा रहे थे नोआखाली
रात में,
उसने अपनी लालटेन और
चश्मा उन्हें दे दिया,
चलने के पहले वह जल्दी में
पोंछ नहीं पाया
लालटेन का शीशा
ठीक नहीं कर पाया बत्ती,
इसका भी ध्यान नहीं रहा कि
उसमें तेल है कि नहीं।

वह पूछना भूल गया गाँधी से कि
उन्हें चश्मा लगाने के बाद
दिख रहा है कि नहीं ।
वह परेशान होकर खोजता रहा
ईरानी महिला को
गाँधी को दिलाने के लिए चश्मा
ठीक नम्बर का

वह गाँधी के पीछे-पीछे गया कुछ दूर
रात के उस अन्धकार में
उसे दिख नहीं रहा था कुछ गाँधी के सिवा।

उसकी लालटेन लेकर
गाँधी गये बहुत तेज़ चाल से
वह हाँफता हुआ दौड़ता रहा
कुछ दूर तक
गाँधी के पीछे,
पर गाँधी निकल गये आगे
वह लौट आया भदोही
अपनी मड़ई तक...
जो जल चुकी थी
गाँधी के जाने के बाद ही।

वही जली हुई मड़ई के पूरब खड़ा था
टायर की चप्पल पहनकर
भदोही में
गाँधी की राह देखता।

गाँधी पता नहीं किस रास्ते
निकल गये नोआखाली से दिल्ली
उसने गाँधी की फ़ोटो देखी
उसने गाँधी का रोना सुना,
गाँधी का इन्तजार करते मर गयी
वह ईरानी महिला
भदोही के बुनकरों के साथ ही।
उसके चश्मों का बक्सा भदोही के बड़े तालाब के किनारे
मिला, बिखरा उसे,
जिसमें गाँधी की फ़ोटो थी जली हुई...।

फिर उसने सुना
बीमार नज़रूल भीख माँग कर मरे
ढाका के आस-पास कहीं,
उसने सुना रवीन्द्र बाउल गा कर अपना
पेट जिला रहे हैं वीरभूमि-में
उसने सुना, लाखों लोग मरे
बंगाल में अकाल,
उसने पूरब की एक-एक झनक सुनी।

एक आदमी मुझे मिला
भदोही में
वह टायर की चप्पल पहने था
उसे कुछ दिख नहीं रहा था
उसे चोट लगी थी बहुत
वह चल नहीं पा रहा था।
उसके घाँवों पर ऊन के रेशे चिपके थे
जबकि गुल-तराशी छोड़े बीत गये थे
बहुत दिन !
बहुत दिन !

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