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10 प्रतिनिधि कहानियाँ (मृदुला गर्ग)

मृदुला गर्ग

प्रकाशक : किताबघर प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :135
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5579
आईएसबीएन :9788189859381

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प्रस्तुत हैं मृदुला गर्ग की दस प्रतिनिधि कहानियाँ

das pratinidhi kahaniyan(mridula garg)

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘दस प्रतिनिधि कहानियाँ’ सीरीज़ किताबघर प्रकाशन की एक महत्त्वाकांक्षी कथा-योजना है, जिसमें हिंदी कथा जगत् के सभी शीर्षस्थ कथाकारों को प्रस्तुत किया जा रहा है।
इस सीरीज़ में सम्मिलित कहानीकारों से यह अपेक्षा की गई है कि वे अपने संपूर्ण कथा-दौर से उन दस कहानियों का चयन करें, जो पाठकों, समीक्षकों, तथा संपादकों के लिए मील का पत्थर रही हों तथा ये ऐसी कहानियाँ भी हों, जिनकी वजह से उन्हें स्वयं को भी ‘कहानीकार’ होने का अहसास बना रहा हो।

भूमिका-स्वरूप कथाकार का एक वक्तव्य भी इस सीरीज़ के लिए आमंत्रित किया गया है, जिसमें प्रस्तुत कहानियों को प्रतिनिधित्व सौंपने की बात पर चर्चा करना अपेक्षित रहा है।

किताबघर प्रकाशन गौरवान्वित है कि इस सीरीज़ के लिए सभी कथाकारों का उसे सहज सहयोग मिला है। हिंदी के सुप्रसिद्ध कथाकार मृदुला गर्ग ने प्रस्तुत संकलन में अपनी जिन दस कहानियों को प्रस्तुत किया है, वे हैं: ‘ग्लेशियर से’, ‘टोपी’, ‘शहर के नाम’, ‘उधार की हवा’, ‘वह मैं ही थी’, ‘उर्फ़ सैम’, ‘मंज़ूर-नामंज़ूर’, ‘इक्कीसवीं सदी का पेड़’, ‘वो दूसरी’ तथा ‘जूते का जोड़, गोभी का तोड़’। हमें विश्वास है कि इस सीरीज़ के माध्यम से पाठक सुविख्यात कथाकार मृदुला गर्ग की प्रतिनिधि कहानियों को एक ही जिल्द में पाकर सुखद पाठकीय संतोष का अनुभव करेंगे।


भूमिका

 

तुक की क्या तुक है


मैं प्रतिनिधि लेखक नहीं हूँ। यानी लेखकों को जिस तरह अपने यहाँ विचारधारा या जाति-धर्म-लिंग वग़ैरह के तहत बाँटकर देखा जाता है, उसमें मैं किसी खाँचे में फ़िट नहीं होती। इसलिए मेरी प्रतिनिधि कहानियों का चयन, आलोचकों या समीक्षकों की राय के मुताबिक नहीं हो सकता। हाँ, पाठकों, की मुझ पर असीम कृपा रही है। मेरी भी उन पर काफ़ी आस्था है। सब पर नहीं। विश्वविद्यालयी पाठकों पर नहीं ही, जो ज़्यादातर पाठ्यक्रम में लगी कहानियाँ पढ़कर छुट्टी कर लेते हैं और बड़ी उम्र तक उन्हें ही हिंदी की सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ बतलाकर अघाए रहते हैं, या हद से हद समीक्षकों, पुरस्कार विक्रेताओं और आलोचकों की नामांकित कहानियाँ सरसरी तौर पर पढ़, ज़रूरत पड़ने पर उल्लेख कर देते हैं। मेरा विश्वास उन पाठकों पर है और हमेशा हमेशा रहा है, जो अपनी ख़ुशी के लिए पढ़ते हैं, इम्तिहान पास करने के लिए नहीं। इम्तिहान में पर्चा बनाने या कक्षा में पढ़ाने के लिए भी नहीं।

बदक़िस्मती से ऐसे पाठकों की संख्या हिंदी में कम है और दिनोदिन कम होती जा रही है। फिर भी इतनी ज़रूर है कि मुझ जैसे सिरफिरे लेखकों को पढ़ें, सराहें और बदस्तूर लिखते चले जाने की हिम्मत दें। गिनती के इन पाठकों में से मेरे हिस्से काफ़ी जन आए हैं; तभी 1970 से 2004 तक मैं बराबर लिखती रह पाई हूँ। पिछले दो सालों में सिलसिला कुछ थमा है तो उसकी वजह पाठकों की कमी नहीं है। अपनी निजी मुश्किलात हैं, जिनके चलते, वानप्रस्थी उम्र में, जीवनयापन के लिए पैसा कमाने की ज़रूरत पड़ गई। आप जानें, कहानी लिखकर पैसा नहीं कमाया जा सकता। अपने प्रकाशकों व पत्रिका-मालिकों का ख़याल है कि लेखक, मुफ़्त का हवा-पानी खाकर जी सकता है, दाल रोटी का जुगाड़ ज़रूरी नहीं। अब हुज़ूर, जब इसी मुफ़्त की हवा ने दूषित होकर अपने फेफड़ों पर धावा बोल दिया तो दाल रोटी छोड़ हमें दवा दारू का इंतज़ाम पड़ा और कहानी किस्सा बिसार, पेशेवर लेखन में लगना पड़ा। परवाह नहीं पाठकों की पसंदीदा कहानियाँ ढूँढ़ निकालने के लिए पिछले पैंतीस बरसों में लिखी अस्सी कहानियां काफ़ी हैं। वह करने चली तो एक सवाल और पैदा हो गया। आख़िर यह प्रतिनिधि है किस बला का नाम ? लोकतंत्र में अपने लोग प्रतिनिधि चुनकर संसद में भेजते हैं, सो मालूम है। फिर उसकी राय, जनता की राय, उसका बोल, जनता का बोल। हो चाहे नहीं, माना यही जाता है। इस शब्द का चलताऊ मानी तो यही है जनाब। उसी को कहानी पर लागू करें तो मेरी प्रतिनिधि कहानी वह मानी जाएगी, जो मेरे और मेरे समय के सोचे-गुने का और अहसास का प्रतिनिधित्व करे। मेरे समय की भागीदारी के बिना मेरी कृति का मूल्य नगण्य है। इसलिए मेरे भोगे-भुगते अहसास और नज़रिए में मेरा वक़्त के अहसास, नज़रिए और भोगे-भुगते को जोड़ना निहायत ज़रूरी है। यह भी नोट कर रखें कि हमने भुगता ज़्यादा है, भोगा कम।

इस भोगे-भुगते से उपजे अहसास ने सोच के जो दो एक धत्तीपन मुझे बख्शे हैं, उनसे पगी कहानियों को ही मैं, अपनी प्रतिनिधि कहानियाँ मानती हूँ। मानती क्या हूँ, ईमानदारी का तकाज़ा है कि कहूँ, मान सकती हूँ, माने बग़ैर गुज़र नहीं है।
क्या हैं ये धत्तीपन ? चंद सवाल, जो बारंबार करती रहती हूँ, कुछ इस तरह। पहला, तुक की क्या तुक है ? दूसरा, मुल्क को आधी-पौनी आज़ादी मिली तो क्या फ़ायदा हुआ ? आज़ादी हो तो पूरी हो, दिल की, दिमाग़ की। सिर्फ़ विदेशी हुकूमत से नहीं, बासी रूढ़ियों और दिखावे से, नकल और लीक पीटने से। तुक वह जो इंसान ख़ुद ढूँढ़े, वह नहीं जो समाज या चंद ताक़तवर बंदे उसे पकड़ाएँ; नेता धर्मगुरु या संस्कृति के मठाधीश। दूसरे शब्दों में पत्र-पत्रिकाएँ निकालने वाले उद्योगपति, संपादक या आलोचक।

इस बिना पर दस कहानियाँ चुनने बैठी तो पाया, पाँच के प्रमुख प्रवक्ता मर्द हैं और पाँच की औरतें। हो गई ऐसी-तैसी आलोचकों के ज़बरन खींच-खाँच कर मुझे नारी मन की कहानी कहने वालों की क़तार में बिठलाने की। खाँचा अपन पहले तोड़े बैठे थे, अब क़तार से भी निकल भागे।
एक बात और। इनमें से कुछेक कहानियाँ शुरुआती दौर की हैं तो कुछ एकदम आख़िरी दौर की। ज़िंदगी की नहीं हुज़ूर, लेखन के पूरे वक़्फ़े की भी नहीं, कौन कह सकता है, अभी कितनी देर और लिखना, पड़े; मतलब अब तक के लेखन से है। उसके आख़िरी दौर की दो कहानियाँ इनमें शामिल हैं। ‘वो दूसरी’, औरत के नाम और ‘जूते का जोड़, गोभी का तोड़’, मर्द के नाम। शुरुआती दौर की कहानियाँ हैं, ग्लेशियर से’ औरत के नाम और ‘टोपी’ मर्द के नाम।

यहाँ एक बात कहना ज़रूरी है। असल में ‘तुक में क्या तुक है’ जुमला पहले पहले जिस कहानी में आया, उसका नाम है ‘हरी बिंदी’। मेरी लिखी तीसरी चौथी कहानी थी वह, सारिका पत्रिका में छपी थी। कायदे से इस संग्रह के लिए उसे चुनना चाहिए था। पर हमने कब कौन सा काम क़ायदे से किया है जो यह कहते। यूँ शामिल न करने में तुक है। एक नहीं, दो। पहली, कहानी इतनी छोटी है कि दूसरी कहानियों के बीच बेमेल लगती। दूसरी, ग्लेशियर से’ कहानी, जो वाजिब लंबाई की है, उसी जुमले को चरितार्थ करती मिल गई, तो उसे लेना बेहतर लगा।
दसों कहानियों की कालावधि का ग्राफ़ कुछ यूँ बनता है। तारीख़ों की कुछ भूल लेनी-देनी।

ग्लेशियर से (1978)
टोपी (1980)
शहर के नाम (1985)
उधार की हवा (1986)
वह मैं ही थी (1988)
उर्फ़ सैम (1988)
मंज़ूर-नामंज़ूर (1999)
इक्कीसवीं सदी का पेड़ (2000)
वो दूसरी (2003)
जूते का जोड़, गोभी का तोड़ (2004)

‘ग्लेशियर से’ कहानी मैंने एक शाम, श्री नगर (कश्मीर) के डल लेक की हाउस बोट की छत पर बैठ, एक बैठक में लिख डाली थी। वह भी परिवार के साथ छुट्टी मनाने गए रहने पर। मेरे परिवार में कभी कोई यह मानने को तैयार नहीं रहा कि कहानी लिखने के लिए, खाना बनाने या झाड़-पोंछ करने से ज़्यादा अकेलेपन या ख़ामोशी की ज़रूरत होती है, लिहाज़ा आप समझ सकते हैं कि पति और दो बच्चों की मौजूदगी को नज़रंदाज़ करके छुट्टी की एक पूरी शाम अलग-अलग बिता पाना कितना मुश्किल था। फिर भी मैं ज़िद करके बैठी लिखती रही। यूँ उससे पहले भी मैंने एक बैठक में कहानियाँ लिखी थीं। पर यह कहानी उनकी निस्बत काफ़ी लंबी है, सो उसे एकबारगी अंजाम देने के पीछे ख़ास मनःस्थिति थी। हम तभी सोनमर्ग से लौटे थे और मुझे पूरा यक़ीन था कि एक बार मैदान में उतर आए तो ‘तुक’ मुझ पर हावी हो जाएगी।

मैं सोनमर्ग ग्लेशियर की असल और तिलिस्म की मिली-जुली वह तस्वीर न खींच पाऊँगी, जिसके लिए बेतुक होने की सख़्त ज़रूरत थी। रफ़्ता-रफ़्ता मुझे शोर के बीच ख़ामोशी की जज़ीरा इजाद करने का रबत पड़ गया और अफ़रा-तफ़री में पड़े बग़ैर मैं तुक में क्या तुक है की मनःस्थिति को लंबे समय तक दिमाग के किसी कोने में सुलाए रखने में माहिर हो गई। वाजिब वक़्त मिलने पर या कहना चाहिए, वाजिब वक़्त इजाद कर लेने पर, मैं उसे वापस जगा लेती। उसके बाद आदत पड़ गई। लंबी से लंबी कहानी, मैंने एक बैठक में लिखी, चाहे उसके बाद हाथ की उँगलियाँ दिनोदिन जड़ क्यों न हुई रहीं।
‘टोपी’ कहानी मेरे दूसरे धत्तीपन से उपजी थी। पारिवारिक शोरगुल के बीच, दिल्ली शहर के अपने गुंजान घर में बैठकर लिखी थी। अब आप से क्या छिपाना। दरअसल यह कहानी मेरे उपन्यास अनित्य का अंश है पर लिखने के दौरान, धर्मयुग में बतौर कहानी क्या छपी, पाठकों को ही नहीं, नकचढ़े आलोचकों को भी पसंद आ गई। कुछेक श्रेष्ठ कहानियों के संकलनों में शामिल कर ली गई। जापानी में भी अनूदित हो गई। अब साहब, इतनी फ़राख़दिली से कोई लड़े तो कैसे ? तो मैंने भी उसे कहानी स्वीकार कर लिया। आप जानिए अनित्य ठहरा लंबा-चौड़ा उपन्यास कितने जन पढ़ेंगे ? लालच पैदा हो गया कि इस बहाने ज्यादा पाठक, मुल्क की आज़ादी के लिए, मेरे मोह और मोहभंग को पढ़ डालेंगे।

‘शहर के नाम’ वह कहानी है, जिसे पढ़कर आज भी मुझे रोना आने लगता है। आपको न आए तो कोई बात नहीं। मुझे दो कारणों से आता है। एक तो 1975 में लगी इमरजेंसी की याद ताज़ा हो जाती है, जिससे मेरे पिता बेहद दुखी थे और जिसके ख़ात्मे को देखे बिना चल बसे थे। दूसरे, उस लड़की की याद हो आती है, जिसकी मनोदशा कहानी और उसकी नायिका का आधार बनी थी। उसे मैंने ख़ूब नज़दीक से जाना था। ज़िंदगी और कहानी में फ़र्क था तो बस यह कि ज़िदगी में उसने ख़ुदकुशी कर ली थी। कहानी में मैंने उसे एक गुमनाम पर मानीख़ेज़ ज़िंदगी बख़्श दी थी। रोना तो आएगा न ?
‘वह मैं ही थी’ में उसके ठीक उलट हुआ था। कहानी में ज़च्चा मर गई थी, ज़िंदगी में मैं ज़िंदा बची रह गई थी। मुझे याद है, कहानी पढ़कर जया जादवानी ने मुझे लिखा था, यह किसकी कहानी लिख दी, ऐसा तो आजकल कहीं होता नहीं। मैंने उन्हें लिखा, यह मेरी ही कहानी है, बस लिखने में बीस बरस लग गए। शायद उन्हें यक़ीन न हुआ हो। पर सच यही है। शादी के बाद मुझे शहर दिल्ली छोड़, सीमेंट कारखाने से सुशोभित, बिहार के औद्योगिक कस्बे डालमियानगर रहने जाना पड़ा था। यह वहीं का यथार्थ था। वही आधी-पौनी मिली आज़ादी और उसमें बच्चा जनती औरत का सच।
नामवर सिंह जी ने एक बार आरोप लगाया था कि स्त्रियाँ, प्रसव के अपने एकांतिक अनुभव पर नहीं लिखतीं। यह कहानी कुछ हद तक उस आरोप को ख़ारिज कर सके तो मुझे ख़ुशी होगी। शायद पाठकों को भी।

‘उधार की हवा’ उन कम कहानियों में से है, जिसके क़िरदार की ज़िंदगी में मुझे नाटकीय या क़िस्सागो तत्त्व जोड़ने की ज़रूरत महसूस नहीं हुई। वह किरदार मेरे ही परिवार का रोज़ का जाना-पहचाना बुजुर्ग है। मेरे अपने ससुर। ठीक जैसे वे थे, वैसा ही मैंने उकेरा, न कम न ज्यादा।

‘उर्फ़ सैम’ कहानी का प्रवक्ता, सावन प्रताप सिंह उर्फ़ सैम मेरा ही नहीं, आप सबका जाना-पहचाना है। आज़ादी मिलने के बाद, जो दिमाग़ी ग़ुलामी हम पर हावी हुई, ब्रितानिया के बजाय अमेरिका की, उसने हमारे ठठ के ठठ युवकों को देश छोड़ अमेरिका जा बसने पर मजबूर किया। पूरा कसूर उन बेचारों का नहीं था। ग़लत आर्थिक नीतियों के चलते, देश के हालात ऐसे थे कि एक तरफ़ खेती बाड़ी का भट्ठा बैठ गया था तो दूसरी तरफ़ अनपढ़ों को ही नहीं, पढ़े लिखों को भी रोज़गार मिलना मुश्किल था। ऐसे में अमेरिका में छोटे-मोटे काम में बरसते डॉलर, रेगिस्तान में नख़लिस्तान की मानिंद अपनी तरफ़ खींचते थे। कीमत ज़रूर चुकानी पड़ी थी, इज़्ज़त अस्मत खोने की। तो क्या ? बर्नार्ड शा ने क्या ख़ूब कहा था, पैसा बनाने के लिए ज़रूरी है कि आप सिर्फ़ पैसा बनाएँ। यह ऐसे ही नौजवान की कहानी है, जो अपनी ज़मीन के लिए हेरवा तो करता है पर पैसा बनाने का गुर इतनी शिद्दत से सीखता है कि पुश्तैनी मकान अपने नाम लिखवा लेने के लिए, देश की मिट्टी से प्रेम का लबादा ओढ़, बूढ़े-माँ बाप को चकमा दे जाता है। बड़े भाई को कुछ डॉलर थमा, ज़मीन के दामों में होने वाली बढ़त से उसका पत्ता कटवा देता है और अपनी फ़राख़दिली का लोहा भी मनवा लेता है। जब कहानी छपी, पाठकों को इस मानसिकता का इतना रबत न था, इसलिए बूढ़े बाप की तरह, वे भी उसकी बातों में आ गए थे। एक लेखक ने मुझे लिखा था कि देश में मकान होने से, कोई अपनी जड़ों से नहीं जुड़ जाता। बेशक़ हुज़ूर। यही तो कहानी भी कह रही है। जड़ों की याद आती ज़रूर है पर उनसे जुड़ाव पर माया (डॉलर) का परदा पड़ चुका होता है। अब शायद ही कोई पाठक होगा, जो इस किरदार की खुलती रग-रग को न पहचाने। मध्य वर्ग के इतने सपूत बाहर जो जा बसे। दिल्ली में हिंदी का शायद ही कोई लेखक हो, जिसके बेटे-बेटियाँ अमेरिका में न बसे हों। इसीलिए मुझे इस कहानी को संकलन में रखना ज़रूरी लगा।

‘उर्फ़ सैम’ और उसके बाद की कहानी, ‘मंज़ूर-नामंज़ूर’ के बीच ग्यारह बरस का वक़्फ़ा है। बाकी की तीनों कहानियाँ भी 1999 के बाद की लिखी हुई हैं। ऐसा नहीं है कि इस बीच कहानियाँ लिखी ही नहीं। लिखीं ज़रूर पर निस्बत कम। 1996 में ‘कठगुलाब’ उपन्यास के छपने के बाद ही दुबारा कहानियाँ लिखने की तरफ़ रुख़ किया। ज़िंदगी की चोटों ने रफ़्तार धीमी ज़रूर कर दी पर दिमाग़ी फ़ितूर बना रहा। 1998 में बड़ी बहन मंजुल भगत का अचानक निधन हुआ तो मैं एक बार फिर ‘तुक की क्या तुक है’ पूछ बैठी। मंजुल जब गुज़रीं, ‘हंस’ में मैंने लिखा था, ‘‘एक महाआख्यान लघु कथा-सा निबट गया।’’ ‘‘मंज़ूर-नामंज़ूर’ कहानी में मंजुल की शख़्सियत का एक रंग है, पूरा क़द-बुत नहीं। उस रंग के बुझने के बेतुकेपन को और बेरंग बनाने की ख़ातिर मुझे उसकी मौत को कुछ और असंगत बनाना पड़ा काव्य के न्याय और ज़िंदगी के अन्याय का यही तक़ाज़ा था।

‘वो दूसरी कहानी मुझे समकालीन औरतों की संगत से निकाल, पूर्वज औरतों के दरवाजे पर ले गई। अजब विलक्षण औरतों ने मेरी विरासत गढ़ी थी। उन्हीं की मारफ़त मैंने रिवायतों-रिवाजों से अलग, लीक से हट, अपने लिए ख़ुद तुक-तर्क इजाद करने का जज़्बा हासिल किया। उन्हें मेरा सलाम। आप भी उन्हें पसंद करेंगे, इस यकीन के साथ उनकी कहानी आपको सौंप रही हूँ।
अब बचीं दो आख़िरी कहानियाँ-‘इक्कीसवीं सदी का पेड़’ और ‘जूते का जोड़, गोभी का तोड़’।

संयोग कुछ ऐसा बना कि ‘इक्कीसवीं सदी का पेड़’ कहानी जनवरी, 2000 में यानी इक्कीसवीं सदी की शुरुआत में लिखी गई और जनवरी-मार्च, 2000 में ही पहले-पहले ‘अक्षरा’ पत्रिका में छपी। यह जीवन में औचक घट जाने वाले उन संयोगों में से था, जिन्हें कुछ लोग क़िस्मत का नाम देते हैं। वाक़या यूँ घटा। हमारे घर के सामने, एक लहीम-शहीम, दो सौ बरस पुराना अर्जुन का पेड़ था। एक शाम आँधी चली। बहुत तेज़ नहीं, यूँ ही मझोली गति की। उतने में ही वह देवदूत-सा दिखने वाला पेड़, जड़ से उखड़ धराशायी हो रहा। गिरा तो, मेरे ही नहीं, अग़ल-बग़ल के तीन-चार घरों के सामने भीमकाय लाश-सा पड़ा रहा। वह मंज़र न जाने कितनी त्रासद यादों से दिल छलनी कर गया। उसी दिन, सकते की हालत में मैने यह कहानी लिखी। मेरे जेहन में उस वक़्त, उसका ताल्लुक, पर्यावरण रक्षा से नहीं, अतिप्रिय परिजन से बिछुड़ने से था। कहानी पंजाबी अकादमी में पढ़ी तो इसी नज़र से उसे परखा भी गया। अच्छा लगा। अचरज तब हुआ जब कुछ विद्वानों ने उसमें पर्यावरण संबंधी विचार भर देखा। पर जल्दी ही समझ में आ गया कि वे लोग, जो पर्यावरण को बतौर नारा या फ़ैशन लेते हैं, उसमें मात्र वही देखेंगे। इस संवेदनहीनता का कुछ पूर्वाभास मुझे रहा होगा तभी कहानी का अंत ऐसे लोगों पर कटाक्ष के साथ हुआ है। वे लोग संवेदनशील नहीं हो सकते, जो किसी त्रासदी से ग़ुजर चुके हों। आख़िर ऐसे कितने जन होंगे, जिनकी ज़िंदगी त्रासदी से सर्वथा अछूती होगी। शायद एक-दो भी नहीं। इसलिए आपके हवाले यह कहानी, दोस्तों !

आखिरी कहानी ‘जूते का जोड़, गोभी का तोड़’ अब तक की लिखी कहानियों में भी अंतिम कहानी है। 2004 में हमें अपना बीस साल पुराना घर छोड, दूसरे घर में आना पड़ा। सामान, यादों और किताबों से अँटे घर को खाली करना आसान काम नहीं था। और कहानी थी कि ठीक उसी वक्त सूझ गई जब सामान ट्रक में लद रहा था। मनोविश्लेषक कहेंगे, त्रासद यादों से अपना बचाव करने की जुगत भिड़ाई थी दिमाग़ ने। धुर पुरानी यादों में आश्रय लेकर। रिटायरमेंट के बाद मेरे दादा, ख़ासे अभाव में रहते हुए, मेरठ शहर में घर के अहाते में सब्जी उगाने और होम्योपैथिक दवा देने का काम करते थे। उनकी उगाई सब्जियों को नौचंदी के मेले में इनाम भी मिले थे। एकदिन ख़ूब हँसते-हँसते, उन्होंने हम पोतियों को बतलाया, इस बार पुराना जूता गठवाने पड़ोस के मोची के पास पहुँचा तो वह बोला, लाला, अब तो रिटायर कर दो इस जूते को, कब तक गठवाओगे ! मैंने कहा, जब तक मरूँगा नहीं, तब तक।’’ इस कहानी के लिखे जाने के पीछे इतनी याद भर थी। बाक़ी को कल्पना कह लीजिए या उस घटना का सहज विस्तार, एक ही बात है।
ज़िंदगी में तुक की तुक को हम भले न मानें, कहानी कहते हैं तो मानकर चलते हैं कि उसकी आंतरिक लय में तुक रहेगी।


ई-421 (भूतल)
ग्रेटर कैलाश 2, नई दिल्ली-110048

 

-मृदुला गर्ग

 

ग्लेशियर से

 



मिसेज़ दत्ता अकेली ताजीवास ग्लेशियर की तरफ़ जा रही हैं। ताजीवास ग्लेशियर है। सब गाइड किताबों में लिखा है, है। इतने सारे लोग उसे देखने सोनमर्ग आए हैं। इसलिए...ज़रूरी है..कि है..पर दिखलाई नहीं दे रहा....
दिखलाई जो दे रहा है, बिलकुल साफ़ दिख रहा है, वह है, आसमान को छू रहे हरे पहाड़ों की चोटियों पर पुता सफ़ेद रंग। बस में आते हुए रास्ते में ही दीख गया था।

‘‘बर्फ़ वह देखो, बर्फ़’’, मिस्टर दत्ता ने अपनी सीट से कहा था।
‘‘बर्फ़’’, सीट नंबर चौदह ने खँखारकर कहा था। ‘‘बर्फ़’’, सीट नंबर तेईस ने किलककर कहा था। ‘‘बर्फ़’’, सीट नंबर दो और तीन ने इकट्ठा कहा था। मिसेज़ दत्ता ने देखा था, पहाड़ों की चोटियों पर सफ़ेदी जमी है। हाँ, वह बर्फ़ है...होनी तो चाहिए।
पहाड़ों पर बर्फ़ होती है।
बर्फ़ सफ़ेद होती है।
बर्फ़ ठंडी होती है बेहद ठंडी...बर्फ़ की तरह।
वे जानती हैं।
नहीं, जानती नहीं। उन्होंने पढ़ा है, ऐसा होता है; सुना है, ऐसा है। देखा नहीं तो जाना क्या ?


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