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दत्ता

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : किताबघर प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :236
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5575
आईएसबीएन :978-81-89859-25

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प्रस्तुत पुस्तक में दत्ता और चन्द्रनाथ दो उपन्यास संकलित है

Datta

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय

(15 सितम्बर 1876-16 जनवरी 1938)
बाँग्ला के अमर कथाशिल्पी शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय प्रायः सभी भारतीय भाषाओं में पढ़े जाने वाले शीर्षस्थ उपन्यासकार हैं। उनके कथा-साहित्य की प्रस्तुति जिस रूप-स्वरूप में भी हुई, लोकप्रियता के तत्त्व ने उनके पाठकीय आस्वाद में वृद्धि ही की है। सम्भवतः वह अकेले ऐसे भारतीय कथाकार भी हैं, जिनकी अधिकांश कालजयी कृतियों पर फिल्में बनीं तथा अनेक धारावाहिक सीरियल भी। ‘देवदास’, ‘चरित्रहीन’ और ‘श्रीकान्त’ के साथ तो यह बारम्बार घटित हुआ है।

अपने विपुल लेखन के माध्यम से शरत् बाबू ने मनुष्य को उसकी मर्यादा सौंपी और समाज की उन तथाकथित ‘परम्पराओं’ को ध्वस्त किया, जिनके अन्तर्गत नारी की आँखें अनिच्छित आँसुओं से हमेशा छलछलाई रहती हैं। समाज द्वारा अनसुनी रह गई वंचितों की विलख-चीख और आर्तनाद को उन्होंने परखा और गहरे पैठकर यह जाना कि जाति, वंश और धर्म आदि के नाम पर एक बड़े वर्ग को मनुष्य की श्रेणी से ही अपदस्थ किया जा रहा है। इस षड्यन्त्र के अन्तर्गत पनप रही तथाकथित सामाजिक ‘आम सहमति’ पर उन्होंने अपने लेखन के माध्यम से रचनात्मक हस्तक्षेप किया, जिसके चलते वह लाखों करोड़ों पाठकों के चहेते शब्दकार बने। नारी और अन्य शोषित समाजों के धूसर जीवन का उन्होंने चित्रण ही नहीं किया, बल्कि उनके आम जीवन में आच्छादित इन्दधनुषी रंगों की छटा भी बिखेरी। प्रेम को आध्यात्मिकता तक ले जाने में शरत् का विरल योगदान है। शरत्-साहित्य आम आदमी के जीवन को जीवंत करने में सहायक जड़ी-बूटी सिद्ध हुआ है।

हिन्दी के एक विनम्र प्रकाशक होने के नाते हमारा यह उत्तरदायित्व बनता ही था कि शरत् साहित्य को उसके मूलतम ‘पाठ’ के अन्तर्गत अलंकृत करके पाठकों को सौंप सकें, अतः अब यह प्रस्तुति आपके हाथों में है। हमारा प्रयास रहेगा कि किताबघर प्रकाशन द्वारा प्रकाशित और प्रकाश्य शरत्-साहित्य को सर्वांग तथा सर्वश्रेष्ठ होने का प्रमाणपत्र आप जैसे सुधी पाठकों द्वारा ही जारी किया जाए।

दत्ता


यह उस समय की बात है, जब हुगली के एक स्कूल के मुख्याध्यापक महोदय तीन विभिन्न दिशाओं से आने वाले तीन छात्रों को विद्यालय-रत्न मानते थे। तीनों एक-दूसरे से अनन्य प्रेम करते थे और प्रतिदिन घर तथा स्कूल के बीच खड़े बरगद के एक वृक्ष के नीचे बैठकर बातें किया करते थे। यह भी एक संयोग था कि इन तीनों के घर हुगली के पश्चिम में पड़ते थे। इन तीनों में से एक का नाम जगदीश था, जो दीघड़ा गाँव का निवासी था और सरस्वती नदी के पुल को पार कर पढ़ने आता था, दूसरा वनमाली कृष्णपुर गांव से आता था, तो तीसरा रासबिहारी राधापुर गांव से आता था।

इन तीनों सहपाठियों में जगदीश जहां सर्वाधिक मेधावी छात्र था, वहां सर्वाधिक निर्धन भी था। उसके पिता पुरोहिताई—विवाह, जनेऊ आदि संस्कारों से प्राप्त आय—से घर—गृहस्थी चलाते थे। वनमाली के पिता कृष्णपुर गांव के जमींदार थे और रासबिहारी मध्यम स्तर के खाते-पीते परिवार से था। उसके पिता के पास घर के निर्वाह के लिए ज़मीन-जायदद, खेती-बाड़ी तथा ताल-तलैया आदि काफ़ीकुछ था। ये तीनों लड़के सर्दी, गरमी, बरसात में प्रतिदिन लम्बा रास्ता तय करके घर से निकल आते थे। लड़कों के माता-पिता को कभी यह ध्यान भी नहीं आया था कि सर्दी, गरमी और वर्षा का दुःख भी कोई दुःख होता है, इसलिए उन्होंने लड़कों के लिए शहर में किसी उपयुक्त आवास की व्यवस्था करने के सम्बन्ध में कभी सोचा ही नहीं था।

उलटे उन दिनों माता-पिता यह समझते थे कि बिना कष्ट उठाए विद्या प्राप्त हो ही नहीं सकती। दुःख-कष्ट सहना तो एक प्रकार से सरस्वती की साधना थी। इस प्रकार की साधना करते हुए तीनों मित्रों ने मैट्रिक परीक्षा पास कर ली। तीनों वटवृक्ष के नीचे बैठकर एक-दूसरे से अलग न होने की अपनी प्रतिज्ञा को दोहराने के साथ ही विवाह न करने की, वकील बनने, एक-साथ एक ही कमरे में रहने और वकालत से प्राप्त धन को जोड़ने और फिर उसे देशहित में खर्च करने के अपने संकल्प को भी दोहराते रहते थे, लेकिन बचपन की उनकी यह कल्पना यथार्थ का रूप धारण न कर सकी। तीनों के अलग राहों के रही बनने की कहानी इस प्रकार है।

बी.ए. तक पहुँचते-पहुँचते तीनों के मैत्री सम्बन्ध पूर्ववत् सुदृढ़ न बने रहे। उन दिनों कलकत्ता में केशवचन्द्र सेन की तूती बोलती थी। गांव के ये तीनों लड़के भी सेन महाशय के व्याख्यानों से प्रभावित हुए बिना न रह सके। वनमाली और रासबिहारी तो खुल्लम-खुल्ला दीक्षा लेकर ब्राह्मसमाजी बन गये, किन्तु मेधावी होने पर भी दुर्बल मन का होने के कारण जगदीश असमंजस में पड़ा रहा, कोई पक्का इरादा न बना सका। वनमाली और रासबिहारी के सिर से पिता का साया उठ चुका था, इसलिए वे कोई निर्णय लेने में पूर्ण स्वतन्त्र थे। इसके विपरीत जगदीश के पिता अभी जीवित थे, अतः जगदीश के लिए स्वतन्त्र निर्णय लेना सम्भव नहीं था।

अपने पिता के स्थान पर वनमाली कृष्णपुर का जमींदार बन गया था और रासबिहारी अपने पिता की सारी सम्पत्ति का अधिकार मिल जाने पर उसकी वृद्धि की चिन्ता करने लगा था। इन दोनों ने ब्राह्मसमाज को अपनाकर विदुषी लड़कियों से विवाह कर लिया, किन्तु दरिद्र जगदीश ऐसा कुछ न कर सका। उसने आजीविका के लिए कानून पास किया, इलाहाबाद में प्रैक्टिस की और एक ब्राह्मण की ग्यारहवर्षीया कन्या से विवाह किया।
वनमाली और रासबिहारी के लिए ससुराल में घूंघट न करने वाली और जूते-मोजे पहनकर घर-बाहर घूमने वाली पत्नियों को गांव में रखना भारी हो गया। कलकक्ता की बात और थी, किन्तु गांव में इन दोनों परिवारों की आलोचना होने लगी। वनमाली ने गाँव छोड़ दिया और कलकत्ता को ही अपना स्थायी निवास बना लिया। वैसे तो वनमाली की ज़मींदारी काफ़ी बड़ी थी, किन्तु उसने कलकत्ते में भी अपना कारोबार फैला दिया था। लेकिन अपनी सीमित आय के कारण रासबिहारी के लिए गांव छोड़कर कहीं जाना सम्भव न हुआ। अतः उसने यह सोचकर कि दो-चार दिनों के बाद लोग अपने-आप शान्त हो जायेंगे; लोगों की आलोचना पर ध्यान देना छोड़ दिया। यहां तक कि गांव वालों द्वारा किये गये अपने बहिष्कार को भी आवेश मानकर उसकी चिन्ता नहीं की।

इस प्रकार एक-साथ जीवन बिताने का संकल्प लेने वाले तीन सहपाठियों में से एक इलाहाबाद पहुंच गया, एक ने कलकत्ता में अपना घर बसाया, तो तीसरा राधापुर में ही बस गया। इस प्रकार उनका वकालत से पैसा कमाना और देशहित में उसका उपयोग करना, बचपन का खेल बनकर रह गया। इन तीनों की प्रतिज्ञाओं का साक्षी वटवृक्ष भी परिस्थितियों के सन्दर्भ में किसी को भला क्या दोष देता ? वह भी मन-ही-मन हंसता रह गया।
तीनों मित्रों में भेंट न होने पर भी बचपन का प्रेम अक्षुण्ण बना रहा। जगदीश ने वनमाली को अपने घर पुत्रोत्पत्ति का समाचार देते हुए उसे यह भी आश्वासन दिया कि उसके यहां कन्यारत्न का जन्म हुआ, तो वह उसे अपनी बहू बनाकर मित्रता को स्थायित्व प्रदान करने में गौरव का अनुभव करेगा। उसने यह भी लिखा कि तुम्हारी सहायता के बिना मेरा वकील बनना कदापि सम्भव नहीं था, इसके लिए मैं तुम्हारा चिर-कृतज्ञ रहूँगा।
वनमाली ने लड़के को दीर्घायुष्य का आशीर्वाद देते हुए उत्तर में लिखा कि यदि भगवान् ने मुझे लड़की दी, जिसकी मुझे कोई आशा नहीं, तो मैं उसे तुम्हारी पुत्रवधू बनाने की सहमति देता हूं। इस पत्र को लिखने पर वनमाली को हंसी भी आ गयी; क्योंकि दो वर्ष पूर्व रासबिहारी ने भी अपने पुत्र की उत्पत्ति का समाचार देते हुए ऐसा अनुरोध किया था और ऐसा ही आश्वासन वनमाली ने रासबिहारी को दिया था। संयोग की बात यह कि वनमाली आर्थिक दृष्टि इतना सम्पन्न हो गया था कि उसकी लड़की सबके लिए अभिलषणीय बन गयी थी।

:2:


अब पच्चीस वर्षों के बाद की घटनाएं लिख रहा हूं। वृद्ध वनमाली ने रोगाक्रान्त होकर चारपाई पकड़ ली है और उसे अपना अन्त निकट दिखाई देने लगा है। वह अपने जीवन में धर्मात्मा, ईश्वरभक्त एवं आचारनिष्ठ व्यक्ति रहे हैं। उन्हें न अपने मरने की कोई चिन्ता है और न उसका भय, किन्तु अपनी इकलौती बेटी का विवाह न कर पाने की चिन्ता से वह अवश्य परेशान हैं। एक दोपहरी को अपनी बेटी विजया का हाथ अपने हाथ में लेकर वह बोले, ‘‘मैं पुत्र के अभाव से बिल्कुल दुखी नहीं हूं। मैं तुम्हें अपने बेटे से बढ़कर समझता हूं। में जानता हूं कि न तुम्हारी मां है, न भाई, न बहिन, न कोई सगा-सम्बन्धी और न कोई बड़ा-बूढ़ा, फिर भी, तेरे हाथ में मेरा सबकुछ सुरक्षित रहेगा—इसका मुझे पक्का भरोसा है। एक बात मैं तुझे बताना चाहता हूं कि आज जगदीश का आचरण भले ही निर्दोष न हो, किन्तु वह मेरा बचपन का मित्र है। उस पर मेरा काफ़ी ऋण निकलता है। उसका एक लड़का है, जिसे मैंने देखा तो नहीं, किन्तु उसके चरित्रवान् होने के बारे में काफ़ी सुना है। अपने ऋण की वसूली करते हुए जगदीश के गिरवी पड़े घर को अपने अधिकार में लेकर लड़के को आश्रयहीन न कर देना। बाप के किये का दण्ड बेटे को न देना। यह मेरा तुमसे अन्तिम अनुरोध है।’’
आंसू निकलने के कारण रुंधे कण्ठ से विजया बोली, ‘‘पिताजी, आपके वचन की रक्षा होगी, आप निश्चिन्त रहें। आपके मित्र जगदीश के जीवनकाल में उनका मकान उनके अधिकार में ही रहेगा। लेकिन उनके इस लोक में न होने पर ऋण को छोड़ा नहीं जायेगा। उनके लड़के के योग्य होने की बात आप कर रहे थे। यदि वह सचमुच योग्य है, तो उसे अपने पिता के ऋण को चुकाने में समर्थ होना चाहिए।’’
लड़की के चेहरे पर देखते हुए वनमाली ने कहा, ‘‘बेटी, यदि इतने अधिक ऋण को चुकाना लड़के के वश में न हुआ, तो ?’’
विजया बोली, ‘‘पिताजी, असमर्थ सन्तान को योग्य मानना तथा उसे छूट देना कदापि उचित नहीं।’’
वनमाली अपने कन्या के बुद्धिमती और विवेकशील होने के सम्बन्ध में पूर्ण आश्वस्त थे। अतः विवाद करना उचित न समझकर एक लम्बी सांस खीचकर रह गये। थोड़ी देर में बोले, ‘‘बिटिया, मैं किसी विशेष अनुरोध के बन्धन में तुम्हें बांधना नहीं चाहता, किन्तु हां, तुमसे यह अवश्य कहता हूं कि सदैव ईश्वर का भय मानना और जान-बूझकर कभी किसी के प्रति अन्याय मत करना।’’।
कुछ देर चुप रहकर और ठण्डी सांस छोड़कर वनमाली ने कहा, ‘‘बेटी, जब जगदीश का आचरण सर्वथा निर्दोष था और वह एक आदर्श पुरुष था, तो उसने तुम्हारे इस संसार में आने से पहले तुम्हें अपने लड़के के लिए मांग लिया था। मैंने भी हां कर दी थी।’’ कहकर वह उत्सुक होकर लड़की की ओर देखने लगे।

बचपन में ही मां से बिछुड़ी कन्या विजया को वनमाली ने ही मां और बाप का स्नेह दिया था। अतः वह पिता से किसी प्रकार का दुराव अथवा संकोच नहीं करती थी। वह बोली, ‘‘आपने केवल मुंह से ही हां भरी थी न, मन से तो संकल्प नहीं किया था ?’’
‘‘तुम ऐसा कैसे सोचती हो ?’’
‘‘क्या किसी को बिना देखे भी अपनी लड़की दी जाती है ?’’
‘‘बेटी, रासबिहारी ने मुझे बताया था कि लड़का अपनी मां की तरह दुर्बल है और डॉक्टर उसके दीर्घजीवन की आशा नहीं करते, तो मैंने उसे देखना नहीं चाहा। वह बी.ए. पढ़ते समय कलकत्ता में ही रहता था। फिर मैं स्वयं अस्वस्थ रहने लगा, जिससे लड़के को देखना मेरे ध्यान से उतर गया। इसे तुम मेरी भूल समझो अथवा कुछ, किन्तु यह नितान्त सत्य है कि मैंने जगदीश को मन से ही वचन दिया था।’’

थोड़ी देर के विराम के बाद वनमाली पुनः बोले, ‘‘आज लोग जगदीश को एक निकम्मा, जुआरी, नशेड़ी और धरती का भार मानते हैं, किन्तु एक समय वह सबसे अच्छा और श्रेष्ठ व्यक्ति था। बेटी, विद्या और बुद्धि के क्षेत्र में तो कुछ लोग उसके सामने भले टिक जायें, किन्तु उसके समान प्रेम के लिए प्राणों को न्योछावर करते मैंने किसी अन्य को नहीं देखा। यह प्रेम ही उसके विनाश का कारण बन गया। स्त्री की मृत्यु ने उसे कहीं का नहीं छोड़ा। बेटी, तेरी मां भी मरी थी, किन्तु मैं उसके वियोग में जगदीश के समान विक्षिप्त नहीं हो सका। उसके इस अनन्य प्रेम ने मुझे उसका भक्त बना दिया है। उसने मरते समय अपने बेटे को भगवान् पर अटल विश्वास रखने का बल दिया था। सुना है कि उसका यह आशीर्वाद व्यर्थ नहीं गया। लड़के ने इतनी छोटी आयु में अपनी मां के समान भगवान् से प्रेम करने का अभ्यास कर लिया है। फिर, जो उसने प्राप्त किया है, वह तो बड़े-बड़ों के लिए भी ईर्ष्या की वस्तु है।’’
विजया ने पूछा, ‘‘तो क्या आप इसे सर्वोत्तम उपलब्धि मानते हैं ?’’
मृत्यु की घड़ियां गिनते हुए वृद्ध की आखें गीली हो गयीं। कन्या को अपनी छाती से लगाकर और आकाश की ओर दोनों हाथ उठाकर वह बोले, ‘‘हां, बेटी यही चरम उपलब्धि है। संसार के भीतर और बाहर इससे अधिक बड़ा कुछ पाना है ही नहीं। तुम भले ही इतने उच्च लक्ष्य को प्राप्त न कर सको, किन्तु, यहां तक पहुंचने वाले की साधना का सही मूल्यांकन कर सको, यही तुम्हें मेरा अन्तिम आशीर्वाद है।’’

उस दिन पिता की छाती पर औंधी पड़ी विजया को ऐसा लगा, मानो पिता के हृदय की अत्यन्त मधुर अन्तर्दृष्टि उसके हृदय के भीतर गहरे प्रवेश कर रही है। उस दिन उस लड़की को पहली बार कुछ देर के लिए किसी अलौकिक एवं विस्मयकारी आनन्द की अनुभूति हुई।
अपनी बात जारी रखते हुए वनमाली बोला, ‘‘लड़के का नाम नरेन्द्र है, जो डॉक्टरी पास करके प्रैक्टिस नहीं करता। यदि कहीं वह अपने यहां होता, तो एक बार उससे मिलकर मुझे सचमुच काफ़ी सुख मिलता।’’
विजया ने पूछा, ‘‘इन दिनों वह कहां हैं ?’’
वनमाली ने उत्तर दिया, ‘‘आजकल वह अपने मामा के पास बर्मा में है। इस समय मेरे पास अपने बालसखा जगदीश द्वारा कहे अपने बेटे के सभी गुणों का परिचय देने का समय नहीं है, फिर भी, संक्षेप में इतना जान लो कि उसने अपनी मां के सभी उत्तम गुणों को अपना रखा है। भगवान् ऐसे आदर्श बेटे को सुखी रखे, यही मेरा उसे आशीर्वाद है।’’

शाम हो जाने के कारण नौकर ने आकर कमरे में दिया जला दिया और विलास बाबू के आने की सूचना दी। वनमाली ने विश्राम करने की इच्छा से विजया को नीचे चले जाने को कहा।
विजया ने पिता के बिस्तर को झाड़-पोंछकर ठीक किया। वनमाली के लेटने पर उसे ठीक से शाल ओढ़ाई, दिये को ओट में इस प्रकार रखा कि उसका प्रकाश सीधे वनमाली की आंखों में न जाये। यह सब करने के बाद वह ज्यों ही कमरे से बाहर निकली, त्यों ही वृद्ध पिता ने लम्बी और ठण्डी सांस छोड़ी। इसका कारण यह था कि वृद्ध ने विलास के आने की सूचना से अपनी बेटी के चेहरे पर प्रसन्नता की लहर को आते देख लिया था, जो उसके लिए एक दुःखद स्थिति थी।
वनमाली के एक अन्य बालसखा रासबिहारी का यह लड़का पहले कलकत्ता में पढ़ता था। वनमाली के ब्रह्मसमाज में दीक्षित होने पर गांव से उनका नाता टूट गया था। अतः उसकी सारी जमींदारी को संभालने का दायित्व रासबिहारी ने ले लिया था। इसी सिलसिले में रासबिहारी का इस घर में आना-जाना बढ़ गया था।

:3:


दो महीने पूर्व वनमाली के देहावसान के बाद से विजया इस विशाल भवन में एकदम अकेली है। गांव की उसकी सारी जमींदारी की देखभाल करने वाले रासबिहारी अपने को विजया का अभिभावक समझने लगे, किन्तु उनके गांव में रहने के कारण विजया की देखभाल करने वाला उनका बेटा विलासबिहारी ही विजया का असली अभिभावक बना हुआ है।
कलकत्ता में उन दिनों विदेशों से पढ़कर आने वाले तथा अपने समाज, माता-पिता और हिन्दू देवी-देवताओं के विरुद्ध विद्रोह करके ब्रह्मसमाज में दीक्षित होने वाले युवकों में आत्मविश्वास बनाये रखने के लिए सत्य, सुनीत और सुरुचि—जैसे शब्दों का खुलकर प्रयोग किया जाता था। ये नये मुल्ला ख़म ठोककर कहते थे, ‘‘हम जो सत्य समझेंगे वही करेंगे। मां का करुण रुदन और पिता की ठण्डी आहें हमें सत्य मार्ग से डिगा नहीं सकते। ये सब भावुकता की बातें हैं, जो मनुष्य की दृढ़ता को दुर्बलता में बदल देती हैं। इसके व्यूह में फंसने का अर्थ होगा, प्रकाश से हटकर, फिर से अन्धकार में भटकना।’’ यही सब कुछ विजया ने भी सीख लिया था।

आज गांव से लौटे विलास ने विजया को उसके पिता के बालसखा जगदीश की मृत्यु का समाचार सुनाया, तो लोक-व्यवहार की दृष्टि से विजया दुखी होती, किन्तु जगदीश के अत्यधिक मदिरा-व्यवसनी होने और इसी व्यसन के कारण छत से गिरकर मरने की जानकारी पाकर, वह ब्रह्मसमाज की सुनीति के सन्दर्भ में उससे घृणा करने लगी। विलासबिहारी ने विजया को यह भी बताया कि जगदीश मुखर्जी उसके पिता का भी बालसखा था, किन्तु उसके दुराचरण के कारण पिताजी उसका मुंह तक नहीं देखते थे। यहां तक कि दो बार रुपये उधार मांगने आये इस शराबी को पिताजी ने नौकरों से फाटक के बाहर निकलवा दिया था; क्योंकि मेरे पिताजी का सदा यही विश्वास रहा है कि दुराचारियों से सम्बन्ध रखना श्रेष्ठ धर्म का उल्लंघन करना है।

विजया ने विलास के दृष्टिकोण का समर्थन करते हुए कहा, ‘‘आपके पिताजी ने ठीक ही किया।’’
विलास उत्साहित होकर भाषण देने की मुद्रा में आ गया। वह बोला, ‘‘मित्रता का अर्थ ब्राह्मसमाज के सिद्धांतों की बलि देना कदापि नहीं। कानून की दृष्टि से, अब जगदीश की पूरी सम्पत्ति पर हमारा अधिकार है; क्योंकि उसके लड़के के द्वारा हमारे ऋण का भुगतान करना सम्भव नहीं है। मैं इतने बड़े ऋण को छोड़ देने के पक्ष में कदापि नहीं; क्योंकि मैं समझता हूं इस धनराशि से समाज के कितने ही अन्य उपयोगी कार्य निबटाये जा सकते हैं। किसी योग्य छात्र को विदेश में पढ़ने के लिए छात्रवृत्ति दी जा सकती है, धर्मप्रचार को गति दी जा सकती है और भी न जाने कितने शुभकर्म सम्पन्न किये जा सकते हैं। एक अन्य विचारणीय तथ्य यह भी है कि जगदीश अपने समाज का व्यक्ति न होने के कारण भी हमारी दया का अधिकारी नहीं है। उसके प्रति हमारा कोई कर्तव्य नहीं बनता। आज मैं अपने पिताजी के सन्देश को लेकर आपके पास आया हूं कि यदि आप सहमत हों, तो वह इस दिशा में यथोचित करने को उद्यत हैं।’’

अपने दिवंगत पिता के अन्तिम समय कही गयी बातों का स्मरण हो आने के कारण विजया सोच में पड़ गयी। उसके लिए तत्काल कुछ निर्णय करना कठिन हो गया। विजया को संकोच में पड़ा देखकर विलास दृढ़ स्वर में बोला, ‘‘इस विषय में सोच-विचार अथवा टाल-मटोल करने-जैसा कुछ भी नहीं है। वस्तुतः इस प्रकार अनिश्चय की स्थिति को मैं पाप नहीं, महापाप समझता हूं। मैंने तो उसका घर आपके नाम लिखा देने का पक्का निश्चय कर लिया है। मैंने उस घर के उपयोग की भी योजना बना ली है। मैं चाहता हूं कि गांव के उस घर में पाठशाला खोलकर गांव के असहाय एवं निर्धन बालकों को ब्राह्मसमाज के सिद्धान्तों की शिक्षा दी जाये। आप तो जानती ही हैं कि गांव वालों की अशिक्षा के कारण ही आपके पिताजी को गांव छोड़ना पड़ा था, तो क्या आपका यह कर्तव्य नहीं बनता कि आप गांव के लोगों के उद्घार में अपना योगदान करें, ताकि फिर किसी को इन गांव वालों से किनारा करने को विवश न होना पड़े। आप ही बताइये कि क्या मैंने कुछ ग़लत कहा है ?’’

विजया को चुप देखकर विलास ने अपना कथन जारी रखा। वह बोला, ‘‘ज़रा सोचिये तो सही कि सारे इलाक़े में आपका किस प्रकार यश फैल जायेगा और किस प्रकार लोग आपका गुणगान करेंगे ? हिन्दुओं को भी इस सत्य की जानकारी हो जायेगी कि ब्राह्मसमाज में भी कुछ कर सकने में समर्थ पुरुष हैं। हम लोग भी त्याग करना और निःस्वार्थ भाव से समाज-सेवा करना जानते हैं। इसके अतिरिक्त गांव वालों को यह भी पता चलेगा कि जिस महापुरुष की उन्होंने उपेक्षा की थी, उसी की पुत्री की कृपा से, उसी के निःस्वार्थ त्याग से उन्हें यह भवन और यह स्कूल उपलब्ध हुआ है। मैं तो कहता हूं कि सारे प्रान्त में आपके नाम और यश को चार चांद लग जायेंगे।’’

कहते हुए विलासबिहारी ने सामने की टेबल पर अपना मुक्का दे मारा। विलास के भाषण को सुनकर विजया का प्रभावित होना स्वाभाविक था। अठारह वर्ष की लड़की के लिए इतनी प्रसिद्धि कम आकर्षण की बात नहीं थी। सम्मोहित-सी हुई विजया ने अपनी सहमति दिखाते हुए पूछा, ‘‘क्या उन महाशय के लड़के का नाम नरेन्द्र है ? क्या आप जानते हैं कि वह आजकल कहां है ?’’
‘‘मुझे सब मालूम है। पिता की मृत्यु का समाचार सुनकर वह गांव लौट आया है और पिता के श्राद्ध के बाद वह यहीं गांव में बस जाना चाहता है।’’
‘‘तो क्या आपसे उसका मिलना-जुलना तथा वार्तालाप होता रहता है ?’’

‘‘उससे बातचीत...छि:, क्या आपने मुझको इतना गया-गुजरा समझ रखा है ?’’ कुछ देर तक विस्मय के भाव से विजया के चेहरे को ताकते रहने के बाद विलास ने कहा, ‘‘मैं समझता हूं कि कोई भला आदमी उससे बात तक करने की नहीं सोच पायेगा। एक दिन अचानक एक पागल-सा एक अपरिचित आदमी दिखाई दिया, तो पूछने पर पता चला कि वही जगदीश मुखर्जी का बेटा है।’’
आश्चर्य प्रकट करते हुए विजया बोली, ‘‘क्या कहा, पागल के समान ! मैंने तो सुना है कि वह एक बहुत बड़ा डॉक्टर है।’’
घृणा से नाक सिकोड़ता हुआ विलास बोला, ‘‘डॉक्टर...! मुझे तो वह पागल लगता है। उसके सिर के लम्बे बालों और पीले पड़े तथा लटके चेहरे को देखकर वह डॉक्टर नहीं, अपितु मरीज़ लगता है। ताड़ के पत्ते-जैसा कोई व्यक्ति भी डॉक्टर हो सकता है। मुझे तो विश्वास नहीं होता।’’

विलास ठिंगना, मोटा और भारी जवान होने से अपने को सुन्दर और आकर्षक समझता था। उसके शरीर पर काफ़ीचर्बी थी। कुछ और कहने जा रहे विलास को रोकती हुई विजया बोली, ‘‘विलास बाबू, जगदीश बाबू के मकान का अधिग्रहण कर लेने पर गांव में गलत सन्देश नहीं जायेगा ? क्या लोग हमारी निन्दा और आलोचना नहीं करेंगे ?’’
विलास दृढ़ स्वर में बोला, ‘‘नहीं कदापि नहीं। आप विश्वास कीजिये कि आसपास के दस-बीस गांवों में उस नशेड़ी से सहानुभूति रखने वाला एक भी व्यक्ति नहीं मिलेगा। उसके दुःख में हाय भरने वाला ढूंढ़ने पर भी नहीं मिलेगा।’’ थोड़ा हंसकर वह बोला, ‘‘मेरे रहते आपके विरुद्ध मुंह खोलने का साहस कौन कर सकता है ? हां, एक बार आपको गांव में जाना अवश्य चाहिए।’’

विजया बोली, ‘‘मैं तो आज तक कभी गांव गयी ही नहीं।’’
उत्तेजित होकर विलास बोला, ‘‘इसीलिए तो आपको जाने के लिए कह रहा हूं। प्रजा को एक बार अपनी महारानी के दर्शन का सौभाग्य तो जुटाना ही चाहिए। प्रजा को इस सौभाग्य से वंचित करने को मैं अन्याय समझता हूं।’’
लज्जा से लाल हुए अपने चेहरे को झुकाकर कुछ कहने जा रही विजया से विलास बोला, ‘‘टाल-मटोल करने से काम नहीं चलेगा। आप जरा सोचिये तो सही कि आपको वहां के कितने काम निपटाने हैं ? इतने बड़े जमींदार होने पर आपके पिताजी ने कुछ सिरफिरे लोगों के डर से पूरा जीवन गांव में कभी पैर नहीं रखा। क्या उनका यह निर्णय गलत नहीं था ? क्या हमारे ब्राह्मसमाज का यही आदर्श है ? मैं तो इसे किसी भी समाज का आदर्श नहीं मानता।’’
थोड़ी देर चुप रहने के बाद विजया बोली, ‘‘पिताजी तो बताते थे कि गांव का अपना मकान रहने के योग्य ही नहीं रहा।’’

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