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दीपगीत

महादेवी वर्मा

प्रकाशक : राजपाल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :104
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5573
आईएसबीएन :9788170284949

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इन कविताओं में महादेवी जी की जीवनदृष्टि, दर्शन, सौन्दर्यबोध और काव्य-दृष्टि का परिचय मिलता है

Deepgeet

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

तमसो मा ज्योतिर्गमय

भारत की संस्कृति आलोकवाहिनी है और उसके मूल कारणों में एक ऋग्वैदिक ऋषियों की वह देव-सृष्टि भी है जिसने कविता को विशेष महत्त्व दिया।
सम्पूर्ण देव सृष्टि में वरुण, मरुत, इन्द्र आदि भौगोलिक रूप में इतने प्रत्यक्ष नहीं हैं जितना सूर्य। चन्द्रमा प्रत्यक्ष है, परन्तु घटने-बढ़ने के कारण तथा जीवन को ऊष्मा न देने के कारण वह इतना महत्त्व नहीं पा सका। शेष सभी की कार्य-कारण के आधार पर रूप-कल्पना की गई है, अतः वे प्रतीकात्मक अधिक हैं। प्रतीक प्रत्येक युग की आवश्यकता, सौन्दर्य-बोध तथा समस्या के साथ परिवर्तित होता रह सकता है, परिणामतः धीरे-धीरे देवसृष्टि में अनेकों का महत्त्व घटता गया और कालान्तर में उनकी पूजा-स्तुति विस्मृत हो गई। उदाहरण के लिए इन्द्र जैसे देवताओं का आधिपत्य को ले सकते हैं, जिसकी पूजा-अर्चना द्वापर में समाप्त हो गई और जिस पर पुराण-कथाओं में लांछन भी लगाए गए हैं। वैसे वह मेघों का स्वामी आज भी है।

अग्नि और सूर्य आज भी उतने ही महत्त्वपूर्ण हैं, जितने वेदकाल में थे, क्योंकि दोनों प्रत्यक्ष और जीवन के अनिवार्य संगी हैं। इसी से ऋषि कहता है : सूर्य चन्द्रमासौ धाता यथा पूर्वम कल्पयेत।
ऋग्वैदिक देवियों में अदिति, जिसका अर्थ बन्धनहीन और व्यापक होना है, सबकी माता कही गई है; परन्तु उसका महत्त्व बारह आदित्यों की माता होना ही है। इस प्रकार वह सूर्यों की जन्मदात्री आकाश की देवता है। देव सृष्टि में सूर्य के ही बारह रूप हैं, जिनमें वह उत्तरायण और दक्षि्णायन होकर ऋतुओं की सृष्टि करता है तथा वर्ष के बारह मासों को नवीन रूपों और कालखंडों में बदलता रहता है। ऋतुओं का आविर्भाव, तिरोभाव भी बारह मासों में ही विभाजित है।
आलोकदान के अतिरिक्त आदित्य के अन्य कार्य भी जीवन के लिए आवश्यक हैं। वह धरती को तप्त भी करता है और समुद्रों को तपाकर बादल का सृजन कर वर्षा से शीतल भी करता है। उससे युग कल्प से लेकर क्षणों तक का काल-विभाजन भी होता है और आलोक अन्धकार का क्रम से आविर्भाव भी। दूसरे लोकों को प्रकाशित करने के लिए वह एक लोक से विदा लेता है। अतः उसका आगमन और गमन, उदय और अस्त दोनों प्रणम्य माने जाते हैं।

आदिम मनीषा ने जब अरणियों के संघर्षण से अग्नि उत्पन्न करने में सफलता पाई तब मानो सूर्य का प्रतिनिधि उन्होंने धरती पर उतार लिया। ‘अग्निमीडे पुरोहितम’ कह कर उसकी वन्दना की। वह देवता उनकी शत्रुपुरी को भस्म भी कर सकता था और उनकी कुटी या गुफा को भी आलोकित कर सकता था। वह देवताओं को यज्ञ में आहूत भी कर सकता था और आहुति द्वारा उनका भाग उन तक पहुँचा भी सकता था। वह अन्न को सिद्ध करके खाद्य भी बना सकता था। और फिर जठराग्नि के रुप में उसे रस और रक्त में भी परिवर्तित कर सकता था। जन्म से मृत्यु तक अग्नि से मनुष्य का अविच्छिन्न सम्बन्ध रहा। उसके सब कर्मकाण्ड, सब संस्कार—जन्म, उपनयन, विवाह आदि में अग्नि ही साक्षी और पुरोहित रहा तथा आज भी उसके अभाव में जीवन सम्भव नहीं है। मन्दिर में भी नीराजन, धूपदीप के बिना पूजन की कल्पना नहीं की जा सकती। दीपावली, होलिका आदि अग्नि के ही उत्सव हैं। आज के वैज्ञानिक युग में भी विद्युतजीवी मानव अग्नि के बिना नहीं जी सकता।

सूर्योपासक, अग्निपूजक भारत की संस्कृति यदि विशिष्ट आलोकजीवी हो तो इसे स्वाभाविक ही कहा जाएगा। ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ की गूँज भारत के धर्म, दर्शन, साहित्य, कला, जीवन पद्धति आदि में निरन्तर गूँजती रहती है।
मेरा अन्तर्जगत् तथा परिवेश इसी आलोकोत्सव में निर्मित हुआ है, अतः प्रकाश के प्रति मेरा आकर्षण आरम्भ में बहुत-कुछ वैसा ही रहा है जैसा सामान्य बालक का होता है, परन्तु दीपक के प्रति रागात्मक दृष्टि बनने के कारण और भी रहे, जिनका विश्लेषण आज कठिन है। यह कारण कुछ संस्कारगत और कुछ परिवेशगत भी रहा।

मेरा बचपन इन्दौर की छावनी में बीता जहाँ लैम्प ही जलाए जाते थे। पिताजी को बहुत प्रकार के कलात्मक लैम्प अच्छे लगते थे और उन्होंने बहुत रंगों के ग्लोब वाले आकर्षक और कलात्मक लैम्पों का संग्रह घर में किया था। स्वाभावतः उनका आकर्षण मेरे लिए भी अधिक था। जब तक संध्या समय लैम्प जलाए तथा प्रत्येक कमरे में पहुँचाए जाते, तब तक मैं रामा के साथ घूमती रहती थी और किस कमरे में किस रंग के ग्लोब वाला लैम्प रखा जाएगा यह भी मुझे याद रहता था। हमारे कमरे में सफेद रंग के ग्लोब वाला लैम्प रखा जाता था, पिताजी के कमरे में नीले रंग के ग्लोब वाला, माँ के कमरे में कोई भी रखा जा सकता था, क्योंकि उनका अधिकांश समय रसोई या पूजाघर में ही बीतता था। रसोईघर में साधारण बिना ग्लोब का लैम्प और पूजाघर में आरती के दिये ही जलते थे। आरती के दीपक की लौ छूकर माथे से लगाने की हम सब में होड़ रहती थी और लौ को छूने की इच्छा में अनेक बार मेरी उँगलियाँ भी जल जाती थीं। लौ में पतिंगों का जलना देखना मुझे कष्ट देता था और आज भी देता है, पर उन्हें रोकने का उपाय न तब था न आज है। माँ की पूजा-आरती के अतिरिक्त तुलसी-चौरे पर भी दीपक रखा जाता था। विशेष पर्वों पर हमें चौराहा, कुएँ की जगत, बाहर के किसी मन्दिर में तथा वट पीपल आदि के नीचे भी घी के चौमुख दिये रखने पड़ते थे।

मैंने ब्रजभाषा में जो तुकबन्दियाँ करना आरम्भ किया था उसमें भी दीपक और फूल की चर्चा अधिक है। फूलों को खिला देना तो मेरे हाथ में नहीं था, न मैं उन्हें मुरझाने से रोक सकती थी, किन्तु दीपकों का बुझाना जलाना तो मेरे हाथ में था। स्वाभावतः दीपक की झिलमिलाहट का आकर्षण मेरे लिए विशेष था। पढ़ने के समय भी मुझे अक्षरों से अधिक रंग-बिरंगे ग्लोब के शीशों में झिलमिलाती लौ को पढ़ना और हवा के हर झोंके पर उसका उठना-गिरना देखना अच्छा लगता था। आज भी मुझे बिजलियों के सयत्न सजाए बन्दनवार की अपेक्षा दीपकों की झिलमिलातीं पंक्ति आकर्षित करती है, इसी से हर दीपावली के पर्व पर मेरे घर सैकड़ों बत्तियाँ बनाई जाती हैं और कई प्रकार के दीपक मँगाए जाते हैं।

इसके अतिरिक्त शिक्षा में भी अधिक मुझे आलोक की पुकार ने ही आकर्षित किया। ‘तमसो माँ ज्योतिर्गमय’ ‘आत्मदीपो भव’ आदि में दीप ही बोलता है। अविद्या अन्धतमस है और ज्ञान आलोक का ही पर्याय है। शिव के आग्नेय तीसरे नेत्र के समान ही प्रत्येक मानव के पास आग्नेय तीसरा नेत्र है जो जल उठे तो गहन आवेगजनित तमिस्रा ध्वस्त हो जाती है। यह तारों पर दौड़ने वाली बिजली न होकर मनुष्य के स्पंदन के चमत्कार में है।
भारत के कला, अलंकरण, आस्था, ज्ञान सौन्दर्यबोध, साहित्य आदि में दीपक का प्रतीक विशेष महत्त्व रखता है। मेरे निकट भी वह प्रतीक इतना आवश्यक है कि मैं उसके माध्यम से बुद्धि और हृदय दोनों की बात सहज ही कह सकती हूँ। काव्य में प्रतीक कवि के चरित्र और संघर्ष दोनों का संकेत देते हैं। मेरा यह प्रतीक मेरा कैसा परिचय देता है यह दूसरे ही बता सकते हैं।

 

महादेवी
प्रयाग
10 मार्च 1983

 

बाँच ली मैंने व्यथा

 

 

बाँच ली मैंने व्यथा की बिन लिखी पाती नयन में !

मिट गए पदचिह्न जिन पर हार छालों ने लिखी थी,
खो गए संकल्प जिन पर राख सपनों की बिछी थी,
आज जिस आलोक ने सबको मुखर चित्रित किया है,
जल उठा वह कौन-सा दीपक बिना बाती नयन में !

कौन पन्थी खो गया अपनी स्वयं परछाइयों में,
कौन डूबा है स्वयं कल्पित पराजय खाइयों में,
लोक जय-रथ की इसे तुम हार जीवन की न मानो
कौंध कर यह सुधि किसी की आज कह जाती नयन में।

सिन्धु जिस को माँगता है आज बड़वानल बनाने,
मेघ जिस को माँगता आलोक प्राणों में जलाने,
यह तिमिर का ज्वार भी जिसको डुबा पाता नहीं है,
रख गया है कौन जल में ज्वाल की थाती नयन में ?

अब नहीं दिन की प्रतीक्षा है, न माँगा है उजाला,
श्वास ही जब लिख रही चिनगारियों की वर्णमाला !
अश्रु की लघु बूँद में अवतार शतशत सूर्य के हैं,
आ दबे पैरों उषाएँ लौट अब जातीं नयन में !
आँच ली मैंने व्यथा की अनलिखी पाती नयन में !

 

दीप मेरे

 

 

दीप मेरे जल अकम्पित,
धुल अचंचल !
सिन्धु का उच्छ्वास घन है,
तड़ित् तम का विकल मन है,
भीति क्या नभ है व्यथा का
आँसुओं से सिक्त अंचल !

स्वर-प्रकम्पित कर दिशाएँ,
मीड़ सब भू की शिराएँ,
गा रहे आँधी-प्रलय
तेरे लिए ही आज मंगल।

मोह क्या निशि के वरों का,
शलभ के झुलसे परों का,
साथ अक्षय ज्वाल का
तू ले चला अनमोल सम्बल !

पथ न भूले, एक पग भी,
घर न खोये, लघु विहग भी,
स्निग्ध लौ की तूलिका से
आँक सब की छाँह उज्ज्वल !

हो लिये सब साथ अपने,
मृदुल आहटहीन सपने,
तू इन्हें पाथेय बिन, चिर
प्यास के मरु में न खो, चल !

धूम में अब बोलना क्या,
क्षार में अब तोलना क्या !
प्रात हँस-रोकर गिनेगा,
स्वर्ण कितने हो चुके पल !
दीप रे तू गल अकम्पित,
चल अचंचल !

 

बुझे दीपक जला लूँ

 

 

सब बुझे दीपक जला लूँ !
घिर रहा तम आज दीपक-रागिनी अपनी जगा लूँ !

क्षितिज-कारा तोड़ कर अब
गा उठी उन्मत आँधी,
अब घटाओं में न रुकती
लास-तन्मय तड़ित् बाँधी,
धूलि की इस वीण पर मैं तार हर तृण का मिला लूँ !

भीत तारक मूँदते दृग
भ्रान्त मारुत पथ न पाता
छोड़ उल्का अंक नभ में
ध्वंस आता हरहराता,
उँगलियों की ओट में सुकुमार सब सपने बचा लूँ !

लय बनी मृदु वर्त्तिका
हर स्वर जला बन लौ सजीली,
फैलती आलोक-सी
झंकार मेरी स्नेह गीली,
इस मरण के पर्व को मैं आज दीपावली बना लूँ !

देख कर कोमल व्यथा को
आँसुओं के सजल रथ में,
मोम-सी साधें बिछा दी
थीं इसी अंगार-पथ में
स्वर्ण हैं वे मत हो अब क्षार में उन को सुला लूँ !

अब तरी पतवार ला कर
तुम दिखा मत पार देना,
आज गर्जन में मुझे बस
एक बार पुकार लेना !
ज्वार को तरणी बना मैं; इस प्रलय का पार पा लूँ !
आज दीपक राग गा लूँ !


शेष कितनी रात ?

 

 

पूछता क्यों शेष कितनी रात ?
अमर सम्पुट में ढला तू,
छू नखों की कांति चिर संकेत पर जिन के जला तू,
स्निग्ध सुधि जिन की लिये कज्जल-दिशा में हँस चला तू !
परिधि बन घेरे तुझे वे उँगलियाँ अवदात !
झर गए खद्योग सारे;
तिमिर-वात्याचक्र में सब पिस गये अनमोल तारे,
बुझ गई पवि के हृदय में काँप कर विद्युत-शिखा रे !
साथ तेरा चाहती एकाकिनी बरसात !
व्यंगमय है क्षितिज-घेरा
प्रश्नमय हर क्षण निठुर-सा पूछता परिचय बसेरा,
आज उत्तर हो सभी का ज्वालवाही श्वास तेरा !
छीजता है इधर तू उस ओर बढ़ता प्रात !
प्रणत लौ की आरती ले,
धूम-लेखा स्वर्ण-अक्षत नील-कुमकुम वारती ले,
मूक प्राणों में व्यथा की स्नेह-उज्ज्वल भारती ले,
मिल अरे बढ़, रहे यदि प्रलय झंझावात !
कौन भय की बात ?
पूछता क्यों शेष कितनी रात ?

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