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नारी विमर्श >> कितने जनम वैदेही

कितने जनम वैदेही

ऋता शुक्ल

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1995
पृष्ठ :250
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5558
आईएसबीएन :81-7315-123-7

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स्त्री जीवन को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास अपने समय की श्रेष्ठतम कृति...

KITNE JANAM VAIDEHI.

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

कैसा वर खोज रही हैं आजी, अपने रामचंद्रजी की तरह...जीवित जानकी को आग की लपटों में बिठानेवाले, वानर-भालुओं के साथ मिलकर एक सती के सतीत्व का परीक्षण-पर्व निहारनेवाले...? मुझे तुम्हारे राम से एक बड़ी शिकायत है...पुरुषार्थ की कमी तो नहीं थी उनमें, फिर क्यों नहीं सारे संसार को प्रत्यक्ष चुनौती दे सके-
मैं राम अपनी प्रलंब भुजा उठाकर घोषणा करता हूँ-सीता के अस्तित्व पर, उनकी दृढ़ता इच्छाशक्ति पर मेरी उतनी ही निष्ठा है जितनी अपने आप पर...! फिर किसी अनलदहन का औचित्य किसलिए ? जानकी जैसी हैं...जिस रूप में हैं, मेरे लिए पूर्ववत् वरेण्या हैं...

नहीं आजी, राम के अन्याय को भक्ति, ज्ञान और अध्यात्म के तर्क से तुम उचित भले करार दो; लेकिन मेरा मन नहीं मानता...।’
जागेश्वरी आजी का संशय नंदिनी के सोच की प्रखरता में साकार हो चुका था। नंदिनी, उनकी तीसरी पीढ़ी...भोजपुर का नया तिरिया जनम...

उनका मन हुआ था-बुद्धि को चिंतन की शास्ति देनेवाले अपने उस नए जनम से पूछें-अच्छा, बोल तो नंदू, तुझे रामकथा लिखने का हक हमने दे दिया तो तू क्या लिखेगी...अपने अक्षरों का तप कहाँ से शुरू करेंगी...?

इसी उपन्यास से

क्या आज की हर सीता का प्रारंभ भी वनवास और अंत अनलदहन से नहीं हो रहा ? यदि नंदिनी भी अपनी कथा सीता वनवास से ही प्रारंभ करे तो क्या वह आज की हर नारी का सच नहीं होगा ? आधुनिक भारतीय समाज, मानव जीवन, विशेष रूप से स्त्री जीवन, को आधार बनाकर लिखा गया यह उपन्यास अपने समय की श्रेष्ठतम कृति है।


एक दिया उस नाम का !



यादों की इस गहन गुफा में एक दिया उस नाम का !

साँसों में अजपा-जप का स्वर,
अनुभव-चंदन सुरभित अंतर,
तुलसी-गंधा छवि थी उसकी,
मौन तपस्या स्मित उसकी,
एक सत्य जो पलभर में आधार बना संज्ञा के आठों याम का !

शब्द धरोहर प्राण साक्ष्य हैं,
भाव सरोवर, नेह भाष्य है,
ओस धुले पत्तों-सा मन है,
पृष्ठ हथेली, पक्ष्म कलम है,
अश्रु रचित अलिखित शब्दों का काव्य भला किस काम का ?

काल-दिशाएँ दहके से दिन
जेठ दुपहरी लगता सावन,
पूरनमासी बनी अमावस,
यह तप पूरा होगा कब तक,
उँगली की हर पोर थकी है, उषःकाल कब आएगा इस शाम का !

एक तार का साज जिंदगी,
देह देहरी, प्राण बंदगी,
ऐसी कठिन साधना जिसकी,
जन्मों की उपासना जिसकी,
निर्वासन का दुःख दे फिर भी इंतजार क्यों बार-बार उस राम का !


पुरोवाक्



‘कितने जनम वैदेही’-इसे अपनी एक कृति कहूँ या दो वर्षों की जटिलतम ऊहापोह से जन्म लेनेवाली वेदना- सिक्त अनुभूति ?
वैष्णवी संस्कारों में पले हुए मन में तर्क- वितर्क का मिथ्या व्यामोह नहीं पनपा था, यह दुराग्रह भी नहीं था कि सिया सुंदरी को नितांत आधुनिकतावादी दृष्टिकोण से परखूँ....! और इतना दुस्साहस कहाँ से हो सकता था कि पीढ़ियों से पूजित ‘राम’ की ओर अभियोग-भरी तर्जनी उठाऊँ और कहूँ-राम, सीता के समस्त कष्टों का प्रयोजन क्या तुम्हें ही बनना था ?

जानती हूँ-यह पूछने की अनुमति श्रीजानकी नहीं दे सकतीं-वे कहेंगी-
यह कष्ट मेरा है, जीवन-संघर्ष भी मेरा है। अभियोग या उपालंभ की मुद्राएँ मेरे तप की दहकन को कलछौंहा बना जाएँगी। ना, राम जैसे भी हैं, मेरे हैं। वे हैं, तभी तो यह अनल प्रवेश, यह रसातल-निवेश भी शुभ है। मत भूलो, उर्विजाओं के लिए वेदना के ये अग्नि-स्फुलिंग ही चंदनी अवलेप हैं-पीड़ाओं के निकष पर कसा हुआ नारी जीवन का स्वर्णत्व...! और पीड़ा कहाँ नहीं है ? जीव का देह धारण करना ही तो समस्त वेदना का कारण रूप सत्य है ! तब ?...सृष्टि की निरंतरता का कष्टसाध्य व्रत और कौन धारेगा ?

मेरी चेतना के ऊर्ध्व तट पर हिलोर लेती वैदेही की शुभ्रता आकाश-कुसुम बनकर रह जाए, इसके पूर्व एक युक्ति सधी थी-काशी की गंगा के पावन तुलसीघाट पर मेरी मनोयात्रा ने पहला विराम पाया था-
पूरबी आकाश के माथे पर टँके बाल सूर्य की अरुणाभा...! ब्राह्म-मूहूर्त में छोटी-सी नौका लेकर एक रामकथा-व्रती गंगा मैया की जलराशि पर शांत तिरता चला जा रहा है-‘नाना पुराण निगमागम सम्मत’-ऐसी ही एक कथा लिखनी है उसे...!
गोसाईं का चित्त ठिकाने नहीं है-अति लौकिकता के एवज में मिली नारी-भर्त्सना रत्ना का विछोह, जीवनव्यापी वेदना की झुलसा देनेवाली मनोदशाएँ; और उस अलौकिक को समेट लेने के लिए उत्कंठित अंतर्दृष्टि, जिसे पाने के बाद अलभ्यता जैसी कोई स्थिति रह जाएगी क्या ?
तुलसी ने रामकथा लिखी, आदिकवि वाल्मीकि की भावनाओं को अपनी दृष्टि में सहेजने का नवीनतम उपक्रम किया-भाषाबद्धता की संकल्प-शक्ति ने तुलसी की विराट् चेतना को ‘सियाराम मय’ को जाने का दिशाबोध दिया।
तब ? मेरी इतनी बड़ी सामर्थ्य ! मैं उसी सीता को अपनी शब्द सीमा में समेटने का उपक्रम करना चाहती हूँ ?
मेरी विमूढ़ता मुझे एक बार फिर तुलसी की उसी चिरपरिचित स्मृति-वाटिका की ओर खींच ले जाती है। लंबे-चौड़े पाषाण-खंडों की मजबूत चिनाईवाला अस्सीघाट का वह दो मंजिला आवास ! ऊँची खड़ी सीढ़ियाँ चढ़कर दाहिने मुड़ें-अति प्राचीन काले पत्थरों की बनी छोटी-सी चौखट मिलेगी-लोहे का झिर्रीदार कपाट ! माथा झुकाकर देखें-भीतर धरी छोटी सी चौकी पर तुलसी के सखा, पथ-प्रदर्शक बजरंगबली की छोटी-सी मूर्ति समक्ष दिखाई पड़ेगी। गोस्वामीजी इस मूर्ति की आराधना किया करते थे। अपनी कल्पना में बार-बार उभरनेवाले रामभक्त श्री हनुमान की मूर्ति को स्वयं तुलसीदास ने तराशा था।

और बगल में तनिक उँचे आसन पर धरी भक्त शिरोमणि की चरण-पादुका-काठ की खड़ाऊँ-कवि के सुदीर्घ व्यक्तित्व को अपनी औसत से अधिक लंबाई के प्रमाण से प्रतिमूर्ति करती हुई...!
मानस के किसी सरस प्रसंग की मनोरम उद्भावना में खोए तुलसीदास प्रेम-अटारी के ऊपरी भाग की ओर बढ़ रहे हैं-सँकरी सीढ़ियों का छोटा-सा घुमावदार रास्ता। तुलसी की भावना से जुड़े मनुष्य मात्र के लिए संभवतः सर्वाधिक पुलक-प्रकंप देनेवाला यह संदर्भ है। रामलला, लखनलाल, सिया सुंदरी और परमवीर हनुमान की मूर्तियों से सुसज्जित छोटा-सा पूजन कक्ष।
दाहिनी ओर उनकी उत्कृष्ट शिल्पकला का प्रमाण देते महावीर युग्म ! पूजनकक्ष के दक्षिण-पश्चिमी छोर पर लोहे की काली सलाखों से घिरा चौकीनुमा स्थान !
...तुलसी अपने आराध्य के ध्यान में तन-मन की सुधि बिसराए बैठे हैं।
राम नाम मनि दीप धरू...

राम...! श्रीराम.....!!
जप की विह्वलता अपने चरम पर है। पूजन कक्ष के बाहर का वह कोना सहसा आलोकित हो उठता है।
एक दिव्यतम प्रभा-पुंज !
तुलसी निष्पलक, निश्चेतन हुए जा रहे हैं-
श्री रघुनंदन का ऐसा अलौकिक साक्षात्कार-
उठो गोसाईंजी महाराज ! भय किसका ? मैं जो तुम्हारे साथ हूँ। गंगा के इस निर्मल प्रवाह-सी तुम्हारी कथा शाश्वत होगी।
और राम की वह सच्चिदानंद मूर्ति तुलसी को अकिंचन कर जाती है।
पूजन-कक्ष में शालग्राम के शताधिक विग्रह सहेजकर रखे गए हैं। कवि पर्यटनप्रिय थे। जहाँ जाते, पाषाण के हृदय में किसी ईश्वरीय सत्ता का स्पंदन तलाश लेते !
अब तो जीती-जागती जिंदगियों में पाषाणी क्रूरता का समावेश हो चुका है। तुलसी की यह संवेदना किसी कलियुगी देहधारी को भले ही रास नहीं आए; लेकिन काशी का यह तुलसीघाट तुलसीदास की मानवीय संवेदनाओं के सबसे बड़े सत्य का मौन साक्षी है।

सँकरी सीढ़ियों की निचली संधि-रेखा पर गोस्वामी के शयन कक्ष की छोटी सी किवड़िया है। वृद्ध पुजारीजी साँकल खोल रहे हैं। चौखट से भीतर का एक-एक दृश्य स्पष्ट है।
जर्जर खड़ाऊँ की बगल में गोस्वामीजी के वस्त्र हैं-लाल बेठन में लपेटकर सुरक्षित रखे गए।
पत्थर की पाटी पर शयन करते, राम-कथा में अविरल रमे एक गौरांग ब्राह्मण की तेजस्वी काया मेरे सामने है।
सन् 1990 के नवरात्र का षष्ठ दिवस ! मेरे जप के एक मुहूर्त में ऐसी ही मूर्ति मंगल-कलश के पीछे क्षणभर के लिए दीप्त हुई थी-कोई आदेश था ? किसी विशेष निदेश को मन-ही-मन धारण करती मैं जड़ीभूत थी।
फिर तीन वर्षों की निरंतर जूझन...काशी के शताधिक घाटों के अकूत अनुबंधों-सा स्त्री जन्म...
कितनी मनौतियाँ।
कितनी अनुनय-विनय !!
आकुल-व्याकुल मन का गीलापन अंजुरी-भर गंगाजल में समोती मेरी पुरखिनों ने इन कगारों पर कैसे-कैसे तप किए होंगे ?

प्रात दर्शन दीं एक गंगा मइयाऽ !
ससुरा में माँगिले अन धन सोनवा,
नइहर सहोदर जेठ भाई ए गंगा मइयाऽ!
सभवा बइठन के ससुर माँगिले,
मचिया बइठन के सास गंगा मइया ऽ!
रुनुकी-झुनुकी बेटी माँगिले, पढ़ल पंडितवा दामाद,
घोड़वा चढ़ल के बेटा माँगिले,
गोड़वा लागन के पतोह।
अपना के माँगिले अवध सिन्होरवा जनम-जनम
एहवात गंगा मइया ऽऽ!

पौ फटने के बहुत पहले गंगाजी का तट सेवन करती मेरे जनपद की एक महीयसी तिरिया बैठी है। साध का नन्हा-सा दीया अपनी लौ की उजास फैलाता उसके आगे है।
गंगा मैया ! प्रसन्न हो। मेरी विनती स्वीकार करो। मेरे श्वसुर-गृह में अन्न-धन धान्य की सदा वृद्धि हो। मेरा ज्येष्ठ भाई जिए-भ्रातृ-परंपरा का पोषण हो ! सभा में विराजते मेरे श्वसुर जी की पाग सदा ऊँची रहे और मेरी सास मचिया पर बैठी जगर-मगर शोभित रहें ! और एक रुनुकी-झुनुकी बिटिया दो, माँ जिसका वर काशी में पढ़ा-लिखा पूर्ण पंडित हो। घोड़ा पर चढ़ा शूर वीर मेरा पुत्र हो और आज्ञाकारिणी सुकुमारी बहू !

चुटकी-भर सिंदूर से मेरी माँग भरी रहे ! जन्म- जन्मांतर अक्षय सौभाग्य का यह वरदान तुम्हीं दे सकती हो, माँ भागीरथी।
वैदेही की अति पुरातन, किंतु चिर नवीन इस कथा में मेरे जनपद की पुरखिनें भी सम्मिलित हैं।
यूँ, इस कथा को एक विराम मिला। एक बड़ा संकल्प था और कितने बड़े-बड़े व्यवधान-कथा जिसकी थी, शक्ति भी उसी ने प्रदान की। सूर्य की प्रखर रश्मियों से जुड़कर धूलि-कण भी हीरक-कण बन जाते हैं।
वैसे तो स्त्री-जन्म को विश्व-भर की पुरुष-दृष्टि ने अलग-अलग साँचे दिए हैं- जैसी दृष्टि, वैसी रूपाकृति-तदनुरूप अभिव्यक्ति, जितनी अनुभूतियाँ, उतनी कल्पनाएँ !
आदिकवि ने उर्विजा के सहज सौष्ठवपूर्ण व्यक्तित्व को प्रतिवाद की प्रबलता से पोषित किया-

‘मनसा कर्मणा वाचा यथा रामं समर्चये।
तथा से माधवी देवी विवरं दातुर्महति ।।’’

यदि मेरा हृदय केवल राम में ही रमा हो; तो धरती माता मुझे अपनी शरण प्रदान करें !
नारी की निष्कलुषता के शत सहस्त्र प्रमाण टटोलते पुरुष की सनातनी संशय वृत्ति..।
और अपनी ममता से युग-युगांतर तक विश्व-चेतना को अनुप्राणित करता नारी का पामर तन-कुंती, द्रोपदी सीता, अहल्या-जितनी नाम-संज्ञाएँ उतनी ही यंत्रणाएँ।

...चिंता काठ की हो या कलंक की, दाह अपनों का हो या दूसरों का-सुलगती त्रिया-जाति ही है।
पुरुष की अतिरेकवादी तर्जनी ने नारी को युगों तक अभिशप्त रखा और नारी की सहिष्णुता ने सबकुछ नीरव सहेजा।
-राम, कृष्ण, बुद्ध, गांधी, शंकराचार्य, तुलसी, कबीर जैसी अद्वितीय अस्मिताएँ नीहार-कणिकाएँ नहीं, जो शून्य से टपक पड़ी हों ! दस मास जिस चादर को बुनने में लगे हों; उस पर लोकोत्तर कीर्ति की कसीदाकारी उरेहनेवाली मातृ-परंपरा का एक-एक मुहूर्त विश्व- मानव कल्याण के निष्काम तप से सधता-सँवरता है, तभी तो आप्त-वाक्य शास्ति दिया करते हैं-

कुपुत्रों जायेत् क्वचिदऽपि
कुमाता न भवति...!

मैंने कलिकाल के चरम बौद्धिक पदों को सुशोभित करनेवाले ऐसे तथाकथित उच्चवंशीय पुरुष-शिरोमणियों को निकट से देखा है; जिनकी कलुषित अभ्युक्तियों का पहला और आखिरी माध्यम स्त्री मात्र हुआ करती है।...श्वेत वस्त्र मंडित, दंत-नख गलित, व्याघ्र-वासनाओं के ये पुतले किसी-न-किसी माँ की कोख से कढ़े होंगे न। इन जन्म-लोलुप सहस्राक्षों को यह नहीं पता कि इनके ऐसे दुराचरण से माँ की कोख लांछित होती है, प्रकृति का सामरस्य क्षुब्ध हो उठता है और ऐसी अहैतुकी जिंदगियाँ अपने पाप-बोध से भरी अंततः भग्न उल्का-खंड बनकर रह जाती हैं।
श्रीजानकी को लोकापवाद के भय से निर्वासित करने वाले राम का ‘रामत्व’ लोक-हित की कसौटी पर भले ही शत-प्रतिशत उतरा हो, लेकिन आत्महंता मुद्राओं के शिकंजे में जकड़ा उनका परितापी मन सरयू की अथाह जलराशि में मौन विलयित हो जाने के सिवा कोई निदान नहीं ढूँढ़ पाया।...राम अपूर्ण हैं; अपूर्ण रहेंगे-जब तक वैदेही की अनल-दीप्त अस्मिता का स्मरण उनके साथ-साथ नहीं किया जाए। यदि पुनरवतरण को विश्वास का आधार प्राप्त हो, तो वैदेही ने न जाने कितने जन्म धारण किए होंगे।

...युग-संधियों का अतिक्रमण करती लक्ष कोटि नारी- भंगिमाएँ ! अपनी करुणा के ताप से पिघलती, अपनी सार्थकता के चिर-उज्ज्वल प्रमाण सहेजती भूमिकाएँ !!
सच कहूँ-इस सनातन नारी-जन्म का ऋण भार साँसों की पोटली में सहेजती मैं अवसादजड़ित थी-इस कथा का ‘अथ’ कहाँ से हो ?
और अनल कोर-सा ज्वलित वर्ण; प्राण शिराओं में प्रतिध्वनित वह मंगल स्वर-
तुम सीता की कथा लिखो।
कौन सी सीता ?
क्या वे ! जो भूमि का वरदान बनकर फलित हुई थीं ?
क्या वे; जो राजर्षि जनक की प्राण-तनया थीं ?
क्या वे जो राम की भार्या थीं ?
क्या वे; जो रावण की बलात् अपहृता थीं ?

क्या वे; जो कलंकिनी अथच अनलधारिणी थीं ?
क्या वे; जो वाल्मीकि की पोषिता पुत्री और लव-कुश की जननी थीं ?
क्या वे; जो धरती की कोख में सिमटना ही अपनी अंतिम नियति मान चुकी थीं ?
इस पूरी ऊहापोह का समाधान बनी मेरी अल्पसाक्षरा माँ का सहज जीवन बोध मेरे सामने था-
अपनी पितामाही को बिसरा बैठी ?...पैंतीस वर्षों तक पति के साथ एक छत के नीचे रहती सधवा होती भी संन्यासी का व्रत धारती राधाकंत शास्त्री की पुत्री जागेश्वरी देई ! तेरी इस कथा का अर्थ उन्हीं से होना चाहिए बचियाऽ !
मुझे स्मरण है-मेरे गँवई लेखन को अपनी अरुचि का विषय बनाते निबकौरी के स्वाद का-सा अनुमान देते मेरे एक बौद्धिक मित्र ने फतवा दिया था-
अपने दादा-दादी, नाना-नानी के सिवा इन्हें कुछ आता भी है ? ऊपर से ऐसी भाषा शैली...! राम भजो !!
मेरे पास एक सहज मौन के सिवा कुछ भी तो नहीं।

आज इस रचना की पूर्णाहुत पर काशी के तुलसीघाट से जुड़ी निष्पलक देख रही हूँ-
वयःशीला नारियों का गरिमामय गंगा स्नान...कार्तिक महोत्सव चढ़ते हुए सूर्य की वंदना के साथ गंगा मैया का पराती (प्रभाती) गान और डूबे हुए भुवन भास्कर की अंतिम लालिमा से पुलकित मातेश्वरी गंगा की लहरों को दीप-दान।
वट-पत्र की हथेलियाँ जलते हुए मृत्तिका-दीपों को अपनी ओट देती गंगावतरण कर रही हैं-धीरे-धीरे....!
संसार में फैले निविड़ पातक तम की इति हो सबका कल्याण हो।
अपने गीले वस्त्र-खंड सहेजती, घर की ओर लौटती पुरखिनों की यह टोली मेरी दृष्टि में विराट् है।
मँझरिया गाँव की जागेश्वरी देई अकेली कहाँ हैं ? पृथ्वी तनयाओं का एक अनंत विस्तार है-सारी पितामहियाँ, मातामहियाँ !! और ऐसी ही निर्विकल्प मातृ-मूर्तियों के मौन तप से संरक्षित इन्हें ही समर्पित यह शब्द सृष्टि-
‘कितने जनम वैदेही’ !


टैगोर शिखर पथ,
मोराबादी
राँची ;

ऋचा शुक्ला


कितने जनम वैदेही


मेरे गाँव के उत्तरवर्ती गंगा का स्रोत प्रवाहित है। उत्तर से क्रमशः पूर्व की ओर मुड़ती हुई धारका कटि प्रदेश के पास तनिक कृश होकर डमरू की शक्ल अख्तियार कर लेती है। डमरू-नटराज शिव का प्रिय वाद्य।
कहते हैं, सती का शव अपने कंधे पर उठाकर विरोहन्मादी महादेव ने जब त्रैलोक्य की क्रुद्ध परिक्रमा की थी, तब उनके डमरू की रौद्र डमक सुनकर सारी दृष्टि थर्रा उठी थी। महाप्रलय का नाद देती शिव के उसी डमरू-सी मेरे गाँव की गंगा नदी...।
इसके ऊँचे तटबंध पर गंगा-स्नान के लिए आई किसी प्रौढ़ा स्त्री का भजन-पूजन बड़े मगन भाव से चल रहा है। नन्हीं-नन्हीं लहरियो की तरह सोहर के कटे-कटे से पांरपरिक बोल कभी गुनगुनाहट के तौर पर, तो कभी अत्यंत मुखर होकर सुनाई पड़ रहे हैं-

गंगा के ऊँच अररवा तिरयवा एक तप करे होऽ
 गंगा अपनी लहर हमें दिहितू त हम डूब मरिती होऽ

गंगा के ऊँचे तट पर खड़ी भोजपुर की तिरिया का यह कैसा तप...? मातेश्वरी गंगे ! अपने आँचल की ओट में, अपनी लहरों में हमें समेट लो। हमें डूब मरने की शक्ति दो....माँ।
अपने जीवन को स्वेच्छा से निःशेष कर देने की इतनी कातर प्रार्थना ? पर क्यों ? किसलिए ?
समस्त भोजपुर जनपद के लोक संस्कारों में प्राण सत्त्व की तरह बंसी गंगा की एक बूँद का श्रद्धा-भक्ति सहित आचमन करके अपना निर्जल व्रत तोड़नेवाली जागेश्वरी आजी से पूछना होगा।

नंदिनी जानती है, आजी उसके अटपटे सवालों से कैसी अस्त-व्यस्त हो उठती हैं। चश्मे की कमानी मोड़कर रुईदास कपड़ेवाले खोल में जतन से रखती रेहल सरकाती खुरदुरे कंबल की आसनी बिछा देती हैं-
हमें सब पता है, तुझे शांत नहीं कर दिया तो आज बालकांड का पारायण संभव नहीं-आ बैठ जा धिया, अच्छा बोल, ध्यान से सुनेगी; फिर से भूल तो नहीं जाएगी....!

और नंदिनी की सारी देह में कान ही कान उग आते हैं जैसे-
त्रेतायुग की कथा है यह...। रानी कौसल्या को कोई संतान नहीं थी-
रनिवास के सारी अयोध्या के ताने-तिश्ने झेलती दुःख भरी रानी ने निश्चय किया-माँ गंगा की लहर के सिवा अब दूसरा कोई आसरा नहीं वे जानती हैं, गंगा मइया की कृपा जनम-जनम फलदायी है, उनका तप कभी वृथा नहीं जाएगा। पीली साड़ी, लाल नग जड़ी नाक की बड़ी सी नथ, कानों में चाँद सूरज जड़े कर्णफूल...माथे पर गुलाबी चादर का घूँघट ! गंगा की झर-झर झहरती बीचधार में रानी अविचल खड़ी हैं-
माता अपना दया-दान दो नहीं तो अपनी शरण में ले लो...!
गंगा की दूधिया धार पर एक दिव्य देह हिलोर लेती उभरती है-जाओ, बेटी, तुम्हारा तप पूरा होगा। चैत्र की नवमी तिथि को तुम्हारी कोख भरेगी। सैकड़ों सूर्यों का प्रकाश बालक के मुख पर होगा। उसे लेकर फिर हमारे पास आना।
और जागेश्वरी आजी की बरौनियों पर अटके करुणा के दो तरल मोती उनके कंठ की कोमलता में झिलमिला उठते हैं-

जनि रोएऽ ए तरिया, जनि रोअऽ जनि रोइ मरहु होऽ
तिरिया चइत के शुभ नवमी श्री राम जनम लीहें हो...

गंगाजी की मनौती मानती, लहरों को बार-बार सीस नवाती रानी प्रसन्न मन बिदा होती हैं....

आइबि ए गंगा आइबि मनसा पुजाइबि होऽ
गंगा मइया गोदिया में लिहले बलकवा पूजन हम करबि हो...

और जागेश्वरी आजी...! रेहल पर धरी मानस पोथी को बेठन में सहेजती दहिवर की मटमैली रोशनीवाली अपनी कोठरी में बैठी स्मृतियों की न जाने किन लहरों में डूबने। उतरने लगती हैं।

गंगा असनान के आपन एगो सुफल होला बचियाऽ।

भजन और जप के स्वर जैसे साधक को स्वतः साध्य में बदल जाने की महाशक्ति देते हों; कुछ उसी प्रकार आजी की दुबली-पतली श्यामवर्ण काया गंगाजी के घाट का प्रतिरूप बन जाती है-
आपको डर नहीं लगता आजी ! अच्छा बताइए तो उफनती धारा के उलटे बहाव में भी आप कैसे तैरती रह जाती हैं ?
भोजपुर के तरिया जनम बचियाऽ,-जिनगी बहाव के उलटा बहे खातिर साँस साधत कटेला। अइसन उलटवाँसी राग गावे में कम खतरा बा ?
मँझरिया गाँव की जागेश्वरी आजी के अनुभवों की आँच में दिन-दिन परिपक्व होती नंदिनी को अच्छी तरह मालूम है-बड़का बाबा की आवाज सिद्दू लोहार की भाथी बनकर बाहरी दालान से आजी की चौखट पर मौके-बेमौके घनघना उठती है-

 
 

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