लेख-निबंध >> जिन्दगी मुसकरायी जिन्दगी मुसकरायीकन्हैयालाल मिश्र
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पाठक इन निबन्धों में अपने अच्छे और सफल जीवन की खोज कर सकते हैं
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
मनुष्य जंगल में जन्मा, वहीं पनपा और रहता है। कुछ पेड़, कुछ झरने, कुछ
कन्दराएँ, बस, यही इतनी-सी उसकी दुनिया !
गुट बने, क़बीले आये, गधे-घोड़ों का उपयोग हुआ और मनुष्य की दुनिया कुछ चौड़ी हो गयी!
यों ही वह नगर और प्रदेश को पार करता देशवासी हुआ-देश की सीमा तक फैल गया!
भारत के भिक्षुओं, हुएनसांग-जैसे यात्रियों और कोलम्बस-जैसे वीर खोजियों की जय कि वे मनुष्य को विश्व का नागरिक बना गये !
भारत के ज्योतिषाचार्यों का अभिनन्दन की उन्होंने धरती पर जीते-जागते मनुष्यों को आकाश का परिचय ही नहीं दिया, उसके साथ उनका जीवन सूत्र भी जोड़ दिया!
क्या मनुष्य की यह यात्रा यहाँ पूर्ण हो गयी ? ना, यह यात्रा तब पूर्ण होगी, जब धरती के मनुष्य का आकाश के वासियों से, लोक का परलोक से सीधा, साक्षात् और साधारण-आना-जाना, मिलना-जुलना-सम्बन्ध जुड़ जाएगा ! और तभी किसी दिन होगा यह भी सम्भव है कि इस लोक की होगी कोई कन्या और उस लोक का कोई कुमार और वे दोनों परस्पर विवाह-सूत्र में बँध लोक-परलोक की एकता के प्रथम प्रतिनिधि होंगे। तब लोक के लिए परलोक, न भय का कारण रहेगा न प्रलोभन का ! बस, मेरी यह कृति हृदय के सम्पूर्ण प्यार और सुख के साथ उसी प्रथम अन्तर्लोक-दम्पति को सादर समर्पित !
गुट बने, क़बीले आये, गधे-घोड़ों का उपयोग हुआ और मनुष्य की दुनिया कुछ चौड़ी हो गयी!
यों ही वह नगर और प्रदेश को पार करता देशवासी हुआ-देश की सीमा तक फैल गया!
भारत के भिक्षुओं, हुएनसांग-जैसे यात्रियों और कोलम्बस-जैसे वीर खोजियों की जय कि वे मनुष्य को विश्व का नागरिक बना गये !
भारत के ज्योतिषाचार्यों का अभिनन्दन की उन्होंने धरती पर जीते-जागते मनुष्यों को आकाश का परिचय ही नहीं दिया, उसके साथ उनका जीवन सूत्र भी जोड़ दिया!
क्या मनुष्य की यह यात्रा यहाँ पूर्ण हो गयी ? ना, यह यात्रा तब पूर्ण होगी, जब धरती के मनुष्य का आकाश के वासियों से, लोक का परलोक से सीधा, साक्षात् और साधारण-आना-जाना, मिलना-जुलना-सम्बन्ध जुड़ जाएगा ! और तभी किसी दिन होगा यह भी सम्भव है कि इस लोक की होगी कोई कन्या और उस लोक का कोई कुमार और वे दोनों परस्पर विवाह-सूत्र में बँध लोक-परलोक की एकता के प्रथम प्रतिनिधि होंगे। तब लोक के लिए परलोक, न भय का कारण रहेगा न प्रलोभन का ! बस, मेरी यह कृति हृदय के सम्पूर्ण प्यार और सुख के साथ उसी प्रथम अन्तर्लोक-दम्पति को सादर समर्पित !
पृष्ठभूमि
पहले संस्करण से
भाई ब्रह्मदत्त शर्मा ‘शिशु’ जन्मजात कवि थे। वे कवि
थे, गायक
थे, लिखते और गाकर सुनाते। समा बँध जाता और हम लोग एक स्वर्गीय विभूति की
तरह उन्हें टुकर-टुकर देखा करते, देखते रह जाते।
जी में आता, एक गहरी मसमसाहट नसों में उठती कि काश, मैं भी लिख पाता ऐसा ही कुछ, पर कुछ लिख न पाता।
एक दिन एक सुन्दर-सी कॉपी खरीदी और उसमें शिशु जी की कुछ कविताएँ लिख लीं। लिख नहीं सकता, तो पढ़ तो सकता था। जाने कितनी बार मैं उन्हें पढ़ता-पढ़ता झूम उठता, भूल जाता कि ये मेरी नहीं हैं और यह झूम ढ़ीली पड़ती, तो तड़फ उठता कि हाय ये मेरी नहीं हैं। एक अजीब नशा था, जो चढ़ाव में हाथों उठाता, तो उतार में हाथों पटकता भी।
सन् 1924, सर्दियों की रात, देवीकुण्ड का एक जंगल, दो बजे का समय और मैं संस्कृत की मध्यमा परीक्षा का विद्यार्थी। सब सोए पड़े और मैं जाग रहा। उठकर बाहर आया तो एक अजब सन्नाटा। लौटकर फिर कोठरी में आया, तो पढ़ने में जी न लगा। गले में गुनगुनाहट, दिमाग में जाने क्या और यह मैंने लिखी आठ-दस पंक्तियाँ। लय कुछ ग़ज़ल की-सी, भाव कुछ प्रार्थना के-से। आज सोचता हूँ, तो मामूली-सी तुकबन्दी, पर उस दिन तो उसे लिखकर, मैं कालीदास, मैं रवीन्द्रनाथ और मैं स्वर्ग का इन्द्र ! जाने कितनी बार मैंने उन पंक्तियों को गाया, दोहराया, गुनगुनाया, देखा, पढ़ा, चूमा और उछाल दिया। ओह, मैं अब कवि हूँ, कवि, मुझे क्या ज़रूरत कि मैं भाई साहब की कविताएँ कॉपी में नक़ल करूँ ? अब अपनी ही कविताएँ कॉपी में लिखूँगा।
एक काग़ज़ पर मैंने बहुत-बहुत साफ़ उसकी नक़ल की और एक पत्र के साथ लिफ़ाफ़े में रख, वह किसी के हाथों शिशु जी के पास भेज दी। दिल धड़कता रहा, पर उसी दिन उनका पत्र मुझे मिल गया।
बहुत खुश हुए थे भाई साहब, बहुत तारीफ की थी उन्होंने, मेरे भविष्य के मनसूबों से उनका मन भर उठा था और अन्त में उन्होंने जो कुछ लिखा था, उसका यह सार मुझे याद हैः ‘‘साहित्यिक की सफलता का रहस्य इस बात में नहीं है कि वह कितने अच्छे भाव संग्रह करता है, कितनी अच्छी तरह उन्हें लिखता है। भाव तो भगवान के हैं, आकाश से भरे हुए हैं। साहित्यिक की सफलता का रहस्य यह है कि वह अपने को कितना निर्मल, कितना सरस, कितना सरल बना पाता है, जिससे वह उन भावों को ग्रहण करने का पात्र बन सके। गाना तो रेकॉर्डों में भरा ही है, जिसका ग्रामोफोन जितना अच्छा होगा, उसका गाना उतना ही मधुर सुनाई देगा। तुम अपना ग्रामोफोन यानी मानस अच्छा रखो, गाना तो फिर खुद ही अच्छा होगा।’’
चिट्ठी पढ़कर उस दिन तो मैं मस्ता गया-पर आज सोचता हूँ, वह एक बालक को दी गयी थपथपी थी। अब मेरा हाल यह है कि विद्यार्थी पढ़ा करते अपना पाठ, मैं सोचा करता कविता की पंक्तियाँ, वे लिखते अपनी परीक्षा के कल्पित प्रश्नपत्र, मैं लिखता नयी कविताएँ-रात-दिन मुझे कविता की धुन लगी थी। मैंने सैकड़ो शब्दों में से चुनकर, अपना उपनाम भी रख लिया था-प्रभाकर, क्योंकि मैं अपनी दृष्टि में उन दिनों सूर्य के समान तेजस्वी था। इस तरह कविताओं से मेरी कॉपी भरती गयी, पढ़ाई का चस्का कम होता गया और मैं निहायत शान के साथ जीवन में पहली बार फ़ेल हो गया था-पर सच कहूँ, मेरी दृष्टि में कविताओं का तब इतना महत्त्व था कि अपना फ़ेल होना, मुझे ज़रा भी न अख़रा और अपनी बैलेन्सशीट को मैं लाभ की ही मानता रहा।
एक दिन मैं उन कविताओं को एक जगह करने के लिए स्वयं एक कॉपी बनायी और रंगीन कागजों के कई फूल काटकर उस पर चिपकाए। शिशु जी अपनी कॉपियों में भूमिका भी लिखा करते थे। मैंने भी भूमिका लिखनी शुरू की, तो कलम ऐसी चली कि पूरे आठ पेज लिख गया। इन पृष्ठों में मेरी कविताओं की पृष्ठभूमि और जाने क्या-क्या बताया था। यह भूमिका पढ़कर मैंने स्वयं अनुभव किया मेरा गद्य मेरे पद्य से तगड़ा है और इस तरह अब मैं पद्य के साथ-साथ गद्य भी लिखने लगा। इन्हीं दिनों मैंने श्री चण्डीप्रसाद ‘हृदयेश’ का ‘नन्दननिकुंज’ पढ़ा, तो मैं उसकी भाषा-तरंगों में बह-बह गया और मेरी भाषा पर उसका प्रभाव भी पड़ा-वह मँज चली और मुझे तो अपने लेख बहुत अच्छे लगने लगे।
इस सफलता के साथ मुझ पर एक मुसीबत भी आ बरसी। मैं अब अपनी दृष्टि में एक महान् लेखक बनता जा रहा था, पर कोई सम्पादक मुझे अपने पुट्ठे हाथ न रखने देता था। मैं बहुत साफ़ लिखकर अपनी रचना उन्हें भेजता। उत्तर के लिए टिकट रखता। साथ के पत्र में सम्पादक जी को प्रसन्न करने के लिए भिन्न-भिन्न प्रयोग करता।
उदाहरण के लिए, मैं पत्र की वी.पी भेजने को लिखता और उनके बहुत से ग्राहक बनाने का आश्वासन भी उन्हें देता। उनकी सम्पादन नीति को प्रामाणिक बताता, सम्पादन को असाधारण, दूसरे पत्रों से उसके पत्र की तुलना करके उनको श्रेष्ठ सिद्ध करता, उनके खास लेखों और पुरानी सम्पादकीय टिप्पणियों की प्रशंसा करता, अपने मित्रों से मैंने उनकी कब क्या तारीफ की या अपने किस भाषण में मैंने उनका ज़िक्र (कोरी गप्प !) किया और उसका श्रोताओं पर क्या प्रभाव पड़ा, यह सब लिखता। बिना जान-पहचान के ही झूठ-मूठ कई सम्पादकों को अपना मित्र बताता, वहाँ जो मेरी रचनाएँ छपने वाली हैं, उनका नामोल्लेख करता, मैं आजकल अपने नगर में साहित्यिक जागरण के लिए जी-तोड़ मेहनत कर रहा हूँ, उसकी झूठी तस्वीरें खींचता, सम्पादक का रोब ग़ालिब होता, तो उसकी खुशामद करता, उसे ही अपना निर्माता बताता कि कैसे उनके लेख-टिप्पणी से मेरा मानस-कपाट खुल गया है और तब संशोधन करके अपने लेख छापने की प्रार्थना करता, उनके पत्र के जो ग्राहक मैंने बनाए हैं, उनके नम्बर पते लिखता, एजेन्सी के नियम पूछता, नये लेखकों के सम्बन्ध में उनका कर्तव्य उन्हें बताता, अपने नगर में होने वाले किसी भावी महोत्सव में उन्हें सभापति बनाने की बात कहता, उनके नये वर्ष पर उन्हें बधाई देता और संक्षेप में उनकी हर अनुमानित कमजोरी पर सेक लगाता और अपनी हर कल्पित विशेषता की घोषणाएँ छौंकता-यह भी लिखता कि मैं शीघ्र ही स्वयं एक पत्र निकालने का आयोजन कर रहा हूँ, जिसका पहला लेख आपसे ही लिखाऊँगा।
ग़रज़ और लिप्सा में फँसकर आदमी कितना धूर्त हो जाता है, पर यह धूर्तता बेकार थी, क्योंकि इस सबका जो फल मुझे मिलता था, वह था ‘रिटर्न विद थैंक्स’ धन्यवाद के साथ मेरी रचना वापस आ जाती थी।
मैं उसे देखता, काँप उठता, दुखी होता, कभी-कभी रो भी पड़ता, मेरा दिल टूट जाता, मुझे गुस्सा आता, मैं आप-ही-आप गालियाँ देता, कोसता, कार्यालय में पहुँचकर सम्पादक के मुँह पर उसकी दवात उलटने के मंसूबे बाँधता, अपनी रचना फाड़ डालता, भोजन न करता, गुम-सुम पड़ा रहता और अन्त में फिर अपने को समेटता, सँभालता और किसी दूसरे सम्पादक पर निशाना बाँधता।
मेरा पहला निशाना जहाँ फिट बैठा, वे थे परम श्रद्धेय श्री गणेशशंकर विद्यार्थी।
‘प्रताप’ में आयुर्वेद की उन्नति पर एक आचार्य का लेख छपा। उस पर किसी दूसरे विद्वान ने एक पूरक नोट लिखा। मैं आज सोचता हूँ कि मुझे न आयुर्वेद के सींग का पता, न पूँछ का, पर उन दिनों तो मैं सर्वज्ञ था। मैंने उस पर एक तीसरा लेख लिखा और ‘प्रताप’ में छपने को भेज दिया। क्या कहूँ, मेरी ज़िन्दगी का वह सबसे बेचैन सप्ताह था, क्योंकि मैंने गणेशशंकर जी की इतनी प्रशंसा और खुशामद की थी कि कलम ही तोड़ दी थी। जाने कितनी बार मैंने उस दिन के बारे में सोचा, दूसरों से पूछा तब कहीं मुश्किल तमाम सोमवार आया। डाकख़ाने गया, ‘प्रताप’ आया, बाँसों उछलते दिल उसे खोला, खोजा, पर उसमें कहीं मेरा लेख न था। जीवन की सबसे बड़ी असफलता थी-ऐसा धक्का मुझे फिर बाद में कभी नहीं लगा। धरती घूम गयी; आकाश टूट गिरा और घर आया, तो हिचकियों रोया।
रोकर सो गया, सोकर उठा, तो वही उधेड़-बुन। दोनों लेख पढ़कर अपना लेख पढ़ा और क्या बताऊँ, मुझे तो अपना ही लेख सर्वोत्तम जँचा। मैंने उसकी फिर नक़ल की और गणेशशंकर जी को एक पत्र लिखा। इस पत्र में उनकी महत्ता के गुब्बारे थे, तो उनके सहकारी सम्पादकों की अज्ञानता के नारे भी थे। कहा था: वे लोग रचनाओं का महत्त्व नहीं समझते, सिर्फ़ प्रसिद्ध लेखकों का नाम देखकर ही लेख-वेख छाप देते हैं। सावधान किया गया था कि इससे आपके यश में धब्बा लगता है और ‘प्रताप’ को बहुत नुकसान होता है। अपने लेख को पूर्ण उपयोगी और सर्वोत्तम कहा गया था। यह पत्र रजिस्ट्री से उनके नाम भेजा गया था, आशा है यह पत्र आपको निजी समय में मिलेगा और मुझे अपनी सहकारियों के अत्याचार से बचा सकेंगे। उस समय यद्यपि बेचारे कन्हैयालाल जी मध्यमा के चतुर्थ खण्ड की परीक्षा में फ़ेल हुए विद्वान थे, पर अपने प्रहार की पूरी शक्ति देने के लिए लेख के नीचे लिखा गया था , लेखक कन्हैयालाल मिश्र शास्त्री।
लिफ़ाफ़ा भेजा, तो साँस आया-‘अब देखूँगा कि ये टुटपुँजिए सहकारी कैसे मेरा लेख रोकते हैं !
पाँचवें दिन एक कार्ड आया। छोटे-छोटे अक्षरों में स्वयं गणेशशंकर जी ने लिखा था, तुम्हारी बातों से सहमत नहीं हूँ, पर तुम्हारे उत्साह की क़द्र करता हूँ। लेख ठीक करके दे दिया है, इसी अंक में जा रहा है। मैं भविष्यवाणी करता हूँ कि तुम शीघ्र ही एक प्रसिद्ध लेखक बन जाओगे।
रोम-रोम में खुशी फूट निकली और सोमवार तो अगला युग ही हो गया। डाकखाने गया, ‘प्रताप’ आया, वहीं खोला, अपना छपा नाम देखा और ‘प्रताप’ का वह अंक अगले सप्ताह तक अधिक-से-अधिक जितने आदमियों को दिखा सकता था, दिखाता फिरा।
मुझे आज तक खूब याद है-अट्ठाइस रुपये के टिकट खराब करने के बाद मेरी पहली पंक्तियाँ छपी थीं, पर मुझे अब कोई दुःख न था-मेरी रकम सूदसहित वसूल हो चुकी थी।
‘प्रताप’ में नाम छपने से छपास का जो बुखार कुछ उतर गया था, वह पूरे ज़ोर से फिर चढ़ आया। अब सम्पादकों पर रोब जमाने की एक नयी तरकीब मेरे हाथ आ गयी थी--‘प्रताप’ में आपने मेरा लेख पढ़ा होगा और इससे भी बढ़कर कभी-कभी तो यहाँ तक-‘प्रताप’ में तो आप मेरे लेख पढ़ते ही होंगें।
अनुभव ने बताया कि ‘प्रताप’ में लेख छपने का दूसरे सम्पादकों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा और इससे वे मुझे लेखक मानने को तैयार न हुए। मैं इससे बहुत परेशान था कि मेरी कविताएँ और लेख जब इतने उत्तम हैं, तो फिर ये सम्पादक मेरा व्यापक बाईकाट क्यों किये जा रहे हैं ?
उन्हीं दिनों मेरे साहित्यिक जीवन की एक महान घटना हुई कि ‘माधुरी’ में उर्दू के महाकवि अकबर पर एक लेख छपा और उसी में उनका शेर भी ,
‘‘लगी चहकने जहाँ भी बुलबुल, हुआ वहीं पर जमाल पैदा,
कभी नहीं क़द्रदाँ की ‘अकबर’ करे तो कोई कमाल पैदा !’’
इन पंक्तियों ने मुझे बिजली के सैकड़ों धक्कों से झनझना दिया और उस दिन मैंने अपनी जाने कितनी कविताएँ और लेख फाड़ डाले। जोश मुझमें इतना कि प्रत्येक को फाड़ते समय कहा, ‘‘तुम कुछ नहीं हो, तुम घास हो, तुममें कमाल नहीं है, मुझे तुम्हारी ज़रूरत नहीं, मैं सिर्फ़ कमाल की ही चीज़ें चाहता हूँ।’’
इन रचनाओं को फाड़कर मैंने लेखक के जीवन का एक जो महामन्त्र सीखा, वह यह है, रचनाओं को पाकर नहीं फाड़कर ही नया लेखक आगे बढ़ता है।’’
अब मुझे कमाल करना था; पर कमाल बेचारे का कोई अता-पता मुझे मालूम न था। यह भी मेरा एक लड़कपन था, पर इसमें जोश के साथ होश भी थी कि अब मुझे छपने के लिए नहीं, लिखने के लिए लिखना था।
एक दिन खेतों पर गया, तो अजब हरियाली थी। उससे प्रेरणा मिली और हृदयेश जी की शैली में मैंने एक गद्य-काव्य लिखा, कई पेज का। आज सोचता हूँ उसमें गद्य-काव्य और स्कैच का समन्वय था।
इसे लिखकर रख दिया और तीन-चार दिन बाद फिर पढ़ा और इस तरह कि मैं एक सम्पादक बन गया हूँ और मेरा महत्त्व इस बात में है कि इस लेखक को मैं उसकी त्रुटियाँ बता सकूँ।
यों एक पत्र के कल्पित सम्पादकत्व से मेरी सम्पादन कला का आरम्भ हुआ। आज सोचता हूँ, तो हँस पड़ता हूँ कि मैं उस दिन सम्पादक के पोज में न था, यथार्थ में सम्पादक था। मुझे अनुभव हो रहा था कि मैं हूँ सम्पादक श्री कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’ और मेरे सामने ही बैठा है-यह एक नया लेखक कन्हैयालाल प्रभाकर; हूँ, जिसे अभी कुछ भी नहीं आता !
मैं वह गद्य-काव्य पढ़ता जाता और उसकी कमियाँ मुझे सूझती जातीं।
मैं अत्यन्त गौरव के भाव से उन्हें बताता जाता, नये सुझाव भी देता और कभी-कभी बेचारे लेखक पर बरस भी पड़ता, ‘‘यह लेखन है जनाब, कोई घासखुदी नहीं। यों जल्दी करेंगे और भरत भरेंगे, तो तीन कौड़ी के रह जायेंगे आप !’’
आश्चर्य है कि मेरे सुझाव उपयोगी थे और उनके अनुसार मैंने उसे दोबारा लिखा, तो उसमें एक नयी चमक आ गयी। दो-तीन दिन बाद मैं फिर उस खेत पर गया और वहाँ बैठकर मैंने उस लेख को इस तरह पढ़ा कि जैसे किसी दूसरे को सुना रहा हूँ, तो दो नये फल निकले। पहला यह कि खेत के वातावरण और लेख के वर्णन में जो अन्तर था, वह मेरे सामने आ गया और दूसरा यह कि कई जगह मुझे खटका कि यहाँ अभी कमी है। मैंने उसे तीसरी बार लिखा, तो ये सुधार तो हुए ही, उसका अन्त भी एक नये रूप में बदल गया और इस तरह वह लेख पूरी तरह खिल उठा।
अब मैंने उसे फिर अपने कल्पित सम्पादक को दिखाया, तो उन्हें पसन्द आ गया और वे उसमें कोई नया संशोधन न कर सके। लेख पास हो गया और मैंने उसे उठाकर रख दिया। छपने को तो अब कहीं भेजना ही न था।
इसके बाद मैंने दो कहानियाँ लिखीं और तीन कविताएँ, पर वे मुझे न जँचीं, न मेरे सम्पादक को, तो मैंने फाड़ फेंका। मुझे इससे ज़रा भी दुःख न हुआ।
कोई दो सप्ताह बाद मैंने अपना तीन बार लिखा वह लेख एक मित्र को सुनाया, तो वह प्रसन्न हुए, पर मुझे कई जगह भाषा में खुदरापन ख़ुद अख़रा, जिसे चौथी नक़ल में मैंने नयी चिकनाई से ढँक दिया।
इस तरह-कमाल तक पहुँचने के लिए मैंने जो सीढ़ियाँ पार कीं, वे ये थीं, छपाने के लिए कभी मत लिखो, सिर्फ़ लिखने के लिए लिखो।
लिखकर स्वयं एक सम्पादक की दृष्टि से पढ़ो और जो कमियाँ दिखाई दें उन्हें फिर सुधारो।
दूसरी नक़ल के बाद उसे उठाकर रख दो और भूल जाओ। कुछ दिन बाद फिर पढ़ो और जो नयीं बातें सूझें-अवश्य सूझेंगी-उन्हें उसमें बढ़ा दो।
अब उसे फिर रख दो और कुछ दिन बाद उसे अपने मित्र को सुनाओ। वे यदि कुछ सुझाव दें और ये अपने को जँचे या सुनाते समय स्वयं कुछ नयी बातें सूझें-अवश्य सूझेंगी-उन्हें फिर से लेख में बढ़ा दो।
यदि लिखकर पढ़ते समय ही यह सूझे कि यह कुछ नहीं है, तो उसे तुरन्त फाड़कर फेंक दो।
अब मैं अपने ही विद्यालय में द्वितियाध्यापक था और इसी में मेरे विद्यार्थी जीवन के साथी श्री भगवत्प्रसाद शुक्ल ‘सनातन’ (अब स्वर्गीय) पढ़ रहे थे। मेरे ही सम्पर्क में वे कविता लिखने लगे थे-वही तुकबन्दियाँ !
एक दिन उन्होंने मुझे इटावा से प्रकाशित ‘ब्राह्मण-सर्वस्व’ का एक अंक दिखाया। इसमें उनकी एक संस्कृत कविता छपी थी, देव-प्रार्थना। यह उनका पहला प्रकाशन था, इसलिए आज वे नशे में थे और यह आठ-दस दिन बाद बोतलों में पहुँच गया, जब उस कविता पर पिण्डौरी के महन्त ने पाँच रुपये मनिऑर्डर से पुरस्कार स्वरूप भेजे ! उनका दिल बढ़ा और एक नयी कविता उनकी उसी पत्र में और छपी।
मेरा एक लेख उन्होंने बिना मुझे बताए, निकाल कर ‘ब्राह्मण-सर्वस्व’ को भेज दिया और वह उसी मास छप गया। अंक के साथ ही उसके सम्पादक श्री ब्रह्मदेव शास्त्री (अब स्वर्गीय) का पत्र भी आया कि आप हर महीने एक लेख लिखें। मेरी लेखन-शैली की प्रशंसा भी थी। सम्पादकों से प्रर्थना करने का तो मुझे अनुभव था, पर मेरे जीवन में यह नयी बात थी कि कोई सम्पादक मुझसे प्रार्थना करे। उस पत्र ने मुझे फिर नशे में भर दिया और कई दिन मैं उछला फिरा। अपने एकान्त में कई बार मैंने कहा, ओहो, अब तो होने लगा है कमाल, और हर महीने में एक लेख मेरा ‘ब्राह्मण-सर्वस्व’ में छपने लगा
इन्हीं दिनों एक और घटना हुई कि मेरे नगर के स्कूल में श्री गंगाप्रसाद ‘प्रेम’ प्रधानाध्यापक होकर आये। बढ़े हुए बाल, खादी का कुरता, चिनी हुई खादी की धोती, हाथ में छड़ी, माथे पर चन्दन की बिन्दी और अत्यन्त मधुर बोल, वे मेरे नगर में एक नयी चमक-सी साथ लिए आये।
मैं उनसे मिला, सम्पर्क में आया और बन्धुत्व पा गया। वे हिन्दी के श्रेष्ठ कवि, झूम-झूम अपनी कविताएँ सुनाते और मैं आकाश में उड़ा-उड़ा उन्हें सुनता। मेरी कविताएँ मेरी दृष्टि में अब घास थीं और मैं कविता के एक नये मोड़ पर खड़ा था। प्रभाव को ग्रहण करने की मुझमें शक्ति थी, कमाल की मुझे प्यास थी, प्रयत्नों की मुझे आदत थी। मैं पहले से बहुत सुन्दर कविताएँ लिखने लगा। मैं लिखता, वे उसमें काँट-छाँट करते, वे निखर आतीं। मैं झूमकर उन्हें कवि-सम्मेलन में पढ़ता और अपने कानों अपनी प्रशंसा सुनता।
अब मैं नये लेखक के लिए ये तीन नयी सीढ़ियाँ और पा चुका था, आरम्भ में कभी बड़े पात्रों के दरवाजे़ न झाँको और जब रचनाओं में कुछ जान आने लगे तो छोटे-छोटे पत्रों में ही उन्हें भेजो।
दूसरे लेखकों के लेखों को एक-दो-तीन बार पढ़कर, फिर उन्हें बिना देखे, अपने ढंग पर उन्हें लिखो और तब असल से मिलाकर देखो कि क्या कमी रह गयी है और बस उन्हें फाड़ फेंको।
किसी श्रेष्ठ कवि से सम्पर्क बनाओ, उन्हें अपनी रचना दिखाओ, अपनी नम्रता, अहंकार-हीनता और सेवा से उन्हें ठीक कराओ।
‘ब्राह्मण-सर्वस्व’ में मेरे लेख क्या छपने लगे, मैं उससे लिपट ही गया। दूसरे वर्ष मैंने उसमें एक नया स्तम्भ खोल दिया, स्वर्ण-संकलन। इसमें मैं दूसरे पत्रों में प्रकाशित श्रेष्ठ लेखों का या उनके सारांश का संकलन करता और इस तरह पत्र को अच्छी सामग्री मिल जाती। कभी-कभी छोटे नोट भी मैं लिख भेजता और वे मेरे कहने पर बिना नाम दिए सम्पादकीय स्तंभ में छप जाते।
‘ब्राह्मण-सर्वस्व’ को प्रकाशित हुए पच्चीस वर्ष हो रहे थे। मैंने शास्त्री जी को लिखा कि वे इस अवसर पर रजत-जयंती-अंक प्रकाशित करें। इस अंक की लेख सूची, किस लेखक से कौन लेख लिया जाए और लेखकों को क्या पत्र लिखा जाए, यह सब मैंने लिख भेजा। किस सज्जन से, किस तरह, कितनी आर्थिक सहायता मिल सकती है, यह भी लिखा।
उनका उत्तर आया कि उन्हीं दिनों मेरी पुत्री का विवाह है, इसलिए मैं छपाई का प्रबन्ध तो कर सकता हूँ, पर सम्पादन मेरे वश का नहीं। मैंने उन्हें लिखा कि आप कार्य आरम्भ करें, मैं पूरा सहयोग दूँगा। ऐसा अवसर फिर न आयेगा, इसलिए यह विशेषांक अवश्य निकालिए।
उनका कोई उत्तर न आया, तो मैंने मान लिया कि वे तैयार नहीं, पर एक दिन डाक से मुझे सौ-सवा सौ छपे पत्रों का एक पैकेट मिला। यह रजत-जयंती-अंक के लिए लेखकों से लेख माँगने का वही पत्र था, जो मैंने शास्त्री जी को तैयार करके भेजा था। इस पर विषय-सूची भी मेरे ही वाली थी, पर आश्चर्य यह कि नीचे रजत-जयंती-अंक के सम्पादक की जगह मेरा नाम छपा था। मैं देखकर धक रह गया। यह काम मेरी योग्यता और शक्ति का कहाँ था ? मैं क्या जानूँ सम्पादन ? अभी तो मैं लेखक भी न बन पाया था, पर मित्रों ने हिम्मत बँधायी और इसमें मैं लिपट गया।
एक-एक लेखक को मैंने लिखा और इतने तकाजे किये कि लेख दिये बिना पीछा ही न छोड़ा। सच यह है कि मुझ पर अब सम्पादन का भूत सवार था और लेखकों का सम्पादन का भूत। कोई दो महीने के घनघोर परिश्रम से मैंने जो सामग्री संग्रह की, उसका बोझ छह सेर से ऊपर था।
अब यह अस्त-व्यस्त सामग्री मेरे पास थी। पूरे एक महीने में उस पर फिर जुटा और उसकी एक-एक पंक्ति पर मैंने ध्यान दिया। मुझे आश्चर्य हुआ कि बड़े-बड़े लेखकों की भाषा में शिथिलता थी। मैंने बेधड़क होकर काट-छाँट की और तब अनेक स्तंभ बनाकर उसमें उस सामग्री को बाँटा। हर एक स्तंभ की विषय-सूची अलग बनायी और हरेक लेख पर संक्षेप में लेखक का परिचय अपने ढंग पर दिया। ये परिचय मेरी उस समय की स्थिति को देखते हुए असाधारण थे—अनेक लेखकों ने बाद में उनकी प्रशंसा की थी, यह मुझे याद है।
यह विशेषांक असाधारण रूप से सफल रहा और इससे मैंने कमाल पैदा करने का जो नया सूत्र पाया, वह यह था, परिश्रम ही सफलता की कुंजी है और वही प्रतिभा का पिता है। सम्भव है प्रतिभा कोई बड़ी चीज़ हो और वह ईश्वर के यहाँ से आती हो, पर नये लेखक को उसकी प्रतीक्षा नहीं, अपने परिश्रम पर ही भरोसा करना चाहिए।
इस विशेषांक के सम्पादन से हिन्दी की दुनिया में मेरा परिचय तो बढ़ा ही, मेरा आत्मविश्वास भी दृढ़ हो गया। इसके कुछ दिन बाद मैंने ‘गढ़देश’ के एक विशेषांक का सम्पादन किया और अप्रैल 1930 में तो मैं ही ‘गढ़देश’ साप्ताहिक का सम्पादक बनाया गया। कोई चार महीने मैंने यह काम किया और फिर 1930 के कांग्रेस के आन्दोलन में जेल चला गया।
यहाँ तक आते-आते मैंने यह समझ लिया कि मेरा मन कविता में नहीं उतरता और कविता को नमस्कार कर मैंने उसका लिखना ही बन्द कर दिया। इससे मुझे यह लाभ हुआ कि मेरा सारा ध्यान एक तरफ़ सिमट आया और इस तरह कमाल पैदा करने का यह एक नया सूत्र मेरे हाथ लगा, कभी फ़ालतू चीज़ न लिखो, वही लिखो जिसमें पूरा मन लगे, पूरा रस मिले और पूरी डुबकी आये।
अब मैं अपने साहित्यिक जीवन के चौराहे पर था। 1963 की जेल यात्रा में मुझे बहुत ऊँचे मनुष्यों का सम्पर्क मिला और मैंने इस बीच काफ़ी पढ़ा भी। इस जेल-यात्रा में मेरे साहित्यिक जीवन में जो नयी बात हुई, वह थी यह कि सहारनपुर जेल के खेतों पर बैठकर मैंने अपने पिता के संस्मरण लिखे, कोई साठ-सत्तर पेजों में और फ़ैजाबाद पहुँच कर कुछ ऐसे लेख लिखे, जिन्हें बाद में श्री बनारसीदास चतुर्वेदी ने स्कैच बताया। एक तस्वीर के दो पहलू और मोती इनमें मुख्य हैं। इस तरह मेरी कलम को एक नयी सूझ मिली। मैं इसे यों कहता हूँ कि मेरा कवित्व मेरे गद्य में ही समा गया। जेल में लंबी बीमारी के कारण मुझे एकान्त मिला, उसमें मैंने यह निश्चय किया कि मैं एक मिश्नरी पत्रकार के रूप में ही अपनी सर्वोत्तम शक्तियों का राष्ट्र के लिए उपयोग करूँगा, क्योंकि प्लूरिसी ने मुझे देहातों की दौड़-धूप के लिए अयोग्य ही कर दिया था और साहित्य-विहीन राष्ट्रसेवा तो मेरे लिए सदा से ही अभिशाप-सी थी।
वहीं जेल में एक दिन मैंने ‘प्रताप’-सम्पादक पण्डित बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ से कहा, ‘‘मैं जेल से छूटकर आपके ‘प्रताप’ में रहूँगा।’’ वे मेरे प्रति सदैव ममता से ओतप्रोत, पर एकदम से बोले, ‘‘ना, हरगिज़ नहीं !’’
मुझे गहरा धक्का लगा और सँभलकर ही मैं पूछ पाया, ‘‘क्यों पण्डित जी ?’’ बोले : ‘‘वहाँ रहोगे तो हम तुम्हें खा जायेंगे ?’’ मैं खोया-सा बिना किसी प्रश्न के एक प्रश्न-चिह्न ही बन गया, तो बोले, ‘‘हाँ-हाँ, पुराना नियम है कि बड़ी मछली छोटी मछली को खाकर पनपती है। ‘प्रताप’-में तुम आओ, बहुत खुशी, पर इससे हम पनपेंगे इससे तुम रल जाओगे। तुम एक स्वतंत्र पत्रकार के रूप में सामने आओ। मैंने खूब देख लिया, तुममें इतनी शक्ति है कि तुम सफल हो जाओगे।’’
मेरे भावी जीवन में पत्रकार-कला का जो रूप स्फुटित हुआ, उसकी नींव फ़ैजाबाद जेल में नवीन जी के इसी इण्टरव्यू ने रखी थी, यह स्मरण कर मैं सदा मन-ही-मन उनका अभिनन्दन किया करता हूँ।
अपने स्कैच और संस्मरणों की कलम को माँजने में मैंने बहुत परिश्रम किया। पहले तो मैंने यह अध्ययन किया कि किस बड़े लेखक में क्या विशेषता है और फिर यह कि मैं अपनी क़लम में उन विशेषताओं का कौन-सा अंश ले सकता हूँ। मुझ पर चार लेखकों का प्रभाव पड़ा। सबसे अधिक पण्डित बनारसीदास चतुर्वेदी का और उसके बाद पं. श्रीराम शर्मा, श्री इन्द्र विद्यावाचस्पति और श्री रामनाथ ‘सुमन’ का। श्री चतुर्वेदी जी का आरम्भ मुझे ग़ज़ब का लगा। शर्मा जी की प्रवाह-शक्ति और चित्रण सुमन’ जी के विश्लेषण-कौशल और इन्द्रजी की घटना-श्रृंखला के सामने मेरा सिर झुक गया।
इस अध्ययन की छाया में मैंने कोई सौ तरह के स्कैच और संस्मरण लिखे होंगे। लिखे, काटे, फिर लिखे और फाड़े। एक लेख को अधिक-से-अधिक चौदह बार तक मैंने हट-हटकर लिखा, यह मुझे याद है।
इस तरह मैं अच्छे संस्मरण लिखने लगा और कमाल पैदा करने का एक नया सूत्र मैंने रचा ! अपनी कमियों पर हमेशा आँख गड़ाये रहो और दूसरों की उन विशेषताओं पर गहरा ध्यान दो कि जिनसे उन्हें यश और सफलता मिली। तब उन विशेषताओं को अपनी कमियों के स्थान में प्रयत्न करके इस तरह लो कि वे भद्दे पैबन्द होकर नहीं, दूध में चीनी बनकर तुममें समा जायें।
आदरणीय श्री विश्वम्भरप्रसाद शर्मा ने सहारनपुर से साप्ताहिक ‘विकास’ प्रकाशित किया, तो कुछ जिम्मेदारियाँ मुझे सौंपीं। हर सप्ताह मैं उसमें कुछ लिखता रहा, पर उसके ‘आर्यसमाज अंक’ के काम में हाथ बटाने को मैं 1933 में सहानपुर क्या आया, बस ‘विकास’ का ही हो गया।
1934 में, ‘विकास’ को एक लिमिटेड संस्था का रूप दे दिया गया और यह निश्चय हुआ कि पाँच महीने के लिए ‘विकास’ का प्रकाशन स्थगित करके संस्था के हिस्से बेचने और अपने प्रेस लगाने में परिश्रम किया जाये।
इन पाँच महीनों में मैं घूमते-घूमते बराबर जिस बात को सोचता रहा वह यह थी कि ‘विकास’ अब कैसा निकले ? उसमें क्या-क्या रहे ? कैसे वह आदर्श साप्ताहिक का रूप ले ? और कैसे वह लोकप्रिय हो ?
मेरी परेशानी यह ‘लोकप्रिय’ था। यदि पत्र को अश्लील कहानियों, सस्ते वाद-विवादों और इसी तरह दूसरी सामग्री से सजाया जाये, तो पत्र तुरन्त लोकप्रिय हो सकता है, पर इस स्थिति में मेरे लिए उस पत्र से अपना सम्बन्ध रखने का क्या अर्थ ? मेरी तो रग-रग में गुलामी की पीड़ा थी, स्वतंत्रता की आग थी, मैं नौकरी के लिए तो पत्रकार बन रहा था।
तो वह रास्ता मुझे न चलना था। दूसरा मार्ग यह था कि हम ‘विकास’ को ऊँचे और आदर्श विचारों से भरें और उसमें अपनी आत्मा का सर्वश्रेष्ठ दान दें। यह रास्ता ठीक था, पर इसमें दिक़्क़त यह थी कि इस तरह के पत्र का कोई ग्राहक न था। यदि अपनी शक्ति के भरोसे हम उसे घाटे पर भी चलाने को तैयार हों, तो उससे हमारा यह लक्ष्य कहाँ पूर्ण होता था कि जनता में जागृति हो, नये विचार फैलें ?
सारे-सारे दिन मैं इस प्रश्न को सोचता रहता और रात को तारों की ओर ताकते-ताकते भी ! मुझे सपनों में भी यही उलझन रहती। मैं परेशान था और जब मुझे कुछ न सूझता, तो ऊबकर मैं सोचता, ‘‘छोड़ो जी, यह कलम का काम, चलो देहात में कहीं आश्रम बनाकर बैठें और भावी क्रान्ति की तैयारी करें।’’
पूनो की चाँदी-भरी रात में एक दिन मैं नहर पर जा लेटा और निश्चय कर लिया कि इस प्रश्न का निपटारा करके ही ऊठूँगा। मैं सोचता रहा। अचानक मेरा ध्यान नहर की धारा पर जा टिका। लहरें भी हैं, सरसता भी है, प्रवाह भी है, सन्तुलन भी है और गहराई भी। मुझे ऐसा लगा कि यह नहर मेरे भीतर बह रही है और मैं उसमें तैर भी रहा हूँ। तल्लीनता की इसी तैराई में अचानक चाँद-सा चमकता एक प्रश्न मेरे मन में उभरा, क्या लिखने की कोई ऐसी शैली नहीं हो सकती, जिसमें लहरें भी हों, सरसता भी हो, प्रवाह भी हो सन्तुलन भी हो और गहराई भी ?
प्रश्न क्या मन में उभरा, मैं ही उभरकर बैठ गया। मुझे राह मिल गयी थी। मैंने सोचा, मैं ऐसी शैली पर लिखूँगा, जिसमें यह सब हो और इस तरह हम जनता को वह देंगे जिसकी उसे ज़रूरत है, पर इस ढंग पर कि वह उसे ले सके, पचा सके, बिना कोई बोझ-भार उठाए। संक्षेप में, ज्ञान उपनिषद् का-सा पर अभिव्यक्ति लोरियों की-सी।
मुझमें इतना उल्लास था कि लगा, मैं नहर में तैरता हुआ ही एक मील दूर अपने घर पहुँचा हूँ।
प्रयोग आरम्भ किये। वही लिखना, काटना, बार-बार पढ़ना और फाड़ना। कोई दस-पन्द्रह लेख फाड़ने के बाद मैंने एक लेख लिखा झाड़ू लगाने की कला। इसका आरम्भ राष्ट्रपति वाशिंगटन के जीवन की एक घटना से हुआ था और इस तरह यह संस्मरण और लेख का समन्वय था।
यह कुछ दिन बाद ‘विकास’ में छपा, तो मुझ पर आकाश से वरदान बरस पड़े। पूज्य बापू ने मुझे अपने हाथ से लिखा, ‘‘भाई प्रभाकर, तुम तो मुझसे भी बढ़ गये। मैं तो पाख़ानों पर ही लिखता था, तुमने झाड़ू पर लिखा। मुझे बहुत अच्छा लगा।’’ विश्व के सर्वश्रेष्ठ महापुरुष के इस आशीर्वाद को पा, मैं और किस क़द्रदाँ की प्रतीक्षा करता। मुझे सब कुछ मिल गया था।
‘‘कमी नहीं क़द्रदाँ की ‘अकबर’ करे तो कोई कमाल पैदा !’’
तब से मैं इस ढंग पर नये-नये प्रयोग करता रहा और 1950 में आकर मुझे लगा कि मैं अब अपनी जगह आ गया हूँ। 1935 से 1950 तक के इन पन्द्रह वर्षों में मैं अपने स्कैच और संस्मरणों में भी नये प्रयोग करता रहा और बराबर उन्हें नयी चमक देता रहा।
इस तरह अनजाने ही इन लेखों में स्कैच की चित्रता और संस्मरण की आत्मीयता भी आती गयी। और अब हिन्दी के वन्दनीय विद्वान कहते हैं, यह एक नयी शैली है। इस संकलन के लेख इसी शैली के हैं।
इन लेखों के साथ इस संग्रह के कुछ ‘रेडियो टॉक’ भी हैं। इनकी शैली बातचीत की है और मुझे आशा है कि पाठक उन्हें अपने साथ ही लेखक की बातचीत अनुभव करेंगे। यही इनकी विशेषता है। इन्हें लिखाने का श्रेय आल इण्डिया रेडियो नयी दिल्ली के अधिकारियों और साथियों को है, विशेषताः श्री गोपालदास को और निश्चय ही मैं उनका कृतज्ञ हूँ।
इन रचनाओं के सम्बन्ध में मैं क्या कहूँ, सिवाय इसके कि यह मेरा संचित रक्त है, जो आज पाठकों को भेंट कर रहा हूँ, अपने फक्कड़ जीवन में इसके सिवाय मैंने और कुछ भी तो संचय नहीं किया।
जी में आता, एक गहरी मसमसाहट नसों में उठती कि काश, मैं भी लिख पाता ऐसा ही कुछ, पर कुछ लिख न पाता।
एक दिन एक सुन्दर-सी कॉपी खरीदी और उसमें शिशु जी की कुछ कविताएँ लिख लीं। लिख नहीं सकता, तो पढ़ तो सकता था। जाने कितनी बार मैं उन्हें पढ़ता-पढ़ता झूम उठता, भूल जाता कि ये मेरी नहीं हैं और यह झूम ढ़ीली पड़ती, तो तड़फ उठता कि हाय ये मेरी नहीं हैं। एक अजीब नशा था, जो चढ़ाव में हाथों उठाता, तो उतार में हाथों पटकता भी।
सन् 1924, सर्दियों की रात, देवीकुण्ड का एक जंगल, दो बजे का समय और मैं संस्कृत की मध्यमा परीक्षा का विद्यार्थी। सब सोए पड़े और मैं जाग रहा। उठकर बाहर आया तो एक अजब सन्नाटा। लौटकर फिर कोठरी में आया, तो पढ़ने में जी न लगा। गले में गुनगुनाहट, दिमाग में जाने क्या और यह मैंने लिखी आठ-दस पंक्तियाँ। लय कुछ ग़ज़ल की-सी, भाव कुछ प्रार्थना के-से। आज सोचता हूँ, तो मामूली-सी तुकबन्दी, पर उस दिन तो उसे लिखकर, मैं कालीदास, मैं रवीन्द्रनाथ और मैं स्वर्ग का इन्द्र ! जाने कितनी बार मैंने उन पंक्तियों को गाया, दोहराया, गुनगुनाया, देखा, पढ़ा, चूमा और उछाल दिया। ओह, मैं अब कवि हूँ, कवि, मुझे क्या ज़रूरत कि मैं भाई साहब की कविताएँ कॉपी में नक़ल करूँ ? अब अपनी ही कविताएँ कॉपी में लिखूँगा।
एक काग़ज़ पर मैंने बहुत-बहुत साफ़ उसकी नक़ल की और एक पत्र के साथ लिफ़ाफ़े में रख, वह किसी के हाथों शिशु जी के पास भेज दी। दिल धड़कता रहा, पर उसी दिन उनका पत्र मुझे मिल गया।
बहुत खुश हुए थे भाई साहब, बहुत तारीफ की थी उन्होंने, मेरे भविष्य के मनसूबों से उनका मन भर उठा था और अन्त में उन्होंने जो कुछ लिखा था, उसका यह सार मुझे याद हैः ‘‘साहित्यिक की सफलता का रहस्य इस बात में नहीं है कि वह कितने अच्छे भाव संग्रह करता है, कितनी अच्छी तरह उन्हें लिखता है। भाव तो भगवान के हैं, आकाश से भरे हुए हैं। साहित्यिक की सफलता का रहस्य यह है कि वह अपने को कितना निर्मल, कितना सरस, कितना सरल बना पाता है, जिससे वह उन भावों को ग्रहण करने का पात्र बन सके। गाना तो रेकॉर्डों में भरा ही है, जिसका ग्रामोफोन जितना अच्छा होगा, उसका गाना उतना ही मधुर सुनाई देगा। तुम अपना ग्रामोफोन यानी मानस अच्छा रखो, गाना तो फिर खुद ही अच्छा होगा।’’
चिट्ठी पढ़कर उस दिन तो मैं मस्ता गया-पर आज सोचता हूँ, वह एक बालक को दी गयी थपथपी थी। अब मेरा हाल यह है कि विद्यार्थी पढ़ा करते अपना पाठ, मैं सोचा करता कविता की पंक्तियाँ, वे लिखते अपनी परीक्षा के कल्पित प्रश्नपत्र, मैं लिखता नयी कविताएँ-रात-दिन मुझे कविता की धुन लगी थी। मैंने सैकड़ो शब्दों में से चुनकर, अपना उपनाम भी रख लिया था-प्रभाकर, क्योंकि मैं अपनी दृष्टि में उन दिनों सूर्य के समान तेजस्वी था। इस तरह कविताओं से मेरी कॉपी भरती गयी, पढ़ाई का चस्का कम होता गया और मैं निहायत शान के साथ जीवन में पहली बार फ़ेल हो गया था-पर सच कहूँ, मेरी दृष्टि में कविताओं का तब इतना महत्त्व था कि अपना फ़ेल होना, मुझे ज़रा भी न अख़रा और अपनी बैलेन्सशीट को मैं लाभ की ही मानता रहा।
एक दिन मैं उन कविताओं को एक जगह करने के लिए स्वयं एक कॉपी बनायी और रंगीन कागजों के कई फूल काटकर उस पर चिपकाए। शिशु जी अपनी कॉपियों में भूमिका भी लिखा करते थे। मैंने भी भूमिका लिखनी शुरू की, तो कलम ऐसी चली कि पूरे आठ पेज लिख गया। इन पृष्ठों में मेरी कविताओं की पृष्ठभूमि और जाने क्या-क्या बताया था। यह भूमिका पढ़कर मैंने स्वयं अनुभव किया मेरा गद्य मेरे पद्य से तगड़ा है और इस तरह अब मैं पद्य के साथ-साथ गद्य भी लिखने लगा। इन्हीं दिनों मैंने श्री चण्डीप्रसाद ‘हृदयेश’ का ‘नन्दननिकुंज’ पढ़ा, तो मैं उसकी भाषा-तरंगों में बह-बह गया और मेरी भाषा पर उसका प्रभाव भी पड़ा-वह मँज चली और मुझे तो अपने लेख बहुत अच्छे लगने लगे।
इस सफलता के साथ मुझ पर एक मुसीबत भी आ बरसी। मैं अब अपनी दृष्टि में एक महान् लेखक बनता जा रहा था, पर कोई सम्पादक मुझे अपने पुट्ठे हाथ न रखने देता था। मैं बहुत साफ़ लिखकर अपनी रचना उन्हें भेजता। उत्तर के लिए टिकट रखता। साथ के पत्र में सम्पादक जी को प्रसन्न करने के लिए भिन्न-भिन्न प्रयोग करता।
उदाहरण के लिए, मैं पत्र की वी.पी भेजने को लिखता और उनके बहुत से ग्राहक बनाने का आश्वासन भी उन्हें देता। उनकी सम्पादन नीति को प्रामाणिक बताता, सम्पादन को असाधारण, दूसरे पत्रों से उसके पत्र की तुलना करके उनको श्रेष्ठ सिद्ध करता, उनके खास लेखों और पुरानी सम्पादकीय टिप्पणियों की प्रशंसा करता, अपने मित्रों से मैंने उनकी कब क्या तारीफ की या अपने किस भाषण में मैंने उनका ज़िक्र (कोरी गप्प !) किया और उसका श्रोताओं पर क्या प्रभाव पड़ा, यह सब लिखता। बिना जान-पहचान के ही झूठ-मूठ कई सम्पादकों को अपना मित्र बताता, वहाँ जो मेरी रचनाएँ छपने वाली हैं, उनका नामोल्लेख करता, मैं आजकल अपने नगर में साहित्यिक जागरण के लिए जी-तोड़ मेहनत कर रहा हूँ, उसकी झूठी तस्वीरें खींचता, सम्पादक का रोब ग़ालिब होता, तो उसकी खुशामद करता, उसे ही अपना निर्माता बताता कि कैसे उनके लेख-टिप्पणी से मेरा मानस-कपाट खुल गया है और तब संशोधन करके अपने लेख छापने की प्रार्थना करता, उनके पत्र के जो ग्राहक मैंने बनाए हैं, उनके नम्बर पते लिखता, एजेन्सी के नियम पूछता, नये लेखकों के सम्बन्ध में उनका कर्तव्य उन्हें बताता, अपने नगर में होने वाले किसी भावी महोत्सव में उन्हें सभापति बनाने की बात कहता, उनके नये वर्ष पर उन्हें बधाई देता और संक्षेप में उनकी हर अनुमानित कमजोरी पर सेक लगाता और अपनी हर कल्पित विशेषता की घोषणाएँ छौंकता-यह भी लिखता कि मैं शीघ्र ही स्वयं एक पत्र निकालने का आयोजन कर रहा हूँ, जिसका पहला लेख आपसे ही लिखाऊँगा।
ग़रज़ और लिप्सा में फँसकर आदमी कितना धूर्त हो जाता है, पर यह धूर्तता बेकार थी, क्योंकि इस सबका जो फल मुझे मिलता था, वह था ‘रिटर्न विद थैंक्स’ धन्यवाद के साथ मेरी रचना वापस आ जाती थी।
मैं उसे देखता, काँप उठता, दुखी होता, कभी-कभी रो भी पड़ता, मेरा दिल टूट जाता, मुझे गुस्सा आता, मैं आप-ही-आप गालियाँ देता, कोसता, कार्यालय में पहुँचकर सम्पादक के मुँह पर उसकी दवात उलटने के मंसूबे बाँधता, अपनी रचना फाड़ डालता, भोजन न करता, गुम-सुम पड़ा रहता और अन्त में फिर अपने को समेटता, सँभालता और किसी दूसरे सम्पादक पर निशाना बाँधता।
मेरा पहला निशाना जहाँ फिट बैठा, वे थे परम श्रद्धेय श्री गणेशशंकर विद्यार्थी।
‘प्रताप’ में आयुर्वेद की उन्नति पर एक आचार्य का लेख छपा। उस पर किसी दूसरे विद्वान ने एक पूरक नोट लिखा। मैं आज सोचता हूँ कि मुझे न आयुर्वेद के सींग का पता, न पूँछ का, पर उन दिनों तो मैं सर्वज्ञ था। मैंने उस पर एक तीसरा लेख लिखा और ‘प्रताप’ में छपने को भेज दिया। क्या कहूँ, मेरी ज़िन्दगी का वह सबसे बेचैन सप्ताह था, क्योंकि मैंने गणेशशंकर जी की इतनी प्रशंसा और खुशामद की थी कि कलम ही तोड़ दी थी। जाने कितनी बार मैंने उस दिन के बारे में सोचा, दूसरों से पूछा तब कहीं मुश्किल तमाम सोमवार आया। डाकख़ाने गया, ‘प्रताप’ आया, बाँसों उछलते दिल उसे खोला, खोजा, पर उसमें कहीं मेरा लेख न था। जीवन की सबसे बड़ी असफलता थी-ऐसा धक्का मुझे फिर बाद में कभी नहीं लगा। धरती घूम गयी; आकाश टूट गिरा और घर आया, तो हिचकियों रोया।
रोकर सो गया, सोकर उठा, तो वही उधेड़-बुन। दोनों लेख पढ़कर अपना लेख पढ़ा और क्या बताऊँ, मुझे तो अपना ही लेख सर्वोत्तम जँचा। मैंने उसकी फिर नक़ल की और गणेशशंकर जी को एक पत्र लिखा। इस पत्र में उनकी महत्ता के गुब्बारे थे, तो उनके सहकारी सम्पादकों की अज्ञानता के नारे भी थे। कहा था: वे लोग रचनाओं का महत्त्व नहीं समझते, सिर्फ़ प्रसिद्ध लेखकों का नाम देखकर ही लेख-वेख छाप देते हैं। सावधान किया गया था कि इससे आपके यश में धब्बा लगता है और ‘प्रताप’ को बहुत नुकसान होता है। अपने लेख को पूर्ण उपयोगी और सर्वोत्तम कहा गया था। यह पत्र रजिस्ट्री से उनके नाम भेजा गया था, आशा है यह पत्र आपको निजी समय में मिलेगा और मुझे अपनी सहकारियों के अत्याचार से बचा सकेंगे। उस समय यद्यपि बेचारे कन्हैयालाल जी मध्यमा के चतुर्थ खण्ड की परीक्षा में फ़ेल हुए विद्वान थे, पर अपने प्रहार की पूरी शक्ति देने के लिए लेख के नीचे लिखा गया था , लेखक कन्हैयालाल मिश्र शास्त्री।
लिफ़ाफ़ा भेजा, तो साँस आया-‘अब देखूँगा कि ये टुटपुँजिए सहकारी कैसे मेरा लेख रोकते हैं !
पाँचवें दिन एक कार्ड आया। छोटे-छोटे अक्षरों में स्वयं गणेशशंकर जी ने लिखा था, तुम्हारी बातों से सहमत नहीं हूँ, पर तुम्हारे उत्साह की क़द्र करता हूँ। लेख ठीक करके दे दिया है, इसी अंक में जा रहा है। मैं भविष्यवाणी करता हूँ कि तुम शीघ्र ही एक प्रसिद्ध लेखक बन जाओगे।
रोम-रोम में खुशी फूट निकली और सोमवार तो अगला युग ही हो गया। डाकखाने गया, ‘प्रताप’ आया, वहीं खोला, अपना छपा नाम देखा और ‘प्रताप’ का वह अंक अगले सप्ताह तक अधिक-से-अधिक जितने आदमियों को दिखा सकता था, दिखाता फिरा।
मुझे आज तक खूब याद है-अट्ठाइस रुपये के टिकट खराब करने के बाद मेरी पहली पंक्तियाँ छपी थीं, पर मुझे अब कोई दुःख न था-मेरी रकम सूदसहित वसूल हो चुकी थी।
‘प्रताप’ में नाम छपने से छपास का जो बुखार कुछ उतर गया था, वह पूरे ज़ोर से फिर चढ़ आया। अब सम्पादकों पर रोब जमाने की एक नयी तरकीब मेरे हाथ आ गयी थी--‘प्रताप’ में आपने मेरा लेख पढ़ा होगा और इससे भी बढ़कर कभी-कभी तो यहाँ तक-‘प्रताप’ में तो आप मेरे लेख पढ़ते ही होंगें।
अनुभव ने बताया कि ‘प्रताप’ में लेख छपने का दूसरे सम्पादकों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा और इससे वे मुझे लेखक मानने को तैयार न हुए। मैं इससे बहुत परेशान था कि मेरी कविताएँ और लेख जब इतने उत्तम हैं, तो फिर ये सम्पादक मेरा व्यापक बाईकाट क्यों किये जा रहे हैं ?
उन्हीं दिनों मेरे साहित्यिक जीवन की एक महान घटना हुई कि ‘माधुरी’ में उर्दू के महाकवि अकबर पर एक लेख छपा और उसी में उनका शेर भी ,
‘‘लगी चहकने जहाँ भी बुलबुल, हुआ वहीं पर जमाल पैदा,
कभी नहीं क़द्रदाँ की ‘अकबर’ करे तो कोई कमाल पैदा !’’
इन पंक्तियों ने मुझे बिजली के सैकड़ों धक्कों से झनझना दिया और उस दिन मैंने अपनी जाने कितनी कविताएँ और लेख फाड़ डाले। जोश मुझमें इतना कि प्रत्येक को फाड़ते समय कहा, ‘‘तुम कुछ नहीं हो, तुम घास हो, तुममें कमाल नहीं है, मुझे तुम्हारी ज़रूरत नहीं, मैं सिर्फ़ कमाल की ही चीज़ें चाहता हूँ।’’
इन रचनाओं को फाड़कर मैंने लेखक के जीवन का एक जो महामन्त्र सीखा, वह यह है, रचनाओं को पाकर नहीं फाड़कर ही नया लेखक आगे बढ़ता है।’’
अब मुझे कमाल करना था; पर कमाल बेचारे का कोई अता-पता मुझे मालूम न था। यह भी मेरा एक लड़कपन था, पर इसमें जोश के साथ होश भी थी कि अब मुझे छपने के लिए नहीं, लिखने के लिए लिखना था।
एक दिन खेतों पर गया, तो अजब हरियाली थी। उससे प्रेरणा मिली और हृदयेश जी की शैली में मैंने एक गद्य-काव्य लिखा, कई पेज का। आज सोचता हूँ उसमें गद्य-काव्य और स्कैच का समन्वय था।
इसे लिखकर रख दिया और तीन-चार दिन बाद फिर पढ़ा और इस तरह कि मैं एक सम्पादक बन गया हूँ और मेरा महत्त्व इस बात में है कि इस लेखक को मैं उसकी त्रुटियाँ बता सकूँ।
यों एक पत्र के कल्पित सम्पादकत्व से मेरी सम्पादन कला का आरम्भ हुआ। आज सोचता हूँ, तो हँस पड़ता हूँ कि मैं उस दिन सम्पादक के पोज में न था, यथार्थ में सम्पादक था। मुझे अनुभव हो रहा था कि मैं हूँ सम्पादक श्री कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’ और मेरे सामने ही बैठा है-यह एक नया लेखक कन्हैयालाल प्रभाकर; हूँ, जिसे अभी कुछ भी नहीं आता !
मैं वह गद्य-काव्य पढ़ता जाता और उसकी कमियाँ मुझे सूझती जातीं।
मैं अत्यन्त गौरव के भाव से उन्हें बताता जाता, नये सुझाव भी देता और कभी-कभी बेचारे लेखक पर बरस भी पड़ता, ‘‘यह लेखन है जनाब, कोई घासखुदी नहीं। यों जल्दी करेंगे और भरत भरेंगे, तो तीन कौड़ी के रह जायेंगे आप !’’
आश्चर्य है कि मेरे सुझाव उपयोगी थे और उनके अनुसार मैंने उसे दोबारा लिखा, तो उसमें एक नयी चमक आ गयी। दो-तीन दिन बाद मैं फिर उस खेत पर गया और वहाँ बैठकर मैंने उस लेख को इस तरह पढ़ा कि जैसे किसी दूसरे को सुना रहा हूँ, तो दो नये फल निकले। पहला यह कि खेत के वातावरण और लेख के वर्णन में जो अन्तर था, वह मेरे सामने आ गया और दूसरा यह कि कई जगह मुझे खटका कि यहाँ अभी कमी है। मैंने उसे तीसरी बार लिखा, तो ये सुधार तो हुए ही, उसका अन्त भी एक नये रूप में बदल गया और इस तरह वह लेख पूरी तरह खिल उठा।
अब मैंने उसे फिर अपने कल्पित सम्पादक को दिखाया, तो उन्हें पसन्द आ गया और वे उसमें कोई नया संशोधन न कर सके। लेख पास हो गया और मैंने उसे उठाकर रख दिया। छपने को तो अब कहीं भेजना ही न था।
इसके बाद मैंने दो कहानियाँ लिखीं और तीन कविताएँ, पर वे मुझे न जँचीं, न मेरे सम्पादक को, तो मैंने फाड़ फेंका। मुझे इससे ज़रा भी दुःख न हुआ।
कोई दो सप्ताह बाद मैंने अपना तीन बार लिखा वह लेख एक मित्र को सुनाया, तो वह प्रसन्न हुए, पर मुझे कई जगह भाषा में खुदरापन ख़ुद अख़रा, जिसे चौथी नक़ल में मैंने नयी चिकनाई से ढँक दिया।
इस तरह-कमाल तक पहुँचने के लिए मैंने जो सीढ़ियाँ पार कीं, वे ये थीं, छपाने के लिए कभी मत लिखो, सिर्फ़ लिखने के लिए लिखो।
लिखकर स्वयं एक सम्पादक की दृष्टि से पढ़ो और जो कमियाँ दिखाई दें उन्हें फिर सुधारो।
दूसरी नक़ल के बाद उसे उठाकर रख दो और भूल जाओ। कुछ दिन बाद फिर पढ़ो और जो नयीं बातें सूझें-अवश्य सूझेंगी-उन्हें उसमें बढ़ा दो।
अब उसे फिर रख दो और कुछ दिन बाद उसे अपने मित्र को सुनाओ। वे यदि कुछ सुझाव दें और ये अपने को जँचे या सुनाते समय स्वयं कुछ नयी बातें सूझें-अवश्य सूझेंगी-उन्हें फिर से लेख में बढ़ा दो।
यदि लिखकर पढ़ते समय ही यह सूझे कि यह कुछ नहीं है, तो उसे तुरन्त फाड़कर फेंक दो।
अब मैं अपने ही विद्यालय में द्वितियाध्यापक था और इसी में मेरे विद्यार्थी जीवन के साथी श्री भगवत्प्रसाद शुक्ल ‘सनातन’ (अब स्वर्गीय) पढ़ रहे थे। मेरे ही सम्पर्क में वे कविता लिखने लगे थे-वही तुकबन्दियाँ !
एक दिन उन्होंने मुझे इटावा से प्रकाशित ‘ब्राह्मण-सर्वस्व’ का एक अंक दिखाया। इसमें उनकी एक संस्कृत कविता छपी थी, देव-प्रार्थना। यह उनका पहला प्रकाशन था, इसलिए आज वे नशे में थे और यह आठ-दस दिन बाद बोतलों में पहुँच गया, जब उस कविता पर पिण्डौरी के महन्त ने पाँच रुपये मनिऑर्डर से पुरस्कार स्वरूप भेजे ! उनका दिल बढ़ा और एक नयी कविता उनकी उसी पत्र में और छपी।
मेरा एक लेख उन्होंने बिना मुझे बताए, निकाल कर ‘ब्राह्मण-सर्वस्व’ को भेज दिया और वह उसी मास छप गया। अंक के साथ ही उसके सम्पादक श्री ब्रह्मदेव शास्त्री (अब स्वर्गीय) का पत्र भी आया कि आप हर महीने एक लेख लिखें। मेरी लेखन-शैली की प्रशंसा भी थी। सम्पादकों से प्रर्थना करने का तो मुझे अनुभव था, पर मेरे जीवन में यह नयी बात थी कि कोई सम्पादक मुझसे प्रार्थना करे। उस पत्र ने मुझे फिर नशे में भर दिया और कई दिन मैं उछला फिरा। अपने एकान्त में कई बार मैंने कहा, ओहो, अब तो होने लगा है कमाल, और हर महीने में एक लेख मेरा ‘ब्राह्मण-सर्वस्व’ में छपने लगा
इन्हीं दिनों एक और घटना हुई कि मेरे नगर के स्कूल में श्री गंगाप्रसाद ‘प्रेम’ प्रधानाध्यापक होकर आये। बढ़े हुए बाल, खादी का कुरता, चिनी हुई खादी की धोती, हाथ में छड़ी, माथे पर चन्दन की बिन्दी और अत्यन्त मधुर बोल, वे मेरे नगर में एक नयी चमक-सी साथ लिए आये।
मैं उनसे मिला, सम्पर्क में आया और बन्धुत्व पा गया। वे हिन्दी के श्रेष्ठ कवि, झूम-झूम अपनी कविताएँ सुनाते और मैं आकाश में उड़ा-उड़ा उन्हें सुनता। मेरी कविताएँ मेरी दृष्टि में अब घास थीं और मैं कविता के एक नये मोड़ पर खड़ा था। प्रभाव को ग्रहण करने की मुझमें शक्ति थी, कमाल की मुझे प्यास थी, प्रयत्नों की मुझे आदत थी। मैं पहले से बहुत सुन्दर कविताएँ लिखने लगा। मैं लिखता, वे उसमें काँट-छाँट करते, वे निखर आतीं। मैं झूमकर उन्हें कवि-सम्मेलन में पढ़ता और अपने कानों अपनी प्रशंसा सुनता।
अब मैं नये लेखक के लिए ये तीन नयी सीढ़ियाँ और पा चुका था, आरम्भ में कभी बड़े पात्रों के दरवाजे़ न झाँको और जब रचनाओं में कुछ जान आने लगे तो छोटे-छोटे पत्रों में ही उन्हें भेजो।
दूसरे लेखकों के लेखों को एक-दो-तीन बार पढ़कर, फिर उन्हें बिना देखे, अपने ढंग पर उन्हें लिखो और तब असल से मिलाकर देखो कि क्या कमी रह गयी है और बस उन्हें फाड़ फेंको।
किसी श्रेष्ठ कवि से सम्पर्क बनाओ, उन्हें अपनी रचना दिखाओ, अपनी नम्रता, अहंकार-हीनता और सेवा से उन्हें ठीक कराओ।
‘ब्राह्मण-सर्वस्व’ में मेरे लेख क्या छपने लगे, मैं उससे लिपट ही गया। दूसरे वर्ष मैंने उसमें एक नया स्तम्भ खोल दिया, स्वर्ण-संकलन। इसमें मैं दूसरे पत्रों में प्रकाशित श्रेष्ठ लेखों का या उनके सारांश का संकलन करता और इस तरह पत्र को अच्छी सामग्री मिल जाती। कभी-कभी छोटे नोट भी मैं लिख भेजता और वे मेरे कहने पर बिना नाम दिए सम्पादकीय स्तंभ में छप जाते।
‘ब्राह्मण-सर्वस्व’ को प्रकाशित हुए पच्चीस वर्ष हो रहे थे। मैंने शास्त्री जी को लिखा कि वे इस अवसर पर रजत-जयंती-अंक प्रकाशित करें। इस अंक की लेख सूची, किस लेखक से कौन लेख लिया जाए और लेखकों को क्या पत्र लिखा जाए, यह सब मैंने लिख भेजा। किस सज्जन से, किस तरह, कितनी आर्थिक सहायता मिल सकती है, यह भी लिखा।
उनका उत्तर आया कि उन्हीं दिनों मेरी पुत्री का विवाह है, इसलिए मैं छपाई का प्रबन्ध तो कर सकता हूँ, पर सम्पादन मेरे वश का नहीं। मैंने उन्हें लिखा कि आप कार्य आरम्भ करें, मैं पूरा सहयोग दूँगा। ऐसा अवसर फिर न आयेगा, इसलिए यह विशेषांक अवश्य निकालिए।
उनका कोई उत्तर न आया, तो मैंने मान लिया कि वे तैयार नहीं, पर एक दिन डाक से मुझे सौ-सवा सौ छपे पत्रों का एक पैकेट मिला। यह रजत-जयंती-अंक के लिए लेखकों से लेख माँगने का वही पत्र था, जो मैंने शास्त्री जी को तैयार करके भेजा था। इस पर विषय-सूची भी मेरे ही वाली थी, पर आश्चर्य यह कि नीचे रजत-जयंती-अंक के सम्पादक की जगह मेरा नाम छपा था। मैं देखकर धक रह गया। यह काम मेरी योग्यता और शक्ति का कहाँ था ? मैं क्या जानूँ सम्पादन ? अभी तो मैं लेखक भी न बन पाया था, पर मित्रों ने हिम्मत बँधायी और इसमें मैं लिपट गया।
एक-एक लेखक को मैंने लिखा और इतने तकाजे किये कि लेख दिये बिना पीछा ही न छोड़ा। सच यह है कि मुझ पर अब सम्पादन का भूत सवार था और लेखकों का सम्पादन का भूत। कोई दो महीने के घनघोर परिश्रम से मैंने जो सामग्री संग्रह की, उसका बोझ छह सेर से ऊपर था।
अब यह अस्त-व्यस्त सामग्री मेरे पास थी। पूरे एक महीने में उस पर फिर जुटा और उसकी एक-एक पंक्ति पर मैंने ध्यान दिया। मुझे आश्चर्य हुआ कि बड़े-बड़े लेखकों की भाषा में शिथिलता थी। मैंने बेधड़क होकर काट-छाँट की और तब अनेक स्तंभ बनाकर उसमें उस सामग्री को बाँटा। हर एक स्तंभ की विषय-सूची अलग बनायी और हरेक लेख पर संक्षेप में लेखक का परिचय अपने ढंग पर दिया। ये परिचय मेरी उस समय की स्थिति को देखते हुए असाधारण थे—अनेक लेखकों ने बाद में उनकी प्रशंसा की थी, यह मुझे याद है।
यह विशेषांक असाधारण रूप से सफल रहा और इससे मैंने कमाल पैदा करने का जो नया सूत्र पाया, वह यह था, परिश्रम ही सफलता की कुंजी है और वही प्रतिभा का पिता है। सम्भव है प्रतिभा कोई बड़ी चीज़ हो और वह ईश्वर के यहाँ से आती हो, पर नये लेखक को उसकी प्रतीक्षा नहीं, अपने परिश्रम पर ही भरोसा करना चाहिए।
इस विशेषांक के सम्पादन से हिन्दी की दुनिया में मेरा परिचय तो बढ़ा ही, मेरा आत्मविश्वास भी दृढ़ हो गया। इसके कुछ दिन बाद मैंने ‘गढ़देश’ के एक विशेषांक का सम्पादन किया और अप्रैल 1930 में तो मैं ही ‘गढ़देश’ साप्ताहिक का सम्पादक बनाया गया। कोई चार महीने मैंने यह काम किया और फिर 1930 के कांग्रेस के आन्दोलन में जेल चला गया।
यहाँ तक आते-आते मैंने यह समझ लिया कि मेरा मन कविता में नहीं उतरता और कविता को नमस्कार कर मैंने उसका लिखना ही बन्द कर दिया। इससे मुझे यह लाभ हुआ कि मेरा सारा ध्यान एक तरफ़ सिमट आया और इस तरह कमाल पैदा करने का यह एक नया सूत्र मेरे हाथ लगा, कभी फ़ालतू चीज़ न लिखो, वही लिखो जिसमें पूरा मन लगे, पूरा रस मिले और पूरी डुबकी आये।
अब मैं अपने साहित्यिक जीवन के चौराहे पर था। 1963 की जेल यात्रा में मुझे बहुत ऊँचे मनुष्यों का सम्पर्क मिला और मैंने इस बीच काफ़ी पढ़ा भी। इस जेल-यात्रा में मेरे साहित्यिक जीवन में जो नयी बात हुई, वह थी यह कि सहारनपुर जेल के खेतों पर बैठकर मैंने अपने पिता के संस्मरण लिखे, कोई साठ-सत्तर पेजों में और फ़ैजाबाद पहुँच कर कुछ ऐसे लेख लिखे, जिन्हें बाद में श्री बनारसीदास चतुर्वेदी ने स्कैच बताया। एक तस्वीर के दो पहलू और मोती इनमें मुख्य हैं। इस तरह मेरी कलम को एक नयी सूझ मिली। मैं इसे यों कहता हूँ कि मेरा कवित्व मेरे गद्य में ही समा गया। जेल में लंबी बीमारी के कारण मुझे एकान्त मिला, उसमें मैंने यह निश्चय किया कि मैं एक मिश्नरी पत्रकार के रूप में ही अपनी सर्वोत्तम शक्तियों का राष्ट्र के लिए उपयोग करूँगा, क्योंकि प्लूरिसी ने मुझे देहातों की दौड़-धूप के लिए अयोग्य ही कर दिया था और साहित्य-विहीन राष्ट्रसेवा तो मेरे लिए सदा से ही अभिशाप-सी थी।
वहीं जेल में एक दिन मैंने ‘प्रताप’-सम्पादक पण्डित बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ से कहा, ‘‘मैं जेल से छूटकर आपके ‘प्रताप’ में रहूँगा।’’ वे मेरे प्रति सदैव ममता से ओतप्रोत, पर एकदम से बोले, ‘‘ना, हरगिज़ नहीं !’’
मुझे गहरा धक्का लगा और सँभलकर ही मैं पूछ पाया, ‘‘क्यों पण्डित जी ?’’ बोले : ‘‘वहाँ रहोगे तो हम तुम्हें खा जायेंगे ?’’ मैं खोया-सा बिना किसी प्रश्न के एक प्रश्न-चिह्न ही बन गया, तो बोले, ‘‘हाँ-हाँ, पुराना नियम है कि बड़ी मछली छोटी मछली को खाकर पनपती है। ‘प्रताप’-में तुम आओ, बहुत खुशी, पर इससे हम पनपेंगे इससे तुम रल जाओगे। तुम एक स्वतंत्र पत्रकार के रूप में सामने आओ। मैंने खूब देख लिया, तुममें इतनी शक्ति है कि तुम सफल हो जाओगे।’’
मेरे भावी जीवन में पत्रकार-कला का जो रूप स्फुटित हुआ, उसकी नींव फ़ैजाबाद जेल में नवीन जी के इसी इण्टरव्यू ने रखी थी, यह स्मरण कर मैं सदा मन-ही-मन उनका अभिनन्दन किया करता हूँ।
अपने स्कैच और संस्मरणों की कलम को माँजने में मैंने बहुत परिश्रम किया। पहले तो मैंने यह अध्ययन किया कि किस बड़े लेखक में क्या विशेषता है और फिर यह कि मैं अपनी क़लम में उन विशेषताओं का कौन-सा अंश ले सकता हूँ। मुझ पर चार लेखकों का प्रभाव पड़ा। सबसे अधिक पण्डित बनारसीदास चतुर्वेदी का और उसके बाद पं. श्रीराम शर्मा, श्री इन्द्र विद्यावाचस्पति और श्री रामनाथ ‘सुमन’ का। श्री चतुर्वेदी जी का आरम्भ मुझे ग़ज़ब का लगा। शर्मा जी की प्रवाह-शक्ति और चित्रण सुमन’ जी के विश्लेषण-कौशल और इन्द्रजी की घटना-श्रृंखला के सामने मेरा सिर झुक गया।
इस अध्ययन की छाया में मैंने कोई सौ तरह के स्कैच और संस्मरण लिखे होंगे। लिखे, काटे, फिर लिखे और फाड़े। एक लेख को अधिक-से-अधिक चौदह बार तक मैंने हट-हटकर लिखा, यह मुझे याद है।
इस तरह मैं अच्छे संस्मरण लिखने लगा और कमाल पैदा करने का एक नया सूत्र मैंने रचा ! अपनी कमियों पर हमेशा आँख गड़ाये रहो और दूसरों की उन विशेषताओं पर गहरा ध्यान दो कि जिनसे उन्हें यश और सफलता मिली। तब उन विशेषताओं को अपनी कमियों के स्थान में प्रयत्न करके इस तरह लो कि वे भद्दे पैबन्द होकर नहीं, दूध में चीनी बनकर तुममें समा जायें।
आदरणीय श्री विश्वम्भरप्रसाद शर्मा ने सहारनपुर से साप्ताहिक ‘विकास’ प्रकाशित किया, तो कुछ जिम्मेदारियाँ मुझे सौंपीं। हर सप्ताह मैं उसमें कुछ लिखता रहा, पर उसके ‘आर्यसमाज अंक’ के काम में हाथ बटाने को मैं 1933 में सहानपुर क्या आया, बस ‘विकास’ का ही हो गया।
1934 में, ‘विकास’ को एक लिमिटेड संस्था का रूप दे दिया गया और यह निश्चय हुआ कि पाँच महीने के लिए ‘विकास’ का प्रकाशन स्थगित करके संस्था के हिस्से बेचने और अपने प्रेस लगाने में परिश्रम किया जाये।
इन पाँच महीनों में मैं घूमते-घूमते बराबर जिस बात को सोचता रहा वह यह थी कि ‘विकास’ अब कैसा निकले ? उसमें क्या-क्या रहे ? कैसे वह आदर्श साप्ताहिक का रूप ले ? और कैसे वह लोकप्रिय हो ?
मेरी परेशानी यह ‘लोकप्रिय’ था। यदि पत्र को अश्लील कहानियों, सस्ते वाद-विवादों और इसी तरह दूसरी सामग्री से सजाया जाये, तो पत्र तुरन्त लोकप्रिय हो सकता है, पर इस स्थिति में मेरे लिए उस पत्र से अपना सम्बन्ध रखने का क्या अर्थ ? मेरी तो रग-रग में गुलामी की पीड़ा थी, स्वतंत्रता की आग थी, मैं नौकरी के लिए तो पत्रकार बन रहा था।
तो वह रास्ता मुझे न चलना था। दूसरा मार्ग यह था कि हम ‘विकास’ को ऊँचे और आदर्श विचारों से भरें और उसमें अपनी आत्मा का सर्वश्रेष्ठ दान दें। यह रास्ता ठीक था, पर इसमें दिक़्क़त यह थी कि इस तरह के पत्र का कोई ग्राहक न था। यदि अपनी शक्ति के भरोसे हम उसे घाटे पर भी चलाने को तैयार हों, तो उससे हमारा यह लक्ष्य कहाँ पूर्ण होता था कि जनता में जागृति हो, नये विचार फैलें ?
सारे-सारे दिन मैं इस प्रश्न को सोचता रहता और रात को तारों की ओर ताकते-ताकते भी ! मुझे सपनों में भी यही उलझन रहती। मैं परेशान था और जब मुझे कुछ न सूझता, तो ऊबकर मैं सोचता, ‘‘छोड़ो जी, यह कलम का काम, चलो देहात में कहीं आश्रम बनाकर बैठें और भावी क्रान्ति की तैयारी करें।’’
पूनो की चाँदी-भरी रात में एक दिन मैं नहर पर जा लेटा और निश्चय कर लिया कि इस प्रश्न का निपटारा करके ही ऊठूँगा। मैं सोचता रहा। अचानक मेरा ध्यान नहर की धारा पर जा टिका। लहरें भी हैं, सरसता भी है, प्रवाह भी है, सन्तुलन भी है और गहराई भी। मुझे ऐसा लगा कि यह नहर मेरे भीतर बह रही है और मैं उसमें तैर भी रहा हूँ। तल्लीनता की इसी तैराई में अचानक चाँद-सा चमकता एक प्रश्न मेरे मन में उभरा, क्या लिखने की कोई ऐसी शैली नहीं हो सकती, जिसमें लहरें भी हों, सरसता भी हो, प्रवाह भी हो सन्तुलन भी हो और गहराई भी ?
प्रश्न क्या मन में उभरा, मैं ही उभरकर बैठ गया। मुझे राह मिल गयी थी। मैंने सोचा, मैं ऐसी शैली पर लिखूँगा, जिसमें यह सब हो और इस तरह हम जनता को वह देंगे जिसकी उसे ज़रूरत है, पर इस ढंग पर कि वह उसे ले सके, पचा सके, बिना कोई बोझ-भार उठाए। संक्षेप में, ज्ञान उपनिषद् का-सा पर अभिव्यक्ति लोरियों की-सी।
मुझमें इतना उल्लास था कि लगा, मैं नहर में तैरता हुआ ही एक मील दूर अपने घर पहुँचा हूँ।
प्रयोग आरम्भ किये। वही लिखना, काटना, बार-बार पढ़ना और फाड़ना। कोई दस-पन्द्रह लेख फाड़ने के बाद मैंने एक लेख लिखा झाड़ू लगाने की कला। इसका आरम्भ राष्ट्रपति वाशिंगटन के जीवन की एक घटना से हुआ था और इस तरह यह संस्मरण और लेख का समन्वय था।
यह कुछ दिन बाद ‘विकास’ में छपा, तो मुझ पर आकाश से वरदान बरस पड़े। पूज्य बापू ने मुझे अपने हाथ से लिखा, ‘‘भाई प्रभाकर, तुम तो मुझसे भी बढ़ गये। मैं तो पाख़ानों पर ही लिखता था, तुमने झाड़ू पर लिखा। मुझे बहुत अच्छा लगा।’’ विश्व के सर्वश्रेष्ठ महापुरुष के इस आशीर्वाद को पा, मैं और किस क़द्रदाँ की प्रतीक्षा करता। मुझे सब कुछ मिल गया था।
‘‘कमी नहीं क़द्रदाँ की ‘अकबर’ करे तो कोई कमाल पैदा !’’
तब से मैं इस ढंग पर नये-नये प्रयोग करता रहा और 1950 में आकर मुझे लगा कि मैं अब अपनी जगह आ गया हूँ। 1935 से 1950 तक के इन पन्द्रह वर्षों में मैं अपने स्कैच और संस्मरणों में भी नये प्रयोग करता रहा और बराबर उन्हें नयी चमक देता रहा।
इस तरह अनजाने ही इन लेखों में स्कैच की चित्रता और संस्मरण की आत्मीयता भी आती गयी। और अब हिन्दी के वन्दनीय विद्वान कहते हैं, यह एक नयी शैली है। इस संकलन के लेख इसी शैली के हैं।
इन लेखों के साथ इस संग्रह के कुछ ‘रेडियो टॉक’ भी हैं। इनकी शैली बातचीत की है और मुझे आशा है कि पाठक उन्हें अपने साथ ही लेखक की बातचीत अनुभव करेंगे। यही इनकी विशेषता है। इन्हें लिखाने का श्रेय आल इण्डिया रेडियो नयी दिल्ली के अधिकारियों और साथियों को है, विशेषताः श्री गोपालदास को और निश्चय ही मैं उनका कृतज्ञ हूँ।
इन रचनाओं के सम्बन्ध में मैं क्या कहूँ, सिवाय इसके कि यह मेरा संचित रक्त है, जो आज पाठकों को भेंट कर रहा हूँ, अपने फक्कड़ जीवन में इसके सिवाय मैंने और कुछ भी तो संचय नहीं किया।
धोखेबाज़ को प्रणाम !
उस दिन जीवन में एक घटना हुई। घटना अपने में इतनी साधारण है कि उस पर कोई
ध्यान न दिया जाए, तो उसकी यह उपेक्षा किसी अपराध के दर्जे में खींच-तानकर
भी दर्ज नहीं की जा सकती है।
सर्दियों में श्रीमती विद्यावती कौशल बीमार हुईं, तो सेप्टिक के भयंकर प्रकोप को रोकने के लिए उन्हें पैनिसि
सर्दियों में श्रीमती विद्यावती कौशल बीमार हुईं, तो सेप्टिक के भयंकर प्रकोप को रोकने के लिए उन्हें पैनिसि
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