कविता संग्रह >> ठण्डा लोहा ठण्डा लोहाधर्मवीर भारती
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ठण्डा लोहा पुस्तक का कागजी संस्करण...
कागजी संस्करण
इन कविताओं के विषय में मुझे विशेष कुछ नहीं कहना है। मैं कविताएँ बहुत कम
लिख पाता हूँ और अकसर कुछ लिख लेने के बाद मौन का एक बहुत लम्बा व्यवधान बीच में आ जाता है जिससे अगले क्रम की कविताओं और पिछले क्रम की कविताओं का तारतम्य टूटा-टूटा-सा लगने लगता है। इस संग्रह में दी गयी कविताएँ मेरे पिछले छह वर्षों की रचनाओं में से चुनी गयी हैं और चूँकि यह समय अधिक मानसिक उथल-पुथल का रहा, अतः इन कविताओं में स्तर, भावभूमि, शिल्प और टोन की काफी विविधता मिलेगी। एकसूत्रता केवल इतनी है कि सभी मेरी कविताएँ हैं, मेरे विकास और परिपक्वता के साथ उनके स्वर बदलते गये हैं; पर आप जरा ध्यान से देखेंगे तो सभी में मेरी आवाज पहचानी-सी लगेगी।
मैं अपने को स्वतः में सम्पूर्ण, निस्संग, निरपेक्ष, सत्य नहीं मानता। मेरी परिस्थितियाँ, मेरे जीवन में आने और आकर चले जानेवाले लोग, मेरा समाज, मेरा वर्ग, मेरे संघर्ष, मेरी समकालीन राजनीति और समकालीन साहित्यिक प्रवृत्तियाँ, इन सभी का मेरे और मेरी कविता के रूप-गठन और विकास में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष भाग रहा है। मैं और मेरी कविता तो चाक पर चढ़ी हुई गीली मिट्टी हैं जिसमें से ‘अनजान उँगलियाँ’ धीरे-धीरे मनचाहा रूप निकाल रही हैं।
इसी सतत निर्माण और विकास को ध्यान में रखकर मैंने कहा है कि ‘ये गलियाँ थीं जिनसे होकर मैं गुजर चुका।’ यद्यपि आज मेरा मन उस भूमि पर है जो कवि और अनजान पगध्वनियाँ’ या ‘कलाकार से’ या ‘फूल, मोमबत्तियाँ, सपने’ की भावभूमि है: पर जिन गलियों से मैं गुजर चुका हूँ उनका महत्व कतई कम नहीं होता, क्योंकि उन्हीं से गुजरकर मैं यहाँ तक पहुँचा हूँ। किशोरावस्था के प्रणय, रूपासक्ति और आकुल निराशा से एक पावन, आत्मसमर्पणमयी वैष्णव भावना और उसके माध्यम से अपने मन के अहम् का शमन कर अपने से बाहर की व्यापक सचाई को हृदयंगम करते हुए संकीर्णताओं और कट्टरता से ऊपर एक जनवादी भावभूमि की खोज-मेरी इस छन्द-यात्रा के यही प्रमुख मोड़ रहे हैं।
सबसे पिछला मोड़ ‘कवि और अनजान पगध्वनियाँ’ में स्पष्ट उभर आया है। इस मोड़ का प्रारम्भ ‘ठण्डा लोहा’ से हुआ था। वही इस संग्रह की प्रथम कविता है और उसी पर संग्रह का भी नामकरण हुआ है। चयन के क्रम में कई कारणों से रचनाकाल का आधार नहीं रखा जा सका। इधर की नवीनतम कविताएँ इस संग्रह में नहीं दी गयीं क्योंकि वे एक नये विकास-क्रम सूत्र का सूत्रपात करती हैं।
मेरे जिन कवि मित्रों या आलोचक बन्धुओं ने समय-समय पर मेरी कविताओं का विश्लेषण कर उनके विषय में बहुमूल्य सुझाव दिये हैं, उनकी न्यूनताओं और दोषों की ओर मेरा ध्यान आकर्षित किया है, उनका मैं हृदय से आभारी हूँ। जिन्होंने किसी भी दलगत अथवा व्यक्तिगत पूर्वधारणा के कारण बिना उनका सम्यक् विश्लेषण किये हुए ही उन पर निर्णय दिये हैं, उनका भी मैं आभारी हूँ, क्योंकि ऐसे निर्णयों का भी अपना एक अलग ही रस होता है। प्रार्थना करता हूँ कि वे ऐसी पूर्वधारणाओं से मुक्त हों ताकि उनसे मुझे अधिक ठोस और उपयोगी सुझाव मिल सकें जो मेरे विकास और परिमार्जन में सचमुच सहायक सिद्ध हों।
मैं अपना पथ बना रहा हूँ। जिन्दगी से अलग रहकर नहीं, जिन्दगी के संघर्षों को झेलता हुआ, उसके दुःख-दर्द में एक गम्भीर अर्थ ढूँढ़ता हुआ, और उस अर्थ के सहारे अपने को जनव्यापी सचाई के प्रति अर्पित करने का प्रयास करता हुआ। कवि का जीवन, कवि की वाणी, अर्पित जीवन और अर्पित वाणी होते हैं। आशीर्वाद चाहता हूँ कि धीरे-धीरे मैं और मेरी कलम एक निर्मल और सशक्त माध्यम बन सकें जिससे विराट् जीवन, उसका सुख-दुःख उसकी प्रगति और उसका अर्थ व्यक्त हो सके। यही मेरी कविता की सार्थकता होगी।
मैं अपने को स्वतः में सम्पूर्ण, निस्संग, निरपेक्ष, सत्य नहीं मानता। मेरी परिस्थितियाँ, मेरे जीवन में आने और आकर चले जानेवाले लोग, मेरा समाज, मेरा वर्ग, मेरे संघर्ष, मेरी समकालीन राजनीति और समकालीन साहित्यिक प्रवृत्तियाँ, इन सभी का मेरे और मेरी कविता के रूप-गठन और विकास में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष भाग रहा है। मैं और मेरी कविता तो चाक पर चढ़ी हुई गीली मिट्टी हैं जिसमें से ‘अनजान उँगलियाँ’ धीरे-धीरे मनचाहा रूप निकाल रही हैं।
इसी सतत निर्माण और विकास को ध्यान में रखकर मैंने कहा है कि ‘ये गलियाँ थीं जिनसे होकर मैं गुजर चुका।’ यद्यपि आज मेरा मन उस भूमि पर है जो कवि और अनजान पगध्वनियाँ’ या ‘कलाकार से’ या ‘फूल, मोमबत्तियाँ, सपने’ की भावभूमि है: पर जिन गलियों से मैं गुजर चुका हूँ उनका महत्व कतई कम नहीं होता, क्योंकि उन्हीं से गुजरकर मैं यहाँ तक पहुँचा हूँ। किशोरावस्था के प्रणय, रूपासक्ति और आकुल निराशा से एक पावन, आत्मसमर्पणमयी वैष्णव भावना और उसके माध्यम से अपने मन के अहम् का शमन कर अपने से बाहर की व्यापक सचाई को हृदयंगम करते हुए संकीर्णताओं और कट्टरता से ऊपर एक जनवादी भावभूमि की खोज-मेरी इस छन्द-यात्रा के यही प्रमुख मोड़ रहे हैं।
सबसे पिछला मोड़ ‘कवि और अनजान पगध्वनियाँ’ में स्पष्ट उभर आया है। इस मोड़ का प्रारम्भ ‘ठण्डा लोहा’ से हुआ था। वही इस संग्रह की प्रथम कविता है और उसी पर संग्रह का भी नामकरण हुआ है। चयन के क्रम में कई कारणों से रचनाकाल का आधार नहीं रखा जा सका। इधर की नवीनतम कविताएँ इस संग्रह में नहीं दी गयीं क्योंकि वे एक नये विकास-क्रम सूत्र का सूत्रपात करती हैं।
मेरे जिन कवि मित्रों या आलोचक बन्धुओं ने समय-समय पर मेरी कविताओं का विश्लेषण कर उनके विषय में बहुमूल्य सुझाव दिये हैं, उनकी न्यूनताओं और दोषों की ओर मेरा ध्यान आकर्षित किया है, उनका मैं हृदय से आभारी हूँ। जिन्होंने किसी भी दलगत अथवा व्यक्तिगत पूर्वधारणा के कारण बिना उनका सम्यक् विश्लेषण किये हुए ही उन पर निर्णय दिये हैं, उनका भी मैं आभारी हूँ, क्योंकि ऐसे निर्णयों का भी अपना एक अलग ही रस होता है। प्रार्थना करता हूँ कि वे ऐसी पूर्वधारणाओं से मुक्त हों ताकि उनसे मुझे अधिक ठोस और उपयोगी सुझाव मिल सकें जो मेरे विकास और परिमार्जन में सचमुच सहायक सिद्ध हों।
मैं अपना पथ बना रहा हूँ। जिन्दगी से अलग रहकर नहीं, जिन्दगी के संघर्षों को झेलता हुआ, उसके दुःख-दर्द में एक गम्भीर अर्थ ढूँढ़ता हुआ, और उस अर्थ के सहारे अपने को जनव्यापी सचाई के प्रति अर्पित करने का प्रयास करता हुआ। कवि का जीवन, कवि की वाणी, अर्पित जीवन और अर्पित वाणी होते हैं। आशीर्वाद चाहता हूँ कि धीरे-धीरे मैं और मेरी कलम एक निर्मल और सशक्त माध्यम बन सकें जिससे विराट् जीवन, उसका सुख-दुःख उसकी प्रगति और उसका अर्थ व्यक्त हो सके। यही मेरी कविता की सार्थकता होगी।
धर्मवीर भारती
ठण्डा लोहा
ठण्डा लोहा ठण्डा लोहा ठण्डा लोहा
मेरी दुखती हुई रगों पर ठण्डा लोहा
मेरी स्वप्न-भरी पलकों पर
मेरे गीत-भरे होठों पर
मेरी दर्द-भरी आत्मा पर
स्वप्न नहीं अब
गीत नहीं अब
दर्द नहीं अब-
एक पर्त ठण्डे लोहे की
मैं जमकर लोहा बन जाऊँ-
हार मान लूँ-
यही शर्त ठण्डे लोहे की !
ओ मेरी आत्मा की संगिनी
तुम्हें समर्पित मेरी साँस-साँस थी लेकिन
मेरी साँसो में यम के तीखे नेजे-सा
कौन अड़ा है
ठण्डा लोहा
मेरे और तुम्हारे सारे भोले निश्छल विश्वासों को
आज कुचलने कौन खड़ा है
ठण्डा लोहा
फूलों से, सपनों से, आसूँ और प्यार से
कौन है बड़ा
ठण्डा लोहा
ओ मेरी आत्मा की संगिनी
अगर जिन्दगी की कारा में,
कभी छटपटाकर मुझको आवाज लगाओ
और कोई उत्तर न पाओ
यही समझना कोई इसको धीरे-धीरे निगल चुका है,
इस बस्ती में कोई दीप जलानेवाला नहीं बचा है,
सूरज और सितारे ठण्डे
राहें सूनी
विवश हवाएँ
शीश झुकाये
खड़ी मौन हैं,
बचा कौन है
ठण्डा लोहा ठण्डा लोहा ठण्डा लोहा
मेरी दुखती हुई रगों पर ठण्डा लोहा
मेरी स्वप्न-भरी पलकों पर
मेरे गीत-भरे होठों पर
मेरी दर्द-भरी आत्मा पर
स्वप्न नहीं अब
गीत नहीं अब
दर्द नहीं अब-
एक पर्त ठण्डे लोहे की
मैं जमकर लोहा बन जाऊँ-
हार मान लूँ-
यही शर्त ठण्डे लोहे की !
ओ मेरी आत्मा की संगिनी
तुम्हें समर्पित मेरी साँस-साँस थी लेकिन
मेरी साँसो में यम के तीखे नेजे-सा
कौन अड़ा है
ठण्डा लोहा
मेरे और तुम्हारे सारे भोले निश्छल विश्वासों को
आज कुचलने कौन खड़ा है
ठण्डा लोहा
फूलों से, सपनों से, आसूँ और प्यार से
कौन है बड़ा
ठण्डा लोहा
ओ मेरी आत्मा की संगिनी
अगर जिन्दगी की कारा में,
कभी छटपटाकर मुझको आवाज लगाओ
और कोई उत्तर न पाओ
यही समझना कोई इसको धीरे-धीरे निगल चुका है,
इस बस्ती में कोई दीप जलानेवाला नहीं बचा है,
सूरज और सितारे ठण्डे
राहें सूनी
विवश हवाएँ
शीश झुकाये
खड़ी मौन हैं,
बचा कौन है
ठण्डा लोहा ठण्डा लोहा ठण्डा लोहा
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