कहानी संग्रह >> रेणु रचना संचयन रेणु रचना संचयनभारत यायावर
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रेणु जी की उत्कृष्ट रचनाओं का संचयन...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
‘‘1998.....इलाहाबाद। मुहल्ला लूकरगंज में। हमारे घर
के सामने वाले खुले मैदान में—फुटबाल मैच से लेकर सांस्कृतिक
कार्यक्रमों के आयोजन तक नहीं होते थे।
उस बार, सरस्वती पूजा के दिन सुबह उठकर हम संगम नहाने गये। निराला जी का दर्शन किया-आशीर्वाद और फूल लेकर प्रसन्नचित लौटा।...महान दिवस।
लौटकर देखा सामने मैदान में पूजा मंडप में पुष्पाजंलि देने वाले नर-नारियों की भीड़ लगी है। मैं भी पुष्पांजलि देने लगा, बंगाली पुरोहित चिल्ला रहे थे -‘‘बस, एइबारे शेष। आर अंजलि होबे ना।’’
देखा, एक महिला अपने पंचवर्षीय बालक का हाथ जकड़े पुरोहित जी से कह रही थी- ‘‘एर हाते खड़ी...’’ पीली धोती और सफ़ेद कुर्ता पहने हाथ में स्लेट लिए उस बालक को देखकर मुझे अपने बचपन की याद आई।....इसी तरह हाथ में स्लेट और खल्ली लेकर मैंने भी ‘ओनामासीधं’ (ऊँ नमः सिद्ध) लिखा था। ‘हाते-खड़ी’ सम्पन्न होने के बाद भद्र महिला भीड़ में खड़े अपने स्वामी से बोली-‘‘होयेछे !’’
पंडितजी पुकार रहे थे-‘‘एबार शेष अंजलि !’’
भद्र महिला से आँखें चार हुई। मैंने पहचान लिया भद्र महिला के चेहरे पर तरह-तरह के भाव आए-गए। अपने स्वामी से कुछ कहा, उसने। फिर मेरे पास आकर बोली-‘‘चिनी-चिनी मने होच्छे।’’
मैंने कहा ‘‘ना।...आप मुझे नहीं पहचानतीं.... अवश्य आमि चिनी आपनाके। आपनि-? ’’
‘‘आपनी बेनारसेर छेले ?’’
किछुदिन छिलाम।’’
भीड़ से एक किशोरी कन्या निकल आई-‘‘मां आज रात्रे रामेर सुमित देखानो होबे, एइखाने।’’
मैं अवाक खड़ा उस बालिका को देखता रहा। मैं काशी के दशाश्मेध घाट पर चला गया- न जाने कब !....
(जारी...)
‘‘..सन् 1942 में, भागलपुर सेंट्रल जेल में मैं श्री रामदेनी तिवारी के साथ था। और अंतिम दिनों में मुझे उनकी सेवा करने का मौका प्राप्त हुआ-मुझे इस बात का संतोष है। अन्य सेवाओं के अलावा तीन उपन्यास पढ़कर सुनाए थे उन्हें। रवीन्द्रनाथ ठाकुर का ‘योगायोग’, प्रेमचन्द का ‘गोदान’ और अज्ञेय का ‘शेखर’ एक जीवनी’। मृत्यु से दो दिन पहले वे किसी के नाम (शायद अपने पुत्र) को एक पत्र लिखना चाहते थे मैं ‘प्रिजनर्स-लेटर’ पर क़लम थामकर घंटों बैठा रहा। वे चित लेटे, नाक पर उँगली रखे सोचते रहे। बहुत देर के बाद एक लंबी साँस लेकर बोले-‘‘नहीं। छोड़ दे बेटे ! कुछ नहीं लिखना-लिखाना है, अब !... और सुनो, तुम कविता छोड़कर कहानी लिखना शुरू करो।...कहानी के बाद उपन्यास।......नाटक....हास्य-व्यंग्य सब लिखना।
मैला आंचल प्रकाशित होने के बाद प्रकाशन-समारोह के बाद-मैं रात में फूट-फूटकर रोता रहा—पिताजी, तिवारी जी दोनों में से कोई नहीं रहे ! वे होते आज !!’’
उस बार, सरस्वती पूजा के दिन सुबह उठकर हम संगम नहाने गये। निराला जी का दर्शन किया-आशीर्वाद और फूल लेकर प्रसन्नचित लौटा।...महान दिवस।
लौटकर देखा सामने मैदान में पूजा मंडप में पुष्पाजंलि देने वाले नर-नारियों की भीड़ लगी है। मैं भी पुष्पांजलि देने लगा, बंगाली पुरोहित चिल्ला रहे थे -‘‘बस, एइबारे शेष। आर अंजलि होबे ना।’’
देखा, एक महिला अपने पंचवर्षीय बालक का हाथ जकड़े पुरोहित जी से कह रही थी- ‘‘एर हाते खड़ी...’’ पीली धोती और सफ़ेद कुर्ता पहने हाथ में स्लेट लिए उस बालक को देखकर मुझे अपने बचपन की याद आई।....इसी तरह हाथ में स्लेट और खल्ली लेकर मैंने भी ‘ओनामासीधं’ (ऊँ नमः सिद्ध) लिखा था। ‘हाते-खड़ी’ सम्पन्न होने के बाद भद्र महिला भीड़ में खड़े अपने स्वामी से बोली-‘‘होयेछे !’’
पंडितजी पुकार रहे थे-‘‘एबार शेष अंजलि !’’
भद्र महिला से आँखें चार हुई। मैंने पहचान लिया भद्र महिला के चेहरे पर तरह-तरह के भाव आए-गए। अपने स्वामी से कुछ कहा, उसने। फिर मेरे पास आकर बोली-‘‘चिनी-चिनी मने होच्छे।’’
मैंने कहा ‘‘ना।...आप मुझे नहीं पहचानतीं.... अवश्य आमि चिनी आपनाके। आपनि-? ’’
‘‘आपनी बेनारसेर छेले ?’’
किछुदिन छिलाम।’’
भीड़ से एक किशोरी कन्या निकल आई-‘‘मां आज रात्रे रामेर सुमित देखानो होबे, एइखाने।’’
मैं अवाक खड़ा उस बालिका को देखता रहा। मैं काशी के दशाश्मेध घाट पर चला गया- न जाने कब !....
(जारी...)
‘‘..सन् 1942 में, भागलपुर सेंट्रल जेल में मैं श्री रामदेनी तिवारी के साथ था। और अंतिम दिनों में मुझे उनकी सेवा करने का मौका प्राप्त हुआ-मुझे इस बात का संतोष है। अन्य सेवाओं के अलावा तीन उपन्यास पढ़कर सुनाए थे उन्हें। रवीन्द्रनाथ ठाकुर का ‘योगायोग’, प्रेमचन्द का ‘गोदान’ और अज्ञेय का ‘शेखर’ एक जीवनी’। मृत्यु से दो दिन पहले वे किसी के नाम (शायद अपने पुत्र) को एक पत्र लिखना चाहते थे मैं ‘प्रिजनर्स-लेटर’ पर क़लम थामकर घंटों बैठा रहा। वे चित लेटे, नाक पर उँगली रखे सोचते रहे। बहुत देर के बाद एक लंबी साँस लेकर बोले-‘‘नहीं। छोड़ दे बेटे ! कुछ नहीं लिखना-लिखाना है, अब !... और सुनो, तुम कविता छोड़कर कहानी लिखना शुरू करो।...कहानी के बाद उपन्यास।......नाटक....हास्य-व्यंग्य सब लिखना।
मैला आंचल प्रकाशित होने के बाद प्रकाशन-समारोह के बाद-मैं रात में फूट-फूटकर रोता रहा—पिताजी, तिवारी जी दोनों में से कोई नहीं रहे ! वे होते आज !!’’
(आत्मरेखा चित्र से)
अपनी लेखनी के बल पर अपने जीवन काल में ही मिथक बन गये फणीश्वरनाथ
‘रेणु’ (1921-1977) ने हिन्दी कथा साहित्य में नये
प्रतिमान
स्थापित किये। उनके उपन्यास, कहानी-संग्रह, रिपोर्ताज़, वैचारिक स्तंभ ये
मात्र एक रचनाकार जीवन के जीवन्त अनुभव ही नहीं बल्कि हमारे साहित्य के
ऐतिहासिक दस्तावेज़ भी हैं प्रेमचन्द के बाद हिन्दी का यह कथाशिल्पी अपने
पाठकों में सबसे ज़्यादा प्रिय और समादृत है।
साहित्य अकादेमी द्वारा प्रकाशित इस संचयन के लिए श्री भारत यायावर ने रेणु की रचनाओं से प्रतिनिधि सामग्री का चयन किया है और विस्तृत भूमिका लिखी है। हिन्दी पाठकों के लिए सर्वथा संग्रहणीय संचयन !
साहित्य अकादेमी द्वारा प्रकाशित इस संचयन के लिए श्री भारत यायावर ने रेणु की रचनाओं से प्रतिनिधि सामग्री का चयन किया है और विस्तृत भूमिका लिखी है। हिन्दी पाठकों के लिए सर्वथा संग्रहणीय संचयन !
सम्पादकीय
फणीश्वरनाथ रेणु की रचनाओं में कुछेक का चयन प्रस्तुत करना बेहद मुश्किल
काम है। रेणु हिन्दी के ऐसे कथाशिल्पी हैं, जिन्होंने सत्तर-अस्सी प्रतिशत
महत्त्वपूर्ण और श्रेष्ठ लिखा है। अपने दौर के अन्य कथाकारों की तुलना में
रेणु की कृतियाँ ज़्यादा चर्चित रही हैं। छठे दशक की सर्वश्रेष्ठ कहानी
‘तीसरी कसम अर्थात मारे गये गुल्फाम’ है और मैला आँचल
तथा
परती-परिकथा सर्वश्रेष्ठ उपन्यास। इसलिए यह चयन उनकी रचनाशीलता की एक
बानगी भर है। रेणु ने प्रायः हर विधा में कुछ-न-कुछ लिखा है। यहाँ उनके
कुछ रेखाचित्र, कथा-रिपोतार्ज एवं कहानियों को रखा गया है। कुल मिलाकर
पच्चीस रचनाएँ।
इस संकलन की पहली रचना आत्म-रेखाचित्र ‘पाण्डुलेख’ है। इसकी शुरुआत करते हुए रेणु कहते हैं-‘‘अपने बारे में जब कभी कुछ लिखना चाहा जी.बी.एस.(यानी जॉर्ज बर्नाड शॉ) की मूर्ति उभरकर सामने खड़ी हो जाती आँखों में व्यंग्य और दाढ़ी में एक भेदभरी मुस्कुराहट लेकर।
और क़लम रुक जाती। अपने बारे में सही-सही कुछ लिखना संभव नहीं।..कोई लिख ही नहीं सकता।’’ यह है रेणु की आत्म-स्वीकृति। इसलिए उन्होंने अपनी आत्मकथा नहीं लिखी। बहुत मुश्किल से अपना यह आत्म-रेखाचित्र ‘पाण्डुलेख।’ रेणु अपनी रचनाशीलता के प्रारम्भिक दौर में जॉर्ज बर्नार्ड शॉ से काफ़ी प्रभावित थे। उनका कटु सत्यवक्ता होना, अपने बारे में बेलाग ढंग से बातें करना, जितना समाज-व्यवस्था के प्रति व्यंग्य और आलोचना का भाव, उतना ही अपने प्रति भी। कुछ भी दुराव-छुपाव नहीं। रेणु शॉ के इन गुणों से बेहद प्रभावित थे। 1950 ई. में लिखे रेणु के एक पत्र का एक अंश-
‘‘George Bernard Shaw declears-
Yes, of-course, I am a communist.’’
और न जाने क्यों मैं जब-इस पंक्ति को पढ़ता हूँ हँसते-हँसते मेरा दम फूलने लगता है। अपने को सब कुछ कह देने वाले दो ही महान व्यक्ति ज़माने में हुए। एक तो दुनिया की बदकिस्मती से मार डाले गये। रह गये हैं बस एक। जी.बी.एस. नहीं होगा ? गाँधी के साथ ही ‘सत्य’ ख़त्म। उनकी चिता की ज्वाला में जलकर राख हुए ‘सत्य’ को पुड़िये में बंद कर या सोने के कलश में बैठाकर, फ़ौजों की सलामियाँ देकर, झंडे झुकाकर या लहरा कर हिंदुस्तान की सभी बड़ी- बड़ी नदियों में विसर्जित कर दिया गया।...जीने का सहारा है—मुस्कुराहट। हम उनकी बातों को पढ़ते हैं और हमें उन बातों में छिपी हुई, लापरवाह हँसी की झलक दिखायी पड़ती है। दिल गुदगुदा उठता है। हम मुस्कुरा पड़ते हैं। गाँधी और ‘शॉ’ की बातें...। वे नहीं रहेंगे तो क्या, उनकी बातें तो रहेंगी।’’
सो, रेणु के आदर्श इन सत्यवक्ताओं की वाणी का दबाव उनकी रचनाशीलता पर भी बहुत कुछ पड़ा और उन्होंने अपने बारे में लिखते हुए वैसी घटनाओं एवं स्मृतियों को सामने रखा है, जिन्हें एक बड़ा लेखक प्रायः छुपाने की कोशिश करता है। रेणु लिखते हैं—
‘‘अपने बारे में अथवा आत्म-परिचय देने वाले लेख में, जहाँ भी मैंने किसी बात या घटना को जरा भी तोड़ा या मरोड़ा कि वे सभी—जो जहाँ हैं—मुझे गालियाँ देंगे। और कई दोस्तों से हार-जीत की बाजी लगाकर प्रतिज्ञाबद्ध हूँ-अपने बारे में जब लिखूँगा-बेपर्द होकर लिखूंगा।’’ यहाँ वे सभी से तात्पर्य रेणु के अपने गाँव इलाक़े के उन सभी मित्रों से है जो विभिन्न पेशे के हैं-हर वर्ग और समुदाय के लोग ! और रेणु रचना करते हुए उनके एकाकार होते हैं। उनके इन मित्रों ने उन्हें कुछ दिया है। मसलन अनेक टटके शब्द, अनेक चरित्र, कथा के लिए प्लॉट। इसीलिए रेणु दूसरे या तीसरे महीने भागकर शहर से गाँव चले जाते थे। जहाँ घुटने से ऊपर धोती या तहमद उठाकर—फटी गंजी पहने गाँव की गलियों में, खेतों-मैदानों में घूमते थे। अपने सभी प्रकार के ‘मुखौटों’ को उतारकर ताजी हवा अपने रोगग्रस्त फेफड़ों में भरते थे। फिर शहर आते समय भद्रता का ‘मुखोस’ ओढ़ लेते थे। किंतु, कहानी या उपन्यास लिखते समय जब थकावट महसूस होती अथवा कहीं उलझ जाते तो कोई ग्राम गीत गुनगुमाने लगते। रेणु को हजारों को संख्या में लोकगीत एवं लोककथाएँ याद थीं। इसे उन्होंने अपने गाँव के लोगों से सीखी थीं। उन्होंने गाँव के लोगों से जीवित शब्द और भाषा भी ग्रहण की थी। यहाँ तक की पशु-पक्षियों की बोली बानी को भी एक नया अर्थ सन्दर्भ दिया था।
ढोल मंजीरे की ध्वनियों से उभरने वाली भाषा को भी समझा था और हिन्दी साहित्य में इन सब के साथ अवतरित हुए थे। कुछ उदाहरण देखें-‘‘मृदंग कहे धिक है, धिक है...मंजीर कहे किनको किनको ! तब हाथ नचाय के गणिका कहती—इनको-इनको इनको-इनको !’’ (नेपथ्य का अभिनेता) ‘पहलवान की ढोलक’ कहानी में उन्होंने ढोल के विभिन्न तालों से निकलने वाले अर्थ को अभिव्यक्त किया है जैसे ‘चट-धा गिड़-धा, चट्-धा गिड़-धा—यानी। आजा भिड़जा, आजा भिड़जा ! धाक-धिना, तिरकट-तिन—यानी दाँव काटो, बाहर हो जा !..चटाक् चट-धा, चटाक्-चट-धा..यानी उठा पटक दे, उठा पटक दे।...धिक धिना, धिक-धिना—यानी चित करो, चित करो !’’ रेणु ने अपने उपन्यास परती परिकथा में चिड़ियों एवं पक्षियों की विभिन्न प्रकार की आवाजों के अर्थ-सन्दर्भ दिये हैं। जुलूस उपन्यास के प्रारम्भ में ही ‘हल्दी चिरैया’ दिखायी पड़ती है-‘का कास्य परिवेदना’ कहती हुई। रेणु की एक संस्मरणात्मक रचना-‘ईश्वर रे, मेरे बेचारे’। इसमें वे आम पक्षियों के अलावा कई नये पक्षियों का अनुसन्धान करते हैं। अब ‘कूँखनी’ नामक चिड़िया भी होती है, हमें क्या पता ?
और दुदुमा ! रेणु लिखते हैं—‘‘रात गहरी होने के बाद अक्सर नर और मादा का सवाल-जवाब सुनायी पड़ता। नर की आवाज़ कुछ इस तेवर के साथ कि वह नींद में सोयी हुई मादा को जगा रहा हो-‘‘एँ हें एँ ?’’ अर्थात् जगी हो ? जवाब में एक कुनमुनायी-सी नींद में आती हुई आवाज़ ‘‘एह ! ऐंहें-ऐहें ऐहें !’’ अर्थात् ‘‘ओह ! जगी ही तो हूँ। क्यों बेकार....’’ और तब, नर दुदुमा एक बार फिर बोलता ‘‘ऐहें ऐहें !’’ अर्थात् ‘‘हाँ, जगी रहो।’’
इस तरह के प्रसंग रेणु साहित्य में यत्र-तत्र-सर्वत्र बिखरे पड़े हैं। इसीलिए रेणु की भाषा इतनी प्राणवंत, इतनी रससिक्त, इतनी कोमल, इतनी ललित, इतनी ग्राह्य है ! याद करें, रेणु के पूर्व के कथा-साहित्य को। प्रेमचंद के बाद कथा साहित्य में एक ख़ास तरह के आभिजात्य का आधिपत्य ! भाषा अपनी तत्सम-धर्मिता और ‘शब्दों के खेल’ और उक्ति-वैचित्र्य के जाल में छटपटा रही थी।
उसका दम घुट रहा था। लोकभाषा और लोकजीवन से जब भी साहित्य कटता है, उसकी यही दशा होती है। यहाँ मैं डॉ. नामवर सिंह की एक स्थापना को उद्धृत करना चाहूँगा-‘‘विचार जिस प्रकार प्राप्त होता है, उसी प्रकार अभिव्यक्त भी होता है। यदि वह पुस्तकों से प्राप्त होता है, तो पुस्तकी ढंग से प्रकट होता है; यदि वह जनारण्य से दूर एकान्त कमरे में आराम-कुर्सी के चिन्तन से प्राप्त होता है, तो रचना में भी एकान्त और वैयक्तिक चिन्तन का रूप लेता है; और यदि वह जीवन के संघर्षों में कुछ निछावर करने से प्राप्त होता है, तो उसी गर्मी, ताज़गी, उसी सजीवता, उसी सक्रियता तथा उसी मूर्तिमत्ता के साथ रूपायित होता है। साहित्य में इसी रूपायन का महत्त्व है।’’
और रेणु इस प्रकार के रूपायन के आज़ादी के बाद के हिन्दी के सबसे बड़े कथाकार। उनके लोक जीवन और लोकभाषा से सान्निध्य के कारण ही उनका कथा साहित्य सिर्फ़ महत्त्वपूर्ण नहीं है। उन्होंने आज़ादी की लड़ाई में अपना लहू बहाया था, पुलिस की बर्बरता झेली थी, जेल की यातना सही थी, कई किसान मजदूर आंदोलनों में शरीक होकर भूमिपतियों एवं पूँजीपतियों के उत्पीड़न सहे थे, पड़ोसी देश नेपाल की जनता की मुक्ति के लिए क़लम से ही नहीं, बल्कि काया से भी ‘क्रांति-कथा’ रची थी, राजनीतिक पार्टियों के असली चरित्र को बहुत निकट से देखा था, अपने गाँव इलाके के सत्तर प्रतिशत गाँवों में जन-जागरण के लिए उपस्थित हुए थे, सत्ता की निरंकुशता के विरुद्ध सड़क पर जुलूस का नेतृत्व किया था। रोग जर्जर काया के भीतर भी इसलिए ‘दिव्य प्रतिवाद से हरदम उनका यह जीवन जलता रहता है।’
रेणु का मैला आँचल (1954) जब प्रकाशित हुआ तो इसे हिन्दी साहित्य के पंडितों ने एक चमत्कार माना। कहा गया कि रेणु अपनी इसी पहली ही कृति से प्रेमचन्द के समानान्तर खड़े हो गये हैं। पर यह रेणु की पहली कृति नहीं थी। इसके पूर्व रेणु काफी कुछ लिख चुके थे। एक लंबा संघर्षमय जीवन जी चुके थे। उन्होंने कहीं से ‘इलहाम’ पाकर वह कृति नहीं लिखी थी और कोई लिख भी नहीं सकता है। मैला आँचल का प्रकाशन अगस्त, 1954 में हुआ।
इसके छपते ही हिन्दी-कथा-साहित्य में धूप मच गयी थी। उसी समय डॉ. नामवर सिंह ने एक लेख में इस कृति पर चर्चा करते हुए कुछ महत्त्वपूर्ण बातें कहीं थीं, जो आज भी प्रासंगिक हैं-‘‘अभी-अभी एकदम नये लेखक फणीश्वरनाथ रेणु का उपन्यास मैला आँचल निकला है। उपन्यास पढ़ते ही कौतुकी लोग चौंक उठे और विस्मयादि बोधक स्वर में ‘प्रतिभा-प्रतिभा’ चिल्लाने लगे। कुछ लोगों ने तो यहाँ तक भविष्यवाणी कर दी कि रेणु अब ऐसी अथवा इससे अच्छी रचना न कर सकेंगे। इनके कहने से भी ऐसा ही लगता है गोया यह कृति अचानक बन पड़ी है।
परंतु रेणु का यह उत्थान क्या सचमुच आकस्मिक है ?’’ नामवर जी ने यह जो प्रश्न उठाया है, वह मेरे भीतर भी कभी उठा था और जब मैंने अप्रकाशित रेणु की खोज शुरू की तो वे विपुल रचनाएँ मिलीं और जन-संघर्षी रेणु मिले और वह अथक साधना मिली, जिसका अग्रिम चरण मैला आँचल था। रेणु की मैला आँचल के पूर्व की रचनाएँ उनके अभूतपूर्व रचना कौशल विराट जनजीवन को अपने अन्तर्विरोधों सहित अभिव्यक्त करने की क्षमता का पता देती हैं। नामवर सिंह आगे कहते हैं-‘‘लेखक ने इसमें मिथिला के एक गाँव का सर्वांगीण जीवन इतने सजीव रूप में उपस्थित किया है कि हम दंग रह जाते हैं। यही है रेणु की विशेषता, क्योंकि रेणु से पहले किसी अन्य व्यक्ति ने यह कार्य इतनी सफलता से नहीं किया था।’’
रेणु के सम्पूर्ण लेखन के बीच प्रतिवाद का स्वर मुखरित है। झंडों और डंडों के वे हिमायती नहीं हैं, किन्तु एक तीखा और कड़वा भाव इनके प्रति है। कारण यह है कि इस देश को, इसकी आज़ादी को यहाँ की राजनीति ने पुष्पित-पल्लवित तो नहीं ही किया, इसे ठूँठ बनाने का काम ज़्यादा किया। पतनशीलता की चरम पराकाष्ठा को देखकर वे कहते हैं-‘‘मैंने आज़ादी की लड़ाई आज के भारत के लिए नहीं लड़ी थी। अन्याय और भ्रष्टाचार अब तक मेरे लेखन का विषय रहा है और मैं सपने देखता रहा हूँ कि यह कब ख़त्म हो। अपने सपनों को साकार करने के लिए जन-संघर्ष में सक्रिय हो गया हूँ।’’ (दिनमान, 28 अप्रैल, 1974) अन्याय और भ्रष्टाचार के विरुद्ध उनका जीवन प्रारम्भ से अन्त तक सक्रिय रहा।
सक्रिय ही नहीं ‘अपनी ज्वाला से आप ज्वलित जो जीवन’ का उदाहरण रहा। ऐसे व्यक्तित्व और लेखक हिन्दी-साहित्य ही नहीं, विश्व-साहित्य में भी दुर्लभ होते गये हैं। रेणु का प्रारम्भिक जीवन अनेक घटना बहुल जीवन-संघर्षों से भरा पड़ा है और उनकी प्रारम्भिक लेखन बेहद ओजस्वी, प्रखर और तल्ख़ है। उनकी परवर्ती कृतियों से उनका महत्त्व किसी भी तरह कम नहीं। साथ ही उन्हीं की भित्ति पर उनके परवर्ती लेखन का निर्माण हुआ है, इसलिए इनका पठन-वाचन रेणु की अन्य रचनाओं की परतों को भी खोलता है। इससे यह भी पता चलता है कि मैला आँचल जैसी महान् कृति के लेखक ने अचानक यह कृति नहीं लिख दी, बल्कि उसके पीछे उसकी एक लम्बी साहित्य साधना भी है, लम्बा जन-संघर्ष है, अन्याय के प्रति ‘दिव्य प्रतिवाद’ है। विभिन्न राजनीतिक दलों के छद्मों का अनावरण है, अपने इलाके के दीन-दुखी जनों के प्रति रागात्मक लगाव है। रेणु की इन प्रारम्भिक रचनाओं में से कुछ को यहाँ इस संकलन में रखा गया है, जिनकी चर्चा आगे विस्तार से।
इस संकलन की पहली रचना आत्म-रेखाचित्र ‘पाण्डुलेख’ है। इसकी शुरुआत करते हुए रेणु कहते हैं-‘‘अपने बारे में जब कभी कुछ लिखना चाहा जी.बी.एस.(यानी जॉर्ज बर्नाड शॉ) की मूर्ति उभरकर सामने खड़ी हो जाती आँखों में व्यंग्य और दाढ़ी में एक भेदभरी मुस्कुराहट लेकर।
और क़लम रुक जाती। अपने बारे में सही-सही कुछ लिखना संभव नहीं।..कोई लिख ही नहीं सकता।’’ यह है रेणु की आत्म-स्वीकृति। इसलिए उन्होंने अपनी आत्मकथा नहीं लिखी। बहुत मुश्किल से अपना यह आत्म-रेखाचित्र ‘पाण्डुलेख।’ रेणु अपनी रचनाशीलता के प्रारम्भिक दौर में जॉर्ज बर्नार्ड शॉ से काफ़ी प्रभावित थे। उनका कटु सत्यवक्ता होना, अपने बारे में बेलाग ढंग से बातें करना, जितना समाज-व्यवस्था के प्रति व्यंग्य और आलोचना का भाव, उतना ही अपने प्रति भी। कुछ भी दुराव-छुपाव नहीं। रेणु शॉ के इन गुणों से बेहद प्रभावित थे। 1950 ई. में लिखे रेणु के एक पत्र का एक अंश-
‘‘George Bernard Shaw declears-
Yes, of-course, I am a communist.’’
और न जाने क्यों मैं जब-इस पंक्ति को पढ़ता हूँ हँसते-हँसते मेरा दम फूलने लगता है। अपने को सब कुछ कह देने वाले दो ही महान व्यक्ति ज़माने में हुए। एक तो दुनिया की बदकिस्मती से मार डाले गये। रह गये हैं बस एक। जी.बी.एस. नहीं होगा ? गाँधी के साथ ही ‘सत्य’ ख़त्म। उनकी चिता की ज्वाला में जलकर राख हुए ‘सत्य’ को पुड़िये में बंद कर या सोने के कलश में बैठाकर, फ़ौजों की सलामियाँ देकर, झंडे झुकाकर या लहरा कर हिंदुस्तान की सभी बड़ी- बड़ी नदियों में विसर्जित कर दिया गया।...जीने का सहारा है—मुस्कुराहट। हम उनकी बातों को पढ़ते हैं और हमें उन बातों में छिपी हुई, लापरवाह हँसी की झलक दिखायी पड़ती है। दिल गुदगुदा उठता है। हम मुस्कुरा पड़ते हैं। गाँधी और ‘शॉ’ की बातें...। वे नहीं रहेंगे तो क्या, उनकी बातें तो रहेंगी।’’
सो, रेणु के आदर्श इन सत्यवक्ताओं की वाणी का दबाव उनकी रचनाशीलता पर भी बहुत कुछ पड़ा और उन्होंने अपने बारे में लिखते हुए वैसी घटनाओं एवं स्मृतियों को सामने रखा है, जिन्हें एक बड़ा लेखक प्रायः छुपाने की कोशिश करता है। रेणु लिखते हैं—
‘‘अपने बारे में अथवा आत्म-परिचय देने वाले लेख में, जहाँ भी मैंने किसी बात या घटना को जरा भी तोड़ा या मरोड़ा कि वे सभी—जो जहाँ हैं—मुझे गालियाँ देंगे। और कई दोस्तों से हार-जीत की बाजी लगाकर प्रतिज्ञाबद्ध हूँ-अपने बारे में जब लिखूँगा-बेपर्द होकर लिखूंगा।’’ यहाँ वे सभी से तात्पर्य रेणु के अपने गाँव इलाक़े के उन सभी मित्रों से है जो विभिन्न पेशे के हैं-हर वर्ग और समुदाय के लोग ! और रेणु रचना करते हुए उनके एकाकार होते हैं। उनके इन मित्रों ने उन्हें कुछ दिया है। मसलन अनेक टटके शब्द, अनेक चरित्र, कथा के लिए प्लॉट। इसीलिए रेणु दूसरे या तीसरे महीने भागकर शहर से गाँव चले जाते थे। जहाँ घुटने से ऊपर धोती या तहमद उठाकर—फटी गंजी पहने गाँव की गलियों में, खेतों-मैदानों में घूमते थे। अपने सभी प्रकार के ‘मुखौटों’ को उतारकर ताजी हवा अपने रोगग्रस्त फेफड़ों में भरते थे। फिर शहर आते समय भद्रता का ‘मुखोस’ ओढ़ लेते थे। किंतु, कहानी या उपन्यास लिखते समय जब थकावट महसूस होती अथवा कहीं उलझ जाते तो कोई ग्राम गीत गुनगुमाने लगते। रेणु को हजारों को संख्या में लोकगीत एवं लोककथाएँ याद थीं। इसे उन्होंने अपने गाँव के लोगों से सीखी थीं। उन्होंने गाँव के लोगों से जीवित शब्द और भाषा भी ग्रहण की थी। यहाँ तक की पशु-पक्षियों की बोली बानी को भी एक नया अर्थ सन्दर्भ दिया था।
ढोल मंजीरे की ध्वनियों से उभरने वाली भाषा को भी समझा था और हिन्दी साहित्य में इन सब के साथ अवतरित हुए थे। कुछ उदाहरण देखें-‘‘मृदंग कहे धिक है, धिक है...मंजीर कहे किनको किनको ! तब हाथ नचाय के गणिका कहती—इनको-इनको इनको-इनको !’’ (नेपथ्य का अभिनेता) ‘पहलवान की ढोलक’ कहानी में उन्होंने ढोल के विभिन्न तालों से निकलने वाले अर्थ को अभिव्यक्त किया है जैसे ‘चट-धा गिड़-धा, चट्-धा गिड़-धा—यानी। आजा भिड़जा, आजा भिड़जा ! धाक-धिना, तिरकट-तिन—यानी दाँव काटो, बाहर हो जा !..चटाक् चट-धा, चटाक्-चट-धा..यानी उठा पटक दे, उठा पटक दे।...धिक धिना, धिक-धिना—यानी चित करो, चित करो !’’ रेणु ने अपने उपन्यास परती परिकथा में चिड़ियों एवं पक्षियों की विभिन्न प्रकार की आवाजों के अर्थ-सन्दर्भ दिये हैं। जुलूस उपन्यास के प्रारम्भ में ही ‘हल्दी चिरैया’ दिखायी पड़ती है-‘का कास्य परिवेदना’ कहती हुई। रेणु की एक संस्मरणात्मक रचना-‘ईश्वर रे, मेरे बेचारे’। इसमें वे आम पक्षियों के अलावा कई नये पक्षियों का अनुसन्धान करते हैं। अब ‘कूँखनी’ नामक चिड़िया भी होती है, हमें क्या पता ?
और दुदुमा ! रेणु लिखते हैं—‘‘रात गहरी होने के बाद अक्सर नर और मादा का सवाल-जवाब सुनायी पड़ता। नर की आवाज़ कुछ इस तेवर के साथ कि वह नींद में सोयी हुई मादा को जगा रहा हो-‘‘एँ हें एँ ?’’ अर्थात् जगी हो ? जवाब में एक कुनमुनायी-सी नींद में आती हुई आवाज़ ‘‘एह ! ऐंहें-ऐहें ऐहें !’’ अर्थात् ‘‘ओह ! जगी ही तो हूँ। क्यों बेकार....’’ और तब, नर दुदुमा एक बार फिर बोलता ‘‘ऐहें ऐहें !’’ अर्थात् ‘‘हाँ, जगी रहो।’’
इस तरह के प्रसंग रेणु साहित्य में यत्र-तत्र-सर्वत्र बिखरे पड़े हैं। इसीलिए रेणु की भाषा इतनी प्राणवंत, इतनी रससिक्त, इतनी कोमल, इतनी ललित, इतनी ग्राह्य है ! याद करें, रेणु के पूर्व के कथा-साहित्य को। प्रेमचंद के बाद कथा साहित्य में एक ख़ास तरह के आभिजात्य का आधिपत्य ! भाषा अपनी तत्सम-धर्मिता और ‘शब्दों के खेल’ और उक्ति-वैचित्र्य के जाल में छटपटा रही थी।
उसका दम घुट रहा था। लोकभाषा और लोकजीवन से जब भी साहित्य कटता है, उसकी यही दशा होती है। यहाँ मैं डॉ. नामवर सिंह की एक स्थापना को उद्धृत करना चाहूँगा-‘‘विचार जिस प्रकार प्राप्त होता है, उसी प्रकार अभिव्यक्त भी होता है। यदि वह पुस्तकों से प्राप्त होता है, तो पुस्तकी ढंग से प्रकट होता है; यदि वह जनारण्य से दूर एकान्त कमरे में आराम-कुर्सी के चिन्तन से प्राप्त होता है, तो रचना में भी एकान्त और वैयक्तिक चिन्तन का रूप लेता है; और यदि वह जीवन के संघर्षों में कुछ निछावर करने से प्राप्त होता है, तो उसी गर्मी, ताज़गी, उसी सजीवता, उसी सक्रियता तथा उसी मूर्तिमत्ता के साथ रूपायित होता है। साहित्य में इसी रूपायन का महत्त्व है।’’
और रेणु इस प्रकार के रूपायन के आज़ादी के बाद के हिन्दी के सबसे बड़े कथाकार। उनके लोक जीवन और लोकभाषा से सान्निध्य के कारण ही उनका कथा साहित्य सिर्फ़ महत्त्वपूर्ण नहीं है। उन्होंने आज़ादी की लड़ाई में अपना लहू बहाया था, पुलिस की बर्बरता झेली थी, जेल की यातना सही थी, कई किसान मजदूर आंदोलनों में शरीक होकर भूमिपतियों एवं पूँजीपतियों के उत्पीड़न सहे थे, पड़ोसी देश नेपाल की जनता की मुक्ति के लिए क़लम से ही नहीं, बल्कि काया से भी ‘क्रांति-कथा’ रची थी, राजनीतिक पार्टियों के असली चरित्र को बहुत निकट से देखा था, अपने गाँव इलाके के सत्तर प्रतिशत गाँवों में जन-जागरण के लिए उपस्थित हुए थे, सत्ता की निरंकुशता के विरुद्ध सड़क पर जुलूस का नेतृत्व किया था। रोग जर्जर काया के भीतर भी इसलिए ‘दिव्य प्रतिवाद से हरदम उनका यह जीवन जलता रहता है।’
रेणु का मैला आँचल (1954) जब प्रकाशित हुआ तो इसे हिन्दी साहित्य के पंडितों ने एक चमत्कार माना। कहा गया कि रेणु अपनी इसी पहली ही कृति से प्रेमचन्द के समानान्तर खड़े हो गये हैं। पर यह रेणु की पहली कृति नहीं थी। इसके पूर्व रेणु काफी कुछ लिख चुके थे। एक लंबा संघर्षमय जीवन जी चुके थे। उन्होंने कहीं से ‘इलहाम’ पाकर वह कृति नहीं लिखी थी और कोई लिख भी नहीं सकता है। मैला आँचल का प्रकाशन अगस्त, 1954 में हुआ।
इसके छपते ही हिन्दी-कथा-साहित्य में धूप मच गयी थी। उसी समय डॉ. नामवर सिंह ने एक लेख में इस कृति पर चर्चा करते हुए कुछ महत्त्वपूर्ण बातें कहीं थीं, जो आज भी प्रासंगिक हैं-‘‘अभी-अभी एकदम नये लेखक फणीश्वरनाथ रेणु का उपन्यास मैला आँचल निकला है। उपन्यास पढ़ते ही कौतुकी लोग चौंक उठे और विस्मयादि बोधक स्वर में ‘प्रतिभा-प्रतिभा’ चिल्लाने लगे। कुछ लोगों ने तो यहाँ तक भविष्यवाणी कर दी कि रेणु अब ऐसी अथवा इससे अच्छी रचना न कर सकेंगे। इनके कहने से भी ऐसा ही लगता है गोया यह कृति अचानक बन पड़ी है।
परंतु रेणु का यह उत्थान क्या सचमुच आकस्मिक है ?’’ नामवर जी ने यह जो प्रश्न उठाया है, वह मेरे भीतर भी कभी उठा था और जब मैंने अप्रकाशित रेणु की खोज शुरू की तो वे विपुल रचनाएँ मिलीं और जन-संघर्षी रेणु मिले और वह अथक साधना मिली, जिसका अग्रिम चरण मैला आँचल था। रेणु की मैला आँचल के पूर्व की रचनाएँ उनके अभूतपूर्व रचना कौशल विराट जनजीवन को अपने अन्तर्विरोधों सहित अभिव्यक्त करने की क्षमता का पता देती हैं। नामवर सिंह आगे कहते हैं-‘‘लेखक ने इसमें मिथिला के एक गाँव का सर्वांगीण जीवन इतने सजीव रूप में उपस्थित किया है कि हम दंग रह जाते हैं। यही है रेणु की विशेषता, क्योंकि रेणु से पहले किसी अन्य व्यक्ति ने यह कार्य इतनी सफलता से नहीं किया था।’’
रेणु के सम्पूर्ण लेखन के बीच प्रतिवाद का स्वर मुखरित है। झंडों और डंडों के वे हिमायती नहीं हैं, किन्तु एक तीखा और कड़वा भाव इनके प्रति है। कारण यह है कि इस देश को, इसकी आज़ादी को यहाँ की राजनीति ने पुष्पित-पल्लवित तो नहीं ही किया, इसे ठूँठ बनाने का काम ज़्यादा किया। पतनशीलता की चरम पराकाष्ठा को देखकर वे कहते हैं-‘‘मैंने आज़ादी की लड़ाई आज के भारत के लिए नहीं लड़ी थी। अन्याय और भ्रष्टाचार अब तक मेरे लेखन का विषय रहा है और मैं सपने देखता रहा हूँ कि यह कब ख़त्म हो। अपने सपनों को साकार करने के लिए जन-संघर्ष में सक्रिय हो गया हूँ।’’ (दिनमान, 28 अप्रैल, 1974) अन्याय और भ्रष्टाचार के विरुद्ध उनका जीवन प्रारम्भ से अन्त तक सक्रिय रहा।
सक्रिय ही नहीं ‘अपनी ज्वाला से आप ज्वलित जो जीवन’ का उदाहरण रहा। ऐसे व्यक्तित्व और लेखक हिन्दी-साहित्य ही नहीं, विश्व-साहित्य में भी दुर्लभ होते गये हैं। रेणु का प्रारम्भिक जीवन अनेक घटना बहुल जीवन-संघर्षों से भरा पड़ा है और उनकी प्रारम्भिक लेखन बेहद ओजस्वी, प्रखर और तल्ख़ है। उनकी परवर्ती कृतियों से उनका महत्त्व किसी भी तरह कम नहीं। साथ ही उन्हीं की भित्ति पर उनके परवर्ती लेखन का निर्माण हुआ है, इसलिए इनका पठन-वाचन रेणु की अन्य रचनाओं की परतों को भी खोलता है। इससे यह भी पता चलता है कि मैला आँचल जैसी महान् कृति के लेखक ने अचानक यह कृति नहीं लिख दी, बल्कि उसके पीछे उसकी एक लम्बी साहित्य साधना भी है, लम्बा जन-संघर्ष है, अन्याय के प्रति ‘दिव्य प्रतिवाद’ है। विभिन्न राजनीतिक दलों के छद्मों का अनावरण है, अपने इलाके के दीन-दुखी जनों के प्रति रागात्मक लगाव है। रेणु की इन प्रारम्भिक रचनाओं में से कुछ को यहाँ इस संकलन में रखा गया है, जिनकी चर्चा आगे विस्तार से।
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