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कविता मेरी साँस

सी.नारायण रेड्डी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 1992
पृष्ठ :242
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5535
आईएसबीएन :000000

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प्रस्तुत है सी.नारायण रेड्डी की 63 कविताओं का संकलन

Kavita Meri Saans

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्रस्तुति

भारतीय ज्ञानपीठ ने सदा भारतीय साहित्य में एक सेतु की सक्रिय भूमिका निभाई है। ज्ञानपीठ पुरस्कार की असाधारण सफलता का मुख्य कारण यही है। भारतीय भाषाओं में से चुने हुए किसी शीर्षस्थ साहित्यकार को प्रतिवर्ष दिए जाने वाले पुरस्कार का अनूठापन इसमें है कि यह भारतीय साहित्य के मानदण्ड स्थापित करता है। ज्ञानपीठ इन चुने हुए साहित्यकारों की कालजयी कृतियों का हिन्दी (और कभी-कभी अन्य भाषाओं में भी) अनुवाद पुरस्कार की स्थापना के समय से ही साहित्यानुरागियों को समर्पित करता आ रहा है। इसके अतिरिक्त विभिन्न भाषाओं के अन्य साहित्य-मनीषियों का हिन्दी अनुवाद के माध्यम से उनकी भाषायी सीमाओं के बाहर परिचय कराके ज्ञानपीठ एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण राष्ट्रीय उत्तरदायित्व को निभा रहा है। इस साहित्यक अनुष्ठान को और अधिक प्रभावी बनाने के लिए ज्ञानपीठ विभिन्न साहित्यिक विधाओं की उत्कृष्ट कृतियों को भी ‘भारतीय कवि’ ‘भारतीय कहानीकार’, ‘भारतीय उपन्यासकार’ आदि श्रृंखलाओं के रूप में प्रकाशित कर है। प्रत्येक विधा में सभी अग्रणी लेखकों की कृतियाँ व संकलन इस योजना में सम्मिलित किये जाते हैं। हमारा अनुभव है कि किसी भी साहित्यिक (या अन्य भी) रचना का हिन्दी में अनुवाद हो जाने पर उसका अन्य भाषाओं में अनुवाद सुविधाजनक हो जाता है। इन श्रृंखलाओं की उपयोगिता को दृष्टि में रखते हुए कुछ पूर्व-प्रकाशित पुस्तकों को भी इसमें सम्मिलित किया है और आगे भी ऐसा विचार है। इनके अतिरिक्त विभिन्न भाषाओं के नये और नवोदित लेखकों को उनकी भाषा-परिधि के बाहर लाने में भी हम सक्रिय हैं। हमारा विश्वास है कि यह सब प्रयत्न आधुनिक भारतीय साहित्य की मूल संवेदना उजागर करने में सार्थक होंगे।

इस पुस्तक के प्रकाशन में भारतीय ज्ञानपीठ के कार्यकारी निदेशक डॉ.पाण्डुरंग राव का परामर्श और सहयोग प्राप्त रहा है। पुस्तक का जो रूप निखरा है वह उन्हीं के परिश्रम का फल है। तेलुगु मूल का देवनागरी में लिप्यन्तर उन्हीं की सहायता से सम्भव हुआ है। इनके अथक परिश्रम के बिना यह कार्य पूरा होना कठिन था।
प्रस्तुत है ज्ञानपीठ पुरस्कार-विजेता की इस कृति का नया संस्करण !
र.श. केलकर

अपनी ओर से

भारत भारती की भारतीयता के माध्यम से ज्ञानभारती का साक्षात्कार करना और कराना भाषा, साहित्य, संस्कृति और दर्शन की चार भुजावली शारदा की सक्रिय आराधना करने वाले भारतीय ज्ञानपीठ का परम ध्येय है। प्राज्ञ की भाषा प्रपंच को ब्रह्म का रूप देती है, व्यक्ति को विश्व-वीणा में विलीन बना देती है और एक को अनेक में परिणत कर देती है। इसी प्रकार की ऊर्जस्वित वाणी को पहचान कर विश्व के कण कण में उसके नाद-सौन्दर्य और भाव-गांभीर्य को ध्वनित करने से वसुंधरा विश्वंभरा बन जाती है। ज्ञानपीठ पुरस्कार की परिकल्पना इसी लक्ष्य की ओर अग्रसर वाङ्मय साधना है। इस साधना के फलस्वरूप अब तक भारतीय साहित्य के छब्बीस मनीषी रचनाकारों को प्रणतिपूर्वक पुरस्कृत करने का सौभाग्य इस संस्था को प्राप्त हुआ है। किसी भी रचनाकार का सच्चा सम्मान सारस्वत संसार की सम्पति बनाने में होता है, इस सत्य की ओर भी ज्ञानपीठ सजग रहा है। इसी का अद्यतन प्रमाण है-आज का यह प्रकाशन ‘कविता मेरी साँस’।
आधुनिक तेलुगु कविता के यशस्वी आराधक और इस वर्ष ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित डॉ.सी.नारायण रेड्डी आज के उन इने-गिने कवियों में से है जिनको वाणी के वरदान के साथ-साथ विश्व-दर्शन की विविक्त भावुकता भी मिली है। अक्षर, शब्द, वाक्य और वक्तव्य-चारों में सिद्धहस्त और रससिद्ध डॉ.रेड्डी के लिए कविता कोई साधना नहीं है, वह उनके लिए सहज सुलभ चेतना है। इसलिए वह उनकी साँस बन गई है। साठ से कम आयु में चालीस से अधिक काव्यकृतियों के प्रणयन के माध्यम से वाग्देवी की वंदना करने वाले ‘सिनारे’ का कवि-कंठ आज मूसी के किनारे से यमुना के किनारे तक संप्रसारित हो रहा है, इसका कारण कवि की यही निसर्ग-काव्य चेतना है जिसको पुरस्कृत और प्रस्तुत करने का अवसर आज हमें मिल रहा है। प्रस्तुत प्रकाशन इसी प्रशस्त वाणी की प्रस्तुति है।

प्रस्तुत संकलन में डॉ.नारायण रेड्डी की समस्त काव्य-कृतियों में से चुनी गई 63 कविताओं का संकलन है। इन कविताओं का चयन कवि ने स्वयं किया है और उनका संपादन भी उन्हीं की देख-रेख में हिन्दी और तेलुगु के जाने-माने विद्वान् डॉ.भीमसेन ‘निर्मल’ ने किया है। इस संकलन में संगृहीत कविताओं का अनुवाद ‘निर्मल’ जैसे कई सांस्कृतिक संधाताओं के द्वारा सम्पन्न हुआ है। राष्ट्रवाणी के माध्यम से भारत भारती के इन आराधकों की वाग्विभूति का परिचय कराने का यह प्रयास भारतीय ज्ञानपीठ पिछले चौबीस वर्षों से करता आ रहा है। ज्ञानपीठ के लिए यह परम सौभाग्य की बात है कि इस प्रयास में अनेक महानुभावों का सहयोग सहज रूप से प्राप्त होता रहा है।

प्रस्तुत संकलन के संपादक डॉ.निर्मल ने आधुनिक तेलुगु कविता के परिदृश्य में डॉ.नारायण रेड्डी की काव्य-साधना को रेखांकित करते हुए पाठकों के सामने एक रेखाचित्र भी प्रस्तुत किया है। इससे अनुमान लगता है कि कम से कम हज़ार वर्ष पुरानी तेलुगु कविता में इसी शताब्दी में कितने परिवर्तन हुए हैं। आज से अठारह वर्ष पहले जब कवि-सम्राट विश्वनाथ सत्यनारायण के ‘रामायण कल्पवृक्ष’ को ज्ञानपीठ ने पुरस्कृत किया था, उस समय साहित्य-जगत् ने यह अनुभव किया था कि विश्वनाथ की वाणी में नन्नभट्ट से लेकर नारायण रेड्डी तक की वाग्विभूति समाहित है। आज डॉ.रेड्डी के इस कविता-संकलन से पता चलेगा कि हज़ार वर्ष की यह समस्त साधना सिनारे की ‘विश्वंभरा’ में साँस ले रही है। कवि निमित्त बनता है, काव्य को नित्य सिद्ध करने का। इस नित्य सत्य को इस संकलन के माध्यम से सहृदय पाठक आत्मसात् कर सकते हैं। नारायण रेड्डी की प्रशस्त रचना ’मंटलू मानवुडू’ (ज्वालाएँ और मनुष्य) में संगृहीत कविताएँ पढ़ते समय किसी भी विज्ञ पाठक को एक उपनिषद् वाक्य अनायास याद आता है-‘ज्वालमालाकुलं भाति विश्वस्यायतनं महत्’’ श्रुतिमाता की इस स्मृति में ‘विश्वंभरा’ कृति का भी आभास मिलता है। ‘विश्वस्यायतनं महत् विश्वमिंद वरिष्ठम्’ आदि विश्वजनीन सत्य किस प्रकार ‘विश्वंभरा’ के द्रष्टा की सृष्टि में कवि के कथ्य बनकर उतर आए, यह देखकर काव्य की सार्वभौम सत्यनिष्ठा के प्रति आस्था अधिक सुदृढ़ बन जाती है। इसी आस्था को आलोक-मधुर बनाने का विनम्र प्रयास यह छोटा-सा प्रकाशन, आशा है सुधी समाज के लिए आस्वाद्य और आराध्य बन सकेगा।

विश्वनाथ वियद्वेणीं सत्यनारायणस्थिताम्।
‘सिनारे’ विश्व-संसेव्यां सुस्मितां तामुपास्महे।।

आधुनिक तेलुगु कविता और डॉ.सी. नारायण रेड्डी

सभी भारतीय भाषाओं के समान तेलुगु भाषा में भी 19वीं शती के उत्तरार्ध से आधुनिक युग का प्रारंभ होता है। बीसवीं सदी के प्रारंभ तक प्राचीन परंपरा का अनुसरण करते हुये, सुधारवादी विचारधारा के प्रभाव से काव्य की वस्तु और शैली में परिवर्तन परिलक्षित होता है। तेलुगु साहित्य में ‘नवयुग-निर्माता’ के नाम से प्रख्यात कंदुकूरि वीरेशलिंगम पंतुलु (जिन्हें भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के समकक्ष माना जाता है) मुख्य रूप से समाज सुधारक थे। अपनी सुधारवादी विचारधारा को जनता तक पहुँचाने के लिये उन्होंने कलम का आश्रय लिया। इस कार्य के लिये उन्होंने जनसामान्य की बोली का ही उपयोग किया। बोलचाल की भाषा में ही उन्होंने तेलुगु का प्रथम उपन्यास, प्रथम नाटक, प्रथम लघु-कथा, प्रथम साहित्य का इतिहास, प्रथम आत्म-कथा आदि रचकर, आधुनिक साहित्यिक विधाओं का श्रीगणेश किया। वास्तव में इन्हें तेलुगु के आधुनिक साहित्य का प्रवर्तक माना जा सकता है। ये भारतेन्दु से दो वर्ष बड़े थे और सन् 1919 तक जीवित थे।
पंतुलु जी से प्रभावित होकर साहित्य के क्षेत्र में पदार्पण करने वालों में श्री गुरजाड अप्पाराव प्रमुख हैं। वे समाज सुधारक थे। राष्ट्रीय भावनाओं को व्यावहारिक भाषा में व्यक्त करने वाले कतिपय मुक्तक, गेय काव्य और ‘कन्याशुक्लम्’ नामक नाटक इनकी कीर्ति के प्रकाश-स्तम्भ हैं।
पांडित्यपूर्ण प्रदर्शन तथा अनावश्यक आडंबर से तेलुगु भाषा को मुक्त कर, जनसामान्य के दैनंदिन प्रयोग के निकट लाने का श्रेय श्री गिडुगु राममूर्ति पंतुलु को है। इनकी रचनाओं का उतना महत्व नहीं है जितना इनके व्यावहारिक भाषा के आन्दोलन का। इन्होंने ‘‘सवर जाति’’ (उड़ीसा और आन्ध्र प्रदेश के सीमा प्रांतों में रहनेवाले आदिवासी) के लिए लिपि, व्याकरण और कोश का निर्माण किया। यह भाषा-विज्ञान के क्षेत्र में अन्यतम योगदान माना जाता है।
इस युग में ‘‘आन्ध्र पत्रिका’’ और ‘‘भारती’’ नामक साहित्य-पत्रिकाओं का विशिष्ट स्थान है। इनके संस्थापक श्री काशीनाथुनि नागेश्वर राव ने ‘‘अमृतांजन’’ की आमदनी को साहित्यिक और राजनैतिक कार्यक्रमों के लिये विनियोजित किया और तेलुगु भाषा और साहित्य के विकास के मार्ग को प्रशस्त किया।
यह प्रारंभिक युग सच्चे अर्थों में तैयारी का युग था, नवचेतना एवं नवजागृति का युग था जिसकी गोद में पलकर नवीन युग परिपुष्ट होकर सामने आया।

प्राचीन और अर्वाचीन प्रवृत्तियों का समन्वय कर चलने वालों में श्री तिरुपति वेंकट कवुल (दिवाकर्ल) तिरुपति शास्त्री तथा चेल्लपिल्ल वेंकटशास्त्री नामक कविद्वय अग्रगण्य हैं। जनता के हृदय को काव्य-माधुर्य और रचना कौशल से मुग्ध बनाने वाले इस कविद्वय ने नगर-नगर में शतावधान और अष्टावधान के कार्यक्रमों का निर्वाह कर, कविता को राजदरबारों और पंडित-समाजों तक सीमित न रखकर जनता के हृदय में प्रतिष्ठित किया। कविता और काव्य-रचना के प्रति जनता में अभिरुचि पैदा करने वालों में ये दोनों कवि अग्रणी हैं।
तिरुपति वेंकट कवियों के प्रभाव से वर्तमान शताब्दी में कई कवियों ने अष्टावधान और शतावधान करके प्रसिद्धि प्राप्त की। आज भी अवधान की यह परंपरा सजग, सशक्त एवं सक्रिय है।
1915 के लगभग तेलुगु काव्य के क्षेत्र में छायावादी काव्य-प्रवृत्तियों का प्रारंभ हुआ। तेलुगु में छायावादी कविता को ‘‘भाव कविता’’ कहते हैं। हिन्दी की छायावादी कविता में जो-जो लक्षण और प्रवृत्तियाँ हैं, वे सब भाव-कविता में परिलक्षित होती हैं-जैसे शब्दों का लाक्षणिक प्रयोग, उक्ति वैचित्र्य, प्रकृति के प्रति आकर्षण, प्रकृति का मानवीकरण, आत्माश्रयी शैली, गेयता आदि आदि। भाव और लय प्रधान होने से ये कविताएँ गेय होती थीं। भाव-कविता-धारा के कवि अपने व्यक्तिगत भावावेग को बड़ी ईमानदारी के साथ अभिव्यक्त करते थे। जिस प्रकार इन कवियों की विषयवस्तु निराली थी, वैसे ही उनकी रचनाशैली एवं अभिव्यंजना प्रणाली भी नयी थी। इस धारा के कवियों ने भाषा, भाव, शैली आदि सभी में अपूर्व परिवर्तन का सूत्रपात कर दिया।

तेलुगु में छायावादी कविता का प्रवर्तन करने वाले रायप्रोलु सुब्बाराव हैं। ‘‘नव्यांध्र कविब्रह्म’’ कहलाने वाले सुब्बाराव जी की विचारधारा और अभिव्यंजना शैली पर विश्वकवि रवीन्द्र का प्रभाव था। इन्होंने अनेक खण्ड-काव्य और गीत लिखे हैं। इनमें ‘‘ललिता‘‘, ‘‘तृणकंकणमु’’ (यह काव्य प्रसाद जी के ‘‘प्रेमपथिक’’ के समतुल्य है), ‘‘स्नेहलता’’, ‘‘जडकुच्चलु’’, ‘‘आन्ध्रावली’’, ‘‘रूपनवनीतम्’’ आदि उल्लेखनीय हैं। सुब्बाराव जी ने काव्य के क्षेत्र में अमलिन श्रृंगार (Platonic Love) (शारीरिक संबंध से विरहित प्रेम भावना) के सिद्धांत की स्थापना की थी। उस सिद्धांत को व्यावहारिक रूप देते हुये इन्होंने ‘‘रूपनवनीतं’’ नामक उत्कृष्ट नाटक की रचना की है।
भावकविता की धारा को लोकप्रिय बनाने वालों में देवुलपल्लि वेंकट कृष्णशास्त्री प्रख्यात हैं। इन्हें तेलुगु साहित्य का पंत कहा जा सकता है। प्रेम की मधुरिमा, प्रकृति से तादात्म्य एवं दु:ख की संवेदना इनके काव्य के मुख्य विषय हैं।
सुकुमार भाव, अप्रतिम कल्पना एवं सरल भाषा में अभिव्यक्ति मानो इनकी अपनी संपत्ति है।
तेलुगु में इस काव्य-धारा के अन्य उल्लेखनीय कवियों में नंडूरि सुब्बाराव, नायनि सुब्बाराव, गुर्रं जाषुवा, पिंगली लक्ष्मीकांत और काटूरि वेंकटेश्वर राव, जंध्याल पापप्य शास्त्री हैं।
तेलुगु में भाव कवियों को (छायावादी धारा के कवियों और लेखकों को) एक मंच पर लाने का और उनकी रचनाओं को लोकप्रिय बनाने का श्रेय तल्लावज्झल शिवशंकर स्वामी को है। इन्हें आदर के साथ ‘‘सभापति’’ कहते थे। इन्होंने कवि सम्राट नोरि नरसिंह शास्त्री के साथ ‘‘नव्य साहिती समिति’’ की स्थापना कर इस धारा के कवियों और लेखकों को खूब प्रोत्साहित किया था।

कविता, उपन्यास, कहानी, आलोचना आदि सभी क्षेत्रों के अग्रणी और ‘श्री रामायण कल्पवृक्ष’ के यशस्वी प्रणेता कविसम्राट विश्वनाथ सत्यनारायण ने परंपरागत काव्य-शैली का अनुसरण करते हुए छायावादी काव्य-प्रवृत्तियों से युक्त श्रेष्ठ रचनाएँ की हैं। ‘‘किन्नेरसानि पाटलु’’ इस प्रवृत्ति का श्रेष्ठ उदाहरण है।
जिस प्रकार हिन्दी साहित्य में छायावाद की प्रतिक्रिया के रूप में, तत्कालीन परिस्थितियों के कारणवश प्रगतिवाद का आविर्भाव हुआ, उसी प्रकार तेलुगु साहित्य में भी ‘‘अभ्युदय कविता’’ का प्रादुर्भाव हुआ।
द्वितीय महायुद्ध के आरंभ होने से पूर्व सारे देश में दरिद्रता का ताण्डव नृत्य-सा हो रहा था। बेकारी बढ़ रही थी। समाज के मध्यवर्ग में आर्थिक विषमताओं के कारण और मार्क्सवादी विचारधारा के प्रभाव के कारण जागृति पैदा हुई। स्वतंत्रता का आन्दोलन और ज़ोर पकड़ने लगा। विदेशी शासन का दमनकांड और उत्पीड़न चरम सीमा पर पहुँच चुका था।
इन परिस्थितियों के कारण कवि का हृदय व्याकुल हो गया। उसने देखा कि कल्पना प्रधान काव्य-रचना से समाज का उद्धार नहीं होगा। अत: कवि कल्पना के आकाश से ज़मीन पर उतर आया और आर्थिक विषमताओं में पिसने वाले समाज का चित्रण करने लग गया। इस यथार्थवादी कविता पर साम्यवादी विचारधारा का विशेष प्रभाव है।
तेलुगु में अभ्युदय कविता (प्रगतिवादी काव्य-धारा) के प्रवर्तक एवं अग्रणी श्रीरंग श्रीनिवासराव (श्री श्री. के नाम से प्रख्यात हैं।) छंद के बन्धनों को तोड़कर नये वर्ण्य विषय को, नये विधान में अभिव्यक्त कर श्री श्री. अभ्युदय काव्य धारा के मार्ग दर्शक बने। श्री श्री. केवल क्रांति से ही संतुष्ट नहीं हैं, वे एक नवीन सामाजिक एवं आर्थिक व्यवस्था की स्थापना की प्रेरणा देते हैं। वैसे तेलुगु में प्रगतिवादी कवि ही प्रयोगवादी कवि हैं। श्री श्री. को प्रयोगवादी काव्य का भी उन्नायक माना जा सकता है। श्री श्री. का प्रसिद्ध काव्य-संग्रह ‘महाप्रस्थान’ है।
अनिसेट्टि सुब्बाराव ने प्रगतिवादी विचारधारा को बड़े ही कलात्मक ढंग से अभिव्यक्त किया है। आरुद्र प्रलय का आह्वान करने वाले और प्रगतिवाद और प्रयोगवाद को सुव्यवस्थित रूप देने वाले कवि हैं। श्रीरंग नारायण बाबु अति यथार्थवादी कविताओं के लिये प्रसिद्ध हैं।

इस धारा के अन्य कवियों में पठाभि आदि हैं। जलसूत्र रुक्मणि-नाथ शास्त्री ‘‘पैरोडी’’ लिखने में सिद्धहस्त थे। कुंदुर्ति आंजनेयुलू वचन-कविता (गद्य-कविता) रचना के प्रवर्तक और उस प्रक्रिया को चरमसीमा पर ले जाने वाले लब्ध प्रतिष्ठ कवि हैं। निजाम के शासन के प्रति विद्रोह का झंडा फहरानेवाले दाशरथी ने छायावादी, प्रगतिवादी और विप्लववादी श्रेष्ठ कविताएँ लिखी हैं। वे तेलुगु के राजकवि थे।
नवीन काव्यधारा के साथ-साथ लगभग समानांतर रूप से प्राचीन काव्य परंपरा को भी परिपुष्ट बनाने वालों में पुट्टपर्ति नारायणाचार्य, कालोजी नारायणराव, वावरदाचार्य, मधुनापंतुल सत्यनारायण शास्त्री आदि के नाम विशेष उल्लेखनी हैं। विश्वनाथ सत्यनारायण इस धारा के संरक्षक रहे। तेलुगु काव्य की यह सबसे बड़ी विशेषता है कि अत्याधुनिक नवीन काव्यशैली में रचना करने वालों के साथ, परंपरागत प्राचीन शैली में रचना करने वाले भी लोकप्रिय हुये हैं।
प्रगतिवादी और प्रयोगवादी काव्यधारा के बाद दिगंबर कवियों का आविर्भाव हुआ जिन्होंने हिन्दी की ‘‘भूखी पीढ़ी’’ के कवियों के समान समाज के मुखौटे को उतार कर, उसके सच्चे और घिनौने रूप को प्रस्तुत किया और समाज की वर्तमान व्यवस्था में परिवर्तन लाने के लिए काव्य द्वारा प्रयास किया। ‘निखिलेश्वर, नागमुनि, चेरबंडराजु आदि इस धारा के सुप्रसिद्ध कवि हैं। ‘‘विप्लव रचयितल संघ’’ (वि.र.सं.) के उन्नायक बनकर वरवरराव ने काव्य के द्वारा समाज में विप्लव अर्थात् क्रांति लाने के लिये प्रयास किया है।

आज तेलुगु में प्राचीन और नवीन दोनों विचारधाराओं और प्रवृत्तियों से अनुप्रेरित एवं अनुप्राणित काव्य-रचनाएँ हो रही हैं। भाव-बोध में, वस्तु चयन में, भाषा शैली में, छंदोविधान में और काव्य के अन्य सभी अंगों में नव्यता लेकर तेलुगु काव्य उज्जवल भविष्य की ओर अग्रसर हो रहा है।
आधुनिक तेलुगु कविता में परंपरा तथा प्रयोग के इसी सहजीवन के परिप्रेक्ष्य में सतत् प्रगतिशील कवि नारायण रेड्डी की काव्य-साधना की समीक्षा सार्थक और
अनुवादक-मंडल
डा.भीमसेन निर्मल (संपादन)
स्व.आलूरि बैरागी चौधरी
स्व.प्रो.श्रीराम शर्मा
डा.एम.रंगय्या
डा.सी.ऐच.रामुल
डा.माधवराम रेगुलपाटि
डा.पी.माणिक्यांबा
डा.वाइ. लक्ष्मी प्रसाद
डा.पी.विजय राघवरेड्डी
डा.ए.श्रीराम रेड्डी
डा.चक्रवर्ती

(प्रत्येक कविता के अन्त में अनुवादक का नाम दिया गया है।)

नागार्जुन सागरम्

इक्ष्वाकु वंशक्षि-
तींद्र चंद्रुल कीर्ति-
कौमुदुलु नल्गडल
कलय विरिसिन नाडु
कृष्णवेणी तरं-
गिणि पयः किंकिणुलु
त्रिशरण क्वाणाल देसल निंपिन नाडु
श्रीपर्वताग्रम्मु
सिंहलागत बौद्ध
भिक्षुवुल विज्ञान
पीठकम्मगु नाडु
सिद्धार्थुनि विशुद्ध
सिद्धांत बीजमुलु
शाखोपशाखलै
सागिपोयिन नाडु
नेनु जीविंचि यु-
न्नानंचु भाविंचि
पलिकिंतु गेय का-
व्यमुनु हृदयमु पेंचि

आदिगो कृष्णम्म न-
व्याप्सरांगन भंगि
नडयाडे नांध्र न नंदनोद्यानमुन
अल्लदुगो कृष्णवे-
णम्म विद्रावरू
पमु दाल्चि नट्टि बौ द्धमुबोले कदलाडे
आमे ओकसारि मन-
सार पोंगिनचालु
ईनाडु कुंगिपो-
यिन शातवाहनुल
वैभवोन्नति मिन्नु-
वाकतरगल दाक

ु आमे ओकमारू नो-
रार पल्किन चालु
पदि वेल किन्नरुलु
पदिवेल किन्नेरल
हृदय तंत्रिकल म्रो-
यिंचिनटुलनिपिंचु
आमे ओक पर्याय-
मदरि पोंगिपोयिन चालु
अमरावती मंदि-
रांतर शिला शय्य-
लंदु निद्दुर लेचु
अप्सरो-भामिनुल मेयि विरूमुल तोचु

हीयल मेरूपुलु बीच
आमे कन्बोमल्क्न
यैन चापम् लेदु
आमे तरगलु पोंद
नट्टि रूपमु लेदु
ज्योत्स्नाभिसारिकल
सुमनोज्ञ वसनांच लमुलु सन्ननि गाड्पु-
लकु चलिंचिन यटुल; शरदंबरमुन पिं-
जलु पिंजलुग वीचि
मेल मेल्लगा सागु
मेघ मालिकलटुल आमे केरटालु चि-
त्राति चित्रमुलैन
गतुलतो पयनिंचु
कवितले यनिपिंचु

बोधिसत्वुनि मूर्ध-
मुनु सदा परिवेष्ट-
नमु सेयु दुर्निरी-
क्ष्य महोर्मिलहरुलट्लुः
शाक्यर्षि कडकंटि
चायलंदुन वेल्लु
वलुदूकु करुणार्द्र-
ललित भावनलट्लुः

आमे केरटालु दि-
व्याति दिव्यमुलैन
रूपरेकलु दाल्चु चूपुकंदक निल्चु
आमे योडिलोन नि-
द्रावस्थ लोनुन्न
शिशुवुल विधान प-
च्चि बयलोप्पारू

आमे दक्षिण हस्त-
मंदिकोनि पविलिंचु
श्री पर्वतुडु रा-
शीभूत सहनुंडु
नागार्जुनुनि पद
न्यास मात्रमुचेत
श्रीपर्वतुडु वेन्ने
लै पोयि विलसिंच
नागार्जुनुनि बोध-

ना सुधाधुनि लोन
श्री पर्वतुडु वेन्ने
यै पोयि विकसिंच
नागार्जुनुनि मेध-
लो गट्लु तंगि पारु
विज्ञानमु रसाय-
नज्ञानमै पोगे
नागार्जुनुडु चूपि-
नट्टि नूत्न पथम्मु
बौद्धमत सौध सं-
प्राप्ति सोपानम्मु
नागार्जुनुनि पट्ल
ननलेत्तु भक्ति स-
भ्रममुलो तनपरु
मरचे श्री पर्वतुडु
मरचि श्री पर्वतुडु
मलचुकोने तनुतानु
नागार्जुनुनि पेर
नव वैभवमु मीर।
(‘नागार्जुन सागर’ से)

नागार्जुन सागर

इक्ष्वाकु वंश के राजचन्द्रों की कीर्ति-चन्द्रिकाएँ जब चारों दिशाओं में फैली थीं, अपनी मधुर ध्वनियों से सारी दिशाओं को भर दिया था, श्री पर्वत जब सिंहलदेशागत बौद्ध भिक्षुओं का विज्ञान पीठ बना था, जब सिद्धार्थ के विशुद्ध सिद्धांत-बीज बड़े-बड़े वृक्ष बनकर फैल गए थे, तब मैं अपने को विद्यामान मानकर अपने हृदय का विस्तार करके गीत-काव्य लिखता हूँ।

लो, देखो ! कृष्णा नदी नव अप्सरा के समान आंध्रभूमि के नंदन वन में टहलती है। लो दर्शन करो ! कृष्णा नदी द्रवमान बौद्ध धर्म के रूप में बहती है।

वह एक बार बढ़े तो अवनत शातवाहनों की वैभनोन्नति आज भी उसमें आकाश-गंगा की तरंगों का स्पर्श करेगी। वह एक बार मुख खोलकर गर्जन करे तो ऐसा विदित होता है कि मानों सहस्रों किन्नर और किन्नरियाँ वीणाओं के हृदय-तारों को झंकृत करते हों।
वह एक बार चौंक पड़े तो ऐसा मालूम होता है कि अमरावती के मंदिरांतर्गत शिलारूपी शय्याओं से जाग पड़ने वाली अप्सराओं के शरीर की लचक हो और सौन्दर्य की बिजली दौड़ती हो।

सुंदर चाप भी उसकी भौंहों के समान नहीं होगा ऐसा कोई रूप नहीं है जिसे उसकी तरंगों ने न ग्रहण किया हो। उसकी लहरें ज्यों अभिसारिकाओं के मंदवायु में हिलने वाले कोमल वसनांचल के समान, शरदाकाश में रूई के समान धीरे-धीरे आगे बढ़ने वाले मेघों की भाँति, चित्र-विचित्र गतियों से बढ़ती हैं। ऐसा भान होता है कि वे स्वयं कविताएँ हों।

उसकी लहरें बोधिसत्व के सिर पर सदा परिवेष्टित एवं दुर्निरीक्ष्य तेजोमय लहरों के समान तथा उनके अपांगों की छाया में लहराने वाली करुणार्द्र भावनाओं की तरंगों के सदृश अत्यधिक दिव्यरूपों को धारण करती हैं और दृष्टि से ओझल होती हैं।

उसदी गोद में हरे-भरे मैदान निद्रित शिशुओं की भाँति शोभित हैं। उसकी दाहिनी ओर सहनशीलता की राशि श्री पर्वत स्थित है। नागार्जुन के पदार्पण-मात्र से श्री पर्वत-चंद्रिका-सदृश शोभित हुआ है।
नागार्जुन के उपदेशामृत की ध्वनि में श्री पर्वत नवनीत के रूप में विकसित हुआ है।
नागार्जुन के मस्तिष्क में असीम वैभव के साथ विज्ञान रसायन-ज्ञान के रूप में उमड़ पड़ा।
नागार्जुन का दिखाया हुआ नवीन मार्ग बौद्ध-धर्म-रूपी सौध तक पहुँचने का सोपान है।
नागार्जुन के प्रति उमडऩेवाली भक्ति के अपार संभ्रम में श्रीपर्वत अपना नाम तक भूल गया।
यहाँ तक कि नागार्जुन पर्वत नाम से नव-वैभव के साथ प्रवर्तित हो चला।
(अनुःआलूरि बैरागी चौधरी)

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