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आनंद पंछी निहारन का

विश्वमोहन तिवारी

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :214
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5533
आईएसबीएन :81-237-2534-5

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पक्षियों के विषय में संस्कृतिक, साहित्यिक तथा वैज्ञानिक ज्ञान देने वाली पुस्तक...

Anand Panchhi Niharan Ka a hindi book by Vishvamohan Tiwari - आनंद पंछी निहारन का - विश्वमोहन तिवारी

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

भारतीय संस्कृति में पक्षियों का बहुत महत्व है। प्रकृति की श्रृंखला में पक्षी भी एक महत्वपूर्ण कड़ी हैं। इनकी विविधता और सुन्दरता देखकर इनके बारे में अधिक जानने की उत्सुकता पैदा होनी स्वाभाविक है। इस उत्सुकता को देखते हुए प्रस्तुत पुस्तक में अंग्रेजी के अतिरिक्त हिंदी के जनमानस व लोक में प्रचलित नामों का प्रयोग किया गया है, साथ ही पक्षियों की पहचान बताने वाले नए नामों को भी गढ़ा गया है। हिंदी के अतिरिक्त अन्य भारतीय भाषाओं में भी उनके प्रचिलित नामों को दिया गया है। पक्षियों के विषय में संस्कृतिक, साहित्यिक तथा वैज्ञानिक ज्ञान देने वाली इस पुस्तक में दिए चित्रांकनों एवं रंगीन चित्रों की पुस्तक की उपयोगिता को और बढ़ा दिया है। पुस्तक का प्रमुख उदेश्य पक्षियों के अध्ययन को विकसित करने के साथ-साथ भारतीय भाषा, संस्कृति, पक्षी-प्रेम के संरक्षण तथा विकास एवं प्रकृति से प्रेम की हमारी प्राचीन परंपरा क वापसी भी है।

विश्वमोहनी तिवारी (1935) वायुसेना में एयरवाईस मार्शल के पद से सेवामुक्त होने के बाद आजकल स्वतंत्र रूप से लेखन-वृत्ति में लगे हैं। सेवा के दौरान वायुसेना की सिग्नल्स शाखा में सर्वश्रेष्ठ अधिकारी के पुरस्कार के अलावा इन्हें राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों से भी सम्मानित किया गया है। इनकी भिन्न विषयों पर अनेक पुस्तकों से भी सम्मानित किया गया है। इनकी भिन्न-विषयों पर अनेक पुस्तकें तथा गणित, दर्शन, साहित्य, संगीत, कला आदि अनेक ज्ञान की शाखाओं में विवेचनात्मक लेख हिन्दी एवं अंग्रेजी भाषा में प्रकाशित हो चुके हैं।

आभार

इस पुस्तक को लिखने के लिए अनेक मित्रों, पुस्तकों तथा संस्थाओं से सहायता मिली है। कल्पवृक्ष दिल्ली स्थित पर्यावरण संरक्षण में कार्यरत संस्था ने एक पुस्तिका ‘what’s that bird ?’ प्रकाशित की जिसे पढ़कर मुझे लगा कि पक्षियों के नाम हिंदी में चयन करने तथा गढ़ने का कार्य इस पुस्तिका के अनुवाद से शुरू हो सकता है। कल्पवृक्ष के अध्यक्ष डा. आशीष कोठारी ने सहर्ष अनुमति दी। अनुवाद से विकसित होते-होते यह एक स्वतंत्र पुस्तक बन गई है, किंतु पक्षियों का चयन उसी पुस्तिका के आधार पर है तथा कुछ रेखाचित्र भी उसी से लिए गए हैं।

मेरे पंक्षियों के निहारने को सुदृढ़ बनाने में मुझे श्री सुरेश शर्मा से बहुत सहायता मिली है। पुष्पाघाटी तथा दिल्ली निकट स्थिति पक्षी अभयरण्य भिंदावास (जिसके निर्माण में उनका बड़ा योगदान है) में उनके साथ हमें अनेक दुर्लभ पंक्षी भी निहारने को मिले है। ‘पंक्षी निहारने के लिए जिन मित्रों ने विशेष सहयोग दिया उनमें सर्वश्री विंसेंट वान रॉस, मोहित अग्रवाल प्रमुख हैं। पुस्तक के लिए पंक्षियों के ‘किरणाचित’ (फोटोग्राफ) अनेक मित्रों ने दिए हैं जिनके नाम अलग सूची में दे रहा हूँ। मैंने Nature photographers society of India द्वारा आयोजित देश के अनेक वनों एवं अभयारण्यों में पंक्षी निहारना का आनंद लूटा, जिसे संस्था के सचिव डॉ. प्रमोद कुमार की निष्ठा ने सफल बनाया। देश के चारों कोनों में स्थिति अभयारण्य-धामों के संस्थापक तथा कर्मचारी पक्षियों के रख-रखाव में जो कार्य कर रहे हैं वह प्रशंसनीय है। ‘हरिणी नेचर कंजर्वेशन’ के अध्यक्ष डॉ. भारत, विश्व प्रकृति निधि के कर्नल गौतम दास तथा रजत भर्गव अपने सुक्षावों के लिए धन्यवाद के पात्र हैं।

सलीम अली की अनेक पुस्तकों, प्रमुखता ‘Handbook’ A pictorial Guide तथा ‘Birds of India’, से अनमोल ज्ञान प्राप्त हुआ है। डा. रघुवीर का हिंदी शब्दावली का शोध तथा निर्माण का ‘हरावल दस्ते’ का काम वंदनीय है, वह चाहे उतना व्यावाहारिक न बन पाना हो किंतु हिंदी में शब्दों के निर्माण की अनंत प्रतिभा की नींव का कार्य, अदृश्य रहकर भी, वह कर ही रहा है। उनके Indian Scientific Nomenclature of Birds शब्दकोश के बिना मानक तथा वैज्ञानिक शब्दावली का निर्माण अत्यंत दुष्कर होता। इस अनुपलब्ध शब्कोश की प्रति मुझे डॉ. रघवीर के पुत्र सांसद श्री लोकेशचंद्र के अनुग्रह से प्राप्त हुई। इस अनोखे शब्दकोश के निर्माण में जो प्रमुख योगदान श्री के एन. दवे. ने दिया वह चिरस्मरणीय रहेगा। श्री दवे ने सारे संस्कृत वाड़्मय को छानकर हमारे प्रकृति प्रेम तथा पक्षी प्रेम की परंपरा को अंधकार में से निकाला तथा ‘Birds in Sanskrit Literature’ पुस्तक के द्वारा उसे प्रकाश में लाए। मैंने अपनी पुस्तक में सांस्कृतिक परंपरा संबंधी ज्ञान, मुख्यता उन्हीं की पुस्तक के आधार पर दिया जाता है।

इस पुस्तक को उपयोंगी बनाने के लिए परिशुद्ध रंगीन चित्र नितांत आवश्यक हैं। उस खर्च के लिए सहयोग राशि (लगभग 70,000 रु.) का अनुदान ‘केंद्रीय हिंदी निदेशालय’ के माध्यम से संस्कृति विभाग ने देना स्वीकार किया और नेशनल बुक ट्रस्ट ने आगे बढ़कर इस पुस्तक के प्रकाशन का बीड़ा उठाया-यह उस संस्था का भारत में ज्ञान प्रसार का दुष्कर कार्य करने का एक ज्वलंत प्रतीक है, अपने कर्तव्यों के प्रति उसकी, उसके अध्यक्ष की तथा संबंधित अधिकारियों की कर्तव्यनिष्ठा का मानव संसाधन मत्रालय ने ‘सीनियर फेलोशिप’ प्रदान की है जिसनें मेरे उत्साह को बढ़ाया है, ऊर्जा प्रदान की है।
मेरे कुछ मित्र हैं-आदरीण रामेश बेदी, सर्वश्री सुधा तिवारी, अम्बरीश बुद्धिराजा, आनंद प्रकाश, जगदीश चतुर्वेदी, गंगा प्रसाद विमल, शशि सहगल, चित्रा मदुगल, दिविक, प्रताप सहगल-उनसे शब्दों तथा नाम के चुनाव के लिए बहुत चर्चाएं हुई हैं। कुछ पंछी जिनके चित्र दुर्लभ थे, उनके रंगीन जल-चित्र बनाकर श्रीमती पांडे ने अनोखा तथा बहुमूल्य सहयोगी दिया है। डा. दीप्ती गंगवाणे ने अपने आलेख ‘प्लेटो और भाषा’ की प्रति उपलब्ध कराई। मित्र ग्रुप कैप्टैन विमल जैन के सुझावों से यह पुस्तक अब और अधिक पाठक-मित्र बन गई है।

इस पुस्तक को 1998-99 के हिंदी अकादमी, दिल्ली के ‘कृति पुरस्कार’ से सम्मानित किया गया है, यह सभी पक्षी प्रेमियों तथा प्रकृति प्रेमियों के लिए हर्ष का विषय है।
उपर्युक्त संस्थाओं तथा मित्रों के प्रति शब्दों द्वारा आभार प्रकट करने में अपने को असमर्थ पाता हूं किंतु उनके सहयोग तथा अनिग्रह मेरे हृदय पर अंकित हैं तथा इस पुस्तक की गुणवत्ता में प्रदर्शित हैं जिसका लाभ सभी पाठकों को मिलेगा।

पुस्तक क्यों ? कैसी ?


भारत में अंग्रेजों ने उपनिवेशीकरण के जो अनेक तरीके अपनाए उनमें से तीन तरीकों ने उन्हें सर्वाधिक लाभ पहुंचाया। एक को था ‘फूट डालो, राज्य करो’, दूसरा था भारतीय संस्कृति पर आक्रमण तथा तीसरा था भारतीय भाषाओं का निष्कासन कर, अंग्रेजी को स्थापित करना।

भाषा का औपनिवेशीकरण इतना अधिक हो गया है कि हम परिवार, माता, पिता, भाई, बहन, पत्नी, पुत्री, आजी (दादी), नानी आदि शब्दों के स्थान पर अंग्रेजी शब्दों का उपयोग करते हैं। विशेषकर ये सारे शब्द अपने साथ पूरी संस्कृति लेकर चलते हैं, हमारी भावनात्मक ऊर्जा तो बढ़ाते ही हैं, हमारे अधिकारों तथा कर्तव्यों का भी अवचेतन में ही बोध देते हैं। क्या हम भावानाहीन की तरफ बढ़ रहे हैं तथा इसलिए और भी भावानात्मक ऊर्जा से भरे शब्दों का बहिष्कार करते जा रहे हैं, यथा जन्म, मृत्यु, प्रेम, प्रसव, शिक्षक, शिष्य, समाज, भाषा, भारत आदि ‍? ये शब्द भी अंग्रेजी में ही बोलते हैं। इन भावानात्मक शब्दों को अंग्रेजी में बोलने के कारण हम भी भावनाहीन होते जा रहे हैं, हमारा कहीं मशीनीकरण हो रहा है।
परिवार तथा समाज के बाद हमारा हृदय को स्पर्श करने वाला भावामनात्मक गहरा संबंध प्रकृति से होता जा रहा है, प्रकृति में सूर्य, चंद्र, पृथ्वी, पर्वत, वन, वृक्ष, नदी, पशु-पक्षी आदि आते हैं। और इन शब्दों पर भी अंग्रेजी का अधिकार बढ़ता जा रहा है। पढ़े-लिखे भारतीय आज पक्षियों के नाम अंग्रेजी में ही जानते हैं हमारी पक्षी प्रेम तथा पंक्षी निहारन की बहुत ही सशक्त परंपरा प्रचीन काल से रही है, आज उसे हम भूलते जा रहे हैं।

भारतीय संस्कृति में पक्षियों का बहुत महत्व है। विभिन्न देवताओं के वाहन के रूप में उन्हें सम्मान मिलता रहा है यथा विष्णु का गरुड, ब्रह्मा और सरस्वती का हंस, कामदेव के तोता, कार्त्तिकेय का मंयूर, इंद्र तथा अग्नि का अरुण क्रुंच (फलैमिंगो), वरुण का चक्रवाक (शैलडक) आदि। लक्ष्मी के वाहन उल्लू आदि सम्मान नहीं मिलता है तब वह वास्तव में लक्ष्मी को कम सम्मान देने की इच्छा से। कृष्ण का ‘मोर पंख’ तो सभी भारतीयों के हृदय में स्थान पा चुका है। हंसों का ‘नीर-क्षीर’ न्याय तो प्रसिद्ध ही है। पहले तो मैं इसे कवियों की कल्पना ही मानता था किंतु जब अरुण क्रुंचों को बहते पानी में से (जिसमें मानों ‘नीर-क्षीर’ मिला हो) अपनी विशेष छन्नीदार चोंचो की सहायता से अपने लिए पौष्टिक भोजन (क्षीर) निकालकर खाते हुए देखा तब संस्कृति साहित्यकारों की अवलोकन शक्ति और रचना शक्ति की भूरि भूरि प्रशंसा ही कर सका।

ऋग्वेद के (1, 164, 20) मंत्र में वृक्ष पर बैठे दो सुपर्णों के रूपक से जीव और आत्मा का अंतर बतलाया गया है। अर्थवेद (14/2/64/) के मंत्र में नवदंपति को चकवा दंपति के समान निष्ठावान रहने का आशीर्वाद दिया गया है। यजुर्वेद एक संहिता-तैत्तिरीय का नाम तित्तिर पक्षी के नाम पर ही है। पहाड़ी मैना तथा शुकों को उनकी वाक क्षमता के आधार पर उन्हें वाग्देवी सरस्वती को समर्पित किया गया है। यहां ऋग्वेद में 20 पक्षियों का उल्लेख है, यजुर्वेद में 60 पक्षियों का है। यह ध्यान देने योग्य है क्योंकि ऋग्वेद का रचनाकाल लगभग 4,000 वर्ष ई. पू. है (New Light on the date of the Rgveda-Dr. _Waradpande, Sanskrit B.P Sabha, Nagpur ) ।

रामाय़ण तथा महाभरत में, फिर पुराणों मे अनेक पक्षियों पर सूक्ष्म अवलोकन हैं। सारा संस्कृति साहित्य, प्राकृत तथा पालि साहित्य भी, पक्षियों के ज्ञान से समृद्ध है। यह और भी प्रशंसनीय है कि पक्षियों के संरक्षण हेतु मनुस्मृति पराशरस्मृति आदि में कुछ विशेष पक्षियों के शिकार का निषेध किया गया है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भी ऐसे ही पक्षी-संरक्षण के समचित निर्देश हैं। ये सब उस काल की घटनाएं हैं जब विश्व में अन्यत्र पालतू के अतिरिक्त पशु-पक्षियों को मुख्यता शिकार तथा भोजन के रूप में ही देखा जा रहा था।

चरक संहिता का संकलन काल सातवीं शती ईशा पूर्व है (भारतीय विज्ञान के कर्णधार डॉ. सत्यप्रकाश, Research Institute of Ancient Scientific Studies , Delhi) । चरक संहिता, संगीत रत्नाकार तथा भरतमुनि के नाट्यशास्त्र में पक्षियों की चारित्रिक विशेषताओं का सूक्ष्म वर्णन है जो वैज्ञनिक पद्धति पर आधारित है। किंतु इसके बाद के उपलब्ध साहित्य से ऐसा लगता है कि, बाद में, संभवतया बर्बरों से अपनी रक्षा में जूझते भारत में, पक्षियों का अध्ययन वैज्ञानिक दृष्टि से किया जा सका। हां ससंकृत साहित्य में पक्षियों का वर्णन सूक्ष्म अवलोकन के आधार पर, बहुत ही कोमलता तथा अनुरागपूर्ण भावनाओं के साथ किया गया है। मिथुनरत क्रौंच के वध को देखकर आदिकवि वाल्मिकी का हृयद करुण रस से ओतप्रोत होकर कविता के रूप में बह निकला था, ‘‘मा निषाद प्रतिष्ठानम् त्वम्....’’ अर्थात हे निषाद तुम्हें समाज में प्रतिष्ठा नहीं मिलेगी....। हां, मुगल काल में बाबर, हुमायूं तथा जहांगीर ने, जो बहुत सिकार प्रेमी थे, पक्षियों का सूक्ष्म अवलोकन किया और लिखा। लोक साहित्य में भी पक्षियों का विशेष स्थान है, किंतु हिंदी साहित्य में पक्षियों के वैज्ञानिक अध्ययन तथा सूक्ष्म अवलोकन की परंपमरा किंही कारणों से आगे नहीं बढ़ी। और पक्षियों का जो भी वर्णन है वह अधिकतर बंधी-बंधाई रुढ़ि पर है चाहे वे पक्षी चातक, चकोर, पपीहा, सारस चक्रवाक आदि हों अथवा तोता, मैना, हंस, उल्लू, कौआ, गिद्ध, अबाबील, खंजन आदि हों। किंतु इसके साथ यह दुखद सच है कि आज सामान्य विद्यार्थी या व्यक्ति को पक्षियों तथा पेड़-पौधों की सही पहचान बतलाने वाला रुचिकर साहित्य, हिन्दी में, नहीं के बराबर है।

मुझे बहुत दिनों से, कोई 20 वर्षों से, जब से मैंने पंक्षी निहारना गंभीरतापूर्वक शुरू किया, लग रहा था कि हिंदी में पक्षियों की पहचान बतलाने वाली, वैज्ञानिक जानकारी देने वाली तथा हमारी समृद्ध परंपरा से जोड़ने वाली रोचक पुस्तक की सख्त जरूरत है सेवानिवृत्त होने पर जब नजर दौड़ाई तब हिन्दी के अच्छे स्तर की तीन पुस्तकें दिखाई दीं-(1) ‘भारत के पक्षी’ –राजेश्वर प्रसाद नारायण सिंह; (2) ‘भारत के पक्षी’-सालिम अली (हिंदी) के अनुवाद किया रामकृष्ण सक्सेना ने), 1985; (3) ‘पक्षी निरीक्षण’-पर्यावरण शिक्षक केंद्र द्वारा प्रकृति परिचय श्रृंखला में प्रकाशित।

राजेश्वर प्रसाद की पुस्तक 1958 में प्रकाशित हुई थी और उनकी मुख्य ध्येय पक्षियों के प्रति, साहित्यिक उद्धरणों द्वारा, दिलचस्पी उत्पन्न करना था और उसमें वह अधिकतर सफल रही है; किंतु पहचान बतलाने में और विज्ञानसंगत जानकारी तथा नाम बतलाने में यह पुस्तक बहुत कमजोर रही। सालिम अली की पुस्तक तो ‘मानक’ है वह शुद्ध वैज्ञानिक शैली में लिखी गई है किंतु, अनुवाद में काफी कमियां हैं यथा, Size शब्द का अर्थ ‘आकार’ (Shape) है जो ‘कद’ या ‘आमान’ होना चाहिए, breeding के लिए ‘नीड़न’ है जिसके स्थान पर ‘प्रजनन’ अदिक सटीक है क्योंकि कुच पक्षी नीड़ बनाते ही नहीं हालांकि प्रजनन तो सभी करते हैं। इसी तरह अनेक शब्दों के अनुरवाद कमजोर हैं। तब भी इस कठिन समय में रामकृष्ण का एक गंभीर पुस्तक के हिंदी अनुवाद का प्रयास कहूँ कि ऐसे विषयों पर लगभग प्रथम प्रयास, को प्रशंसनीय ही मानना चाहिए। पक्षी निरीक्षण पुस्तिका की शैली ‘क्षेत्रकार्य’ पुस्तिका के अनुरूप है और हिंदी में बहुत ही प्रशंसनीय कार्य है। इस पुस्तिका (पक्षी निरीक्षण) में नामों के अतिरिक्त ‘विवरणात्मक नाम’ भी दिए हैं जो पहचान करने में थोड़ी मदद करते हैं किंतु अधिकांश नाम अंग्रेजी नामों के शब्दशः अनुवाद हैं। एक तो अंग्रेजी नामों की शैली अधिकतर हिंदी के नामों की प्रकृति के अनुकूल नहीं बैठती, यथा Reow&attled Lapwing का अनुवाद ‘रक्तावैटलटिट्टिभ’ किया है जब कि ‘ललमुखीट्टिभ या ललमुंही टिटहरी’ हिंदी की प्रकृति के अधिक अनुकूल होता। दूसरे, अधिकांश अंग्रेजी नामों से पक्षी की पहचान नहीं बनती यथा, Maharatta Woodpecker, Tickell’s Warbler, Common Iora, Sand Lark, Common Swallow आदि।

लेकिन मेरे मन में हिंदी में पक्षियों की पहचान बतलाने वाली विशेष पुस्तक की सख्त जरूरत लगती ही रही। वैसे तो सालिम अली की ‘भारत के पक्षी’ में अधिकांश पक्षियों के (हिंदी भाषी क्षेत्रों के) अधिकांश स्थानीय नाम दिए हैं। किंतु जहाँ स्थानीय नाम काफी हद तक जीवंत नाम हैं, वहीं, एक तो, वे वैज्ञानिक दृष्टि से वर्गीकृत आधार (उदाहरणार्थ वे कुल तथा वंश का भेद नहीं समझते) पर नहीं हैं। उदाहरण के लिए ‘बगला’ ही लें। प्रचलित नामों में ग्यारह पक्षियों के नाम बगलों पर हैं-किल्चिया बगला, गाय बगला, बड़ा बगला, कड़छिया बगला, लाल बगला, पीला (जून) बगला, काला बगला, ताल बगला, कांचा बगला के और भी नाम हैं, जो स्थान भेद पर निर्भर करते हैं। पक्षियों के वास्तव में एक जाति (या उपजाति) के नाम होते हैं। वे पक्षी एक ही जाति के मानें जाते हैं जिनका आपस में रोटी-बेटी का व्यवहार हो, अर्थात जो आपस में प्रजनन कर वंश चला सकते हैं। जिन जातियों के आनुवंशिकी ‘गुण’ बहुत मिलते-जुलते है वे सब मिलकर ‘वंश’ (genus) बनाती हैं और इसी तरह वंशों से मिलकर ‘कुल’ (family) बनते हैं। बड़ा बगला, कड़छिया बगला तथा किल्चिया बगला जातियां मिलकर ‘बहला’ (Egretta) वंश बनाती हैं।

गाय बगला (bubulcus) ‘पिपिलिका’ वंश का है, अंधा बगला’ ‘अंधबक’ (ardeola) वंश का है। ये वंश कुछ अन्य के साथ मिलकर ‘बक कुल’ Ardeidae, महाबक कुल Ciconiidae, दर्वीमुख कुल Plataleidae तथा आटी कुल Plegadidae मिलकर बक गण, ( Ciconiiformes Order ) बनाते हैं। बक गण, हंस गण, जलचारि गण, विष्किर गण, कपोत गण, वाजि गण आदि अनेक गण मिलकर पक्षी वर्ग (Aves class) बनता है। पक्षी वर्ग, स्तनपायी वर्ग आदि तरह अनेक वर्ग मिलकर ‘कशेरुकी संघ’ (Vertebrata Phylum) बनाता है इस तरह हिंदी में ‘बगला’ नाम एक जाति, एक वंश का न होकर बक की बहुत-सी जातियों का नाम है किंतु बिना किसी वैज्ञानिक वर्गीकरण के। शब्दकोशों की तो बात ही छो़ड दें उनमें ‘बगला’ शब्द न केवल बक कुल वरन महाबक कुल तथा जलचारि गण के क्रौंच कुल के पक्षियों पर भी लागू होता है। ‘(सितकंठी) काला तट बगला’ Indian Reef Heron ) तथा ‘रेखावक्ष काला ऊर्ध्वमुखीबक’ (Black Bittern) दो अलग वंश के पक्षियों का एक ही नाम है। ‘काला बगला’। भारतीय भाषाओं में अधिकांश पक्षियों के अधिकांश नाम उनके ‘वंश’ के या ‘कुल’ के नाम हैं, जाति के नाम नहीं हैं, उदाहरणार्थ मैना, पनकौआ, फूलचुहीस, कठफोड़ा, किलकिला, तीतर, बटेर, सुपर्ण, कूजिनी आदि। इस तरह के नाम भ्रांतियां फैलाते हैं। हिंदी प्रचलित नामों का एक और बड़ा दोष यह है कि वे हर 200-300 कि.मी. पर बदल जाते हैं। ये नाम पहचान में भी मदद नहीं करते। इसलिए आवश्यक है कि हिंदी में पक्षियों के नामों को मानक तथा वैज्ञानिक वर्गीकरण के यथासंभव अनुरूप बनाया जाए। श्री सालिम अली ने भी इसे अत्यंत आवश्यक माना है।

मैंने पक्षियों के नाम गढ़ने के लिए आवश्यक गुणों की खोज की तथा मेरे विचार से पक्षियों के नाम चुनते या गढ़ते समय निम्नलिखित गुणों को ध्यान में रखना चाहिए-

(1) नाम उच्चारण में सरल हो। .यथासंभव छोटा हो।
(2) नाम जाति, वंश तथा कुल ध्यान में रखकर दिया जाए। नाम के वंश और कुल का पता चल सके तो और उत्तम होगा।
(3) उस पक्षी के नाम से उसी वंश तथा कुल की अन्य जातियों के पक्षियों से भिन्न पहचान बनाने में मदद मिले।
(4) नाम से उस पक्षी का विशिष्ट गुण या गुणों का पता चले।
(5) नाम यथासंभव भारतीय समृद्ध परंपरा से जुड़ा रहना चाहिए।
(6) नाम में राष्ट्रीय बन सकने की संभावना होनी चाहिए।
(7) प्रचिलित नामों को यथासंभव उपयोग में लाया जाए।

डॉ. रघुवीर के शब्दकोश Indian Scientific Nomenclature of Birds में जो नाम दिए हैं उनमें उपर्युक्त सात में से मुख्यतया चार गुण पर्याप्त मात्रा में मौजूद हैं पहला अर्थात सरलता का तथा सातवां गुण भी लगभग नहीं हैं। यद्यपि उन्होंने रंग के नाम देने की भी एक उत्तम पद्धति दी है, किंतु रंगों की पहचान के लिए प्रकृति से ही परंपरा के अनुसार नाम लिए हैं, उदाहरणार्थ, लाल के विभिन्न वर्णों के लिए खरबूजी, सेंदुरी, ईंगुरी, रक्त लोहित, अरुण, पिंगल, पाटल, ईंट, कत्थईं, गुलाबी, महावरी, कपिल, बदामी आदि विशेषणों का उपयोग किया है। मैं स्पष्ट करना चाहूंगा कि यद्यपि ‘प्रचिलित नामों के उपयोग’ वाला गुण उपर्लिखित तालिकाओं में अंकित है किंतु उसका महत्व न्यूनतम नहीं है, पुष्टि के लिए यथेष्ट होगा कि मैंने 98 में से (57 हिंदी से तथा 10 हिंदीतर से) 67 नाम (अधिकांशः वंश के) प्रचलित नाम ही के लिए हैं।
पक्षियों के भिन्न अंग अधिकतर भिन्न रंगों के होते हैं अतएव पक्षियों के अंगों के नामों की जानकारी भी पक्षियों की पहचान के लिए आवश्यक है। अंगों के नामों के विषय में भी भ्रांतियां विद्यमान हैं या उसकी जानकार में सुनिश्चितता कम है। जैसाकि Whitenecked Stork का ‘श्वेतकंठ महाबक’, जब कि उसे होना चाहिए ‘श्वेताग्रीवा

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