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पौराणिक कथाएँ >> एकलव्य

एकलव्य

शोभनाथ पाठक

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :59
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5526
आईएसबीएन :81-7028-423-6

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भारतीय संस्कृति को संवारने में एकलव्य की अभूतपूर्व भूमिका को आंकना आसान काम नहीं है

Eklavya

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्राक्कथन

भारतीय संस्कृति को संवारने में एकलव्य की अभूतपूर्व भूमिका को आंकना आसान काम नहीं है, जिसने गुरुभक्ति, कर्त्तव्यपरायणता तथा अथक श्रम साधना की सफलता का कीर्तिमान स्थापित कर इतिहास को आलोकित कर दिया।
एकलव्य आदिवासी (भील) राजा हिरण्यधनु का पुत्र था। बचपन से ही होनहार बालक की प्रतिभा को परख, पिता उचित शिक्षा के प्रबन्ध हेतु आतुर थे। एक दिन हिरण्यधनु की चिंतित मुद्रा को देख, एकलव्य पूछने लगा, ‘‘पिताजी, आजकल आप इतने चिंतित क्यों रहते हैं ?’’ हिरण्यधनु ने लंबी सांस खींचकर कहा, ‘‘बेटा, मैं तुम्हारे लिए उचित शिक्षा (धनुर्विद्या) के प्रबन्ध हेतु चिंतित हूं। कोई अच्छा गुरु मिल जाए, जो तुम्हें धनुर्विद्या में पारंगत कर दे, पर हम अछूत (भील) नाम से पुकारे जाते हैं, अतः हमें शंका है कि कोई तुम्हें शिक्षित करने को तैयार न हो।’’

एकलव्य पिता की अनुभूति को भांप गया। वह अत्यधिक उत्साह के साथ बोल उठा, ‘‘पिताजी आचार्य द्रोण बड़े ही उदार व शिष्य-वत्सल हैं, अतः उनसे ही मैं शिक्षा ग्रहण करूंगा। वे ही मेरे गुरु होंगे।’’ अंततः वह पिता से अनुमति लेकर द्रोण के पास जाता है, परन्तु अछूत होने के नाते उसे द्रोण अस्वीकार कर देते हैं। वह निराश होकर लौट आता है, किन्तु अपमान की अनुभूति से आकुल होकर वह कठोरतम श्रम करने का संकल्प करता है। वह जंगल में आचार्य द्रोण की मिट्टी-प्रतिमा बनाकर, उसी पर अपनी असीम आस्था का उफान उंड़ेल धनुर्विद्या का अभ्यास करता है। अपनी लगन व लाग से कुछ ही दिनों में एकलव्य कुशल धनुर्धर बन जाता है।

उधर कौरव-पांडव राजकुमार शिकार खेलने व धनुर्विद्या का अभ्यास करने जंगल में जाते हैं। उनके साथ एक कुत्ता भी है। कुत्ता कुछ दूरी पर स्थिति एकलव्य को देखकर भूंकने लगता है। एकलव्य कुत्ते का मुख बंद करने की कामना से पल भर में ही सात तीर चलाकर उसका भूंकना बन्द कर देता है।

कुत्ता लौटकर अपने स्वामी के पास जाता है। जब कौरव-पांडव इस दृश्य को देखते हैं, तब उनके आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहता। वे तुरन्त कुत्ते के पीछे-पीछे उस धनुर्धर को देखने चल देते हैं, जो तीरंदाजी में इतना कुशल है। अन्ततः एकलव्य से उनकी चर्चा होती है। एकलव्य कहता है कि मैं तो आचार्य द्रोण का शिष्य हूं। इस तथ्य को सुनकर राजकुमार आश्चर्य में पड़ जाते हैं, कि यह अछूत भला द्रोण का शिष्य कैसे हो सकता है, द्रोणाचार्य तो केवल क्षत्रिय राजकुमारों के ही शिक्षक हैं।
क्षत्रिय राजकुमार एकलव्य की निष्ठा, श्रम, साधना पर ईर्ष्यालु हो जाते हैं और उसकी उपलब्धि को निष्फल करने की कामना से, गुरु द्रोण द्वारा अंगूठे की गुरुदक्षिणा की मांग कराते हैं। द्रोणाचार्य भी असीम निष्ठुरता का परिचय देते हुए एकलव्य से अंगूठा ही गुरुदक्षिणा में मांगते हैं, जिसे वह सहर्ष स्वीकार कर लेता है।

कटा हुआ अंगूठा द्रोणाचार्य ले तो लेते हैं पर उनके हृदय में हलचल शुरू हो जाती है। आखिर वे भी तो मनुष्य हैं ! हृदय उनका भी हृदय ही है, पत्थर नहीं ! सीधा-सादा शिक्षक होकर भी उनमें इतनी निष्ठुरता कैसे आई ? इतना असहनीय क्रूर कृत्य करने के पश्चात् भी क्या उनके हृदय ने उन्हें धिक्कारा नहीं ? इस रचना में इन सभी प्रश्नों को काव्यात्मक शैली में प्रस्तुत करने का भरसक प्रयास किया गया है।

छुआछूत की समस्या समाज के लिए एक अभिशाप है। इस सामाजिक संकीर्णता का शमन आवश्यक है। अतः काव्य में समाज की इस कमजोरी पर ध्यान आकर्षित कराया गया है। मनुष्य का मनुष्य के साथ कोई भेदभाव नहीं होना चाहिए।
एकलव्य अछूत था, इसलिए उसे शिक्षा देने से इनकार करना उचित नहीं था। द्रोण जैसे गुरु के लिए यह बात कलंक की है। फिर भी एक शिष्य की साधना-त्याग लगन उसे अपनी मंजिल तक पहुंचाने में कितने सक्षम होते हैं, यह एकलव्य के आदर्श चरित्र से उजागर होता है। अंगूठा काटकर दक्षिणा में दे देना, एकलव्य का यह कार्य एक कीर्तिमान स्थापित कर देता है। गुरु के प्रति शिष्य की असीम आस्था का यह आदर्श विश्व-बाङ्मय में अनुपमेय है।

द्रोणाचार्य द्वारा इतना निष्ठुर कर्म क्यों किया गया ? क्या गुरु का हृदय इतना कठोर भी हो सकता है ? भारतीय संस्कृति के संबंध में यह विचारणीय प्रश्न है। क्या इस कृत्य के लिए द्रोण पछताए नहीं होंगे ? उनके मन ने उन्हें छिक्कारा नहीं होगा ? अवश्य, प्रत्येक अपराधी, अपराध के बाद अपने दुष्कर्मों के लिए पश्चात्ताप करता है।
द्रोण के इस दुष्कर्म के अतल में भी कोई ऐसा रहस्य होगा जो कुरेदने से उजागर हो सकता है। उनके अतीत के जीवन की परत उघाड़ने से ऐसा आभास होता है कि विद्वत्ता में विशिष्ट स्थान रखते हुए भी वे तिरस्कृत थे।
द्रोणाचार्य धनुर्वेद के प्रकाण्ड आचार्य थे, पर अपने एकमात्र पुत्र को एक पाव दूध पिलाने में भी सक्षम नहीं थे। वात्सल्य की अगाध अनुभूति में निमग्न रहकर भी उन्होंने अश्वत्थामा को आटे में पानी मिलाकर कृत्रिम दूध बनाकर पिलाया, अपने पुत्र के साथ छल ही किया, तब क्या उनके पैतृक भाव ने उन्हें कोसा नहीं होगा, उनके पौरुष ने उन्हें धिक्कारा नहीं होगा, एक अबोध बालक से धोखा करते हुए उनकी छाती फट नहीं गई ? आखिर यह सब क्यों ? यह मजबूरी थी यह मज़ाक ?

‘बुभुक्षित: किं न करोति पापम्’। समस्त दुष्कर्मों की जड़ है निर्धनता ! निर्धनता की क्रूर कटार जब अपमान की शान पर चढ़ जाती है तब वह और भी तीखी हो जाती है, जिसका वार बड़ा भयानक होता है। इस पर यदि गुणवत्ता का विष चढ़ जाए, तब तो कहना ही क्या !
द्रोण गुणज्ञ थे, पर उन्हें दाने-दाने को तरसना पड़ा। उनके अभिन्न मित्र द्रुपद ने उनकी निर्धनता का मज़ाक उड़ाया, यहां तक कि उसने पहचानने से इनकार कर दिया। जब द्रोण ने कहा कि आप मेरे सहपाठी मित्र हैं, इसके उत्तर में द्रुपद ने कहा-राजा और रंक की कैसी मित्रता ! द्रुपद ने द्रोण को बाहर निकाल दिया।
निर्धनता और अपमान से आहत द्रोण को हस्तिनापुर में शरण मिलती है, जहां उन्हें कौरव-पाण्डवों का शिक्षक नियुक्त किया जाता है। उनका अनुबन्ध हो जाता है कि वे केवल क्षत्रिय राजकुमारों को ही शिक्षा देंगे। अर्जुन को उन्हें अग्रगण्य धनुर्धर बनाना है। अतः उनका सारा ध्यान अर्जुन पर ही केन्द्रित रहा।

यदि द्रोण को बंधुआ मजदूर कहा जाए तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी, क्योंकि क्षत्रिय कुमारों के घेरे से बाहर जाना उनके लिए कठिन था। यदि वे तभी हिम्मत करते भी तो हृदय कांप जाता रहा होगा कि आटे का दूध...द्रुपद का अपमान..आदि आदि अतीत की यादें।
अतीत के इस अछूते प्रसंग को काव्यात्मक शैली में गूंथकर मनीषियों के सम्मुख प्रस्तुत करने का मैंने प्रयास किया है, कि नीर-क्षीर पारखी विद्वज्जन इस समस्या के समाधान से आज के भारतीय प्रजातन्त्र को संवारें।
आदिवासियों (भीलों) के बीच बीस वर्ष रहकर मैंने अध्यापन का कार्य किया है। वह भी भीलों का गढ़ झाबुआ (मध्यप्रदेश) जहां 85 प्रतिशत जनसंख्या आदिवासी है। मैंने गुजरात व राजस्थान के भील क्षेत्रों से विशेष संपर्क किया है। आदिवासी बच्चों में विशेष रूप से घुल-मिलकर मैंने अपने कार्य का निर्वाह किया है। छात्रावास में रात्रि को भी उन्हें पढ़ाया है तथा ग्रामीण अंचलों में भी उनके पिता माता से मैं मिलता हूं।

तथ्यतः भील बड़े भोले-भाले व सत्कारप्रिय होते हैं। भीलों के लड़के-लड़कियां भी विशेष अनुशासनप्रिय, अध्ययनशील व आज्ञाकारी होते हैं। इस यथार्थता को मैं बड़े दावे के साथ उजागर करता हूं, जो अनुभूति मुझे उनके बीच रहकर हुई है।
हां, इन भीलों में एकलव्य की वह परम्परा भी बड़ी बारीकी से परखी जा सकती है, जो तीर चलाने में अंगूठे से सम्बद्ध है। आज भी भील तीर चलाने में अंगूठे का उपयोग नहीं करते, वरन् दो उंगलियों के बीच से तीर का ऐसा निशाना साधते हैं कि भयानक जंगली जानवर भी पलभर में धराशायी हो जाए। तीर धनुष आज भी भीलों का शस्त्र व श्रृंगार है। बीस, वर्षों तक मैंने इन भील बच्चों को गुरु के रूप में पढ़ाया। उनको आंकना सम्भव नहीं है। हां, इतना अवश्य कहूंगा कि इनके लिए अभी बहुत कुछ करना है।

इस काव्य के सृजन में मैंने अपने बीसवर्षीय भीली क्षेत्र के अनुभव का सम्बल पुरातन कथानक में संजोकर प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। मेरे प्रिय पुत्र मनीष पाठक ने अपनी पाठ्य-पुस्तक से एकलव्य का पाठ सुनाया तथा तभी मेरी कल्पना पर निखार चढ़ा जिसका परिणाम है यह काव्य।
काव्य का मुख्य आह्वान है-छुआछूत के अन्त के साथ समान शिक्षा की सुव्यवस्था जिसमें शिक्षक की निर्धनता के निवारण का प्रावधान हो, साथ ही कर्मयोग का सुसंस्कृत सम्बल जिसमें संवरकर हमारी नई पीढ़ी, स्वयं का, समाज का, राष्ट्र का व विश्व का कल्याण करे।

शोभनाथ पाठक

एक


प्रकृति-प्रांगण बीहड़ वन में,
भील राज्य था न्यारा।
हिरण्यधनु राजा था अनुपम,
सबके लिए सहारा ।।1।।

वनश्री का वरदान मिला था,
शस्य श्यामला धरती।
प्रकृति सुन्दरी की गोद में,
यह छवि नित्य निखरती ।।2।।

आदिवासियों की उन्नति में,
राजा सतत निरत था।
श्रम ही सम्बल जहां प्रगति का,
सत-निष्ठा का व्रत था ।।3।।

सुघर सलोनी अमराई में,
प्रकृति जिसे दुलराती।
भीलराज की स्नेह आस्था,
सब पर सुख बरसाती।।4।।

राजा प्रजा एक के पूरक,
प्रेम-नेह नियम था।
स्वेद बिंदु से धरा सींचना,
शांति सुखद संयम था।।5।।

हिरण्यधनु था वीर धनुर्धर,
वैसा ही सुत न्यारा।
नामकरण एकलव्य’ अनूठा,
प्राणों से भी प्यारा।।6।।

होनहार बालक को परखा,
भीलराज ने क्षण में।
चिनगारी जब उग्र बनेगी,
कहर ढहेगा रण में।।7।।

उचित प्रबंध धनुर्विद्या का,
कैसे हो सकता है ?
चेहरे पर चिंता चमकीली,
सिहर-सिहर उठता है।।8।।

स्वेद बिंदु माथे पर टपके,
कांप उठा तन सारा।
बालक की अनुपम प्रतिभा को,
किससे मिले सहारा ?।।9।।

इस उधेड़बुन में व्याकुल लख,
पुत्र बहुत अकुलाया।
तात ! आज चिंतित क्यों इतने,
भांप नहीं कुछ पाया।।10।।

पिता पुत्र का प्रेम प्रगाढ़,
परस्पर जब टकराता।
सुधा-सिंधु का ज्वार उमड़कर
आंखों से झर जाता।।11।।

ममता के मोती की बूंदे,
नयनों में भर आईं।
छलक पड़ा वात्सल्य विकल हो,
उर में नहीं समाईं।।12।।

बेटा ! तुम्हें धनुर्विद्या में,
पारंगत करना है।
पर ‘अछूत’ अभिशाप बना है,
तिरस्कार सहना है।।13।।

कौन तुम्हें सिखलाए विद्या ?
तुम अछूत कहलाते।
यह विडंबना है समाज की,
समझ नहीं हम पाते।।14।।

ईश्वर की संतान सभी हैं,
कोई भेद नहीं है।
पर समाज की विकृत व्यवस्था,
का अपवाद यही है।।15।।

ज्ञान-चरित आदर्श पराक्रम,
सभी गुणों में न्यारा।
अगर आदिवासी घर जन्मा,
तो सबने दुत्कारा।।16।।

यह कुप्रथा कचोट रही है,
कहें न्याय क्या इसको ?
गुण गरिमा हो सदा गुरुतर,
ज्ञान मिला हो जिसको।।17।।

जाति-पांति का भेद भयानक,
युग के लिए गरल है।
छूत-अछूत स्वार्थ की सीढ़ी,
पतन-पाप अविरल है।।18।।

अरे पुत्र एकलव्य !
तुम्हें मैं कैसे गुणी बनाऊं ?
कौन तुम्हें शिक्षा देगा,
अब कौन मार्ग अपनाऊं ?।।19।।

पूज्य पिता ! इसमें चिंता क्या,
गुरु हैं द्रोण हमारे।
कौरव-पांडव के शिक्षक वह
महाधनुर्धर न्यारे।।20।।

द्रोण महापंडित ज्ञानी हैं,
पौरुष प्रखर पारखी।
ऊंच-नीच का भेद न उनमें
उनका बनूं सारथी।।21।।

शिक्षा का संकल्प उन्हीं से,
धनुर्वेद अपनाऊं।
श्रद्धा-स्नेह गुरु भक्ति से,
उनको शीश नवाऊं।।22।।

समदर्शी आचार्य, अलौकिक
पुरुष विश्व में होता।
जो समत्व के सम्बल से
है सतत संजोता।।23।।

गुरु-गरिमा की तुला गुरुतर,
गुरुवर वही हमारे।
श्रद्धा-भक्ति उन्हीं पर अर्पित,
अपने वही सहारे।।24।।

तात, तनिक भी करें न चिंता,
आशीर्वाद हमें दें।
विद्या वारिधि गहा सकूं मैं,
यह वरदान हमें दें।।।25।।

संकल्पों का सागर उर में,
उसके लगा उमड़ने।
अचल आस्था का उछाह भी,
लगा ज्वार-सा बढ़ने।।26।।

चरण चूमकर पूज्य पिता का,
बढ़ा वीरवर आगे।
साध साधना की जो उमड़ी,
सफल हुई वह आगे।।27।।

हृदय लगा कर सहज स्नेह से,
बिदा किया सुत प्यारा।
छलक पड़ा वात्सल्य नेत्र में,
आनन चूम निहारा।।28।।

आशा के अंकुर तुम मेरे,
उगो और लहराओ।
मेरी बगिया के प्रसून हो,
धरती को गमकाओ।।29।।




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