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हास्य-व्यंग्य >> उस देश का यारो क्या कहना

उस देश का यारो क्या कहना

मनोहर श्याम जोशी

प्रकाशक : किताबघर प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :248
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5524
आईएसबीएन :81-7016-389-7

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प्रस्तुत है मनोहर श्याम जोशी की प्रतिनिधि व्यंग्य रचनाएँ...

Us Desh Ke Yaron Kya Kahana

प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश

हिन्दी की तमाम अनसुलझी बहसों में से एक यह भी रही है कि व्यंग्य को विधा माना जाय कि वस्तु ? मनोहर श्याम जोशी के यहां व्यंग्य एक दृष्टि या दृष्टिकोण, एक धजा या अदा की शक्ल अख़्तियार करता है। वे किसी भी स्थिति या व्यक्ति को, विधा और वस्तु को, पवित्र या अस्पृश्य नहीं मानते। जिस तरह वे अपने को धो-धाकर ठिकाने लगा देने में यक़ीन करते हैं।
यही उनका कथ्य है यही उनका शिल्प। कोई गुब्बारा दिखा नहीं कि मश्जो उसमें पिन चुभोने के लिए बेताब हो उठते हैं, जोकि वे इसे बड़ी तरतीब और तरकीब से करते हैं-कुछ इस तरह कि वह भड़ाक से न फूटे, हवा धीरे-धीरे फुस्स करती निकले। गुब्बारे को अच्छी तरह पिचकाकर ही मश्जो चैन पाते हैं, जो उनकी ममता का सूचक है या निर्ममता का, यह अपने-आप में विवाद का विषय हो सकता है।

हिन्दी व्यंग्य लेखक के आरंभिक उदाहरण और प्रतिमान यदि शिवशंभु के चिट्ठों में देखे जा सकते हैं तो उनके लगभग सौ वर्षों बाद लिखित ‘नेताजी-कक्काजी संवाद’ हमें एक बार फिर समय और समाज के आमने-सामने लाते हैं तब इस विडंबना की ओर ध्यान जाए बिना नहीं रहता कि चीज और स्थितियां जितनी बदलती हैं उतनी ही वे पहले जैसी रहती हैं। इसलिए लार्ड कर्ज़न और नेताजी और मुंगेरीलाल एक ही सिक्के के अलग-अलग पहलू जैसे नज़र आएँ तो क्या आश्चर्य !
या समझ चुकने के बाद केवल इतना ही समझना बाक़ी बचता है कि तिथियों, नामों और प्रसंगों के बासीपन के बावजूद, उनके पीछे मौजूद बहुत कुछ तरोताज़ा बना रहता है। मश्जो उसे कई तरह से झलकाते हैं, यहां तक कि छद्म गंभीरता के आवरण में छिपाकर भी।

हिन्दी में एक समय अनेक तात्कालिक कारणों से जिस तरह ‘एकांकी’ का विस्फोट हुआ था उसी तरह पत्रकारिता के पिछले दौर में ‘व्यंग्य’ की भरपूर खेती हुई है।
कोई चाहे तो इस ‘बम्पर क्राप’ को स्वाधीनता के पचास वर्षों की देन’ भी कह सकता है और उम्मीद बाँधी जा सकती है कि जश्न के इस मौके पर संसद का जो विशेष अधिवेशन हुआ था, उसके अनन्तर ‘शान्तं पापम्’ नामक एक नया सीरियल शुरू हुआ होगा। वह मात्र पचास दिनों का होकर न रह जाय, बल्कि आगामी पचास वर्षों तक चलता हुआ, स्वाधीनता का शतक भी धूमधाम से मना सके, इस गुन्ताड़े में हमारे सुपर स्क्रिप्ट राइटर मश्जो इन दिनों—बाक़ी सभी हास्य-व्यंग्यकारों सहित—लगे हुए हैं।

यही वह वजह है कि सूचना मुझ जैसे मुहर्रमी व्यक्ति को देनी पड़ रही है कि आत्मसाक्षात्कार से लेकर आत्मधिक्कार तथा आत्मशोधन तक की तमाम संभावित छवियों को समेटने वाली उस अखंड राष्ट्रीय गाथा के एक धमाकेदार ट्रेलर की भांति अब आपके सामने पेश है—
‘उस देश का यारों क्या कहना !’

अजितकुमार

ऐ मे ले ओ मे ले ओ हू मे ले


हमारे एक सहपाठी के यहाँ, जो कभी राजनीति में शक्तिशाली रह चुके हैं और कभी भी फिर शक्तिशाली होने की हैसियत रखते हैं, प्रीतिभोज था। हम न जाने का फैसला कर चुके थे कि नेताजी का फोन आया। उन्होंने ‘सोस-लिजम’ के इस दौर में ‘सोसल लाइफ से कटिंग आफ’ निहायत गलत ठहराया। उन्होंने कहा कि इस तरह अपनी विज-बल्टी पू-अर रखिएगा तो फार-गेट हो जाइयेगा। हम पहुंचते हैं बीस मिनट में गाड़ी लेकर आप रय-डी रहिये कक्का। सहपाठी के कोठी के लान में भाँत-भाँत के कांग्रेसी और गैर-कांग्रेसी नेता ही नहीं पत्रकार अफसर, और काम करने वाली बिरादरी के प्रमुख सदस्य ठुँसे पड़े थे। हमें यह देखकर आश्चर्य हो रहा था कि इनमें से बहुतों की एक-दूसरे से शत्रुता है लेकिन ये एक-दूसरे से ऐसे गले मिल रहे हैं मानो प्रेमी-प्रेमिका हों ! नेताजी स्वयं बहुत फुर्ती से यहाँ से वहाँ, वहाँ  से यहाँ जाकर छोटे-बड़े सभी नेताओं से मिल रहे थे, किसी से पायलगी कर रहे थे, किसी को आदाबअर्ज कर रहे थे, किसी के बगलगीर हो जा रहे थे और किसी की पीठ पर धौल जमाकर स्वयं उसे बगल में लिए ले रहे थे।

‘राउण्ड मारकर’ नेताजी हमारे पास पहुँचे और उन्होंने बताया कि जब तक मय-डम नहीं न आ जातीं मामला डल हय, पंचाइती ब्यौस्था में अउर समय बर्बाद करने का धरम नहीं, इसलिए अब सामने वाले लान में जाकर कुछ ग्रहन कर लिया जाये।
सामने वाले लान पर साफ-सुथरी नयी दिल्ली के अनुरूप साफ-सुथरे हलवाई चाट, समोसा, कचौड़ी, पकौड़ी, जलेबी बना और खिला रहे थे। एस्प्रेसो काफी, सैण्डविच, पेस्ट्री, बिस्कुट का भी चक्कर था और एक ठो पनवाड़ी भी दुकान लगाये बैठा था। ‘‘यह अब सही सिस्टम आया हय लउट के !’’ नेताजी ने कहा, ‘‘अरे कभी सइ-इण्डविच पयस्ट्री से हिन्दुस्तानी पेट भरा है।’’ उन्होंने सूचना दी कि ‘‘यह सारा प्रबन्ध आप ही का भतीजा का किया हुआ हय, भगवान की दया से।’’ भतीजा का किया हुआ है सो इससे भी प्रकट था कि हर हलवाई उनसे हाथ जोड़कर बात कर रहा था और नेताजी उनसे ‘एइसा दिये हो ? वइसा किये हो ?’ –नुमा सवाल कर रहे थे।

जलेबी खाते हुए हमने चासनी में डूबे एक क्षण नेताजी से नेताओं में व्याप्त अद्भुत सद्भाव के सम्बन्ध में जिज्ञासा की। नेताजी उवाच, ‘‘वह एइसा है जितना भी आदमी पब्लक लाइफ में हय, जानता हय कि यह हय फ्रण्डली फुटबाल मइच ! कभी इधर गोल हुआ, कभी उधर, चलता रहता हय, समझे। कम्प-टीसन हय कोई दुश्मनी थोड़ी हय ! उ लाग-डाँट खून-खच्चरवाली दिहाती सामन्ती पालटक्स, राज-धानि में चलती नहीं। न कोई परमानन्ट दुश्मन हय, न कोई परमानन्ट दोस्त, एइसा ग्यान जिसे हुइ जाय वहीयै पब्लक लाइफ में परमानन्द को प्राप्त हुइ सकित हय। अउर कक्का कउन भकुआ अग्यानी हुई के कय-पलटाफ इण्डया में पहुँच सका किसी कायदे की जगह पर !’’

‘‘इसका मतलब यह है कि सारा अपमान, सारी शत्रुता पी जाओ चुपचाप ?’’ हमने पूछा।
नेताजी बोले, ‘‘फर्ज किया आपके खोपड़े पर किसी ने पचास ठो जूते मार दिये अउर आप रोने-चिल्लाने लगे तो अगले की जीत हुइ गयी कि नहीं ? आप एइसन बने रहिये जइसन कुछ हुआ ही नहीं। लोग-बाग आ के सहानुभूत जतायें तो आप उनसे कहिये कि हमारे कोई जूता मार सकता हय, मारे तो इस मजबूत खोपड़े का कुछ बिगड़ सकता हय ! जाओ उसके जूते की मजाज-पुर्सी करो, सोल-उल बदलवाने की नउबत न आ पहुँची हो ससुरी। अच्छा जिसने मारा उस ससुरे को भी कभी आपसे काम पड़ सकता हय। वह मुसकराते हुए मिलेगा आपसे। कहेगा, अरे आपसे यह किसने कह दिया कि हम आपके खोपड़े पर जूता मारे हैं। वह तो लउंडे माँग ले गए थे जूता। जइसे ही हमें पता चला हमने आड़े हाथों लिया उन्हें, नहीं आपसे सही बताते हैं, बाइ गाड की कसम, आप चाहें जिनसे पूछ लीजिए, कितना तो क्रट-साइज किये हम उन लउंडों को।’’

‘‘यह तो बेशरमी है।’’ हमने आपत्ति की।
अगर यह बेशरमी हय कक्का,’’ लायक भतीजाजी ने कहा, ‘‘तो पब्लक लाइफे बेसरमी हय। आप जियादा ही सरमा हों तो ससुर वानप्रस्थ का चक्कर लगा लें ! अनाद काल से ब्यौस्था  यहीयै हय कि पब्लक लाइफ के लिए चानक्य नीति अउर वानप्रस्थ के लिए क्या नाम कहिते हैं उपनिसद् !’’
पनवाड़ी से बीड़े लगवाते हुए नेताजी ने कहा, ‘‘बिरादरी हय, समझे कक्का, बिरादरी में सद्भाउ राखे का चाही। पता नहीं कउन ससुरा कब क्या हुई जाय ? अरे हम यहाँ हलवाई-उलवाई की ब्यौवस्था चउकस कराने में समय बर्बाद किये हैं तो यही न सोचकर कि आपके कलास फइलो रिस-फल में मन्तरी बना लिये जा सकते हैं ससुर !’’

वह तो सब ठीक है !’’ हमने कहा लेकिन जिस पब्लिक के लिए यह पब्लिक लाइफ है, उसकी दुर्दशा कौन देखेगा ?’’
‘‘अरे कइसी दुर-दसा ! यह पाइण्ट आपको कई मर्तबा समझाय चुके हैं हम। कहीं कउनो दुर-उर-दसा नहीं हय ससुरी अउर हय तो सदियों पुरानी हय, किसी के बस की नहीं हय समझे। डमो-क्रसी हय, जियादा से जियादा पब्लक लाइफे में आय रही हय, कुछ नहीं तो गुण्डागर्दी-डकइती में ! दाऊँ लगा रहा हय कोई अउर आप खामाखाँ आँसू बहाने का नाटक करि रहे हैं। अरे यह नाटक हम लोग बहुत कर चुके, अक्स-पोज हुइ चुका ससुर !’’

इतने में सियावर बाबू और गुरुजी, फ्रण्डली फुटबाल मैच के ये दो खिलाड़ी, आ पहुँचे पनवाड़ी के यहाँ। फुटबाल मैच में उन्हें पटखनी दे चुके नेताजी ने दोनों के पाँव छुए। तभी सूचना मिली कि मयडम दस मिनट में पहुँच रही हैं। नेताजी ने डबल बीड़ा दबाकर सियाबर बाबू से अनुरोध किया कि इन आडिटर साहिब को सुना दिया जाय ‘लोर’ वाला। सियाबर बाबू से सुनाई एक देहाती कहावत : ‘कनिया के आँख मा लोर ना’ लो-कनी हकने काने !’ अर्थात विदा होती बधू (अर्थात पब्लिक ?) की आँख में तो आँसू नहीं हैं, लोग-बाग (अर्थात पत्रकार ?) किस दुख में रो रहे हैं ?

पान-वान जमाकर नेता-बिरादरी दूसरे लान में पहुँची। मयडम की प्रतीक्षा करती रही। वह आयीं। उतरीं। सबको नमस्कार करते हुए मेजबान के घरवालों की ओर बढ़ीं। जमे हुए नेताओं के चेहरों पर यह भाव आ गया कि जो भी हैं तेरी कृपा से हैं, यह कृपा हम पर बनी रही। पिटे हुए नेताओं के चेहरों पर यह भाव आ गया कि आज धूल-धूसरित हैं तो तेरे ही कोप से, हम पर से यह कोप दूर हो। मयडम के परिष्कार और आभिजात्य के समक्ष वे सब अपने को बौने माने हुए थे, बौने लग भी रहे थे।
नेताजी सबको धकियाते हुए मयडम के पिछलग्गू बन लिये। स्पष्ट था कि मयडम उन्हें नहीं पहिचानतीं। इससे उनके उत्साह में लेशमात्र अन्तर नहीं पड़ा। दस मिनट मयडम वहाँ रहीं और दसो मिनट नेताजी उस टोली में रहे जो उनके साथ चल रही थी और फोटोग्राफरों के कैमरों में कैद हो रही थी।
लौटते हुए नेताजी ने सन्तोष व्यक्त किया, ‘‘आज की दिहाड़ी अच्छी रही। दो-चार सउदों की प्रलय मनरी बातचीत हुई गयी। मयडम के साथ फोटू उतर गया। कस्बा लयबल की पालटक्स में वाहू का महात्म हय। अरे वहां तो कोई निठल्ला वकील-उकील टाइप टूर पर आये सयन्टर के किसी मनस्टर से चिपक लेता हय फोकट में तो बाद में यही कहि कहिके जिनगी बनाय लेता हय कि मन्त्रीजी बुलाये हैं, हम दिल्ली जाय रहे हैं। कउनो सेवा हो तो बतायी जाय।’’ नेताजी हिनहिनाये।
‘‘और तुम्हारे एम० पी० बनने का कुछ नहीं हुआ ? राज्यसभा में ही पहुँच जाओ।’’
‘‘अरे एम० पी०-वेम० पी० सब एट्टी-फाइव में होगा। अभी ऐमेले का चांस बनता दीख रहा हय। अभी वहां सी० एम० से ये बात हो रही थी हमारी, देखा होगा आपने।’’

‘‘एम० एल० ए० में क्या धरा है !’’ हमने पूछा।
‘‘अरे धराइएगा तो ऐमेले होकर भी इतना कुछ धरा लीजिएगा कि राइबल लोग सोच-सोचकर धरासाई हुई जायँ। आप ऐमेले वाला पोयट्री सुने हो कि नहीं ?’’
‘‘वह क्या है ?’’
‘‘वह एइसे हय—ऐ मे ले, ऐ मे ले, ऐ मे ले सिमण्ट में ले, कोइला में ले, डीजल में ले !’’
‘‘वाह !’’ हमने कहा।
‘‘काहे की वाह, यह तो ससुरी बहुत लोअर कट-गरी की चीज हय। भतीजा आपका खेलेगा तो आपकी दया से ऊँचा खेल खेलेगा।’’
‘‘सो क्या ?’’

‘‘सो यह कि ऐ मे ले, ओ ऐ मे ले, ओ हू मे ले। अउर इस ऐ, ओ अउर ओ हू में सकल स्रष्ट आ जायगी ससुरी।’’
‘‘इतना सब खसोट लोगे फिर अन्त समय क्या करोगे ?’’ हमने पूछा।
‘‘वह एइसा हय, पूरा सुना जा,’’ नेताजी ने हँसना शुरू किया, ‘‘ऐ मे ले, ओ मे ले, ओ हू मे ले, अन्त समय अनन्त हू ले ! अउर का झाड़े रहो कलक्टरगंज, मण्डी खुली बजाजा बन्द !’’
नेताजी के मुख से फूटता ज्ञान हमारे भेजे में घुसकर दमका और उसी मुख से छीटते पान की पीक के छींटे हमारी सफेद कमीज पर पड़कर चमके।


रहिमन सिट सायलेण्टली



हमारी धक्काशाही गाड़ी धोखा दे गयी और हम घर जाने के लिए स्कूटर ढूँढ़ने लगे। स्टैण्ड पर कई स्कूटर थे लेकिन उनके चालकों का मूड हमारी तरफ जाने का था ही नहीं। हम उनसे गरमा गरम बहस में उलझ लिये और नम्बर-वम्बर नोट करने लगे। वे हमें देख कर मुसकराते रहे।
इतने में एक गाड़ी तेजी से हमारी तरफ कुछ यों आयी मानो कुचल देने का इरादा हो ड्राइवर का। हम वाद-विवाद जारी रखते हुए कूदकर फुटपाथ पर चढ़ गए। गाड़ी झटके से रुकी। संगीतमय हार्न की संगत में नेताजी का अलाप सुनायी दिया, ‘‘अरे सर आप ! छोड़िए। इन्हें भाई लोगो, टी०बी०-वी०बी० कभी देखते हो कि नहीं ? पहिचाना नहीं इन साहिब को जो पब्लक को टयलीफून का लम्बर लिखवाते हैं कि इस्कूटर टयक्सीवालों की सिकायत यहाँ की जाय ! पिलेन क्लेथ में हैं इस बखत, इंस्पेक्सन करि रहे हैं अस्टण्डों का। धीगामस्ती मचाय हैं, आप लोग, अउर बद-नामी ससुर अडमंस्ट्रेसन की हुई रहि हय।’’

हमें पूरा विश्वास था कि स्कूटरवाले ठहाका बुलन्द करेंगे, किन्तु वे सहसा गंभीर हो गये। हम गाड़ी में बैठ गये। नेताजी ने कुछ आगे निकलकर संगीतमय हार्न बजाया और हिनहिनाये, ‘‘कइसी रही ? डिमोसन करिके अडीटर को यस०पी० ट्रयफिक बनाय दिया तब बात बनी !’’
‘‘तुम्हारी कहानी का झूठ स्कूटरवालों के लिए पकड़ सकना कुछ मुस्किल नहीं था।’’ हमने कहा।
‘‘इस देश का हर नागरक,’’ नेतीजी ने कहा, ‘‘इतना अक्लमन्द हुई गया हय कि आतंक दगाबाजी, अउर भ्रस्टाचार को हर कहीं पा-सिबल माने अउर सीरयसली ले। एइसी कहानी सदा तब तक सच होती हय जब तक झूठ न साबित कर दी जा, अउर उसके बाद भी सच होती हय क्योंकि सच को झूठ साबत कर दिये जाने की पा-सबल्टी भी अक्लमन्दों पर उजागर हय।’’

नेताजी हँसे और उन्होंने हार्न फिर बजाया। हमने आपत्ति की। इस पर वह बोले, ‘‘मिउजिकवाला लगवाये हैं नया, सुनने-सुनाने के लिए ही ना।’’ और उन्होंने हार्न फिर बजाया।
गाड़ी ने हमारे घर का रास्ता छोड़ा तो हम चिन्तित हुए। नेताजी ने बताया कि दुई मिनट मन्त्रीजी से बात करनी हय, फिर आपहि की सेवा में रहेंगे। उन्होंने डैश-बोर्ड की ओर इशारा किया कि खोलिए। उसके अन्दर चैतन्य-पूर्ण की सामग्री थी। हमने बनाया, खाया और खिलाया।
मन्त्रीजी की कोठी पर पहुँचकर नेताजी ने सबसे पहिले गुलाब की क्यारी पर पीक थूका।
उनकी थ्योरी है कि तम्बाकू से गुलाब की सेहत सुधरती है। इसके बाद उन्होंने पी०ए० नुमा एक प्राणी से पूछा, ‘‘साहिब आँय ?’’ सूचना मिली-है। बाहर अनेकानेक अन्य नेताजी लान पर पसरे हुए थे, आरामकुर्सियों पर जमें हुए थे या बरामदे और बगीचे में टहल रहे थे। इन सबको ‘साहिब’ की याद सता रही थी, ये सब ‘साहिब’ के विषय में चिन्तित थे। और प्रसंगवश यह सारी बिरादरी खुजली से पीड़ित भी मालूम हो रही थी। अलग-अलग नेताओं के अलग खुजली उठी हुई थी। खुजली का मानो आर्केस्ट्रा-सा प्रस्तुत था।

ठोढ़ी खुजाते हुए नेताजी ने पी०एस० नुमा एक प्राणी से पूछा साहिब से बात हुइ सकी दुई मिनट ? प्राणी विशेष ने हमें बैठक में आसन दिला दिया जहाँ पहले से कुछ सौभाग्यशाली आसीन थे।
हमने नेताजी से पूछा कि यहाँ मन्त्रीजी की कोठी में कौन साहब ठहरा हुआ है ? उन्होंने हमें सूचित किया कि ‘‘वह एइसा हय हर मन्त्री पार्लमण्ट अउर आम सभा में मन्त्री कहिलाता हय, घर अउर दफ्तर में साहिब। न कहलाये तो भाई लोग इन्तजाम सारा किर्रू लयवल करि दें ससुर। अरे हुकूमत चलाने के लिए साहिब न बनी तो सेवक बनी ? हां जइसे आउ-टाफ पाबर हुआ कि बयताल फिर उसी पेड़ पर, जनता का सेवक !’’ नेताजी हिनहिनाये।

नेताजी हँसे नहीं, हिनहिनाये थे और सो भी अपनी अपनी ओर से दबे स्वर में ही ही। किन्तु उनका ‘दबा-स्वर’ भी द्वार-भेदी सिद्ध हुआ और भीतर से मन्त्रीजी ने उन्हें बुलवा लिया। वह हमें भी साथ ले गये। मन्त्रीजी के साथ सफारी सूटधारी एक सज्जन थे जो सम्पन्न व्यापारी मालूम हो रहे थे। मन्त्रीजी ने हमसे कुशल-क्षेम पूछी। सफारी-सूटधारी ने नेताजी को किसी आपसी मामले के सन्दर्भ में हँसते हुए लताड़ा और कहा, ‘‘जनता पार्टी से जेतना भी तू लोग आयल रहल न कांगी में ओम्मे कउनो भरोसा लायक मनहिं नाही।’’
नेताजी मुस्कराये और बोले, ‘‘ओठ्ठिन जनता पार्टी में भी हमसे एहि बात कहा गया रहा। ई अभागा हर दुआर दुत्कार ही पाया रहा। कउनो दुलराया नहीं एके।’’

सफारीजी ने नेताजी के एक धौल जमाया और कहा बहुत लाड़ से, ‘‘दलबदलू सरहु ! हमार गुस्सा त तू जनबे करल। का मतलब रहल तोहें हमारा जिल्ला में ऐरन-गैरन से कंस्लटेसन करे के ? हम तोहें दुलराइब की लतियाइब ?’’
नेताजी ने सफारीजी के चरण पकड़ लिए और कहा ‘‘हम्मे लतियाये के जरूरी हौ। अरे लतियाइएगा तभी न सिरी चरनों को पकड़कर अपने बदे जगह बनाएँगे। हम कउनो महरारू थोड़ों हैं, जउन दुलरो बने का खाहिस करें !’’
सफारीजी ने नेताजी के एक और धौल जमाया और उन्हें ‘साले’ और ‘आया राम गया राम’ की उपाधियों से अलंकृत किया। नेताजी ने कहा, ‘‘वह एइसा है सरकार, दिस बीरबल, नय-वर कमिंग-गोइंग, बादसा अलबत्ता कमिंग एण्ड गो-वयन्ट-गउन !’’

निश्चय ही इस राजदरबार में नेताजी की हैसियत मुँह-लगे विदूषक की थी। निश्चय ही मन्त्रीजी व्यस्त भी थे। उन्होंने घड़ी देखी और उपसंहार स्वरूप फतवा दिया कि इस भाँड़ का नेचरुवा बदल नहीं सकता। उन्होंने भाँड़ से जानना चाहा कि इस भण्डेतरी के अतिरिक्त ‘अउर कउनो खास बात रही ?’’ भाँड़ यानी नेताजी, मन्त्रीजी को ‘वह एइसा था सर !’ कहकर एक तरफ को ले गये और उनके कान में कुछ कहते रहे। मन्त्रीजी नहीं नहीं करने लगे और नेताजी गिड़गिड़ाने लगे। फिर मन्त्रीजी ने कोई सुझाव-सा दिया। नेताजी ने पायलगी की। सफारीजी ने नेताजी को एक और धौल जमाया और मन्त्रीजी से अनुरोध किया कि अगली बार जिले के दौरे पर इस भाँड़ को भी साथ लाएँ, बहुत मजा लगाता है। नेताजी ने सफारीजी की भी चरण-रज ली।
हम लोग बाहर निकले। खाज बिरादरी ने हमें ईर्ष्या से देखा कि इन्हें साहिब का ‘अस्पेसल दर्सन’ मिल गया झटपट।
कार में बैठते हुए हमने नेताजी से जिज्ञासा की कि सारी नेता-बिरादरी को खाज का रोग क्यों है ? नहाते-वहाते नहीं क्या ?
नेताजी ने गाड़ी कोठी से बाहर निकालते हुए कहा, ‘‘सारी को थोड़ो हय, आउ-टाफ पावर वाली को हय। जो पावर में होता हय उसकी सेहत बन जाती हय। साठ-सत्तर बरस का नेता बबुआ एइसा निकल आता हय वटा-मन एम अउर पी खाय के।’’

‘‘यह क्या चीज है ?’’
‘‘एम फार मनी, पी फार पावर, समझे, कक्का !’’ लायक भतीजा ने कहा, ‘‘जहाँ मिलनी शुरू हुई इन दुइ वटा-मनों की डोज काक-भुसुण्डी भी कसमीरी सेब-सा दमक उठता हय।’’
‘‘जो सत्ता में नहीं हैं उन्हें खुजली का रोग क्यों ?’’
‘‘वह एइसा हय खुजली उठना भविस्स में अच्छा-बुरा कुछ प्राप्त होने का लच्छन माना गया हय। हम लोग हैं छुटभइया। इसी उम्मीद से बइठे हैं कि कभी बड़भइया बनेंगे। यही उम्मीदहि ससुर खुजली बनकर हमें सता रही हय। जिसे पावर हय उसे खुजली नहीं सताती अउर कहीं सताने लगे तो समझो गया !’’
‘‘अच्छा तो सत्ता पाने की खातिर खुजली उठती है ? सत्ता किसलिए ?’’

‘‘सब कुछ ठीक कर देने के लिए। मामला फिट। लोग-बाग सयट। काम-काज टिचिन !’’ नेताजी ने कहा, ‘‘समझे कक्का, इस देश में हर आदमी यही यै कहता मिलेगा कि दुई दिन के लिए हमें पावर दिया जाय तो हम सब ठीक करा देंगे। जिस देश में जन-जन के मन में एइसा हउसला हो अउर पावर की इतनी खाज उठी हो, उस देश का पावरफुल हो जाना सुनिस्चते जानिए। कइसा हय यह अडिटोरियल ?’’
‘‘बढ़िया है ! हमने कहा।
‘‘चलिए इसी बात पर हुई जाय मिस्टान।’’ नेताजी ने कहा और गाड़ी एक पाँच-सितारा होटल की ओर मोड़ दी।
‘‘यहाँ क्या मिष्टान्न मिलेगा !’’ हमने कहा।
‘‘अरे जिस लयवल का हम बोले हैं अडिटोरियल उस लयबल का मिलबे करेगा।’’ नेताजी ने ठहाका बुलन्द किया।
होटल की पेस्ट्री की दुकान में घुसकर नेताजी ने हमसे पूछा, ‘‘जइसे अपने यहाँ काला हय वइसे इन लोगों के यहाँ बिलेक-विलेक वह क्या होता हय ससुर ?’’
‘‘ब्लैक फारेस्ट पेस्ट्री ?’’ हमने पूछा।
‘‘दिया जाय।’’ नेताजी ने विक्रय-कन्या से कहा, ‘‘काला जंगल ससुर।’’
हाउ मैनी पीसेज सर ?’’ कन्या ने पूछा।

‘‘वाट बिलेडी कट-पीस।’’ नेताजी ने कहा, ‘‘टू किलो तौल दिया जाय।’’
कन्या ने अंग्रेजी में बताया कि ब्लैक फारेस्ट का केक लेंगे तो किलो के हिसाब से मिलेगा, पेस्ट्री लेंगे तो नग के। नेताजी ने टू दर्जन का आर्डर दिया। कन्या ने पूछा, ‘‘विल दैट बी आल, सर ?’’
‘‘हाँ, ए-कहि जगह, आल इन वन डिब्बा।’’ नेताजी ने कन्या की अंग्रेजी अपने ढंग से समझते हुए आदेश दिया।
बिल चुकाने के बाद नेताजी ने हिसाब लगाकर कहा, ‘‘साढ़े छह रुपये की एक पेस्ट्री, सही नाम रखा हय ब्लैक फारेस्ट। ब्लैकहिवाले को हजम हुई सकती है      
  गाड़ी में बैठकर उन्होंने एक पेस्ट्री हमें दी, और हमारे चरण छूए। हमने कहा ‘‘यह क्या !’’
‘‘वह एइसा हय कक्का’’ नेताजी ने कहा, ‘‘आपका जब भी दरसन हो गया हय या करके गये हैं, आंकड़ा सही खुला हय ! नहीं आपसे सच बताते हैं बाई गाड की कसम। अरे आ-जाहि लो, आप थे तो वहाँ मन्त्रीजी के यहाँ रमअबधुआ भी मिल गये ससुर।’’

‘‘वह जो सफारी पहिने हुए एक व्यापारी-सा था?’’ हमने पूछा, ‘‘वह तो हमें लताड़ रहा था।’’
‘‘अरे लताड़े रहा था बोली से, गोली से मार तो नहीं रहा था ससुर ! बहुत ऊँचा ब्यौपार हय उसका समझे। जिल्ला में पत्ता तक नहीं खड़क सकिता रमअबधुआ के वाजिब दान-दच्छना दिए बगइर। संरच्छकजी महाराज प्रसन्न तो चाहे जइसा धन्धा करौ प्रसन्नता से, वह नाराज तो कउनो धन्धा चलाने लायक रहि न सकोगे।’’ नेताजी ने गाड़ी स्टार्ट करके कहा।
ऐसे आदमी का राजनीति में क्या काम ?’’
‘‘अरे राजनीति भी तो धन्धा हय। राजनीति को तो जरूरते होयती हय एइसे आदमी की। अरे रामअबधुआ के जिल्ले में कउनो पाटी आज तक रमअबधुआ को सहजोग बिना जीती हो तो हमें बताइए। कउमनिस्ट, सोसलिस्ट, कांग्रेसी आप कउनो पाटी के नेता का नाम लेयँ हम उस नेता से रमअबधुआ का फ्रण्ड-सिप का किस्सा सुनाय दें।’’
‘‘राजनीति इस तरह गुण्डागर्दी हो जाएगी।’’ हमने कहा, ‘‘आपस में तुम लोगों की मार-पीट, खून-खराबे के समाचार आए दिन छपते हैं। शराफत का नाम तक मिटा दोगे तुम देश से।’’

राजनीति चलती हय वोट से अउर वोट मिलता हय नोट से अउर लाठी के चोट से समझे ! अउर जहाँ तक सराफत का सवाल हय, रमअबधुआ से जियादा सरीफ आदमी मिलना मुस्किल हय। ही इज ए मैन आन हिज़ वर्ड।’’
‘‘ऐसे शरीफ तुम्हें मुबारक।’’ हमने कहा, ‘‘सवाल यह है कि बाकी तमाम लोग जो इतनी शराफत नहीं सीख पाये हैं वे क्या करें ?’’

‘‘उनके लिए नीति बचन कहि गए हैं रहीम : रहिमन सिट सायलेण्टली वाचिंग वर्ल्डली वेज, बयटर-मण्ट व्हैन कम्स दैन मेकिंग नेबरडिलेज। कइसा हय ?’’
‘‘अच्छा है !’’ हमने कहा, ‘‘अनुवाद तुमने किया ?’’
‘‘नहीं, कराया हय एक ठो हिन्दी पोयट से ताकि फूचर जनरेसन के आप जइसे लोगों को चुप हो बइठने की प्रेरणा मिले। कि साहब, मेकिंग नेवर डिलेज ? बोल सियापति रामचन्द्र के...’’
‘‘जय।’’ हमने कहा।
नेताजी ने हार्न बजाया खुशी से बार-बार।


हार्ट पुटिंग कौसलपुर किंगा



दिल्ली में भाड़ झोंकने का कोर्स बारह बरस का है और हम इसे दो बार पूरा कर चुके हैं। फिर भी हमारी स्थिति यह है कि ‘युवा-क्रान्ति’ के बाद ’73 में दिल्ली आए नेताजी के बगैर हम इस नगर में अपने को निराधार अनुभव करते हैं। राजनीतिक तो राजनीतिक, हमें यहाँ कि साहित्यक दुनिया तक समझ से परे मालूम होने लगती है। तो स्वाभाविक ही था कि नेताजी के लगातार कई दिन तक दर्शन न होने, उनका फोन तक न आने से हमारा चित्त खिन्न हो उठा। फिर इस रविवार सुबह-सुबह नींद में ही मैंने सुना कि कोई गा रहा है, ‘‘इण्टर दसिटि, डू इवरइ थिंगा, हार्ट पुटिंग कौसलपुर किंगा।’’ सुनकर हमें डबल धोखा हुआ। हमने पहले सोचा कि सपने में नेता जी को गाते हुए सुन रहे हैं। फिर हमें यह भ्रम हुआ कि विविध भारती से नेताजी मानस का अंग्रेजी में परायण कर रहे हैं।

आँख खुली तो देखा कि नेताजी ड्राइंग रूम के सोफे में पालथी मारकर बैठ हैं और प्रवचन कर रहे हैं। श्रोता हैं काकी।
हमने पूछा कि भई यह सुबह-सुबह ‘प्रविसी नगर कीजै सब काजा’ क्या सुना रहे हो तुम ? उन्होंने बताया, ‘‘कुछ नहीं, फोरेन टुअर सो लउटे हैं, काकी पूछ रही थीं वहाँ खाने-पीने का का करते हो, तो बता दिया वही खाते-पीते हैं जउन उ लोग खाते-पीते हैं। जइसा देस वइसा भेस, वइसा भोजन अउर का ! गोसाँई जी फारमूला फाटीफोर देय गये हैं, समझे कि नगर में पहुँचकर राम का नाम लेओ अउर हो जाओ सुरू ! लंका हय ससुर वहाँ डँका सबै करम करने सेहि बजता हय। ट्रजडी यह हय इण्डया में कि आपका जइसा बहुत-सा आदमी आयड्याज में गँवई गँवई रहि गया हय ससुर। बात जिन्गी के अस्टाइल की नहिन हय समझे कक्का—बइठे तो हम भी राम जी की दयी से कुर्सी पर दिहाती सेहि हैं—असिल मुद्दा यह द्रस्टकोन का। अरे आप रहिते रहिये हमहुँ माडन बनब, जब माइण्डै ससुर माडन नहीं होगा कइसे माडन बनियेगा ? सफर कीजियेगा अउर नहीं तो का।’’

‘‘सफर तो तुम कर रहे हो भतीजा !’’ हमने कहा, ‘‘कहाँ-कहाँ हो आए ?’’
‘‘अरे हम इंग्लिस में बोले हैं सफर।’’
‘‘हम तो हिन्दी में बोले हैं, कहाँ हो आए ?’’
‘‘हो तो आये अउर फिर जा रहे हैं, खेल इण्टरनेसनल हय भतीजा। सब बताते हैं पहिले तनि तैयार हो लिया जाय। आपको चलना हय हमारे साथ में ब्रेकफास्ट डप्लोमसी पर।’’
‘‘ब्रेकफास्ट यहीं करा देगी काकी।’’ हमने कहा।

 

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