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आचार्य श्रीराम किंकर जी >> विजय, विवेक और विभूति

विजय, विवेक और विभूति

श्रीरामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : रामायणम् ट्रस्ट प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :20
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5522
आईएसबीएन :000000

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विजय, विवेक और विभूति को देखने की दृष्टि

Vijay Vivek Aur Vibhuti

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

संयोजकीय

रामकथा शिरोमणि सद्गुरुदेव परमपूज्य श्री रामकिंकर जी महाराज की वाणी और लेखनी दोनों में यह निर्णय कर पाना कठिन है कि अधिक हृदयस्पर्शी या तात्विक कौन है। वे विष्यवस्तु का समय, समाज एवं व्यक्ति की पात्रता को आँकते हुए ऐसा विलक्षण प्रतिपादन करते हैं कि ज्ञानी, भक्त या कर्मपराण सभी प्रकार के जिज्ञासुओं को उनकी मान्यता के अनुसार श्रेय और प्रेय दोनों की प्राप्ति हो जाती है।

हमारे यहाँ विस्तार और संक्षेप, व्यास और समास दोनों ही विधाओं के समयानुकूल उपयोग की परम्परा रही है। घटाकाश और मटाकाश दोनों ही चिंतन और प्रतिपादन के केन्द्र रहे हैं। प्रवचनों के प्रस्तुत छोटे अंक घटाकाश के रूप में हैं, उनमें सब कुछ है पर संक्षेप में है। पाठकों की कई बार ऐसी राय बनी कि थोड़ा साहित्य छोटे रूप में भी हो ताकि प्रारम्भिक रूप में या फिर यात्रा आदि में लोग किसी एक विषय का अध्ययन करने के लिए उसे साथ लेकर चल सकें। इस मनोधारणा से यह कार्य श्रेयस्कर है।

छतरपुर-नौगाँव के श्री जयनारायण जी अग्रवाल महाराजश्री के शिष्य हैं, वे मौन रहकर अनेक सेवा कार्य देखते हैं। उनका तथा बुन्देलखण्ड परिवार का इस पुस्तक में आर्थिक सहयोग रहा। उनको महाराजश्री का आशीर्वाद !

मैथिलीशरण

समर बिजय रघुबीर के चरित जे सुनहिं सुजान।
बिजय बिबेक बिभूति नित तिन्हहि देहिं भगवान।।
6/121क

विजय, विवेक और विभूति


वस्तुतः विजयपर्व का अर्थ यह है कि भगवान् श्रीराम की रावण पर जो विजय हुई उसे हम किस दृष्टि से देखें ? वास्तविक महत्त्व इसी का है। यों कहें कि जब वर-कन्या का विवाह शास्त्रीय विधि से मण्डप में सम्पन्न होता है तो उस अवसर पर चारों ओर कितने उत्साह और आनन्द का वातावरण होता है। चारों ओर व्यंग्य, विनोद, हास्य और आनन्द की धारा बहती है, पर हम यह जानते हैं कि इस आनन्द और उल्लास की वास्तविक परीक्षा मण्डप में नहीं होती, बल्कि उसके पश्चात् वर वधू ने उस विवाह को किस रूप में लिया, उसमें जिन विधियों की ओर संकेत किया गया और उनके पालन का निर्देश किया गया, उनका वास्तविक तात्पर्य क्या है ? और उस तात्पर्य को हम जीवन में एक-दो दिनों के लिए ही नहीं बल्कि सदा के लिए उतारते हैं कि नहीं ?

विवाह का उत्सव तो एक-दो दिनों के लिए ही होता है, परन्तु उसकी परीक्षा तो सारे जीवन में होती है। विवाह के मण्डप में जो प्रेरणा पर-वधू को प्राप्त होता है, यदि उसका समुचित निर्वाह और पालन होता है तब तो विवाहोत्सव की सार्थकता है और यदि केवल बाजे बजा करके, गीत गा करके, स्वादिष्ट व्यंजनों का भोग लगा करके हम विवाह का आनन्द लें तो यह आनन्द तो क्षणिक ही होगा। वस्तुतः यही सत्य है। श्रीराम की रावण पर विजय का तात्पर्य क्या है ?

लंकाकाण्ड में इस विजय का वर्णन किया गया है, उसका अन्तिम दोहा क्या है ? आपने पढ़ा होगा। आप यह जानते हैं कि श्रीराम के चरित्र का वर्णन करते हुए अन्त में यह बताया गया है कि इस चरित्र का फल क्या है ? लंकाकाण्ड का फलादेश है—

समर बिजय रघुबीर के चरित जे सुनहिं सुजान।
बिजय बिबेक बिभूति नित तिन्हहि देहिं भगवान।।6/121क

तीन वस्तुएँ प्राप्त होती हैं—विजय, विवेक और विभूति, परन्तु किसको ? एक शब्द जोड़ दिया गया है कि जो ‘सुजान’ हैं। ‘रामायण’ का पाठ और श्रवण तो बहुधा अनेक लोग करते ही रहते हैं, परंतु गोस्वामीजी ने जो ‘सुजान’ शब्द जोड़ दिया, यह बड़े महत्त्व का है। कहने वाला भी सुजान हो और सुनने वाला भी सुजान हो, यह गोस्वामीजी की शर्त है। यह सुजान शब्द कहाँ से जुड़ा हुआ है, इस पर ध्यान दीजिए ! श्रीराम की जब रावण पर विजय हुई तो देवताओं ने आकाश से पुष्प वर्षा की और बधाई देने के लिए एकत्र हुए। उन्होंने कहा कि इस दुष्ट का वध करके आपने हम लोगों को धन्य कर दिया—


यह दुष्ट मारेउ नाथ, भए देव सकल सनाथ।6/112/छं.2


 पर आश्चर्य यह था कि देवताओं की इस भीड़ में भगवान् शंकर नहीं थे। वे क्यों नहीं आये ? किसी देवता के मन में यह बात भी आ गयी कि रावण तो भगवान् शंकर का शिष्य था, शिष्य की मृत्यु पर भगवान् शंकर को शोक हो गया होगा और इसी कारण बधाई देने नहीं आये। यहाँ गोस्वामीजी ने बड़ी मीठी बात लिखी और यहीं सुजान शब्द की व्याख्या की गयी है—

सुमन बरषि सब सुर चले चढ़ि रुचिर बिमान।
देखि सुअवसर प्रभु पहिं आयउ संभु सुजान।।6/115क

गोस्वामीजी यह लिखना नहीं भूले कि ‘चढ़ि चढ़ि रुचिर बिमान’। देवताओं की जो मनोवृत्ति है, उनका ऐश्वर्य के प्रति जो आकर्षण है, वह उस वाक्य से परिलक्षित होता है। देवताओं की दृष्टि में वाहनों का बड़ा महत्त्व है, जो आज के समाज में भी है। किसी के बड़प्पन को आँकने में हम वाहनों की विशालता को देखते हैं समृद्धि का मापदण्ड वाहन को मानने के हम भी अभ्यस्त हो गये हैं। वस्तुतः वाहन तो एक साधन मात्र है जो हमें किसी गन्तव्य स्थान पर पहुँचाने का माध्यम है।

राम-रावण युद्ध में कई दिन बाद इन्द्र ने अपना (वाहन) रथ भेजा और श्रीराम बड़ी प्रसन्नता से उस रथ पर बैठ गये, युद्ध के प्रारम्भ में क्यों नहीं भेजा ? इसके पीछे इन्द्र की दो मनोभावनाएँ हैं। इन्द्र की ही नहीं, समाज में जितने भी देवता या देव-मनोवृत्ति के लोग होते हैं वे यों तो पुण्य के पक्षपाती हैं, परंतु वे शंकालु होते हैं। इन्द्र के मन में यह शंका है कि कहीं ऐसा तो नहीं होगा कि रावण ही जीत जाय। वे सदा रावण से हारते ही रहे हैं, इसलिए उनके लिए यह कल्पना करना कठिन होता है कि रावण को कोई हरा सकता है।

देवताओं कें मन में भी श्रीराम के ईश्वरत्व का ज्ञान सदा नहीं होता, क्योंकि श्रीराम की मनुष्य-लीला को देखकर वे उनके ईश्वरत्व को भूल जाते हैं। इन्द्र के मन में आशंका है कि कहीं हमने प्रारम्भ में ही रथ भेज दिया और रावण की जीत हो गयी तो फिर हमारी क्या दुर्दशा होगी ? इसलिए रथ भेजने में विलम्ब किया। जब इन्द्र ने यह देखा कि बिना रथ के भी श्रीराम की विजय हो रही है तब इन्द्र को लगा कि अब रथ न भेजना मूर्खता होगी, श्रीराम की विजय के इतिहास में हमारा नाम नहीं लिया जायेगा, इसलिए रथ भेज देना ही ठीक है।

होशंगाबाद में एक नवयुवक ने एक प्रश्न इस प्रसंग में मेरे सामने रखा कि यदि राम के स्थान पर मैं होता तो लात मारकर रथ लौटा देता कि मुझे अब रथ की कोई आवश्यकता नहीं है। अपना रथ अपने ही पास रखें। मैंने कहा कि भगवान् राम और आप में यही अन्तर है। अगर भगवान् की शरण में आने वाले व्यक्तियों के पूर्वकृत कर्मों का लेखा-जोखा करने लगें तो फिर बिरले ही व्यक्ति भगवान् की शरणागति के अधिकारी हो पायेंगे। भगवान् की करुणा तो यही है कि वे यह नहीं पूछते कि अभी तक क्यों नहीं आये ? महत्त्व इसका है कि आज तो यह व्यक्ति आ गया, यदि इसी क्षण में इस मनोवृत्ति का उदय हो गया है तो प्रभु घोषणा करते हैं कि—

जौं नर होइ चराचर द्रोही।
आवै सभय सरन तकि मोही।।
तजि मद मोह कपट छल नाना।
करऊँ सद्य तेहि साधु समाना।।5/47/3

भगवान् की यही करुणा है। यह ठीक है कि राम को रथ की आवश्यकता नहीं थी, वे बिना रथ के ही रावण को जीत लेते, लेकिन यदि वे इन्द्र के रथ लौटा देते तो इसका अर्थ होता कि इन्द्र के अहंकार का उत्तर अहंकार से दिया गया। भगवान् ने रथ स्वीकार करके यह बताया कि मनुष्य में जिस क्षण में सद्वृत्ति का उदय हो, सद्भाव और विवेक का उदय हो और वह अपनी वस्तुएँ भगवान् के प्रति समर्पित करे, वही क्षण धन्य है।

इन्द्र का रथ पुण्य का रथ है, धर्म का रथ है क्योंकि इन्द्रपद प्राप्त ही होता है, पुण्य और धर्म के परिणामस्वरूप। एक तथ्य ध्यातव्य है कि इसी रथ पर बैठकर इन्द्र ने कई बार रावण से युद्ध किया, पर सर्वदा हारा। उसी रथ को उसने भगवान् के पास भेजा। यह बड़े महत्त्व का संकेत सूत्र है कि सद्गुणों और पुण्य के द्वारा कोई व्यक्ति दुर्गुणों और पापों को पूरी तरह से मिटा सकता है या हरा सकता है क्या ? अर्थात् नहीं। इन्द्र की और इन्द्र के रथ की जो पराजय है, वह इसी सत्य को प्रकट करने वाली है कि संसार के सभी पुण्यात्मा यह समझते हैं कि पुण्यों का उद्देश्य जीवन में अधिक से अधिक भोगों को पा लेना ही है, स्वर्ग को प्राप्त कर लेना ही है और तब हम स्वाभाविक रूप से स्वर्ग और भोगों को ही प्राप्त कर सकेंगे, रावण पर विजय नहीं। तब कोई कह सकता है कि पुण्य और धर्म व्यर्थ है।




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