आचार्य श्रीराम किंकर जी >> आदर्श मानव समाज आदर्श मानव समाजश्रीरामकिंकर जी महाराज
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रामचरितमानस के मर्मज्ञ चिंतक ‘युगतुलसी’ आचार्य श्री रामकिंकरजी की प्रवचन माला
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
प्राक्कथन
‘‘रामो विग्रहवान् धर्मः’’
मोहमयी माया नगरी बम्बई में ‘प्रेमपुरी आश्रम’ का अपना एक
विशिष्ट ही स्थान है। यहाँ प्रतिदिन भक्ति-ज्ञान-वैराग्य-योग साधना एवं
समाज कल्याण की निर्मल गंगा बहती रहती है। मानव मात्र के उत्थान के लिए
यहाँ अनेक श्रेष्ठ संतों एवं धुरंधर विद्वान व्याख्याताओं का विविध जन
कल्याणकारी विषयों पर प्रवचनों एवं व्याख्यान मालाओं का आयोजन होता रहता
है।
भगवत्कृपा से एक सत्संकल्प मन में जागृत हुआ। ‘संत प्रवचन माला’ प्रारंभ करने का प्रस्ताव ‘प्रेम पुरी आश्रम ट्रस्ट’ के समक्ष प्रस्तुत किया गया और ट्रस्टियों ने इस सत्संकल्प पर अपनी स्वीकृति की मोहर लगा दी।
रामचरितमानस के मर्मज्ञ चिंतक ‘युगतुलसी’ आचार्य श्री रामकिंकरजी उपाध्याय ने कृपा प्रसाद के रूप में इसका ‘श्री गणेश’ करने की अपनी स्वीकृति सहर्ष प्रदान की। 26 मई 1994 को इस ‘संत प्रवचन माला’ का श्रीगणेश हुआ। विषय भी निराला था— ‘आदर्श मानव समाज’। महाराजश्री की गंभीर तत्त्वमीमांसा ने सभी श्रोतावृंद को मंत्र-मुग्ध कर दिया। उसी समय उनके श्रीमुख से बही रसधारा का अमृत पान जनजन को प्राप्त हो सके ऐसा संकल्प जागा, इसलिए इस ‘प्रवचन-माला’ के प्रथम पुष्प को पुस्तक का आकार देने का विचार महाराजश्री के समक्ष रखा गया। महाराजश्री ने इस संकल्प को मूर्त रूप देने के लिए इसे लिपिबद्ध कर प्रकाशन हेतु मेरे पास प्रेषित किया।
एक दिन के प्रवचन का कलेवर तो छोटा ही होगा। फिर भी, महाराजश्री ने अपनी अद्भुत शैली, अपनी प्रखर विद्वता एवं भाव विवेचन की अद्भुत क्षमता का परिचय देते हुए इस गागर में मानस के मार्मिक भाव, भक्ति और श्रद्धा का सागर छलका दिया।
महाराजश्री की इस असाधारण कृपा के लिए मैं अपने हृदय के भावों को समर्पण करने में संकोच का अनुभव कर रहा हूँ। फिर भी सम्पूर्ण गद्गद अन्तःकरण से मेरी करबद्ध प्रार्थना है कि अपने इस कृपापात्र पर प्रति वर्ष अनुकम्पा कर जनमानस को ‘मानस’ की मानवता के संस्कारों से सम्पन्न करते रहेंगे।
भगवत्कृपा से एक सत्संकल्प मन में जागृत हुआ। ‘संत प्रवचन माला’ प्रारंभ करने का प्रस्ताव ‘प्रेम पुरी आश्रम ट्रस्ट’ के समक्ष प्रस्तुत किया गया और ट्रस्टियों ने इस सत्संकल्प पर अपनी स्वीकृति की मोहर लगा दी।
रामचरितमानस के मर्मज्ञ चिंतक ‘युगतुलसी’ आचार्य श्री रामकिंकरजी उपाध्याय ने कृपा प्रसाद के रूप में इसका ‘श्री गणेश’ करने की अपनी स्वीकृति सहर्ष प्रदान की। 26 मई 1994 को इस ‘संत प्रवचन माला’ का श्रीगणेश हुआ। विषय भी निराला था— ‘आदर्श मानव समाज’। महाराजश्री की गंभीर तत्त्वमीमांसा ने सभी श्रोतावृंद को मंत्र-मुग्ध कर दिया। उसी समय उनके श्रीमुख से बही रसधारा का अमृत पान जनजन को प्राप्त हो सके ऐसा संकल्प जागा, इसलिए इस ‘प्रवचन-माला’ के प्रथम पुष्प को पुस्तक का आकार देने का विचार महाराजश्री के समक्ष रखा गया। महाराजश्री ने इस संकल्प को मूर्त रूप देने के लिए इसे लिपिबद्ध कर प्रकाशन हेतु मेरे पास प्रेषित किया।
एक दिन के प्रवचन का कलेवर तो छोटा ही होगा। फिर भी, महाराजश्री ने अपनी अद्भुत शैली, अपनी प्रखर विद्वता एवं भाव विवेचन की अद्भुत क्षमता का परिचय देते हुए इस गागर में मानस के मार्मिक भाव, भक्ति और श्रद्धा का सागर छलका दिया।
महाराजश्री की इस असाधारण कृपा के लिए मैं अपने हृदय के भावों को समर्पण करने में संकोच का अनुभव कर रहा हूँ। फिर भी सम्पूर्ण गद्गद अन्तःकरण से मेरी करबद्ध प्रार्थना है कि अपने इस कृपापात्र पर प्रति वर्ष अनुकम्पा कर जनमानस को ‘मानस’ की मानवता के संस्कारों से सम्पन्न करते रहेंगे।
मदन डालिमया
का सादर वंदन
का सादर वंदन
।।श्री रामः शरणं मम।।
जिज्ञासु श्रोतावृंद एवं भक्तिमती देवियों।
इस व्याख्यानमाला का शुभारंभ करने में मुझे हार्दिक प्रसन्नता की अनुभूति हो रही है, जो श्रीमदनलालजी डालमिया के द्वारा अपनी माताश्री की स्मृति में प्रारंभ की गई है। डालमियाजी ने जब मुझसे आग्रह किया कि मैं इस प्रवचनमाला का शुभारंभ करूँ तो मैंने उनके इस आग्रह को बड़ी प्रसन्नता से स्वीकार कर लिया। श्री डालमियाजी बड़े सेवाभावी हैं और अनेकानेक सद्कार्यों के द्वारा जो भगवत्सेवा कर रहे हैं, वह प्रशंसनीय और अनुकरणीय है। यहाँ मुझसे ‘रामचरितमानस की दृष्टि में आदर्श मानव-समाज का स्वरूप’ इस विषय पर बोलने का आग्रह किया गया है। इस संदर्भ में कुछ बातें संक्षेप में आपके समक्ष रखने की चेष्टा की जायेगी।
हमारा मानव-समाज बड़ा विलक्षण है। केवल बहिरंग दृष्टि से देखने पर इसमें भिन्नता-ही-भिन्नता दिखाई देती है। समाज का प्रत्येक व्यक्ति रूप रंग स्वभाव आचार-विचार और संस्कारों में एक-दूसरे से भिन्नता दिखाई देता है। इसे देखकर यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि ‘ऐसे विविधतापूर्ण समाज में व्यक्ति की भूमिका कैसी होनी चाहिए कि जिससे एक आदर्श मानव समाज का निर्माण हो सके। इस प्रश्न का एक समाधान यह कर देने की चेष्टा की गई कि ‘समाज की चिन्ता करना सर्वथा व्यर्थ है, इसलिए व्यक्ति को अपने आत्मकल्याण का ही प्रयास करना चाहिए’। इतिहास में, इस धारणा के अनुकूल आचरण करने वाले महापुरुषों की एक श्रृंखला हमारे सामने आती है। हम उनका स्मरण निवृत्ति परायण महापुरुषों के रूप में करते हैं। जड़भरत, ऋषभदेव आदि महापुरुष इसी परंपरा में आते हैं। समाधान का एक दूसरा पक्ष भी हमारे सामने आता है, ‘‘प्रवृति की परंपरा’ के रूप में। इस परंपरा में भी अनेकानेक महापुरुष हुए हैं। साधारणतया ऐसा लगता है कि इन दोनों धाराओं में भिन्नता है, और तब ‘व्यक्ति किस मार्ग का अनुसरण करे’ यह प्रश्न सामने आता है। ऐसी स्थिति में रामचरितमानस का जो दर्शन है, दृष्टिकोण है तथा जिसका मधुर संकेत ‘मानस’ में किया गया है, उसकी ओर मैं आपका ध्यान आकृष्ट करना चाहूँगा।
रामचरितमानस के अध्येता भली-भाँति जानते हैं कि ‘मानस’ का श्रीगणेश भगवान् श्रीराम के चरित्र के वर्णन से नहीं किया गया है। भगवान् राम की कथा से पूर्व, ‘मानस’ में, महाराज मनु की गाथा आती है। महाराज मनु मानव जाति के आदि पुरुष हैं, उनसे ही सारी सृष्टि का जन्म हुआ है और इसीलिए हम सब ‘मानव’ या ‘मनुष्य’ कहलाते हैं। यह हमारे पुराणों की मान्यता है। रामायण में गोस्वामीजी ने महाराज मनु की गाथा लिखते समय इनकी वंश-परंपरा का कुछ अधिक विस्तार से वर्णन किया है। श्रीमद्भागवत तथा अन्य पुराणों में आप वंश-परंपरा का बड़ा विस्तृत वर्णन पाते हैं। पर जहाँ तक रामचरितमानस की बात है, इसमें वंश-परंपरा का विस्तारपूर्वक वर्णन बिलकुल नहीं किया गया है।
महाराज दशरथ का वर्णन आप ‘मानस’ में पढ़ते हैं, पर यदि आप यह जानना चाहें कि ‘महाराज दशरथ किसके पुत्र थे’ तो इसका पता, आपको ‘मानस’ से नहीं चल पाएगा किसी अन्य ग्रन्थ में खोजना पड़ेगा। इसी तरह जनकनंदिनी श्री किशोरीजी के पूर्व-पुरुषों के नाम भी रामायण में प्राप्त नहीं होते। स्मरण आता है एक बार एक सज्जन ने मुझसे पूछा कि ‘रावण के नाना के नाना का नाम क्या था ?’ मैंने उनसे कहा कि मुझे तो रावण के नाना का ही नाम मालूम नहीं है, नाना के नाना के नाम की बात क्या करूँ। पुराणों में जब हम वंश-परम्परा को पढ़ते हैं, तो उसके द्वारा हमें इतिहास का ज्ञान प्राप्त होता है। इसका भी महत्त्व है, पर इतिहास में जिन व्यक्तियों के नाम आते हैं, उनमें से कुछ थोड़े से नाम ही हमारी स्मृति में रह सकते हैं। सबके सब नाम याद रख पाना न तो संभव है और न ही इसकी कोई आवश्यकता है। इसलिए गोस्वामीजी वंश-परंपरा के वर्णन को उस रूप में महत्त्व देते हैं, जिस रूप में उसे पुराण या इतिहास में दिया जाता है। पर इसका अपवाद आदि पुरुष मनु की वंश-परंपरा के रूप में हमारे सामने आता है, जिसका वर्णन गोस्वामीजी ने अपनी परंपरा से हटकर, कुछ अधिक विस्तार से किया है। इसके पीछे भी गोस्वामीजी का विशेष उद्देश्य है जो बड़ा सांकेतिक है और प्रेरणादायक भी।
आप लोगों में से जिन्होंने ‘मानस’ को ध्यान से पढ़ा होगा, वे पाएँगे कि गोस्वामी जी ने एक क्रमबद्ध और विस्तृत रूप से महाराज मनु का वंशावलि का वर्णन किया है। वे लिखते हैं—
इस व्याख्यानमाला का शुभारंभ करने में मुझे हार्दिक प्रसन्नता की अनुभूति हो रही है, जो श्रीमदनलालजी डालमिया के द्वारा अपनी माताश्री की स्मृति में प्रारंभ की गई है। डालमियाजी ने जब मुझसे आग्रह किया कि मैं इस प्रवचनमाला का शुभारंभ करूँ तो मैंने उनके इस आग्रह को बड़ी प्रसन्नता से स्वीकार कर लिया। श्री डालमियाजी बड़े सेवाभावी हैं और अनेकानेक सद्कार्यों के द्वारा जो भगवत्सेवा कर रहे हैं, वह प्रशंसनीय और अनुकरणीय है। यहाँ मुझसे ‘रामचरितमानस की दृष्टि में आदर्श मानव-समाज का स्वरूप’ इस विषय पर बोलने का आग्रह किया गया है। इस संदर्भ में कुछ बातें संक्षेप में आपके समक्ष रखने की चेष्टा की जायेगी।
हमारा मानव-समाज बड़ा विलक्षण है। केवल बहिरंग दृष्टि से देखने पर इसमें भिन्नता-ही-भिन्नता दिखाई देती है। समाज का प्रत्येक व्यक्ति रूप रंग स्वभाव आचार-विचार और संस्कारों में एक-दूसरे से भिन्नता दिखाई देता है। इसे देखकर यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि ‘ऐसे विविधतापूर्ण समाज में व्यक्ति की भूमिका कैसी होनी चाहिए कि जिससे एक आदर्श मानव समाज का निर्माण हो सके। इस प्रश्न का एक समाधान यह कर देने की चेष्टा की गई कि ‘समाज की चिन्ता करना सर्वथा व्यर्थ है, इसलिए व्यक्ति को अपने आत्मकल्याण का ही प्रयास करना चाहिए’। इतिहास में, इस धारणा के अनुकूल आचरण करने वाले महापुरुषों की एक श्रृंखला हमारे सामने आती है। हम उनका स्मरण निवृत्ति परायण महापुरुषों के रूप में करते हैं। जड़भरत, ऋषभदेव आदि महापुरुष इसी परंपरा में आते हैं। समाधान का एक दूसरा पक्ष भी हमारे सामने आता है, ‘‘प्रवृति की परंपरा’ के रूप में। इस परंपरा में भी अनेकानेक महापुरुष हुए हैं। साधारणतया ऐसा लगता है कि इन दोनों धाराओं में भिन्नता है, और तब ‘व्यक्ति किस मार्ग का अनुसरण करे’ यह प्रश्न सामने आता है। ऐसी स्थिति में रामचरितमानस का जो दर्शन है, दृष्टिकोण है तथा जिसका मधुर संकेत ‘मानस’ में किया गया है, उसकी ओर मैं आपका ध्यान आकृष्ट करना चाहूँगा।
रामचरितमानस के अध्येता भली-भाँति जानते हैं कि ‘मानस’ का श्रीगणेश भगवान् श्रीराम के चरित्र के वर्णन से नहीं किया गया है। भगवान् राम की कथा से पूर्व, ‘मानस’ में, महाराज मनु की गाथा आती है। महाराज मनु मानव जाति के आदि पुरुष हैं, उनसे ही सारी सृष्टि का जन्म हुआ है और इसीलिए हम सब ‘मानव’ या ‘मनुष्य’ कहलाते हैं। यह हमारे पुराणों की मान्यता है। रामायण में गोस्वामीजी ने महाराज मनु की गाथा लिखते समय इनकी वंश-परंपरा का कुछ अधिक विस्तार से वर्णन किया है। श्रीमद्भागवत तथा अन्य पुराणों में आप वंश-परंपरा का बड़ा विस्तृत वर्णन पाते हैं। पर जहाँ तक रामचरितमानस की बात है, इसमें वंश-परंपरा का विस्तारपूर्वक वर्णन बिलकुल नहीं किया गया है।
महाराज दशरथ का वर्णन आप ‘मानस’ में पढ़ते हैं, पर यदि आप यह जानना चाहें कि ‘महाराज दशरथ किसके पुत्र थे’ तो इसका पता, आपको ‘मानस’ से नहीं चल पाएगा किसी अन्य ग्रन्थ में खोजना पड़ेगा। इसी तरह जनकनंदिनी श्री किशोरीजी के पूर्व-पुरुषों के नाम भी रामायण में प्राप्त नहीं होते। स्मरण आता है एक बार एक सज्जन ने मुझसे पूछा कि ‘रावण के नाना के नाना का नाम क्या था ?’ मैंने उनसे कहा कि मुझे तो रावण के नाना का ही नाम मालूम नहीं है, नाना के नाना के नाम की बात क्या करूँ। पुराणों में जब हम वंश-परम्परा को पढ़ते हैं, तो उसके द्वारा हमें इतिहास का ज्ञान प्राप्त होता है। इसका भी महत्त्व है, पर इतिहास में जिन व्यक्तियों के नाम आते हैं, उनमें से कुछ थोड़े से नाम ही हमारी स्मृति में रह सकते हैं। सबके सब नाम याद रख पाना न तो संभव है और न ही इसकी कोई आवश्यकता है। इसलिए गोस्वामीजी वंश-परंपरा के वर्णन को उस रूप में महत्त्व देते हैं, जिस रूप में उसे पुराण या इतिहास में दिया जाता है। पर इसका अपवाद आदि पुरुष मनु की वंश-परंपरा के रूप में हमारे सामने आता है, जिसका वर्णन गोस्वामीजी ने अपनी परंपरा से हटकर, कुछ अधिक विस्तार से किया है। इसके पीछे भी गोस्वामीजी का विशेष उद्देश्य है जो बड़ा सांकेतिक है और प्रेरणादायक भी।
आप लोगों में से जिन्होंने ‘मानस’ को ध्यान से पढ़ा होगा, वे पाएँगे कि गोस्वामी जी ने एक क्रमबद्ध और विस्तृत रूप से महाराज मनु का वंशावलि का वर्णन किया है। वे लिखते हैं—
स्वायंभू मनु अरु सतरूपा।
जिन्ह तें भै नरसृष्टि अनूपा।।
दंपति धरम आचरन नीका।
अजहुँ गाव श्रुति जिन्ह कै लीका।।
नृप उत्तानपाद सुत तासू।
ध्रुव हरिभगत भयउ सुत जासू।।
लघु सुत नाम प्रियव्रत ताहा।।
बेद पुरान प्रसंसहिं जाहा।।
(बालकाण्ड-141/1-4)
जिन्ह तें भै नरसृष्टि अनूपा।।
दंपति धरम आचरन नीका।
अजहुँ गाव श्रुति जिन्ह कै लीका।।
नृप उत्तानपाद सुत तासू।
ध्रुव हरिभगत भयउ सुत जासू।।
लघु सुत नाम प्रियव्रत ताहा।।
बेद पुरान प्रसंसहिं जाहा।।
(बालकाण्ड-141/1-4)
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