आचार्य श्रीराम किंकर जी >> काम कामश्रीरामकिंकर जी महाराज
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भक्ति का मुख्य उद्देश्य
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
।। श्री राम: शरण मम।।
अनुवचन
भक्ति का मुख्य उद्देश्य सत्यं, शिवं, सुन्दरं की सृष्टि है। इसीलिए वह
व्यक्ति के इतिहास के स्थान पर भगवान्, की लीला को अपना मुख्य केन्द्र
बनाता है, उस लीला को गुण-दोष की दृष्टि से श्रवण, पठन का विषय नहीं बनाया
जाना चाहिये।
महाभारत और श्रीमद्भागवत पुराण की रचना में यही मूलभूत अंतर है। यद्यपि दोनों के रचयिता वेदव्यास हैं। जो मनुष्य भगवान् की लीला को छोड़कर अन्य कुछ कहने की इच्छा करता है, वह उस -उस इच्छा से ही निर्मित अनेक नाम और रूपों के चक्कर में पड़ जाता है। उसकी बुद्धि भेद भाव से भर जाती है। जैसे हवा के झकोरों से डगमगाती हुई नौका को कहीं भी ठहरने का ठौर नहीं मिलता वैसे ही उसकी चंचल बुद्धि कहीं भी स्थिर नहीं हो पाती-
महाभारत और श्रीमद्भागवत पुराण की रचना में यही मूलभूत अंतर है। यद्यपि दोनों के रचयिता वेदव्यास हैं। जो मनुष्य भगवान् की लीला को छोड़कर अन्य कुछ कहने की इच्छा करता है, वह उस -उस इच्छा से ही निर्मित अनेक नाम और रूपों के चक्कर में पड़ जाता है। उसकी बुद्धि भेद भाव से भर जाती है। जैसे हवा के झकोरों से डगमगाती हुई नौका को कहीं भी ठहरने का ठौर नहीं मिलता वैसे ही उसकी चंचल बुद्धि कहीं भी स्थिर नहीं हो पाती-
ततोऽन्यथा किंचन यद्विवक्षतः पृथग्दृस्तकृतरूपनामभि:।
न कुत्रचित्वक्वापि च दुःस्थिता मतिर्लेभेत वाताहतनौरिवास्पदम्।।
न कुत्रचित्वक्वापि च दुःस्थिता मतिर्लेभेत वाताहतनौरिवास्पदम्।।
सारी सृष्टि ही गुण-दोष से भरी हुई है। वर्तमान में ही व्यक्ति लाखों
व्यक्तियों के सम्पर्क में आता है, और उनमें से अधिकांश हमारे मन पर कोई न
कोई छाप छोड़ जाते हैं। गुण के द्वारा राग और दोष दर्शन के द्वारा द्वेष
हमारे मन पर छाये रहते हैं। वर्तमान में हमारा जिन लोगों से सम्पर्क होता
है, उनसे कुछ-न- कुछ लाभ-हानि की समस्या भी जुड़ी रहती है। अतः एक सीमा तक
उस प्रभाव से अछूता रहना असंभव नहीं तो कठिन अवश्य है। किन्तु इतिहास तो
हमें उन लोगों से जोड़ देता है, जिनसे हमें आज कुछ भी लेना-देना नहीं है।
उन पात्रों के प्रति हमारे अन्तर्मन में राग-रोष उत्पन्न कर देता है। इस
तरह वह हमारा बोझ हल्का करने के स्थान पर ऐसा अनावश्यक बोझ लाद देता है,
जिसे केवल ढोना ही ढोना है।
प्रत्येक जाति और देश उसी परम्परा को ढोने का प्रयास कर रहा है। किसी जाति ने किसी समय दूसरी जाति को उत्पीड़ित किया था, अतः उसका बदला लेने के लिये आज भी घृणा-वृत्ति को जीवित रखता है। एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र का प्रतिद्वन्द्वी है और अपनी श्रेष्ठता की सुरा पीकर अन्य राष्ट्रों के विरुद्ध संघर्ष करता है और इस तरह हिंसा प्रतिहिंसा के चक्र को आगे बढ़ाता ही जाता है। घृणा और संघर्ष की ये प्रवृत्तियाँ मानव मन में आदिम काल से विद्यमान हैं। उन्हें उकसाना बहुत सरल है। इससे नेतृत्व प्राप्त कर लेना अत्यन्त सरल हो जाता है। किन्तु इसके द्वारा व्यक्ति और समाज को क्या प्राप्त होता है ? यदि हम शान्त चित्त से विचार करें तो देखेंगे कि अशान्ति ही इसकी उपलब्धि है। इसी को देवर्षि नारद हवा के थपेड़ों से भटकती हुई नौका के दृष्टान्त से स्पष्ट करते हैं। समुद्र या नदी का जल सहज भाव से अशान्त होता है और कहीं तूफान आ जाय तो कहना ही क्या है ? मनुष्य का मन भी जल की ही भाँति चंचल है बुद्धि की नौका पर बैठकर व्यक्ति उस चंचलता के माध्यम से नौका को खेता हुआ लक्ष्य की ओर बढ़ता है। किन्तु उसी समय यदि सामूहिक द्वेष की आँधी चल पड़े तो नौका पर आरुढ़ उस यात्री की दशा की कल्पना की जा सकती है। व्यक्ति और समाज के जीवन में इस आँधी की सृष्टि करने में इतिहास का बहुत बडा भाग है।
देवर्षि नारद का श्री वेदव्यास के प्रति यही व्यंग्य था कि तुमने महाभारत-जैसे विशाल इतिहास की सृष्टि करके समाज को क्या देना चाहा है ? देवर्षि का उद्देश्य महाभारत के ज्ञान और दर्शन की अवहेलना करना नहीं था। इस क्षेत्र में महाभारत के अद्वितीय अवदान की सराहना उन्होंने प्रारम्भ में ही कर दी थी। किन्तु महाभारत के जातीय युद्ध की गाथा और व्यक्तियों के इतिहास को लेकर वे प्रश्न चिह्न अवश्य प्रस्तुत करते हैं। इस दृष्टि से महाभात की उपयोगिता संदिग्ध है। गोस्वामी तुलसीदासजी ने इस पर एक कटाक्ष किया, मैं तो चाहता हूँ कि लोग रामायण की शिक्षा का अनुगमन करें, किन्तु समाज तो महाभारत का अनुकरण कर रहा है। मुझ- जैसे दुष्ट की कौन सुने ? कलियुग का स्वभाव ही कुचाल से प्रेम करना है-
प्रत्येक जाति और देश उसी परम्परा को ढोने का प्रयास कर रहा है। किसी जाति ने किसी समय दूसरी जाति को उत्पीड़ित किया था, अतः उसका बदला लेने के लिये आज भी घृणा-वृत्ति को जीवित रखता है। एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र का प्रतिद्वन्द्वी है और अपनी श्रेष्ठता की सुरा पीकर अन्य राष्ट्रों के विरुद्ध संघर्ष करता है और इस तरह हिंसा प्रतिहिंसा के चक्र को आगे बढ़ाता ही जाता है। घृणा और संघर्ष की ये प्रवृत्तियाँ मानव मन में आदिम काल से विद्यमान हैं। उन्हें उकसाना बहुत सरल है। इससे नेतृत्व प्राप्त कर लेना अत्यन्त सरल हो जाता है। किन्तु इसके द्वारा व्यक्ति और समाज को क्या प्राप्त होता है ? यदि हम शान्त चित्त से विचार करें तो देखेंगे कि अशान्ति ही इसकी उपलब्धि है। इसी को देवर्षि नारद हवा के थपेड़ों से भटकती हुई नौका के दृष्टान्त से स्पष्ट करते हैं। समुद्र या नदी का जल सहज भाव से अशान्त होता है और कहीं तूफान आ जाय तो कहना ही क्या है ? मनुष्य का मन भी जल की ही भाँति चंचल है बुद्धि की नौका पर बैठकर व्यक्ति उस चंचलता के माध्यम से नौका को खेता हुआ लक्ष्य की ओर बढ़ता है। किन्तु उसी समय यदि सामूहिक द्वेष की आँधी चल पड़े तो नौका पर आरुढ़ उस यात्री की दशा की कल्पना की जा सकती है। व्यक्ति और समाज के जीवन में इस आँधी की सृष्टि करने में इतिहास का बहुत बडा भाग है।
देवर्षि नारद का श्री वेदव्यास के प्रति यही व्यंग्य था कि तुमने महाभारत-जैसे विशाल इतिहास की सृष्टि करके समाज को क्या देना चाहा है ? देवर्षि का उद्देश्य महाभारत के ज्ञान और दर्शन की अवहेलना करना नहीं था। इस क्षेत्र में महाभारत के अद्वितीय अवदान की सराहना उन्होंने प्रारम्भ में ही कर दी थी। किन्तु महाभारत के जातीय युद्ध की गाथा और व्यक्तियों के इतिहास को लेकर वे प्रश्न चिह्न अवश्य प्रस्तुत करते हैं। इस दृष्टि से महाभात की उपयोगिता संदिग्ध है। गोस्वामी तुलसीदासजी ने इस पर एक कटाक्ष किया, मैं तो चाहता हूँ कि लोग रामायण की शिक्षा का अनुगमन करें, किन्तु समाज तो महाभारत का अनुकरण कर रहा है। मुझ- जैसे दुष्ट की कौन सुने ? कलियुग का स्वभाव ही कुचाल से प्रेम करना है-
रामायन सिख अनुहरत, जग भयो भारत रीति।
तुलसी सठ की को सुनै, कलि कुचाल पर प्रीति।।
तुलसी सठ की को सुनै, कलि कुचाल पर प्रीति।।
स्वभावतः संघर्ष प्रिय मानव मन कौरव-पाण्डवों के चरित्र को अपना आदर्श बना
लेता है। वह यह सोचकर सन्तुष्ट हो जाता है कि यदि द्वैपायन व्यास जैसा
महापुरुष पाण्डवों को आदर्श मानता है तो उसका अनुगमन करना क्या बुरा है ?
देवर्षि नारद व्यास को श्रीमद्भागवत की रचना के लिये प्रेरित करते हैं और इस रचना के बाद ही व्यास, सन्तोष, शान्ति और प्रसन्नता का अनुभव करते हैं।
सद्गुण सम्पन्न श्री गणात्रा दंपति बहुत अच्छे साधक हैं, उनके स्वभाव की तेजस्विता और सेवा में अधीरता प्रभु से जुड़कर उनके लिये भूषण बन गयी है। श्रीमती अंजुजी की श्रद्धा, समर्पण भाव जो मैंने अनुभव किया वह दुर्लभ है।
सत्साहित्य प्रकाशन में उनकी यह सेवा असंख्य भक्तों के लिये प्रेरणारूप रहेगी। उनके स्वर्गीय माता-पिता उनकी मातृ-पितृ एवं गुरुभक्ति देखकर अवश्य आश्वस्त एवं प्रसन्न होंगे। समर्पण गणात्रा परिवार के प्रति मंगलकामना करते हुए प्रभु से प्रार्थना ! उनके जीवन में शुचिता, सुमधुरता एवं सुमति बनाये रखें।
निष्ठा एवं समर्पण भाव से कार्यरत डॉ. चन्द्रशेखर तिवारी इस सत्संकल्प को साकार करने में मन-प्राण से लगे हुए हैं। उनकी श्रद्धा बलवती हो ! यही शुभाशीष।
रामायणम् ट्रस्ट के ट्रस्टीगण को मैं क्या धन्यवाद दूँ ! वे तो मेरे अपने हैं। उनका स्नेह सद्भाव सदैव बना रहे यही प्रभु के चरणों में निवेदन !
अन्य सभी सेवादार एवं नरेन्द्र शुक्ल जिन के अथक परिश्रम से यह ग्रन्थ आप सभी सुधी साधकों को समर्पित है।
प्रभु की सुगंध, प्रभु का सौरभ प्रभु का स्पन्दन सबके जीवन में हो, यही मंगलकामना है।
देवर्षि नारद व्यास को श्रीमद्भागवत की रचना के लिये प्रेरित करते हैं और इस रचना के बाद ही व्यास, सन्तोष, शान्ति और प्रसन्नता का अनुभव करते हैं।
सद्गुण सम्पन्न श्री गणात्रा दंपति बहुत अच्छे साधक हैं, उनके स्वभाव की तेजस्विता और सेवा में अधीरता प्रभु से जुड़कर उनके लिये भूषण बन गयी है। श्रीमती अंजुजी की श्रद्धा, समर्पण भाव जो मैंने अनुभव किया वह दुर्लभ है।
सत्साहित्य प्रकाशन में उनकी यह सेवा असंख्य भक्तों के लिये प्रेरणारूप रहेगी। उनके स्वर्गीय माता-पिता उनकी मातृ-पितृ एवं गुरुभक्ति देखकर अवश्य आश्वस्त एवं प्रसन्न होंगे। समर्पण गणात्रा परिवार के प्रति मंगलकामना करते हुए प्रभु से प्रार्थना ! उनके जीवन में शुचिता, सुमधुरता एवं सुमति बनाये रखें।
निष्ठा एवं समर्पण भाव से कार्यरत डॉ. चन्द्रशेखर तिवारी इस सत्संकल्प को साकार करने में मन-प्राण से लगे हुए हैं। उनकी श्रद्धा बलवती हो ! यही शुभाशीष।
रामायणम् ट्रस्ट के ट्रस्टीगण को मैं क्या धन्यवाद दूँ ! वे तो मेरे अपने हैं। उनका स्नेह सद्भाव सदैव बना रहे यही प्रभु के चरणों में निवेदन !
अन्य सभी सेवादार एवं नरेन्द्र शुक्ल जिन के अथक परिश्रम से यह ग्रन्थ आप सभी सुधी साधकों को समर्पित है।
प्रभु की सुगंध, प्रभु का सौरभ प्रभु का स्पन्दन सबके जीवन में हो, यही मंगलकामना है।
त्वदीयं वस्तु श्रीराम तुभ्यमेव समर्पये।
सादर,
परम पूज्य महाराजश्री रामकिंकर जी की ओर से
परम पूज्य महाराजश्री रामकिंकर जी की ओर से
मन्दाकिनी श्रीरामकिंकरजी
।। श्री राम: शरण मम।।
।। श्री राम: शरण मम।।
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः।
गुरुर्साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्री गुरुवे नमः।
हृदय विराजत रामसिय और दास हनुमान।
ऐसे श्री गुरुदेव को बारम्बार प्रणाम।।
गुरुर्साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्री गुरुवे नमः।
हृदय विराजत रामसिय और दास हनुमान।
ऐसे श्री गुरुदेव को बारम्बार प्रणाम।।
रामचरितमानस के प्रति प्रेम और आस्था के संस्कार हमारे परिवार में मेरे
दादा श्री विट्ठलदास बालजी गणात्रा से मिला। पर मानस को रक्त में मिलाकर
जीवन को अमृतमय बनाने का कार्य मेरे परम पूज्य सद्गुरुदेव रामायण वाणी के
पर्याय श्रीरामकिंकरजी महाराज ने किया।
परम पूज्य श्री रामकिंकर महाराज का एक ग्रन्थ पढ़ते ही मुझे लगा कि जो मेरे पास नहीं है वह मानो मिल गया, अन्धकार से प्रकाश हो गया, घुटन के बाद हवा मिल गयी और संसार से विष के बदले अमृत मिलने लगा। सबसे पहले मैंने उनको लंदन से मुम्बई आकर ‘‘बिरला मातुश्री सभागृह’’ में अपने बड़े भाई के साथ सुना। ऐसा सुदर्शन उनका दर्शन, ऐसा अमृतमय उनका वचन, ऐसी गम्भीर उनकी वाणी, अद्वितीय प्रस्तुतीकरण उस समय मुझे वे ही वे दिख रहे थे। हम जिस होटल में ठहरे थे, कृपापूर्वक हम लोगों के कहने पर वे वहाँ पर पधारे और हमने उन्हें हनुमानचालीसा, नवधा-भक्ति तथा श्रीमद्भगवद्गीता का बारहवाँ अध्याय ‘‘भक्ति योग्य’’ सुनाया।
कुछ वर्षों तक ऐसे ही भारत आना-जाना लगा रहा, मैं भारत केवल महाराजश्री को ही सुनने आता था। मेरे और मेरी पत्नी अंजू के विशेष आग्रह पर उन्होंने ऐसी कृपा की, कि एक महीने के लिए लन्दन आये और चौदह या पन्द्रह प्रवचन किये। वहां जिज्ञासुओं ने उस अवसर पर पूरा लाभ उठाया। लन्दन के निवासियों के लिए वह स्मृति अविस्मरणीय हो गयी। महाराजश्री की पुस्तकों में व्यक्ति के जीवन, चिन्तन और दिशा बदलने की अभूतपूर्व सामर्थ्य है। भारत मूल का होने के नाते मुझे यहां की भूमि बहुत आकर्षित करती है, और उस आकर्षण का मूल कारण केवल यह है कि जहाँ प्रभु श्रीराम ने अवतार लिया, जहाँ पर गंगा और सरयू का तट और जिस भूमि पर एक ऐसे महापुरुष ने जन्म लिया जो मन, वचन और कर्म से राममय थे और राममय हो गये। उनकी कृपामूर्ति का दर्शन कर जैसे आज के समय में हम लोग गोस्वामी तुलसीदास महाराज की स्मृति करते हैं उसी तरह आज के हजारों वर्ष तक लोग परम पूज्य श्रीरामकिंकरजी महाराज के दर्शन और उनके अमृतमय साहित्य को पढ़कर अपने जीवन में मार्गदर्शन प्राप्त करते रहेंगे।
आज मनुष्य को जिस वस्तु की जरूरत है, वह है स्वस्थ चिन्तन और पवित्र दिशा। इसके अभाव में व्यक्ति कितना भी विकास क्यों न करे, उसको विकास नहीं माना जा सकता। रामायण ट्रस्ट को पूज्य महाराजश्री का यह वरदान प्राप्त है कि वह उनके चिन्तन को प्रसारित व प्रचारित करने के लिये अधिकृत है। मेरा यह मानना है कि जितनी भगवान् श्रीराम के नाम की महिमा है, उतनी ही महिमा परम पूज्य महाराजश्री के साहित्य की है क्योंकि दोनों ही भगवान के शब्दमय विग्रह हैं।
रामायणम् ट्रस्ट की अध्यक्ष श्रद्धेय मन्दाकिनी श्रीरामकिंकरजी एवं सभी ट्रस्टियों का मैं आभारी हूँ कि जिन्होंने मुझे इस सेवा का अवसर दिया और भविष्य में भी यही भावना है कि ऐसी सेवा मैं करता रहूं। आमतौर पर माना यह जाता है कि बड़े सत्कर्मों के परिणामस्वरूप सम्भव होता है जब गुरु कृपा होती है, पर मेरा मानना यह है कि मेरा तो कोई भी कर्म ऐसा नहीं है जिसके फलस्वरूप मुझे ऐसे अवतार पुरुष की कृपा प्राप्त होती, यह तो उनकी अहैतुकी कृपा ही थी कि वे बिना कारण ही मुझ पर कृपा करते थे और करते हैं।
अपनी पूज्य माताजी और पूज्य पिताजी की पुण्य स्मृति में यह सेवा करके मुझे जीवन में धन्यता का अनुभव हो रहा है।
परम पूज्य श्री रामकिंकर महाराज का एक ग्रन्थ पढ़ते ही मुझे लगा कि जो मेरे पास नहीं है वह मानो मिल गया, अन्धकार से प्रकाश हो गया, घुटन के बाद हवा मिल गयी और संसार से विष के बदले अमृत मिलने लगा। सबसे पहले मैंने उनको लंदन से मुम्बई आकर ‘‘बिरला मातुश्री सभागृह’’ में अपने बड़े भाई के साथ सुना। ऐसा सुदर्शन उनका दर्शन, ऐसा अमृतमय उनका वचन, ऐसी गम्भीर उनकी वाणी, अद्वितीय प्रस्तुतीकरण उस समय मुझे वे ही वे दिख रहे थे। हम जिस होटल में ठहरे थे, कृपापूर्वक हम लोगों के कहने पर वे वहाँ पर पधारे और हमने उन्हें हनुमानचालीसा, नवधा-भक्ति तथा श्रीमद्भगवद्गीता का बारहवाँ अध्याय ‘‘भक्ति योग्य’’ सुनाया।
कुछ वर्षों तक ऐसे ही भारत आना-जाना लगा रहा, मैं भारत केवल महाराजश्री को ही सुनने आता था। मेरे और मेरी पत्नी अंजू के विशेष आग्रह पर उन्होंने ऐसी कृपा की, कि एक महीने के लिए लन्दन आये और चौदह या पन्द्रह प्रवचन किये। वहां जिज्ञासुओं ने उस अवसर पर पूरा लाभ उठाया। लन्दन के निवासियों के लिए वह स्मृति अविस्मरणीय हो गयी। महाराजश्री की पुस्तकों में व्यक्ति के जीवन, चिन्तन और दिशा बदलने की अभूतपूर्व सामर्थ्य है। भारत मूल का होने के नाते मुझे यहां की भूमि बहुत आकर्षित करती है, और उस आकर्षण का मूल कारण केवल यह है कि जहाँ प्रभु श्रीराम ने अवतार लिया, जहाँ पर गंगा और सरयू का तट और जिस भूमि पर एक ऐसे महापुरुष ने जन्म लिया जो मन, वचन और कर्म से राममय थे और राममय हो गये। उनकी कृपामूर्ति का दर्शन कर जैसे आज के समय में हम लोग गोस्वामी तुलसीदास महाराज की स्मृति करते हैं उसी तरह आज के हजारों वर्ष तक लोग परम पूज्य श्रीरामकिंकरजी महाराज के दर्शन और उनके अमृतमय साहित्य को पढ़कर अपने जीवन में मार्गदर्शन प्राप्त करते रहेंगे।
आज मनुष्य को जिस वस्तु की जरूरत है, वह है स्वस्थ चिन्तन और पवित्र दिशा। इसके अभाव में व्यक्ति कितना भी विकास क्यों न करे, उसको विकास नहीं माना जा सकता। रामायण ट्रस्ट को पूज्य महाराजश्री का यह वरदान प्राप्त है कि वह उनके चिन्तन को प्रसारित व प्रचारित करने के लिये अधिकृत है। मेरा यह मानना है कि जितनी भगवान् श्रीराम के नाम की महिमा है, उतनी ही महिमा परम पूज्य महाराजश्री के साहित्य की है क्योंकि दोनों ही भगवान के शब्दमय विग्रह हैं।
रामायणम् ट्रस्ट की अध्यक्ष श्रद्धेय मन्दाकिनी श्रीरामकिंकरजी एवं सभी ट्रस्टियों का मैं आभारी हूँ कि जिन्होंने मुझे इस सेवा का अवसर दिया और भविष्य में भी यही भावना है कि ऐसी सेवा मैं करता रहूं। आमतौर पर माना यह जाता है कि बड़े सत्कर्मों के परिणामस्वरूप सम्भव होता है जब गुरु कृपा होती है, पर मेरा मानना यह है कि मेरा तो कोई भी कर्म ऐसा नहीं है जिसके फलस्वरूप मुझे ऐसे अवतार पुरुष की कृपा प्राप्त होती, यह तो उनकी अहैतुकी कृपा ही थी कि वे बिना कारण ही मुझ पर कृपा करते थे और करते हैं।
अपनी पूज्य माताजी और पूज्य पिताजी की पुण्य स्मृति में यह सेवा करके मुझे जीवन में धन्यता का अनुभव हो रहा है।
श्री गुरुदेव का चरण सेवक,
अरुण गोर्धनदास गणात्रा और
अंजू, अरुण गणात्रा, लन्दन
अरुण गोर्धनदास गणात्रा और
अंजू, अरुण गणात्रा, लन्दन
।। श्रीराम : शरणं मम ।।
काम
‘काम’ शब्द बड़ा अनोखा है और इस शब्द को लेकर अनेक मत
और
‘अर्थ’ हमारे सामने आते हैं। परम्पाया तो काम की
निन्दा की
गयी है पर यदि हम गहराई से दृष्टि डालें तो देखते हैं कि रामचरितमानस तथा
हमारे अन्य धर्मग्रन्थों में काम की प्रवृत्ति और उसके स्वरूप का जो
विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है, वह बड़ा ही गंभीर है। यदि हम विचार करके
देखें तो यहाँ उपस्थित हम-सब एवं सम्पूर्ण समाज के मूल में ईश्वर तो है
ही, पर संसार के निर्माण में हमें काम की वृत्ति ही दिखायी देती है। काम
की वृत्ति के विविध पक्ष हैं। काम क्या दुष्ट वृत्ति ही है ? क्या वह खल
और निन्दनीय है ? जैसा कि मानस और अन्य ग्रन्थों में, अनेकानेक स्थलों में
उसके बारे में वर्णन करते हुए कहा गया है। निसंदेह काम का एक पक्ष यह भी
है। पर हम देखते हैं कि काम, सृष्टि के सृजन और विस्तार में सहायक तो है
ही, मनुष्य के अंत:करण में जो आनंद और रस की पिपासा है, उसकी अनुभूति का
मानो एक साकार रूप भी है। इससे तो यही निष्कर्ष निकलता है कि काम निंदनीय
ही नहीं, वंदनीय भी है। इसलिए यदि किसी प्रसंग विशेष में काम की निंदा की
गयी है तो उसका एक उद्देश्य है और उसी प्रकार उसकी प्रशंसा के पीछे भी एक
निहित उद्देश्य ही उसका कारण है।
जिन तीन विकारों का नाम प्रमुखता से लिया जाता है वे हैं ‘काम, क्रोध और लोभ’। आप देखेंगे कि उनमें से ‘क्रोध’ और ‘लोभ’ से जुड़ा हुआ नाम रखना लोग पसंद नहीं करते। किसी का नाम लोभचन्द्र या लोभशर्मा यह सुनने को नहीं मिलता। इसी तरह क्रोध या उसके समानार्थी शब्दों से संयुक्त नाम भी नहीं सुने जाते। पर ‘काम’ शब्द इतना लोकप्रिय है कि इससे जुड़े हुए नाम रखने में कोई संकोच नहीं दिखायी देता। ‘काम’ या उसके पर्यायवाची शब्दों के नाम वाले अनेकानेक व्यक्ति समाज में मिलते हैं। मदनमोहन, मदनलाल, मनोज, आदि नाम बहु प्रचलित हैं। इसका अर्थ है कि काम की अच्छाई बुराई और उसकी आवश्यकता एवं उपयोगिता पर गहराई से विचार किया जाना चाहिये।
मनुष्य शान्ति और सुख की खोज में सदैव सचेष्ट रहा है। इन्हें प्राप्त करने के लिये प्राचीन परम्परा में वर्णित जिन दो मार्गों की चर्चा की गयी है, वे हैं-प्रवृत्ति मार्ग और निवृत्ति मार्ग। धर्मशास्त्र के ग्रन्थों में दोनों ही पक्षों को विस्तार से प्रस्तुत किया गया है। ‘मानस’ में भी कई प्रसंगों में इन पर विचार किया गया है।
सनक, सनंदन, सनातन और सनत्कुमार ये चारों तथा नारदजी आदि अनेक नाम निवृत्ति परायण महात्मा के रूप में हमारे सामने आते हैं। उनकी मान्यता है कि संसार की वस्तुओं में कोई आनंद नहीं है और वे वस्तुएँ क्षणिक हैं, नाशवान हैं। दूसरा मार्ग प्रवृत्ति का मार्ग है। इस परम्परा में भी अनेक महापुरुषों के नाम लिये जा सकते हैं। जहाँ व्यक्तिगत आत्मकल्याण की बात है, निवृत्ति मार्ग की प्रशंसा की गयी है। पर संसार में सृजन निर्माण और विस्तार का क्रम निवृत्ति मार्ग से तो नहीं हो सकता। इन दोनों पर विचार करने की दृष्टि से ‘मानस’ में भगवान शंकर का जो प्रसंग है, हम उसे ले सकते हैं। भगवान् शंकर का एक नाम ‘कामारि’ भी है। इससे तो यही लगता है कि वे काम के शत्रु हैं, विरोधी हैं, पर इसे जिस रूप में रखा गया वह बड़े महत्त्व का है।
जिन तीन विकारों का नाम प्रमुखता से लिया जाता है वे हैं ‘काम, क्रोध और लोभ’। आप देखेंगे कि उनमें से ‘क्रोध’ और ‘लोभ’ से जुड़ा हुआ नाम रखना लोग पसंद नहीं करते। किसी का नाम लोभचन्द्र या लोभशर्मा यह सुनने को नहीं मिलता। इसी तरह क्रोध या उसके समानार्थी शब्दों से संयुक्त नाम भी नहीं सुने जाते। पर ‘काम’ शब्द इतना लोकप्रिय है कि इससे जुड़े हुए नाम रखने में कोई संकोच नहीं दिखायी देता। ‘काम’ या उसके पर्यायवाची शब्दों के नाम वाले अनेकानेक व्यक्ति समाज में मिलते हैं। मदनमोहन, मदनलाल, मनोज, आदि नाम बहु प्रचलित हैं। इसका अर्थ है कि काम की अच्छाई बुराई और उसकी आवश्यकता एवं उपयोगिता पर गहराई से विचार किया जाना चाहिये।
मनुष्य शान्ति और सुख की खोज में सदैव सचेष्ट रहा है। इन्हें प्राप्त करने के लिये प्राचीन परम्परा में वर्णित जिन दो मार्गों की चर्चा की गयी है, वे हैं-प्रवृत्ति मार्ग और निवृत्ति मार्ग। धर्मशास्त्र के ग्रन्थों में दोनों ही पक्षों को विस्तार से प्रस्तुत किया गया है। ‘मानस’ में भी कई प्रसंगों में इन पर विचार किया गया है।
सनक, सनंदन, सनातन और सनत्कुमार ये चारों तथा नारदजी आदि अनेक नाम निवृत्ति परायण महात्मा के रूप में हमारे सामने आते हैं। उनकी मान्यता है कि संसार की वस्तुओं में कोई आनंद नहीं है और वे वस्तुएँ क्षणिक हैं, नाशवान हैं। दूसरा मार्ग प्रवृत्ति का मार्ग है। इस परम्परा में भी अनेक महापुरुषों के नाम लिये जा सकते हैं। जहाँ व्यक्तिगत आत्मकल्याण की बात है, निवृत्ति मार्ग की प्रशंसा की गयी है। पर संसार में सृजन निर्माण और विस्तार का क्रम निवृत्ति मार्ग से तो नहीं हो सकता। इन दोनों पर विचार करने की दृष्टि से ‘मानस’ में भगवान शंकर का जो प्रसंग है, हम उसे ले सकते हैं। भगवान् शंकर का एक नाम ‘कामारि’ भी है। इससे तो यही लगता है कि वे काम के शत्रु हैं, विरोधी हैं, पर इसे जिस रूप में रखा गया वह बड़े महत्त्व का है।
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