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आकाश के उस पार

आबिद सुरती

प्रकाशक : आशा प्रकाशन गृह प्रकाशित वर्ष : 1998
पृष्ठ :157
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5506
आईएसबीएन :000000

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प्रस्तुत है उपन्यास आकाश के उस पार

Akash Ke Us par a hindi book by Aabid Surti - Aabid Surti - आकाश के उस पार - आबिद सुरती

प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश

भूमिका

इस उपन्यास की विशेषता यह है कि इसमें कथाकार का वह चेहरा, जो व्यंग्यकार है, पूरी तरह उभर कर पाठकों के सामने आया है। यह व्यंग्य मंच के कवियों का नहीं है, चुटकुलेबाजों का नहीं है, यह तो है ढब्बू जी का करारा व्यंग्य, जो समाज को, जीवन को, जीवन की समस्याओं को, पति-पत्नी के रिश्तों को चीर-फाड़कर रख देता है। मसलन इसी उपन्यास के पात्र क्षितिज और अंजू का रिश्ता। ये दोनों पत्नि-पत्नी हैं भी और गहरे अर्थों में देख जाए तो नहीं भी हैं। और इस बात का जब क्षितिज को एहसास होता है, तब जिन्दगी की गाड़ी छूट चुकी होती है। कुछ समय बाद इतिहास फिर अपने को दोहराने जा रहा है। स्थितियाँ वही हैं। सिर्फ पात्र बदल चुके हैं। पर इससे क्या फर्क पड़ता है ? सिर्फ इतना कि रिश्तों के फासलों का एहसास अब तक पाठकों को भी छू गया है और गाड़ी छूट जाने से पहले उन्हें सावधान भी कर देता है।

आबिद सुरती

आकाश के उस पार 

1


मेरे शरीर पर कई घाव हैं। मैं सैनिक नहीं हूँ। पाकिस्तान या चीन से लड़ने की मुझे ख़्वाहिश कभी नहीं हुई। शायद आपको हैरत होती होगी, मेरे शरीर पर कैसे घाव हैं ? सवाल भी उठते होंगे ! सन्देह भी होता होगा।
किसी ज़माने में लोग तलवार से लड़ते थे और हरेक लड़ाई के बाद एक से ज़्यादा घाव लेकर बखुशी लौट आते थे। वक़्त के साथ ये घाव भर जाते थे। निशान रह जाते थे। सैनिक उन घावों के निशान अपने दोस्तों और जान-पहचान वालों को दिखाकर अपनी ज़िन्दादिली के क़िस्से सुनाते थे। उनके बेटों और पोतों के लिए एक-एक घाव एक-एक कहानी बन जाता था।

मैं भी लोगों को अपने घाव दिखाकर कभी-कभी उनका ज़िक्र करता हूँ। मुझे पसंद है। मेरी बातों में लोगों को रस भी आता है। उन लोगों को कभी मुझसे हमदर्दी होती है तो कभी वे मुँह फेरकर हँस भी लेते हैं। पर हक़ीक़त, हक़ीक़त है और हक़ीक़त ही रहेगी।

कुल मिलाकर मेरे जिस्म पर पाँच घाव हैं। चार घाव लोग देख सकते हैं। पाँचवाँ घाव देखना मुमकिन नहीं। वैसे मैं दिखा भी नहीं सकता। उसके बारे में किसी से बात भी नहीं कर सकता। उसमें कुछ कहने को बचा हो तो मैं नहीं जानता। लेकिन मुझे एक बात का यक़ीन है। मेरे चार घावों से यह पाँचवाँ घाव ज़्यादा क़ातिल और गहरा है। मैं इसकी गहराई में उतरता हूँ। गहरे और गहरे और गहरे उतरता जाता हूँ। यह घाव है या पाताल कुआँ ? कुएँ में पानी होता है। जलचर होते हैं। मगर यहाँ कुछ भी नहीं।

आइए ! आपको मैं अपना पहला घाव दिखाता हूँ। इधर, मेरे सामने बैठिए। मेरे पेट के ऊपर जो टाँकों के निशान हैं उन्हें मैं पहले घाव से पहचानता हूँ। कुछ ही पल में आप भी उससे परिचित हो जाएँगे। मैं आपका ज़्यादा वक़्त नहीं लूँगा। ज़रा अपनी अँगुली दीजिए। इधर टाँकों पर हल्के से रखिए। चमड़ी ऊबड़-खाबड़ लगती है न ? इस घाव की भेंट मुझे मेरे डॉक्टर ने दी है।

मेरे पेट में एक गाँठ है। भायनक गाँठ। उस गाँठ का दर्द भी भयानक है। दर्द शुरू होते ही मैं बिस्तर पर मछली की तरह तड़पने लगता हूँ। मेरी अन्तिम घड़ी मेरे पास दौड़ी आती है। लोग उसे मौत कहते हैं। मौत की ओर मैं हाथ बढ़ाता हूँ।
‘‘हैलो !’’ मेरे होंठ खुल जाते हैं, ‘‘मेरी सबसे प्यारी जानेमन मौत, आज भी तुझे निराश होकर जाना पड़ेगा।’’
‘‘दोस्त !’’ मौत सिर खुजाती है, ‘‘अभी तू कितनी बार मुझे वापस भेजेगा ?’’
‘‘मैं भी तो तुझसे यही पूछता हूँ। क्यों मेरे शब्दों पर तू भरोसा करती है ? क्यो अकेली चली जाती है ? मुझे नहीं जीना...मुझे नहीं जीना...मुझे....’’

‘‘झूठा !’’ मौत के ठोस अल्फ़ाज मेरे चेहरे पर चोट करते हैं, ‘‘तुझे जीना है। अभी तू जीएगा। जब तक पाँचवाँ घाव भर नहीं जाता, तू जीएगा।’’
‘‘लेकिन...लेकिन यह घाव कभी भरेगा नहीं।’’
‘और तू कमबख़्त मरेगा नहीं।’’
मेरा डॉक्टर भी मेरे बारे में यही कहता है। डॉक्टर और मौत में दूरी है। काफ़ी दूरी है। ज़िंदगी और मौत की दूरी। फिर भी दोनों एक साधारण लफ़्ज ‘कमबख़्त’ का इस्तेमाल क्यों करते हैं ? इन दोनों कमबख़्तों में कुछ तो मेल जरूर होना चाहिए। है !

कभी मौत सर्जन का चाकू लेकर आती है। और सर्जन मौत का नक़ाब पहने सिर पर खड़ा हो जाता है। मेरे डॉक्टर के चेहरे पर कभी मैं ऐसा ही मौत का काला नक़ाब देख लेता हूँ। उसने मेरे जिस्म में चाकूँ घुमाकर मेरे अंदर की गाँठ निकाली है। लेकिन अभी तक वह तय नहीं कर पाया कि मैं ठीक हुआ हूँ या नहीं ! मुझे इसकी परवाह नहीं।
डॉ़क्टरों के चाकू की मुझे आदत-सी हो गयी है। चाकू को मेरे जिस्म से प्यार हो गया है। ऑपरेशन थियेटर में जाते वक़्त मेरे चेहरे की मुस्कराहट देखकर शायद ही कोई बता सकता है कि मैं कैंसर जैसे बेदर्द रोग का मरीज़ हूँ।

ऑपरेशन से पहले नर्स मेरे शरीर को स्पंज से पोंछती है और मैं, जैसे कोई गुदगुदाता हो, ऐसे हँसने लगता हूँ। हँसते-हँसते बैठ भी जाता हूँ। नर्स प्यार से मुझे वापस सुला देती है। कुछ ही देर में स्पंज हो जाने के बाद मैं अपने मरीज़ दोस्तों को बताता हूँ, ‘‘यारो ! मैं तो चला। लेकिन घबराना नहीं। कल सुबह तक मैं फिर आपके बीच लौट आऊँगा।’’

मेरा अखंड विश्वास अच्छे-अच्छे को पल भर के लिए सोच में डाल देता है। और शायद मेरे इसी विश्वास की वजह से मैं आज तक साँस ले रहा हूँ। मुझे यक़ीन है, मेरी उम्र की डोरी पृथ्वी के गोले के चारों और दौड़ गयी है। मुझे अभी जीना है। अपने लिए नहीं तो अपने बच्चों के लिए सही। अभी मैं मौत के लिए पूरी तरह से तैयार नहीं हूँ। फल कच्चा है भगवान जानता है।

भगवान में मुझे अचल श्रद्धा है। मेरी मौत निश्चित समय पर आएगी। समय से पहले नहीं। दोस्तों, मैं जवान हूँ। मेरे अंग-अंग में बिजली भरी है। डॉक्टर का चाकू मेरा कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता। कुछ बिगाड़ा भी है तो सिर्फ़ इतना कि मैं पहले की तरह शाम के वक़्त वॉटरस्की नहीं कर सकता। बहुत जल्दी थक जाता हूँ। थकान का एहसास होने पर रस्सियाँ छोड़कर मैं पानी में छलाँग लगा देता हूँ।

एक वक़्त ऐसा भी था जब मैं घंटों पानी में पड़ा रहता था। मेरे जिस्म को पानी से प्यार है। चाकू को मेरे जिस्म से लगाव है। ऐसा क्यों ? मैं आज तक समझ न सका। मैं तो सिर्फ़ इतना जानता हूँ। चाकू मेरे जिस्म को समंदर से छीन लेने की कोशिश करता रहेगा और मेरा जिस्म समंदर की लहरों पर लहराता रहेगा।
यह तो सिर्फ़ एक घाव की बात हुई। अभी दूसरे, तीसरे, चौथे घाव की बातें बाक़ी हैं। पाँचवें घाव के बारे में आप कुछ भी नहीं जानते। पहले घाव के बारे में पहली मुलाक़ात में आपने ज़रूरत से ज़्यादा ही जान लिया है। बाक़ी के घावों के बारे में हम फिर कभी बातें करेंगे।

आज मैं बहुत थका हुआ हूँ। कल ही मद्रास लौटा हूँ। मैं मद्रास में रहता हूँ। यहीं मेरा घर है। मेरी बीबी है। मेरा बच्चा है। जिसे मैं अपना कह सकूँ, वह सब कुछ यहीं है। यहाँ के रास्तों पर से गुज़रते हुए कभी बचपन की यादें मुझे घेर लेती हैं।
मेरे बचपन के दिनों से हांगकांग जुड़ा है। उसे घेरता समंदर जुड़ा है। बचपन से ही मुझे समंदर से लगाव रहा है। बचपन से क्यों ? यह मैं नहीं जानता। मेरे साथ मुझ-जैसे कई और बच्चे थे। मगर शायद ही उन्होंने समंदर की ओर प्यार से देखा हो, ऐसा मुझे याद है।

मैं समंदर में गोते लगाता और वे लोग रेत में से चिकने कंकर ढूँढते रहते। किनारे के पानी में कदम रखने से पहले भी उन्हें सोचना पड़ता। कभी मैं आग्रह करता तो एकाध बच्चा मेरे साथ पानी में उतरता। तैरते-तैरते मैं दूर तक चला जाता। मेरे बालसखा मुझे ठगे-से-देखते रह जाते।
कई बार उन्होंने मुझे डूबा मानकर शोर-शराबा खड़ा कर दिया था। और मुझे बचाने के लिए नाव आती, उससे पहले ही मैं हँसता चेहरा लिये किनारे आकर उनके बीच खड़ा रह गया था।

धीरे-धीरे चलता मैं अन्नादुराई के बुत से माउंट रोड की ओर आगे बढ़ जाता हूँ। माहौल में थोड़ी सी उदासी है। सूरज डूबने में अभी घंटे भर का वक़्त है। न जाने वक़्त से पहले सूरज कहाँ छिप गया है। चारों ओर बादलों की गहरी परछाइयाँ फैली हैं। मेरी नज़र यूँ ही इधर-उधर घूमती है। ऊँची-ऊँची इमारतें और अजगर-सी बसों की लंबी कतारें। ऑफ़िस का वक़्त खत्म होते ही रास्ते की चहल-पहल बढ़ गयी है। लोगों की भीड़ धँस रही है।

उपनगरों में बसते नौकरी-पेशा लोगों की ज़िंदगी से ज़्यादा घृणित मुझे और कुछ नहीं लगता। उनकी ज़िंदगी को ज़िंदगी कहते भी संकोच होता है। वे लोग क्यों ज़िंदा हैं ? यह मेरे लिए एक सवाल है। वे लोग मरते क्यों नहीं ? यह दूसरा सवाल है। शायद उनकी मौत होती होगी तो उनकी जगह दूसरे ‘जीव’ ले लेते होंगे। फिर वे ‘जीव’ किनारे के पत्थर की तरह घिस जाते होंगे। फिर...

नहीं। मैं उस तरह घिसकर मिट जाने के लिए पैदा नहीं हुआ। अपने बेटे को भी मैं इस तरह घिसने नहीं दूँगा। समंदर का शौक़ मैं उसमें बचपन से ही डालना चाहता हूँ। मेरे जितने भी श़ौक और साहस हैं वे सब मैं उस पर थोपना चाहता हूँ...अगर ऐसा कहूँगा तो भी ग़लत न होगा।

एक बाप हमेशा अपनी परछाईं अपने बेटे में ढूँढता है। मगर ये लोग शायद ही जानते हैं कि प्रतिबिम्ब पाने के लिए प्रतिबिम्ब को पैदा करना ज़रूरी होता है। मेरे पिता को यह ज़रूरी नहीं लगा। वर्ना आज मैं हांगकांग के किसी डिपार्टमेंट-स्टोर का मालिक बन बैठा होता। मेरे पिता तीन टिपार्टमेंट-स्टोर के मालिक थे। तीनों की रोज़ की आमदनी जोड़ो तो हज़ारों के ऊपर चली जाए। क्रिसमस और दूसरे त्योहारों के दिन यही गिनती लाख से ऊपर तक भी पहुँच जाया करती थी।

मेरे महान पिता हांगकांग के कई करोड़पतियों में से एक थे। रहने के लिए आलीशान बँगला, घूमने-फिरने के लिए आलीशान वातानुकूलित कारें, भूख लगने पर आलीशान खाना और सोने  के लिए झीने, रेशमी पर्दों के बीच सजाया हुआ आलीशान गोलाकार पलंग। दोनों पैर पसारकर वे सपाट सोते और उनके नथुने गुस्सैल बुलडॉग की तरह गुर्राने लगते।
पैंसठ साल की उम्र में वे पैंतालिस साल के जवान लगते थे। यह उनकी खूबी थी। उनका जिस्म पहाड़ी था। आज़ाद था। उम्र में भी अगर किसी सोलह साल की लड़की से ब्याह करते तो कम-से-कम एक दर्जन बच्चों के बाप बनने की कुव्वत रखते थे। डर किसे कहते हैं, यह वे कभी भी जान न सके। सच कहूँ तो मेरे पहलवान पिता, भगवान और मेरी मम्मी के अलावा किसी से नहीं डरते थे।

मेरी मम्मी से डरने का कारण क्या हो सकता है, यह मेरी सोच से बाहर है। मेरे पिता का जिस्म लोहे का था तो मेरी मम्मी का बिजली के तार जैसा। मेरे पिता जूड़ो-कराटे के खिलाड़ी थे। मेरी मम्मी ऐसा कोई दाँवपेच जानती होंगी, यह मुझे याद नहीं। मेरे पिता की भूख संसार के किसी भी इंटरनेशनल पहलवान के जितनी थी। मेरी मम्मी उनके मुकाबले मुश्किल से दो चपाती खाती थीं।

फिर यह डर कैसा ? शायद मेरी मम्मी के पास ऐसी कोई विद्या होगी, जो मेरे पिता को वश में रखती थी। मम्मी के ‘उठ’ कहते ही वे उठ खड़े होते और ‘बैठ’ कहते ही वे बैठ जाते थे।
जिस दिन मम्मी नाराज रहतीं, उस दिन सबकी बन आती। घर के नौकर इधर-उधर हो जाते। मेरे भाई-बहन अचानक ग़ायब हो जाते। आलीशान मकान में सन्नाटा छा जाता। मैं अपने ही दिल की धड़कनों को सुन सकता। फिर भी अडिग खड़ा रहता।

मैं न अपनी मम्मी से डरता था, न अपने पिता से। पिता यह बात जानते थे। मम्मी भी अनजान नहीं थीं। शायद इसीलिए उन दोनों को मेरी फ़िक्र लगी रहती थी। समंदर से दूर रखने के लिए वे अपनी ओर से पूरी कोशिशें करते और मैं उन सब कोशिशों पर पानी फेर कर समंदर में उतर जाता-पेट में घुसते चाकू की तरह उतर जाता।
किताबों में मैंने पढ़ा था-समंदर में बड़ी-बड़ी मछलियाँ होती हैं। आदमी के साथ नाव को भी पूरी की पूरी निगल जाएँ, ऐसी मछलिया। बड़े-बड़े दाँतों वाली राक्षसी मछलियाँ। समंदर में साँप भी होते हैं।

इन सबका डर मेरी दिलचस्पी और बढ़ाता। समुद्री संसार में बसने वाले छोटे-बड़े हरेक जीव में मुझे रुचि थी। छुट्टियों के दिनों में मैं सुबह से ही समंदर में धँस जाता। बड़ी-बड़ी मछलियों की तलाश मेरी छोटी-छोटी आँखें शुरू कर देतीं। घंटों अकेला तैरता और पानी के करंट से टक्कर लेता।

उस वक़्त मेरी उम्र बारह साल से ज़्यादा नहीं थी। मैं नायलॉन की एक चड्ढी पहनता और कमर में टारज़न की तरह एक छुरा बाँधता। टारज़न की फ़िल्मों में कई बार मैंने खतरनाक मछलियों के साथ की लड़ाई देखी थी। टारज़न को अपने छुरे से शार्क जैसी खूनी मछलियों को चीरते मैंने देखा था। उन दिनों वह बहुत स्वाभाविक लगता था।
थोड़ी और सूझ बढ़ने और थोड़ा और अभ्यास होने पर मेरा भ्रम टूट गया। टारज़न असली ज़िंदगी का पात्र नहीं था। शायद होगा भी तो वह ज़िंदगी से दूर था। काल्पनिक था। छुरे से बड़ी मछलियों का शिकार नहीं हो सकता। सिर्फ़ छुरी कमर में बाँधकर ख़ूनी शार्क की खोज में निकलने की नादानी उसके बाद मैंने कभी नहीं की। आज वह सब याद आने पर मन-ही-मन मैं अपनी अंधी साहसवृत्ति पर हँस लेता हूँ।

मेरी उस ज़िंदगी और आज की ज़िंदगी में मुझे ज़्यादा फ़र्क़ नहीं लगता। आज भी मुझमें साहस ज़िंदा है। आज भी वह अंधा है। आज भी मैं रोजाना समंदर में उतरता हूँ। छुरे के साथ नहीं, ख़ाली हाथ जलचरों से डरने का कोई मतलब नहीं। दूसरे, बड़ी मछलियाँ किनारे से मीलों दूर रहा करती हैं। और तैरते-तैरते उतनी दूर जाने का मौक़ा शायद ही मिलता है। कभी अचानक किसी बड़ी मछली की बू आने पर मैं अपने हाथ-पैर पानी में इस तरह पछाड़ता हूँ जिससे छपाक-छपाक की बड़ी-बड़ी आवाज़ें हों और जलचर उनसे डरकर दूर-दूर भाग जाएँ।

डॉक्टर कहते हैं-मुझे ज़्यादा वक़्त पानी में रहना नहीं चाहिए। उन्हें डर है कि कहीं मेरे पिछले ऑपरेशन के टाँके टूट न जाएँ ! मैं भी जानता हूँ, उनका डर गलत नहीं हैं। मगर मैं लाचार हूँ। पानी में ज़्यादा देर रहने से ऑपरेशन के टाँके टूट जायेंगे और किनारे पर प्यासा बैठा रहने से ज़िंदगी की डोर टूट जायेगी। मेरे लिए तो दोनों तरफ़ मौत है। इसीलिए मैं किनारे पर मरने से समंदर में मरना बेहतर समझता हूँ। मौत का एक दिन तय है। मैं निर्भीक हूँ।

शो-विण्डो से झाँकता हुआ मैं ट्रैफ़िक सिग्नल पार कर लेता हूँ। मेरी नज़र तमिल सेना के जुलूस पर पड़ती है। दूर से चीखता हुआ वह मेरी ओर आ रहा है ट्रैफ़िक पुलिस पहले से ही सचेत हो गयी है। जुलूस ज्यों-त्यों आगे बढ़ता जाता है, ट्रैफ़िक का रूट बदलता जाता है।
चौड़ी सड़क पर मैं एक भी गाड़ी नहीं देखता। दुकानों के शटर नीचे गिर चुके हैं। दरवाजे बंद हो गए हैं। खिड़कियाँ बंद हो गयी हैं। जुलूस मेरे सामने से गुजरने पर मैं फ़ुटपाथ के किनारे खड़ा हो जाता हूँ।



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