सामाजिक >> आधी स्त्री आधी स्त्रीआबिद सुरती
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एक नया व रोचक उपन्यास...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
1
मासूम को गोरैया से न प्रेम था न ईर्ष्या थी। गोरैया खिड़की पर आ बैठे या
छत में घोसला बनाए इसमें उसे क्या आपत्ति हो सकती है ? फिर भी वह विचलित
हो गई। गोरैया ने अपना घोंसला कहीं और नहीं उसके हृदय में बनाया था।
पत्थर की एक बैठक पर मासूम गोद में टाइपराइटर लिए बारादरी में बैठी थी। फूलों से महकती यह बारादरी नूर महल का एक भाग थी। नूर महल स्वयं हरियाले लॉन और रंग-बिरंगे पुष्पों के केंद्र में था।
मासूम मुसलमान लड़की थी। गोरी चिट्टी, सुडौल, सुशील। बात करती तो मृदुता से, तसलीम करती तो मुस्कुरा कर, चलती तो नज़ाकत से, हंसती तो निर्दोष बालक की तरह।
ये संस्कार, ये कोमलताएं उसे अपनी स्वर्गीय मां से मिली थीं और माँ को लखनऊ के दरबार से। अब न दरबार रहा था न मां रही थी।
टाइप करती हुई उसकी उंगलियां कुछ पलों के लिए रुक गईं। मां ज़रीना बेगम का स्वर्गवास मासूम के जीवन का सबसे बड़ा हादसा था। यह मौत वह कभी भी भूलने वाली नहीं थी।
उस दिन ज़रीना बेगम स्कूल से भली चंगी लौटी थी। (पंचमढ़ी की एक पाठशाला में वह शिक्षिका थी।) कहा जाए तो उसके नख में भी रोग नहीं था। अलबत्ता उमर के साथ शरीर जरूर स्थूल हो गया था, लेकिन उसमें स्फूर्ति इतनी थी कि हर काम वह सपाटे से करती थी। चाहे वह काम बाहर का हो या घर का।
उसी दिन घर में मासूम के विवाह का ज़िक्र छिड़ गया था। बातों-बातों में ज़रीना बेगम को अपने निकाह का दिन याद आ गया। मुँह दिखाई के लिए उसे गठरी की तरह उठाकर सहेलियां दूल्हे मियां के पास ले गईं तब उसे स्पष्ट शब्दों में कहा गया था कि किसी तरह उसका एक पांव दूल्हे को छूना चाहिए।
यह एक प्रतीकात्मक रस्म थी, जिससे यह ज़ाहिर किया जा सके कि भविष्य में दूल्हे मियां को दुल्हन के चरणों का दास बने रहना होगा। ज़रीना ने दूल्हे मियां को पांव छूने के बजाय चुपके से उसकी पसलियों में लात जमा दी थी।
यह किस्सा सुनाते-सुनाते वह इतना हंसी थी कि यकायक उसका दिल बैठ गया। हंसते-हंसते उसका दम निकल गया था। जब सारा पंचमढ़ी उसकी मृत्यु पर शोक मना रहा था, तब उसका मुस्कुराता हुआ चेहरा दुखी मजमे का मज़ाक़ उड़ा रहा था। उसकी बेसाख़्ता हंसी उसके साथ कब्र में दफ़न हुई थी।
मासूम फिर टाइप करने लगी।
वह मुसलमान थी, इसका अर्थ कोई यह न ले कि वह परंपरावादी थी। इसका यश भी उसकी मां को जाता है। मां ने न कभी उस पर बुर्का डाला था, न कभी दबाव। हां, इस बात पर वह अवश्य ज़ोर देती थी कि युवतियों की पोशाकें ऐसी नहीं होनी चाहिए जिससे उनके खुले अंगों का प्रदर्शन हो। इस्लाम के पर्दे का अर्थ उसने यही लिया था। (साड़ी तथा चूड़ीदार में लगभग सारा शरीर ढक जाता है।)
सामान्यतया मासूम चूड़ीदार पहनती थी और ख़ास अवसर पर साड़ी। पर उसकी बड़ी बहन लैला तो उससे भी दो कदम आगे थी। उसने अपनी पोशाक जींस और टी-शर्ट चुनी थी। मां को यह तनिक भी भाता नहीं था। कभी वह टोकती तो लैला उसी का तर्क उसके सामने धर देती, ‘‘इसमें भी तो खुले अंगों की नुमाइश नहीं होती।’’
टाइप करते हुए मासूम को एहसास हुआ—बारादरी की फूलवाड़ी में वह अकेली नहीं थी। कनखियों से उसने देखा तो उसे सिर्फ कैनवास के जूते दिखाई दिए। (जूतों में पाँव भी थे।) उसने नज़रें उठाकर चेहरा देखने की ज़रूरत नहीं समझी। ये जूते कल रात भोपाल से पधारे अतिथि के होंगे ऐसा उसने सोच लिया था। पर वह बोलता क्यों नहीं ? ख़ामोश क्यों खड़ा है ?
‘‘क्या देख रहे हैं, आप ?’’ टाइपिंग का काम जारी रखते हुए उसने कुछ अंतर पर खड़े युवक से प्रश्न किया।
वह चौंका। फिर कहा, ‘‘तुम्हारी नाक !’’
‘‘नाक ?’’
‘‘बिल्कुल वैसी है...’’
‘‘कैसी ?’’
‘आज़ के अख़बार में छपी तस्वीर वाली लड़की जैसी ?’’
‘‘क्या वह आपकी मॉडल थी ?’’
युवक फिर चौंका। यह निर्दोष लगने वाली युवती उसके बारे में शायद सब कुछ जानती थी। यह भी कि वह छायाकार है, नाम है अलिफ़ सैयद। दूसरे पल उसे लगा, इसमें ताज्जुब की बात क्या थी ? नूर महल के खादिम बंदियों और मालियों के क़ाफ़िले को छोड़कर यहां सिर्फ़ तीन शख़्स बसते थे। मासूम, लैला और उनके पिता नवाब नज़ाकत अली ख़ां।
नवाब साहब के निमंत्रण पर वह यहां आया था। स्वाभाविक है कि उनकी दोनों बेटियां उसके विषय में जानकारी रखती हों।
मासूम टाइप कर रही थी और बातें भी। ‘‘आपने मेरे सवाल का जवाब नहीं दिया।’’
‘‘जी !’’
‘‘वह तस्वीर वाली लड़की आपकी मॉडल थी ?’’
‘‘ओह !’’
‘‘लेकिन थी सुंदर। किसी पागलख़ाने से भाग निकली है।’’ अब अलिफ़ की नजर एक बिल्ली पर ठहरी। श्वेत ऊनी गोले की तरह वह मासूम के पांवों के बीच बैठी थी।
‘‘वाह ! वह बोल उठा, ‘‘कैसे छने केश हैं !’’
मासूम समझी, वह बोल उसके अपने लंबे और छने बालों की प्रशंसा में हैं। उसे औपचारिकता की ख़ातिर कहना पड़ा, ‘शुक्रिया !’’
‘‘मैं तुम्हारी बिल्ली के बारे में कह रहा था।’’
‘‘ओह !’’ वह फिर बोली।
‘‘इजिप्ट की है या...’’
मासूम ने टाइपराइटर से कागजात निकाला और उसके सामने बढ़ाते हुए कहा, ‘‘यह है आपका महीने-भर का प्रोग्राम।’’
पहली बार आंखें चार हुईं और बिछड़ गईं।
अलिफ़ ने एक सरसरी नज़र पन्ने पर डालते हुए बताया, ‘‘इस काम के लिए मुझे एक गाइड की ज़रूरत पड़ेगी।’’
‘‘उसका इंतजाम लैला कर देगी।’’
अलिफ़ सिर्फ़ छायाकार नहीं था, अपने फ़न में जाना-माना भी था। सिर्फ़ पच्चीस वर्ष की आयु में उसने जो सिद्धि हासिल की थी, वह भारत के चोटी के फोटोग्राफरों के लिए ईर्ष्या का विषय थी। और नवाब नज़ाकत अली ख़ां को किसी ऐसे छायाकार की ज़रूरत थी, जो उनकी ग़ज़लों के नए संकलन ‘शबाब’ के लिए आधारभूत तस्वीरें खींच सके।
यह उनका अनोखा विचार था। जिस ग़ज़ल की प्रेरणा उन्हें जिस स्थान पर हुई हो उस स्थान की तस्वीर उसी ग़ज़ल के सामने वाले पन्ने पर छपे। यानी कि एक तरफ़ ग़ज़ल, दूसरी तरफ़ तस्वीर।
नज़ाकत अली ख़ां का प्रकाशक भोपाल में था। उसी ने अपनी पसंद अलिफ़ पर उतारी थी। पूरा एक महीना नूर महल में रहकर अलिफ़ पंचमढ़ी का सौंदर्य अपने कमरे में कैद करने वाला था।
आज दूसरा दिन था। घूमने के लिए एक इक्के का प्रबंध हो चुका था। साईस तड़के ही इक्का लेकर आ पहुँचा था। अलिफ़ छायाकारी के साधनों की पेटी के साथ आया और साईस की बगल में बैठकर टाइप-कार्यक्रम की सूची ग़ौर से देखने लगा। आज प्रागैतिहासिक गुफाओं तथा उनके भित्ति-चित्र खींचने का कार्यक्रम प्रमुख था।
नूर महल के प्रवेश द्वार से लैला को नीली जींस, गुलाबी टी-शर्ट और वैसे ही रंग के स्कार्फ में आती देख वह पल भर देखता रह गया। सहज ही उसे विचार आया। दोनों बहनों ने एक ही छत तले परवरिश पाई थी, फिर भी दोनों के बीच कितना अंतर था ! एक पूरब के संस्कार की प्रतीक थी दूसरी पश्चिम के।
‘‘गाइड अब तक नहीं आया।’’ उसके पास आने पर अलिफ़ ने कहा।
‘‘और आएगा भी नहीं।’’ लैला ने बताया, ‘‘यह टूरिस्ट सीजन है। तुम्हें ऐतराज न हो तो....’’
वह स्वयं गाइड बनकर उसके साथ आना चाहती थी यह जानकर अलिफ़ पशोपेश में पड़ गया। यह स्वच्छंद युवती कहीं उसके काम में सहायक होने के बजाए बाधा न बन जाए ! दूसरा कोई उपाय भी नहीं था। पंचमढ़ी के भूगोल से वह परिचित नहीं था।
वह कुछ उत्तर दे इससे पहले लैला की दृष्टि मासूम पर ठहरी। बारादरी के फूल-पौधों को पानी देकर वह अभी-अभी बाहर निकली थी। उसका ध्यान भी इस ओर न था।
लैला ने उसे आवाज़ दी। वह क़रीब आई तो कहा, ‘‘चढ़ जाओ !’’
वह चौंकी, ‘‘मैं ?’’
और कौन ?’’
‘‘मैं तो आ ही नहीं सकती आपा।’’ कहते हुए उसने कारण बताया। ‘‘आज मेरा रोज़ा है।’’
‘‘तो क्या हुआ। क्यों रोजो़ रखकर अम्मी जान स्कूल नहीं जाती थीं ? काम काज नहीं करती थीं ?’’
अलिफ़ बुदबुदाया, ‘‘एक गाइड मेरे लिए क़ाफी़ है।’’
‘‘वह तो सच लेकिन--’’अलिफ़ से कहते हुए वह बहन की तरफ़ मुड़ी, ‘‘मैं अकेली किसी जवान के साथ कैसे जा सकती हूं !’’ उसने इतनी गंभीरता से कहा कि मासूम सोच में प़ड़ गई।
लैला ने ढकेलकर पहले उसे इक्के पर चढ़ाया और फिर खुद भी चढ़ गई। ‘‘ओह गॉड !’’ फिर स्वगत बड़बड़ाई, ‘‘क्या होगा इस लड़की का, शादी के बाद ?’’
‘‘क्या...!’’ साईस की बगल में बैठा अलिफ़ पूछना चाहता था कि मासूम का ब्याह तय हो चुका है और झटके के साथ इक्का चल पड़ा। बाक़ी जुमला अधर में लटका रह गया।
दोनों बहनें उसकी ओर पीठ किए पीछे के भाग में बैठी थीं। घोड़ा दुलकी चाल चल रहा था। न अधिक धीमी, न अधिक तेज़।
‘‘वह इमारत स्कूल की है जहां हमारी अम्मी टीचर थीं।’’ लैला थोड़ा मुड़कर अलिफ़ को बिना मांगी जानकारी दे रही थी, ‘‘और वहां, उन पेड़ों के झुरमुट के पीछे चर्च है। अंग्रेजों ने अपने दौर में बनवाया था।’’
सरपट जाते इक्के से अलिफ़ कभी दाहिनी तरफ देखता था तो कभी बाईं तरफ़। ‘‘वह क्या है ?’’ आगे दो कंगूरे दिखाई देने पर उसने पूछा।
‘‘दरगाह। और उसके पीछे क़ब्रिस्तान भी है।’’ लैला ने बताया, ‘‘लौटते वक्त वहां रुकेंगे।’’
घंटे भर बाद घोड़ा रुका, तब तक सूरज की किरणें सूइयां बन चुकी थीं। अभी तीस मिनट का पैदल सफ़र बाक़ी था। इक्के से उतरकर तीनों आगे बढ़े। बीहड़ों से गुजरते हुए चंद पलों में ही अलिफ़ के माथे से पसीना चूने लगा।
मौसम के अलावा इसकी दूसरी वजह यह थी कि उसके साथ बोझ था। गले से झूलता कैमरा इतना भारी न था, पर उसके लैंसीस और ज़रूरी साधनों से भरी पेटी काफ़ी वज़नी थी।
‘‘तुम दोनों बहनें हो।’’ प्रवास की पीड़ा को भुलाने के प्रयास में अलिफ़ ने कहा, ‘‘फिर भी इस हक़ीक़त को स्वीकार करना ज़रा मुश्किल है।’’
‘‘क्यों ?’’ लैला ने पूछा।
‘‘मासूम ख़ामोशी-पसंद है, जबकि तुम पल-भर भी शांत नहीं बैठ सकतीं।’’ वह दोनों बहनों की पोशाकों और लहजे के बारे में भी भेद बताना चाहता था।
‘‘इसकी वजह है।’’ लैला ने बीच में कहा, ‘‘मुझ पर अंग्रेजी साहित्य का प्रभाव है जबकि मासूम पर दीनी अदब का।’’
झाड़ी-झंखारों से रास्ता बनाते हुए तीनों जने प्रागैतिहासिक गुफाओं तक पहुंचे, तब तक लैला भी अधमरी-सी हो चुकी थी। उसी ने मासूम के कंधे पर से पानी का थर्मस झपटा और मुंह में उंडेला। थर्मस आधा हो इससे पहले मासूम ने उसे रोका। फिर इशारे से मेहमान की ओर संकेत किया।
‘‘सॉरी।’’ कहते हुए उसने अलिफ़ की ओर थर्मस बढ़ाया। वैसे भी उसकी प्यास बुझ चुकी थी।
अलिफ़ ने कुछ घूंट लेकर थर्मस मासूम को थमाया। उसने थर्मस बंद कर वापस कंधे से लटका दिया।
‘‘क्यों !’’ अलिफ़ को आश्चर्य हुआ, ‘‘तुम्हें प्यास नहीं लगी ?’’
‘‘आज मेरा रोज़ा है।’’ उसने याद दिलाया।
अलिफ़ एकटक देखता रहा। दोनों बहनों के बीच एक फर्क था। मासूम की सहनशक्ति प्रशंसा के क़ाबिल थी।
यहाँ एक बात का सुकून था। ये गुफाएं ऊंचाई पर होने के कारण हवा शीतल थी। दूसरे, यहां पेड़ों की छाया भी थी। अलिफ़ तल्लीन होकर वादियों में देख रहा था। लैला ने एक पेड़ की छांव में बैठते हुए उसे टोका, ‘‘मिस्टर, हमें वापस भी जाना है।’’
‘‘अलिफ़ ने कैमरा खोलते हुए उसकी तरफ़ देखा। वह अब भी थकी-हारी लग रही थी। यह मासूम ने भी नोट किया। वह अलिफ़ के साथ हो ली।
‘‘क्या मैं जान सकता हूं...’’ गुफाओं की ओर बढ़ते हुए अलिफ़ ने पूछा, ‘‘यहां नवाब साहब पर कौन-सी ग़ज़ल उतरी थी ?’’
‘‘क्यों ?’’
‘इसलिए कि जो तस्वीरें मैं खींचूंगा वह उसी ग़ज़ल के साथ छपेगी।’’ मासूम अभी भी नहीं समझी, ‘‘तो ?’’
‘‘मेरी तस्वीर गज़ल का दूसरा रूप होनी चाहिए।’’ अलिफ़ ने स्पष्ट किया, ‘‘उसमें वही भाव होने जरूरी हैं, जो ग़ज़ल में हों। बल्कि मेरी कोशिश यह रहेगी कि पाठक ग़ज़ल और तस्वीर को आमने-सामने देखकर यह सोच न सकें कि किसने किससे प्रेरणा ली होगी ? अब तुम ही कहो, ग़ज़ल को जाने बग़ैर में तस्वीरें कैसे लूँ ?’’
छायाकार विषय की थाह पाने के लिए अपने काम में इतने गहरे उतरते होंगे, यह तो मासूम ने स्वप्न में भी सोचा नहीं था। उसने अलिफ़ की तरफ सम्मानपूर्वक देखा। उसकी निष्ठा, उसके सोचने के ढंग से वह प्रभावित हुई।
जब उसे ग़ज़ल सुनाई तो अलिफ़ बौखला गया।
‘‘मेरी समझ में यह नहीं आता कि श्रृंगार रस से सराबोर नवाब साहब की इस ग़ज़ल से इन गुफाओं का क्या संबंध हो सकता है ?’’ वह बोल उठा, ‘‘अब यह मिसरा ही लो—इतना शफ़्फ़ाफ है तेरा चेहरा, आईने झिलमिलाने लगते हैं पर...न यहां आईने हैं, न साफ चेहरा।’’
इतना कहते ही उसके मस्तिष्क में कुलबुलाहट हुई। आईने-सा शफ़्फ़ाफ चेहरा तो उसके सामने था। मुमकिन है उस वक़्त भी नवाब साहब के साथ मासूम मौजूद हो और उसके चेहरे में उन्होंने अपनी स्वर्गीय बेगम का झिलमिलाता हुआ सुंदर प्रतिबिंब देखा हो !
मासूम कुछ जवाब सोचे इससे पहले वह मुस्कुरा दिया...उसकी समस्या का समाधान हो गया था। मासूम को केन्द्र में रखकर तुरंत उसने तस्वीरें खींचना शुरू कर दिया।
‘‘युद्ध का यह भित्ति-चित्र दस हज़ार साल पुराना है।’’ गुफा की दीवार की ओर इशारा करते हुए मासूम बोली। अलिफ़ ने कैमरा फोकस कर बटन दबाया। उस एक ही रेखाचित्र की दो तरफ तस्वीरें अलग-अलग ऐंगल से लेकर वह दूसरी दीवार की ओर मुड़ा।
‘‘यह प्रेम का दृश्य तो नहीं ?’’
‘‘जी नहीं, यह द्वंद्व है।’’
‘‘यानी कि दृश्य प्रेम का मगर शादी के बाद।’’ कैमरे का बटन दबाते हुए उसने व्यंग्य किया।
अलिफ़ ने पलटकर देखा। ऐसी मधुर, सोंधी-सोंधी महकवाली मुस्कान आज से पहले उसने कभी न देखी थी। उसका जी चाहा कि उस निर्दोष मुस्कान को भी वह अपने कैमरे में बंद कर ले। फिर यह सोचकर रुक गया कि कहीं उसके नेक इरादे का ये बहनें अनर्थ न लगा लें।
सूरज ढलने से पहले वे इक्के में बैठ गए। मासूम चाहती थी कि घर पहुंचकर वह ढंग से रोज़ा खोले। पर अब उतना समय बचा न था। दूसरे, मूल कार्यक्रम के अनुसार अभी दरगाह देखनी बाक़ी थी। उसने दरगाह पर ही रोज़ा खोलने का निश्चय किया।
इक्का ठीक दरगाह के सामने आकर रुका। साईस की बगल से नीचे आते हुए अलिफ़ ने मासूम को संबोधित कर पूछा, ‘‘तुम रोज़ा किस तरह खोलना पसंद करती हो ?’’
‘‘नमक से।’’
‘‘अभी लाया।’’ कहते हुए वह दरगाह की छाया में सजी हुई दुकानों की कतार में दौड़ गया। दोनों बहनें इक्के में ही बैठी रहीं। पलक झपकते ही अलिफ़ चुटकी भर नमक के साथ खजूर की पुड़िया लेकर हाज़िर हो गया।
मासूम ने थर्मस आगे बढ़ाते हुए कहा, ‘‘मैं प्यासी भी हूं।’’
‘‘अभी लाया।’’ भीड़ में वह फिर ग़ायब हो गया।
उसकी हड़बोंग देख लैला हंस दी। फिर कहा, ‘‘लड़का सचमुच ही चलता-फिरता लतीफ़ा है।’’
‘‘मन का उतना ही साफ़ है।’’ मासूम बोली।
अलिफ़ हांफता हुआ लौटा, ‘‘चलो।’’
दोनों बहनों ने एक-दूसरे के चेहरों में देखा।
‘‘कहां ?’’ लैला ने पूछा।
‘‘पहले ज़मीन पर पांव तो धरो !’’
दोनों सोच में पड़ गईं।
‘‘यहीं क़रीब जाना है।’’ अलिफ़ ने बताया।
लैला उतरी तो उसके पीछे मासूम को भी उतरना पड़ा। अलिफ़ आगे-आगे चला। दोनों बहनें उसके पीछें चलीं। पांच-छः दुकानें पार कर वह रुक गया। सामने ढाबा था। बाहर चारपाई बिछी थी। चारपाई पर दस्तरख़्वान बिछा था। उस पर रुमाली रोटी और फिरनी के साथ तीन तरह के सालन और पुलाव भी सजे थे।
मासूम ने दस्तरख़्वान पर से नज़रें उठाकर अलिफ़ के सामने देखा। भोपाल से पधारे एक क़व्वाल की बुलंद आवाज़ दरगाह के भीतर से उभरी। कलाम किसी सूफ़ी संत का था। शाम के झुटपुटे में क़व्वाली का रंग घुलते ही समा और रोमांचक हो उठा।
आज का रोज़ा मासूम कभी भी भूलने वाली नहीं थी।
पत्थर की एक बैठक पर मासूम गोद में टाइपराइटर लिए बारादरी में बैठी थी। फूलों से महकती यह बारादरी नूर महल का एक भाग थी। नूर महल स्वयं हरियाले लॉन और रंग-बिरंगे पुष्पों के केंद्र में था।
मासूम मुसलमान लड़की थी। गोरी चिट्टी, सुडौल, सुशील। बात करती तो मृदुता से, तसलीम करती तो मुस्कुरा कर, चलती तो नज़ाकत से, हंसती तो निर्दोष बालक की तरह।
ये संस्कार, ये कोमलताएं उसे अपनी स्वर्गीय मां से मिली थीं और माँ को लखनऊ के दरबार से। अब न दरबार रहा था न मां रही थी।
टाइप करती हुई उसकी उंगलियां कुछ पलों के लिए रुक गईं। मां ज़रीना बेगम का स्वर्गवास मासूम के जीवन का सबसे बड़ा हादसा था। यह मौत वह कभी भी भूलने वाली नहीं थी।
उस दिन ज़रीना बेगम स्कूल से भली चंगी लौटी थी। (पंचमढ़ी की एक पाठशाला में वह शिक्षिका थी।) कहा जाए तो उसके नख में भी रोग नहीं था। अलबत्ता उमर के साथ शरीर जरूर स्थूल हो गया था, लेकिन उसमें स्फूर्ति इतनी थी कि हर काम वह सपाटे से करती थी। चाहे वह काम बाहर का हो या घर का।
उसी दिन घर में मासूम के विवाह का ज़िक्र छिड़ गया था। बातों-बातों में ज़रीना बेगम को अपने निकाह का दिन याद आ गया। मुँह दिखाई के लिए उसे गठरी की तरह उठाकर सहेलियां दूल्हे मियां के पास ले गईं तब उसे स्पष्ट शब्दों में कहा गया था कि किसी तरह उसका एक पांव दूल्हे को छूना चाहिए।
यह एक प्रतीकात्मक रस्म थी, जिससे यह ज़ाहिर किया जा सके कि भविष्य में दूल्हे मियां को दुल्हन के चरणों का दास बने रहना होगा। ज़रीना ने दूल्हे मियां को पांव छूने के बजाय चुपके से उसकी पसलियों में लात जमा दी थी।
यह किस्सा सुनाते-सुनाते वह इतना हंसी थी कि यकायक उसका दिल बैठ गया। हंसते-हंसते उसका दम निकल गया था। जब सारा पंचमढ़ी उसकी मृत्यु पर शोक मना रहा था, तब उसका मुस्कुराता हुआ चेहरा दुखी मजमे का मज़ाक़ उड़ा रहा था। उसकी बेसाख़्ता हंसी उसके साथ कब्र में दफ़न हुई थी।
मासूम फिर टाइप करने लगी।
वह मुसलमान थी, इसका अर्थ कोई यह न ले कि वह परंपरावादी थी। इसका यश भी उसकी मां को जाता है। मां ने न कभी उस पर बुर्का डाला था, न कभी दबाव। हां, इस बात पर वह अवश्य ज़ोर देती थी कि युवतियों की पोशाकें ऐसी नहीं होनी चाहिए जिससे उनके खुले अंगों का प्रदर्शन हो। इस्लाम के पर्दे का अर्थ उसने यही लिया था। (साड़ी तथा चूड़ीदार में लगभग सारा शरीर ढक जाता है।)
सामान्यतया मासूम चूड़ीदार पहनती थी और ख़ास अवसर पर साड़ी। पर उसकी बड़ी बहन लैला तो उससे भी दो कदम आगे थी। उसने अपनी पोशाक जींस और टी-शर्ट चुनी थी। मां को यह तनिक भी भाता नहीं था। कभी वह टोकती तो लैला उसी का तर्क उसके सामने धर देती, ‘‘इसमें भी तो खुले अंगों की नुमाइश नहीं होती।’’
टाइप करते हुए मासूम को एहसास हुआ—बारादरी की फूलवाड़ी में वह अकेली नहीं थी। कनखियों से उसने देखा तो उसे सिर्फ कैनवास के जूते दिखाई दिए। (जूतों में पाँव भी थे।) उसने नज़रें उठाकर चेहरा देखने की ज़रूरत नहीं समझी। ये जूते कल रात भोपाल से पधारे अतिथि के होंगे ऐसा उसने सोच लिया था। पर वह बोलता क्यों नहीं ? ख़ामोश क्यों खड़ा है ?
‘‘क्या देख रहे हैं, आप ?’’ टाइपिंग का काम जारी रखते हुए उसने कुछ अंतर पर खड़े युवक से प्रश्न किया।
वह चौंका। फिर कहा, ‘‘तुम्हारी नाक !’’
‘‘नाक ?’’
‘‘बिल्कुल वैसी है...’’
‘‘कैसी ?’’
‘आज़ के अख़बार में छपी तस्वीर वाली लड़की जैसी ?’’
‘‘क्या वह आपकी मॉडल थी ?’’
युवक फिर चौंका। यह निर्दोष लगने वाली युवती उसके बारे में शायद सब कुछ जानती थी। यह भी कि वह छायाकार है, नाम है अलिफ़ सैयद। दूसरे पल उसे लगा, इसमें ताज्जुब की बात क्या थी ? नूर महल के खादिम बंदियों और मालियों के क़ाफ़िले को छोड़कर यहां सिर्फ़ तीन शख़्स बसते थे। मासूम, लैला और उनके पिता नवाब नज़ाकत अली ख़ां।
नवाब साहब के निमंत्रण पर वह यहां आया था। स्वाभाविक है कि उनकी दोनों बेटियां उसके विषय में जानकारी रखती हों।
मासूम टाइप कर रही थी और बातें भी। ‘‘आपने मेरे सवाल का जवाब नहीं दिया।’’
‘‘जी !’’
‘‘वह तस्वीर वाली लड़की आपकी मॉडल थी ?’’
‘‘ओह !’’
‘‘लेकिन थी सुंदर। किसी पागलख़ाने से भाग निकली है।’’ अब अलिफ़ की नजर एक बिल्ली पर ठहरी। श्वेत ऊनी गोले की तरह वह मासूम के पांवों के बीच बैठी थी।
‘‘वाह ! वह बोल उठा, ‘‘कैसे छने केश हैं !’’
मासूम समझी, वह बोल उसके अपने लंबे और छने बालों की प्रशंसा में हैं। उसे औपचारिकता की ख़ातिर कहना पड़ा, ‘शुक्रिया !’’
‘‘मैं तुम्हारी बिल्ली के बारे में कह रहा था।’’
‘‘ओह !’’ वह फिर बोली।
‘‘इजिप्ट की है या...’’
मासूम ने टाइपराइटर से कागजात निकाला और उसके सामने बढ़ाते हुए कहा, ‘‘यह है आपका महीने-भर का प्रोग्राम।’’
पहली बार आंखें चार हुईं और बिछड़ गईं।
अलिफ़ ने एक सरसरी नज़र पन्ने पर डालते हुए बताया, ‘‘इस काम के लिए मुझे एक गाइड की ज़रूरत पड़ेगी।’’
‘‘उसका इंतजाम लैला कर देगी।’’
अलिफ़ सिर्फ़ छायाकार नहीं था, अपने फ़न में जाना-माना भी था। सिर्फ़ पच्चीस वर्ष की आयु में उसने जो सिद्धि हासिल की थी, वह भारत के चोटी के फोटोग्राफरों के लिए ईर्ष्या का विषय थी। और नवाब नज़ाकत अली ख़ां को किसी ऐसे छायाकार की ज़रूरत थी, जो उनकी ग़ज़लों के नए संकलन ‘शबाब’ के लिए आधारभूत तस्वीरें खींच सके।
यह उनका अनोखा विचार था। जिस ग़ज़ल की प्रेरणा उन्हें जिस स्थान पर हुई हो उस स्थान की तस्वीर उसी ग़ज़ल के सामने वाले पन्ने पर छपे। यानी कि एक तरफ़ ग़ज़ल, दूसरी तरफ़ तस्वीर।
नज़ाकत अली ख़ां का प्रकाशक भोपाल में था। उसी ने अपनी पसंद अलिफ़ पर उतारी थी। पूरा एक महीना नूर महल में रहकर अलिफ़ पंचमढ़ी का सौंदर्य अपने कमरे में कैद करने वाला था।
आज दूसरा दिन था। घूमने के लिए एक इक्के का प्रबंध हो चुका था। साईस तड़के ही इक्का लेकर आ पहुँचा था। अलिफ़ छायाकारी के साधनों की पेटी के साथ आया और साईस की बगल में बैठकर टाइप-कार्यक्रम की सूची ग़ौर से देखने लगा। आज प्रागैतिहासिक गुफाओं तथा उनके भित्ति-चित्र खींचने का कार्यक्रम प्रमुख था।
नूर महल के प्रवेश द्वार से लैला को नीली जींस, गुलाबी टी-शर्ट और वैसे ही रंग के स्कार्फ में आती देख वह पल भर देखता रह गया। सहज ही उसे विचार आया। दोनों बहनों ने एक ही छत तले परवरिश पाई थी, फिर भी दोनों के बीच कितना अंतर था ! एक पूरब के संस्कार की प्रतीक थी दूसरी पश्चिम के।
‘‘गाइड अब तक नहीं आया।’’ उसके पास आने पर अलिफ़ ने कहा।
‘‘और आएगा भी नहीं।’’ लैला ने बताया, ‘‘यह टूरिस्ट सीजन है। तुम्हें ऐतराज न हो तो....’’
वह स्वयं गाइड बनकर उसके साथ आना चाहती थी यह जानकर अलिफ़ पशोपेश में पड़ गया। यह स्वच्छंद युवती कहीं उसके काम में सहायक होने के बजाए बाधा न बन जाए ! दूसरा कोई उपाय भी नहीं था। पंचमढ़ी के भूगोल से वह परिचित नहीं था।
वह कुछ उत्तर दे इससे पहले लैला की दृष्टि मासूम पर ठहरी। बारादरी के फूल-पौधों को पानी देकर वह अभी-अभी बाहर निकली थी। उसका ध्यान भी इस ओर न था।
लैला ने उसे आवाज़ दी। वह क़रीब आई तो कहा, ‘‘चढ़ जाओ !’’
वह चौंकी, ‘‘मैं ?’’
और कौन ?’’
‘‘मैं तो आ ही नहीं सकती आपा।’’ कहते हुए उसने कारण बताया। ‘‘आज मेरा रोज़ा है।’’
‘‘तो क्या हुआ। क्यों रोजो़ रखकर अम्मी जान स्कूल नहीं जाती थीं ? काम काज नहीं करती थीं ?’’
अलिफ़ बुदबुदाया, ‘‘एक गाइड मेरे लिए क़ाफी़ है।’’
‘‘वह तो सच लेकिन--’’अलिफ़ से कहते हुए वह बहन की तरफ़ मुड़ी, ‘‘मैं अकेली किसी जवान के साथ कैसे जा सकती हूं !’’ उसने इतनी गंभीरता से कहा कि मासूम सोच में प़ड़ गई।
लैला ने ढकेलकर पहले उसे इक्के पर चढ़ाया और फिर खुद भी चढ़ गई। ‘‘ओह गॉड !’’ फिर स्वगत बड़बड़ाई, ‘‘क्या होगा इस लड़की का, शादी के बाद ?’’
‘‘क्या...!’’ साईस की बगल में बैठा अलिफ़ पूछना चाहता था कि मासूम का ब्याह तय हो चुका है और झटके के साथ इक्का चल पड़ा। बाक़ी जुमला अधर में लटका रह गया।
दोनों बहनें उसकी ओर पीठ किए पीछे के भाग में बैठी थीं। घोड़ा दुलकी चाल चल रहा था। न अधिक धीमी, न अधिक तेज़।
‘‘वह इमारत स्कूल की है जहां हमारी अम्मी टीचर थीं।’’ लैला थोड़ा मुड़कर अलिफ़ को बिना मांगी जानकारी दे रही थी, ‘‘और वहां, उन पेड़ों के झुरमुट के पीछे चर्च है। अंग्रेजों ने अपने दौर में बनवाया था।’’
सरपट जाते इक्के से अलिफ़ कभी दाहिनी तरफ देखता था तो कभी बाईं तरफ़। ‘‘वह क्या है ?’’ आगे दो कंगूरे दिखाई देने पर उसने पूछा।
‘‘दरगाह। और उसके पीछे क़ब्रिस्तान भी है।’’ लैला ने बताया, ‘‘लौटते वक्त वहां रुकेंगे।’’
घंटे भर बाद घोड़ा रुका, तब तक सूरज की किरणें सूइयां बन चुकी थीं। अभी तीस मिनट का पैदल सफ़र बाक़ी था। इक्के से उतरकर तीनों आगे बढ़े। बीहड़ों से गुजरते हुए चंद पलों में ही अलिफ़ के माथे से पसीना चूने लगा।
मौसम के अलावा इसकी दूसरी वजह यह थी कि उसके साथ बोझ था। गले से झूलता कैमरा इतना भारी न था, पर उसके लैंसीस और ज़रूरी साधनों से भरी पेटी काफ़ी वज़नी थी।
‘‘तुम दोनों बहनें हो।’’ प्रवास की पीड़ा को भुलाने के प्रयास में अलिफ़ ने कहा, ‘‘फिर भी इस हक़ीक़त को स्वीकार करना ज़रा मुश्किल है।’’
‘‘क्यों ?’’ लैला ने पूछा।
‘‘मासूम ख़ामोशी-पसंद है, जबकि तुम पल-भर भी शांत नहीं बैठ सकतीं।’’ वह दोनों बहनों की पोशाकों और लहजे के बारे में भी भेद बताना चाहता था।
‘‘इसकी वजह है।’’ लैला ने बीच में कहा, ‘‘मुझ पर अंग्रेजी साहित्य का प्रभाव है जबकि मासूम पर दीनी अदब का।’’
झाड़ी-झंखारों से रास्ता बनाते हुए तीनों जने प्रागैतिहासिक गुफाओं तक पहुंचे, तब तक लैला भी अधमरी-सी हो चुकी थी। उसी ने मासूम के कंधे पर से पानी का थर्मस झपटा और मुंह में उंडेला। थर्मस आधा हो इससे पहले मासूम ने उसे रोका। फिर इशारे से मेहमान की ओर संकेत किया।
‘‘सॉरी।’’ कहते हुए उसने अलिफ़ की ओर थर्मस बढ़ाया। वैसे भी उसकी प्यास बुझ चुकी थी।
अलिफ़ ने कुछ घूंट लेकर थर्मस मासूम को थमाया। उसने थर्मस बंद कर वापस कंधे से लटका दिया।
‘‘क्यों !’’ अलिफ़ को आश्चर्य हुआ, ‘‘तुम्हें प्यास नहीं लगी ?’’
‘‘आज मेरा रोज़ा है।’’ उसने याद दिलाया।
अलिफ़ एकटक देखता रहा। दोनों बहनों के बीच एक फर्क था। मासूम की सहनशक्ति प्रशंसा के क़ाबिल थी।
यहाँ एक बात का सुकून था। ये गुफाएं ऊंचाई पर होने के कारण हवा शीतल थी। दूसरे, यहां पेड़ों की छाया भी थी। अलिफ़ तल्लीन होकर वादियों में देख रहा था। लैला ने एक पेड़ की छांव में बैठते हुए उसे टोका, ‘‘मिस्टर, हमें वापस भी जाना है।’’
‘‘अलिफ़ ने कैमरा खोलते हुए उसकी तरफ़ देखा। वह अब भी थकी-हारी लग रही थी। यह मासूम ने भी नोट किया। वह अलिफ़ के साथ हो ली।
‘‘क्या मैं जान सकता हूं...’’ गुफाओं की ओर बढ़ते हुए अलिफ़ ने पूछा, ‘‘यहां नवाब साहब पर कौन-सी ग़ज़ल उतरी थी ?’’
‘‘क्यों ?’’
‘इसलिए कि जो तस्वीरें मैं खींचूंगा वह उसी ग़ज़ल के साथ छपेगी।’’ मासूम अभी भी नहीं समझी, ‘‘तो ?’’
‘‘मेरी तस्वीर गज़ल का दूसरा रूप होनी चाहिए।’’ अलिफ़ ने स्पष्ट किया, ‘‘उसमें वही भाव होने जरूरी हैं, जो ग़ज़ल में हों। बल्कि मेरी कोशिश यह रहेगी कि पाठक ग़ज़ल और तस्वीर को आमने-सामने देखकर यह सोच न सकें कि किसने किससे प्रेरणा ली होगी ? अब तुम ही कहो, ग़ज़ल को जाने बग़ैर में तस्वीरें कैसे लूँ ?’’
छायाकार विषय की थाह पाने के लिए अपने काम में इतने गहरे उतरते होंगे, यह तो मासूम ने स्वप्न में भी सोचा नहीं था। उसने अलिफ़ की तरफ सम्मानपूर्वक देखा। उसकी निष्ठा, उसके सोचने के ढंग से वह प्रभावित हुई।
जब उसे ग़ज़ल सुनाई तो अलिफ़ बौखला गया।
‘‘मेरी समझ में यह नहीं आता कि श्रृंगार रस से सराबोर नवाब साहब की इस ग़ज़ल से इन गुफाओं का क्या संबंध हो सकता है ?’’ वह बोल उठा, ‘‘अब यह मिसरा ही लो—इतना शफ़्फ़ाफ है तेरा चेहरा, आईने झिलमिलाने लगते हैं पर...न यहां आईने हैं, न साफ चेहरा।’’
इतना कहते ही उसके मस्तिष्क में कुलबुलाहट हुई। आईने-सा शफ़्फ़ाफ चेहरा तो उसके सामने था। मुमकिन है उस वक़्त भी नवाब साहब के साथ मासूम मौजूद हो और उसके चेहरे में उन्होंने अपनी स्वर्गीय बेगम का झिलमिलाता हुआ सुंदर प्रतिबिंब देखा हो !
मासूम कुछ जवाब सोचे इससे पहले वह मुस्कुरा दिया...उसकी समस्या का समाधान हो गया था। मासूम को केन्द्र में रखकर तुरंत उसने तस्वीरें खींचना शुरू कर दिया।
‘‘युद्ध का यह भित्ति-चित्र दस हज़ार साल पुराना है।’’ गुफा की दीवार की ओर इशारा करते हुए मासूम बोली। अलिफ़ ने कैमरा फोकस कर बटन दबाया। उस एक ही रेखाचित्र की दो तरफ तस्वीरें अलग-अलग ऐंगल से लेकर वह दूसरी दीवार की ओर मुड़ा।
‘‘यह प्रेम का दृश्य तो नहीं ?’’
‘‘जी नहीं, यह द्वंद्व है।’’
‘‘यानी कि दृश्य प्रेम का मगर शादी के बाद।’’ कैमरे का बटन दबाते हुए उसने व्यंग्य किया।
अलिफ़ ने पलटकर देखा। ऐसी मधुर, सोंधी-सोंधी महकवाली मुस्कान आज से पहले उसने कभी न देखी थी। उसका जी चाहा कि उस निर्दोष मुस्कान को भी वह अपने कैमरे में बंद कर ले। फिर यह सोचकर रुक गया कि कहीं उसके नेक इरादे का ये बहनें अनर्थ न लगा लें।
सूरज ढलने से पहले वे इक्के में बैठ गए। मासूम चाहती थी कि घर पहुंचकर वह ढंग से रोज़ा खोले। पर अब उतना समय बचा न था। दूसरे, मूल कार्यक्रम के अनुसार अभी दरगाह देखनी बाक़ी थी। उसने दरगाह पर ही रोज़ा खोलने का निश्चय किया।
इक्का ठीक दरगाह के सामने आकर रुका। साईस की बगल से नीचे आते हुए अलिफ़ ने मासूम को संबोधित कर पूछा, ‘‘तुम रोज़ा किस तरह खोलना पसंद करती हो ?’’
‘‘नमक से।’’
‘‘अभी लाया।’’ कहते हुए वह दरगाह की छाया में सजी हुई दुकानों की कतार में दौड़ गया। दोनों बहनें इक्के में ही बैठी रहीं। पलक झपकते ही अलिफ़ चुटकी भर नमक के साथ खजूर की पुड़िया लेकर हाज़िर हो गया।
मासूम ने थर्मस आगे बढ़ाते हुए कहा, ‘‘मैं प्यासी भी हूं।’’
‘‘अभी लाया।’’ भीड़ में वह फिर ग़ायब हो गया।
उसकी हड़बोंग देख लैला हंस दी। फिर कहा, ‘‘लड़का सचमुच ही चलता-फिरता लतीफ़ा है।’’
‘‘मन का उतना ही साफ़ है।’’ मासूम बोली।
अलिफ़ हांफता हुआ लौटा, ‘‘चलो।’’
दोनों बहनों ने एक-दूसरे के चेहरों में देखा।
‘‘कहां ?’’ लैला ने पूछा।
‘‘पहले ज़मीन पर पांव तो धरो !’’
दोनों सोच में पड़ गईं।
‘‘यहीं क़रीब जाना है।’’ अलिफ़ ने बताया।
लैला उतरी तो उसके पीछे मासूम को भी उतरना पड़ा। अलिफ़ आगे-आगे चला। दोनों बहनें उसके पीछें चलीं। पांच-छः दुकानें पार कर वह रुक गया। सामने ढाबा था। बाहर चारपाई बिछी थी। चारपाई पर दस्तरख़्वान बिछा था। उस पर रुमाली रोटी और फिरनी के साथ तीन तरह के सालन और पुलाव भी सजे थे।
मासूम ने दस्तरख़्वान पर से नज़रें उठाकर अलिफ़ के सामने देखा। भोपाल से पधारे एक क़व्वाल की बुलंद आवाज़ दरगाह के भीतर से उभरी। कलाम किसी सूफ़ी संत का था। शाम के झुटपुटे में क़व्वाली का रंग घुलते ही समा और रोमांचक हो उठा।
आज का रोज़ा मासूम कभी भी भूलने वाली नहीं थी।
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