कहानी संग्रह >> कारावास कारावासउषा वर्मा
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मनुष्य जीवन की विडंबनाओं, विषमताओं, त्रासदियों एवं पाखंड को उजागर करता रोचक व पठनीय कहानी संग्रह...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
मुझे देखकर वह एकदम सकपका गई। मेरी निगाह उठी-उनके पीछे बाहर
बकरी के बच्चे का सिर खून से लथपथ छटपटा रहा था। मेरे हाथों से स्टील का डिब्बा छूटकर झनझनाता हुआ दूर जा गिरा। मेरी आवाज फँस गई, हाथ काँपने लगे।
शर्ली कई बार बोलीं, ‘‘यह कॉस्ट इफेक्टिव नहीं था, यह कॉस्ट इफेक्टिव नहीं है।’’
‘‘शर्ली, तुमने ऐसा क्यों किया ? तुम अहिंसा की पक्षधर...!’’ मेरी आवाज में एक तल्खी थी, कातरता थी।
‘‘पर, तुम्हें इतना खराब क्यों लग रहा है ? तुम्हारे यहाँ तो सब नाँनवेज खाते हैं।’’ शर्ली ने अपना बचाव किया।
‘‘हाँ, पर इस तरह तुरन्त जनमे बच्चे को तुमने बिना वजह इस तरह निर्दयता से क्यों मार दिया ? वह जिंदा रह सकता था।’’ मैंने अपना लचर तर्क दिया।
‘‘हाँ, रह तो सकता था, पर उसे खिलाना पड़ता और वह दूध नहीं देता। फिर शायद तुम्हें नहीं मालूम कि इंग्लैंड में बकरे का मांस नहीं खाते। वह कॉस्ट इफेक्टिव नहीं होता, मैं क्या कर सकती हूँ !’’
शर्ली की आवाज में अकड़ थी या लाचारी, मैं नहीं जानती (लेकिन चेहरे पर पश्चात्ताप या दु:ख की छाया भी नहीं थी)। ‘कॉस्ट इफेक्टिव’ शब्द नगाड़े की तरह मेरे कानों में बज रहा था।
शर्ली कुछ झेंपती-सी बोलीं, ‘‘आओ अंदर बैठो। अब सब काम हो गया।’’
मैं अपने को सँभालते हुए उलटे पैर गाड़ी में आकर बैठ गई।
शर्ली कई बार बोलीं, ‘‘यह कॉस्ट इफेक्टिव नहीं था, यह कॉस्ट इफेक्टिव नहीं है।’’
‘‘शर्ली, तुमने ऐसा क्यों किया ? तुम अहिंसा की पक्षधर...!’’ मेरी आवाज में एक तल्खी थी, कातरता थी।
‘‘पर, तुम्हें इतना खराब क्यों लग रहा है ? तुम्हारे यहाँ तो सब नाँनवेज खाते हैं।’’ शर्ली ने अपना बचाव किया।
‘‘हाँ, पर इस तरह तुरन्त जनमे बच्चे को तुमने बिना वजह इस तरह निर्दयता से क्यों मार दिया ? वह जिंदा रह सकता था।’’ मैंने अपना लचर तर्क दिया।
‘‘हाँ, रह तो सकता था, पर उसे खिलाना पड़ता और वह दूध नहीं देता। फिर शायद तुम्हें नहीं मालूम कि इंग्लैंड में बकरे का मांस नहीं खाते। वह कॉस्ट इफेक्टिव नहीं होता, मैं क्या कर सकती हूँ !’’
शर्ली की आवाज में अकड़ थी या लाचारी, मैं नहीं जानती (लेकिन चेहरे पर पश्चात्ताप या दु:ख की छाया भी नहीं थी)। ‘कॉस्ट इफेक्टिव’ शब्द नगाड़े की तरह मेरे कानों में बज रहा था।
शर्ली कुछ झेंपती-सी बोलीं, ‘‘आओ अंदर बैठो। अब सब काम हो गया।’’
मैं अपने को सँभालते हुए उलटे पैर गाड़ी में आकर बैठ गई।
इसी कहानी संग्रह से
मनुष्य जीवन की विडंबनाओं, विषमताओं, त्रासदियों एवं पाखंड को उजागर करता
रोचक व पठनीय कहानी संग्रह।
भूमिका : कहानी की जमीन
कहानी की जमीन क्या है, इसे समझने का मेरा प्रयास ही निरंतर मुझसे कुछ
लिखवाता जा रहा है। मेरा ऐसा सोचना भी नहीं है कि मैंने इस विधा के बारे
में सबकुछ समझ लिया है। इन कहानियों में मैंने जो कुछ भी लिखा है, वह तो
कहानी की संपदा है, उसकी बात मैं नहीं कर रही हूँ। मैं तो आपके सामने जो
मैंने समझा है, उसी को रख रही हूँ; क्योंकि इस इच्छा ने मुझे बहुत भटकाया
है और अभी भी यह भटकना समाप्त नहीं हुआ है। कहानी की जमीन मेरे लिए वही
है, जहाँ मैं खड़ी थी और खड़ी हूँ। जरूरत उस सहज दृष्टि की है, जो अपने
चारो तरफ दूर-दूर देख सके, सुन सके और चेतना के स्तर पर महसूस कर सके।
कहानी अब घटना पर निर्भर नहीं करती, बल्कि उसके प्रभाव पर-जो चेतना के
स्तर पर छा जाती है-निर्भर करती है और फिर कैसे हम उसे परत-दर-परत खोल
पाते हैं, यह कलाकार की कुशलता पर निर्भर करता है। चेतना के स्तर पर कितने
अनुभव विवादी स्वर की तरह लगते हैं, पर वही अनुभव जब रचना प्रक्रिया से
गुजरते हैं तब विवादी स्वर न रहकर चेतना के आकाश में स्वरों का ऐसा समाँ
बाँध देते हैं कि हम चकित रह जाते हैं। कहानी पर कथानक का आधार न रहकर वह
पाठक और उससे भी आगे पाठ पर हो गया, तब मेरे मन में एक सवाल उठता है, मैं
किसके लिए लिखती हूँ-अपने लिए, पाठकों के लिए या पाठ के लिए ? विश्वास के
साथ कह सकती हूँ कि अपने लिए, यदि मैं कहूँ पाठक के लिए तो यह माँग और
माँगपूर्ति का सवाल खड़ा कर देती है। मेरी मुक्ति कहाँ रह जाती है ? फिर
तो वह बाजारवाद के दलदल में फँसकर रह जाएगी और अगर यह कहूँ कि पाठ के लिए
तो वह थोड़े लोगों के लिए होगी, जो इसे बेशक ध्यान से पढ़ेंगे और इसका
मूल्य निर्धारित करेंगे। लेकिन एक विकल्प है। मैं लिखूँ और पाठक अपनी पसंद
से उसे चुनकर पढ़ें। कुछ ही कहानियों के बाद आपके पाठक बता देंगे कि
उन्हें क्या अच्छा लगा। ‘रॉनी’, ‘कॉस्ट
इफेक्टिव’, ‘अमालिया’, ‘उसकी
जमीन’,
‘कारावास’ तथा ‘मंजूर अली’ कहानी
के लिए मुझे जो
पाठकों के पत्र मिले, उनसे मुझे इस बात का विश्वास हो गया कि मैं अपने
पाठकों से भावनात्मक स्तर पर जुड़ रही हूँ। फिर तो कहानीकार सहयात्री बनकर
नई-नई दिशाओं को खोजने का साहस कर पाता है। अनुभव की नई—नई
परतें
खोलता है। यह कहानी के सक्रिय होने का एक धरातल है। अलोचना, पाठ,
पुनर्पाठ-इन सभी धरातलों पर कहानी सक्रिय होती है। एक शंका और होती है कि
पाठ तो सबके अपने दृष्टिकोण पर है और यदि ऐसा है तो कहानी में एक सूत्र तो
जरूर होगा, पर उसमें प्रभाव बिखर भी सकते हैं। इसे क्या बहु-कोणवाली कहानी
का श्रेय नहीं मिलेगा ?
किसके लिए लिखा जाता है, इससे जुड़ा एक और सवाल सिर उठाता है-कहानी की लोकप्रियता। यहां यशपाल जी ने ‘नई कहानियाँ’ के एक अंक में लिखा है- ‘‘ऐसा भी तो साहित्य हो सकता है, जो केवल अप्राप्त काल्पनिक सुख की रसानुभूति के बजाय सर्वसाधारण की परिचित अनुभूतियों के आधार पर संभव सुख प्राप्त करने के विषय में बात करे। ऐसे साहित्य में सर्वसाधारण का मनोरंजन क्यों नहीं होगा ?’’ एक ही कहानी एक पाठक के लिए किसी समय विशेष में बहुत अच्छी हो सकती है और किसी और समय में उबाऊ या बेहद दबाव डालनेवाली। साथ-ही-साथ यह भी सच है कि जीवन की टेपेस्ट्री में इतने रंग होते हैं कि कब कौन सा रंग हमें भरपूर निगाह से देखने को बुला लेगा, यह हमें खुद ही नहीं मालूम।
यदि कहीं आप विदेश में बस गए हैं तो आपके स्थापित संस्कार विदेशी संस्कारों से जरूर टकराएँगे। हो सकता है आप अपने पात्रों से कहलवाना कुछ और चाहते हैं और वे कहते कुछ और हैं। ऐसे पात्र हठी होते हैं और कहीं-न-कहीं आपके अचेतन में छिपे रहते हैं। 70-80 के दशक में एशिया से आनेवाले लोगों के जीवन में गहरी उथल-पुथल हुई। कितने लोगों को अपनी योग्यता के अनुसार नौकरियाँ नहीं मिलीं, उनके लेखन में कुंठा जरूर होगी, कुछ ने जीवन जैसा था वैसा ही स्वीकार कर लिया, कुछ का मन इन सब बातों से अलग अपने बिछड़े हुए वृत्त में ही घूमता रहा। कुछ कहानियों में यह आवाजाही लगी रही। मुझे सबसे अधिक भटकाया है नारों ने। तरह-तरह के नारों को चुपचाप सुनकर अपना काम करना ही ठीक रहता है, पर उसका एक फायदा भी हुआ कि मैंने पढ़ा काफी। हां, लेखन छूटा ही रहा। यहाँ से लेकर भारत तक लोगों की अपेक्षा है कि आप जहाँ रहते हैं वहाँ के बारे में लिखिए। कभी-कभी तो ऐसा एहसास दिलाते हैं कि हमें भारत के बारे में लिखने का अधिकार ही नहीं है। वहाँ के बारे में हम जानना चाहते हैं। कहानी क्या सूचना ही है ? कहानी को यह अधिकार है कि उसकी गुणवत्ता पर ही उसे जाँचा जाए। जीवन के उस विपुल अनुभव को, जो दिल और दिमाग में ही पूरी तरह रच-बस गए हैं, उन्हें नकारकर थोड़े समय से जहाँ रह रहे हैं, वहीं के बारे में लिखिए। जो भीतर है, जब वह आकार लेता है तो वही संस्कार बनता है। संस्कार मूल्यों में भीतर उतारना है। जाने-अनजाने कितनी ही स्मृतियाँ, घटनाएँ तपती दोपहर में ठंडी बयार की तरह हमें छूकर निकल जाती हैं, जो हमारी रचना में छद्म-वेश में आ-आकर हमसे क्या-क्या लिखवा ले जाती हैं। इसका लेखा-जोखा कब किसने रखा है ? ‘‘ज्ञान का एक स्वभाव भी है कि ज्ञान आप जितना भी प्राप्त करें अज्ञान का दायरा बढ़ता ही जाता है।’’ अत: अभी तो अज्ञान-ही-अज्ञान है, आगे पता नहीं।
और अंत में मेरी साहित्यिक-यात्रा में कुछ लोगों के ऋण से मैं कभी उबर नहीं सकती। मेरी बहन चित्रा को मेरी हर रचना सुनने का उबाऊ तथा निहायत बेकार काम करना पड़ता है। महेंद्र के बिना तो यह सबकुछ भी संभव नहीं था। डॉ. गंगा प्रसाद विमल ने इस पुस्तक की भूमिका लिखने का मेरा अनुरोध स्वीकार किया, जिसके लिए मैं हृदय से उनका आभार मानती हूँ। कमलेश्वरजी आज नहीं हैं, शायद यह कहना यहाँ उचित होगा कि कहानी की दीक्षा और समझ मैंने उन्हीं से ली। लंदन में कीर्ति चौधरी तथा डॉ. गौतम सचदेव से कभी-कभी कहानी विधा पर बात हुई है। तेजिंदर शर्मा ने मुझे कम्प्यूटर की समस्याओं से भी जूझने में सदैव सहायता की है। इन सभी को मेरा धन्यवाद। पुस्तक के बारे में पाठक मुझे बताएँगे। आसा है कि उन्हें पसंद आएगी।
किसके लिए लिखा जाता है, इससे जुड़ा एक और सवाल सिर उठाता है-कहानी की लोकप्रियता। यहां यशपाल जी ने ‘नई कहानियाँ’ के एक अंक में लिखा है- ‘‘ऐसा भी तो साहित्य हो सकता है, जो केवल अप्राप्त काल्पनिक सुख की रसानुभूति के बजाय सर्वसाधारण की परिचित अनुभूतियों के आधार पर संभव सुख प्राप्त करने के विषय में बात करे। ऐसे साहित्य में सर्वसाधारण का मनोरंजन क्यों नहीं होगा ?’’ एक ही कहानी एक पाठक के लिए किसी समय विशेष में बहुत अच्छी हो सकती है और किसी और समय में उबाऊ या बेहद दबाव डालनेवाली। साथ-ही-साथ यह भी सच है कि जीवन की टेपेस्ट्री में इतने रंग होते हैं कि कब कौन सा रंग हमें भरपूर निगाह से देखने को बुला लेगा, यह हमें खुद ही नहीं मालूम।
यदि कहीं आप विदेश में बस गए हैं तो आपके स्थापित संस्कार विदेशी संस्कारों से जरूर टकराएँगे। हो सकता है आप अपने पात्रों से कहलवाना कुछ और चाहते हैं और वे कहते कुछ और हैं। ऐसे पात्र हठी होते हैं और कहीं-न-कहीं आपके अचेतन में छिपे रहते हैं। 70-80 के दशक में एशिया से आनेवाले लोगों के जीवन में गहरी उथल-पुथल हुई। कितने लोगों को अपनी योग्यता के अनुसार नौकरियाँ नहीं मिलीं, उनके लेखन में कुंठा जरूर होगी, कुछ ने जीवन जैसा था वैसा ही स्वीकार कर लिया, कुछ का मन इन सब बातों से अलग अपने बिछड़े हुए वृत्त में ही घूमता रहा। कुछ कहानियों में यह आवाजाही लगी रही। मुझे सबसे अधिक भटकाया है नारों ने। तरह-तरह के नारों को चुपचाप सुनकर अपना काम करना ही ठीक रहता है, पर उसका एक फायदा भी हुआ कि मैंने पढ़ा काफी। हां, लेखन छूटा ही रहा। यहाँ से लेकर भारत तक लोगों की अपेक्षा है कि आप जहाँ रहते हैं वहाँ के बारे में लिखिए। कभी-कभी तो ऐसा एहसास दिलाते हैं कि हमें भारत के बारे में लिखने का अधिकार ही नहीं है। वहाँ के बारे में हम जानना चाहते हैं। कहानी क्या सूचना ही है ? कहानी को यह अधिकार है कि उसकी गुणवत्ता पर ही उसे जाँचा जाए। जीवन के उस विपुल अनुभव को, जो दिल और दिमाग में ही पूरी तरह रच-बस गए हैं, उन्हें नकारकर थोड़े समय से जहाँ रह रहे हैं, वहीं के बारे में लिखिए। जो भीतर है, जब वह आकार लेता है तो वही संस्कार बनता है। संस्कार मूल्यों में भीतर उतारना है। जाने-अनजाने कितनी ही स्मृतियाँ, घटनाएँ तपती दोपहर में ठंडी बयार की तरह हमें छूकर निकल जाती हैं, जो हमारी रचना में छद्म-वेश में आ-आकर हमसे क्या-क्या लिखवा ले जाती हैं। इसका लेखा-जोखा कब किसने रखा है ? ‘‘ज्ञान का एक स्वभाव भी है कि ज्ञान आप जितना भी प्राप्त करें अज्ञान का दायरा बढ़ता ही जाता है।’’ अत: अभी तो अज्ञान-ही-अज्ञान है, आगे पता नहीं।
और अंत में मेरी साहित्यिक-यात्रा में कुछ लोगों के ऋण से मैं कभी उबर नहीं सकती। मेरी बहन चित्रा को मेरी हर रचना सुनने का उबाऊ तथा निहायत बेकार काम करना पड़ता है। महेंद्र के बिना तो यह सबकुछ भी संभव नहीं था। डॉ. गंगा प्रसाद विमल ने इस पुस्तक की भूमिका लिखने का मेरा अनुरोध स्वीकार किया, जिसके लिए मैं हृदय से उनका आभार मानती हूँ। कमलेश्वरजी आज नहीं हैं, शायद यह कहना यहाँ उचित होगा कि कहानी की दीक्षा और समझ मैंने उन्हीं से ली। लंदन में कीर्ति चौधरी तथा डॉ. गौतम सचदेव से कभी-कभी कहानी विधा पर बात हुई है। तेजिंदर शर्मा ने मुझे कम्प्यूटर की समस्याओं से भी जूझने में सदैव सहायता की है। इन सभी को मेरा धन्यवाद। पुस्तक के बारे में पाठक मुझे बताएँगे। आसा है कि उन्हें पसंद आएगी।
उषा वर्मा
पुरोवाक्
भारतेतर हिन्दी लेखन की सुदृढ़ परंपरा का एहसास अब साहित्य-रसिकों को होने
लगा है। खासतौर से पिछले कुछ दशकों से ब्रिटेन में हिंदी लेखन की अनेक
गतिविधियों ने अपनी एक अलग पहचान बनानी शुरू की है। भावी हिंदी साहित्य का
इतिहास महादेशों में हिंदी लेखन की परंपराओं का जब उल्लेख करेगा, तब
ब्रिटेन की इस नई परंपरा को अलग से रेखांकित करने की आवश्यकता होगी, इसलिए
भी कि विश्व के अनेक देशों में हिन्दी लेखन की गतिविधियों में बढ़ोतरी हुई
है। यह मात्र कुछ उत्साही लेखकों का कमाल नहीं है, अपितु इसका सीधा संबंध
नए भारत के उदय से है। वह नया भारत अपने सांस्कृतिक विस्तार और अपनी
सांस्कृतिक जड़ों के साथ भारतेतर हिंदी लेखकों के मनोलोक में आस्तित्ववान्
है। भारतीय और भारतेतर संस्कृतिकर्मियों ने उदार होकर भाषाओं के साहित्य
का प्रयोजनपरक उपयोग किया है। ऐसे प्रयोगों को पर्याप्त लोक-समर्थन और
लोकप्रियता हासिल हुई है, किंतु प्रयोगों की परिपूर्णता उस हिंदी लेखन को
हासिल हुई है, जिसकी नई परंपरा में नए भारत का बिंब सुरक्षित है। आज
स्वीकार करना पड़ेगा कि भारतेतर नए हिंदी लेखकों ने जहाँ हिन्दी की
पारंपरिक उपलब्धियों के आदर्शों को अपनी दृष्टि से परे नहीं होने दिया,
वहीं उन्होंने ने नई उपलब्धियों के रूप में नई भाषा के गठन का प्रचलन आरंभ
किया और साहित्य विधाओं को नए प्रयोगों से संपन्न करना जारी रखा।
ब्रिटेन की हिंदी कथा परंपरा में अनेक कथाकारों के योगदान की चर्चा के बीच कुछेक महत्त्वपूर्ण कथाकारों में उषा वर्मा अग्रणी कहानी लेखिका हैं। उनकी कहानियों का यह नया संकलन एक साथ अनेक उल्लेखनीय कहानियाँ पाठकों के सामने प्रस्तुत करता है। उषा वर्मा की कहानियाँ बहुआयामी परतों की कहानियाँ हैं। उनमें हम मनुष्य की परिस्थिति से बनती नियति की जटिल दुनिया से परिचित होते हैं। ‘कारावास’ कहानी देखें तो सीधे-सपाट जीवन की अंतर्धाराओं में अनेकानेक विचित्रताओं का सामना होता है। भारत से चालीस साल से भी पहले विदेश आई यह एक ऐसी महिला चिकित्सक की गाथा है, जो अनाम यातनाओं की गिरफ्त में है। पीछे छूटा संयुक्त परिवार, विदेश में बने मित्रों से विछोह और बेगानेपन के मर्मघाती अनुभव से उपजती अनुभूतियों के समानांतर एक ऐसी दुनिया का खाका है, जिसमें अपनत्व केवल सपने जैसा है। डॉ. अनिला स्वयं एक डॉ. हैं, किंतु वे खुद अब मानसिक व्याधि से त्रस्त हैं और इस मानसिक व्याधि की संपूर्णता से वे परिचित हैं। कुछ ऐसे प्रश्न हैं, जिनकी गाँठे सुलझने में नहीं आतीं। जितना कुरेद-कुरेदकर उन्हें सुलझाने की कोशिश की जाती है, वे उतना ही ज्यादा उलझन भरी हुई दिखाई देती हैं और यहीं से वह तनाव विकसने लगता है, जो मानव अस्तित्व के दूसरे सवालों से जुड़ जाता है। उषा वर्मा ने ‘कारावास’ के जो विवरण दिए हैं, वे दो संस्कृतियों के तनाव से उपजे दिखते हैं तथापि दोनों सांस्कृतिक इकाइयों पर नई सभ्यता से उपजते आचरण-विधान के हमले बराबर होते रहते हैं और मोटे तौर पर वे दोनों इकाइयों के जीवन को प्रभावित करते हैं। इन्हीं प्रभावों के कारण कुछ जटिलताएँ ज्यादा बढ़ जाती हैं। ‘कारावास’ एक प्रतीक कथा की तरह मनुष्य के अस्तित्व में परिव्याप्त जटिलताओं का ‘बंदीगृह’ है। मानसिक उद्विग्नता के बावजूद डॉ. अनिला एक बेहद संवेदनशील व्यक्ति के रूप में तमाम तरह के रचनात्मक कार्यों के प्रति न केवल सक्रिय हैं, बल्कि वे अपने निकट सभी कुछ को, जितना खुद से हो सकता है, प्रतिदान के रूप में कुछ-न-कुछ देने के लिए तत्पर हैं। उनकी अपेक्षा जो खुद से है, वही दूसरे से भी है। ग्रेहम और अनिला एक-दूसरे के पूरक हो सकते थे। भीतर-ही-भीतर दोनों इस आकांक्षा को पाल भी रहे थे, किंतु जिस ढंग के समाज हमने निर्मित कर लिये हैं, उनमें एक-दूसरे पर सबकुछ उड़ेलने का अवसर आता ही नहीं। मोटे तौर पर अति बौद्धिकों के यहाँ मर्यादाओं का एकदम अलग ही संसार है। न अनिला इस बाड़ेबंदी से बाहर आकर उदारतापूर्वक अपनी आकांक्षाओं की सरहदें पार कर पाई और न ग्रेहम, जो एक स्त्री के सामने खुद को माली के स्तर का समझते हुए इस कृत्रिम सरहद को तोड़ पाया।
इस तरह हम आसानी से कह सकते हैं कि ‘कारावास’ कहानी स्व-स्वीकृत अन्यान्य कारावासों का ही संग्रहित रूप है। उषा वर्मा की यह कहानी अपने शिल्पगत शैथिल्य के कारण आलोचनात्मक टिप्पणियाँ आमंत्रित करती है तथापि यह समग्र मनुष्य की गाथा है। लगभग हर विश्व नागरिक किसी-न-किसी रूप में अपने अधिवास से बाहर है। अपनी सांस्कृतिक इकाई का बोझिल संसार ढोने में भी असमर्थ है। असल में, वह परिस्थितियों के ऐसे व्यूह में घिरा है कि उसे बराबर अपने प्रारब्ध, अपनी नियति का ही यह अभिशाप लगता है, जबकि अपनी संपूर्ण बुनावट में ‘कारावास’ एकदम आधुनिक आधारों पर निर्मित कहानी है, वह उन भावुक मूलवासियों के तरह अपने अतीत के प्रति भावुकतापूर्ण ढंग से सबकुछ पर पिछड़ेपन का आधारहीन आरोप नहीं जड़ती और ऐसे कुछ प्रसंग हैं, जो सिद्ध करते हैं कि अकेलापन अकेले औद्योगिकीकरण की उपज नहीं है, बल्कि वह प्रकृति से आदमी के संबंधोच्छेदन से जुड़ा मनोरोगीय आधार हैं। उसके उपचार की सैद्धांतिक एवं व्यावहारिक विधियाँ अब मनुष्यजाति के पास उपलब्ध हैं।
उषा वर्मा की कहानियों की दुनिया केवल भारतीय मनुष्य के विदेशी वातावरण में संक्रमित स्थितियों के अनुभवों तक सीमित नहीं है। इस अर्थ में वे केवल उस संत्रास की गाथा भी नहीं हैं, जो छज्जू के चौबारे की याद में उभरकर शेष जीवन दूभर कर डालती हैं। विस्थापित मानसिकता का वह पहलू हमेशा दर्दनाक टीस बनकर सालता है, जब हम अपने अतीत के गौरव में बहुधा तर्कहीन ढंग से भावुक और गौरवान्वित होते हैं। इसकी तुलना में उषा वर्मा ने, सांकेतिक रूप में ही सही, भारतीय मनुष्य की संघर्षशीलता, विपरीत परिस्थितियों को अनुकूल बनाने की रचनात्मकता और भारतीय मनोलोक में निवसित न्यायप्रियता के बिंदुओं को अपनी कथा के विषयों के साथ जोड़ा है। उसकी कहानी ‘कास्ट इफेक्टिव’ व ‘रौनी’ दो ऐसे उदाहरण हैं, जिनमें हम भारतीय मनोलोक के द्वंद्व को बहुत पारदर्शी ढंग से अभिव्यक्त होते देखते हैं। इन दोनों कहानियों पर कथा के मौलिक प्रारूप को लेकर तो बहस की जा सकती है, किंतु किसी भी अर्थ में एक सीमित विचारणा की कहानी नहीं माना जा सकता। इन दोनों कहानियों में बहुत बेबाकी से नई बनती दुनिया की हलचलें दिखाई हैं। दोनों में वे एक साहसिक निर्णयों पर पहुँचती हैं। ‘कास्ट इफेक्टिव’ में हिंसा और विश्व बाजार के मुहानों पर युद्धरत दिखाई देती हैं। विश्व बाजार में जिस उत्पाद से व्यापक आर्थिक क्षति नहीं हो रही है, उसका अस्तित्व या अनस्तित्व नैतिकता और हिंसा का मामला है ही नहीं। आज नई बाजारू नैतिकता का यह महत्त्म पाठ पहली बार एक छोटी सी कहानी में अभिव्यक्त होता है। ठीक वैसा ही प्रकरण ‘रौनी’ की कथा में है, जिसमें एक भूरा (या काला) किशोर गोरी मानसिकता से प्रताड़ित होता है। यह प्रताड़ना एक व्यापक घृणा और प्रतिहिंसा का हिस्सा है। गोरों के मुल्क में इसपर बात करना असंभव है, किंतु उषा वर्मा ने अतिरिक्त सजगता से उस दुरभिसंधि का भंडाफोड़ किया है, जिसमें काला किशोर चोर, उचक्का, आलसी और कामचोर साबित किया गया है। वास्तव में मिस्टर ह्यूबर्ट की कामुकता का शिकार बन कामांधता का यह प्रकरण पूरे पश्चिम के चेहरे को अनावृत करता है, जो समलैंगिक स्वतंत्रता का तो समर्थन करता है, किंतु अप्राकृतिक प्रकृति का उपचार और मनुष्य बनाने के आधुनिक विधानों की चर्चा भी नहीं करता। पश्चिम के कानूनों में इस बात का उल्लेख नहीं है कि अप्राकृतिक आचरण विधान को प्राकृतिक आचरणों में ढालने के उपाय किए जाएँ। असल में, उषा वर्मा की कहानियाँ आधुनिक संसार के ‘नासूरों’ की ओर अनेकार्थी आक्रमण करती हैं।
‘मंजूर अली’ नामक कहानी में एक मामूली सी घटना है कि एक आदमी दुकान से सामान चुराने के अभियोग में जेल में बंद हो जाता है, किंतु उसका समग्र अस्तित्व इसका इनकार करता है। तथ्यों और प्रमाणों के अभाव में वह पूरा जीवन यह ग्लानि ढोता रहेगा। इससे लड़ने के लिए, प्रमाण जुटाने के लिए मंजूर अली को समर्थन मिलता है और अंत में वह बेकसूर साबित होता है। इस कहानी में उषा वर्मा ने पूर्वी सोच में चोरी, झूठ के मनस्ताप का तो जिक्र किया ही है, स्वाभाविक रूप से हिंदुस्तान-पाकिस्तान के आपसी तनाव से उभरते धार्मिक अविश्वास पर भी टिप्पणी की है, किन्तु असली आधार उनकी कहानियों की वह पड़ताल ही है, जो मनुष्य को मनुष्य के रूप में रेखांकित करने में रचनात्मक आधार सृजित करती है।
इस संकलन की ज्यादातर कहानियों में यही एक नई कोशिश बराबर दिखाई देती है कि अपने अधिवास से बाहर हम कितने साफ, न्यायपूर्ण और अपने आप में इस छोटी सी धरती के पुन: संस्कारकर्ता हैं ? खूबी यह कि इसका उल्लेख भी कथाओं में नहीं है। कथाओं की परिस्थितियों, घात-प्रतिघात और तनाव उसे खुद उभारते हैं। उषा वर्मा एक सजग लेखिका हैं, अपेक्षा होगी ही कि यह सजगता शिल्प और भाषिक विन्यास के स्तर पर भी विकसित होती रहे, क्योंकि कहानियों में अविस्मरणीय बनने की गुंजाइश संभवत: प्रस्तुतीकरण के संवेदनात्मक पक्ष के जिम्मे है।
ब्रिटेन की हिंदी कथा परंपरा में अनेक कथाकारों के योगदान की चर्चा के बीच कुछेक महत्त्वपूर्ण कथाकारों में उषा वर्मा अग्रणी कहानी लेखिका हैं। उनकी कहानियों का यह नया संकलन एक साथ अनेक उल्लेखनीय कहानियाँ पाठकों के सामने प्रस्तुत करता है। उषा वर्मा की कहानियाँ बहुआयामी परतों की कहानियाँ हैं। उनमें हम मनुष्य की परिस्थिति से बनती नियति की जटिल दुनिया से परिचित होते हैं। ‘कारावास’ कहानी देखें तो सीधे-सपाट जीवन की अंतर्धाराओं में अनेकानेक विचित्रताओं का सामना होता है। भारत से चालीस साल से भी पहले विदेश आई यह एक ऐसी महिला चिकित्सक की गाथा है, जो अनाम यातनाओं की गिरफ्त में है। पीछे छूटा संयुक्त परिवार, विदेश में बने मित्रों से विछोह और बेगानेपन के मर्मघाती अनुभव से उपजती अनुभूतियों के समानांतर एक ऐसी दुनिया का खाका है, जिसमें अपनत्व केवल सपने जैसा है। डॉ. अनिला स्वयं एक डॉ. हैं, किंतु वे खुद अब मानसिक व्याधि से त्रस्त हैं और इस मानसिक व्याधि की संपूर्णता से वे परिचित हैं। कुछ ऐसे प्रश्न हैं, जिनकी गाँठे सुलझने में नहीं आतीं। जितना कुरेद-कुरेदकर उन्हें सुलझाने की कोशिश की जाती है, वे उतना ही ज्यादा उलझन भरी हुई दिखाई देती हैं और यहीं से वह तनाव विकसने लगता है, जो मानव अस्तित्व के दूसरे सवालों से जुड़ जाता है। उषा वर्मा ने ‘कारावास’ के जो विवरण दिए हैं, वे दो संस्कृतियों के तनाव से उपजे दिखते हैं तथापि दोनों सांस्कृतिक इकाइयों पर नई सभ्यता से उपजते आचरण-विधान के हमले बराबर होते रहते हैं और मोटे तौर पर वे दोनों इकाइयों के जीवन को प्रभावित करते हैं। इन्हीं प्रभावों के कारण कुछ जटिलताएँ ज्यादा बढ़ जाती हैं। ‘कारावास’ एक प्रतीक कथा की तरह मनुष्य के अस्तित्व में परिव्याप्त जटिलताओं का ‘बंदीगृह’ है। मानसिक उद्विग्नता के बावजूद डॉ. अनिला एक बेहद संवेदनशील व्यक्ति के रूप में तमाम तरह के रचनात्मक कार्यों के प्रति न केवल सक्रिय हैं, बल्कि वे अपने निकट सभी कुछ को, जितना खुद से हो सकता है, प्रतिदान के रूप में कुछ-न-कुछ देने के लिए तत्पर हैं। उनकी अपेक्षा जो खुद से है, वही दूसरे से भी है। ग्रेहम और अनिला एक-दूसरे के पूरक हो सकते थे। भीतर-ही-भीतर दोनों इस आकांक्षा को पाल भी रहे थे, किंतु जिस ढंग के समाज हमने निर्मित कर लिये हैं, उनमें एक-दूसरे पर सबकुछ उड़ेलने का अवसर आता ही नहीं। मोटे तौर पर अति बौद्धिकों के यहाँ मर्यादाओं का एकदम अलग ही संसार है। न अनिला इस बाड़ेबंदी से बाहर आकर उदारतापूर्वक अपनी आकांक्षाओं की सरहदें पार कर पाई और न ग्रेहम, जो एक स्त्री के सामने खुद को माली के स्तर का समझते हुए इस कृत्रिम सरहद को तोड़ पाया।
इस तरह हम आसानी से कह सकते हैं कि ‘कारावास’ कहानी स्व-स्वीकृत अन्यान्य कारावासों का ही संग्रहित रूप है। उषा वर्मा की यह कहानी अपने शिल्पगत शैथिल्य के कारण आलोचनात्मक टिप्पणियाँ आमंत्रित करती है तथापि यह समग्र मनुष्य की गाथा है। लगभग हर विश्व नागरिक किसी-न-किसी रूप में अपने अधिवास से बाहर है। अपनी सांस्कृतिक इकाई का बोझिल संसार ढोने में भी असमर्थ है। असल में, वह परिस्थितियों के ऐसे व्यूह में घिरा है कि उसे बराबर अपने प्रारब्ध, अपनी नियति का ही यह अभिशाप लगता है, जबकि अपनी संपूर्ण बुनावट में ‘कारावास’ एकदम आधुनिक आधारों पर निर्मित कहानी है, वह उन भावुक मूलवासियों के तरह अपने अतीत के प्रति भावुकतापूर्ण ढंग से सबकुछ पर पिछड़ेपन का आधारहीन आरोप नहीं जड़ती और ऐसे कुछ प्रसंग हैं, जो सिद्ध करते हैं कि अकेलापन अकेले औद्योगिकीकरण की उपज नहीं है, बल्कि वह प्रकृति से आदमी के संबंधोच्छेदन से जुड़ा मनोरोगीय आधार हैं। उसके उपचार की सैद्धांतिक एवं व्यावहारिक विधियाँ अब मनुष्यजाति के पास उपलब्ध हैं।
उषा वर्मा की कहानियों की दुनिया केवल भारतीय मनुष्य के विदेशी वातावरण में संक्रमित स्थितियों के अनुभवों तक सीमित नहीं है। इस अर्थ में वे केवल उस संत्रास की गाथा भी नहीं हैं, जो छज्जू के चौबारे की याद में उभरकर शेष जीवन दूभर कर डालती हैं। विस्थापित मानसिकता का वह पहलू हमेशा दर्दनाक टीस बनकर सालता है, जब हम अपने अतीत के गौरव में बहुधा तर्कहीन ढंग से भावुक और गौरवान्वित होते हैं। इसकी तुलना में उषा वर्मा ने, सांकेतिक रूप में ही सही, भारतीय मनुष्य की संघर्षशीलता, विपरीत परिस्थितियों को अनुकूल बनाने की रचनात्मकता और भारतीय मनोलोक में निवसित न्यायप्रियता के बिंदुओं को अपनी कथा के विषयों के साथ जोड़ा है। उसकी कहानी ‘कास्ट इफेक्टिव’ व ‘रौनी’ दो ऐसे उदाहरण हैं, जिनमें हम भारतीय मनोलोक के द्वंद्व को बहुत पारदर्शी ढंग से अभिव्यक्त होते देखते हैं। इन दोनों कहानियों पर कथा के मौलिक प्रारूप को लेकर तो बहस की जा सकती है, किंतु किसी भी अर्थ में एक सीमित विचारणा की कहानी नहीं माना जा सकता। इन दोनों कहानियों में बहुत बेबाकी से नई बनती दुनिया की हलचलें दिखाई हैं। दोनों में वे एक साहसिक निर्णयों पर पहुँचती हैं। ‘कास्ट इफेक्टिव’ में हिंसा और विश्व बाजार के मुहानों पर युद्धरत दिखाई देती हैं। विश्व बाजार में जिस उत्पाद से व्यापक आर्थिक क्षति नहीं हो रही है, उसका अस्तित्व या अनस्तित्व नैतिकता और हिंसा का मामला है ही नहीं। आज नई बाजारू नैतिकता का यह महत्त्म पाठ पहली बार एक छोटी सी कहानी में अभिव्यक्त होता है। ठीक वैसा ही प्रकरण ‘रौनी’ की कथा में है, जिसमें एक भूरा (या काला) किशोर गोरी मानसिकता से प्रताड़ित होता है। यह प्रताड़ना एक व्यापक घृणा और प्रतिहिंसा का हिस्सा है। गोरों के मुल्क में इसपर बात करना असंभव है, किंतु उषा वर्मा ने अतिरिक्त सजगता से उस दुरभिसंधि का भंडाफोड़ किया है, जिसमें काला किशोर चोर, उचक्का, आलसी और कामचोर साबित किया गया है। वास्तव में मिस्टर ह्यूबर्ट की कामुकता का शिकार बन कामांधता का यह प्रकरण पूरे पश्चिम के चेहरे को अनावृत करता है, जो समलैंगिक स्वतंत्रता का तो समर्थन करता है, किंतु अप्राकृतिक प्रकृति का उपचार और मनुष्य बनाने के आधुनिक विधानों की चर्चा भी नहीं करता। पश्चिम के कानूनों में इस बात का उल्लेख नहीं है कि अप्राकृतिक आचरण विधान को प्राकृतिक आचरणों में ढालने के उपाय किए जाएँ। असल में, उषा वर्मा की कहानियाँ आधुनिक संसार के ‘नासूरों’ की ओर अनेकार्थी आक्रमण करती हैं।
‘मंजूर अली’ नामक कहानी में एक मामूली सी घटना है कि एक आदमी दुकान से सामान चुराने के अभियोग में जेल में बंद हो जाता है, किंतु उसका समग्र अस्तित्व इसका इनकार करता है। तथ्यों और प्रमाणों के अभाव में वह पूरा जीवन यह ग्लानि ढोता रहेगा। इससे लड़ने के लिए, प्रमाण जुटाने के लिए मंजूर अली को समर्थन मिलता है और अंत में वह बेकसूर साबित होता है। इस कहानी में उषा वर्मा ने पूर्वी सोच में चोरी, झूठ के मनस्ताप का तो जिक्र किया ही है, स्वाभाविक रूप से हिंदुस्तान-पाकिस्तान के आपसी तनाव से उभरते धार्मिक अविश्वास पर भी टिप्पणी की है, किन्तु असली आधार उनकी कहानियों की वह पड़ताल ही है, जो मनुष्य को मनुष्य के रूप में रेखांकित करने में रचनात्मक आधार सृजित करती है।
इस संकलन की ज्यादातर कहानियों में यही एक नई कोशिश बराबर दिखाई देती है कि अपने अधिवास से बाहर हम कितने साफ, न्यायपूर्ण और अपने आप में इस छोटी सी धरती के पुन: संस्कारकर्ता हैं ? खूबी यह कि इसका उल्लेख भी कथाओं में नहीं है। कथाओं की परिस्थितियों, घात-प्रतिघात और तनाव उसे खुद उभारते हैं। उषा वर्मा एक सजग लेखिका हैं, अपेक्षा होगी ही कि यह सजगता शिल्प और भाषिक विन्यास के स्तर पर भी विकसित होती रहे, क्योंकि कहानियों में अविस्मरणीय बनने की गुंजाइश संभवत: प्रस्तुतीकरण के संवेदनात्मक पक्ष के जिम्मे है।
-गंगा
प्रसाद विमल
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