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पुनश्च

लक्ष्मीमल्ल सिंघवी

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :219
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5497
आईएसबीएन :81-7315-672-7

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पुनश्च पुनः-पुनः पढ़ने योग्य डॉ.सिंघवी के संपादकीय लेखों का ऐसा संकलन है, जो ज्ञान के क्षितिज की अपरिसीम विस्तृति से हमें जोड़ता है

Punashcha

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘साहित्य अमृत’ में प्रकाशित डॉ. लक्ष्मीकान्त सिंघवी के संपादकीय लेखों की अनन्यता, वैचारिक गहराई, ज्ञान का अपार विस्तार, विश्लेषण की बारीकी और तटस्थ दृष्टि से अजस्त्र विषयों का विवेचन उनके भारत मन से हमारा परिचय कराता है। एक ओर विद्यानिवास मिश्र, अमृता प्रीतम, विष्णुकांत शास्त्री, के. आर. नारायण आदि के स्मृति चित्र हैं तो दूसरी ओर प्रेमचन्द, माखनलाल चतुर्वेदी, महारानी वर्मा, हजारी प्रसाद द्विवेदी आदि हिंदी के मूर्धन्य रचनाकारों का संक्षिप्त मगर बहुत ही सार्थक चित्रांकन है। डॉ. सिंघवी के इन संपादकीय लेखों में हमारी विरासत की अवहेलना की चिंता है; विश्व साहित्य की कल्पना है; भाषा, साहित्य, संस्कृति, सभ्यता को हमारी अस्मिता की पहचान के रूप में स्वीकृति है और असर्त्य सेन के हवाले से भारतीयता के विस्तृत विमर्श की स्वाधीन अभिव्यक्ति है; मूल्यों के मूल्य को समझने की कोशिश है; हिंदी की संस्कृति का अभिज्ञान है; सगुण भक्ति के व्याज से रीति-विलास की आध्यात्मिकता का कथन है और आजादी के साठ वर्षों की हमारी साझी एकता के सपने की सस्पंदना का उल्लेख है। इन संपादकीयों में ज्ञान की विद्युत् छटा हमें चकाचौंध करती है और साथ ही एक स्थितिप्रज्ञ के भारत-विषयक अद्भुत वैचारिक वैविध्यवाद की गहराई में जाने का निमंत्रण हमें अभिभूत करता है।
पुनश्च पुनः-पुनः पढ़ने योग्य डॉ. सिंघवी के संपादकीय लेखों का एक ऐसा संकलन है, जो ज्ञान के क्षितिज की अपरिसीम विस्तृति से हमें जोडता है।

इंद्र नाथ चौधुरी

प्रिया, पत्नी, सहचरी को प्रगाढ प्रीतिपूर्वक-
एक सॉनेट के साथ यह पुस्तक समर्पित-

आभार बहुत झेले है मैंने जीवन भर
भारी लगता है सखी आज  क्यों अपनापन ?
उपकारों का प्रतिदान चुकाता विनिमय में !!
अपनेपन का भुगतान नहीं कर पाता मैं !!
स्नेह उड़ेला है इतना जीवन में,
मृण्मय यह पात्र छलकता ही जाता !
यदि नहीं तुम्हारा वह संबल होता
जीवन का दीप कभी का बुझ जाता !!
अब भी निष्कंप जल रहा यह दीपक
आँचल की ओट रहा यह पाता !!
नाते-रिश्ते का समीकरण भी निभ जाता;
पर सखी, तुम्हारे मौन समर्पण से व्याकुल
अपने को आज अधूरा-अक्षम मैं पाता !

(लक्ष्मीमल्ल सिंघवी)

लेखकीय
मेरी बात


  बहुत कुछ आकस्मिक है यह संकलन-स्वयंभू, स्वतः स्फूर्त एवं स्वान्तः सुखाय। दुर्घटना में भाई विद्यानिवास मिश्र का देहावसान, ‘साहित्य अमृत’ से उनका गहरा लगाव और बंधुवर श्यासुंदरजी का सदाशयी आग्रह बानक बने कि मैं ‘साहित्य अमृत’ के संपादक के दायित्व के लिए सर्वथा अप्रस्तुत होते हुए भी इस प्रस्ताव को टाल नहीं पाया।
कुछ संपादकीय कर्तव्य सहयोगियों को सौंप दिए जा सकते हैं, किंतु मेरी राय में संपादकीय तो संपादक का ही होना चाहिए, जिसमें संपादक की निजता का न्यस्त होना अनिवार्य है। सोचा भी नहीं था कि ये संपादकीय इतने लोकप्रिय होंगे कि वे ‘साहित्य अमृत’ की पहचान सिद्ध होंगे। बार-बार मित्रों और पाठकों का यह सुझाव आता रहा कि मेरे संपादकीय लेखन मेरी पत्नी कमलाजी तक पहुँचते रहे। एक दिन कमलाजी ने अपने निर्णायक अंदाज में कह दिया कि ‘साहित्य अमृत’ में मेरे संपादकीय संग्रहीत किए जाएँ एवं संग्रह 2007 में मेरी जन्मतिथि (दीपावली) से पहले ही पुस्तक के रूप में छप जाए।

कमलाजी का आदेश हमारी गृहस्थी में अकाट्य और निर्वैकल्पिक होता है। जब पुस्तक के नामकरण का प्रश्न आया तो अंततः मेरा परामर्श अवश्य लिया गया। मैंने नाम दिया ‘पुनश्च’, जो कमलाजी को पंसद आया और तब वही नाम चुन लिया गया। पुनश्च का अर्थ दोहराना भी और अपनी बात को पुनः रेखांकित करना भी है। वही इस पुस्तक का प्रयोजन और मंतव्य है। पुनश्च अंग्रेजी के प्रचलित शब्द पोस्टस्क्रिप्ट की ध्वनि  में पत्र या लेख के बाद जो छूट गया उसे इंगित करता है; किंतु यह अभिप्राय मेरी इस पुस्तक को दिए गए नाम से नहीं है।

प्रत्येक संकलन की अपनी परिस्थितियाँ एवं सीमाएँ होती हैं। संपादकीय के लेखन-मुद्रक-प्रकाशन का अपना सामायिक अनुशासन होता है, जिसे अंग्रेजी शब्दावली में ‘डेडलाइन’ के डरावने नाम से जाना जाता है। किंतु अब तक मुझे डेडलाइन की परेशानी कभी नहीं रही, क्योंकि विषय आग्रह स्वयं यथासमय मेरी कलम में आकर अपना आसन अनायास ग्रहण कर लेते हैं। जब तक उन्हें संतुष्ट न कर दिया जाए वे अपना आसन नहीं छोड़ते। अतः प्रत्येक संपादकीय एक जीवंत संवाद के रूप में स्वतः प्रकट होता है, किंतु मेरे संयम की वल्गा से नियंत्रित और अनुबंधित भी रहा है। कुछ में मेरे मन की व्यथा है, कुछ में पुण्य प्रकोप और आक्रोश, कुछ में दृश्य की वास्तविकता है तो कुछ में अदृश्य की अनुभूति।

संकलन में सम्मिलित संपादकीय संपादक की डायरी और आत्मकथा नहीं होते; किंतु मेरे लेखन में जो एक अविकल निजता है, उसे निरस्त करने से मेरा लेखन निष्प्राण और अप्रामाणिक हो जाएगा, ऐसा मैं मानता हूँ। वैयक्तिक अभिव्यक्ति में मैं अपने आपको निजी, सप्राण और भोगी एवं जानी हुई कल्पनामूलक प्रामाणिकता का पक्षधर मानता हूँ। इसलिए इस संकलन में जो कुछ है, यथार्थ व सच है, जिसमें सामाजिक संवेदना रचनात्मक विश्लेषण एवं सांस्कृतिक संदर्भ जोड़ने का मेरा प्रयास रहा है।

मेरे पाठक हर माह की अंतर्ग्रथित निरंतरता इस लेखन में पाएँगे। जहाँ इसमें व्यतिक्रम या व्यवधान है, वह तात्कालिक दृष्टि से एक अध्याय के समाप्त होने की सूचना मात्र है। संपादकीयों पर इससे  अधिक लंबी भूमिका यानी संपादकीय लिखना अनावश्यक भी होगा और अनुचित भी। अतएव अपनी संपादकीय लेखनी को यहीं विराम देते हुए सुधी पाठकों के हाथों में पुनश्च यह लेखन सविनय, साग्रह सौंपता हूँ।
पुस्तक का समर्पण मैंने प्रीतिपूर्वक मेरी जीवन सहचरी कमलाजी को एक सॉनेट के साथ किया है। जीवन की संध्या में पचास वर्ष के सुखी दांपत्य और इसकी धुरी के प्रति यह प्रगाढ़ प्रीति और कृतज्ञता का सॉनेट पाठकों के साथ बाँटने में संकोच नहीं होता। यह भी निजता है जो मेरी अभिव्यक्ति का सहज आयाम है।  

डॉ. लक्ष्मीमल्ल सिंघवी

सुषमा, लालित्य, रस के मर्मज्ञ ‘भाई’



हमारे साहित्य और हमारी संस्कृति का एक प्रोज्ज्वल और प्रामाणिक शलाका पुरुष अकस्मात् महाप्रयाण पर चल पड़ा। उनका साहित्यिक-सांस्कृतिक अवदान एक अमूल्य विरासत है। उनकी स्मृति की धरोहर हमारी है, किंतु उनकी अनुपस्थिति की जो रिक्तता है वह तो आजीवन नहीं भरेगी।
उनका जीवन-दर्शन रामायण, महाभारत, भारतीय भक्ति-परंपरा, लोक और श्रीमद्भागवत, गीता से अनुवेष्टित था। हमारी पीढ़ी का एक ऐसा नक्षत्र चला गया, जिसकी दृष्टि ऋषितुल्य थी, सदाशयता और सरस सहृदयता से संपन्न थी। पंडितराज जगन्नाथ ने लिखा है-


अध्वन्यध्वनि तरवः पथि पथिकै रूपास्यते छाया।
विरलः स कोऽपि विटपी यमध्वगो गृहगातः स्मरति।।

 
सारांशतः प्रत्येक मार्ग के किनारों पर कई वृक्ष हैं और हर मार्ग में पथिक उनका आश्रय लेते हैं, किंतु ऐसा वृक्ष बिरला ही होता है जिसका स्मरण घर पहुँचकर भी पथिक कृतज्ञता से करता है। मेरे मित्र और गुरुभाई विद्यावनिवास मिश्र ऐसे ही लाखों में एक वृक्ष थे जिनको साहित्य का संसार और समुदाय कई पीढ़ियों तक स्मरण करेगा। ‘छांदोग्योपनिषद्’ में एक सार्थक मंत्र-वाक्य है- ‘स्मरोववकाशाद्ध भूयः’, अर्थात स्मरण आकाश से भी उत्कृष्ट है।
‘ईशावास्योपनिषद्’ का यह अमृत मंत्र है कि जब यह प्राणवायु भस्म बनकर अविनाशी वायुत्त्व में विलीन हो जाए, कृतु और कृत का स्मरण करें-


वायुरनिलममृथेदं भस्मान्त शरीरम्।
ॐ कृतो स्मर कृतं स्मर कृतो स्मर कृतं स्मर।।

 
भाई एक कृति सर्जक और साहित्यकार थे। बहुत कुछ है उनके कृत और कृतु का स्मरण करने को और उनको श्रद्धा-सुमन अर्पित करने के लिए। भाई एक विद्वान् पिता के पुत्र थे, एक श्रेष्ठ आचार्य के शिष्य थे, एक नैष्ठिक भारतीय थे, सहज ही आचार्य की गरिमा से समलंकृत, शोधार्थी की सारस्वत जिज्ञासा, अध्यवसाय और स्वाध्याय से सदा संप्रेरित। साहित्य को समर्पित था उनका जीवन-दर्शन, भारत- दर्शन और विश्व-दर्शन।
भाई ब्रह्मलीन हुए तो गोरखपुर से वाराणसी की राह में गोरखपुर उनके पूर्वजों का, उनके अपने जनपद का मुख्य शहर रहा। गोरखपुर ही भाई की पारिवारिक नियति रही। वे अपने जीवन में निरंतर, अपरिहार्यतः बार-बार काशी को भविष्यत् से भी जोड़ते थे।

‘मेरो मन अनत कहाँ सुख पावे।’ गोरखपुर और काशी से अविच्छिन्न रूप से जुड़े हुए भाई गोरखपुर और काशी के बीच अंतिम विश्राम के अंक में सो गए। गोरखपुर में उनकी प्रारंभिक और माध्यामिक शिक्षा हुई, वहीं उन्हें जीवन के संघर्षों को झेलने की ऊर्जा और दक्षता मिली। वे गोरखपुर का ऋण मानते थे। लगता है जैसे वही ऋण चुकाने के लिए गोरखपुर गए और फिर इस बार काशी लौटे ही नहीं।

गोरखपुर और काशी के अतिरिक्त उनका प्रिय शहर था- इलाहाबाद, जिसका सजीव नख-शिख वर्णन उन्होंने बड़े प्रेम से किया है-अपने आचार्यों का, विशेषतया हम दोनों के गुरु पं. क्षेत्रेशचंद्र चट्टोपाध्याय का, तथा संस्कृत विभाग के प्रो. आचार्य एवं प्रो. बाबूराम सक्सेना और हिंदी विभाग के अध्यक्ष प्रो. धीरेंद्र वर्मा का; कुलपति डॉ. अमरनाथ झा का, प्रो. मेहरोत्रा और उनकी पत्नी का, अंग्रेजी के प्रो. देब, फराक़ साहब, श्री दस्तूर और बच्चनजी का; हमारे मित्र सर्वश्री धर्मवीर भारती और जगदीश गुप्त का। भाई ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय और नगर का उस युग से संबद्ध जैसा सजीव मर्मस्पर्शी वृत्तांत दिया है, अन्यत्र कहीं मिलना दुर्लभ है। दिल्ली उन्होंने बहुत कुछ चीन्ही और कुछ अनचीन्ही ही छोड़ दी। ‘नवभारत टाइम्स’ की संपादकी छोड़ने के बाद दिल्ली में परमार्थ निकेतन के अतिथि आवास की प्रव्रज्या में रहते हुए ‘साहित्य अमृत’ का सोच और उसका कार्यान्वयन शुरू हुआ था। यह वह समय था जब साहित्यिक व सांस्कृतिक पत्रकारिता का जैसे सूर्यास्त हो रहा था। भाई ने इसे चुनौती के रूप में स्वीकार किया।

जब वे आगरा में थे, मेरे गुरू और पितृतुल्य डॉ. मुंशी के नाम से स्थापित संस्थान में कितने ही षड्यंत्र उनके साथ हुए, कितनी ही ज्यादतियाँ उनपर की गईं, यह सब मैंने तब जाना जब उनकी तरफ से सर्वोच्य न्यायालय में उनकी पैरवी करने का सुयोग मुझे मिला। भाई एक नियम था कि बीते हुए दुःख को सहज ही बिसरा देते थे। कटु अनुभव से उपजे नकारात्मक पक्ष को भुला देना उनकी जीवन-साधना का एक पक्ष था। आगरा की बात आती तो वे कहते-वहाँ मेरा एक मित्र है तमाल का वृक्ष, आपको ले चलूँगा उसके पास। एक दिन हमने तय किया कि दिल्ली महानगर में मेरे फार्महाउस पर वे एक मैत्री वृक्ष लगाएँगे और वह वृक्ष तमाल का होगा। घंटों उन्होंने और अज्ञेयजी ने मेरे इस हरे-भरे निर्झर संपन्न उद्यान में बिताए और कई बार यह तय हुआ कि कभी हम तीनों दो-तीन दिन वहीं रहेंगे। अज्ञेयजी ने कहा था- कि मैं यहाँ तमाल का एक वृक्ष पर एक घर बनाऊँगा। वे चले गए। सोचता हूँ कि मुझे अब उनकी स्मृति में उनके जन्मदिन पर तमाल का वृक्ष अपने उद्यान में स्मृति-प्रतीक के रूप में लगाना ही होगा।

भाई का मन गाँव का मन था। गँवई गाँव का उनको सांस्कृतिक गर्व था। गँवई गाँव में उन्होंने भारतीय जन की गरिमा देखी थी। उसमें बाहर से शिव जैसा अनगढ़ एवं निहंग बौराह रूप देखा-दिखाया था; किंतु भारत के ग्राम्य अंतस में झाँककर उसका परिष्कृत, समृद्ध और रमणीय स्वरूप भी उजागर था। भारतीय लोक-जीवन के इस आत्मस्थ, आश्वस्त और स्वाभिमानी वैतालिक ने पाया कि भारत के गँवई का लोक-जीवन सबका पारमार्थिक मंगल मनाते हुए विश्व जीवन से एकाकार है, जिसमें अनायास ही अथाह-विपुल-अगाध शिवतत्त्व सन्निहित है और जिसकी अंतश्चेतना जगद्दात्री की स्नेह-दृष्टि से संपोषित है। लोक-जीवन और लोक-सहित्य से संजीवनी शक्ति लेकर उन्होंने भाषा और साहित्य में रस-वृष्टि की, भारतीय होने की पहचान को परिभाषित किया और भारतीय संस्कृति को, शास्त्र को एवं परंपरा को गँवई गाँव का अखूट हल्दी-दूब, दधि-अच्छत चढ़ाया। अगणित नारियल चढ़ाए, अक्षय चैतन्य समर्पित किया।

ज्ञानपीठ के न्यास में और पुरस्कार की प्रवर परिषद् में वे बरसों तक मेरे सहयोगी रहे; किंतु उससे पूर्व जब मैं ‘मूर्तिदेवी पुरस्कार’ की चयन परिषद् का अध्यक्ष था, उनके साहित्य के सघन विस्तार में प्रवेश करने का और उनको पुरस्कृत करने का भी संयोग  मिला। मुझे अपराध-बोध हुआ-सुषमा का, लालित्य का, रस का यह मर्मज्ञ हमारे पुरस्कार की परिधि से कैसे छूट गया ? कालांतर में इसी चयन परिषद् के अध्यक्ष हुए और ज्ञानपीठ पुरस्कार के न्यास में और प्रवर परिषद् में मनोयोग अद्वितीय, अनवरत और अनुपम था। आनंद कुमार स्वामी पर उनका विश्लेषण एवं विवेचना तथा उनकी व्याख्याएँ हजारों वर्षों के इतिहास और परंपराओं को समेटने में सक्षम हुईं। ‘साहित्य अमृत’ उनके मन-वृंदावन में मोर और पपीहा के प्रीति-प्रेरित बुलावे जैसा था। वह उनकी स्मृतियों का संबल लेकर चलेगा, चलता रहेगा; साहित्य के अमृततत्त्व को सँजोने की, सजाने की, सरसाने की भरसक चेष्टा के लिए कृतसंकल्प रहेगा।
 

सुधियाँ उस रस चंदनमन मित्र-मनीषी और उनके सदा सुरभित जीवन की



आचार्य विष्णुकांत शास्त्री ने लगभग दस वर्ष पूर्व एक पुस्तक लिखी थी-
‘सुधियाँ उस चंदन के वन की’। उनके जैसा सुधी साहित्यकार और प्रशस्त सत्यपुरुष ही ऐसे संस्मरण लिख सकता था। उनका अपना मन वास्तव में चंदनमन था- सदा ऐसे संस्मरण लिख सकता था। उनका अपना मन वास्तव में चंदनमन था-सदा सुगंधित, सदा साकारात्मक। अब जब सदेह नहीं रहे और मेरे मित्रों एवं मेरे साथियों का चंदनवन उजड़ा जा रहा है तो लगता है, चंदनमन से संपन्न अपने मित्र और अग्रज की सुधियों को लिखना दंश व दर्द को शब्द-प्रति-शब्द पुनः-पुनः जीना है।

वे वाग्मिता और विद्वत्ता के विलक्षण संगम थे। बहुत प्रतिभाशाली और गुणी थे विष्णुकांतजी। वे एक ऐसे सज्जन गुणग्राहक व्यक्ति थे, जिनके साथ अवकाश का समय बिताना एक शुद्ध-प्रबुद्ध सत्संग का सुयोग-संयोग होता था। शालीन शिष्टता, संतुलित और सम्यक् चिंतन, सघन राष्ट्र-प्रेम, स्वतः स्फूर्त मनुष्यता, सहज गरिमा, मुसकाती हुई गंभीरता और अद्भुत विनम्रता, संवेदनशीलता, सकरुणता, सहृदय संवादश्रमता और सदाशयता आचार्य विष्णुकांत शास्त्री को भारतीय परंपरागत वैदिक वाचिक संसाधन-संपन्नता का प्रमाण था। आश्चर्यचकित हुए बिना नहीं रहा जा सकता था, जब वे भारतीय साहित्य-अमृत के सुचयनित उद्धरण अपनी स्मृति की मधुशाला से चषक-प्रति-चषक भरकर देते और अपने श्रोताओं को मुग्ध कर देते थे। हिमाचल प्रदेश एवं उत्तर प्रदेश के राज्यपाल के रूप में, विधायक और संसाद के रूप में उन्होंने उन वरिष्ठ पदों की प्रतिष्ठा में संवर्धन किया था।

रहे तो अपनी स्वाभाविक गरिमा के साथ, गए तो अपनी सहज गरिमा के साथ; किंतु राज्यपाल पद का कद भी उनके व्यक्तितत्व के कारण बढ़ा। राजनीति के झंझावात में उत्तर प्रदेश के राज्यपाल पद से जब वे हटे तब मैंने उन्हें कहा था कि अब आपको साहित्य और संस्कृति के महामहिम पद पर स्थायी रूप से रहना होगा। भाई विद्यानिवासजी मिश्र के आकस्मिक  देहावसान के बाद ज्ञानपीठ के प्रवर मंडल के सदस्य के रूप में उन्हें निमंत्रित करने का सौभाग्य मुझे मिला। ‘मूर्तिदेवी पुरस्कार’ के प्रवर मंडल के अध्यक्ष पद के लिए हमारे आग्रह को उन्होंने स्वीकार कर लिया; किंतु जब मैंने और श्री श्यामसुंदरजी ने उनसे ‘साहित्य अमृत’ के संपादन के लिए आग्रह किया तो उन्होंने कहा कि हम उन्हें उनकी विविशता और असमर्थता के लिए क्षमा कर दें, क्योंकि मित्रों का आग्रह टालना उनके स्वभाव में नहीं रहा।
महाकवि प्रसाद की दो पंक्तियाँ याद आती हैं, आज जब बंधुवर विष्णुकांतजी सशरीर नहीं रहे-


आती है शून्य क्षितिज से क्यों लौट प्रतिध्वनि मेरी,
टकराती बिलखाती-सी पगली-सी देती फेरी।


आज उनकी स्मृतियाँ प्रतिध्वनि की तरह पीड़ा के शून्य क्षितिज से टकराकर बार-बार लौटती हैं बिलखती हैं और फिर कभी साकार होती हैं, कभी निराकार हो जाती हैं। वे एक विद्वान और कृति पिता के पुत्र थे; ब्रह्म-साधना के शिखर पुरुष स्वामी अखंडानंदजी सरस्वती द्वार दीक्षित वेदांतसाधक, छात्रवत्सल प्राध्यापक, कविहृदय, रामभक्त, गीता के अध्येता, विधायक, सांसद, भारतीयता और भारतीय भाषाओं के पक्षधर एवं निष्पक्ष-निर्विवाद राज्यपाल। उनका जीवन स्वाध्याय का जीवन रहा-ज्ञान, दर्शन और चरित्र की त्रिकोणी का पवित्र संगम रहा। निरभिमानी सौम्य व्यक्तित्व और अनुपम सांस्कृतिक कृतित्व के मनीषी आचार्य विष्णुकांत शास्त्री की स्मृतियों का चंदनवन मेरे मन में है उनके सुमन-सुवास से; प्रतिध्वनित होती है उनकी सारस्वत वाणी की हुंकार और झंकार से। उन्होंने जीवन के मनोरम तट पर सुंदर सीपियाँ भी बटोरीं और सागर के अतल तल में जाकर मोती भी चुने।   


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