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सीता पुनि बोली

मृदुला सिन्हा

प्रकाशक : विद्या विहार प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :294
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5496
आईएसबीएन :8188140813

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आत्मकथ्य शैली में लिखा सीताजी के तेजस्वी और शौर्यपूर्ण जीवन पर आधारित एक अत्यंत हृदयस्पर्शी उपन्यास...

Sita Puni Boli

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

जनकपुर के विदेह राजा जनक की दुलारी, राम की सहधर्मिणी, दशरथ और कौशल्या की अत्यंत प्रिय पुत्रवधू, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न की माँ सदृश भाभी, राजमहल से लेकर वन और आश्रम जीवन में अनेक सामाजिक संबंधों से बंधी सीता की स्मृति त्रेतायुग से प्रवाहित हुई आज भी जन-जन के हृदय में और भारतीय मानस में रची-बसी है। आत्मकथ्य शैली में लिखा सीताजी के तेजस्वी और शौर्यपूर्ण जीवन पर आधारित एक अत्यंत हृदयस्पर्शी उपन्यास।

लेखनी के बोल

जनकपुर के विदेह राजा जनक की दुलारी, राम की सहधर्मिता, दशरथ और कौशल्या की अत्यंन्त प्रिय पुत्रवधू, लक्ष्मण, भरत और शतुघ्न की माँ सदृश भाभी, राजमहल से लेकर वन और आश्रम जीवन में अनेक सामाजिक संबंधों में बँधी सीता की स्मृति त्रेतायुग से प्रवाहित होती हुई आज भी जन-जन के हृदय और भारतीय मानस में रची-बसी है। उसके सत ने सात समुद्र पार भी प्रवास किया है। लाखों प्रवासी भारतीयों ने विदेशों में भी उस सत को अपनी पूँजी के रूप में सँजोकर रखा है।

आदिकवि वाल्मीकि ने रामकथा के माध्यम से करुणा में पगा आदर्श प्रस्थापित किया। क्रौंच-वध के उपरांत क्रौंची के आर्तनाद से उत्पन्न शोक से श्लोक (जोड़नेवाल) उत्पन्न  हुआ। गोस्वामी तुलसीदास ने अपनी रचना ‘रामचरितानस’ का उद्देश्य स्वयं स्वांतः सुखाय, निजगिरा पावनी करन (अपनी वाणी को पवित्र करने) तथा स्वांस्तंभः शांतय (अपने अन्दर का अंधकार मिटाने) बताया है। सीता की उपस्थिति के बिना दोनों कवियों के उद्देश्य पूरे नहीं हो सकते थे। आदिकाल वाल्मीकि द्वारा रचित दोनों कवियों के उद्देश्य पूरे नहीं हो सकते थे। आदिकवि वाल्मीकि द्वारा रचित रामायण (तमिल कवि कंबन, बँगला कवि रचित रामकथा) और तुलसीकृत रामचरित मानस से प्रेरणा लेकर कितने ही नाटक, उपन्यास, काव्य, लोक-साहित्य लिखे, पढे, मंचित किए और दुहराए जा रहे हैं। कालीदास, भवभूति से लेकर अनेक प्रख्यात आधुनिक साहित्यकारों ने भी अपनी कालजयी रचना का विषय रामकथा ही बनाया है। फादर कामिल बुल्के ने तो विभिन्न भाषाओं और भावों में संग्रहीत रामकथा को ही अपने गहन का विषय बनाया। जनश्रुतियों और जनगाथाओं में वर्णित रामकथा की विविधताओं को तो सूचीबद्ध ही नहीं किया जा सकता।

इन रचनाओं से ठसाठस भरे अक्षर भंडार में रामकथा आधारित एक और रचना का प्रवेश क्यों ? आखिर क्या जरूरत आ पड़ी मेरी लेखनी को मैथिली के मानस में प्रवेश की ? रामकथा के विभिन्न पड़ावों पर सीमा मन के भावों को टटोलने आँकने और शब्दबद्ध करने की ? उपन्यास लेखन की प्रस्तावित आत्मकथा शैली को सुनकर किसी सज्जन ने प्रश्न उठाया, ‘‘आप सीता की आत्मकथा कैसे लिख सकती हैं ?’’ उनका सवाल सही था। आत्मकथा तो आत्मकथा ही होगी। दूसरा अंतरंग-से-अंतरंग व्यक्ति कैसे किसी की आत्मकथा लिख सकता है। समझ के बावजूद मुझे सीता की आत्मकथा लिखना आवश्यक लगता था। इसलिए पुराणों, लोक-साहित्य रामलीलाओं और सभागारों की हजारों गोष्ठियों में भी राम कथा के सोपानों पर सीता के मन को बहुत कम समझा गया है। सच तो यह है कि राम की सहधर्मिता सीता परोक्ष और अपरोक्ष रूप से उनसे अभिन्न होकर भी  भिन्न थीं। राम के साथ इस भिन्न और अभिन्न व्यक्तित्व को रामचरित-चित्रण में समाया नहीं जा सकता था उसकी भिन्नता और अभिन्नता का आकलन अवश्य शेष रहा है। ऐतिहासिक भारतीय नारी की आत्मिक शक्ति और तदनुकूल आचरण का भी, जो आज साधारण नारियों का भी संबल और धरोहर है।

महाग्रंथों में सीता का चित्रण महाशक्ति जगज्जननी और देवी स्वरूपा के रूप में करके उन्हें मानवीय गुण दोषों से परे कर दिया गया। किसी ने यह सोचा ही नहीं कि नारी देह की जगह पृथ्वी के गर्भ से अपना जन्म लेने का समाचार सुनकर बालपन में ही सीता के मन पर क्या बीती होगी ? पिता द्वारा विवाह के लिए धनुष-भंग प्रण की पात्र बनी किशोरी सीता के मन में किसी योग्य पुरुष द्वारा पर प्रत्यंचा न चढ़ाने की सोचकर किस व्याकुलता की खलबलाहट हुई होगी? यज्ञशाला में धनुष भंग के लिए प्रयासरत राजाओं के असफल होने पर राजा जनक का आक्रोश उन पर कम अपने द्वारा ली प्रतिज्ञा के कारण अपने ऊपर अधिक था। अत्यधिक पीड़ा में पगे आक्रोश में अपनी बेटी को कुआँरी ही रहने की सोचकर राजा जनक विचलित हो जाने का स्वाभाविक, सचित्र और सटीक वर्णन हमारे आज भी जीवंत है। पाठक, दर्शक और श्रोता उस दृश्य को पढ़ देख-सुनकर आज भी विह्लल होते हैं। हर बेटी का बाप राजा जनक की मानसिक अवस्था को स्वयं जीता है। मगर सीता के मन पर क्या बीती ? उसके मानस की थाह कहाँ लगी ?

माता-पिता द्वारा मिली आज्ञा के सहर्ष शिरोधार्य कर वनवास भोगने के लिए उद्यत किशोर पति के निर्णय के समाचार ने सीता को कैसे उद्वेलित किया ? अपनी किस आत्मिक शक्ति के आधार पर सीता ने स्वयं पति के साथ वन में जाने का हठ किया ? क्या मात्र पति-प्रेम या संस्कार में रचा-बसा पति-भक्तिभाव ही आधार था ? वन्य जीवन के कष्टों से सीता निर्भय कैसे हुईं ? आज्ञाकारिणी और सुसंस्कारित बहू और राम की अत्यंन्त प्रिय पत्नी सीता ने सास-ससुर तथा पति के सुझाव की अवहेलना क्यों की ? राजमहलों में रहनेवाली सीता ने वन्य जीवन के कष्टों को कैसे भोगा ? राम की सच्ची सहयोगिनी कैसे बनीं ? रावण द्वारा हरण की गई सीता ने लंका में भय और आतंक के बीच कैसे अपना जीवन-यापन किया ? कौन सी आंतरिक शक्ति थी। जिसके भयावह विरोधी परिस्थितियों में भी उन्हें सम रखा ? उनके सत को बचाने में सहयोगी बना ?
 रावण-वध के उपरांत अयोध्या लौटने से पूर्व राम सीता की अग्निपरीक्षा लेने का क्या अभिप्राय था ? प्रश्न तो यह उठता है कि शक्ति-संपन्ना सीता ने स्वयं राम की आज्ञा मान ली ? अग्नि परीक्षा क्यों दी ? सीता ने उसे वन जाने की हठ ठानी थी। अग्निपरीक्षा न देने का भी निर्णय ले सकती थी। उसे अपने साथ वन ले जाने तथा उसके अनुग्रह पर ही सोने के मृग के पीछे भगने वाले राम पुनः सीता का निर्णय मान लेते। संभवतः अग्निपरीक्षा न देने के सीता के निर्णय को राम उनकी अवज्ञा नहीं मानते। आखिर सीता ने क्यों स्वीकार की अग्निपरीक्षा ?

अपने पति राजा राम द्वारा निर्वासित होकर भी गर्भवती सीता ने अयोध्या कुल के वंश-बीज को पाल-पोसकर संस्कारित करने का संकल्प लिया। राम का निरादर नहीं किया। क्या उनके अंदर क्रोध-संवेग का स्त्रोत था ही नहीं ? परित्यक्ता माता द्वारा आश्रम में रहकर पालित न संस्कारित किशोर पुत्रों को राम द्वारा अपना लेने के पश्चात् सीता को पुनः अपनी शुद्धता की घोषणा करने की बात उन्होंने क्यों नहीं स्वीकारी ? क्यों अंतर्धान हो गईं ?
पुत्रों को उनके पिता को सौंपकर क्या सीता ने अपने पति को क्षमा कर दिया ? या अयोध्या की ओर मुड़कर भी अयोध्या न जाने का निर्णय कर पति को अपने निर्वासन के लिए क्षमा न करके ही उन्हें दंडित किया ? अंतर्धान होकर अपनी सारी पीड़ाएँ पति को दे उन्हें ही जन-सहानुभूति का पात्र बना गईं ? उपयुक्त सारे प्रश्नों के हल सीता को शक्ति संपन्ना नारी मानकर ही ढूँढे जा सकते थे।

बहुत से प्रश्न अनुत्तरित समझे जाकर भी अनुत्तरित नहीं हैं। लोकमन ने इन प्रश्नों का हल ढूँढ़ा हैं। सीता के अंतर्मन में लाख-लाख नर नारियों ने प्रवेश किया है। अपने बड़े-से-बड़े दुःख को सीता के दुःख के आगे छोटा समझकर धैर्य धारण किया है। राजा की दुलारी, राजा की बहू और राजा की पत्नी के हदय की पीड़ा को सदियों से भारतीय जनमानस ने आत्मसात् किया है। वे स्वयं सीता की पीड़ा में डुबकी लगाते रहे हैं। इसलिए सीता का ‘आत्म’ मात्र एक व्यक्ति का ‘आत्म’ नहीं रहा, सनातन समाज का ‘आत्म’ बना है। सीता की आत्मकथा लिखना कठिन तो था, असाध्य नहीं। अनधिकार चेष्टा भी नहीं। व्यष्टि से समष्टि की ओर ले जाने का प्रयास ही था सीता मन को चाहना राम के प्रवाह में और थामना। मेरी लेखनी भयभीत अवश्य थी। शून्य भित्ति पर चित्र नहीं उकेरना था। चित्र तो हर भित्ति पर उकेरा हुआ है। अपनी लेखनी द्वारा उकेरे चित्र को विचित्र भी नहीं बनाया था। कोटिशः हदयों में चित्रित सहस्त्रों चित्रों का योग आज के संदर्भ में सीता-चरित्र को पठनीय, दर्शनीय और मननीय बनाने के लिए आत्मकथा शैली ही उपयुक्त लगीं।

रचना प्रारम्भ करने से पूर्व मेरी लेखनी जितनी थकमकाई थी, उतनी ही सहज गति से आगे बढ़ती गई। मानो मैथिली स्वयं अपना मानस खोलकर पढ़ रही हों, हिया के दर्द और हुलास उड़ेल रही हों, दर्द को उत्सव में परिवर्तित कर रही हों, लंका की पीड़ा को भी उत्सव बना रही हों, राम के प्रति अपने हिया की प्रेमबेल को पीड़ा-रस से सींचती रही हों। इसलिए मेरी लेखनी ने तो मात्र द्रष्टा का काम किया हैं। रामकथा के प्रमुख पड़ावों पर सीता की मानवीय छवि को उकेरा है।
बहुश्रुत, बहुप्रचारित और बहुआयामी सीता के जीवन को रामायण के काव्य से लेकर वटगमनी तक पीड़ादायी ही बनाया गया है। राम के साथ वन-गमन, रावण द्वारा हरण, पति द्वारा गर्भवती सीता का निर्वासन पढ़ने-सुननेवालों को दर्द की अनुभूति देता रहा है। परंतु वन लंका और वाल्मीक आश्रम में स्वयं सीता ने पीड़ा का हरण किया है। विषम परिस्थितियों को अपने संकल्प से सम और सुखकारी बनाया है। अपनी आत्मिक शक्ति का उदाहरण प्रस्तुत किया है। इसलिए मिथिला और अवध में बिताए उत्सवीय समय की भाँति वन, लंका और आश्रम में बीता काल  भी सीता के जीवन का उत्सवकाल रहा है। सीता तो पलंग, की गोद में डिंडोले में ही पाँव रखती रहीं। सौभाग्यशाली पत्नी द्वारा पति के साथ वन जाने के लिए निर्णय का मंगलमय होना ही था। मगर अशोक वाटिका और वाल्मीक आश्रम में राम से विलग होकर भी जीवन को उत्सवमय कर लेना सीता के तपमय व्यक्तित्व की विशेषता थी। उन दोनों विकटतम  स्थितियों में सीता की तपस्या से राम का जीवन मंगलमय होता है।

जैसे-जैसे रामकथा आगे बढ़ती है, सीता का व्यक्तित्व विस्तृत होता जा रहा है। बेटी, बहूँ, पत्नी भाभी की भूमिकाओं में सीता की ममतामयी आकृति ही उभरी। इसलिए वह बिना जननी बने ही माँ की ममता से ओतप्रोत रहीं अशोक वाटिका में हनुमान के पुत्रवत् प्रमाण को वे मातृ-हदय से ही ग्रहण करती हैं। कुश और लव के पालन-पोषण में उनकी ममता विस्तार लेती है। महर्षि वाल्मीकि उन्हें ‘माँ’ कहकर पुकारने लगते हैं। उन्होंने तो राम के लिए सीता से क्षमा माँग ली। माता इसलिए कि वे माँ बन चुकी थीं। माँ का सहज गुण हो जाता है।

सीता की आत्मकथा लिखने के लिए अपनी लेखनी उठाने से पूर्व मैं असमंजस में अवश्य थी। पर सीता के जीवन के कठिनम प्रसंगों में उनसे बातें करना सुखद अनुभूति थी। रचनाक्रम में मैं स्वयं सुख-दुख राग-विराग, कुतुहल जैसे भावों में डूबती-उतराती रही। सभी स्थतियों में आनंद मिला, रचना का सुख। सीता (नारी) का जीवन स्वयं सृष्टि की अमूल्य, अक्षय और अमर रचना है। कई लोगों ने डराया भी। कुछ ने चुनौतियाँ दी। मित्रों ने मेरे संकल्प को सराहा शुभकामनाएं दीं।
रामकथा तो बचपन से सुनती आई हूँ। प्रातःकाल आँखें खुलते ही नंगी खाट पर साग बीनती माँ को गाते सुनती रही-‘‘साग-पात की बाड़ी। लक्ष्मणजी रखवाली सीताजी रसोइया। कीड़ा-मकोड़ा झड़ जाए।’’ रामकथा के प्रसंगों में सीता की स्थिति का वर्णन कर बिसूरती माँ के आँसू हर पल मुझे भी भिगोते रहे। माँ तो स्वयं सीता ही बन जाती थीं। सीता के दुख को आत्मसात करती माँ बहुत बड़ी दिखती थीं। मेरी जीवन यात्रा के क्रम में भी हजारों सीताएँ मिली हैं। उनमें सीता-चरित्र का एक-एक कण व्याप्त है। दुःखों को झेलती सीता की छवि लोकमानस की आँखों में झूलती रहती हैं, पर लोक-चित्त में स्थिति सीता अबला नहीं हैं, उनमें बड़ा तेज़ है। आत्मगौरव है। राम से अपना अटूट संबंध बनाए हुए मात्र निरपेक्ष होने का संकल्प उनके मातृत्व पद से उत्पन्न वैरागी की उपज है। मातृत्व भी एक शौर्य भाव है। उनके दर्द और शौर्य को आत्मसात करने की कोशिश करती रहती हूँ। तभी यह लिखना सहज और संभव हुआ।


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