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जीवनी/आत्मकथा >> माटी बन गई चंदन

माटी बन गई चंदन

मिलापचंद डंडिया

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :193
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5492
आईएसबीएन :81-7315-656-5

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प्रस्तुत है भैरोसिंह शेखावत की जीवन गाथा

Mati ban gayi chandan

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘माटी बन गई चंदन’ भारत के उपराष्ट्रपति भैरोंसिंह शेखावत की संक्षिप्त जीवन गाथा है। शेखावत का जन्म लगभग चौरासी वर्ष पूर्व तत्कालिक जयपुर रियासत के एक अनाम गाँव खाचरियावास में हुआ था। गाँव की पाठशाला में अक्षर-ज्ञान प्राप्त किया। हाई-स्कूल की शिक्षा गाँव से तीस किलोमीटर दूर जोबनेर से प्राप्त की, जहाँ पढ़ने के लिए पैदल जाना पड़ता था। हाई स्कूल करने के पश्चात जयपुर के महाराजा कॉलेज में दाखिला लिया ही था कि पिता का देहांत हो गया और परिवार के आठ प्राणियों का भरण-पोषण का भार किशोर कंधों पर आ पड़ा, फलस्वरूप हल हाथ में उठाना पड़ा। बाद में पुलिस की नौकरी भी की; पर उसमें मन नहीं रमा और त्यागपत्र देकर वापस खेती करने लगे।

स्वतंत्रता-प्राप्ति के पश्चात लोकतंत्र की स्थापना में आम नागरिक के लिए उन्नति के द्वार खोल दिए। राजस्थान में वर्ष 1952 में विधानसभा की स्थापना हुई तो शेखावत ने भी भाग्य आजमाया और विधायक बन गए। फिर पीछे मुड़ कर नहीं देखा तथा सीढ़ी-दर-सीढ़ी चढ़ते हुए विपक्ष के नेता, मुख्यमंत्री और उपराष्ट्रपति पद तक पहुँच गए।

‘माटी बन गई चंदन’ में श्री शेखावत के चौरासी वर्षों के संघर्षशील व जुझारू जीवन, उनके राजनीतिक चातुर्य और प्रशासनिक कौशल, मानवीय संवेदनाओं, शत्रु को भी मित्र बनाने की कला आदि का दर्शन कराने का प्रयास किया गया है। ‘माटी बन गई चंदन’ भारतीय लोकतंत्र की महानता की भी गाथा है, जिसने एक साधारण किसान परिवार में जन्म लेने वाले व्यक्ति का सत्ता के शिखर तक पहुँचना संभव बनाया।


प्राक्कथन


हजारों साल नरगिस अपनी बेनूरी पर रोती है,
बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावार पैदा।


शायर की यह उक्ति भारत के उपराष्ट्रपति भैरोसिंह शेखावत पर शत-प्रतिशत सही बैठती है।
एक साधारण से किसान परिवार में जब शेखावत ने जन्म लिया, उस समय सीकर जिले का एक गुमनाम गाँव खाचरियावास तिहरी गुलामी में जी रहा था। पेड़ की छाँव के नीचे अपनी प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त कर शेखावत उच्च शिक्षा प्राप्त करने का सपना सँजो ही रहे थे कि अठारह वर्ष की आयु में ही पिता का साया सिर से उठ गया। किशोरावस्था में ही माँ, पत्नी, चार छोटे भाइयों और दो बहनों के भरण-पोषण का भार कंधों पर आ गया, अतः पढ़ाई छोड़कर हल हाथ में उठाना पड़ा। छोटी जोत, बार-बार पड़ने वाली प्रकृति की मार, फसल बरबाद होने पर भी लगान-वसूली के लिए ठिकानेदार की ज्यादती और बड़ा परिवार, ऐसे में पूरा न पड़ने के कारण खेती छोड़कर सरकारी नौकरी करनी पड़ी; पर मन नहीं लगा और पुलिस इंस्पेक्टरी से इस्तीफा देकर पुनः हल थाम लिया।

देश आजाद हुआ, राजाओं के राज भी समाप्त हुए और विभिन्न रजवाड़ों को मिलाकर राजस्थान राज्य की स्थापना हुई। देश का अपना संविधान बना और राजस्थान में भी विधानसभा की स्थापना हुई। स्वतंत्रता से पूर्व गरीबी, किसी का दर्द, प्रकृति की मार, जागीरदारों की निरंकुशता आदि पीड़ाओं से जूझते शेखावत राजनीति में कूद पड़े और राजस्थान की प्रथम विधानसभा के चुनावों में दाँता रामगढ़ विधानसभा क्षेत्र से निर्वाचित होकर सन् 1952 में विधायक बन गए। उसके बाद शेखावत ने पीछे मुड़कर नहीं देखा, विधायक, विपक्ष के नेता, तीन-तीन बार मुख्यमंत्री पद से देश के उपराष्ट्रपति जैसे गरिमामय पद तक पहुँचे।

सत्ता के सिंहासन पर बैठकर भी शेखावत गाँव, गरीब और किसान को नहीं भूले। मुख्यमंत्री के रूप में इन्होंने अपनी प्रत्येक नई योजना इन्हीं तीनों को केन्द्र में रखकर बनाई। गरीबों में भी सबसे गरीब व्यक्ति को स्वावलंबी बनाने के उद्देश्य से शेखावत द्वारा प्रणीत ‘अंत्योदय’ योजना के चमत्कारी परिणामों से प्रभावित होकर विश्व बैंक के तत्कालीन अध्यक्ष मैकनेमारा शेखावत को ‘आधुनिक रॉकफेलर’ बताने से अपने आपको नहीं रोक सके।

उपराष्ट्रपति पद पर पहुँचकर भी शेखावत सदैव जमीन से जुड़े रहे। आज के समय में उनके जैसा हर दिल अजीज नेता मिलना मुश्किल है। वे सभी जाति धर्मों, जातियों, वर्गों और विचारधाराओं के लोगों में समान रूप से लोकप्रिय हैं। पहले जन संघ और बाद में भारतीय जनता पार्टी के नेता रहने के बावजूद शेखावत ने अल्पसंख्यक समुदाय के उत्थान व उनके अधिकारों के लिए मुख्यमंत्री के रूप में जो कुछ किया, वह बेमिसाल है, यह बात भले ही अविश्वसनीय लगे, पर यह सत्य है कि शेखावत ने सन् 1994 में ही अल्पसंख्यकों को राजस्थान में ओ.बी.सी. की दर्जा प्रदान कर दिया था। यही कारण है कि अल्पसंख्यक की शेखावत में अटूट आस्था है और भाजपा से लंबे संबंध के बावजूद उनको वे पूर्णतः धर्मनिरपेक्ष और अल्पसंख्यकों का हित-चिंतक मानते हैं।

जीवनपर्यंत एक ही राजनीतिक पार्टी से जुड़े रहने के बावजूद शेखावत दलगत राजनीति से सदैव दूर रहे। मुख्यमंत्री के रूप में उन्होंने सभी पार्टियों के लोगों से चाहे वे काँग्रेस के हों या साम्यवादी दल के, समान व्यवहर किया और राष्ट्र-हित व समाज-हित के किसी भी विषय पर दलगत-भावना को सदैव परे रखा। उपराष्ट्रपति का चुनाव लड़ा तो पहले भारतीय जनता पार्टी की सदस्यता से त्यागपत्र दिया और फिर कभी मुड़कर उसकी ओर नहीं देखा। चाहे कोई भी सरकार रही हो, सत्ता पक्ष या विपक्ष, किसी को भी उनके व्यवहार से कभी शिकायत नहीं रही। शेखावत ने पाँच वर्ष के कार्यकाल में अपने गरिमापूर्ण व्यवहार के कारण राज्यसभा में सभी पार्टियों से जो सद्भाव व मैत्री अर्जित की, वह बेमिशाल है।
सांसदों के भ्रष्ट आचरण के संबंध में राज्यसभा में सभापति की हैसियत से शेखावत द्वारा उठाए गए कदम संसदीय इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अंकित होंगे। उनके ये कदम उच्च स्तरों से भ्रष्टाचार-निवारण के प्रति उनकी दृढ़ निष्ठा का प्रतीक हैं। यह इस बात का प्रमाण है कि उनकी कथनी और करनी में कभी अंतर नहीं रहा।

शेखावत को महानता विरासत में नहीं मिली, इसे उन्होंने स्वयं अपने आचरण, श्रम लगन व दूरदर्शिता से अर्जित किया है। शेखावत के लिए ही शायद किसी ने कहा है—

‘‘जब भी पीया है पत्थर तोड़कर पीया है;
बूँद भर एहसान नहीं है इनपर समंदर का।’’

वास्तव में भैरोसिंह शेखावत इस देश को लोकतंत्र का अनुपम उपहार हैं।
शेखावत जैसे बहुआयामी एवं विराट् व्यक्तित्व पर ग्रंथ-के-ग्रंथ लिखे जा सकते हैं। इस पुस्तक में तो उसकी एक झलक मात्र प्रस्तुत की गयी है। आशा है, पाठकों को यह प्रयास पसंद आएगा।

इस पुस्तक को तैयार करने में मुझे श्री भैरोसिंह शेखावत की पुत्री श्रीमती रतन कँवर, दौहित्री सुश्री मूमल राजवी, श्री के.एल.कोचर, डॉ. के.बी.ठाकुर, डॉ. बहादुरसिंह राठौड़, श्री डी.एन. गुप्ता व श्री कल्याणमल शर्मा आदि से भरपूर सहयोग मिला है। श्री दीपक कुमार ने पूरे मन से पुस्तक की पांडुलिपि तैयार की और श्री अनिल लोढ़ा ने पूरी पांडुलिपि पढ़कर उसमें सुधार के महत्त्वपूर्ण सुझाव दिए। मैं इन सबके प्रति हृदय से आभारी हूँ।

1 जून, 2007

-मिलापचंद डंडिया

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 प्रारंभिक काल


राजस्थान की राजधानी जयपुर से 70 किलोमीटर दूर सीकर जिले में एक छोटा सा गाँव है—खाचरियावास। भारत गणराज्य के वर्तमान उपराष्ट्रपति भैरोसिंह शेखावत का जन्म इसी गाँव में 23 अक्तूबर, 1923 को हुआ था। जयपुर रियासत के अंतर्गत खाचरियावास के तत्कालीन ठिकानेदार ठाकुर विजयसिंह थे। इनके देहावसान पर तब प्रचलित परंपराओं के अनुसार उनके सबसे बड़े पुत्र गोविन्द सिंह उनके उत्तराधिकारी हुए तथा तीन अन्य पुत्रों—गोपालसिंह, प्रतापसिंह तथा केसरीसिंह प्रत्येक को गढ़ के बाहर रहने के लिए एक-एक हवेली और पाँच सौ रुपये सालाना आय की खुदकाश्त की जमीन दे दी गई।

गोपालसिंह के भी चार पुत्र तथा दो पुत्रियाँ हुईं। कालूसिंह सबसे बड़े थे। फिर श्योनाथसिंह, बिरद सिंह, देवीसिंह, बने कँवर और सबसे छोटे कानसिंह थे। भैरोसिंह इन्हीं देवीसिंह के ज्येष्ठ पुत्र हैं। भैरोंसिंह से पहले दो पुत्रियाँ-नयन और कुंदन-हो चुकी थीं। देवीसिंह खेती-बारी कर अपनी आजीविका चलाते रहे, परंतु इससे पूरा नहीं पड़ने के कारण उनको नौकरी करने पड़ी।

देवीसिंह मैट्रिक पास थे, अतः उनको ठिकाने द्वारा संचालित प्राइमरी स्कूल में अध्यापक की नौकरी मिल गई। बाद में उनके चाचा प्रतापसिंह ने, जो सरकार में सुरिटेंडेंट के पद पर आसीन थे, कस्टम विभाग में दारोगा की नौकरी दिला दी। उनकी प्रथम पोस्टिंग खाचरियावास के निकट स्थित ग्राम किशनगढ़ रेणवाल में हुई, परंतु शीघ्र ही उनका स्थानांतरण वहाँ से काफी दूर सवाई माधोपुर जिले के मलारना रेलवे स्टेशन से तीन-चार किलोमीटर दूर बीछीदाना गाँव में हो गया। वहाँ कस्टम की चौकी पर रहने की कोई व्यवस्था नहीं थी, अतः देवीसिंह को वहाँ एक कच्चा मकान (जिसे झोंपड़ा कहना ही अधिक उपयुक्त होगा) किराए पर लेकर तीन बच्चों के साथ रहना पड़ा। ये तीन बच्चे थे—आज के उपराष्ट्रपति भैरोसिंह शेखावत और उनकी दो बड़ी बहनें—नयन एवं कुंदन।


चटशाला में पढ़ाई


बीछीदाना में विद्यालय के नाम से सीताराम जी के मन्दिर के पास एक चटशाला चलती थी, जिसे गुरु भौंरीलाल जी चलाते थे। दस-बारह विद्यार्थी थे। विद्यार्थीगण खुले मैदान में पेड़ की छाया में चलनेवाली इस चटशाला में गरमियों में लू के थपेड़े और सर्दियों में हाड़ कँपा देने वाली ठंडी हवाओं को सहते हुए शिक्षा प्राप्त करते थे। खुले आकाश में चलनेवाली इस कक्षा की झाड़ू-बुहारी भी विद्यार्थी करते और पीने के लिए पानी भी मंदिर परिसर में स्थित कुएँ से वे ही खींच कर लाते। बच्चे जमीन पर ही बैठते। एक बच्चा पहाड़ा या वर्णमाला सस्वर में बोलता और शेष बच्चे उसी प्रकार उसे दोहराते।

 लकड़ी की तख्ती पर गेरू फैलाकर अक्षर-ज्ञान हेतु अभ्यास पुस्तिका का काम लिया जाता। उस पर अंगुली से अक्षर बनाते और मिटाते, फिर बनाते और मिटाते। यही क्रम चलता रहा। फीस के रूप में गुरुजी को माह में चार बार एक सेर आटा, एक छिटाक घी, एक पाव दाल और थोड़ मसाले—यानी उस समय की मूल्य तालिका के अनुसार लगभग चार आना प्रति सप्ताह देना पड़ता था। भैरोंसिंह शेखावत ने इसी चटशाला में लगभग चार वर्ष तक अपनी प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त की।
बाद में देवीसिंह का स्थानांतरण मरवा ग्राम में हो गया और वहाँ से हिंगोनिया साली-साखून। इसी दौरान भैरोंसिंह के तीन भाई और हो गए—बिशन सिंह, गोरधनसिंह और लक्ष्मणसिंह। हिंगोनिया आने के बाद भैरोंसिंह को पड़ने के लिए नवलगढ़ भेज दिया गया। वहाँ वे हॉस्टल में रहकर पोद्दारों के स्कूल में पढ़ने लगे, परंतु वहाँ बीमार पड़ जाने के कारण उन्हें खाचरियावास बुला लिया गया और वहीं ठिकाने की ओर से चलनेवाले प्राथमिक विद्यालय में भरती करा दिया गया।

 

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