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गजलें और शायरी >> जिगर से बीड़ी जला ले

जिगर से बीड़ी जला ले

हुल्लड़ मुरादाबादी

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :88
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5486
आईएसबीएन :978-81-8143-611

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हुल्लड़ मुरादाबादी का व्यंग्य गजल संग्रह...

Jigar Se Bidi Jala Le

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘जिगर से बीड़ी जला ले’ श्री हुल्लड़ मुरादाबादी की ख्याति हास्य-व्यंग्य विधा के श्रेष्ठ कवि के रूप में हैं लेकिन उन्होंने जो दोहे और गजलें कही हैं वे उन्हें एक दार्शनिक कवि के रूप में स्थापित करने के लिए पर्याप्त हैं। हास्य के लहजे में कुछ शेर तो उन्होंने ऐसे कहे हैं जो बेजोड़ हैं और हज़ार-हज़ार लोगों की जुबान पर है। हिन्दी में तो कोई भी हास्य का ऐसा कवि नहीं है जो उनकी गजलों के सामने सर उठाकर खड़ा हो सके। उनका ये शेर तो हिन्दी कविता की ही नहीं, उर्दू भाषा की भी सम्पत्ति है सबको इस रजिस्टर में हाजिरी लगानी पड़ती है मौत वाले दफ्तर में छुट्टियाँ नहीं होती इसके अलावा और भी कितने ही शेर हैं जो हिन्दी गजल की उपलब्धि कहे जा सकते हैं। ‘जिगर से बीड़ी जला ले’ व्यंग्य गजल संग्रह के लिए हुल्लड़ जी को मेरी बहुत-बहुत बधाई।

 

जिसने करके साज़िशें, ग़म दे दिए तमाम
यह किताब मैं कर रहा, उसी शख़्स के नाम


हुल्लड़ मुरादाबादी


मान जा तदबीर पर मत नाज़ कर
शक किया वो भी खुदा पर, डूब मर
नैमतें देगा मगर यह शर्त है
तू उसी के नाम से आगाज़ कर


साल आया है नया

 


बाल धोनी से बढ़ा ले, साल आया है नया
कटिंग के पैसे बचा ले, साल आया है नया

ऐड की शूटिंग करो, किरकेट जाए भाड़ में
रैंप पर खुद को चला ले, साल आया है नया

जो पुरानी चप्पलें हैं, मन्दिरों के पास रख
कुछ नये जूते उठा ले, साल आया है नया

आरती का थाल आए तो चवन्नी डालकर
नोट तू दस का उठा ले, साल आया है नया
 
चार मुक्तक तो हमारे सामने ही पढ़ गया
संकलन पूरा चुरा ले, साल आया है नया

चाहता है तू हसीनों से अगर नज़दीकियाँ
चाट का ठेला लगा ले, साल आया है नया
 
मैं अठन्नी दे रहा था, तब भिखारी ने कहा
तू यहां चादर बिछा ले, साल आया है नया

चार दिन तो बर्फ गिरने के बहाने चल गए
आज तो ‘हुल्लड़’ नहा ले, साल आया है नया

जो कि पिछले साल तुझको दे रहा था गालियाँ
चाय पर उसको बुला ले साल आया है नया


रोज़ कुछ टाइम निकालो मुस्कराने के लिए

 


मसखरा मशहूर है, आँसू छिपाने के लिए
बाँटता है वो हँसी, सारे ज़माने के लिए

ज़ख्म सबको मत दिखाओ, लोग छिड़केंगे नमक
आएगा कोई नहीं मरहम लगाने के लिए

देखकर तेरी तरक्की, खुश नहीं होगा कोई
लोग मौका ढूँढ़ते हैं काट खाने के लिए

फलसफा कोई नहीं है और न मकसद कोई
लोग कुछ आते जहाँ में, हिनहिनाने के लिए


मिल रहा था भीख में सिक्का मुझे सम्मान का
मैं नहीं तैयार था झुककर उठाने के लिए

ज़िन्दगी में गम बहुत हैं, हर कदम पर हादसे
रोज़ कुछ टाइम निकालो मुस्कराने के लिए


अच्छा है पर कभी कभी

 


बहरों को फरियाद सुनाना, अच्छा है पर कभी कभी
अन्धों को दर्पण दिखाना, अच्छा है पर कभी कभी

ऐसा न हो तेरी कोई उँगली गायब हो जाए
नेताओं से हाथ मिलाना, अच्छा है पर कभी कभी

बीवी को बन्दूक सिखाकर तुमने रिस्की काम किया
अपनी लुटिया आप डुबाना अच्छा है पर कभी कभी

हाथ देखकर पहलवान का, अपना सर फुड़वा बैठे
पामिस्ट्री में सच बतलाना, अच्छा है पर कभी कभी

तुम रूहानी शे’र पढ़ोगे, पब्लिक सब भग जायेगी
भैंस के आगे बीन बजाना, अच्छा है पर कभी कभी

घूँसे लात चले आपस में, संयोजक का सिर फूटा
कवियों को दारू पिलवाना अच्छा है पर कभी कभी
 
जितने चाँदी के चम्मच थे, सबके सब गायब पाए
कवियों को मेहमान बनाना अच्छा है पर कभी कभी

पचीस डालर जुर्माने के पीक थूकने में खर्चे
वाशिंगटन में पान चबाना, अच्छा है पर कभी कभी

मिस्टर टुल्लानन्द भारती सम्मेलन में हूट हुए
किसी और के गीत सुनाना अच्छा है पर कभी कभी

तू मन्दिर में ढूँढ़ रहा है, वो तो तेरे दिल में है
पत्थर को भगवान बनाना, अच्छा है पर कभी कभी

बाहर काफी चकाचौंध है भीतर बहुत अँधेरा है
धन की खातिर खुद बिक जाना अच्छा है पर कभी कभी

हमने देखा कल सपने में लालू जी ने दूध दिया
गाय भैंस का चारा खाना अच्छा है पर कभी कभी


छुट्टियाँ नहीं होतीं

 


इतनी ऊँची मत छोड़ो, गिर पड़ोगे धरती पर
क्योंकि आसमानों में, सीढ़ियाँ नहीं होतीं

मत करो बुढ़ापे में इश्क की तमन्नाएँ
क्योंकि फ्यूज़ बल्बों में बिजलियाँ नहीं होतीं

रोज़ क्यों नहाते हो वज्न मत घटाओ तुम
वो बदन भी क्या जिसमें खुजलियाँ नहीं होतीं

जब से यह पुलिस वाले गश्त पर नहीं आते
तबसे इस मुहल्ले में चोरियाँ नहीं होतीं
 
ये तो आम जनता है चाहे चूस लो जितना
फिक्र मत करो इनमें गुठलियाँ नहीं होतीं

मार खा के सोता है रोज़ अपनी आया से
सबके भाग्य में माँ की लोरियाँ नहीं होतीं

जो तलाश में खुद की चल रहे अकेले हैं
यार उनके पावों में जूतियाँ नहीं होतीं

वो भरी जवानी में खुदकुशी नहीं करता
काश उसके कुनबे में बेटियाँ नहीं होतीं

सबको उस रज़िस्टर पर हाज़िरी लगानी है
मौत वाले दफ़्तर में छुट्टियाँ नहीं होतीं

जो ज़मीर रख आए जेब में पड़ोसी की
उनसे देशभक्ति की गलतियाँ नहीं होतीं

कर्म के मुताबिक ही फल मिलेगा इंसां को
आम वाले पेड़ पर भिण्डियाँ नहीं होतीं

नाम में शहीदों के डिग्रियाँ नहीं होतीं
बदनसीब हाथों में चूड़ियाँ नहीं होतीं

बूँद में समन्दर को जिसने पा लिया ‘हुल्लड़’
साहिलों से फिर उसकी दूरियाँ नहीं होतीं


ज़रूरत क्या थी ?

 


आईना उनको दिखाने की ज़रूरत क्या थी ?
वो हैं बन्दर ये बताने की ज़रूरत क्या थी ?

घर पे लीडर को बुलाने की ज़रूरत क्या थी
नाश्ता उनको कराने की ज़रूरत क्या थी ?

चार बच्चों को बुलाते तो दुआएँ मिलतीं
साँप को दूध पिलाने की ज़रूरत क्या थी

दो के झगड़े में पिटा तीसरा चौथा बोला
आपको टाँग अड़ाने की ज़रूरत क्या थी ?

चोर जो चुप ही लगा जाता तो वो कम पिटता
बाप का नाम बताने की ज़रूरत क्या थी ?

जब पता था कि दिसम्बर में पड़ेंगे ओले
सर नवम्बर में मुड़वाने की ज़रूरत क्या थी ?

अब तो रोज़ाना गिरेंगे तेरे घर पर पत्थर
आम का पेड़ लगाने की ज़रूरत क्या थी ?

जब नहीं पूछा किसी ने क्या थे जिन्ना क्या नहीं ?
आप को राय बताने की जरूरत क्या थी ?

एक शायर ने ग़ज़ल की जगह गाली पेली
उसको दस पेग पिलाने की ज़रूरत क्या थी ?

दोस्त जंगल में गया हाथ गवाँकर लौटा
शेर को घास खिलाने की ज़रूरत क्या थी ?


सारे बन्दर आजकल

 


शायरों को मिल रहे हैं ढेरों पत्थर आजकल
क्योंकि मँहगे हो गए हैं अण्डे आजकल

गद्य में भी चुटकले हैं पद्य में भी चुटकले
रो रहा है मंच पर ह्युमर सटायर आजकल
 
इन कुएँ के मेढकों ने पी लिया है पानी सभी
डूबकर मरने लगे हैं सब समन्दर आजकल

गीत चोरी का सुनाया उसने अपने नाम से
रह गया है शायरा का यह करैक्टर आजकल

काटने को दौड़ता है हर दिवस सप्ताह का
जब से सर पर चढ़ गया है यह शनीचर आजकल

आदमी के ख़ून का प्यासा हुआ है आदमी
हँस रहे हैं आदमी पर सारे बन्दर आजकल


हज़ारों मोनिका लाता

 


ग़रीबी ने किया कड़का, नहीं तो चाँद पर जाता
तुम्हारी माँग भरने को सितारे तोड़कर लाता

बहा डाले तुम्हारी याद में आँसू कई गैलन
अगर तुम फ़ोन न करतीं यहाँ सैलाब आ जाता

तुम्हारे नाम की चिट्ठी तुम्हारे बाप ने खोली
उसे उर्दू जो आती तो मुझे कच्चा चबा जाता

तुम्हारी बेवफाई से बना हूँ टाप का शायर
तुम्हारे इश्क में फँसता तो सीधे आगरा जाता
 
ये गहरे शे’र तो दो वक़्त की रोटी नहीं देते
अगर न हास्य रस लिखता तो हरदम घास ही खाता

हमारे चुटकुले सुनकर वहाँ मज़दूर रोते थे
कि जिसका पेट खाली हो कभी भी हँस नहीं पाता
 
मुहब्बत के सफर में मैं हमेशा ही रहा वेटिंग
किसी का साथ मिलता तो टिकट कन्फर्म हो जाता

कि उसके प्यार का लफड़ा वहाँ पकड़ा गया वर्ना
नहीं तो यार ये क्लिंटन हज़ारों मोनिका लाता


मुल्क तो इनका मकां है साथियो

 


ना यहाँ है ना वहाँ है साथियो
आजकल इंसां कहाँ है साथियो

आम जनता डर रही है पुलिस से
चुप यहाँ सब की जबाँ है साथियो

पार्टी में हाथ है हाथी कमल
आदमी का क्या निशां है साथियो

लीडरों का एक्स-रे कर लीजिए
झूठ रग रग में रवाँ है साथियो

ये उठा दें रैंट पर या बेच दें
मुल्क तो इनका मकां है साथियो






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