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निरूत्तर

प्रतिभा राय

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :123
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5477
आईएसबीएन :81-263-1004-9

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मनुष्य और उसके ब्राह्म एवं अन्त-परिवेश के अभिनव रूप की तसवीरें...

Niruttar

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

उड़िया कथा-साहित्य की प्रख्यात लेखिका प्रतिभा राय की लम्बी कथा-यात्रा के मार्ग में एक नये पड़ाव के रूप में प्रस्तुत है उनका नवीनतम कहानी-संग्रह ‘निरुत्तर’।
निरुत्तर की कहानियों में मनुष्य और उसके बाह्य एवं अन्तःपरिवेश के अभिनव रूप तथा अप्रकट तसवीरें अपनी सम्पूर्णता में उभरकर आयी हैं। इनमें मनुष्य और मानवीयता के बीच के अन्तर तथा मानवीय अनुभूतियों को बड़े ही सरल, सहज और मर्मस्पर्शी शैली में व्यक्त किया गया है। यही कारण है कि लेखिका के कथा-कर्म का प्रतिनिधि व केन्द्रीय स्वर इनमें गहरी आत्मीयता के साथ सुनाई देता है।

भाषा, शैली, कथ्य, अभिव्यक्ति एवं मानवीय संवेदनाओं की दृष्टि से विचार करें तो संग्रह की एक-एक कहानी इस बात की पुष्टि करती है कि देश काल पात्र, भाषा और आत्माभिव्यक्ति की बहुविधि सीमाओं से मुक्त होकर सार्वजनिक व चिरन्तन हो जाना ही एक अच्छी कहानी की परिभाषा है। यही वजह है कि आज देश में प्रतिभा राय की कहानियों और उपन्यासों का एक विशाल पाठक-वर्ग दिखाई देता है।
लेखिका भारतीय नारी की प्रतिष्ठा के प्रति भी निरन्तर सजग रहीं है। सामाजिक अन्याय का खुलकर विरोध करने में उन्होंने कभी संकोच नहीं किया। सात्त्विक आक्रोश उनकी सारस्वत साहित्य-साधना में सहज ही देखा जा सकता है। मनुष्य की कमजोरियों को सहानभूतिपूर्वक प्रकट करते हुए मानवीय और आध्यात्मिक मूल्यबोध के सहज स्पर्श से पाठकों के मन को अभिभूत और उद्वेलित करना प्रतिभा राय की कथा-शैली की एक अन्य विशेषता है।

पाठकों को समर्पित है ‘देवकी’ के बाद प्रतिभा राय का यह एक और कहानी संग्रह ‘निरुत्तर’।

पादुका-पूजन


राम जैसा पितृभक्त कौन है या लक्ष्मण-भरत जैसा भ्रातृभक्त और कौन जनमा है इस दुनिया में ! पादुका-पूजन में भरत से आगे निकल जाए-ऐसा कोई आदमी नहीं है इस दुनिया में। विधानबाबू के घर पर पादुका पूजन देख कोई कोई ऐसा सोचता है तो कोई-कोई हँसता है। सोचते हैं यह सब दिखावटी भक्ति है। पादुक-पूजन वह भी पिता की नहीं, ना ही माँ की, बल्कि पिता के छोटे भाई और विधानबाबू के चाचा की। माँ-बाप की पादुका की बात छोड़ो, उनकी तो तसवीर तक नहीं है विधानबाबू के घर पर; पर चाचा की पादुका की पूजा हो रही है। उन दिनों फोटो नहीं खिंचता था, भला यह कैसे कहा जा सकता है ? बात है ही कितनी पुरानी ? विधानबाबू का बचपन अभी तीस-पैंतीस साल पहले की ही तो बात है। तब तक शहर के लोगों द्वारा अपनी तस्वीर मँढ़वाकर दीवार पर टाँगने का फैशन आ चुका था। लेकिन निपट गाँव में रहनेवालों के घरों की दीवारों पर जिन्दा लोगों के फोटो खिंचवाकर दीवार पर टाँगना नहीं देखा गया था।

 भगवान की तसवीर छोड़ इनसान की तसवीर दीवार पर टांगकर रोज दर्शन करना-भला कोई क्यों ऐसा अनर्थ करेगा ? एकाध लोगों की तस्वीर और भगवान की तस्वीरें टाँगी जातीं जमींदार-साहूकारों की दीवारों पर। फूल माला पहना धूपबत्ती जलायी जाती थी मरे लोगों की तसवीरों के सामने। इस लिए विधानबाबू के पिता, माता, चाचा, चाची किसी की कोई तस्वीर नहीं है। उनके चेहरे सब मर खप चुके। सिर्फ स्मृति-पटल पर जितना कुछ बचा है, उतना ही आज विधानबाबू के घर में फोटो खींचने का फैशन दिन प्रतिदिन इस कदर बढ़ता जा रहा है कि खाना खाकर हाथ धोते समय का भी फोटो खींचा जाता है। विधानबाबू को इस बात का अफसोस था कि मां, बाबू, चाचा, चाची का कोई फोटो वे नहीं रख पाये। लेकिन सिर्फ चाचा की चमड़े की दो चप्पलें पूजा की चौकी रखकर पूजन की वजह क्या है ?

बच्चों के पूछने पर वे कहते, ‘‘पिताजी की आँखें मुँदते समय मैं पढ़ता था नौवीं कक्षा में। चाचा ने ही बचपन से गोद में खिलाकर बड़ा किया था। पिताजी जीते जी अपने बच्चों को गोद में उठाया हो, यह याद नहीं। पिताजी थे एक गर्म मिजाज वाले आदमी। इसलिए मैं पिताजी की अपेक्षा चाचा को अधिक चाहता था।’’
यह बच्चों के सवाल का सन्तोषजनक उत्तर नहीं था-यह जानते हैं विधानबाबू पर क्या बच्चों को सब कुछ बताया जाता है ? बताने पर भी बच्चे उनकी भावुकता पर उतना ध्यान नहीं देंगे, जितना देती है चित्रा-उनके बच्चों की माँ। बल्कि बच्चे सोचते हैं कि उनके पिता बहुत कंजूस और अकृतज्ञ व्यक्ति हैं। इनके चाचाजी ने इनके लिए इतना कुछ किया पर...

विधानबाबू के घर का पादुका पूजन बन्धु-बान्धवों के बीच एक चर्चा का विषय बन गया था। इसका मतलब यह नहीं कि विधानबाबू चाचा के प्रति अपनी भक्ति का प्रचार कर रहे थे। बल्कि विधानबाबू ने अपने शयन कक्ष के एक कोने में रखी चौकी पर मखमल का एक लाल कपड़ा बिछाकर उस पर चमड़े की दो पुरानी चप्पलें रखी हुई हैं। उन पर चन्दन के छींटे सूख चुके हैं। हर, साल चाचा का श्रीबदन चन्दन और धूप से पूजते हैं क्योंकि भतीजा होने के कारण वे चाचा का पिण्ड नहीं पूज सकते। हर रोज नहाने के बाद भगवान की तसवीर को प्रणाम करते समय पिता, माता, चाचा की पादुका को प्रणाम करते हैं। बात सिर्फ इतनी-सी है; लेकिन वह बात छिपी नहीं रही। आजकल जन्म देने वाले माता-पिता के नाक में भी योग्य सन्तानों ने दम कर रखा है। मरने पर चाचा-चाची को भला कौन पूछता है। परन्तु मृत चाचा का पादुका पूजन करना क्या कलियुग में पितृपुरुष के प्रति भक्ति का एक ज्वलन्त उदाहरण नहीं है ? बात-बात पर पास-पड़ोस बन्धु-बान्धव अपने बिगड़ैल बेटा-बेटी से कहा करते, ‘‘जाकर देख आओ विधानबाबू का घर।

कितने महान व्यक्ति हैं-कितने विद्वान, कितने ख्याति प्राप्त, पर चाचा का पादुका पूजन करते हैं। पितृपुरुष की भक्ति के कारण वे दिनों दिन ऊपर से ऊपर बढ़ते जा रहे हैं, जाओ देखो, जरा सी सद्बुद्धि तुम लोगों को भी मिलेगी...’’
विधानबाबू के सामने कोई उनकी इस तरह प्रशंसा करता तो वे उदास हो उठते। सीने में एक अजीब-सी पीड़ा होने लगती। अस्सी साल तक चलते-चलते थक चुके चाचा के दो मैले पतले पाँव दिख जाते। आँखें भर आतीं। लोग क्यों दूसरों की बातों में दिमाग खपाते हैं ? उनके असह्य दुःख पर बार-बार चोट करने की क्या जरूरत है ? कोई किसी को पूजे न पूजे, यह उसका निजी मामला है। इसमें दूसरे लोग सिर क्यों खपाते हैं ?

जो लोग विधानबाबू के निकटतम बन्धु-बान्धव हैं, उन्हें विधानबाबू में महज पितृपुरुष के प्रति अगाध भक्ति का ही नमूना पादुका पूजन नहीं देखा-करुणा का एक विचित्र रूप भी देखा है। कोई कुछ मदद माँगने आता तो पहले वह उसके पेट-पीठ की ओर न देख उसके पैरों की ओर देखा करते हैं। एक लम्बी साँस छोड़ते हैं। कुछ मदद करें या न करें पूछते हैं-‘‘तुम्हें एक जोड़ी चप्पलें चाहिए क्या ? मेरी चप्पलें लोगे ? या फिर रुपये देता हूँ एक जोड़ी चप्पलें खरीदकर पहन लेना। देखो, तुम्हारे पैर कितने जलते हैं। बहुत तकलीफ होती होगी गर्मियों में-गर्म रेत पर, पक्की सड़कों पर।’’

रोगी, भिखारी, गरीबी छात्र और मदद माँगने आनेवालों तथा वयस्क अभावग्रस्त रिश्तेदारों को उन्होंने नयी चप्पलें खरीदकर दी हैं। पूछने पर कहते ‘‘सिर्फ अन्नदान या वस्त्रदान ही पुण्यकार्य नहीं है; गर्मियों में, जाड़ों में पादुका दान करना महान पुण्य है। मेरे बचपन में चाचा ने एक बार कहा था...!’’ इतना कहकर कहीं खा जाते विधानबाबू। इससे पता चलता है कि चाचा की बात को वेद वाक्य मान लिया है विधानबाबू ने। वे बड़े विनयी और भावुक भी हैं। विधानबाबू जो कुछ कहना चाहते हैं, नहीं कह पाते। आँखों के आगे उभर आते चाचा के दो सफेद, फूले हुए मृत पैर। वे ही दो पैर किसी दिन विधानबाबू के पैर बने थे। चाचा के पैरों से विधान नामक उस बालक ने उस दिन राह न चली होती तो क्या आज वह इस मुकाम पर पहुँच पाता ?

उन दिनों के संयुक्त परिवार की बात पर आज विधानबाबू के बच्चे विश्वास नहीं करते। विश्वास कर भी ले तो पसंद नहीं करते। परिवार का मतलब क्या गाय-बैल का झुण्ड है ! बाप से बाप दादाजी, पिताजी ताऊजी, चाचा, चाची, बड़ी मां, दादी माँ, सबके बच्चे आने-जाने वाली बुआ, मौसी, दीदी और उनके बच्चे, दूर के रिश्तेदार बन्धु-बान्धव नौकर-चाकर हलवाहे सभी खाएँगे एक ही हाँडी में। इसका मतलब दिन-रात चूल्हा जलता रहेगा शादी विवाह की तरह। किस तरह इतने लोग इकट्ठे रह लेते हैं एक छत के नीचे मुँह बन्द करके-गाय बैलों की तरह ! जिनकी अपनी कोई इच्छा, आग्रह पसन्द यहाँ तक कि कोई खाद्य रुचि तक नहीं होती।

बच्चे एक जैसी पैण्ट-शर्ट पहनते हैं। औरतें सधवा, विधवा के अनुसार एक जैसी साड़ियाँ पहनती हैं। हालांकि मायके की साड़ियाँ अलग होती हैं; लेकिन कभी किसी को एक दूसरे की साड़ी गहने पहनने की कोई मनाही नहीं थी। मानो घर न हो, अखाड़ा हो। दिन-रात हो-हल्ला, शोर शराबा। हर कोई कार्य में व्यस्त। किसी को किसी काम से परहेज नहीं है। कोई सब्जी काटती तो कोई पानी भर लेती-इस गोद से उस गोद तक बच्चों की आवाजाही की तरह इस हाथ से उस हाथ तक काम भी हो जाता आसानी से। हो सकता है औरतों के मन में एक दूसरे के प्रति कुछ दुराव-छिपाव या ईर्ष्या हो। पर वह बात मर्दों के कान तक नहीं पहुँचती। मानों दो राज्य हो, औरतों का, मर्दों का। किशोर विधान मर्दों के राज्य की खबर से परिचित हैं। क्योंकि उसके पिता, चाचा की तरह उसने भी कभी औरतों के राज्य की खबर नहीं रखी। उसने देखा है अपने पिता को। बहुत कड़े मिजाज, कर्मठ सच्चे, सत्यवादी और गम्भीर। विधान उनके पास नहीं जाता। पिता भी बच्चों को गोद में नहीं लेते। सिर्फ कचहरी के काम से जब कटक जाते, कन्दरपुर का नाम रसगुल्ला एक हांडी ले आते बच्चों के लिए।

विधान को रसगुल्ला प्रिय है। भला कौन-सी अच्छी चीज उन दिनों ताड़ से बढ़ते विधान नामक बालक को प्रिय नहीं थी। एक-एक रसगुल्ला आता सबके हिस्से में। बच्चों के दो दो। पिताजी उसी हिसाब से लाते हैं शायद। हालाँकि माँ और चाचा को कभी रसगुल्ला खाते नहीं देखा विधान ने। माँ जबर्दस्ती अपना रसगुल्ला दादी को दे देती। कहती हैं बाल-वृद्ध बराबर हैं। पर चाचा के हिस्से का रसगुल्सा अक्सर विधान के हिस्से में पड़ता है। बाड़ी की ओर बुला ले जाकर चाचा अपना रसगुल्ला विधान के मुँह में डाल देते। कहते, झटपट खा ले। वरना चिल्लर पार्टी पहुँच जाएगी। चील की तरह झपट लेगी देखता रह जाएगा। विधान वह रसगुल्ला जल्दी-जल्दी खा लेने के बाद सोचता चाचा अपने हिस्से का रसगुल्ला उसे न देकर अपने बेटे विराज को भी दे सकते थे। क्योंकि खाने में वह भीम है। पर अपने बेटे और भाई के बेटे में अन्तर करने जैसी कोई बात जब इस घर में होती ही नहीं थी तो फिर रसगुल्ले को लेकर क्यों हो ?

चाचा पिताजी की तरह बुद्धिमान और कमेरे नहीं थे। जिस काम में भी हाथ डालते, वह डूब जाता। पिताजी का काफी पैसा डूब गया चाचा के हाथों। क्रमशः परिवार था। कोई एक निकम्मा हो भी जाए तो भूखा नहीं रहता था। किन्तु विधान ने चाचा को कभी निकम्मा नहीं समझा। चाचा जितना काम करते हैं, सम्भवतः घर में उतना काम और कोई नहीं करता। चाची के जिम्मे चूल्हा चौका है। उनके जीवन का सारा समय बीत गया रसोईघर में। खा पीकर चौका बर्तन समेटते समटेते आधी रात हो जाती है। चाची की कमर जकड़ जाती। सुबह उठ नहीं पाती। विधान ने कितनी बार देखा है चाचा को चाची के पैर दबाते, घुटनों पर मलहम मलते। कहते हैं वह सब जोरू के गुलाम का काम है। लेकिन विधान जानता है कि चाचा जोरू के गुलाम नहीं है। ऐसा हुआ होता तो इतने बड़े संयुक्त परिवार की नींव डोल गयी होती। चाची की तबीयत का ध्यान चाचा नहीं रखेंगे तो कौन रखेगा। चाची सारा काम निपटाकर माँ के पैर दबा देती।

चाची छोटी बहू जो ठहरी। लेकिन माँ इतने सारे काम नहीं करती। बड़ी बहू होने के कारण नियमानुसार पल्लू में चाबियों का गुच्छा लटकाये घर की देखरेख करती। चाची रहती जी हजूरी बजाने में; लेकिन यह माँ का चाची पर अत्याचार नहीं है। संयुक्त परिवार का नियम है। पर चाची को खाने पीने की कमी नहीं थी। माँ और चाची एक ही बर्तन में खाना खातीं। चाचा-चाची के बच्चों के प्रति कोई भेद-भाव नहीं था। चाची सुबह जल्दी नहीं उठ पाती, इसलिए चाचा सुबह से चूल्हे के पास जाकर एक पतीला चाय चढ़ा लेते हैं। घर के सभी लोगों, यहाँ तक कि नौकर-चाकर सबको चाय देते। उसके बाद बच्चों का नाश्ता। सूजी, साबूदाने की खीर तथा औरतों के पखाल (पानी मिला भात) खाने को सब्जी या भुँडड़ी बनाते हैं। चाची कमर दर्द के कारण देर से नहाती है। बिना नहाये रसोई में कैसे जाएगी ?

 चाचा निकम्मे कहलाने पर भी पुरुष हैं। वे बिना नहाये धोये रसोई में घुस सकते हैं, सब्जी भुँजड़ी बना सकते हैं। शादी-विवाह, पर्व त्योहार के समय चाचा दिन रात बैठे खाजा, मालपुआ बूँदी बनाते हैं। इस काम में वे दक्ष हैं। चाची भी चाचा की तरह इतने स्वादिष्ट व्यंजन नहीं बना पाती। मालपुआ चाचा के हाथों जितना स्वादिष्ट बनता है, चाची के हाथों नहीं बन पाता। मालपुआ खाते ही पता चल जाएगा, चाचा ने बनाया है या चाची ने। सुबह दो तीन बार चाय बनती है। चाचा बिना नहाये चूल्हे के पास बैठे दो तीन बार चाय पी लेते। चाय के साथ लाई या भुना हुआ चिउड़ा फाँकते जाते। बस उतना ही होता चाचा का सुबह का नाश्ता। कभी-कभी हलुआ बनाते तो उसमें से थोड़ा सा खा लेते। चाचा का पक्षियों-सा आहार है, इसीलिए शरीर इतना कमजोर है। सुबह सभी बच्चों को नहला देते हैं चाचा। पैण्ट, शर्ट पहनाकर स्कूल भेजे देते हैं। स्कूल न जाने वाले छोटे बच्चे को गोद में लिये घूमा करते हैं। इतने बड़े परिवार में चार पाँच औरतें हैं। पर वे साल दर साल सिर्फ पैदा करती हैं। बच्चों को पालने की फुर्सत नहीं होती उन्हें।

चाचा पूरी दुपहरी खेती-बाड़ी का काम देखते हैं। शाम के वक्त बच्चों को इकट्ठा करके कहानी सुनाते हैं, ताकि खाना बनने से पहले कोई ऊँघने न लगे। इन सबके अलावा, बन्धु-बान्धुओं की आवभगत, ठाकुरबाड़ी सँभालना भी चाचा का ही काम है। गाय-बैल को समय पर पानी पिलाना, सानी करना, गोबाड़ा ठीक से साफ हुआ है या नहीं, देखने का ही काम है। सभी दूध, दही घी खाते हैं। पर गोबाड़ा-दुआर कोई नहीं देखता। तलैया साफ करवाना, नारियल के पेड़ झड़वाना किसके क्या लेन-देन करना है सब आसानी से करते हैं चाचा। लेकिन ये सब काम पुरुष के लिए काम में नहीं गिने जाते। जिस काम से दो पैसे न मिलें उसे भला काम में कौन गिनता है। ये सब औरतों के काम हैं। इसलिए चाचा के काम में कोई यश नहीं होता। पिताजी कचहरी में काम करते हैं। घर पर दामाद मेहमान हैं। पिताजी नौकरी करते हैं इसलिए या बड़े बेटे हैं, उनकी खातिरदारी चाचा से अधिक होती है-बच्चों को समझ पाना मुश्किल है। लेकिन सभी इतना जानते थे कि पिताजी घर के मुख्य हैं और चाचा है वयस्क आश्रित। घर में यदि पिताजी और चाचा का चूल्हा-चौका और जमीन-जायदाद अलग हो जाए तो चाचा के हिस्से से जितनी आय-आमदनी होती, पिताजी के हिस्से की जमीन से उतनी नहीं होती। इसके बावजूद चाचा जी हजूरी करते। पर इससे चाचा के मन में कोई दुःख नहीं था। पिताजी के मन में पाप नहीं था। यह भी संयुक्त परिवार का नियम है।

चाचा बच्चों को खूब चाहते थे। मन्दिर पर कबूतर बैठने की तरह बच्चे चाचा के कन्धे, पीठ पर चढ़े रहते। दो कन्धों पर दो बच्चों को बिठाये चाचा को बाहर घूमते देखना रोजाना का दृश्य था। पीठ पर चीनी बोरा बनाये घुमाएँगे बड़े बच्चों को, हालाँकि बच्चों में उन दिनों के विधान और आज के विधानबाबू थे चाचा के सबसे प्रिय। उसकी एकमात्र वजह थी कि विधान उन सबसे अलग थे। संयुक्त परिवार के हो-हल्ले में पढ़ाई की ओर किसी का ध्यान नहीं था। न मुखिया का, न बच्चों का। गाय-बैल की रखवाली के लिए जिस तरह एक चरवाहा बालक नियुक्त किया गया था, उसी तरह बच्चों की रखवाली के लिए एक मैट्रिक फेल ट्यूशन मास्टर नियुक्त किया गया था। नाम के लिए पढ़ाई। बाकी का समय बच्चों के झगड़े और फौजदारी की गवाही देने के लिए मास्टर जी सजग रहते थे। तालाब में बच्चे ज्यादा देर तक डुबकी नहीं लगाएँगे। इसके लिए मास्टर जी छड़ी लेकर खड़े रहेंगे। दोपहर बाड़ी-बरामदे में घूमने को मना करते हुए उन्हें चुपचाप सुलाने के लिये मास्टर जी छड़ी लेकर पहरा देते हैं, शाम को खेलते समय मार-पीट करके बच्चे आपस में सिर होठ न फोड़फाड़ डालें इसलिए मास्टर जी छड़ी लिये खड़े रहते थे। शाम को भी मास्टर जी के हाथ में खड़िया नहीं होती थी, छड़ी होती थी। गरीब मास्टर के सिवा इन शरारती बच्चों को और कौन सँभालेगा ? माँ-बाप भी बच्चों की शरारत खुद न सँभाल पाकर मास्टर जी को बुलाएँगे-‘मास्टरजी, जरा इधर आइए तो-लगाइए इस लड़के को दो छड़ी। जरा पूछिए तो इससे बात क्यों नहीं मान रहा...।’’

लेकिन चाचा बच्चों के सारे उलाहने सह जाते हैं। कभी किसी को उँगली तक नहीं छुआते। हो सकता है इसीलिए चाचा के चारों लड़के आवारा हैं। विधान बचपन से ही शान्त-शिष्ट है। पढ़ाई में मन लगाता है। मास्टर जी की बेंत उस पर नहीं पड़ती। हर कक्षा में फर्स्ट। इसलिए विधान है चाचा के गले का हार। हमेशा विधान-विधान करते रहते हैं। पहले विधान फिर विराज। यदि पहले विराज को पूछते फिर विधान को तो लोग कहते चाचा ने पक्षपात किया है। पर विधान पहले, विराज पीछे होने के कारण लोग चाचा को कहते देवता समान। अपने बेटे को पीछे करके भाई के बेटे को आगे रखा है। अपनी बदमाशी के लिए विराज को चाचा से अक्सर डाँट पड़ती। विधान को हमेशा वाहवाही और शाबाशी। शायद इसीलिए विराज अधिक बदमाशी करने लगा है। विराज-दिन-प्रतिदिन बिगड़ता चला जा रहा है। उसके चेले बने हुए थे अन्य सभी भाई। विधान को माईनर कक्षा की छात्रवृत्ति परीक्षा देने पाँच मील दूर हरिपुर स्कूल जाना था, पर जाएगा कैसे ? गाड़ी-मोटर नहीं चलती थी उन दिनों। चाचा को साइकिल चलानी नहीं आती थी। पिताजी को साइकिल चलानी आती थी पर कचहरी का काम छोड़कर वे नहीं जा सकते।

चाचा ने कहा, ‘‘कोई चिन्ता नहीं, विधान कमजोर है, चल नहीं सकता। मैं उसे कन्धे पर बिठाकर ले जाऊँगा।’’ केवल परीक्षा के दिनों में ही नहीं, बल्कि महीना भर पहले हरिपुर स्कूल के एक शिक्षक के पास छात्रवृत्ति परीक्षा के सम्भावित प्रश्न हल करने के लिए विधान को कन्धे पर बिठाकर चाचा हरिपुर गये। गर्मियों के दिन, गर्म रेत, पैर जलते रहते थे। चाचा को जरूर कष्ट होता होगा, क्योंकि नंगे पैर हैं। चाचा चप्पल नहीं पहनते। पिताजी चप्पल पहनते हैं, क्योंकि वे कचहरी में काम करते हैं। खेती बाड़ी का काम करने वाला कौन सा गाँवली आदमी चप्पल पहनता था उन दिनों। यदि किसी ने पहनी होती तो लोग कहते फैशन दिखा रहा है। इसलिए चलते-चलते चाचा के पैरों में छाले पड़ जाने पर भी चाचा ने चप्पल पहनने की इच्छा नहीं दिखायी। चाचा के लिए एक जोड़ी चप्पल न खरीद पाने जैसी हालत नहीं थी घर की। किन्तु किसी के दिमाग में यह बात घुसी ही नहीं। घुसती भी क्यों। चाचा कोई कारोबार करने वाले कमाऊ आदमी नहीं थे। पाँच लोगों के बीच उठना-बैठना तो होता नहीं। फिर क्यों पहनते चप्पल ?

विधान चाचा के कन्धे पर बैठा था सिर पर छाता लगाये। चाचा उचक-उचककर चलते गर्म रेत पर। हरिपुर पहुँचने तक चाचा के पैरों की दुर्गति हो जाती। विधान की पढ़ाई खत्म होने तक चाचा स्कूल के चबूतरे पर बैठे थकान मिटाते विधान के आने पर उसे बाजार में नाश्ता करवाते। खुद चाय पीते कभी कभार साथ में दो सूखे बड़े।
विधान को कन्धे पर बिठाकर लौटते समय पूछते-‘‘कोई परेशानी तो नहीं है बेटे ?’’

‘‘मुझे क्या परेशानी होगी ? चल तो तुम रहे हो दिन में दस-बीस मील गर्म रेत पर। मैं तो मजे से बैठा हूं कन्धे पर।’’
‘‘पर पढ़ाई तो तू ही कर रहा है। दिमाग खपाने में बहुत कष्ट है। भाई भी उसी तरह कचहरी में काम करते हैं दिमाग खपाकर। भला मेरा क्या काम ? गया, आया खाया, पिया बस। दिमाग गर्म होने जैसा कुछ नहीं। कष्ट क्यों होगा ?’’
‘‘किन्तु चाचा-तुम्हारे पैरों को तो कष्ट होता होगा। गर्म रेत से तुम्हारे पैरों में फफोले भी निकल आये हैं।’’
चाचा ने अपनी लम्बी ठोड़ी पसारते हुए मुस्कुराकर कहा था, ‘‘कोई बात नहीं-हमेशा तो रहेगा नहीं यह कष्ट ? तेरे इम्तिहान तो खत्म होने ही वाले हैं। छात्रवृत्ति पाने के बाद तू हरिपुर हाईस्कूल के हॉस्टल में रहकर पढ़ेगा। बड़ा आफीसर बनेगा भविष्य में। हमारे वंश का नाम उजागर करेगा....।’’


 

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