हास्य-व्यंग्य >> चोर भये कोतवाल चोर भये कोतवालश्रीनिवास वत्स
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एक श्रेष्ठ व्यंग्य संग्रह...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
मार्च का महीना पिछले आवंटित बजट को ठिकाने लगाने का महीना होता है, इसलिए
ऊपरी आय के उपासक, इस माह को पवित्र माह का दर्जा देते हैं।
[असली कमाई, ऊपर की कमाई]
मंत्रीजी त्यागपत्र नहीं देना चाहते पर ऊपर से आदेश आता है कि त्यागपत्र
दो। ऐसी हालत में उनकी दशा उस विधवा स्त्री जैसी हो जाती है जिसको मृत पति
के साथ सती होने के लिए बाध्य किया जाये।
[वे और उनका त्यागपत्र]
अतिथि तीन तरह के होते हैं-सतोगुणी, रजोगुणी और तमोगुणी। सतोगुणी अतिथि
किसी आवश्यक कार्य से आते हैं और मात्र पानी पीकर उसी दिन लौट जाते हैं।
रजोगुणी श्रेणी के अतिथि आते कम हैं, खाते अधिक हैं, लेकिन तमोगुणी अतिथि
और राहु-केतु में कोई अंतर नहीं।
[अतिथि देवो भव]
हर आदमी हर चीज नहीं पचा सकता। नित्य रूखा-सूखा खाने वाले को यदि किसी दिन
भरपेट दूध-मलाई खिला दी जाये अथवा घी-दूध खाने वाले को कुछ दिन रूखा-सूखा
खिलाया जाये तो दोनों की पाचन-क्रिया बिगड़ जायेगी। संभवत: इसीलिए हमारे
नेता चाहते हैं कि रूखा-सूखा खाने वाली जनता रूखा-सूखा खाती रहे तथा
घी-दूध का सेवन करने वाले नेताओं और उच्च अधिकारियों के बेटे-पोते दूध
मलाई खाते रहें ताकि दोनों का हाजमा बिगड़ने से बचा रहे।
[पुत्रमोह की व्यथा]
समाज में मनुष्य का मूल्यांकन उसकी जेब के आधार पर ही किया जाता है।
सरकारी दफ्तरों में यदि कोई बिना जेब लगी कमीज पहनकर चला जाये तो मैं
गारंटी देता हूं कि काम होने से पहले उसका ही काम तमाम हो जायेगा।
[सब महिमा है जेब की]
सुबह जैसे ही मानवाधिकार समिति के सदस्यों को इस घटना का पता चला, वे
दौड़े-दौडे आये। आते ही मुझसे बोले-‘‘तुमने चोर के
मानवाधिकार का हनन किया है। जब तुमने देख लिया कि इसे चोट लगी है तो इसके
लिए देसी घी का हलवा बनाकर देते, दूध पिलाते। तुम्हारा फर्ज बनता था कि
इसे किसी अच्छे डॉक्टर को दिखाते।’’
[चोर भये कोतवाल]
बचपन मां-बाप के चांटों से डरकर बीता। विद्यार्थी जीवन में अध्यापक का
बेंत स्वप्न में भी डराता रहा। गृहस्थ में पप्पू की मम्मी ने डराया और
वानप्रस्थ में पप्पू से न डरने का प्रश्न ही नहीं उठता।
[डरते हैं डरते रहेंगे]
स्वपक्ष
ऐसा नहीं कि मैं इतना संवेदनशून्य हो गया हूं कि राष्ट्र और समाज के बारे
में सोचूं ही न! सोचता हूं पर यह भी सच है कि सोचने के अतिरिक्त मैं और
कुछ कर नहीं सकता।
कभी किसी को कहते सुना था-जिसकी लाठी उसकी भैंस। मैं प्रारंभ से ही दंड पेलने और भैंस का दूध पीने का शौकीन रहा हूं। उक्त कहावत से प्रेरित होकर मैंने कई-कई लाठियां इस आस पर घर में रखीं कि भैंस न सही एक-आध कटड़ी या कटड़ा ही लाठियों की लाज रखने के लिए आ जायेगा। पर आज तो स्थिति बिल्कुल विपरीत हो गई है। लाठी मेरे पास है और भैंस पड़ोसी के घर में जुगाली कर रही है। लगता है हमारी लाठी में वह दम नहीं है कि किसी भैंस को रोक सकें। लोग पूछते हैं-अक्ल बड़ी या भैंस ? मैं कहता हूं ‘‘अक्ल और भैंस दोनों मेरी लाठी से बड़ी और ताकतवर हैं तभी तो पड़ोसी मजे से भैंस का दूध पीते हैं और मैं हूं कि मात्र नाम का लठैत रह गया हूं।’’
मेरे पड़ोस में जो महाशय रहते हैं वे पहले कभी चोरी-डकैती का शौक फरमाते थे। आजकल राजनीति में उतर आये हैं। उनकी लाठी के आगे पूरे मुहल्ले की लाठियां शर्मसार हो गयी हैं। किसी लाठी में इतनी हिम्मत नहीं कि गर्दन उठाकर भैंस की तरफ देख भी ले। अब तो जी चाहता है किसी दिन चुपचाप जाकर अपनी लाठी भी उनके घर रख आऊं और कहूं, ‘‘माई बाप ! लाठी भी आपकी और भैंस भी आपकी।’’
एक दिन वे अपनी विदेशी कार पर चारे की गठरी लादे आते दिखायी दिये तो मैंने रोककर पूछा, ‘‘हुजूर, यह क्या ?’’
कहने लगे, ‘‘आजकल जिसके पास चारा है भैंस, गाय, बकरी सब उसकी ओर स्वत: भागी आती है, इसलिए मेरी दृष्टि में चारा लाठी से भी महत्त्वपूर्ण है। चारे बिना सब बेचारे हो जाते हैं। जिसको जहां चारा दिखायी देगा वह भला वहां से क्यों हिलेगा ?’’
मुझे बात जंची। सोचने लगा-चारा देखते ही जब जरा-सी बकरी की नीयत डोल सकती है तो मंत्रियों-विधायकों का तो कहना ही क्या ?
चारे के नाम पर अगर कोई रिश्वत खाता है तो मेरे हिसाब से पहली दृष्टि में वह अपराधी नहीं। चारा और रिश्वत दोनों खाने की चीजें हैं, सो खायी गयीं। अब ढोल पीटने से क्या ? खाने वाले तो हजारों बोरे सीमेंट, लाखों टन अनाज, करोड़ों रुपये चंदा निगल जाते हैं और डकार तक नहीं लेते। ऐसे में किसी बेचारे ने चारा खाकर थोड़ी देर जुगाली कर ली तो दूसरों को तकलीफ क्यों ?
राजनीति में वेजेटेरियन और नोन-वेजेटेरियन दोनों चलते हैं। जैसा मौका हुआ चबा लिया। यहां तो बाहरी छवि महत्त्वपूर्ण है। आपके पेट में क्या है यह कोई नहीं देखता। कितने ही निरामिष भोजी छवि वाले नेता सुबह-शाम यहां तक कि दोपहर को भी अभयारण्य से पकड़े अनेक जीव-जंतुओं को मोक्ष प्रदान करते हैं और मौका लगते ही मांसाहार के विरोध में धरने पर भी बैठ जाते हैं।
मेरे भारत महान की हर चीज महान है। उदाहरणार्थ-यहां हिंदी के नाम की रोटी खाने वाले अधिकारी-कर्मचारी, नेता-अभिनेता सब हिंदी का सामना होते ही यूं नाक-भौं सिकोड़ते हैं मानो गलती से किसी फटेहाल बदसूरत बुढ़िया ने उनके सामने अपने अधिकारों का कटोरा फैला दिया हो।
यहां प्रत्येक नारीवादी व्यक्ति अपने घर की औरतों की कराह सुन शुतुरमुर्ग की तरह मुंह छुपा लेता है। हर शांतिप्रिय नागरिक चोर-डकैत से भी भयंकर छवि वाली पुलिस से सामना होते ही डर से थर-थर कांपने लगता है।
अब आप बताइए ऐसे व्यक्ति जिस देश के कर्णधार हों वहां मुझ जैसे खूसट की भूमिका यही ऊंट-पटांग लिखने के सिवाय और रह ही क्या जाती है ?
इन कुतर्की व्यंग्य लेखों को जिन समाचार पत्रों ने अपने नियमित स्तंभ में प्रकाशित किया मैं उनका आभारी हूं। पति-पत्नी की नोकझोंक वाले लेख तो आकाशवाणी के लिए ही लिखे गये थे अत: उनका भी धन्यवाद ! इत्यलम्।
दीपावली, 1998
कभी किसी को कहते सुना था-जिसकी लाठी उसकी भैंस। मैं प्रारंभ से ही दंड पेलने और भैंस का दूध पीने का शौकीन रहा हूं। उक्त कहावत से प्रेरित होकर मैंने कई-कई लाठियां इस आस पर घर में रखीं कि भैंस न सही एक-आध कटड़ी या कटड़ा ही लाठियों की लाज रखने के लिए आ जायेगा। पर आज तो स्थिति बिल्कुल विपरीत हो गई है। लाठी मेरे पास है और भैंस पड़ोसी के घर में जुगाली कर रही है। लगता है हमारी लाठी में वह दम नहीं है कि किसी भैंस को रोक सकें। लोग पूछते हैं-अक्ल बड़ी या भैंस ? मैं कहता हूं ‘‘अक्ल और भैंस दोनों मेरी लाठी से बड़ी और ताकतवर हैं तभी तो पड़ोसी मजे से भैंस का दूध पीते हैं और मैं हूं कि मात्र नाम का लठैत रह गया हूं।’’
मेरे पड़ोस में जो महाशय रहते हैं वे पहले कभी चोरी-डकैती का शौक फरमाते थे। आजकल राजनीति में उतर आये हैं। उनकी लाठी के आगे पूरे मुहल्ले की लाठियां शर्मसार हो गयी हैं। किसी लाठी में इतनी हिम्मत नहीं कि गर्दन उठाकर भैंस की तरफ देख भी ले। अब तो जी चाहता है किसी दिन चुपचाप जाकर अपनी लाठी भी उनके घर रख आऊं और कहूं, ‘‘माई बाप ! लाठी भी आपकी और भैंस भी आपकी।’’
एक दिन वे अपनी विदेशी कार पर चारे की गठरी लादे आते दिखायी दिये तो मैंने रोककर पूछा, ‘‘हुजूर, यह क्या ?’’
कहने लगे, ‘‘आजकल जिसके पास चारा है भैंस, गाय, बकरी सब उसकी ओर स्वत: भागी आती है, इसलिए मेरी दृष्टि में चारा लाठी से भी महत्त्वपूर्ण है। चारे बिना सब बेचारे हो जाते हैं। जिसको जहां चारा दिखायी देगा वह भला वहां से क्यों हिलेगा ?’’
मुझे बात जंची। सोचने लगा-चारा देखते ही जब जरा-सी बकरी की नीयत डोल सकती है तो मंत्रियों-विधायकों का तो कहना ही क्या ?
चारे के नाम पर अगर कोई रिश्वत खाता है तो मेरे हिसाब से पहली दृष्टि में वह अपराधी नहीं। चारा और रिश्वत दोनों खाने की चीजें हैं, सो खायी गयीं। अब ढोल पीटने से क्या ? खाने वाले तो हजारों बोरे सीमेंट, लाखों टन अनाज, करोड़ों रुपये चंदा निगल जाते हैं और डकार तक नहीं लेते। ऐसे में किसी बेचारे ने चारा खाकर थोड़ी देर जुगाली कर ली तो दूसरों को तकलीफ क्यों ?
राजनीति में वेजेटेरियन और नोन-वेजेटेरियन दोनों चलते हैं। जैसा मौका हुआ चबा लिया। यहां तो बाहरी छवि महत्त्वपूर्ण है। आपके पेट में क्या है यह कोई नहीं देखता। कितने ही निरामिष भोजी छवि वाले नेता सुबह-शाम यहां तक कि दोपहर को भी अभयारण्य से पकड़े अनेक जीव-जंतुओं को मोक्ष प्रदान करते हैं और मौका लगते ही मांसाहार के विरोध में धरने पर भी बैठ जाते हैं।
मेरे भारत महान की हर चीज महान है। उदाहरणार्थ-यहां हिंदी के नाम की रोटी खाने वाले अधिकारी-कर्मचारी, नेता-अभिनेता सब हिंदी का सामना होते ही यूं नाक-भौं सिकोड़ते हैं मानो गलती से किसी फटेहाल बदसूरत बुढ़िया ने उनके सामने अपने अधिकारों का कटोरा फैला दिया हो।
यहां प्रत्येक नारीवादी व्यक्ति अपने घर की औरतों की कराह सुन शुतुरमुर्ग की तरह मुंह छुपा लेता है। हर शांतिप्रिय नागरिक चोर-डकैत से भी भयंकर छवि वाली पुलिस से सामना होते ही डर से थर-थर कांपने लगता है।
अब आप बताइए ऐसे व्यक्ति जिस देश के कर्णधार हों वहां मुझ जैसे खूसट की भूमिका यही ऊंट-पटांग लिखने के सिवाय और रह ही क्या जाती है ?
इन कुतर्की व्यंग्य लेखों को जिन समाचार पत्रों ने अपने नियमित स्तंभ में प्रकाशित किया मैं उनका आभारी हूं। पति-पत्नी की नोकझोंक वाले लेख तो आकाशवाणी के लिए ही लिखे गये थे अत: उनका भी धन्यवाद ! इत्यलम्।
दीपावली, 1998
-श्रीनिवास वत्स
सब महिमा जेब की
इतिहासकार मानव जीवन में उन दिनों को क्रांतिकारी दिन मानते हैं जब मनुष्य
ने आग की खोज की, पहिये की खोज की, धातु की खोज की तथा मुद्रा की खोज की।
मेरी दृष्टि में हमें उस दिन को भी महत्त्हपूर्ण मान लेना चाहिए जब से वस्त्र पहनना प्रारंभ किया, उसमें जेबें लगी होती थीं। आवश्यकता आविष्कार की जननी है। जैसे मनुष्यों को भारी सामान ढोने के लिए पहिये की, खाना भूनने के लिए आग की, विनिमय के लिए मुद्रा की आवश्यकता पड़ी उसी तरह परिस्थितियों ने उसे जेब का आविष्कार करने के लिए बाध्य किया।
बिना जेब लगी कमीज का मेरी नजरों में कोई महत्त्व नहीं। जेब कद्र का प्रतीक है। जिसकी जेब भरी होती है, समाज में उसके लिए इज्जत, शोहरत, दोस्ती इत्यादि कुछ भी दुर्लभ नहीं होता। ‘जब तक पैसा गांठ में, तब तक ताको यार।’
समाज में मनुष्य का मूल्यांकन उसकी जेब के आधार पर किया जाता है। सरकारी दफ्तरों में यदि कोई बिना जेब लगी कमीज पहनकर चला जाये तो मैं गारंटी देता हूं कि काम होने से पहले उसका ही काम तमाम हो जायेगा।
जरा सोचिए, जेब न होती तो काम करने का मजा ही खत्म हो जाता। महीना भर इसी आस पर काम करते हैं कि एक दिन के लिए तो जेब भर ही जायेगी। वैसे कुछ सौभाग्यशाली ऐसे भी हैं जिन्हें रोज ही जेब भरने के अवसर मिल जाते हैं या यूं कहिए वे अवसर ढूंढ़ लेते हैं।
जेब भरी हो तो आदमी किसी तरह की परवाह नहीं करता। इन्हीं जेबों के सहारे दर्जी से लेकर जेबकतरों तक न जाने कितने लोग अपनी रोजी-रोटी कमा रहे हैं।
सरकारी तंत्र भी इन्हीं जेबों पर आश्रित है। बजट के दिनों में लोग लाख संभालें पर सरकार की नजरों से जेबों को बचा नहीं पाते। पूरा वित्त मंत्रालय एकजुट होकर इन पर टूट पड़ता है।
राजनीति में जेबों का विशेष महत्त्व है। जिसकी जेब भरी होगी, वही सत्ता सुख भोग सकेगा। जेबों के आधार पर क्रय-विक्रय होते हैं। जेबदार नेता सगर्व घोषणा करते हैं-‘इतने सांसद-विधायक तो मेरी जेब में है’। मतलब यह नहीं कि उनकी जेब, जेब न होकर रेल का डिब्बा है। बल्कि भावार्थ है कि जेब शक्ति के आधार पर वे जब चाहे जितनों को आकर्षित कर सकते हैं।
विज्ञान का नियम है-जब भी किसी चीज को गर्म किया जाता है वह फैलती है। मेरे एक मित्र जो आयकर विभाग में है, इस नियम का साक्षात् प्रमाण हैं। आये दिन उनकी जेब गर्म होती रहती है। जेब गर्म होगी तो तपश शरीर पर पड़ेगी। महाशय दो साल की नौकरी में ही फैलकर चार गुना हो गये हैं। मैं समझता हूं यह सब जेब की गर्मी का असर है।
जेब शक्ति का प्रतीक है। जिसकी कमीज में जितनी अधिक जेबें होंगी वह उतना ही सामर्थ्यवान समझा जाता है। सरकार इस तथ्य को भली भांति जानती थी इसीलिए पुलिस वालों की वर्दी में अनेक जेबों का प्रावधान रखा। दरोगा को जेब लगी वर्दी के कारण सब सलाम ठोकते हैं। हर मोहल्ले से महीने की उगाही आती है। भला जेबों के बिना कैसे काम चल सकता है ?
जेबों में भी उपजेबें होती हैं। जिस तरह हाथी के दांत खाने के और तथा दिखाने के और होते हैं। एवमेव यदि नेता और तस्कर आयकर वालों से बचने के लिए फटी जेबों वाली कमीज पहन भी लें तो इसका तात्पर्य यह कदापि नहीं समझना चाहिए कि वे निपट त्यागमूर्ति हैं। उनकी फटी गुदड़ियों में भी लाल छिपे होते हैं। सोने के बिस्कुट, हेरोइन, चरस-गांजा सब कुछ अंदर वाली जेबों के माध्यम से इतस्तत: आता-जाता है।
कहावत है ‘विद्या वही जो कंठ में, पैसा वही जो अंट में। अर्थात् जो पैसा आपकी जेब में है वही आपका है। यहां पैसे के साथ-साथ जेब का महत्त्व भी बढ़ जाता है।
बाबू लोग काम के बाद आपसे सेवा-पानी की मांग करते हैं। सौ बातों की एक ही बात है कि उनकी जेब में कुछ दान-दक्षिणा डालो। जितना गुड़ डालोगो, उतना ही मीठा होगा।
दाता और ग्रहणेता दोनों के लिए जेब महत्त्वपूर्ण है। जेब की महिमा देख सोचता हूं जिस दिन मनुष्य ने जेब की खोज की वह कितना गौरव अनुभव कर रहा होगा।
सरकार देश से भ्रष्टाचार मिटाने की बात करती है। इसका सरल-सा उपाय है। आज ही नियम बना दे कि कोई भी व्यक्ति जेब लगी कमीज-पतलून नहीं पहनेगा। न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी। न कोई रिश्वत देगा, न लेगा। सर्वत्र ईमानदारी-ही-ईमानदारी होगी।
लेकिन क्या ऐसा संभव है ? जिस देश में जेब के बिना आप एक चौराहा पार नहीं कर सकते वहां जेबरहित कमीज की बात करना भी बेमानी होगा।
मेरी दृष्टि में हमें उस दिन को भी महत्त्हपूर्ण मान लेना चाहिए जब से वस्त्र पहनना प्रारंभ किया, उसमें जेबें लगी होती थीं। आवश्यकता आविष्कार की जननी है। जैसे मनुष्यों को भारी सामान ढोने के लिए पहिये की, खाना भूनने के लिए आग की, विनिमय के लिए मुद्रा की आवश्यकता पड़ी उसी तरह परिस्थितियों ने उसे जेब का आविष्कार करने के लिए बाध्य किया।
बिना जेब लगी कमीज का मेरी नजरों में कोई महत्त्व नहीं। जेब कद्र का प्रतीक है। जिसकी जेब भरी होती है, समाज में उसके लिए इज्जत, शोहरत, दोस्ती इत्यादि कुछ भी दुर्लभ नहीं होता। ‘जब तक पैसा गांठ में, तब तक ताको यार।’
समाज में मनुष्य का मूल्यांकन उसकी जेब के आधार पर किया जाता है। सरकारी दफ्तरों में यदि कोई बिना जेब लगी कमीज पहनकर चला जाये तो मैं गारंटी देता हूं कि काम होने से पहले उसका ही काम तमाम हो जायेगा।
जरा सोचिए, जेब न होती तो काम करने का मजा ही खत्म हो जाता। महीना भर इसी आस पर काम करते हैं कि एक दिन के लिए तो जेब भर ही जायेगी। वैसे कुछ सौभाग्यशाली ऐसे भी हैं जिन्हें रोज ही जेब भरने के अवसर मिल जाते हैं या यूं कहिए वे अवसर ढूंढ़ लेते हैं।
जेब भरी हो तो आदमी किसी तरह की परवाह नहीं करता। इन्हीं जेबों के सहारे दर्जी से लेकर जेबकतरों तक न जाने कितने लोग अपनी रोजी-रोटी कमा रहे हैं।
सरकारी तंत्र भी इन्हीं जेबों पर आश्रित है। बजट के दिनों में लोग लाख संभालें पर सरकार की नजरों से जेबों को बचा नहीं पाते। पूरा वित्त मंत्रालय एकजुट होकर इन पर टूट पड़ता है।
राजनीति में जेबों का विशेष महत्त्व है। जिसकी जेब भरी होगी, वही सत्ता सुख भोग सकेगा। जेबों के आधार पर क्रय-विक्रय होते हैं। जेबदार नेता सगर्व घोषणा करते हैं-‘इतने सांसद-विधायक तो मेरी जेब में है’। मतलब यह नहीं कि उनकी जेब, जेब न होकर रेल का डिब्बा है। बल्कि भावार्थ है कि जेब शक्ति के आधार पर वे जब चाहे जितनों को आकर्षित कर सकते हैं।
विज्ञान का नियम है-जब भी किसी चीज को गर्म किया जाता है वह फैलती है। मेरे एक मित्र जो आयकर विभाग में है, इस नियम का साक्षात् प्रमाण हैं। आये दिन उनकी जेब गर्म होती रहती है। जेब गर्म होगी तो तपश शरीर पर पड़ेगी। महाशय दो साल की नौकरी में ही फैलकर चार गुना हो गये हैं। मैं समझता हूं यह सब जेब की गर्मी का असर है।
जेब शक्ति का प्रतीक है। जिसकी कमीज में जितनी अधिक जेबें होंगी वह उतना ही सामर्थ्यवान समझा जाता है। सरकार इस तथ्य को भली भांति जानती थी इसीलिए पुलिस वालों की वर्दी में अनेक जेबों का प्रावधान रखा। दरोगा को जेब लगी वर्दी के कारण सब सलाम ठोकते हैं। हर मोहल्ले से महीने की उगाही आती है। भला जेबों के बिना कैसे काम चल सकता है ?
जेबों में भी उपजेबें होती हैं। जिस तरह हाथी के दांत खाने के और तथा दिखाने के और होते हैं। एवमेव यदि नेता और तस्कर आयकर वालों से बचने के लिए फटी जेबों वाली कमीज पहन भी लें तो इसका तात्पर्य यह कदापि नहीं समझना चाहिए कि वे निपट त्यागमूर्ति हैं। उनकी फटी गुदड़ियों में भी लाल छिपे होते हैं। सोने के बिस्कुट, हेरोइन, चरस-गांजा सब कुछ अंदर वाली जेबों के माध्यम से इतस्तत: आता-जाता है।
कहावत है ‘विद्या वही जो कंठ में, पैसा वही जो अंट में। अर्थात् जो पैसा आपकी जेब में है वही आपका है। यहां पैसे के साथ-साथ जेब का महत्त्व भी बढ़ जाता है।
बाबू लोग काम के बाद आपसे सेवा-पानी की मांग करते हैं। सौ बातों की एक ही बात है कि उनकी जेब में कुछ दान-दक्षिणा डालो। जितना गुड़ डालोगो, उतना ही मीठा होगा।
दाता और ग्रहणेता दोनों के लिए जेब महत्त्वपूर्ण है। जेब की महिमा देख सोचता हूं जिस दिन मनुष्य ने जेब की खोज की वह कितना गौरव अनुभव कर रहा होगा।
सरकार देश से भ्रष्टाचार मिटाने की बात करती है। इसका सरल-सा उपाय है। आज ही नियम बना दे कि कोई भी व्यक्ति जेब लगी कमीज-पतलून नहीं पहनेगा। न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी। न कोई रिश्वत देगा, न लेगा। सर्वत्र ईमानदारी-ही-ईमानदारी होगी।
लेकिन क्या ऐसा संभव है ? जिस देश में जेब के बिना आप एक चौराहा पार नहीं कर सकते वहां जेबरहित कमीज की बात करना भी बेमानी होगा।
सेवा बनाम मेवा
पुरानी कहावत है, ‘सेवा से मेवा मिलती है।’ मुझे इस
बात का गर्व है कि हमारे देश में दूसरों की सेवा पर अधिक ध्यान दिया जाता
है। कहते हैं-अपने लिए जीना भी क्या जीना ? अत: हम आदिकाल से इस सिद्धांत
के पक्षधर रहे कि ‘अतिथि देवो भव’। आगंतुकों की सेवा
में इतने तल्लीन हुए कि खुद को भुलाकर गुलाम बन बैठे।
दास बनकर ही सच्ची सेवा की जा सकती थी इसलिए हमने विदेशियों को राजा मान लिया। हमें पता था कि जब तक आपस में नहीं लड़ेंगे कोई हमें गुलाम नहीं बना सकता। परंतु मेहमान तो भगवान का रूप होता है अत: उसे राजा बनाने के लिए हम आपस में लड़ने लगे ताकि फूट से कमजोर होकर गुलाम बन जायं और परसेवा का पुण्य कमाएं।
अस्तु ! दूसरों की सेवा में जो आनंद है वह अन्यत्र कहां ! राजनेता लोगों की सेवा में अवसर तलाशते रहते हैं। हर चुनाव से पूर्व एक ही वाक्य होता है, ‘‘भाइयो ! इस बार मुझे सेवा का अवसर प्रदान करें।’’
लगता है देश में सेवा का मौका प्रदान करने की होड़ लगी हुई है। हर राजनैतिक पार्टी सत्ता में आना चाहती हैं ताकि जनसेवा कर सके। कभी आरक्षण के मुद्दे पर, कभी किसान-मजदूर के शोषण के नाम पर तो कभी मंदिर-मस्जिद विषय पर वे लोगों को भड़काते हैं, दंगे करवाते है ताकि आपस में फूट-फुटव्ल हो ले। लोगों के हाथ-पैर टूटेंगे, सिर फूटेंगे तो सेवा के अवसर बढ़ेंगे। फिर गर्व से घोषणा कर सकेंगे, ‘इन दंगों में पूरी तरह मरने वाले को एक लाख रुपये, आधा मरने वाले को बीस हजार रुपये तथा दस-बारह प्रतिशत तक मरने वाले अर्थात् जिसे खरोंच इत्यादि आयी हो उसे दो हजार रुपये दिये जायेंगे। दर्द हमने दिया तो दवा भी हम देंगे।’
कई बार देखकर लगता है, कितने परोपकारी जीव है ! जनसेवा के लिए तरस रहे हैं। सत्ताधारी मुख्यमंत्री कह रहा है, ‘‘मुझे लोगों ने पांच साल तक सेवा करने का अवसर दिया है, मैं तो पांच साल सेवा करूंगा।’
’
लेकिन विपक्ष उसे हटाना चाहता है, नहीं तू, ठीक सेवा नहीं कर रहा। चल हट, हमें आने दे।’’
एक पार्टी पुलिस वालों को तो दूसरी छात्रों को भड़का रही है। कहते हैं, ‘‘हमें मुख्यमंत्री बना दो, हम तुम्हारी सेवा करेंगे, तुम हमारी करना। मेवा आपस में बांट लेंगे।’’
आजकल सेवा का भी राजनीतीकरण एवं व्यवसायीकरण हो गया है। कहीं भी झुग्गी-झोंपड़ियों में आग की खबर मिलते ही अपनी-अपनी बाल्टी उठाकर नेताओं में पहले पहुंचने की होड़ लग जाती है। उन्हें भय रहता है, कहीं विपक्षी नेता पहले पहुंचकर सारी मेवा न लूट लें। यहां की मेवा को ‘वोट बैंक’ कहा जाता है।
हर सरकारी कर्मचारी खुद को जनता का सेवक कहकर मेवा का मार्ग प्रशस्त करता है। आप सोचिए, जब तक सेवा का अवसर नहीं मिलेगा भला मेवा कैसे मिल सकती है ? मेवा सुख-सुविधाओं का पर्याय है तथा उच्च वर्ग के लोग इसका सेवन करते हैं। इसमें पिश्ते, बादाम, काजू सम्मिलित हैं।
एक बार मेवा का स्वाद जिह्वा ने चख लिया तो वह जीवन भर उससे अलग नहीं हो पाती। इसीलिए लोग सेवा के लिए तरसते हैं, क्योंकि सेवा के द्वारा ही मेवा पाने में समर्थ हो सकेंगे।
‘सेवा बिन मेवा नहीं’ यह जानकर लोग सरकारी नौकरियों के पीछे भागते हैं। पैसे देते हैं, सिफारिश ढूंढ़ते हैं ताकि उन्हें जनसेवा का अवसर मिले और वे मेवा का स्वाद चख सकें।
मेरे एक मित्र सरकारी विभाग में कार्यरत हैं। वे खुद को सरकारी सेवक मानते हैं तथा अपने पास आने वाले लोगों की सेवा करते हैं। उन्होंने कमरे के बाहर लिखकर टांग रखा है, ‘सेवा से मेवा मिलेगी।’
समझदार को इशारा ही काफी। कहना न होगा यदि आप उनसे सेवा की अपेक्षा रखते हैं तो वे भी आपसे मेवा की कामना करेंगे। आम भाषा में लोग उसे रिश्वत कहकर बदनाम करें तो उनका क्या दोष ?
सेवा वही सार्थक कही जाती है जिससे मेवा मिलने की संभावना हो। वरन् जनसेवा ही करनी होती तो कहीं भी प्यासों को पानी पिलाने बैठ जाते। अनपढ़ों को पढ़ाना आरंभ कर देते। परंतु ये सब बिना मेवा की सेवा है। राजनीति में इनका कोई महत्त्व नहीं। यहां लड़ाई सेवा के लिए नहीं मेवा के लिए होती है।
कहने को तो हर राजनेता एवं अफसर स्वयं को जनसेवक एवं गरीबों के हितों का संरक्षक बताता है। पर ध्यातव्य है जिस प्रकार ग्वाला गाय की सेवा दूध के लिए, बधिक जानवरों की सेवा मांस के लिए तथा बहेलिया पक्षियों को फंसाने के लिए दाने डालता है, एवमेव विभिन्न वर्गों, जातियों, संप्रदायों के ये नेता बगुले भगत की भांति स्वार्थपूर्ति हेतु अपने वोटरों की लुभावने आश्वासनों से सेवा करते रहते हैं। इस बात का विशेष ध्यान रखा जाता है कि कोई उनके बाड़े में सेंध न लगाने पाये।
जिसके पास जितनी अधिक मेवा होती है उसका राजनीतिक मूल्य उतना ही अधिक आंका जाता है। अत: मेरी सलाह मानो और आप भी यथाशीघ्र किसी की सेवा में जुट जाओ। संभव है छप्पर फटे तथा आपका घर ‘मेवा’ से लबालब भर जाये।
दास बनकर ही सच्ची सेवा की जा सकती थी इसलिए हमने विदेशियों को राजा मान लिया। हमें पता था कि जब तक आपस में नहीं लड़ेंगे कोई हमें गुलाम नहीं बना सकता। परंतु मेहमान तो भगवान का रूप होता है अत: उसे राजा बनाने के लिए हम आपस में लड़ने लगे ताकि फूट से कमजोर होकर गुलाम बन जायं और परसेवा का पुण्य कमाएं।
अस्तु ! दूसरों की सेवा में जो आनंद है वह अन्यत्र कहां ! राजनेता लोगों की सेवा में अवसर तलाशते रहते हैं। हर चुनाव से पूर्व एक ही वाक्य होता है, ‘‘भाइयो ! इस बार मुझे सेवा का अवसर प्रदान करें।’’
लगता है देश में सेवा का मौका प्रदान करने की होड़ लगी हुई है। हर राजनैतिक पार्टी सत्ता में आना चाहती हैं ताकि जनसेवा कर सके। कभी आरक्षण के मुद्दे पर, कभी किसान-मजदूर के शोषण के नाम पर तो कभी मंदिर-मस्जिद विषय पर वे लोगों को भड़काते हैं, दंगे करवाते है ताकि आपस में फूट-फुटव्ल हो ले। लोगों के हाथ-पैर टूटेंगे, सिर फूटेंगे तो सेवा के अवसर बढ़ेंगे। फिर गर्व से घोषणा कर सकेंगे, ‘इन दंगों में पूरी तरह मरने वाले को एक लाख रुपये, आधा मरने वाले को बीस हजार रुपये तथा दस-बारह प्रतिशत तक मरने वाले अर्थात् जिसे खरोंच इत्यादि आयी हो उसे दो हजार रुपये दिये जायेंगे। दर्द हमने दिया तो दवा भी हम देंगे।’
कई बार देखकर लगता है, कितने परोपकारी जीव है ! जनसेवा के लिए तरस रहे हैं। सत्ताधारी मुख्यमंत्री कह रहा है, ‘‘मुझे लोगों ने पांच साल तक सेवा करने का अवसर दिया है, मैं तो पांच साल सेवा करूंगा।’
’
लेकिन विपक्ष उसे हटाना चाहता है, नहीं तू, ठीक सेवा नहीं कर रहा। चल हट, हमें आने दे।’’
एक पार्टी पुलिस वालों को तो दूसरी छात्रों को भड़का रही है। कहते हैं, ‘‘हमें मुख्यमंत्री बना दो, हम तुम्हारी सेवा करेंगे, तुम हमारी करना। मेवा आपस में बांट लेंगे।’’
आजकल सेवा का भी राजनीतीकरण एवं व्यवसायीकरण हो गया है। कहीं भी झुग्गी-झोंपड़ियों में आग की खबर मिलते ही अपनी-अपनी बाल्टी उठाकर नेताओं में पहले पहुंचने की होड़ लग जाती है। उन्हें भय रहता है, कहीं विपक्षी नेता पहले पहुंचकर सारी मेवा न लूट लें। यहां की मेवा को ‘वोट बैंक’ कहा जाता है।
हर सरकारी कर्मचारी खुद को जनता का सेवक कहकर मेवा का मार्ग प्रशस्त करता है। आप सोचिए, जब तक सेवा का अवसर नहीं मिलेगा भला मेवा कैसे मिल सकती है ? मेवा सुख-सुविधाओं का पर्याय है तथा उच्च वर्ग के लोग इसका सेवन करते हैं। इसमें पिश्ते, बादाम, काजू सम्मिलित हैं।
एक बार मेवा का स्वाद जिह्वा ने चख लिया तो वह जीवन भर उससे अलग नहीं हो पाती। इसीलिए लोग सेवा के लिए तरसते हैं, क्योंकि सेवा के द्वारा ही मेवा पाने में समर्थ हो सकेंगे।
‘सेवा बिन मेवा नहीं’ यह जानकर लोग सरकारी नौकरियों के पीछे भागते हैं। पैसे देते हैं, सिफारिश ढूंढ़ते हैं ताकि उन्हें जनसेवा का अवसर मिले और वे मेवा का स्वाद चख सकें।
मेरे एक मित्र सरकारी विभाग में कार्यरत हैं। वे खुद को सरकारी सेवक मानते हैं तथा अपने पास आने वाले लोगों की सेवा करते हैं। उन्होंने कमरे के बाहर लिखकर टांग रखा है, ‘सेवा से मेवा मिलेगी।’
समझदार को इशारा ही काफी। कहना न होगा यदि आप उनसे सेवा की अपेक्षा रखते हैं तो वे भी आपसे मेवा की कामना करेंगे। आम भाषा में लोग उसे रिश्वत कहकर बदनाम करें तो उनका क्या दोष ?
सेवा वही सार्थक कही जाती है जिससे मेवा मिलने की संभावना हो। वरन् जनसेवा ही करनी होती तो कहीं भी प्यासों को पानी पिलाने बैठ जाते। अनपढ़ों को पढ़ाना आरंभ कर देते। परंतु ये सब बिना मेवा की सेवा है। राजनीति में इनका कोई महत्त्व नहीं। यहां लड़ाई सेवा के लिए नहीं मेवा के लिए होती है।
कहने को तो हर राजनेता एवं अफसर स्वयं को जनसेवक एवं गरीबों के हितों का संरक्षक बताता है। पर ध्यातव्य है जिस प्रकार ग्वाला गाय की सेवा दूध के लिए, बधिक जानवरों की सेवा मांस के लिए तथा बहेलिया पक्षियों को फंसाने के लिए दाने डालता है, एवमेव विभिन्न वर्गों, जातियों, संप्रदायों के ये नेता बगुले भगत की भांति स्वार्थपूर्ति हेतु अपने वोटरों की लुभावने आश्वासनों से सेवा करते रहते हैं। इस बात का विशेष ध्यान रखा जाता है कि कोई उनके बाड़े में सेंध न लगाने पाये।
जिसके पास जितनी अधिक मेवा होती है उसका राजनीतिक मूल्य उतना ही अधिक आंका जाता है। अत: मेरी सलाह मानो और आप भी यथाशीघ्र किसी की सेवा में जुट जाओ। संभव है छप्पर फटे तथा आपका घर ‘मेवा’ से लबालब भर जाये।
कुर्सी रक्षक टीके
जिस प्रकार विश्व में शिशु दर कम करने के लिए वैज्ञानिकों ने जानलेवा
बीमारियों का पता लगाकर जीवनरक्षक टीकों की खोज की एवमेव लोकसभा को
बाल्यावस्था में भंग होने से बचाने के लिए कुर्सी रक्षक टीकों का आविष्कार
किया जाना चाहिए।
हमारे यहां ऋषि-मुनियों ने मानव जीवन को विद्यार्थी, गृहस्थ, वानप्रस्थ एवं संन्यास में विभक्त किया है। इसी प्रकार संसद के कार्यकाल को भी इन्हीं आश्रमों में विभाजित किया जा सकता है। पहले डेढ़ सालों को मैं लोकसभा का बाल्यकाल मानता हूं। और मुझे यह कहते हुए बहुत दुख हो रहा है कि इस बार लोकसभा का शैशवावस्था में ही निधन हो गया।
प्राय: डाक्टर पोस्टमार्टम द्वारा मृत्यु का कारण जान लेते हैं। शिशु को पोलियो, चेचक, काली खांसी, तपेदिक एवं टेटनेस के जो इंजेक्शन दिये जाते हैं, उनका तात्पर्य जीवनभर के लिए इन बीमारियों की संभावनाओं को समाप्त कर देना है।
शिशु की मृत्यु पर माता-पिता को कितना दुख होता है, इसका अनुमान आप उन रोते-पीटते मतदाताओं को देखकर लगा सकते हैं, जिन्होंने अपार जन एवं धनहानि रूपी प्रसव पीड़ा के बाद नयी लोकसभा को जन्म दिया था और आज गृहस्थाश्रम में प्रवेश से पूर्व इसकी अकाल मृत्यु हो गयी। भले ही संतान कुपुत्र हो, पर मृत्यु पर दु:ख तो होता ही है।
राजनैतिक चिकित्सकों को चाहिए कि लोकसभा विधानसभा के नव-निर्वाचित सदस्यों को निम्न पांच कुर्सीरक्षक टीके लगाएं:
1. जांच निरोधक टीका : यह टीका लगने के बाद मंत्रीजी चाहे कितने ही घोटाले करते रहें उनके विरुद्ध जांच या आयोग के कीटाणु पैदा नहीं हो सकेंगे।
2. घेराव निरोधक टीका : यह टीका मंत्रीजी को मतदाताओं के मांगपत्रों से बचायेगा। इसके लगने के बाद न उनका घेराव हो सकेगा और न ही विरोध-प्रदर्शन।
3. भीड़ एकत्रक टीका : इस टीके के प्रयोग के बाद मंत्रीजी भले ही दल बदल लें पर उनकी प्रतिष्ठा एवं अनुयायियों में कमी नहीं आयेगी।
4. आरोप निरोधक टीका : इस टीके के लगने से किसी तरह के आरोप नेता जी पर असर नहीं दिखा पायेंगे। भले ही विपक्ष आरोप लगाता रहे, साक्ष्य प्रस्तुत करता रहे पर नेताजी की कुर्सी नहीं हिला पायेगा।
5. अवसरदायक टीका : यह टीका नेताजी को ऐसे अवसर प्रदान करेगा जिससे कई पीढ़ियों का राशन एकत्र किया जा सके। अपने लोगों को अच्छे पद दिलाये जा सकें। अनुयायियों को अवैध हथियार मिल सकें।
कुर्सी रक्षक टीकों के साथ-साथ पोषण पद्धति की ओर ध्यान दिया जाना चाहिए। भारत में अधिकतर बच्चे कुपोषण के शिकार होकर मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं। मैं चाहता हूं नवजात लोकसभा में मंत्रियों को कुपोषण से बचाने के लिए उन्हें उनकी जरूरतों के अनुरूप मंत्रालय दिया जाना चाहिए ताकि वे भरपेट खा सकें। उन पर किसी प्रकार की कोई बंदिश नहीं होनी चाहिए। जितना अधिक खायेंगे लोकसभा या विधानसभा की उम्र उतनी ही बढ़ती जायेगी।
बच्चे पर कार्य का अधिक बोझ डालने से उसका प्राकृतिक विकास रुक जाता है। हिंदुस्तान में प्राय: देखा गया है कि मंत्री बनते ही लोग उन्हें काम के लिए तंग करना प्रारंभ कर देते हैं। मैं इसे उनके मानसिक विकास में अवरोधक मानता हूं। हमें मंत्रियों को कभी काम के लिए नहीं कहना चाहिए ताकि उनकी मौज-मस्ती में व्यवधान न पड़े। ऐसा होने पर संसद का कार्यकाल बढ़ेगा।
बच्चे खुली हवा में घूमना, पिकनिक मनाना तथा मनोरंजन को पसंद करते हैं। इसी प्रकार मंत्रियों के लिए हमें विदेशी दौरों को प्रबंध करना चाहिए और वहां उनके भोग-विलास की पूरी सुविधा का ध्यान रखा जाना चाहिए।
कहावत है, ‘लालयेत् पंचवर्षाणि’ अर्थात् पहले पांच साल बच्चे को लाड़-प्यार मिलना चाहिए। मैं उस उक्ति का पक्षधर हूं। लोकसभा की बाल्यावस्था में हमें नेताओं को पूरा लाड़-प्यार देना चाहिए। वे चाहे जितना देश का नुकसान करते रहें पर हमें उन्हें टोकना नहीं चाहिए। इससे उनका मनोबल बढ़ेगा और बड़े होकर अच्छे करतब दिखा सकेंगे।
पोषण पद्धति एवं पांचों टीके लगने के बाद प्रत्येक विधायक एवं सांसद अपना कार्यकाल पूरा करेगा तथा लोकसभा एवं विधानसभा की उम्र बढ़ेगी। इनकी उम्र बढ़ने का सीधा-सा अर्थ है लोग अगले चुनावों तक आपसी प्रेम एवं सौहार्द से सड़कों पर चल-फिर सकेंगे।
हमारे यहां ऋषि-मुनियों ने मानव जीवन को विद्यार्थी, गृहस्थ, वानप्रस्थ एवं संन्यास में विभक्त किया है। इसी प्रकार संसद के कार्यकाल को भी इन्हीं आश्रमों में विभाजित किया जा सकता है। पहले डेढ़ सालों को मैं लोकसभा का बाल्यकाल मानता हूं। और मुझे यह कहते हुए बहुत दुख हो रहा है कि इस बार लोकसभा का शैशवावस्था में ही निधन हो गया।
प्राय: डाक्टर पोस्टमार्टम द्वारा मृत्यु का कारण जान लेते हैं। शिशु को पोलियो, चेचक, काली खांसी, तपेदिक एवं टेटनेस के जो इंजेक्शन दिये जाते हैं, उनका तात्पर्य जीवनभर के लिए इन बीमारियों की संभावनाओं को समाप्त कर देना है।
शिशु की मृत्यु पर माता-पिता को कितना दुख होता है, इसका अनुमान आप उन रोते-पीटते मतदाताओं को देखकर लगा सकते हैं, जिन्होंने अपार जन एवं धनहानि रूपी प्रसव पीड़ा के बाद नयी लोकसभा को जन्म दिया था और आज गृहस्थाश्रम में प्रवेश से पूर्व इसकी अकाल मृत्यु हो गयी। भले ही संतान कुपुत्र हो, पर मृत्यु पर दु:ख तो होता ही है।
राजनैतिक चिकित्सकों को चाहिए कि लोकसभा विधानसभा के नव-निर्वाचित सदस्यों को निम्न पांच कुर्सीरक्षक टीके लगाएं:
1. जांच निरोधक टीका : यह टीका लगने के बाद मंत्रीजी चाहे कितने ही घोटाले करते रहें उनके विरुद्ध जांच या आयोग के कीटाणु पैदा नहीं हो सकेंगे।
2. घेराव निरोधक टीका : यह टीका मंत्रीजी को मतदाताओं के मांगपत्रों से बचायेगा। इसके लगने के बाद न उनका घेराव हो सकेगा और न ही विरोध-प्रदर्शन।
3. भीड़ एकत्रक टीका : इस टीके के प्रयोग के बाद मंत्रीजी भले ही दल बदल लें पर उनकी प्रतिष्ठा एवं अनुयायियों में कमी नहीं आयेगी।
4. आरोप निरोधक टीका : इस टीके के लगने से किसी तरह के आरोप नेता जी पर असर नहीं दिखा पायेंगे। भले ही विपक्ष आरोप लगाता रहे, साक्ष्य प्रस्तुत करता रहे पर नेताजी की कुर्सी नहीं हिला पायेगा।
5. अवसरदायक टीका : यह टीका नेताजी को ऐसे अवसर प्रदान करेगा जिससे कई पीढ़ियों का राशन एकत्र किया जा सके। अपने लोगों को अच्छे पद दिलाये जा सकें। अनुयायियों को अवैध हथियार मिल सकें।
कुर्सी रक्षक टीकों के साथ-साथ पोषण पद्धति की ओर ध्यान दिया जाना चाहिए। भारत में अधिकतर बच्चे कुपोषण के शिकार होकर मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं। मैं चाहता हूं नवजात लोकसभा में मंत्रियों को कुपोषण से बचाने के लिए उन्हें उनकी जरूरतों के अनुरूप मंत्रालय दिया जाना चाहिए ताकि वे भरपेट खा सकें। उन पर किसी प्रकार की कोई बंदिश नहीं होनी चाहिए। जितना अधिक खायेंगे लोकसभा या विधानसभा की उम्र उतनी ही बढ़ती जायेगी।
बच्चे पर कार्य का अधिक बोझ डालने से उसका प्राकृतिक विकास रुक जाता है। हिंदुस्तान में प्राय: देखा गया है कि मंत्री बनते ही लोग उन्हें काम के लिए तंग करना प्रारंभ कर देते हैं। मैं इसे उनके मानसिक विकास में अवरोधक मानता हूं। हमें मंत्रियों को कभी काम के लिए नहीं कहना चाहिए ताकि उनकी मौज-मस्ती में व्यवधान न पड़े। ऐसा होने पर संसद का कार्यकाल बढ़ेगा।
बच्चे खुली हवा में घूमना, पिकनिक मनाना तथा मनोरंजन को पसंद करते हैं। इसी प्रकार मंत्रियों के लिए हमें विदेशी दौरों को प्रबंध करना चाहिए और वहां उनके भोग-विलास की पूरी सुविधा का ध्यान रखा जाना चाहिए।
कहावत है, ‘लालयेत् पंचवर्षाणि’ अर्थात् पहले पांच साल बच्चे को लाड़-प्यार मिलना चाहिए। मैं उस उक्ति का पक्षधर हूं। लोकसभा की बाल्यावस्था में हमें नेताओं को पूरा लाड़-प्यार देना चाहिए। वे चाहे जितना देश का नुकसान करते रहें पर हमें उन्हें टोकना नहीं चाहिए। इससे उनका मनोबल बढ़ेगा और बड़े होकर अच्छे करतब दिखा सकेंगे।
पोषण पद्धति एवं पांचों टीके लगने के बाद प्रत्येक विधायक एवं सांसद अपना कार्यकाल पूरा करेगा तथा लोकसभा एवं विधानसभा की उम्र बढ़ेगी। इनकी उम्र बढ़ने का सीधा-सा अर्थ है लोग अगले चुनावों तक आपसी प्रेम एवं सौहार्द से सड़कों पर चल-फिर सकेंगे।
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