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चिड़ियाघर

रोशन प्रेमयोगी

प्रकाशक : किताबघर प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :251
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5461
आईएसबीएन :978818985932

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ग्रामीण जीवन के आत्मीय साक्ष्य प्रस्तुत करता उपन्यास....

chidiyaghar

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

रोशन प्रेमयोगी का यह उपन्यास जीवन के अपार विस्तार का आख्यान है। उपन्यास की केंद्रीय चरित्र वेदान्ती व्यक्ति से अस्मिता बनने की गाथा समेटे है। प्रतिकूलताओं के आगे भी वेदान्ती आत्मसमर्पण नहीं करती, वह जीवन को यथासंभव सम्यक्ता प्रदान करती है। माँ निरुपमा देवी और पिता रामेश्वर पाण्डेय के साथ वेदान्ती का द्वंद्वात्मक रिश्ता एक विरल यथार्थ उद्घाटित करता है। नेह और देह से जुड़े अनेक प्रश्नों का उत्तर तलाशते हुए उपन्यासकार कथासूत्र को क्रमश: विश्लेषित करता चलता है।

‘चिड़ियाघर’ ग्रामीण जीवन के आत्मीय साक्ष्य प्रस्तुत करता है। एक भरा-पूरा परिवार और उसका समग्रत: सुख-दु:ख इन पृष्ठों पर एक समांतर दुनिया-सा दिखने लगता है। यह उपन्यास शिक्षा जगत् की विसंगतियों को भी सामने लाता है। वेदान्ती को विश्वविद्यालय एक ‘चिड़ियाघर’ लगता है।

उपन्यास के सभी स्त्री-पात्र स्मृति में स्थिर होते हैं, फिर भी स्त्री-जीवन की मर्यादाओं की अद्यतन परिभाषा गढ़ती और संकीर्णताओं से संघर्ष करती प्रो. वेदान्ती पाण्डेय सर्वोपरि एवं अविस्मरणीय है। रोशन ने पारिवारिक श्राप का जो मिथक रचा है, वह यथार्थ को कुछ और अर्थवान बनाता है। कहना न होगा कि यह उपन्यास स्त्री-विमर्श को एक रचनात्मक मौलिकता के साथ अवतरित कर सका है।

उपन्यास का एक महत्त्वपूर्ण आकर्षण है-भाषा। भूमंडलीय दबावों के बावजूद यह सार्वजनिक तथ्य है कि निजता और स्थानिकता ही रचनाशीलता की संजीवनी हैं। भाषा और वर्णन प्रविधि में इस संजीवनी को उचित अनुपात के साथ घोल सके हैं रोशन। अंत में यही कि नियति और निश्चय के बीच प्रवहमान जीवनधारा है, जो अपनी अप्रत्याशित वेग-संवेगमयता से पाठक को गहरे तक डुबोती है, डुबोए रखती है।

सुशील सिद्धार्थ

यह उपन्यास उन महिलाओं को समर्पित है, जो लड़ रही हैं और जीत भी रही हैं। जिनके मन में आत्महत्या या फिर मैदान से भागने का विचार स्वप्न में भी नहीं आता। एक सच यह भी है कि इन्हीं में से कुछ ने जीवन के काफी अभावग्रस्त दिनों में मेरा उत्साह बढ़ाया और ‘चिड़ियाघर’ लिखने के लिए प्रेरित किया।

चिड़ियाघर


दो राजनैतिक दलों के जुलूस एक घर से निकलें, ऐसा गाँव में होता है। साथ-साथ निकलें और सिर फुटौव्वल की नौबत न आए, ऐसा भी गाँव में ही होता है।

भारतीय जनता पार्टी के जुलूस का नेतृत्व शामिल देव कर रहा है, उसके पीछे छोटे-छोटे झंडे लेकर चल रहे हैं अखिल देव, स्वाप्निल देव, आदिल देव, साहिल देव, आमिल देव, सलिल देव, मानवन्ती, भाग्यवन्ती और लाजवन्ती। दूसरे जुलूस में जिंदाबाद-मुर्दाबाद करते हुए होड़ ले रहे हैं कपिल देव, अनिल देव, सुनील देव, सुखवन्ती, अनन्ती, अवन्ती, महन्ती और कान्ति। अग्रेसर होता है मिसाइल देव :
‘‘अटल हमारे नेता हैं, देश के प्रणेता हैं।’’
‘‘सोनिया हमारी माता हैं, भारत भाग्यविधाता हैं।’’
‘‘भाजपा का राज होगा, सुंदर-स्वच्छ समाज होगा।’’
‘‘कांग्रेस को लाना है, देश को बचाना है।’’
‘‘अटल बिहारी जिंदाबाद, सोनिया गांधी मुर्दाबाद।’’
‘‘कांग्रेस जिंदाबाद, भाजपा मुर्दाबाद।’’
‘‘कांग्रेस हाय-हाय।’’
‘‘भाजपा बाय बाय।’’
‘‘अटल हमारे नेता हैं।’’
‘‘सोनिया हमारी माता हैं।’’

‘‘दुबारा सोनिया गांधी को माता कैसे कहा तुमने ? एक अंग्रेजन हमारी माँ नहीं हो सकती।’’ शामिल देव अपने जुलूस का नेतृत्व छोड़ मिसाइल देव के सामने आ खड़ा होता है।
‘‘कैसे नहीं हो सकतीं ?’’ अकेला पड़ चुका मिसाइल देव पैर पटकता है।
‘‘नहीं हो सकतीं।’’ सुखवन्ती की अगुवाई में दूसरे सभी बच्चे आवाज बुलंद करते हैं।
‘‘तो अटल बिहारी भी हमारे कुछ नहीं लगते।’’ मिसाइल देव का चेहरा आक्रोश से तमतमा उठता है।

‘‘अटल बिहारी हमारे बाबा लगते हैं। वे तुम्हारी सोनिया गांधी की तरह विदेशी नहीं है।’’ सुखवन्ती के सुर में सुर मिला रहे बच्चे ऊंचे कद के मिसाइल देव को घेर लेते हैं।
‘‘यदि राहुल गांधी हमारा भाई है तो सोनिया गांधी माई है।’’ मिसाइल देव झंडा लगे डंडे का निचला छोर अंगद के पाँव की तरह जमीन पर रखता है।
‘‘न राहुल हमारा भाई है, न सोनिया हमारी माई है।’’ बच्चे उसे चारों ओर से घेर लेते हैं।
‘‘हे जनो, बुआ आवत, बाय।’’ दस वर्षीय मानवन्ती मैदान में गढ़े कोल्हू पर चढ़कर मुख्य सड़क की ओर आते खड़ंजे पर आंखें जमाती है।

धीरे-धीरे पास आती टाटा सूमो गाड़ी का आसमानी रंग भी अब साफ दिख रहा है। मानवन्ती की आवाज कान में पड़ने के बाद छोटे-छोटे सभी बच्चे पहले उसकी तरफ देखते हैं, फिर पार्टियों के झंडे फेंक सरपट भागते हैं। कोल्हू पर से उतरने के चक्कर में पीछे छूट गई मानवन्ती चप्पल हाथ में लेकर दौड़ लगाती है।

खड़ंजे के एक ओर पक्के व खपरैल मकान एवं छप्पर और दूसरी ओर बाँस की कोठियाँ, आम, जामुन, शीशम, महुआ, नीम आदि के पेड़ों का बाग है। बाग में अतिक्रमण करके जानवरों को बाँधने व गन्ना पेरने के लिए मैदान बनाया गया है।
कोल्हू और गुड़ पकाने के लिए बनाई गई गुलउर आसपास के पेड़ों की दुश्मन लगती है। गुलउर से निकलने वाली आँच और अनियंत्रित धुएँ से पेड़ों की पत्तियाँ व डालियाँ प्रभावित हैं। हरी पत्तियों पर जम गया धुआँ अपना प्रभाव दिखा रहा है। कई-कई डालियाँ सूखने लगी हैं, विशेषकर बाँस की।

पुजारी, पंडा व वानर जैसे अयोध्या में आने वाले तीर्थयात्रियों को घेर लेते हैं, वैसे बच्चे टाटा सूमो को। हारकर वेदान्ती पाण्डेय को गाड़ी से उतरना पड़ता है। चरण स्पर्श करते हुए बच्चे उनसे लिपटने लगते हैं। दो बच्चों को दोनों कंधों पर बैठा लेने के बाद वे दो को गोद लेती हैं। अब ड्राइवर समझ जाता है कि मै़म गाड़ी में बैठने के मूड में नहीं हैं, हॉर्न बजाते हुए वह गाड़ी को आगे निकाल ले जाता है तो दूसरे बच्चों को फैलकर चलने का अवसर मिल जाता है।

कोल्हू के पास पहुँचने पर बच्चे पुन: अपने झंडे उठा लेते हैं। कुछ के झंडों की डंडियाँ टूट चुकीं हैं, सूमो का पहिया चढ़ जाने से। बच्चे अब ‘वेदान्ती बुआ जिंदाबाद’ के नारे लगाने लगते हैं। वे कहती हैं, ‘‘कोई ऐसा नारा लगाओ जिसे मैं भी दोहराऊँ।’’ बच्चे कहते हैं, ‘‘बुआ, तुम ही सुझाओ।’’ अचानक उनकी दृष्टि घर के बरामदे में बैठी पुरइन देवी पर पड़ती है। तकली पर सूत कात रही काकी को देख वेदान्ती में बच्चों की सी चंचलता आ जाती है। कंधों और गोदी के बच्चों को नीचे उतारने के बाद वे उछल-उछलकर ताली पीटते हुए काकी को चिढ़ाती हैं :
‘‘काली माई करिया
भवानी माई गोर
डीह बाबा लंगड़
पुजारी बाबा चोर....’’

बच्चे उनके सुर में सुर मिलाते हैं तो पुरइन देवी चिढ़ जाती हैं, ‘‘अरी..री. साँड़िनी। तोर जवानी जरै..बुढ़ापा में कीड़े परैं। पढ़-लिख के गुह खायस रे रमेसरा कै बिटियवाऽऽ, अरे मैला चाटेस रेऽऽ, देख राम हुलास कै नतिनियाऽऽ, रुक बुर लवनी..तोर झोंटा नोचि डारौं..जीभ खींचि वह पै मिर्चा मलौं।’’

‘‘काकी, पायँ लागौं।’’ शापमिश्रित गालियाँ सुन लेने के बाद निकट आ पहुंची वेदान्ती उनके पाँव छूती हैं।
‘‘काकी, पायँ लागौं।’’ बच्चा पार्टी गगनभेदी स्वर में उनकी नकल उतारती है।

‘‘मसखरी छोड़ो, चलो एक-एक करके मेरी तरह काकी के पाँव छूकर आशीष लो।’’ डॉ. वेदान्ती पांडेय गंभीर हो उठती हैं।
अब तक कई तमाशबीन भी लपककर पास आ चुके थे। जिन्होंने स्वप्न में भी कभी पुरइन देवी का अभिवादन नहीं किया था, वे भी वेदान्ती की पहल पर चरण छूने लगते हैं। अभिभूत पुरइन देवी सजल नेत्रों से सबको देखने का प्रयास करती हैं, लेकिन मोतियाबिंद के कारण चश्मा लगाए होने के बावजूद तमाम लोगों को पहचान नहीं पातीं, विशेषकर बच्चों को। यह अनुभव कर वेदान्ती उनकी बगल में बैठ जाती है। जब चारपाई उनके वजन से चरमराने के बाद चुप हो जाती हैं, तब वे मुँह खोलती हैं, ‘‘काकी! मेरे साथ लखनऊ चलो, तुम्हारी आँख का ऑपरेशन करा दूँगी, पुन: सब कुछ साफ-साफ दिखने लगेगा।’’

रुई उधेड़ते हुए परे देख रहीं पुरइन काकी के होंठ काँपते हैं, ‘‘तुम हमार छत्रपति शिवाजी जी हो, बिटिया सच कहत हौं !!’’
‘‘छत्रपति शिवाजी की जय !’’ बच्चे जयकारा लगाते हैं तो कई बड़े भी उनका साथ देते हैं। अभिभूत हो उठतीं हैं वेदान्ती।
संक्षिप्त बतकही के बाद वे पुरइन काकी से वायदा लेना चाहती हैं तो बूढ़ी बेटे से पूछकर बताने की बात कहती है। वेदान्ती उनके बेटे को डपट लेती हैं तो वह खीं-खींऽऽ करके हँसता है। वेदान्ती उसकी हँसी को सहमति मान लेती हैं। पुरइन काकी से दो दिन बाद पड़ने वाले सोमवार को लखनऊ चलने के लिए तैयार रहने की बात कह वे अपने घर का रुख करती हैं। वेदान्ती के पिता पं. रामेश्वर के चचेरे भाई पं. राजेश्वर का द्वार लगभग सूना हो जाता है। अब वहाँ ओसारे में पुरइन देवी और बाहर खूँटों से बँधे जानवर बचते हैं, पाकड़ के वृक्ष पर बैठे कुछ पक्षी भी। पक्षी शोर मचा रहे हैं अपनी धुन में जैसे पुरइन देवी सूत कात रही हैं अपनी धुन में। अब उनका व्यक्तित्व तरंगित लगता है, मन-भर माँ का दूध पी लेने के बाद तृप्त हुए बच्चे की तरह।

दो


‘‘अम्मा, मुझे पदोन्नति मिली है।’’ वेदान्ती आस्तीनदार स्वेटर नन्हे काहिल देव को पहनाते हए अपनी गुनगुनाहट का क्रम तोड़ती हैं, ‘‘अब मैं प्रोफेसर बन गई हूं।’’
‘‘तभी तो मैं सोच रही थी कि अखंड रामायण कराने की इच्छा क्यों बार-बार मन में जग रही है, कल ही बैठवा देती हूँ।’’ सुपारी पर सरौता चलाते हुए प्रफुल्लित निरुपमा देवी पान की पीक से लाल हुए दाँत दिखाती हैं।
‘‘अम्मा, परसों सवेरवैं जाना है, मुझे, बहुत जरूरी काम है।’’

‘‘भगवान् के नाम से जरूरी कुछू नाय है बच्ची।’’ यह आवाज दो-मंजिले घर के अंदर से आती है परदा टँगा होने से औरत पहचान में नहीं आती, लेकिन फुसफुसाहट से लगता है कि दहलीज के अंदर कई महिलाएँ दहलीज के बाहर बरामदे में बैठी माँ-पुत्री की बातें सुनने के लिए जुटी हैं।
अचानक वेदान्ती उठती हैं और मुख्य द्वार का परदा खींच देती हैं। सोन चिरइया जइसन पाँच महिलाएँ जल्दी-जल्दी घूँघट काढ़ने लगती हैं।

‘‘तुम सबों से कितनी बार कही हूं, जब कोई बड़ा-बुजुर्ग द्वार पर न रहे तो इस तरह परदा न किया करो ! मेरी प्यारी भाभियों, बड़ों का सम्मान और परिवार की मर्यादा इस तरह के ढोंग से घटती है। कम से कम मेरे सामने यह सब न किया करो।’’ झुँझलाहट ओढ़ रखी वेदान्ती एक-एक महिला का चेहरा पढ़ती है। वापस पलंग पर आ बैठती हैं तो अनुभव करती हैं कि उनका परदा खींचना माँ को अच्छा नहीं लगा।

जिस काहिल देव को अब तक निरुपमा देवी दुलरा रही थीं, उसे झिड़कते हुए बिना कुछ बिछाए बगल में लिटा देती हैं। उनका क्रोध तब और बढ़ जाता है जब वेदान्ती के पीछे-पीछे बहुएँ घर के अंदर चली आती हैं। रो रहे काहिल देव को वे डपटती हैं तो उनकी डपटन में आधा दर्जन गालियाँ भी होती हैं। जाहिर है उसकी माँ यानी घर की सबसे छोटी बहू दीपमाला के लिये।
उनके डपटने से काहिल देव का क्रंदन तेज हो जाता है तो वे बड़बड़ाने लगती हैं, ‘‘घर में होती हैं तब भी मेरे पास ही पटक जाती हैं लौंडे को।’’

‘‘पढ़ने जाती हैं नानी..पतुरिया बनिहैं..अरे ये दीपमलवा, दीपमलवा रे, तोरे कान में पिघला सीसा डालूँ।’’
‘‘अरे ये कनखोतनीऽऽ !!’’
‘काऽऽ अम्मा, लड़िकवा तंग करत बाय।’’ बाहर आई दीपमाला पल्लू सँभालते, खिसियाहट बिखेरते हुए रो रहे काहिल देव को उठा लेती है।
‘‘आजकल तुम्हार रौ-रंग नहीं मिलत बाय दीपमाला, कालिज जाय के अनुमति हम दिहे हई तौ ई मत समझा कि रंडी बनै कै छूट मिल गई।’’
‘‘अम्मा, अइसन कउनौ बात नहीं है।’’

‘‘चुप रह बदजात ! नहीं तौ जुबान खींच लूँगी।’’ अकारण तड़कती हैं निरुपमा देवी।
‘‘अम्मा क्या हो गया ?’’ वेदान्ती माँ के बाद अपनी प्रश्नवाचक दृष्टि दीपमाला की ओर घुमाती हैं।
‘‘दीदी, कछू नहीं।’’ बड़ी-बड़ी आँखों में आँसू भरे दीपमाला बेटे को चुप कराने लगती है।
‘‘अम्मा ! बच्चों को प्यार से समझाना चाहिए।’’ वेदान्ती के चेहरे पर निश्चिंतता होती है।
‘‘ई घोड़ियाँ बच्ची हैं ? अरे, ढील दूँ तो खोपड़ी पर चढ़कर मूतने लगें।’’ बेटी से आँख चुराती हैं निरुपमा देवी, लेकिन उनके तेवर में कोई कमी नहीं होती।
‘‘तुम बुलुल-बुलुल आँसू क्यों टपका रही हो ? गलती क्या है तुम्हारी ?’’ वेदान्ती पूछती हैं।
‘‘दीदी मैंने कोई गलती नहीं की है।’’
‘‘फिर क्यों रो रही हो ?’’

‘‘अम्मा जी अनायास गुस्सा कर रही हैं। सुबकने लगती है दीपमाला।
‘‘जब तुमने कोई गलती नहीं की है तो रो क्यों रही हो ?’’ वेदान्ती का पारा चढ़ने लगता है। दीपमाला कोई उत्तर नहीं देती तो वे निरुपमा देवी की ओर रुख करती हैं, ‘‘अम्मा, ये अच्छी बात नहीं है। बहुओं के अधिक मुँह लगोगी तो ये ढीठ हो जाएँगी...तब भुगतोगी।’’
‘‘तो क्या कर लेगी ?’’ निरुपमा देवी के अंदर का आक्रोश प्रश्न बनकर फूटता है।
‘‘ये कुछ कर पाएँ या न कर पाएँ, लेकिन तुम्हरी इज्जत अवश्य घट जाएगी।’’
उन्हीं की तरह बुलंद आवाज में मुखरित होती है वेदान्ती, ‘‘अम्मा, बड़े यदि बात-बात पर झिड़की देंगे तो छोटों को अच्छे संस्कार कैसे मिलेंगे ? मैं मानती हूँ, पराए घर की ये बेटियाँ तुमको ठीक से समझ नहीं पा रही हैं, लेकिन इतने मात्र से तुम्हें कुढ़ना नहीं चाहिए। जैसे तुमने मुझे संस्कार दिए, वैसे इन्हें भी दो, अन्यथा कल जब ये सास बनेंगी तो इनकी बहुओं को छोड़ों, बेटियाँ भी कुसंस्कारी होंगी।’’
‘‘अम्मा क्षमा कर दो मुझे।’’ दीपमाला बीच में टपक पड़ती है।

हँसी आ जाती है वेदान्ती को। उन्हें हँसते देख निरुपमा देवी, उनके बाद चौखट के अंदर खड़ी सभी बहुएँ हँसने लगती हैं। सबको हँसते देख खिसिया जाती है दीपमाला। खिसियाहट मिटाने के लिए बायाँ स्तन बच्चे के मुँह में डालकर वह पाँव लटकाकर तख्त पर बैठी वेदान्ती के निकट फर्श पर बैठ जाती है।
‘‘इसकी इन्हीं आदतों पर गुस्सा आता है। तुम कहती हो डाँटो मत, लेकिन देखो, छाती खोलकर यहीं दूध पिलाने बैठ गई। अभी कोई मर्द आ जाए तो ?’’ निरुपमा देवी को बोलने का मौका मिल जाता है।
‘‘छाती खोलकर कहां बैठी हूँ अम्मा ! आँचल के नीचे ढकी तो हूँ।’’ दीपमाला को उनके शब्द बेवजह और कोंचने वाले लगते हैं।

‘‘देखो, ऐसे ही टिपिर-टिपिर जबान लड़ाती है मुझसे, और तुम कहती हो, प्यार करो ? तुम नहीं जानती हो वेदा, दीपमाला को पढ़ाई का घमंड हो गया है। यदि इसके मायके वाले किसी लायक होते तो अब तक ये आसमान में छेद करने लगती।’’
‘‘अम्मा, जो कहना है मुझे कहो, दो-चार लात-घूँसा मार लो, लेकिन मेरे परिवार को कुछ न कहो...गरीब घर में यदि जन्म हुआ तो इसमें मेरा क्या दोष ?’’ परे देखते हुए दीपमाला प्रतिवाद करती है।

‘‘अम्मा, ये ठीक कह रही है। इसकी जगह मैं भी होती तो मायके का अपमान न सहती।’’ वेदान्ती निरुपमा देवी को बोलने का अवसर नहीं देती, ‘‘आज मेरी कोई ससुराल नहीं है तो क्या जिंदगी नहीं कट रही ? तुम लोग जैसे भी हो अच्छे-बुरे, जीने की ऊर्जा तो यहीं से मिलती है।’’ विषयांतर हो चुकी वेदान्ती उदासी ओढ़ लेती हैं।

बेटी को गमगीन देख निरुपमा देवी का व्यक्तित्व बदल जाता है। अब वे सास से माँ बन जाती हैं, ‘‘वेदा ? तुमको मैंने शेर की तरह पाला है, सियारिन की तरह दुखियारी दिखोगी तो मेरा दूध कलंकित होगा।’’
अचानक पलंग पर से कूदकर वे लाठी उठा लेती हैं। ‘‘अरी कलंकिनो ! दो घड़ी से हमार बिटिया आकर बैठी है, अभी तक एक कुल्हड़ चाय भी नहीं बनी इस घर में !’’

वे लाठी फटकार पातीं, उससे पहले ही चौखट पर पाँव रखकर खड़ी बहुएँ खीस निपोरते हुए सरपट आँगन की ओर भागती हैं। दीपमाला एक पल को यह देख मुस्कराती हैं, फिर गंभीरता ओढ़ लेती है। बच्चे को दूध पिलाना उसका कवच बन जाता है।
निरुपमा देवी लाठी रखने के बाद वेदान्ती के बगल में बैठ उनके बालों में उँगलियाँ फिराने लगती हैं। माँ के चेहरे पर उमड़ी ममता अनुभव करके हँसती हैं वेदान्ती, ‘‘अम्मा, तुम्हारे बाल सन की तरह सफेद हो गए हैं। अब मेहँदी लगाया करो। हर्बल डाई भी लाई हूँ तुम्हारे लिए, अकेले लगाओगी तो छह महीने चलेगी।’’

‘‘अरे वेदवा ! तेरे भी इक्के-दुक्के बाल सफेद होने लगे हैं रे।’’ निरुपमा देवी बतकही की दिशा निर्धारित करना चाहती हैं।
‘‘अम्मा ! चालीस की हो रही हूं, अब धीरे-धीरे बुढ़ापे की ओर ही तो बढना है।’’
‘‘अभी तो आपको संसद भवन में बैठना है, देश का राज चलाना है, महिलाओं को संसद से लेकर सड़क तक सब जगह बराबरी का अधिकार दिलवाना है।’’ दीपमाला काहिल देव को उनकी गोद में डालकर अपनी साड़ी ठीक करने लगती है।
किलकारी भरता है काहिल देव, उनसे नजरें मिलने के बाद।

‘‘यह तो छिनरा निकलेगा रे दीपमलवा ! देख, कैसी कटीली नजर से मुझे निहार रहा है।’’ वेदान्ती उसके गालों से खेलती हैं, ‘‘अम्मा, ये किस पर गया है ?’’
‘‘अम्मा पर।’’ तश्तरी में गुड़-चबैना-चटनी और गिलास में चाय लाकर रखते हुए दीपमाला अपने मुँहफट स्वभाव का प्रदर्शन करती है।

‘‘दीपमाला ! कउनौ दिन तुम्हार झोंटा नाई से छिलवाय देब हम। कितनी बार कह चुकी हूँ, जब खाने-पीने का सामान लाया करो तो बाल बाँध लिया करो।’’ निरुपमा देवी उसे स्नेहसिक्त शब्दों में डाँटती हैं।
‘‘सॉरी अम्मा जी !’’ दीपमाला खीस निपोरते हुए उनके गले से लिपट जाती है और दुलराती है।
निरुपमा देवी उसके दुलराने का बुरा नहीं मानतीं।

तभी दुआर की ओर से खेंखारने की आवाज आती है। दीपमाला पल्लू सँभालते हुए भूत की तरह अंदर भागती है।
‘‘पायँ लागी बाऊजी।’’ काहिल देव को माँ की गोदी में डालने के बाद वेदान्ती चाय सुड़कने लगती हैं।
छह फीट दो इंच लंबे पं. रामेश्वर पांडेय शब्दों के जरिए बेटी को जो आशीर्वाद देते हैं, वह बच्चों के शोर में दब जाता है :
‘भाजपा आई है, नई रोशनी लाई है।’’
‘‘कांग्रेस को लाना है, देश को बचाना है।’’
‘‘चप्पा-चप्पा भाजपा।’’
‘‘कांग्रेस पार्टी जिंदाबाद।’’


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