नारी विमर्श >> अँधेरा कमरा अँधेरा कमराआर. के. नारायण
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द डार्क रूम का सम्पूर्ण हिन्दी अनुवाद....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
प्रस्तुत पुस्तक श्री आर.के.नारायण के अंग्रेजी उपन्यास ‘द
डार्क रूम’ का सम्पूर्ण हिन्दी अनुवाद है। यह उनका तीसरा
उपन्यास था और वर्ष 1938 में प्रकाशित हुआ था।
श्री नारायण की गणना अंग्रेजी में लिखने वाले शीर्षस्थ भारतीय लेखकों में है। उनके एक उपन्यास पर निर्मित ‘गाइड’ नामक फिल्म अत्यंत लोकप्रिय हुई है। भारत सरकार द्वारा पद्मभूषण व पद्मविभूषण की उपाधियों से अलंकृत श्री नारायण को विदेशों द्वारा भी अनेकों उपाधियाँ व सम्मान प्रदान किए गए थे।
श्री नारायण के अन्य कहानी-उपन्यासों की भाँति इस उपन्यास का कर्म क्षेत्र भी दक्षिण भारत का मालगुडी नामक छोटा सा काल्पनिक नगर है। इसकी कहानी मुख्यतः इंगलैडिया बीमा कंपनी के शाखा-सचिव मिस्टर रमणी, उनकी पत्नी सावित्री और उनके तीन बच्चों के आसपास घूमती है। श्री रमणी के लिए उनकी पत्नी ‘घर की मुरगी दाल बराबर’ है। वे निरंतर उसके आत्मसम्मान पर आघात करते रहते हैं। यह सब तो वह किसी प्रकार सह लेती है पर जब उसके पति किसी और स्त्री के चक्कर में पड़ जाते हैं और अहंकारवश उसकी कोई बात सुनने के लिए तैयार नहीं है तो वह घर से निकल जाती है और आत्महत्या का प्रयत्न करती है...।
क्या यह प्रयत्न सफल होता है? क्या वह घर वापस लौटती है? उसका, उसके पति का और बच्चों का क्या होता है? पढिए महान कथाशिल्पी श्री नारायण के इस अत्यन्त रोचक व मर्मस्पर्शी पारिवारिक उपन्यास में।
कथानक की रोचकता, चरित्र-चित्रण की सजीवता तथा हास-परिहास का जादुई स्पर्श, जो श्री नारायण की विशेषता है, प्रारम्भ से अंत तक पाठक को बाँधे रहते हैं।
श्री नारायण की गणना अंग्रेजी में लिखने वाले शीर्षस्थ भारतीय लेखकों में है। उनके एक उपन्यास पर निर्मित ‘गाइड’ नामक फिल्म अत्यंत लोकप्रिय हुई है। भारत सरकार द्वारा पद्मभूषण व पद्मविभूषण की उपाधियों से अलंकृत श्री नारायण को विदेशों द्वारा भी अनेकों उपाधियाँ व सम्मान प्रदान किए गए थे।
श्री नारायण के अन्य कहानी-उपन्यासों की भाँति इस उपन्यास का कर्म क्षेत्र भी दक्षिण भारत का मालगुडी नामक छोटा सा काल्पनिक नगर है। इसकी कहानी मुख्यतः इंगलैडिया बीमा कंपनी के शाखा-सचिव मिस्टर रमणी, उनकी पत्नी सावित्री और उनके तीन बच्चों के आसपास घूमती है। श्री रमणी के लिए उनकी पत्नी ‘घर की मुरगी दाल बराबर’ है। वे निरंतर उसके आत्मसम्मान पर आघात करते रहते हैं। यह सब तो वह किसी प्रकार सह लेती है पर जब उसके पति किसी और स्त्री के चक्कर में पड़ जाते हैं और अहंकारवश उसकी कोई बात सुनने के लिए तैयार नहीं है तो वह घर से निकल जाती है और आत्महत्या का प्रयत्न करती है...।
क्या यह प्रयत्न सफल होता है? क्या वह घर वापस लौटती है? उसका, उसके पति का और बच्चों का क्या होता है? पढिए महान कथाशिल्पी श्री नारायण के इस अत्यन्त रोचक व मर्मस्पर्शी पारिवारिक उपन्यास में।
कथानक की रोचकता, चरित्र-चित्रण की सजीवता तथा हास-परिहास का जादुई स्पर्श, जो श्री नारायण की विशेषता है, प्रारम्भ से अंत तक पाठक को बाँधे रहते हैं।
रमा तिवारी
प्राक्कथन
स्वर्गीय श्री आर.के.नारायण (रसीपुरम कृष्णस्वामी नारायणस्वामी) की गणना
अंग्रेजी भाषी में लिखने वाले शीर्षस्थ भारतीय साहित्यकारों में है। इस
उद्देश्य से कि हिन्दी भाषी पाठक भी उनके साहित्य से लाभान्वित हो सकें,
उनकी कुछ प्रमुख पुस्तकों का मैंने हिन्दी में अनुवाद किया है। इसमें से
‘मालगुड़ी डेज़’ (जो ‘मालगुड़ी
डेज़’ और ‘मालगुडी की दुनिया’ नामक दो
भागों में उपलब्ध है); ‘द बैचलर ऑफ आर्ट’(स्नातक);
‘द वेन्डर ऑफ स्वीट्स’ (‘मिठाई
वाला’); ‘दि इंगलिश टीचर’(‘जीवन
और मृत्यु’); ‘द फ़ाइनेन्शल एक्सपर्ट’
(‘मोहभंग’); ‘द मैनईटर ऑफ
मालगुडी’ (नरभक्षी); ‘द गाइड़’
(‘गाइड’); और ‘स्वामी एण्ड
फ्रेन्ड्स’ (‘मित्र मण्डली’); इससे पूर्व
प्रकाशित हो चुकी हैं।
श्री नारायण का जन्म 10 अक्टूबर, 1906 को मद्रास (दक्षिण भारत) में हुआ था तथा शिक्षा मद्रास व मैसूर में। सन् 1930 में 24 वर्ष की आयु में उन्होनें बी.ए. की परीक्षा पास की थी। उनका प्रथम उपन्यास ‘स्वामी एण्ड फ्रेण्डस’ 1935 में प्रकाशित हुआ था। इसके अतिरिक्त उनके अन्य उपन्यास हैः ‘द बैचलर ऑफ आर्ट’ (1937); ‘द डार्क रूम’ (1938); ‘दि इंगलिश टीचर’ (1945); ‘मिस्टर संपत’ (1949); ‘द फ़ाइनेन्शल एक्सपर्ट’ (1952); ‘वेटिंग फ़ॉर द महात्मा’ (1955); ‘द गाइड’ (1958); ‘द मैनईटर ऑफ़ मालगुडी’ (1962); ‘द वेन्डर ऑफ़ स्वीट्स’ (1967); ‘द पेन्टर ऑफ़ साइन्स’ (1976); ‘अ टाइगर फ़ॉर मालगुडी’(1983); ‘टॉकेटिव मैन’ (1986); तथा ‘द वर्ल्ड ऑफ़ नागराज’ (1990)। उनके दो उपन्यासों-‘मिस्टर संपत’ और ‘द गाइड’ पर फ़िल्में बन चुकी हैं। इन उपन्यासों के अतिरिक्त उनके छः कहानी संग्रह (‘अ हॉर्स एण्ड टू गोट्स’; ‘एन एस्ट्रोलोजर्स डे एण्ड अदर स्टोरीज़’; ‘लॉली रोड’; ‘मालगुडी डेज़’; ‘ग्रैण्डमदर्स टेल’ तथा ‘अंडर द बनयन ट्री’) भी प्रकाशित हुए हैं। उन्होनें दो यात्रा पुस्तकें (‘माई डेटलेस डायरी’ और ‘दि एमेरल्ड रूट’); पाँच निबन्ध-संग्रह (‘नेवस्ट संडे’, ‘रिलक्टेन्ट गुरू’, ‘अ राइटर्स नाइटमेअर’, ‘अ स्टोरीटेलर्स वर्ल्ड’ और ‘स़ॉल्ट एण्ड सॉ डस्ट’); भारतीय पौराणिक ग्रंथों पर तीन पुस्तकें (‘द रामायण’, ‘द महाभारत’ और ‘गॉड्स, डीमन्स एण्ड अदर्स’) तथा ‘माई डेज़’ नामक स्मृति-ग्रंथ भी लिखा है।
वर्ष 1964 में श्री नारायण को भारत सरकार द्वारा ‘पद्म भूषण’ की उपाधि से सम्मानित किया गया। दिल्ली सहित अनेक विश्वविद्यालयों ने उन्हें डी.लिट की उपाधि प्रदान की। वे ऑस्टिन (टैक्सास) विश्वविद्यालय के विज़िटिंग प्रोफेसर भी रहे। वर्ष 1980 में उन्हें ब्रिटेन में रॉयल सोसायटी ऑफ़ लिटरेचर द्वारा ए.सी. बेन्सन पदक प्रदान किया गया। संयुक्त राष्ट्र अमेरिका में वे इंगलिश स्पीकिंग यूनियन द्वारा पुरस्कृत किए गए और 1981 में उन्हें अमेरिकन अकादमी एवं कला व साहित्य संस्थान की मानद सदस्यता प्रदान की गई। उनसे पूर्व केवल पंडित रविशंकर को (सितार वादन के लिए) यह सम्मान प्राप्त हुआ था। वर्ष 1989 में उन्हें राज्यसभा की सदस्यता प्रदान की गई और वर्ष 2000 में पद्माविभूषण की उपाधि। मई 2001 में, 94 वर्ष की आयु में, उनका देहांत हो गया।
श्री नारायण के अन्य कहानी-उपन्यासों की भाँति यह उपन्यास भी मालगुडी (दक्षिण भारत का एक छोटा सा काल्पनिक नगर) की ही पृष्ठभूमि पर लिखा हुआ है। श्री नारायण ने खुद इस बात की पुष्ट की थी कि मालगुडी कोई वास्तविक नगर नहीं बल्कि सर्वथा काल्पनिक है। किंतु इसका चित्रण इतना सजीव है कि यह क्षेत्र वास्तविक ही प्रतीत होता है और इसके निवासी भी पाठक को अपने आसपास रहने वाले अपने ही समाज के लोग जान पड़ते है।
इस उपन्यास की कहानी मुख्यतः इंगलैडिया बीमा कंपनी की मालगुडी शाखा के सचिव मिस्टर रमणी, उनकी पत्नी सावित्री और उनके तीन बच्चों के इर्द-गिर्द घूमती है। मि.रमणी उन पुरूषों में से है जो स्त्री को सम्माननीय नहीं, बल्कि भौतिक सुख के विभिन्न साधनों में से एक समझते हैं। अपनी पत्नी का स्वाभिमान व आत्मसम्मान उन्हें कभी शायद हास्यास्पद वस्तु और कभी अक्षम्य अपराध नजर आने लगता है। उनकी दृष्टि में पति घर का सर्वोपरि स्वामी है और पत्नी को उसके किसी भी कार्य की आलोचना का और उस पर असंतोष-प्रदर्शन का अथवा संतान के मामले में भी कुछ बोलने का कोई अधिकार नहीं है। वैसे सावित्री एक अनुकूल, कर्तव्यपरायण व आज्ञाकारिणी पत्नी कही जा सकती है, पर उसे पति की कुछ ऐसी गतिविधियों का पता चलता है जिन्हें वह क्षमा नहीं कर पाती। उसकी आत्मा विद्रोह कर उठती है और वह उनका विरोध करती है। बात इतनी बढ़ जाती है कि अपने आत्मसम्मान की रक्षा के लिए उसे घर का परित्याग करना पडता है। वह नदी में डूब कर आत्महत्या करने का प्रयास करती है पर उसमें सफल नहीं हो पाती।... अंततः वह वापस घर लौटने के लिए विवश हो जाती है, पर उसे महसूस होता है कि उसके व्यक्तित्व का एक भाग सदा के लिए मर चुका है।
उपन्यास के कथानक का ताना-बाना इतनी कुशलता से बुना हुआ है कि छोटे से छोटा और क्षुद्र से क्षुद्र पात्र भी कहानी के विकास के लिए अत्यधिक आवश्यक है। वह ताना-बाना कहीं ढीला नहीं पडता, उसके छोर कहीं भी व्यर्थ लटकते हुए नहीं दिखते। केवल मुख्य चरित्र ही नहीं, श्री नारायण के गौण चरित्र भी अत्यंत यथार्थ, धरती से जुड़े़ हुए और दिलचस्प होते हैं। जहाँ मिस्टर रमणी का चरित्र अपने अहंकार तथा आत्मश्लाधा से परिपूर्ण प्रवृत्तियों व संवादों से खीझ व हास्य की, सावित्री का चरित्र करूणा व संवेदना की तथा बच्चों के चरित्र अपनी भोली कलह तथा बालसुलभ चेष्टाओं से कौतुक की सृष्टि करते हैं, वहीं पोत्रि जैसी साधारण, निम्न वर्ग की तथा निरक्षर स्त्री भी पाठक को कम प्रभावित नहीं करती। पोत्रि एक सह्रदय, सच्ची और निडर औरत है। वह तेजमिजाज और बेपढी होते हुए भी अपने सहज, संतुलित और ठोस जीवन-दर्शन से बड़े-बड़े विद्वानों को भी मात दे सकती है। सावित्री से उसे सहानुभूति है और वह उसे शिक्षा देने में पीछे नहीं रहती—‘‘यह हमेशा याद रखना कि ये मर्द लोग अच्छे तो होते हैं पर इन्हें ढील कभी नहीं देनी चाहिए। औरत जब तक मजबूत रहे तभी तक ये सही हैं।’’ क्षुद्र, स्वार्थी, धूर्त व कृपण बूढे पुजारी का चरित्र भी कम सजीव नहीं है।
हास-परिहास भी नारायण की लेखन-शैली का अभिन्न अंग है। पुलिस कर्मियों के काम करने के तरीकों का जो वर्णन लेखक ने किया है वह पाठक को न केवल जगह-जगह पर हँसाता-गुदगुदाता रहता है, बल्कि सोचने पर मजबूर कर देता है। रात के समय शहर में चोरी का उपक्रम कर रहे मारि को पुलिसवालों का कोई डर नहीं है क्योंकि वह जानता है कि रात की ड्यूटी वाले पुलिसकर्मी सब दुकानों के खाली चबूतरों पर सोए पड़े हैं और सुबह से पहले जागने वाले नहीं हैं।
मिस्टर रमणी सावित्री को निर्देश देते हैं कि वह उनके साठ तक गिनती बोलने से पहले तैयार (सिनेमा जाने के लिए) होकर आ जाए, पर गिनती बोलने के स्थान पर वे दूसरी ही बातें बोलने लगते हैं जिन्हें पढ़ कर पाठक गम्भीर नहीं रह सकता, यद्यपि वे खुद उस समय काफी गम्भीर हैं। इस प्रकार की हास्यमय चुटकियाँ श्री नारायण के लेखन की विशेषता हैं और उनकी सभी पुस्तकों में कदम-कदम पर बिखरी हुई हैं।
मालगुडी की गलियाँ, सड़कें, बस्तियाँ, बाजार, नदी-तट सभी स्थान पाठक को अत्यंत परिचित, प्रिय और अपने से लगते हैं और उनमें रहने वाले भी, इसमें लेश मात्र संदेह नहीं है। कथानक की कसावट, चरित्र-चित्रण की सजीवता तथा हास्य-विनोद का जादुई स्पर्श प्रारम्भ से अंत तक पाठक को बाँधे रहता है।
श्री नारायण का जन्म 10 अक्टूबर, 1906 को मद्रास (दक्षिण भारत) में हुआ था तथा शिक्षा मद्रास व मैसूर में। सन् 1930 में 24 वर्ष की आयु में उन्होनें बी.ए. की परीक्षा पास की थी। उनका प्रथम उपन्यास ‘स्वामी एण्ड फ्रेण्डस’ 1935 में प्रकाशित हुआ था। इसके अतिरिक्त उनके अन्य उपन्यास हैः ‘द बैचलर ऑफ आर्ट’ (1937); ‘द डार्क रूम’ (1938); ‘दि इंगलिश टीचर’ (1945); ‘मिस्टर संपत’ (1949); ‘द फ़ाइनेन्शल एक्सपर्ट’ (1952); ‘वेटिंग फ़ॉर द महात्मा’ (1955); ‘द गाइड’ (1958); ‘द मैनईटर ऑफ़ मालगुडी’ (1962); ‘द वेन्डर ऑफ़ स्वीट्स’ (1967); ‘द पेन्टर ऑफ़ साइन्स’ (1976); ‘अ टाइगर फ़ॉर मालगुडी’(1983); ‘टॉकेटिव मैन’ (1986); तथा ‘द वर्ल्ड ऑफ़ नागराज’ (1990)। उनके दो उपन्यासों-‘मिस्टर संपत’ और ‘द गाइड’ पर फ़िल्में बन चुकी हैं। इन उपन्यासों के अतिरिक्त उनके छः कहानी संग्रह (‘अ हॉर्स एण्ड टू गोट्स’; ‘एन एस्ट्रोलोजर्स डे एण्ड अदर स्टोरीज़’; ‘लॉली रोड’; ‘मालगुडी डेज़’; ‘ग्रैण्डमदर्स टेल’ तथा ‘अंडर द बनयन ट्री’) भी प्रकाशित हुए हैं। उन्होनें दो यात्रा पुस्तकें (‘माई डेटलेस डायरी’ और ‘दि एमेरल्ड रूट’); पाँच निबन्ध-संग्रह (‘नेवस्ट संडे’, ‘रिलक्टेन्ट गुरू’, ‘अ राइटर्स नाइटमेअर’, ‘अ स्टोरीटेलर्स वर्ल्ड’ और ‘स़ॉल्ट एण्ड सॉ डस्ट’); भारतीय पौराणिक ग्रंथों पर तीन पुस्तकें (‘द रामायण’, ‘द महाभारत’ और ‘गॉड्स, डीमन्स एण्ड अदर्स’) तथा ‘माई डेज़’ नामक स्मृति-ग्रंथ भी लिखा है।
वर्ष 1964 में श्री नारायण को भारत सरकार द्वारा ‘पद्म भूषण’ की उपाधि से सम्मानित किया गया। दिल्ली सहित अनेक विश्वविद्यालयों ने उन्हें डी.लिट की उपाधि प्रदान की। वे ऑस्टिन (टैक्सास) विश्वविद्यालय के विज़िटिंग प्रोफेसर भी रहे। वर्ष 1980 में उन्हें ब्रिटेन में रॉयल सोसायटी ऑफ़ लिटरेचर द्वारा ए.सी. बेन्सन पदक प्रदान किया गया। संयुक्त राष्ट्र अमेरिका में वे इंगलिश स्पीकिंग यूनियन द्वारा पुरस्कृत किए गए और 1981 में उन्हें अमेरिकन अकादमी एवं कला व साहित्य संस्थान की मानद सदस्यता प्रदान की गई। उनसे पूर्व केवल पंडित रविशंकर को (सितार वादन के लिए) यह सम्मान प्राप्त हुआ था। वर्ष 1989 में उन्हें राज्यसभा की सदस्यता प्रदान की गई और वर्ष 2000 में पद्माविभूषण की उपाधि। मई 2001 में, 94 वर्ष की आयु में, उनका देहांत हो गया।
श्री नारायण के अन्य कहानी-उपन्यासों की भाँति यह उपन्यास भी मालगुडी (दक्षिण भारत का एक छोटा सा काल्पनिक नगर) की ही पृष्ठभूमि पर लिखा हुआ है। श्री नारायण ने खुद इस बात की पुष्ट की थी कि मालगुडी कोई वास्तविक नगर नहीं बल्कि सर्वथा काल्पनिक है। किंतु इसका चित्रण इतना सजीव है कि यह क्षेत्र वास्तविक ही प्रतीत होता है और इसके निवासी भी पाठक को अपने आसपास रहने वाले अपने ही समाज के लोग जान पड़ते है।
इस उपन्यास की कहानी मुख्यतः इंगलैडिया बीमा कंपनी की मालगुडी शाखा के सचिव मिस्टर रमणी, उनकी पत्नी सावित्री और उनके तीन बच्चों के इर्द-गिर्द घूमती है। मि.रमणी उन पुरूषों में से है जो स्त्री को सम्माननीय नहीं, बल्कि भौतिक सुख के विभिन्न साधनों में से एक समझते हैं। अपनी पत्नी का स्वाभिमान व आत्मसम्मान उन्हें कभी शायद हास्यास्पद वस्तु और कभी अक्षम्य अपराध नजर आने लगता है। उनकी दृष्टि में पति घर का सर्वोपरि स्वामी है और पत्नी को उसके किसी भी कार्य की आलोचना का और उस पर असंतोष-प्रदर्शन का अथवा संतान के मामले में भी कुछ बोलने का कोई अधिकार नहीं है। वैसे सावित्री एक अनुकूल, कर्तव्यपरायण व आज्ञाकारिणी पत्नी कही जा सकती है, पर उसे पति की कुछ ऐसी गतिविधियों का पता चलता है जिन्हें वह क्षमा नहीं कर पाती। उसकी आत्मा विद्रोह कर उठती है और वह उनका विरोध करती है। बात इतनी बढ़ जाती है कि अपने आत्मसम्मान की रक्षा के लिए उसे घर का परित्याग करना पडता है। वह नदी में डूब कर आत्महत्या करने का प्रयास करती है पर उसमें सफल नहीं हो पाती।... अंततः वह वापस घर लौटने के लिए विवश हो जाती है, पर उसे महसूस होता है कि उसके व्यक्तित्व का एक भाग सदा के लिए मर चुका है।
उपन्यास के कथानक का ताना-बाना इतनी कुशलता से बुना हुआ है कि छोटे से छोटा और क्षुद्र से क्षुद्र पात्र भी कहानी के विकास के लिए अत्यधिक आवश्यक है। वह ताना-बाना कहीं ढीला नहीं पडता, उसके छोर कहीं भी व्यर्थ लटकते हुए नहीं दिखते। केवल मुख्य चरित्र ही नहीं, श्री नारायण के गौण चरित्र भी अत्यंत यथार्थ, धरती से जुड़े़ हुए और दिलचस्प होते हैं। जहाँ मिस्टर रमणी का चरित्र अपने अहंकार तथा आत्मश्लाधा से परिपूर्ण प्रवृत्तियों व संवादों से खीझ व हास्य की, सावित्री का चरित्र करूणा व संवेदना की तथा बच्चों के चरित्र अपनी भोली कलह तथा बालसुलभ चेष्टाओं से कौतुक की सृष्टि करते हैं, वहीं पोत्रि जैसी साधारण, निम्न वर्ग की तथा निरक्षर स्त्री भी पाठक को कम प्रभावित नहीं करती। पोत्रि एक सह्रदय, सच्ची और निडर औरत है। वह तेजमिजाज और बेपढी होते हुए भी अपने सहज, संतुलित और ठोस जीवन-दर्शन से बड़े-बड़े विद्वानों को भी मात दे सकती है। सावित्री से उसे सहानुभूति है और वह उसे शिक्षा देने में पीछे नहीं रहती—‘‘यह हमेशा याद रखना कि ये मर्द लोग अच्छे तो होते हैं पर इन्हें ढील कभी नहीं देनी चाहिए। औरत जब तक मजबूत रहे तभी तक ये सही हैं।’’ क्षुद्र, स्वार्थी, धूर्त व कृपण बूढे पुजारी का चरित्र भी कम सजीव नहीं है।
हास-परिहास भी नारायण की लेखन-शैली का अभिन्न अंग है। पुलिस कर्मियों के काम करने के तरीकों का जो वर्णन लेखक ने किया है वह पाठक को न केवल जगह-जगह पर हँसाता-गुदगुदाता रहता है, बल्कि सोचने पर मजबूर कर देता है। रात के समय शहर में चोरी का उपक्रम कर रहे मारि को पुलिसवालों का कोई डर नहीं है क्योंकि वह जानता है कि रात की ड्यूटी वाले पुलिसकर्मी सब दुकानों के खाली चबूतरों पर सोए पड़े हैं और सुबह से पहले जागने वाले नहीं हैं।
मिस्टर रमणी सावित्री को निर्देश देते हैं कि वह उनके साठ तक गिनती बोलने से पहले तैयार (सिनेमा जाने के लिए) होकर आ जाए, पर गिनती बोलने के स्थान पर वे दूसरी ही बातें बोलने लगते हैं जिन्हें पढ़ कर पाठक गम्भीर नहीं रह सकता, यद्यपि वे खुद उस समय काफी गम्भीर हैं। इस प्रकार की हास्यमय चुटकियाँ श्री नारायण के लेखन की विशेषता हैं और उनकी सभी पुस्तकों में कदम-कदम पर बिखरी हुई हैं।
मालगुडी की गलियाँ, सड़कें, बस्तियाँ, बाजार, नदी-तट सभी स्थान पाठक को अत्यंत परिचित, प्रिय और अपने से लगते हैं और उनमें रहने वाले भी, इसमें लेश मात्र संदेह नहीं है। कथानक की कसावट, चरित्र-चित्रण की सजीवता तथा हास्य-विनोद का जादुई स्पर्श प्रारम्भ से अंत तक पाठक को बाँधे रहता है।
रमा तिवारी
1
स्कूल जाने के समय अचानक बाबू को बड़ी अस्वस्थता सी महसूस होने लगी। उसकी
माँ सावित्री ने उसकी यह हालत देखकर उसे ले जाकर बिस्तर पर लिटा दिया। जब
वह बिस्तर पर लेटा हुआ था तो मिस्टर रमणी ने आ कर पूछाः
‘‘क्या हुआ?’’
‘‘कुछ नहीं’’ कहकर सावित्री रसोईघर में चली गई। इस बार रमणी ने सीधे रोगी से प्रश्न किया और फिर पुकार लगाईः ‘‘सावित्री!’’ इससे पहले कि वह जवाब देती, उन्होंने दो बार अपनी पुकार की पुनरावृत्ति कर दी और फिर उसके आने पर पूछाः ‘‘बहरी हो क्या?’’
‘‘मैं तो बस.......’’
‘‘बाबू को क्या हुआ है?’’
‘‘उसकी तबियत ठीक नहीं है।’’
‘‘तुम तो झट से मेडिकल सर्टिफिकेट लिए तैयार रहती हो। बाबू, उठो एकदम! इस तरह स्कूल जाना नहीं टालना चाहिए।’’
बाबू ने विनयपूर्ण दृष्टि से माँ की ओर देखा। माँ ने कहाः ‘‘लेटे रहो, बाबू! तुम आज स्कूल नहीं जा रहे हो।’’
रमणी ने कहाः ‘‘तुम अपने काम से मतलब रखो। सुना या नहीं?’’
‘‘लड़के को बुखार है।’’
‘‘नहीं है। रसोईघर में जाकर अपना कुछ भी काम करो। इतने बड़े लड़के को क्या सिखाना है और क्या नहीं, यह मुझ पर छोड़ दो। यह काम औरतों का नहीं है।’’
‘‘आपको दिख नहीं रहा, लड़का कितना बीमार है?’’
‘‘ठीक है, ठीक है, मुझे दफ्तर जाने में देर हो रही है।’’ कहते हुए मिस्टर रमणी भोजन-कक्ष की ओर चल दिए।
बाबू ने कपड़े बदले और स्कूल के लिए चल पड़ा। सावित्री ने एक गिलास दूध पिला कर उसे विदा किया और फिर रसोईघर में आ गई। रसोइए ने उसके पति को भोजन परोस दिया था और उन्होंने खाना शुरू कर दिया था।
उसने फिर कहाः ‘‘आपने देखा नहीं, लड़के की तबियत कितनी खराब है?’’
रमणी ने उसके प्रश्न को अनसुना करते हुए पूछ लियाः ‘‘इस समय के भोजन के लिए सब्जियों का चुनाव किसका था?’’
‘‘क्यों?’’
‘‘साल के बारहों महीने और महीने के तीस दिन बस बैगन, ककड़ी, मूली और पत्ती की सब्जियाँ बनती हैं। पता नहीं, मुझे ढ़ंग का भोजन कब मिलेगा? मैं इस भोजन के लिए सारे दिन दफ्तर में खटता रहता हूँ। खर्च में कोई कमी नहीं है.... अगर रसोइया ठीक से खाना नहीं बना सकता तो यह काम तुम्हें खुद करना चाहिए। तुम्हें और काम ही क्या है?’’
सावित्री रसोइए और पति के बीच में आती-जाती हुई भोजन करते हुए पति की पत्तल पर क्या समाप्त हो गया और किस चीज की जरूरत है, इस संबंध में रसोईए को निर्देश देती जा रही थी। यह कोई आसान काम नहीं था, क्योंकि भोजन सम्बन्धी रूचि के मामले में रमणी बाबू बड़े सनकी व्यक्ति थे। ‘‘यह ककड़ी बार-बार परोस कर क्यों मुझे तंग कर रही हो? यह तुमने मुझे बारहवीं बार परोसी है ! क्या यह मेरे जिन्दा रहने के लिए जरूरी है?’’ या फिर जरा सी देर होती ही वे कहने लगतेः ‘‘ओह! लगता है मुझे दफ्तर में छुट्टी के लिए आवेदन करके इस नमक लगी हुई ककड़ी की प्रतिक्षा करनी पड़ेगी। वाह! मुझे तो मालूम ही नहीं था कि लोग ककड़ी में भी इतनी कंजूसी कर सकते हैं, जो बाजार की सबसे सस्ती व रद्दी चीज है। चौथाई ककड़ी में सारे घर को निपटा देने की कोशिश करने के बजाय कुछ और क्यों नहीं कटवा लेतीं? इसे कहते हैं किफायत! काश, तुम घर के दूसरे मामलों में भी ऐसी किफ़ायती होतीं!’’ सावित्री भी कभी किसी तरह की सफाई देकर उनकी इस धारा प्रवाह टीका-टिप्पणी में बाधा नहीं डालती थी और उसका यह मौन उनके क्रोध को और भी भड़का देता था। ‘‘मौन रहकर अपनी शक्ति बचा रही हो, क्यों?’’ वे कहते, ‘‘जब एक आदमी तुमसे कुछ पूछ रहा है तो क्या उस अभागे को जवाब पाने का भी हक नहीं है?’’ यदि वह कभी सफाई देने की कोशिश करती (जो बहुत कम ही होता था) तो वे क्रुद्ध होकर बोल उठतेः ‘‘चुप रहो! बातें बनाने से रद्दी भोजन स्वादिष्ट नहीं हो सकता।’’
भोजन के बाद वे अपने कमरे में जाकर जल्दी-जल्दी दफ्तर जाने के लिए कपड़े पहनने लगे। इस काम में वे जितनी शीघ्रता करने की कोशिश करते, उतना ही उनका काम उलझता जाता था। वे बार-बार रंगा (नौकर) को पुकारते और उसे बताते रहते कि उसने उनके जूते ठीक से पालिश नहीं किए हैं या गलत ढ़ग से तह करके पतलून की क्रीज़ बिगाड़ दी है या कोट को हैंगर पर लटकाते समय उसकी जेबें बाहर निकली हुई छोड़ दी हैं, और इस फूहड़पन के लिए उसे क्या कहा जाना चाहिए और कहाँ भेजा जाना चाहिए। कभी-कभी कपड़ों के बटन नदारद होने या मोजों में छेद होने पर वे सावित्री की भी खबर लेते थे। उसे इस बात पर भी डाँट पड़ती रहती थी कि वह रंगा की गतिविधियों पर नजर नहीं रखती। हर कपड़े में उन्हें कोई न कोई कमी नजर आ जाती थी और वे क्रुद्ध होकर इस प्रकार की टीका-टिप्पणी करने लगते थे, सिवाय टाइयों के, जिनका वे व्यक्तिगत रूप से ख्याल रखते थे। वे उन्हें अपनी मेज के ऊपर रखी हुई तीन भारी-भारी पुस्तकों-‘ऐननडेल्स डिक्शनरी’, ‘कंप्लीट वर्क्स ऑफ बायरन’ और ‘एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका’ के पन्नों के बीच में बड़ी सावधानी से दबा कर रखते थे।
सिल्क का सूट पहनकर सोला हैट लगाए उन्होंने बाहरी दरवाजे पर खड़े होकर पुकारा—‘‘कौन है वहाँ?’’ इसका अर्थ थाः ‘‘सावित्री, यहाँ आकर मुझे विदा करो।’’ सावित्री के आने पर उन्होंने कहाः ‘‘दरवाजा बन्द कर लो।’’
‘‘मेरे पास पैसे खत्म हो गए हैं। शाम के लिए सब्जी खरीदनी है।’’
‘‘एक रूपए से काम चलेगा?’’ और वे रूपया देकर चल दिए। एक क्षण के लिए दरवाजे पर ठहर कर सावित्री गैरेज से निकाली जाती हुई पुरानी शेवरोले कार के इंजन का शोर सुनती रही और उसके बंद होते ही घर एकदम शांत हो गया।
इसके बाद सावित्री थोड़ा सा पूजा-पाठ करती थी। वह पूजा घर में गई, धूप—दीप जलाए और काठ की पीठिका पर स्थापित देव-मूर्तियों के सम्मुख अड़हुल, चमेली और कनेर के पुष्प चढ़ाकर बरसों पहले अपनी माँ से सीखी स्तुतियाँ बोलने लगी। फिर देव-मूर्तियों के सामने साष्टांग प्रणाम करके वह एक पत्तल (केले का पत्ता) लेकर रसोईघर में जाकर बैठ गई। रसोइए के चेहरे पर उदासी थी। सावित्री की पत्तल पर भोजन परोसते हुए उसने पूछाः ‘‘मालकिन, क्या आज भोजन बहुत खराब बना है?’’ वह आलोचना के प्रति बड़ा संवेदनशील था और जब खाते समय उसके मालिक भोजन के सम्बन्ध में टीका-टिप्पणी करते थे तो उसे बड़ी मानसिक यंत्रणा होती थी।
‘‘आज हमें फिर से बैंगन नहीं बनाने चाहिए थे। अभी कल ही तो बने थे,’’ सावित्री ने कहा, ‘‘कुछ भी हो, इस सप्ताह बैंगन और मत बनाना।’’
‘‘ठीक है, मालकिन। क्या आज खाना बहुत खराब बना है?’’
‘‘ऐसा खराब तो नहीं। हाँ, चटनी में थोड़ी इमली कम होती तो शायद बेहतर होता। तुम्हारे मालिक को ज्यादा इमली पसन्द नहीं है।’’
रसोइया मुँह फुलाए उसे परोसता रहा। रोज ऐसा ही होता था। वह आलोचना और भूख (क्योंकि उसे सबसे बाद में खाना होता था) दोनों से पीड़ित रहता था और भूखे होने की स्थिति में आलोचना और भी कष्टकर लगती थी। दूसरे रसोइयों की तरह नहीं कि मालकिन की नजर बचा कर एक-आध बार थोड़ा सा दूध-दही ही गटक ले। सावित्री दूध-दही को रसोईघर की अलमारी में रख कर ताला लगा देती थी और इन चीजों को खुद अपने हाथ से परोसती थी, अतः उसका दाँव लगना सम्भव ही नहीं था।
‘‘पता नहीं क्यों मेरे बनाए भोजन से मालिक कभी खुश ही नहीं होते। मैं तो पूरी कोशिश करता हूँ। और कोई क्या करे?’’
पति के भाषण की ही भाँति रसोइए का यह दुख-प्रदर्शन भी रोजाना की बात थी, इसलिए इस पर ध्यान देना भी सावित्री ने बंद कर दिया था। वह चुपचाप भोजन करती रही। उसके विचार फिर से बाबू की ओर केन्द्रित हो गए। लड़का अस्वस्थ लग रहा था। संभव है इस समय कक्षा में उसकी तबियत बहुत खराब हो। ‘‘मैं कितनी लाचार, कितनी अशक्त हूँ।’’ उसने सोचा, ‘‘पन्द्रह वर्ष के वैवाहिक जीवन के बाद भी मां घर के मामलों में कुछ भी करने में अक्षम हूँ!’’ यह ठीक है कि बाबू बहुत बीमार नहीं लग रहा था। पर उसकी माँ को यह भी अधिकार नहीं था कि उसे दिन भर बिस्तर पर आराम करने देती। काश, वह शुरू से ही इतनी दब्बू और सहनशील नहीं होती ! उसकी सहेली गंगू को ही ले लिया जाये। वह अपने पति को पूरी तरह नियंत्रण में रखती है।
भोजन के बाद पान-सुपारी मुँह में डाल कर वह रोजाना की तरह हॉल में रखे हुए अपने बेंच पर जा लेटी और तमिल पत्रिका के पन्ने पलटने लगी। आधे घंटे के अंदर घर में निस्तब्धता छा गई। नौकर दैनिक सफाई-धुलाई आदि का काम समाप्त करके पास की दुकान पर बीड़ी पीने और रसोइया आधे घंटे के लिए कॉफी-हाऊस में मित्रों के साथ रसोईघर की राजनीति पर गपशप करने के लिए चला गया था। बगीचे से आती हुई कौऔं व चिडियों की आवाजें बीच-बीच में नीरवता को भंग कर देती थीं। पत्रिका के पृष्ठ पलटते-पलटते कुछ देर के लिए सावित्री की आँख लग गई।
प्राथमिक विद्यालय से आती हुई एक बजे वाली घंटी की आवाज से उसकी नींद टूट गई। यह मध्यावकाश की घंटी थी। इसका मतलब है कि उसकी दोनों लड़कियाँ—सुमित और कमला, जल्दी-जल्दी उछलती कूदती हुई आने ही वाली होंगी। सावित्री उनके लिए दही और भात का मिश्रण तैयार करने चली गई। जब वह रसोईघर की अलमारी खोल रही थी तो उसने हॉल में पैरों की आहट सुनी और शीघ्र ही कमला, जो एक गोल-मटोल छोटी सी लड़की थी, रसोईघर में प्रवेश करके अपनी थाली के सामने आ बैठी। वह अभी तक हाँफ रही थी।
‘‘कुछ नहीं’’ कहकर सावित्री रसोईघर में चली गई। इस बार रमणी ने सीधे रोगी से प्रश्न किया और फिर पुकार लगाईः ‘‘सावित्री!’’ इससे पहले कि वह जवाब देती, उन्होंने दो बार अपनी पुकार की पुनरावृत्ति कर दी और फिर उसके आने पर पूछाः ‘‘बहरी हो क्या?’’
‘‘मैं तो बस.......’’
‘‘बाबू को क्या हुआ है?’’
‘‘उसकी तबियत ठीक नहीं है।’’
‘‘तुम तो झट से मेडिकल सर्टिफिकेट लिए तैयार रहती हो। बाबू, उठो एकदम! इस तरह स्कूल जाना नहीं टालना चाहिए।’’
बाबू ने विनयपूर्ण दृष्टि से माँ की ओर देखा। माँ ने कहाः ‘‘लेटे रहो, बाबू! तुम आज स्कूल नहीं जा रहे हो।’’
रमणी ने कहाः ‘‘तुम अपने काम से मतलब रखो। सुना या नहीं?’’
‘‘लड़के को बुखार है।’’
‘‘नहीं है। रसोईघर में जाकर अपना कुछ भी काम करो। इतने बड़े लड़के को क्या सिखाना है और क्या नहीं, यह मुझ पर छोड़ दो। यह काम औरतों का नहीं है।’’
‘‘आपको दिख नहीं रहा, लड़का कितना बीमार है?’’
‘‘ठीक है, ठीक है, मुझे दफ्तर जाने में देर हो रही है।’’ कहते हुए मिस्टर रमणी भोजन-कक्ष की ओर चल दिए।
बाबू ने कपड़े बदले और स्कूल के लिए चल पड़ा। सावित्री ने एक गिलास दूध पिला कर उसे विदा किया और फिर रसोईघर में आ गई। रसोइए ने उसके पति को भोजन परोस दिया था और उन्होंने खाना शुरू कर दिया था।
उसने फिर कहाः ‘‘आपने देखा नहीं, लड़के की तबियत कितनी खराब है?’’
रमणी ने उसके प्रश्न को अनसुना करते हुए पूछ लियाः ‘‘इस समय के भोजन के लिए सब्जियों का चुनाव किसका था?’’
‘‘क्यों?’’
‘‘साल के बारहों महीने और महीने के तीस दिन बस बैगन, ककड़ी, मूली और पत्ती की सब्जियाँ बनती हैं। पता नहीं, मुझे ढ़ंग का भोजन कब मिलेगा? मैं इस भोजन के लिए सारे दिन दफ्तर में खटता रहता हूँ। खर्च में कोई कमी नहीं है.... अगर रसोइया ठीक से खाना नहीं बना सकता तो यह काम तुम्हें खुद करना चाहिए। तुम्हें और काम ही क्या है?’’
सावित्री रसोइए और पति के बीच में आती-जाती हुई भोजन करते हुए पति की पत्तल पर क्या समाप्त हो गया और किस चीज की जरूरत है, इस संबंध में रसोईए को निर्देश देती जा रही थी। यह कोई आसान काम नहीं था, क्योंकि भोजन सम्बन्धी रूचि के मामले में रमणी बाबू बड़े सनकी व्यक्ति थे। ‘‘यह ककड़ी बार-बार परोस कर क्यों मुझे तंग कर रही हो? यह तुमने मुझे बारहवीं बार परोसी है ! क्या यह मेरे जिन्दा रहने के लिए जरूरी है?’’ या फिर जरा सी देर होती ही वे कहने लगतेः ‘‘ओह! लगता है मुझे दफ्तर में छुट्टी के लिए आवेदन करके इस नमक लगी हुई ककड़ी की प्रतिक्षा करनी पड़ेगी। वाह! मुझे तो मालूम ही नहीं था कि लोग ककड़ी में भी इतनी कंजूसी कर सकते हैं, जो बाजार की सबसे सस्ती व रद्दी चीज है। चौथाई ककड़ी में सारे घर को निपटा देने की कोशिश करने के बजाय कुछ और क्यों नहीं कटवा लेतीं? इसे कहते हैं किफायत! काश, तुम घर के दूसरे मामलों में भी ऐसी किफ़ायती होतीं!’’ सावित्री भी कभी किसी तरह की सफाई देकर उनकी इस धारा प्रवाह टीका-टिप्पणी में बाधा नहीं डालती थी और उसका यह मौन उनके क्रोध को और भी भड़का देता था। ‘‘मौन रहकर अपनी शक्ति बचा रही हो, क्यों?’’ वे कहते, ‘‘जब एक आदमी तुमसे कुछ पूछ रहा है तो क्या उस अभागे को जवाब पाने का भी हक नहीं है?’’ यदि वह कभी सफाई देने की कोशिश करती (जो बहुत कम ही होता था) तो वे क्रुद्ध होकर बोल उठतेः ‘‘चुप रहो! बातें बनाने से रद्दी भोजन स्वादिष्ट नहीं हो सकता।’’
भोजन के बाद वे अपने कमरे में जाकर जल्दी-जल्दी दफ्तर जाने के लिए कपड़े पहनने लगे। इस काम में वे जितनी शीघ्रता करने की कोशिश करते, उतना ही उनका काम उलझता जाता था। वे बार-बार रंगा (नौकर) को पुकारते और उसे बताते रहते कि उसने उनके जूते ठीक से पालिश नहीं किए हैं या गलत ढ़ग से तह करके पतलून की क्रीज़ बिगाड़ दी है या कोट को हैंगर पर लटकाते समय उसकी जेबें बाहर निकली हुई छोड़ दी हैं, और इस फूहड़पन के लिए उसे क्या कहा जाना चाहिए और कहाँ भेजा जाना चाहिए। कभी-कभी कपड़ों के बटन नदारद होने या मोजों में छेद होने पर वे सावित्री की भी खबर लेते थे। उसे इस बात पर भी डाँट पड़ती रहती थी कि वह रंगा की गतिविधियों पर नजर नहीं रखती। हर कपड़े में उन्हें कोई न कोई कमी नजर आ जाती थी और वे क्रुद्ध होकर इस प्रकार की टीका-टिप्पणी करने लगते थे, सिवाय टाइयों के, जिनका वे व्यक्तिगत रूप से ख्याल रखते थे। वे उन्हें अपनी मेज के ऊपर रखी हुई तीन भारी-भारी पुस्तकों-‘ऐननडेल्स डिक्शनरी’, ‘कंप्लीट वर्क्स ऑफ बायरन’ और ‘एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका’ के पन्नों के बीच में बड़ी सावधानी से दबा कर रखते थे।
सिल्क का सूट पहनकर सोला हैट लगाए उन्होंने बाहरी दरवाजे पर खड़े होकर पुकारा—‘‘कौन है वहाँ?’’ इसका अर्थ थाः ‘‘सावित्री, यहाँ आकर मुझे विदा करो।’’ सावित्री के आने पर उन्होंने कहाः ‘‘दरवाजा बन्द कर लो।’’
‘‘मेरे पास पैसे खत्म हो गए हैं। शाम के लिए सब्जी खरीदनी है।’’
‘‘एक रूपए से काम चलेगा?’’ और वे रूपया देकर चल दिए। एक क्षण के लिए दरवाजे पर ठहर कर सावित्री गैरेज से निकाली जाती हुई पुरानी शेवरोले कार के इंजन का शोर सुनती रही और उसके बंद होते ही घर एकदम शांत हो गया।
इसके बाद सावित्री थोड़ा सा पूजा-पाठ करती थी। वह पूजा घर में गई, धूप—दीप जलाए और काठ की पीठिका पर स्थापित देव-मूर्तियों के सम्मुख अड़हुल, चमेली और कनेर के पुष्प चढ़ाकर बरसों पहले अपनी माँ से सीखी स्तुतियाँ बोलने लगी। फिर देव-मूर्तियों के सामने साष्टांग प्रणाम करके वह एक पत्तल (केले का पत्ता) लेकर रसोईघर में जाकर बैठ गई। रसोइए के चेहरे पर उदासी थी। सावित्री की पत्तल पर भोजन परोसते हुए उसने पूछाः ‘‘मालकिन, क्या आज भोजन बहुत खराब बना है?’’ वह आलोचना के प्रति बड़ा संवेदनशील था और जब खाते समय उसके मालिक भोजन के सम्बन्ध में टीका-टिप्पणी करते थे तो उसे बड़ी मानसिक यंत्रणा होती थी।
‘‘आज हमें फिर से बैंगन नहीं बनाने चाहिए थे। अभी कल ही तो बने थे,’’ सावित्री ने कहा, ‘‘कुछ भी हो, इस सप्ताह बैंगन और मत बनाना।’’
‘‘ठीक है, मालकिन। क्या आज खाना बहुत खराब बना है?’’
‘‘ऐसा खराब तो नहीं। हाँ, चटनी में थोड़ी इमली कम होती तो शायद बेहतर होता। तुम्हारे मालिक को ज्यादा इमली पसन्द नहीं है।’’
रसोइया मुँह फुलाए उसे परोसता रहा। रोज ऐसा ही होता था। वह आलोचना और भूख (क्योंकि उसे सबसे बाद में खाना होता था) दोनों से पीड़ित रहता था और भूखे होने की स्थिति में आलोचना और भी कष्टकर लगती थी। दूसरे रसोइयों की तरह नहीं कि मालकिन की नजर बचा कर एक-आध बार थोड़ा सा दूध-दही ही गटक ले। सावित्री दूध-दही को रसोईघर की अलमारी में रख कर ताला लगा देती थी और इन चीजों को खुद अपने हाथ से परोसती थी, अतः उसका दाँव लगना सम्भव ही नहीं था।
‘‘पता नहीं क्यों मेरे बनाए भोजन से मालिक कभी खुश ही नहीं होते। मैं तो पूरी कोशिश करता हूँ। और कोई क्या करे?’’
पति के भाषण की ही भाँति रसोइए का यह दुख-प्रदर्शन भी रोजाना की बात थी, इसलिए इस पर ध्यान देना भी सावित्री ने बंद कर दिया था। वह चुपचाप भोजन करती रही। उसके विचार फिर से बाबू की ओर केन्द्रित हो गए। लड़का अस्वस्थ लग रहा था। संभव है इस समय कक्षा में उसकी तबियत बहुत खराब हो। ‘‘मैं कितनी लाचार, कितनी अशक्त हूँ।’’ उसने सोचा, ‘‘पन्द्रह वर्ष के वैवाहिक जीवन के बाद भी मां घर के मामलों में कुछ भी करने में अक्षम हूँ!’’ यह ठीक है कि बाबू बहुत बीमार नहीं लग रहा था। पर उसकी माँ को यह भी अधिकार नहीं था कि उसे दिन भर बिस्तर पर आराम करने देती। काश, वह शुरू से ही इतनी दब्बू और सहनशील नहीं होती ! उसकी सहेली गंगू को ही ले लिया जाये। वह अपने पति को पूरी तरह नियंत्रण में रखती है।
भोजन के बाद पान-सुपारी मुँह में डाल कर वह रोजाना की तरह हॉल में रखे हुए अपने बेंच पर जा लेटी और तमिल पत्रिका के पन्ने पलटने लगी। आधे घंटे के अंदर घर में निस्तब्धता छा गई। नौकर दैनिक सफाई-धुलाई आदि का काम समाप्त करके पास की दुकान पर बीड़ी पीने और रसोइया आधे घंटे के लिए कॉफी-हाऊस में मित्रों के साथ रसोईघर की राजनीति पर गपशप करने के लिए चला गया था। बगीचे से आती हुई कौऔं व चिडियों की आवाजें बीच-बीच में नीरवता को भंग कर देती थीं। पत्रिका के पृष्ठ पलटते-पलटते कुछ देर के लिए सावित्री की आँख लग गई।
प्राथमिक विद्यालय से आती हुई एक बजे वाली घंटी की आवाज से उसकी नींद टूट गई। यह मध्यावकाश की घंटी थी। इसका मतलब है कि उसकी दोनों लड़कियाँ—सुमित और कमला, जल्दी-जल्दी उछलती कूदती हुई आने ही वाली होंगी। सावित्री उनके लिए दही और भात का मिश्रण तैयार करने चली गई। जब वह रसोईघर की अलमारी खोल रही थी तो उसने हॉल में पैरों की आहट सुनी और शीघ्र ही कमला, जो एक गोल-मटोल छोटी सी लड़की थी, रसोईघर में प्रवेश करके अपनी थाली के सामने आ बैठी। वह अभी तक हाँफ रही थी।
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