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कहानी संग्रह >> सोई माटी जाग

सोई माटी जाग

रतन जांगिड़

प्रकाशक : साहित्यागार प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :160
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5446
आईएसबीएन :81-7711-136-1

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श्रेष्ठ कहानी संग्रह....

Soi Mati Jag

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

उसके हाथों से राखी नीचे गिर पड़ी। वह जमीन पर बैठ गई और दहाड़े मारकर रोने लगी जैसे उसका माँ-जाया भाई छोड़कर गया हो। मैं भी उसका रुदन सुनता रहा। यह कैसा रिश्ता है दो देशों का। एक इंसान सीमाएँ तोड़ने की कोशिश करता है और एक है जिसे पागल समझते हैं, वह सीमाएँ जोड़ रही है। दो देशों को राखी से बाँधने आई है।
फिर जमाने में भी तो बदलाव आ गया है। नयी पीढ़ी अपने हिसाब से जीना चाहती है। पश्चिमी सभ्यता का रंग उस पर चढ़ चुका है। बीस–पच्चीस सालों के बाद सबके साथ यही तो होने वाला है। वही एकाकी जीवन। बेटे कहाँ और बेटियाँ कहाँ औपचारिक रिश्ता रह जाएगा। यही तो खतरा है इस वैश्वीकरण, उपभोक्तावाद और भूमंडलीकरण का।
ये ही गरीब-मजदूर हैं जो खाली पेट काम पर जाते हैं और वह भी मात्र चालीस रुपये में यानी कि पूरे दिन। यह भी हो सकता है कि अगले दस सालों में अस्सी रुपये और अगले सालों में हो सकता है हजार रुपये प्रतिदिन पा लें लेकिन उस वक्त एक रोटी का दाम भी सौ रुपये से कम नहीं होगा।
उसकी बात सुनकर मुझे ऐसा लगा जैसे किसी ने मेरे सर पर हथौड़ा मार दिया हो। माँ और बहन दोनों जमींदार के चगुंल में यानी की पूरी का पूरी बंधक। बंधक भी ऐसी कि उन्हें छुड़ाने वाला भी कोई नहीं। देश को आजाद हुए वर्षों बीत गए लेकिन अभी भी लोग हैं इस धरती पर, जो गुलामी की जंजीरों से बंधे हुए हैं। जरूरत है एक और गाँधी की जो ऐसी जंजीरों को छिन्न-भिन्न कर दे।

लेखक की कलम से...

प्रिय पाठकों,
‘सोई माटी जाग’ मेरी एक और कृति आपके हाथों में है। इससे पहले मेरे सात कहानी संग्रह और दो उपन्यास आपके रूबरू हो चुके हैं। मेरी कहानी संग्रहों एवं उपन्यासों पर प्रकाशित अनगिनत समीक्षाएं एवं आपके ढेर सारे पत्रों ने मुझे उद्वेलित किया है मैं एक और नई कृति आपको पेश करूँ।

मैं आपका तहेदिल से स्वागत करता हूँ कि आपने मुझे पढ़ा, समझा और जाना। मुझे खुशी है कि कई पाठकों ने मेरी रचनाओं को दिल से समझा है और उन्हें सामाजिक प्रासंगिकता के साथ जोड़ा है। उन्हें यथार्थता के धरातल पर सही रचनाएँ बताया है। किसी भी लेखक के लिए इससे बड़ी समीक्षा कहीं नहीं हो सकती।

मुझे ढेरों पत्र मिले कि ‘सरहद पार मीलों दूर’ कहानी ‘माँ से कहना’ क्या वास्तविकता है ? मैंने सभी जगह एक ही जवाब दिया ‘हाँ’। पाठकों ने मुझसे पूछा कि इस पुस्तक की कहानी ‘सरहद पार मीलों दूर’ में कितनी सच्चाई है ? तो मैंने प्रमाणों सहित बताया कि वह पूरी सच्चाई पर आधारित है। साहित्य के लिए इससे बड़ी चीज और क्या हो सकती है कि तथ्यों पर आधारित वास्तविकता रचना ही उसका दर्पण है। गुजरात में भूकम्प पर आधारित ‘वेदनाएँ’ पर भी कई बार मुझसे पूछा गया। कि क्या आपने इसे झेला है, मतलब कि जिया है ? झेला है तभी तो लिखा है। वह मंजर, वह दुख और वह विभीषिका, ईश्वर करे किसी के भी जीवन में दुबारा कभी नहीं आए। क्या आप सैकड़ों और हजारों लाशों को एक साथ देख पाएँगे ? मान लीजिए देख भी लेंगे, तो क्या करेंगे ? क्या उन्हें जला पाएंगे, उन अनगिनत नर-नारियों के आँसूओं के बीच ? भला उन बच्चों की किलकारियों को महसूस कर पाएँगे जो गणतन्त्र दिवस पर तिरंगे को लेकर निकल पड़े थे, अंजार (गुजरात) कि गलियों में। शायद उन्होंने सपने में भी सोचा नहीं होगा कि वे शिकार होंगे उस भयानक त्रासदी के। सोचो, मैंने कितना दुःख महसूस किया होगा वहाँ। क्या मैं अगले दो महीने होश में आया होऊँगा ! बिलकुल नहीं।

सैकड़ों पत्र आते हैं ‘एक और पारो’ के कथानक पर। पश्चिमी बंगाल की पृष्ठभूमि पर रचित कथानक पर, पाठक अपने पत्रों के जरिए पूछते रहते हैं कि क्या यह वास्तविक है ? मेरा जवाब मात्र, ‘हाँ’। इसी कृति की दो कहानियों ‘भूँख’ एवं ‘कैंपस’ पर पाठकों की उस्तसुकता लगातार बनी हुई है कि क्या उन्हें मैंने जिया, भोगा या महसूस किया है। मेरा तो एक ही जवाब है ‘हाँ’। भला वह कौन सा लेखक होगा जिसने अपनी रचना को जिया या महसूस नहीं किया होगा।

प्रादेशिक स्तर पर ‘फूली देवा’ के कथानक पर कई सवाल पूछे जाते हैं कि यह कहानी कितनी सही है। मैं सोचने पर मजबूर हूँ कि इस प्रेम कहानी को उन प्रेम कहानियों में क्यों नहीं शामिल किया जहाँ हीर-राझाँ, सीरी-फरहाद एवं लैला-मजनूं ने कब्जा जमा रखा है। फूली देवा भी ऐसी प्रेम-कहानी है जो सामाजिक विसंगतियों की खाई को पाटने में माहिर है। यह कहानी उन विघटनों को एक करने में प्रमुख भूमिका अदा करने में सक्षम है जहां जाति-धर्म एवं ऊँच-नीच का भेदभाव है। फूली देवा का मंचन राष्ट्रीय स्तर पर होना इसका परिचायक है। मैं आभारी हूँ उन ‘आर्टिस्टों’ का जिन्होंने रंगमंच पर इस उपन्यास के पात्रों को जिया और निभाया।

‘युद्धबंदी’ उपन्यास के बारे में भी यही धारणा प्रखर हुई है। यह उपन्यास चर्चा का विषय बना हुआ है। शायद यही कारण रहा हो कि युद्धबंदियों पर रचित भारतीय इतिहास में यह पहला उपन्यास है। कोलकाता के ‘दैनिक सन्मार्ग’ में साल भर (2003-04) में यह प्रकाशित हुआ और अच्छी-खासी चर्चा का विषय रहा। उपन्यास पर पाठकों के सैकड़ों पत्र यह सिद्ध करते हैं कि पाठकों की कितनी रुचि इस उपन्यास में रही है। युद्धबंदियों के साथ इतना घिनौना सलूक एवं वह भी अपने ही मित्र देश द्वारा आश्चर्यचकित था जो विश्वसनीय होते हुए भी पाठक पचा नहीं पाते हैं। शायद बीसवीं शताब्दी की त्रासदात्मक घटनाओं में इतना बड़ा उदाहरण बहुत कम देखने को मिला है।

पाठकों ने मेरी अन्य रचनाओं जिनमें मुख्यतः ‘सरहद पार मीलों दूर’ ‘एक और पारो’ तथा ‘अन्धा कुआँ’ है’ को भी उतना ही सम्मान दिया। इन सबके लिए मैं अपने पाठकों का आभार प्रकट करता हूँ।
‘सोई माटी जाग’ मेरी ऐसी रचना है जिसमें चिंतन है बल्कि एक नया आयाम है जो एक विशेष दृष्टिकोण पर आधारित मेरी रचना में नारीवाद, भाईचारा एवं संवेदनाओं का मिश्रण है। आज के सामाजिक सम्बन्धों, रिश्तों तथा जीवन-मूल्यों पर आधारित कहानियों का चित्रण करने का मैंने पूरा प्रयास किया है। साथ ही आज के भूमण्डलीकरण, वैश्वीकरण तथा उपभोक्तावाद पर आधारित प्रश्नों के जवाब को भी ढूँढ़ने की कोशिश की है। इससे भी आगे, आज के युवाओं को झिंझोंड़ने का प्रयास किया है तथा वृद्ध होते रिश्तों को जिजीविषा की तरफ लाते हुए, जीने की कला की तरफ ध्यान खींचा है।

आज के परिवेश में जहाँ रिश्ते, मानवीय सम्बन्ध, संवेदनाएं एवं सभावनाएं एक हाशिए की तरफ जा रही हैं, उन्हें पृष्ठ के मध्य में लाना बहुत जरूरी है। इसमें ‘सोई माटी जाग’ एक महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करेगी, ऐसा मेरा विश्वास है।

यह कहना बहुत जरूरी है कि साहित्यकार आज के लेखकों की रचना कम पढ़ते हैं उनसे मेरा अनुरोध है कि वे पढ़ने की प्रवृति डालें और नई सोच को समझें तभी आज का एवं आने वाला साहित्य प्रासंगिक होगा वरना पुराने के चक्कर में यह भी दम तोड़ देगा।

एक महत्त्वपूर्ण बात और है, वह यह है कि साहित्यकार आपस में जुड़ें, भले ही उनकी विचारधारा अलग-अलग हो। असहमति को भी सुनना एवं समझना चाहिए। विभिन्न विचारधाराओं को लेकर तो साहित्यकार एक मंच पर इकट्ठे नहीं हो सकते। हाँ, साहित्य को साहित्य से जोड़ा जा सकता है और एक ऐसे मंच की स्थापना की जा सकती है जिसमें एक लेखक दूसरे को समझ सके। ‘बड़े बरगद’ का विचार त्यागना आज की जरूरत है वरना छोटे-बड़े का भेद साहित्य को और नीचे धकेलेगा। एक सुदृढ़ साहित्यिक मंच समाज को एक नई दिशा देगा, ऐसा मेरा विश्वास है। यही मंच समाज को जगायेगा भी और चेतना भी फूँकेगा वरना ‘अपनी-अपनी ढपली और अपना-अपना राग’ में सब कुछ बिखर जायेगा। सभी साहित्यकारों को इसे गम्भीर रूप से समझना है।
नयी पीढ़ी के साहित्य में वह खनखनाहट, स्तम्भन, उत्तेजना तथा महक है जिसे पढ़कर ही जाना जा सकता है। मात्र पुस्तक को भेंट करके, आज का लेखक सोचने लगता है कि उसने अपना काम कर दिया है। लेकिन जरूरत है उस पाठक की टिप्पणी की जो आज का साहित्य पढ़कर बता सके कि अब किस ओर जाना है वरना भूमंलीकरण, वैश्वीकरण और उपभोक्तावाद के जंजाल में आज के लेखक ही नहीं बल्कि पुराने लेखक भी फँस जायेंगे और वे दूर से सामाजिक ढाँचे को ढहते हुए ही नहीं बल्कि संस्कृति को भी नष्ट होने से रोक नहीं पाएँगे।

पाठकों, ‘सोई माटी जाग’ एक उदेश्य को लेकर लिखी गई कृति है जो आज की आधुनिकता पर केन्द्रित है। मुझे विश्वास है कि आप इसे पढ़ेंगे, समझेंगे एवं अपनी राय मुझे लिखेंगे।
आपका मार्गदर्शन एवं समीक्षा ही मेरी कलम है एवं असल लेखनी है।
धन्यवाद,


मेजर रतन जांगिड़
111/400 शिप्रापथ, मानसरेवर,


सोई माटी जाग



‘‘आपको कहाँ जाना है, मैं कई बार पूछ चुका हूँ।’’ कण्डक्टर ने फिर एक बार जोर से कहा।
वह सोते से जागी और बस कण्डक्टर की ओर देखने लगी। अनायास ही उसके मुँह से शब्द निकला,
‘‘कही नहीं।’’
‘‘यह आखिरी बस स्टेण्ड है, बस आगे नहीं जाएगी।’’
‘‘अं...।’’ वह धीरे से बोली।
‘‘अठारह रुपये किराया भी मैं कई बार माँग चुका हूँ।’’
‘‘अठारह रुपये !’’
‘‘हाँ।’’

वह अपने हाथ में थामे पर्स को खोलकर देखने लगी। उसमें कुछ पैसे थे। उसने उसमें से कुछ रुपये निकाले और कण्डक्टर को देने लगी।
‘‘यह तो मात्र पन्द्रह रुपये हैं।’’
‘‘मेरे पास और नहीं है।’’ उसने संक्षिप्त सा जवाब दिया।
‘‘ठीक है, बस से नीचे उतरिए।’’ कहकर कडक्टर ने बुरा-सा मुँह बनाया और नीचे खड़े व्यक्ति की तरफ देखकर बोला, ‘‘महारानी जी के पास किराया भी नहीं है। पता नहीं इन्हें....।’’
‘‘रहने दीजिए न। नहीं होगा पास में पैसा।’’ उस व्यक्ति ने ऐसा कहकर कण्डक्टर को चुप करा दिया।

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