आधुनिक >> मिठाई वाला मिठाई वालाआर. के. नारायण
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द वेन्डर ऑफ स्वीट्स का विस्तृत हिन्दी अनुवाद....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
प्रस्तुत उपन्यास, अंग्रेज़ी में लिखने वाले भारतीय लेखकों में अग्रगण्य
श्री आर. के. नारायण के उपन्यास ‘द वेन्डर ऑफ़
स्वीटस’ का
विस्तृत (बिना काट-छांट के) हिन्दी अनुवाद है। यह उपन्यास सन 1967 में
प्रकाशित हुआ था।
श्री नारायण की गणना शीर्षस्थ साहित्यकारों में है। उनके उपन्यास पर बनी ‘गाइड’ नामक फ़िल्म से सभी परिचित हैं। उन्हें भारत सरकार द्वारा पद्म भूषण पद्म विभूषण की उपाधियों से साम्मानित किया गया था तथा विदेशों द्वारा भी विभिन्न उपाधियाँ व सम्मान प्रदान किए गए थे।
श्री नारायण के अन्य उपन्यासों की भाँति इस उपन्यास की पृष्ठभूमि भी मालगुडी नामक छोटा-सा काल्पनिक दक्षिण भारतीय नगर है। इसका नायक जगन एक सीधा-सादा सिद्धान्तवादी व्यक्ति व संपन्न मिष्ठान विक्रेता है। उसके जीवन में सबसे बड़ा तूफान आता है। उसके मातृहीन एकलौते पुत्र माली के कारण जो अमेरिका जाकर वहाँ से एक विदेशी लड़की को साथ ले आता है। अपने सिद्धांतों का परित्याग करने में असमर्थ जगन अंत में पुत्र-मोह का त्याग कर अपने वर्तमान जीवन व परिवेश से पलायन कर जाता है।
प्राचीनता व आधुनिकता के टकराव का, पुरानी व नई पीढियों के अंतराल का इस उपन्यास में यथार्थ व सजीव चित्रण है। कदम-कदम पर हास्य व व्यंग्य की विविध छटाएँ दर्शनीय हैं।
श्री नारायण की गणना शीर्षस्थ साहित्यकारों में है। उनके उपन्यास पर बनी ‘गाइड’ नामक फ़िल्म से सभी परिचित हैं। उन्हें भारत सरकार द्वारा पद्म भूषण पद्म विभूषण की उपाधियों से साम्मानित किया गया था तथा विदेशों द्वारा भी विभिन्न उपाधियाँ व सम्मान प्रदान किए गए थे।
श्री नारायण के अन्य उपन्यासों की भाँति इस उपन्यास की पृष्ठभूमि भी मालगुडी नामक छोटा-सा काल्पनिक दक्षिण भारतीय नगर है। इसका नायक जगन एक सीधा-सादा सिद्धान्तवादी व्यक्ति व संपन्न मिष्ठान विक्रेता है। उसके जीवन में सबसे बड़ा तूफान आता है। उसके मातृहीन एकलौते पुत्र माली के कारण जो अमेरिका जाकर वहाँ से एक विदेशी लड़की को साथ ले आता है। अपने सिद्धांतों का परित्याग करने में असमर्थ जगन अंत में पुत्र-मोह का त्याग कर अपने वर्तमान जीवन व परिवेश से पलायन कर जाता है।
प्राचीनता व आधुनिकता के टकराव का, पुरानी व नई पीढियों के अंतराल का इस उपन्यास में यथार्थ व सजीव चित्रण है। कदम-कदम पर हास्य व व्यंग्य की विविध छटाएँ दर्शनीय हैं।
रमा तिवारी
प्राक्कथन
श्री आर. के. नारायण (रसीपुरम कृष्णास्वामी नारायणस्वामी) उन
गिने-चुने भारतीय लेखकों में से हैं जिन्होंने विदेशी भाषा में
साहित्य-सृजन किया और अंतरर्राष्टीय ख्याति प्राप्त की। आज वे हमारे मध्य
नहीं हैं किंतु साहित्य-जगत में उनका स्थान शीर्ष पर है और रहेगा। उनके
सुप्रसिद्ध कथा-संग्रह ‘मालगुडी डेज़’ (जो
‘मालगुडी
डेज़’ और ‘मालगुडी की दुनिया’ नामक दो
भागों में
प्रकाशित हो चुका है) तथा एक उपन्यास ‘द बैचलर ऑफ़
आर्टस’
(‘स्नातक’) का हिंदी में अनुवाद इससे पूर्व कर चुकी
हूँ।
श्री नारायण का जन्म 10 अक्टूबर 1906 को मद्रास (दक्षिण भारत) में हुआ था तथा शिक्षा मद्रास व मैसूर में। सन 1930 में 24 वर्ष की आयु में उन्होंने बी. ए. की परीक्षा पास की थी। उनका प्रथम उपन्यास ‘स्वामी एण्ड फ्रेन्डस’ 1935 में तथा दूसरा ‘द बैचलर ऑफ आर्ट्स’ 1937 में प्रकाशित हुआ था। इसके अतिरिक्त उनके अन्य उपन्यास हैं: ‘द डार्क रूम’ (1938); ‘दि इंगलिश टीचर’ (1945); ‘मिस्टर संपत’ (1949); ‘द फाइनेन्शल एक्सपर्ट’ (1952); ‘वेटिंग फॉर द महात्मा’ (1955) ‘द गाइड’ (1958); ‘द मैन ईटर ऑफ मालगुडी’ (1962); ‘द वेन्डर ऑफ स्वीटस’ (1967); ‘द पेन्टर ऑफ साइन्स’ (1976); ‘अ टाइगर फॉर मालगुडी’ (1983); ‘टॉकेटिव मैन’ (1986); तथा ‘द वर्ल्ड ऑफ नागराज’ (1990); उनके दो उपन्यासों-‘मिस्टर संपत’ और ‘द गाइड’ पर फिल्में बन चुकी हैं।
‘द गाइड’ पर तो हिंदी व अंग्रेजी दोनों भाषाओं में फिल्म बनी है। अंग्रेजी वाली फिल्म के संवाद नोबेल पुरस्कार विजेता चीनी लेखिका पर्ल एस. बक ने लिखे थे। अपने इस उपन्यास के लिए श्री नारायण को अपने देश का सर्वोच्च सम्मान-भारतीय साहित्य अकादमी का राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त हुआ। उनके छः कहानी-संग्रह (‘अ हार्स एण्ड टू गोट्स’; ‘एन एस्ट्रोलोजर्स डे एण्ड अदर स्टोरीज’; ‘लॉली रोड’; ‘मालगुडी डेज़’; ‘गैण्डमदर्स टेल’; तथा ‘अंडर द बनियन ट्री’) भी प्रकाशित हुए हैं। इसके अतिरिक्त उन्होंने दो यात्रा पुस्तकें (‘माई डेटलेस डायरी’ और ‘दि एमेरल्ड रूट’); पाँच निबन्ध संग्रह (‘नेक्स्ट संडे’, ‘रिलेक्टेन्ट गुरु’, ‘अ राइटर्स नाइट मेयर’, ‘अ स्टोरीटेलर्स वर्ल्ड’ और ‘सॉल्ट एण्ड सॉ डस्ट’); भारतीय पौराणिक ग्रंथों पर तीन पुस्तकें (‘द रामायण’, ‘द महाभारत’ और ‘गाड्स, डीमन्स एण्ड अदर्स’) तथा ‘माइ डेज़’ नामक स्मृति-ग्रंथ भी लिखा है।
वर्ष 1964 में श्री नारायण को भारत सरकार द्वारा ‘पद्म भूषण’ की उपाधि से सम्मानित किया गया। दिल्ली सहित अनेक विश्वविद्यालयों ने उन्हें डी. लिट. की उपाधि प्रदान की। वे
ऑस्टिन (टैक्सास) विश्वविद्यालय के विज़िटिंग प्रोफेसर भी रहे। वर्ष 1980 में उन्हें ब्रिटेन में रॉयल सोसायटी ऑफ लिट्रेचर द्वारा ए. सी. बेन्सन पदक प्रदान किया गया। संयुक्त राष्ट्र अमेरिका में वे इंगलिश स्पीकिंग यूनियन द्वारा पुरस्कृत किए गए और 1981 में उन्हें अमेरिकन अकादमी एवं कला व साहित्य संस्थान की मानद सदस्यता प्रदान की गयी (वे दूसरे भारतीय व्यक्ति थे जिसे यह सम्मान प्रदान किया गया था। उससे पूर्व, संगीत (सितार वादन) के क्षेत्र में पंडित रविशंकर को यह सम्मान प्राप्त हुआ था)। चूँकि श्री नारायण व्यक्तिगत रूप से इस सम्मान को प्राप्त करने के लिए अमेरिका नहीं जा पाए थे, अतः 18 जनवरी, 1982 को अमेरिकन दूतावास रूज़वेल्ट हाऊस में आयोजित एक शानदार समारोह में भारत में अमेरिका के राजदूत श्री हैरी एस. बार्नस द्वारा श्री नारायण को यह सम्मान प्रदान किया गया।
वर्ष 1989 में उन्हें राज्य सभा की सदस्यता प्रदान की गयी और वर्ष 2000 में उन्हें पद्मविभूषण की उपाधि से विभूषित किया गया। मई 2001 में, 94 वर्ष की आयु में, उनका देहांत हो गया।
श्री नारायण ने अपनी कहानियों व उपन्यासों की रचना एक छोटे से काल्पनिक दक्षिण भारतीय कस्बे –मालगुडी की पृष्ठभूमि में की है। ‘‘आखिर मालगुडी है कहाँ ?’’ यह प्रश्न उनके सभी पाठकों के मन में उठता है और इस बात पर आसानी से विश्वास नहीं होता कि यह स्थान वास्तविक नहीं, बल्कि कोरी कल्पना की उपज है। श्री नारायण ने स्वयं इस बात की पुष्टि की थी कि यह क्षेत्र पूर्णताः काल्पनिक है जिसमें उन्होंने अपनी आवश्यकता व सुविधा के अनुसार कहीं नदी तट, कहीं होटल व रेस्त्रां, कहीं बस्तियाँ, कहीं डाकखाने, कहीं वन-क्षेत्र, कहीं क्लीनिक, कहीं स्कूल, कहीं, कॉलेज, कहीं पहाड़ियाँ, कहीं मंदिर आदि की कल्पना कर ली है। किंतु इसका चित्रण इतना सजीव है कि यह स्थान वास्तविक और यथार्थ ही प्रतीत होता है। और बात केवल स्थान की ही नहीं है। इसके निवासी, यानी उपन्यासों के पात्र भी इतने यथार्थ व सजीव प्राप्त होते हैं कि वे मात्र क्षेत्रीय नहीं रह जाते, बल्कि, पाठक को ऐसा लगता है कि स्थान व वातावरण के थोड़े से अंतर को छोड़कर वे उसके अपने आसपास ही फैले हैं। उनमें हमें अपने ही समाज के जीते जागते लोग दिखाई देते हैं। उनमें सहजता है, स्वाभाविकता है, जीवन का स्पंदन है। चाहे वह राजू (‘द गाइड’) हो, स्वामी (‘स्वामी एण्ड फ्रेन्डस’) हो, कृष्णन (‘दि इंगलिश टीचर’) हो, चंद्रन (‘द बैचलर ऑफ आर्ट्स’) हो, जगन (ज वेन्डर ऑफ स्वीटस) हो अथवा अन्य कोई पात्र हो। विषय वस्तु का विषद ज्ञान, वर्णन तथा कथोपकथन की सजीवता, सूक्ष्म मनोभावों का चित्रण तथा रोचक, विनोदपूर्ण शैली इन सभी कहानी उपन्यासों की विशेषता है। छोटी-छोटी व साधारण लगने वाली दैनिक बातों व चेष्टाओं के ताने-बाने से असाधारण व अविस्मरणीय साहित्य की रचना करने में श्री नारायण सिद्धहस्त हैं।
प्रस्तुत उपन्यास ‘मिठई वाला’ (द वेन्डर ऑफ़ स्वीट्स) की कर्मभूमि भी श्री नारायण के अन्य उपन्यासों की भाँति मालगुडी ही है। इस उपन्यास का नायक साठ वर्षीय विधुर जगन एक सरल प्रकृति का व्यक्ति व संपन्न मिष्ठान विक्रेता है, जो गाँधी के सिद्धान्तों व प्राकृतिक संतुलित जीवन-शैली का अनुयायी है। ‘सादा जीवन व उच्च विचार’ उसका आदर्श है। उसके जीवन में सबसे बड़ा संघर्ष व तूफ़ान आता है उसके मातृहीन इकलौते पुत्र माली के कारण, और वह तूफ़ान उसका समस्त सुख-चैन छीनकर उसकी सीधी-सादी दुनिया को डाँवाडोल कर जाता है। राष्ट्रभक्त जगन का पुत्र माली अपने पिता का मिठाई का कारोबार सँभालना अपनी प्रतिष्ठा के विरुद्ध समझता है। वह पिता की इच्छा के विरुद्ध अमेरिका चला जाता है और वहाँ से एक विदेशी लड़की को साथ ले आता है। जगन के पुत्र-प्रेम व नैतिक आदर्शों के बीच में निरंतर द्वन्द चलता रहता है जो उसे छिन्न-भिन्न कर देता है और अंत में वह अपने अंतःकरण की प्रेरणा के अनुसार पुत्र-मोह को तिलांजलि देकर अपने वर्तमान जीवन व परिवेश से पलायन कर जाता है।
एक साधारण-सा दुकानदार व सीधा-सादा इंसान होने पर भी जगन का चरित्र पाठक के मर्म को स्पर्श करता है। वह अपनी सरलता, निश्छलता व मानवीयता से पाठकों के मन में जो स्थान बना लेता है, वह उसे सहज ही नायक के पद पर प्रतिष्ठित कर देता है। ऐसा सहज-सरल व्यक्तित्व भी समय आने पर पाषाण-शिला के समान अडिग साबित होता है। अपने एकमात्र पुत्र के प्रति ममता भी उसे उसके आदर्शों से डिगाने में समर्थ नहीं होती, बल्कि अपने बेटे के जेल जाने पर यही कहता है कि इस अनुभव (अथवा दण्ड) से उसे लाभ ही होगा।
प्राचीनता व आधुनिकता से टकराव का, पुरानी व नई पीढ़ी के बीच अंतराल (जेनरेशन गैप) का, जो अब घर-घर में दिखाई देता है और इस युग की एक भारी समस्या बन गया है, यह उपन्यास बड़ी संजीदगी से अहसास करवाता है।
श्री नारायण के अन्य उपन्यासों की भाँति इसमें भी हास्य व वयंग्य के अनेकों रंग और विविध छटाएँ देखने को मिलती हैं। जगन पक्के गाँधीवादी हैं। विक्रय-कर देने के मामले में उनके मन में उलझन इसलिए है कि इस विषय मे गाँधी जी ने कुछ कहा ही नहीं, कह दिया होता तो वे सहर्ष विक्रय-कर दे देते। संवाद जानदार और हास्यमय चुटकियों से भरपूर हैं।
भावनाओं व मनोवृत्तियों का चित्रण जितना सूक्ष्म है, घटनाओं का वर्णन भी उतना ही वास्तविक तथा हृदयग्राही है। बचपन में जगन व उसके बड़े भाई की घर के पिछवाड़े की झाड़ियों में टिड्डे पकड़ने की हॉबी; बड़े भाई का बड़े-बड़े टिड्डे अपने बड़े डिब्बे में एकत्र करना व छोटे वाले क्षुद्र टिड्डे छोटे भाई के डिब्बे में सरका देना तथा छोटे का विवश होकर उनकी उसी अनुकंपा पर संतोष करना; छोटी बहन का पीछे से चुपचाप आकर देखना व बड़ों से शिकायत की धमकी देना तथा बड़े भाई के डराने-धमकाने पर चीखते हुए भागना बचपन की सरलता व शरारत का मिला-जुला अनूठा चित्र प्रस्तुत करते हैं।
पारिवारिक समारोहों के विस्तृत वर्णन अत्यंत्य रोचक यथार्थ हैं तथा उनमें धरती की खुशबू है। इन्हें पढ़कर पाठक के सम्मुख दक्षिण भारत के विभिन्न विविध रीति-रिवाज (जो न्यूनाधिक रूप से वैसे ही हैं जैसे भारत के अन्य प्रदेशों में) मूर्तिमान हो उठते हैं। किसी भी माहौल का सूक्ष्म वर्णन करके श्री नारायण मानो आँखों के सामने उसका चित्र-सा खड़ा कर देते हैं। पारिवारिक कलह का चित्रण भी अत्यंत सहज, सजीव व स्वाभाविक है।
संक्षेप में कहा जा सकता है कि यह उपन्यास जगन के लोकप्रिय मिष्ठान्न प्रतिष्ठान की विशुद्ध व सुस्वादु मिठाइयों की ही भाँति उत्तम, चित्ताकर्षक, मधुर, सरस, रुचिकर, वैविध्यपूर्ण, आनंददायक, कुशल हाथों द्वारा तथा गुणवत्ता व ताज़गी से भरपूर है, आस्वादनीय है।
श्री नारायण का जन्म 10 अक्टूबर 1906 को मद्रास (दक्षिण भारत) में हुआ था तथा शिक्षा मद्रास व मैसूर में। सन 1930 में 24 वर्ष की आयु में उन्होंने बी. ए. की परीक्षा पास की थी। उनका प्रथम उपन्यास ‘स्वामी एण्ड फ्रेन्डस’ 1935 में तथा दूसरा ‘द बैचलर ऑफ आर्ट्स’ 1937 में प्रकाशित हुआ था। इसके अतिरिक्त उनके अन्य उपन्यास हैं: ‘द डार्क रूम’ (1938); ‘दि इंगलिश टीचर’ (1945); ‘मिस्टर संपत’ (1949); ‘द फाइनेन्शल एक्सपर्ट’ (1952); ‘वेटिंग फॉर द महात्मा’ (1955) ‘द गाइड’ (1958); ‘द मैन ईटर ऑफ मालगुडी’ (1962); ‘द वेन्डर ऑफ स्वीटस’ (1967); ‘द पेन्टर ऑफ साइन्स’ (1976); ‘अ टाइगर फॉर मालगुडी’ (1983); ‘टॉकेटिव मैन’ (1986); तथा ‘द वर्ल्ड ऑफ नागराज’ (1990); उनके दो उपन्यासों-‘मिस्टर संपत’ और ‘द गाइड’ पर फिल्में बन चुकी हैं।
‘द गाइड’ पर तो हिंदी व अंग्रेजी दोनों भाषाओं में फिल्म बनी है। अंग्रेजी वाली फिल्म के संवाद नोबेल पुरस्कार विजेता चीनी लेखिका पर्ल एस. बक ने लिखे थे। अपने इस उपन्यास के लिए श्री नारायण को अपने देश का सर्वोच्च सम्मान-भारतीय साहित्य अकादमी का राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त हुआ। उनके छः कहानी-संग्रह (‘अ हार्स एण्ड टू गोट्स’; ‘एन एस्ट्रोलोजर्स डे एण्ड अदर स्टोरीज’; ‘लॉली रोड’; ‘मालगुडी डेज़’; ‘गैण्डमदर्स टेल’; तथा ‘अंडर द बनियन ट्री’) भी प्रकाशित हुए हैं। इसके अतिरिक्त उन्होंने दो यात्रा पुस्तकें (‘माई डेटलेस डायरी’ और ‘दि एमेरल्ड रूट’); पाँच निबन्ध संग्रह (‘नेक्स्ट संडे’, ‘रिलेक्टेन्ट गुरु’, ‘अ राइटर्स नाइट मेयर’, ‘अ स्टोरीटेलर्स वर्ल्ड’ और ‘सॉल्ट एण्ड सॉ डस्ट’); भारतीय पौराणिक ग्रंथों पर तीन पुस्तकें (‘द रामायण’, ‘द महाभारत’ और ‘गाड्स, डीमन्स एण्ड अदर्स’) तथा ‘माइ डेज़’ नामक स्मृति-ग्रंथ भी लिखा है।
वर्ष 1964 में श्री नारायण को भारत सरकार द्वारा ‘पद्म भूषण’ की उपाधि से सम्मानित किया गया। दिल्ली सहित अनेक विश्वविद्यालयों ने उन्हें डी. लिट. की उपाधि प्रदान की। वे
ऑस्टिन (टैक्सास) विश्वविद्यालय के विज़िटिंग प्रोफेसर भी रहे। वर्ष 1980 में उन्हें ब्रिटेन में रॉयल सोसायटी ऑफ लिट्रेचर द्वारा ए. सी. बेन्सन पदक प्रदान किया गया। संयुक्त राष्ट्र अमेरिका में वे इंगलिश स्पीकिंग यूनियन द्वारा पुरस्कृत किए गए और 1981 में उन्हें अमेरिकन अकादमी एवं कला व साहित्य संस्थान की मानद सदस्यता प्रदान की गयी (वे दूसरे भारतीय व्यक्ति थे जिसे यह सम्मान प्रदान किया गया था। उससे पूर्व, संगीत (सितार वादन) के क्षेत्र में पंडित रविशंकर को यह सम्मान प्राप्त हुआ था)। चूँकि श्री नारायण व्यक्तिगत रूप से इस सम्मान को प्राप्त करने के लिए अमेरिका नहीं जा पाए थे, अतः 18 जनवरी, 1982 को अमेरिकन दूतावास रूज़वेल्ट हाऊस में आयोजित एक शानदार समारोह में भारत में अमेरिका के राजदूत श्री हैरी एस. बार्नस द्वारा श्री नारायण को यह सम्मान प्रदान किया गया।
वर्ष 1989 में उन्हें राज्य सभा की सदस्यता प्रदान की गयी और वर्ष 2000 में उन्हें पद्मविभूषण की उपाधि से विभूषित किया गया। मई 2001 में, 94 वर्ष की आयु में, उनका देहांत हो गया।
श्री नारायण ने अपनी कहानियों व उपन्यासों की रचना एक छोटे से काल्पनिक दक्षिण भारतीय कस्बे –मालगुडी की पृष्ठभूमि में की है। ‘‘आखिर मालगुडी है कहाँ ?’’ यह प्रश्न उनके सभी पाठकों के मन में उठता है और इस बात पर आसानी से विश्वास नहीं होता कि यह स्थान वास्तविक नहीं, बल्कि कोरी कल्पना की उपज है। श्री नारायण ने स्वयं इस बात की पुष्टि की थी कि यह क्षेत्र पूर्णताः काल्पनिक है जिसमें उन्होंने अपनी आवश्यकता व सुविधा के अनुसार कहीं नदी तट, कहीं होटल व रेस्त्रां, कहीं बस्तियाँ, कहीं डाकखाने, कहीं वन-क्षेत्र, कहीं क्लीनिक, कहीं स्कूल, कहीं, कॉलेज, कहीं पहाड़ियाँ, कहीं मंदिर आदि की कल्पना कर ली है। किंतु इसका चित्रण इतना सजीव है कि यह स्थान वास्तविक और यथार्थ ही प्रतीत होता है। और बात केवल स्थान की ही नहीं है। इसके निवासी, यानी उपन्यासों के पात्र भी इतने यथार्थ व सजीव प्राप्त होते हैं कि वे मात्र क्षेत्रीय नहीं रह जाते, बल्कि, पाठक को ऐसा लगता है कि स्थान व वातावरण के थोड़े से अंतर को छोड़कर वे उसके अपने आसपास ही फैले हैं। उनमें हमें अपने ही समाज के जीते जागते लोग दिखाई देते हैं। उनमें सहजता है, स्वाभाविकता है, जीवन का स्पंदन है। चाहे वह राजू (‘द गाइड’) हो, स्वामी (‘स्वामी एण्ड फ्रेन्डस’) हो, कृष्णन (‘दि इंगलिश टीचर’) हो, चंद्रन (‘द बैचलर ऑफ आर्ट्स’) हो, जगन (ज वेन्डर ऑफ स्वीटस) हो अथवा अन्य कोई पात्र हो। विषय वस्तु का विषद ज्ञान, वर्णन तथा कथोपकथन की सजीवता, सूक्ष्म मनोभावों का चित्रण तथा रोचक, विनोदपूर्ण शैली इन सभी कहानी उपन्यासों की विशेषता है। छोटी-छोटी व साधारण लगने वाली दैनिक बातों व चेष्टाओं के ताने-बाने से असाधारण व अविस्मरणीय साहित्य की रचना करने में श्री नारायण सिद्धहस्त हैं।
प्रस्तुत उपन्यास ‘मिठई वाला’ (द वेन्डर ऑफ़ स्वीट्स) की कर्मभूमि भी श्री नारायण के अन्य उपन्यासों की भाँति मालगुडी ही है। इस उपन्यास का नायक साठ वर्षीय विधुर जगन एक सरल प्रकृति का व्यक्ति व संपन्न मिष्ठान विक्रेता है, जो गाँधी के सिद्धान्तों व प्राकृतिक संतुलित जीवन-शैली का अनुयायी है। ‘सादा जीवन व उच्च विचार’ उसका आदर्श है। उसके जीवन में सबसे बड़ा संघर्ष व तूफ़ान आता है उसके मातृहीन इकलौते पुत्र माली के कारण, और वह तूफ़ान उसका समस्त सुख-चैन छीनकर उसकी सीधी-सादी दुनिया को डाँवाडोल कर जाता है। राष्ट्रभक्त जगन का पुत्र माली अपने पिता का मिठाई का कारोबार सँभालना अपनी प्रतिष्ठा के विरुद्ध समझता है। वह पिता की इच्छा के विरुद्ध अमेरिका चला जाता है और वहाँ से एक विदेशी लड़की को साथ ले आता है। जगन के पुत्र-प्रेम व नैतिक आदर्शों के बीच में निरंतर द्वन्द चलता रहता है जो उसे छिन्न-भिन्न कर देता है और अंत में वह अपने अंतःकरण की प्रेरणा के अनुसार पुत्र-मोह को तिलांजलि देकर अपने वर्तमान जीवन व परिवेश से पलायन कर जाता है।
एक साधारण-सा दुकानदार व सीधा-सादा इंसान होने पर भी जगन का चरित्र पाठक के मर्म को स्पर्श करता है। वह अपनी सरलता, निश्छलता व मानवीयता से पाठकों के मन में जो स्थान बना लेता है, वह उसे सहज ही नायक के पद पर प्रतिष्ठित कर देता है। ऐसा सहज-सरल व्यक्तित्व भी समय आने पर पाषाण-शिला के समान अडिग साबित होता है। अपने एकमात्र पुत्र के प्रति ममता भी उसे उसके आदर्शों से डिगाने में समर्थ नहीं होती, बल्कि अपने बेटे के जेल जाने पर यही कहता है कि इस अनुभव (अथवा दण्ड) से उसे लाभ ही होगा।
प्राचीनता व आधुनिकता से टकराव का, पुरानी व नई पीढ़ी के बीच अंतराल (जेनरेशन गैप) का, जो अब घर-घर में दिखाई देता है और इस युग की एक भारी समस्या बन गया है, यह उपन्यास बड़ी संजीदगी से अहसास करवाता है।
श्री नारायण के अन्य उपन्यासों की भाँति इसमें भी हास्य व वयंग्य के अनेकों रंग और विविध छटाएँ देखने को मिलती हैं। जगन पक्के गाँधीवादी हैं। विक्रय-कर देने के मामले में उनके मन में उलझन इसलिए है कि इस विषय मे गाँधी जी ने कुछ कहा ही नहीं, कह दिया होता तो वे सहर्ष विक्रय-कर दे देते। संवाद जानदार और हास्यमय चुटकियों से भरपूर हैं।
भावनाओं व मनोवृत्तियों का चित्रण जितना सूक्ष्म है, घटनाओं का वर्णन भी उतना ही वास्तविक तथा हृदयग्राही है। बचपन में जगन व उसके बड़े भाई की घर के पिछवाड़े की झाड़ियों में टिड्डे पकड़ने की हॉबी; बड़े भाई का बड़े-बड़े टिड्डे अपने बड़े डिब्बे में एकत्र करना व छोटे वाले क्षुद्र टिड्डे छोटे भाई के डिब्बे में सरका देना तथा छोटे का विवश होकर उनकी उसी अनुकंपा पर संतोष करना; छोटी बहन का पीछे से चुपचाप आकर देखना व बड़ों से शिकायत की धमकी देना तथा बड़े भाई के डराने-धमकाने पर चीखते हुए भागना बचपन की सरलता व शरारत का मिला-जुला अनूठा चित्र प्रस्तुत करते हैं।
पारिवारिक समारोहों के विस्तृत वर्णन अत्यंत्य रोचक यथार्थ हैं तथा उनमें धरती की खुशबू है। इन्हें पढ़कर पाठक के सम्मुख दक्षिण भारत के विभिन्न विविध रीति-रिवाज (जो न्यूनाधिक रूप से वैसे ही हैं जैसे भारत के अन्य प्रदेशों में) मूर्तिमान हो उठते हैं। किसी भी माहौल का सूक्ष्म वर्णन करके श्री नारायण मानो आँखों के सामने उसका चित्र-सा खड़ा कर देते हैं। पारिवारिक कलह का चित्रण भी अत्यंत सहज, सजीव व स्वाभाविक है।
संक्षेप में कहा जा सकता है कि यह उपन्यास जगन के लोकप्रिय मिष्ठान्न प्रतिष्ठान की विशुद्ध व सुस्वादु मिठाइयों की ही भाँति उत्तम, चित्ताकर्षक, मधुर, सरस, रुचिकर, वैविध्यपूर्ण, आनंददायक, कुशल हाथों द्वारा तथा गुणवत्ता व ताज़गी से भरपूर है, आस्वादनीय है।
रमा तिवारी
1
‘‘स्वाद पर विजय पा ली जाये तो स्वयं पर विजय प्राप्त
हो
जायेगी,’’ जगन ने अपने श्रोता से कहा। श्रोता ने पलट
कर पूछा,
‘‘स्वयं पर विजय किसलिए ?’’ जगन
ने उत्तर दिया
:‘‘यह तो मैं नहीं जानता, किंतु सभी संतों ने यही
शिक्षा दी
है।’’
श्रोता ने आगे कोई प्रश्न नहीं पूछा। वास्तव में उसे इस विषय में कोई रुचि नहीं थी। उसने जगन की कुरसी के पास रखे स्टूल पर बैठते हुए केवल बातचीत को आगे बढ़ाने की दृष्टि से ही प्रश्न पूछा था। जगन की कुरसी की ओर दीवार पर देवी लक्ष्मी की एक फ्रेम वाली तश्वीर लटकी हुई थी। जगन हर सुबह तश्वीर को ताजे मोगरे की माला पहनाते थे और अगरबत्ती जलाकर दीवार की एक दरार में खोंस देते थे। अतः वातावरण में मोगरे और अगरबत्ती की खुशबू भरी हुई थी जो हॉल के पार उस घी में तली जाने वाली मिठाइयों की खुशबू में मिली जा रही थी।
श्रोता, यानी रमन, जगन के दूर के रिश्ते के भाई थे, यद्यपि वह रिश्ता समझ में आने जैसा नहीं था क्योंकि वह शहर के और भी कई लोगों को अपने रिश्ते के भाई बताते थे जो कभी-कभी असंगत व अविश्वसनीय प्रतीत होता था। हाँ, आवश्यकता पड़ने पर वे तरह-तरह की वंशावली का लंबा-चौड़ा वर्णन करके अविश्वास करने वाले व्यक्ति को निरुत्तर अवश्य कर देते थे। वे रोजाना सुबह से शाम तक पूरा शहर नाप लेते थे। कई स्थानों पर कई घरों में तो वे रोज नियमित रूप से जाने जाते थे, जिनमें से जगन की दुकान भी एक थी। रोज साढ़े चार बजे दुकान में आकर वे इशारे से जगन को अभिवादन करते और सीधे दुकान की रसोई वाले हिस्से में चले जाते। दस मिनट बाद वे अपने कंधे पर अँगोछे से मुँह पोंछते हुए आते और मिठाइयों के विषय में तरह-तरह से अपना मत प्रकट करते, जैसे : ‘‘शक्कर की स्थिति विचारणीय है। मैंने सुना है कि सरकार कीमत बढ़ाने वाली है। गेहूँ का आटा आज बिल्कुल सही है।
श्रोता ने आगे कोई प्रश्न नहीं पूछा। वास्तव में उसे इस विषय में कोई रुचि नहीं थी। उसने जगन की कुरसी के पास रखे स्टूल पर बैठते हुए केवल बातचीत को आगे बढ़ाने की दृष्टि से ही प्रश्न पूछा था। जगन की कुरसी की ओर दीवार पर देवी लक्ष्मी की एक फ्रेम वाली तश्वीर लटकी हुई थी। जगन हर सुबह तश्वीर को ताजे मोगरे की माला पहनाते थे और अगरबत्ती जलाकर दीवार की एक दरार में खोंस देते थे। अतः वातावरण में मोगरे और अगरबत्ती की खुशबू भरी हुई थी जो हॉल के पार उस घी में तली जाने वाली मिठाइयों की खुशबू में मिली जा रही थी।
श्रोता, यानी रमन, जगन के दूर के रिश्ते के भाई थे, यद्यपि वह रिश्ता समझ में आने जैसा नहीं था क्योंकि वह शहर के और भी कई लोगों को अपने रिश्ते के भाई बताते थे जो कभी-कभी असंगत व अविश्वसनीय प्रतीत होता था। हाँ, आवश्यकता पड़ने पर वे तरह-तरह की वंशावली का लंबा-चौड़ा वर्णन करके अविश्वास करने वाले व्यक्ति को निरुत्तर अवश्य कर देते थे। वे रोजाना सुबह से शाम तक पूरा शहर नाप लेते थे। कई स्थानों पर कई घरों में तो वे रोज नियमित रूप से जाने जाते थे, जिनमें से जगन की दुकान भी एक थी। रोज साढ़े चार बजे दुकान में आकर वे इशारे से जगन को अभिवादन करते और सीधे दुकान की रसोई वाले हिस्से में चले जाते। दस मिनट बाद वे अपने कंधे पर अँगोछे से मुँह पोंछते हुए आते और मिठाइयों के विषय में तरह-तरह से अपना मत प्रकट करते, जैसे : ‘‘शक्कर की स्थिति विचारणीय है। मैंने सुना है कि सरकार कीमत बढ़ाने वाली है। गेहूँ का आटा आज बिल्कुल सही है।
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